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कविता

कविताएँ
जोश मलीहाबादी


  1. इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
  2. क़दम इंसान का राहे-दहर में
  3. क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की
  4. नराए-शबाब
  5. शिकस्‍ते-ज़िंदां का ख़्वाब
  1. हिन्‍दोस्‍ताँ के वास्‍ते
  2. आसारे - इंक़िलाब
  3. ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां
  4. आदमी
  5. इबादत ( गीत)

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में
इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है

जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं
इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है

मगर जब शुक्र-ए-ने'मत में जबीं झुकती है बन्दे की
वो सच्ची बन्दगी है इक शरीफ़ाना इत'अत [1] है

कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दाआ [2] हो जा
ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा [3] हो जा

उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई
उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना [4] हो जा

[1] समर्पण
[2] किसी के लक्ष्‍य की तरु ध्‍यान न दे
[3] खुदा का भक्‍त
[4] मौत के गहरे समुनदर में डूब

 

क़दम इंसान का राहे-दहर में

क़दम इंसान का राह-ए-दहर [5] में थर्रा ही जाता है
चले कितना ही कोई बच के ठोकर खा ही जाता है

नज़र हो ख़्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आश्ना [6] फिर भी
हुजूम-ए-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है

ख़िलाफ़-ए-मसलेहत [7] मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तहय्युर [8] आ ही जाता है

हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएँ आँधियाँ बनकर
मगर जो घिर के आता है वो बादल छा ही जाता है

शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फ़ितरत है इंसान की
मुसीबत में ख़याल-ए-ऐश-ए-रफ़्ता आ ही जाता है

समझती हैं म'आल [9] -ए-गुल मगर क्या ज़ोर-ए-फ़ितरत है
सहर होते ही कलियों को तबस्सुम आ ही जाता है

[5] जीवन की राह
[6] सच्‍चाई को चाहने वाला
[7] समझदारी के उलट
[8] बदलाव
[9] नतीजा

 

क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की

क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की
के अब हवस है अजल को गले लगाने की

वहाँ से है मेरी हिम्मत की इब्तिदा अल्लाह
जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने की

फुँका हुआ है मेरे आशियाँ का हर तिनका
फ़लक को ख़ू है तो है बिजलियाँ गिराने की

हज़ार बार हुई गो मआलेगुल से दोचार
कली से ख़ू न गई फिर भी मुस्कुराने की

मेरे ग़ुरूर के माथे पे आ चली है शिकन
बदल रही है तो बदले हवा ज़माने की

चिराग़-ए-दैर-ओ-हरम कब के बुझ गए ऐ 'जोश'
हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की

 

नराए-शबाब

होशियार ! अपनी मताए-रहबरी से होशियार
अय ख़लिश नाआशना पीरी-ओ-शैबे-हिरज़ाकार
उड़ गया रूए-ज़मीं ओ-आस्‍मां से रंगे-ख़्वाब
झिलमिलाती शम्अ रुख़्सत हो कि उभरा आफ़ताब
हट कि सई-ओ-अमल की राह में आता हूं मैं
ख़ल्‍क़ वाक़िफ़ है कि जब आता हूं छा जाता हूं मैं


अय क़दामत ! यह युली है सामने राहे-फ़रार
भाग वह आया नयी तहज़ीब का पर्वरदिगार
काम है मेरा तग़ैयुर नाम है मेरा शबाब
मेरा नारा इंक़िलाब-ओ-इंक़िलाब-ओ-इंक़िलाब
कोई क़ूवत राह से मुझको हटा सकती न‍हीं
कोई ज़र्बत मेरी गर्दन को झुका सकती नहीं

रंग सूरज का उड़ाता है मिरे सिने का दाग़
बादे-सरसर का बदल देता है रूख़ मेरा चराग़
संग-ओ-आहन में मिरी नज़रों से चुभ जाती है फांस
आंधियों की मेरे मैदां में उखड़ जाती है सांस
देखकर मेरे जुनूं को नाज़ फ़रमाते हुए मौत शर्माती है
मेरे सामने आते हुए अल अमां अब कड़कती है

