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कविता

तुम और मैं

ओम नागर


तुम मंच पर
मैं फर्श पर बैठा हूँ
एक सच्चे सामाजिक की तरह

तुम्हें चिंता है अपने कलफ लगे कुर्ते पर
सिलवट उतर आने की
मुझे तो मुश्किल हो रहीं यह सोचते
कि अभी और कितनी खुरदरी करनी हैं तुम्हें
तथाकथित तरक्की की राह

तुम किस अजाने भय से रहते हो इन दिनों
डरो नहीं, कुर्सियाँ किसी की सगी नहीं हुई
तुम्हारी भी नहीं होंगी, यही सच है

मुझे क्या, तुम्हारी सारी कुर्सियाँ मुबारक तुम्हें
मैं तो तुम्हारे भाषण के कूड़े से
बेशकीमती कौड़ी ढूँढ़ रहा था बस
फिर भी तुम हो कि तुम्हारे चेहरे से डर की
छाया नहीं जाती
सियासत में इतना डर ठीक नहीं

तुम कुर्सियों के इर्द-गिर्द पक्का कर रहे हो अपना बचना
ऐसे में तुम में जो मनुष्यता बचनी थी, नहीं बची

मेरा क्या मैं तो रचता रहूँगा शब्द
यूँ ही अनवरत
जिन शब्दों को ब्रह्म होने का वरदान है

तुम मेरे रचने से डर रहे हो
रचो, रचो मेरे रचने के खिलाफ कोई साजिश रचो
जो तुम मंच के लिए भी यही रचते रहे, रचो बेधड़क
मैं मनुष्यता के लिए रच रहा हूँ शब्द
फिर भी डर रहे हो तुम।
 


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