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कविता

ढाई आखर

ओम नागर


लाख चौकस रखिए
अपनी खुली आँखें आठों पहर
फूल के खिलने का सही अंदाज
न तितली को पता होता है
और न भँवरे को सुनाई देती
कोई मुनादी

लाख अच्छी है
आपकी घ्राण शक्ति
नाक के नथुनों को चाहे भले
कोई अलहदा खुशबू
की पहचान हो मुक्कमल
पर भाव के भूखे रहे है सदा ईश्वर
जो दो अगरबत्तियों, बसंदर
में नहीं ढूँढ़ते होंगे
पूजा की कोई नई भिन्न महक

लाख बेहतर सुनते है
आपके दो कान
बारीक, मोटी और कर्कश
जो भी बोलते है उसकी दस्तक
दो और कान तक पहुँचती है
जरूर
पर कान है कि
बाँसुरी की आवाज पर
हो जाते है सजीव
बाँस की इस विरलता है ने उसे
कृष्ण के होठों
शोभा बना दिया।

लाख सुनिए कानों से
लाख देखिए आँखों से
लाख खुशबू से भरा है चमन
लाख स्पर्श
पर लाख नहीं बोलती जुबाँ
यहाँ ढाई आखर में
मिल जाता है
सृष्टि सृजना का सूत्र।
 


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