अल अमां किब्र-ओ-रिया आलूदापीरी
तिरे सर पर जवानी की कमां
हां तू ही है वह, जुनूं ने जिसके टुकड़े कर दिया
सुब्‍ह-ओ-ज़ुन्‍नार की उलझन में रिश्‍ता क़ौम का
हो जो ग़ैरत डूब मर, यह उम्र, यह दरसे-जुनूं
दुश्‍मनों की ख़्वाहिशे-तक़सीम के सैदे-ज़बूं
यह सितम क्‍या अय कनीज़े-कुफ़्र-ओ-ईमां कर दिया
भाइयों को गाय और बाजे पे क़ुर्बां कर दिया


कर दिया तूले-ग़ुलामी ने तुझे कोतह ख़याल
झुरिंयां हैं यह तिरे मुंह पर कि ग़द्दारी का जाल
देखती है सिर्फ अपने ही को अय धुंधली निगाहें
सर भड़क उठता है लेकिन है अभी तक दिल सियाह
इब्‍ने-आदम और रेंगे ख़ाक पर ! अल्‍लाह रे क़हर
सांप का इस रेंगने से आ गया है मुझमें ज़हर
पोपले मुंह ख़त्‍म कर यह आक़िबत बीनी का शोर
देख अब बुज़दिल मिरे नाआक़िबत बीनी का ज़ोर


चेहर:ए-इमरोज़ है मेरे लिए माहे-तमाम
ख़ौफ़े-फ़र्दा है मिरी रंगीं शरीअत में हराम
तैर जाती है दिले-फ़ौलाद में मेरी नज़र
ख़ून मेरा ख़ंदाज़न रहता है मौज़े-बर्क़ पर
और तमन्‍नाएं हैं तेरी सिसकियां भरती हुई
ऊंघती, कुढ़ती, बिलखती, कांपती, डरती हुई

तेरी बातों से पड़ी जाती है कानों में ख़राश '
'कुफ्र-ओ-ईमां'' ''कुफ्र-ओ-ईमां'' ता कुजा ख़ामोशबास
हुब्‍बे-इंसां, ज़ौक़े-हक़, ख़ौफ़े-ख़ुदा कुछ भी नहीं
तेरा ईमां चंद वहमों के सिवा कुछ भी नहीं
तेरे झूठे कुफ़्र-ओ-ईमां को मिटा डालूंगा मैं
हड्डियां इस कुफ़्र-ओ-ईमां की चबा डालूंगा मैं


वलवले मेरे बढ़ेंगे नाज़ फ़रमाते हुए
फ़िर्काबंदी को सरे-नापाक ठुकराते हुए
डाल दूंगा तर्हे-नौ "अजमेर'' और "परयाग'' में
झोंक दूंगा कुफ़्र-ओ-ईमां को
दहकती आग में एक दीने-नौ की लिखूंगा किताबे-ज़रफ़शां
सब्‍त होगा जिसकी ज़र्री जिल्‍द पर ''हिन्‍दोस्‍तां''
इस नये मज़हब पे सारे तफ़रिक़े वारूंगा मैं
तुझपे फिर गर्दन हिलाकर क़हक़हे मारूंगा मैं


फिर उठूंगा अब्र के मानिंद बल खाता हुआ
घूमता, घिरता, गरजता, गूंजता, गाता हुआ
वलवलों से बर्क़ के मानिंद लहराया हुआ
मौत के साये में रहकर, मौत पर छाया हुआ
ख़ून में लिथड़ी बिसाते-कुफ़्र-ओ-दीं उलटे हुए
फ़ख़्र से सीने को ताने, आस्‍तीं उलटे हुए

कौसर-ओ-गंगा को इक मर्कज़ पे लाऊं तो सही
इक नया संगम ज़माने में बनाऊं तो सही

 

शिकस्‍ते-ज़िंदां का ख़्वाब

क्‍या हिन्‍द का ज़िंदां कांप रहा है, गूंज रही है तकबीरें
उक्‍ताये हैं शायद कुछ क़ैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें

