कौन कवि
और कैसी कविता
काहे शब्दों का सिर धुनता है
तुम्हरा कहा कौन सुनता है
जर्दा खाएँ मास्टर प्यारे
छोरें डस्टर चोर तुम्हारे
क ख ग घ भूल गए सब
नाव गई मस्तूल गए सब
काहे बिना बात कुढ़ता है
तुम्हरा कहा कौन सुनता है
मक्का कटती सरसों लिखते
अभी-अभी को परसों लिखते
खेत की मिट्टी देखी नाहीं
इन्कलाब की करें उगाहीं
काहे न धरती से जुड़ता है
तुम्हरा कहा कौन सुनता है
समय हुआ बहुत बलवंता
घाट-घाट पर साधू संता
जंतर-मंतर सुखिया तंतर
मनुज न जाने कोई अंतर
काहे बंद गली में मुड़ता है
तुम्हरा कहा कौन सुनता है।।