दुख जब-जब भी बरसा
मेरे मन की धरती पर
तब-तब तेरी यादें तिरपाल बन
ढाँकती रही मेरे संपूर्ण अस्तित्व को
और बचाती रहीं विपरीत
मौसमों की मार से।
मौसम बदलते है
बदलते रहेंगे,
जमीन न बदली / न बदलेगी
पोसरी हुई भी कभी तो
यादें ही दृढ़ बनाती रही
विश्वास के रजकणों को
ताकि खूँटियों की जकड़न
वैसी-की-वैसी बनी रहे ताउम्र।
और रहे भी क्यों नहीं
एक बाशिंदा वो भी तो है
उसकी अपनी चीजें भी तो रखी है
किसी कोने में रखें
पुराने बक्से के पेंदे में बिछे
अखबार के नीचे।
और कौन होगा भला जो
अपनी चीजों को न सँभाले
हम बनजारों का क्या
कबीले आज यहाँ तो कल वहाँ
यह तो
उम्र भर का सिलसिला है
बसना, उजड़ना, फिर बसना।