दीवारों के नीचे आ आ कर यूं जमा हुए हैं ज़िन्‍दानी
सीनों में तलातुम बिजली की, आंखों में झलकती शमशीरें

भूकों की नज़र में बिजली है तोपों के दहाने ठंडे हैं
तक़दीर के लब को जुम्बिश है दम तोड़ रही हैं तदबीरें

आंखों में गदा की सुर्ख़ी है, बेनूर है चेहरा सुलतां का
तख़रीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें

क्‍या उनको ख़बर थी ज़ेर-ओ-ज़बर रखते थे जो रूहे-मिल्‍लत को
उबलेंगे ज़मीं से मारे-सियह बरसेंगी फ़लक से शमशीरें

क्‍या उनको ख़बर थी सीनों से जो ख़ून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बेरंगी से झलकेंगी हज़ारों तस्‍वीरें

क्‍या उनको ख़बर थी होंठों पर जो क़ुफ़्ल लगाया करते थे
इक रोज़ इसी ख़ामोशी से टपकेंगी दहकती तक़रीरें

संभलो कि वह ज़िन्‍दां गूंज उठा, झपटो कि वह क़ैदी छूट गये
उट्ठो कि वह बैठीं दीवारें, दौड़ो कि वह टूटीं ज़ंजीरें

 

हिन्‍दोस्‍ताँ के वास्‍ते

मज़हबी इख़लाक़ के जज़्बे को ठुकराता है जो
आदमी को आदमी का गोश्‍त खिलवाता है जो

फर्ज़ भी कर लूँ कि हिन्‍दू हिन्‍द की रुसवाई है
लेकिन इसको क्‍या करूँ फिर भी वो मेरा भाई है

बाज़ आया मैं तो ऐसे मज़हबी ताऊन से
भाइयों का हाथ तर हो भाइयों के ख़ून से

तेरे लब पर है इराक़ो-शामो-मिस्रो-रोमो-चीं
लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ़ नहीं

सबसे पहले मर्द बन हिन्‍दोस्‍ताँ के वास्‍ते
हिन्‍द जाग उट्ठे तो फिर सारे जहाँ के वास्‍ते

 

आसारे - इंक़िलाब

क़सम इस दिल की, चस्‍का है जिसे सहबापरस्‍ती का
यह दिल पहचानता है जो मिज़ाज अशियाए-हस्‍ती का

क़सम इन तेज़ किरनों की कि हंगामे-कदहनौशी
सुना करते हैं जो रातों को बहर-ओ-बर की सरगोशी

क़सम उस रूह की, ख़ू है जिसे फ़ितरतपरस्‍ती की
गिना करती है रातों को जो ज़र्बे क़ल्‍बे-हस्‍ती की

क़सम उस ज़ौक़ की हावी है जो आसारे-क़ुदरत पर
ज़मीरे-कायनात आईना है जिसकी लताफ़त पर

क़सम उस हिस की जो पहचान के तेवर हवाओं के
सुनाती है ख़बर तूफ़ान की तूफ़ान से पहले

क़सम उस नूर की कश्‍ती जो इन आंखों की खेता है
जो नक़्शे-पा के अंदर अज़्मे-रहरव देख लेता है

क़सम उस फ़िक्र की, सौगंद उस तख़इले-मोहकम की
जो सुनती है सदाएं जुम्बिशे-मिज़ग़ाने-आलम की

क़सम उस रूह की जो अर्श को रिफ़अत सिखाती है
कि रातों को मिरे कानों में यह आवाज़ आती है

^^उठो वह सुबह का ग़ुर्फा खुला ज़ंजीरे-शब टूटी
वह देखो पौ फटी, ग़ुंचे खिले, पहली किरन फूटी

उठो, चौंको, बढ़ो मुंह हाथ धो, आंखों को मल डालो
हवाए - इंक़िलाब आने को है हिन्‍दोस्‍तां वालो**

 

ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां

ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा
अलविदा ऐ सरज़मीन-ए-सुबह-ए-खन्दां अलविदा
अलविदा ऐ किशवर-ए-शेर-ओ-शबिस्तां अलविदा
अलविदा ऐ जलवागाहे हुस्न-ए-जानां अलविदा
तेरे घर से एक ज़िन्दा लाश उठ जाने को है
आ गले मिल लें कि आवाज़-ए-जरस आने को है
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा

हाय क्या-क्या नेमतें मुझ को मिली थीं बेबहा
यह खामोशी यह खुले मैदान यह ठन्डी हवा
वाए, यह जां बख्श गुस्ताहाए रंगीं फ़िज़ां
मर के भी इनको न भूलेगा दिल-ए-दर्द आशना
मस्त कोयल जब दकन की वादियों में गायेगी
यह सुबह की छांव बगुलों की बहुत याद आएगी
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.

कल से कौन इस बाग़ को रंगीं बनाने आएगा
कौन फूलों की हंसी पर मुस्कुराने आएगा
कौन इस सब्ज़े को सोते से जगाने आएगा
कौन जागेगा क़मर के नाज़ उठाने के लिये
चांदनी रातों को ज़ानू पर सुलाने के लिये
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.

आम के बाग़ों में जब बरसात होगी पुरखरोश
मेरी फ़ुरक़त में लहू रोएगी चश्मे मय फ़रामोश
रस की बूंदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश
कुंज-ए-रंगीं में पुकारेंगी हवाएँ 'जोश जोश'
सुन के मेरा नाम मौसम ग़मज़दा हो जाएगा
एक मह्शर सा गुलिस्तां में बपा हो जाएगा
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.

आ गले मिल लें खुदा हाफ़िज़ गुलिस्तान-ए-वतन
ऐ अमानीगंज के मैदान ऐ जान-ए-वतन
अलविदा ऐ लालाज़ार-ओ-सुम्बुलिस्तान-ए-वतन
अस्सलाम ऐ सोह्बत-ए-रंगीं-ए-यारान-ए-वतन
हश्र तक रहने न देना तुम दकन की खाक में
दफ़न करना अपने शाएर को वतन की खाक में
ऐ मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.

 

आदमी

ख़ुशियॉं मनाने पर भी है मजबूर आदमी
ऑंसू बहाने पर भी है मजबूर आदमी
और मुस्‍कराने पर भी है मजबूर आदमी
दुनिया में आने पर भी है मजबूर आदमी
दुनिया से जाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी [10]
मजबूरो-दिलशिकस्‍ता-ओ-रंजूर [11] आदमी
ऐ वाये आदमी

क्‍या बात आदमी की कहूँ तुझसे हमनशीं
इस नातवॉं के क़ब्‍ज़ा-ए-कुदरत में कुछ नहीं
रहता है गाह हुजरा-ए-एजाज़ [12] में मकीं [13]
पर जिन्‍दगी उलटती है जिस वक़्त आस्‍तीं
इज़्ज़त गँवाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

इन्‍सान को हवस है जिये सूरते-खिंजर [14]
ऐसा कोई जतन हो कि बन जाइये अमर
ता-रोजे-हश्र मौत न फटके इधर-उधर
पर ज़ीस्‍त जब बदलती है करवट कराह कर
तो सर कटाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

दिल को बहुत है हँसने-हँसाने की आरज़ू
हर सुबहो-शाम जश्‍न मनाने की आरज़ू
गाने की और ढोल बजाने की आरज़ू
पीने की आरज़ू है पिलाने की आरज़ू
और ज़हर खाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

हर दिल में है निशातो-मसर्रत की तश्‍नगी
देखो जिसे वो चीख़ रहा है ''ख़शी, ख़शी''
इस कारगाहे-फित्‍ना में लेकिन कभी-कभी
फ़रज़न्‍दे-नौजवानो-उरूसे-जमील [15] की
मय्यत उठाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

