एक पेड़ था
एक नाम था उसका
एक कुल खानदान भी था उसका
एक दिन
टूटकर गिरा धरती पर
और इसकी धमक सुनी गई
भाषा की छाती पर
एक नदी थी
धीरे-धीरे जिसने बहना बंद किया
और एक दिन दम तोड़ दिया उसने
अपने ही किनारों पर
इसकी आखरी हिचकी भी
सुनी गई भाषा की धड़कनों में...
हजारों फूल थे, पहाड़ थे
परिंदे और जीव-जंतु थे
बेशुमार रंग और शेड्स थे
एक दिन गायब हो गए दृश्य से
और आखरी बार देखे गए
भाषा की अँधेरी गली में...
बेशुमार चीजें थीं
मामूली
बेहद मामूली सी
पर जिनकी तरफ देखो
तो विस्मय से भर देती थीं
एक दिन
अपनी उपेक्षा से दुखी होकर
सबने छोड़ दिया
भाषा का घर।