(एक)
शायद किसी भी भाषा के शब्द कोश में
अपनी पूरी भयावहता के साथ
मौजूद रहने वाला शब्द है भूख
जीवन में कई-कई बार
पूर्ण विराम की तलाश में
कौमाओं के अवरोध नही फलाँग पाती भूख।
पूरे विस्मय के साथ
समय के कंठ में
अर्द्धचंद्राकार झूलती रहती है
कभी न उतारे जा सकने वाले गहनों की तरह।
छोटी-बड़ी मात्राओं से उकताई
भूख की बारहखड़ी
हर पल गढ़ती है जीवन का व्याकरण।
आखिरी साँस तक फड़फड़ाते हैं
भूख के पंख
कठफोड़े की लहूलुहान सख्त चोंच
अनथक टीचती रहती है
समय का काठ।
भूख के पंजों में जकड़ी यह पृथ्वी
अपनी ही परिधि में
सरकती हुई
लौट आती है आरंभ पर
जहाँ भूख की बदौलत
बह रही होती है
एक नदी।
(दो)
एक दिन
भूख के भूकंप से
थरथरा उठेंगी धरा
इस थरथराहट में
तुम्हारी कँपकँपाहट का
कितना योगदान
यह शायद तुम भी नहीं जानते
तनें के वजूद को कायम रखने के लिए
पत्त्तियों की मौजूदगी की
दरकार का रहस्य
जंगलों ने भरा है अग्नि का पेट।
भूख ने हमेशा से बनाए रखा
पेट और पीठ के दरमियाँ
एक फासला
पेट के लिए पीठ ने ढोया
दुनिया भर का बोझा
पेट की तलवार का हर वार सहा
पीठ की ढाल ने।
भूख के विलोम की तलाश में निकले लोग
आज तलक नही तलाश सकें
पर्याय के भँवर में डूबती रही
भूख का समाधान।
(तीन)
इन दिनों
जितनी लंबी फेहरिस्त है
भूख को
भूखों मारने वालों की
उससे कई गुना भूखे पेट
फुटपाथ पर बदल रहे होते हैं करवटें।
इसी दरमियाँ
भूख से बेकल एक कुतिया
निगल चुकी होती है अपनी ही संतानें
घीसू बेच चुका होता है कफन
काल कोठरी से निकल आती है बूढ़ी काकी
इरोम शर्मिला चानू पूरा कर चुकी होती है
भूख का एक दशक।
यहाँ हजारों लोग भूख काटकर
देह की ज्यामिति को साधने में जुटे रहते हैं आठों पहर
वहाँ लाखों लोग पेट काटकर
नीड़ों में सहमे चूजों के हलक में
डाल रहे होते है दाना।
एक दिन भूख का बवंडर उड़ा ले जाएगा अपने साथ
तुम्हारे चमचमाते नीड़
अट्टालिकाओं पर फड़फड़ाती झंडियाँ
हो जाएगी लीर-लीर
फिर भूख स्वयं गढ़ेगी अपना अधिनियम।