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कविता

कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !

ओम नागर


न धूल न धुआँ हैं
समय एक अंधा कुआँ हैं
तपती खूब दुपहरी अब तो
बची न थोड़ी छाँव रे बंधु !
कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !

न बैल बचे न गायों के झुंड
साँझ न गरद उड़ाती आती
गलियों के मुँह सँकरे-सँकरे
एक बात पर सौ-सौ नखरे
सबके आसमान में पाँव रे बंधु !
कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !

मोटियारों की भीड़ बहुत हैं
राजनीति के गौत्र बहुत हैं
आठों पहर हैं मुँह में गुटखा
मोबाइल का हाथ में खटका
सब कोरी काँव-काँव रे बंधु !
कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !

कुएँ कूड़ेदान हुए सब
सूखा पड़ा हुआ तालाब
हरित हुई खेतों की काया
गहरे नलकूपों की माया
कैसे चलती रेत में नाव रे बंधु !
कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !

घर में पेट जितने गेहूँ बोएँ
लहसुन की आभा में खोएँ
अलसी धनिया का अब हेरा
उठा खेत से सौरम-डेरा
इस धरती के गहरे घाव रे बंधु !
कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !

माटी, बेटी, साहूकार का
हमको कर्ज चुकाकर जाना
खुद की परछाईं से आगे
सूद सीढ़ियाँ नभ को नापे
बैंक-आगे चले न कोई दाँव रे बंधु !
कभी आना हमारे गाँव रे बंधु !!
 


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