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कविता

चाकू

मणि मोहन


एक अजीब सा नैसर्गिक रिश्ता था
चाकू और हत्यारे के बीच
एक जरा सी अनुक्रिया पर
वो बाहर निकल आता
खुल जाता
शरीर के जिस हिस्से में चाहता हत्यारा
बेखौफ चाकू घुस जाता...

चाकू के ठंडे स्वप्न में
दूर-दूर तक नहीं आता
अच्छे-बुरे का कोई ख्याल ...

वह देखता
तमाशबीनों के कदमों तक
बहते हुए खून को !
वह देखता
अपने अपने घरों
और इबादतगाहों तक
लौटते
खून से सने कदमों के निशान...

चाकू
फिर लौट जाता
हत्यारे की
अंतरात्मा की
अँधेरी गुफा में
साक्षी भाव से ...


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