कुछ चीजें नही रहतीं समय के साथ
बदल लेती हैं अपनी सूरत और स्वभाव।
जैसे किसी भी किसान के हाथों में
नहीं नजर आती अब अलसुबह से शाम तक
बंजर खेत की जुताई के दौरान
कील लगी बाँस की लकड़ी/परानिया
और ना ही कमजोर बैल के पुट्ठों पर
बचा है अब इतना मांस
जो अनदेखी कर दे दर्द की पराकाष्ठा
बढ़ाता चला जाए अपनी रफ्तार
वैसे भी कितने कुछ रह गए है अब बैल
धरती को आहिस्ता-आहिस्ता जोतने के लिए
गड़ारों की धूल से उकताए
खंडित बैलगाड़ी के पहिए
कबाड़ की शक्ल में पड़े हैं
गाँव के बाहर पगडंडी के समीप
जो कभी-कभार याद दिला देते हो शायद
कुरुक्षेत्र में लड़े किसी विकट योद्धा की।
और तो और थान के थान दिखने वाले खेत
समय के साथ तब्दील हो गए है
छोटे-छोटे रूमालों की शक्ल में
कुछ बीघा-बिसवों में
पटवारी के बस्ते में बंद खेतों की नकलें
बढ़ा रही है किसी न किसी बैंक का ग्राफ
सही है कुछ चीजें नही रहती समय के साथ
बदल लेती हैं अपनी उपयोगिता व स्थान।
जैसे बीते बैसाख के अंधड़ ने
बूढ़े बरगद की वो डाली भी ला पटकी जमीन पर
जिस डाली पर गुजरी सदी के प्रारंभ में
सत्ता-मद में चूर एक राजा ने
मुक्ति के आकांक्षी एक बागी को
लटकवा दिया था सबके समक्ष
फाँसी के फंदे पर।
अब तो वो बरगद भी नहीं रहा
गाँव के बीचों-बीच
हालाँकि वो राजा, वो हुकूमत भी नहीं रही अब
जिसके अट्टहास में दबी रह गई
कइयों की सिसकियाँ/रुदन/किलकारियाँ
आज उस जगह खड़ा हो रहा है पंचायत भवन
और बरगद की परछाईं तक लगी है
मनरेगा की मस्टरोल में नाम तलाशते
युवाओं की लंबी कतार।