हर दिल का हुक्‍म है कि रफ़ाक़त [16] का दम भरो
अहबाब को हँसाओ मियॉं, आप भी हँसो
छूटे न दोस्‍ती का तअ़ल्‍लुक़, जो हो सो हो
लेकिन ज़रा-सी देर में याराने-ख़ास को
ठोकर लगाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

मक्‍खी भी बैठ जाये कभी नाक पर अगर
ग़ैरत से हिलने लगता है मरदानगी का सर
इज़्ज़त पे हर्फ आये तो देता है बढ़ के सर
और गाह [17] रोज़ ग़ैर के बिस्‍तर पे रात भर
जोरू सुलाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

रिफ़अ़त-पसंद [18] है बहुत इन्‍सान का मिज़ाज
परचम उड़ा के शान से रखता है सर पे ताज
होता है ओछेपन के तसव्‍वुर से इख्तिलाज [19]
लेकिन हर इक गली में ब-फ़रमाने-एहतजाज [20]
बन्‍दर नचाने पर भी है मजबूर आदमी
ऐ वाये आदमी

दिल हाथ से निकलता है जिस बुत की चाल से
मौंजें लहू में उठती हैं जिसके ख़्याल से
सर पर पहाड़ गिरता है जिसके मलाल से
यारो कभी-कभी उसी रंगीं-जमाल [21] से
आँखें चुराने पर भी है मजबूर आदमी

ऐ वाये आदमी

[10] वाह रे आदमी
[11] विवश, भग्‍न हृदय, शोकग्रस्‍त
[12] आध्‍यात्मिक उपासना की कोठरी
[13] वासी
[14] एक दीर्घ-आयु पैग़म्‍बर खिज्र की तरह
[15] नौजवान बेटे और सुन्‍दर दुल्‍हन
[16] मित्रता
[17] कभी
[18] ऊंचाई को पसन्‍द करने वाला
[19] हृदय-कंपन
[20] आज्ञानुसार
[21] अति सुन्‍दरी

 

इबादत (गीत)

नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी
दुनिया यही दुनिया है तो क्‍या याद रहेगी

आकाश पे निखरा हुआ सूरज का है मुखड़ा
और धरती पे उतरे हुए चेहरों का है दुखड़ा

दुनिया यही दुनिया है तो क्‍या याद रहेगी
नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी

कब होगा सवेरा ? कोई ऐ काश बता दे
किस वक़्त तक, ऐ घूमते आकाश, बता दे

इन्‍सान पर इन्‍सान की बेदाद रहेगी
नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी

चहकार से चिड़ियों की चमन गूँज रहा है
झरनों के मधुर गीत से बन गूँज रहा है
पर मेरा तो फ़रियाद से मन गूँज रहा है
कब तक मेरे होंटो पे ये फ़रियाद रहेगी
नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी

इश्रत का उधर नूर, इधर ग़म का अँधेरा
साग़र का उधर दौर, इधर ख़श्‍क ज़बॉं है
आफ़त का ये मंज़र है, क़यामत का समॉं है
आवाज़ दो इन्‍साफ़ को इन्‍साफ़ कहाँ है

रागों की कहीं गूँज, कहीं नाला-ओ-फ़रियाद
नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद
नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी

हर शै में चमकते हैं उधर लाख सितारे
हर आँख से बहते हैं इधर खून के धारे
हँसते हैं चमकते हैं उधर राजदुलारे
रोते हैं बिलखते हैं इधर दर्द के मारे

इक भूख से आज़ाद तो सौ भूख से नाशाद
नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद
नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी

ऐ चॉंद उमीदों को मेरी शमअ़ दिखा दे
डूबे हुए खोये हुए सूरज का पता दे
रोते हुए जुग बीत गया अब तो हँसा दे
ऐ मेरे हिमालय मुझे ये बात बता दे
होगी मेरी नगरी भी कभी ख़ैर से आज़ाद
नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद

नगरी मेरी कब तक युँही बरबाद रहेगी
दुनिया यही दुनिया है तो क्‍या याद रहेगी

 

 


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हिंदी समय में जोश मलीहाबादी की रचनाएँ