बुद्ध की
इस विराट नगरी में
कैसी पावन-सी लहरियाँ
डोलती है चारों ओर !
बुद्ध के आने से पहले कैसा रहा होगा वह गाँव !
क्या सदियों से कोई सुजाता
कर रही थी बुद्ध की प्रतीक्षा
शांति का ठौर तब भी रहा होगा
अब भी है वहाँ धरा की कुछ शांति और नीरवता
संभवतः लीन है वे भी साधना में
बढ़ी है भीड़ थोड़ी
जरा शोर भी मुखरित हुआ सा लगता है
है निरंतर आना-जाना
प्रवासी, अप्रवासियों का
तब भी है अनुशासन
अपने गरिमामय लिबास में
समय चक्र अपनी धुरी पर जमा
उस विशाल वृक्ष की पत्तियाँ भी
डोलती हैं हौले से
उनके हिलने में कोई शोर नहीं है
जैसे वे बुद्ध के दर्शन को
आत्मसात कर ली हों !