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कविता

किताबों की बातें

ओम नागर


किताबें न होती
तो न होती किताबों की बातें
और न ही होता जीवन इतना खूबसूरत
अक्सर बातों में किताबों का जिक्र
ऐसे ही करती है वो!

जब भी सघन अँधेरे में डूबा उसका इर्द-गिर्द
तो इन्हीं किताबों के कई-कई पात्र
अपनी पोली मुट्ठियों में दमकाते रहे जुगनू

जब कुछ भी नहीं रहा आस-पास
सन्नाटे के सिवा
दुख भड़भड़ाता आया जो भीतर
नहीं लौटा फिर
किताबें ही थी जो गाहे बगाहे दिखाती रहीं
अंदर के दुखों को बाहर का रास्ता

जिस सिरहाने पर सिर रखकर सोती वो !
वह किताबों का भी सिरहाना रहा
जब कभी कुर्सी पर बैठे ली उनींदी अँगड़ाई
तो मेज से गिर कर बोल उठी किताबें
कि उन्हें कब पढ़ा जाना है अभी

हवा आती
फड़फड़ाने लगते किताबों के कोमल पंख
उड़ जाने के भय से
बोलने वाली किताबें कर देती बंद
उसका कमरा किताबों का कैदखाना

उसकी रूह
किताबों की बस्ती की बाशिंद
उसका चेहरा
किताबों के शब्दों से लेता रोशनाई उधार
उसकी बातें
किताबों की बातों से होती है मुकम्मल
उसकी साँसों की
मुलायम आवाजाही चीन्ह लेते है अक्सर
किताबों के दुनियाई हातिम।
 


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