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कहानी

मुआवजा

दिनेश भट्ट


रात के आठ बज चुके हैं। पंडिताइन परेशान है। पांडे जी अभी तक नहीं लौटे। टीवी पर लगातार दिल दहला देने वाली न्यूज आ रही हैं। आज तीन दिसंबर है भोपाल गैस त्रासदी की बरसी। भोपाल और हबीबगंज स्टेशन के बीच गैस पीड़ितों ने रेल रोको आंदोलन कर रखा है। नौजवान, बूढ़े, बच्चे, औरतें रेल पटरी पर लेटे हुए हैं। 'एंडरसन को भारत लाओ' - 'गैस पीड़ितों का मुआवजा पाँच लाख करो' - ये नारे गूँज रहे हैं। पुलिस उन्हें समझा रही है। हटाने की कोशिश कर रही है। भीड़ पटरी पर डटी हुई है। आठ घंटे हो गए। सारी ट्रेनें रोक दी गई हैं। प्लेटफार्मों पर यात्री बेचैन हैं, कब पहुँचेंगे अपने गंतव्य पर। लेकिन इन पीड़ितों की बेचैनी का क्या? जो पिछले पच्चीस साल से गैस त्रासदी की पीड़ा को झेल रहे हैं। मौत क्या होती है? इन्होंने देखी, साँस की कीमत क्या होती इनसे बेहतर कोई नहीं जान सकता। इन्हें मुआवजा के नाम पर झुनझुना पकड़ा दिया गया। पच्चीस साल में पूरी एक पीढ़ी जवान हो गई, बड़े मुआवजे और एंडरसन को लेकर पूरी राज्य व्यवस्था आज भी कटघरे में है। दो-दो बड़ी सरकारें आईं और चली गईं, पटरी पर लेटी भीड़ दोनों की नाकामियों का नतीजा है।

अचानक टीवी पर उभरे दृश्य को देखकर पंडिताइन घबरा जाती हैं। पुलिस ने प्रदर्शनकारी भीड़ पर लाठी चार्ज कर दिया है। पानी की बौछारें और अश्रु गैस का इस्तेमाल भी किया जा रहा है। भीड़ अब तितर-बितर हो रही है। बूढ़े, बच्चे, औरतें चीखते-चिल्लाते, नारे लगाते इधर-उधर भाग रहे हैं।

पंडिताइन की पेशानी पर बल पड़ने लगे। इसी भीड़ मे कहीं पांडे जी होंगे। सत्तर साल के बूढ़े हैं, कान में मशीन लगी है, घुटने जवाब दे चुके हैं, फेफड़ों को मुई जहरीली गैस ने पच्चीस साल से खराब कर रखा है, चार कदम चलेंगे तो हाँफने लगेंगे लेकिन बुढ़ऊ लाख समझाने पर भी चले गए गैस पीड़ितों की नेतागिरी करने। अब खाएँगे पुलिस के डंडे। लो भाई मिल गया इनको पाँच लाख मुआवजा...। अरे पेंशन से गुजारा तो चल रहा है। मुआवजा सबको मिलेगा तो इन्हें भी मिल जाएगा लेकिन मानेंगे कहाँ बुढ़ऊ। मोबाईल भी बंद कर रखा है। हाय राम, क्या करूँ, किसे भेजूँ? नीचे सानू को बोलती हूँ शायद आरिफ को भेज दे। आरिफ मियाँ भी क्या जाएँगे। हैं भी या नहीं। पंडिताइन लगातार बड़बड़ा रहीं थीं। नाक में दम कर रखा है बुढ़ऊ ने। हफ्ते भर बाद बेटी की शादी के रिश्ते वाले आ रहे हैं। कब से चिल्ला रही हूँ। सानू और आरिफ को कहीं और शिफ्ट करा दो, कान ही नहीं देते हैं। जब पंडित बिरादरी आएगी और घर में फैली मुसलमानी देखेगी तब समझ में आएगा। हे राम, घर बैठे आया इंजीनियर लड़के का रिश्ता लौट न जाए।

शंका से घिरीं पंडिताइन नीचे आने के लिए सीढ़ी उतरने लगी। घुटने कट-कट कर रहे थे। मुई सीढ़ियाँ भी लंबी बना दी, लगता है पैर टूटकर हाथ में आ जाएँगे। सानू जल्दी घर खाली कर दे तो मैं नीचे ही रहूँ। चढ़ने-उतरने की जहमत ही खत्म।

पंडिताइन सानू के कमरे में दस्तक देती इसके पहले ही सामने आटो आकर रुका। आ गए बुढ़ऊ। सलामत दिख रहे हैं। पंडिताइन ने राहत की साँस ली और वापस सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।

आरिफ की दुकान बंद हो गई थी इसलिए पांडे जी सीधे ऊपर चले गए वर्ना आधेक-घंटे वहाँ बैठक जरूर होती।

पंडिताइन का उखड़ा मूड़ देखकर भाँप गए पांडे जी, इसने टीवी न्यूज देख ली है। सफाई देने लगे - 'मैंने मंच से भाषण भर दिया था। पटरी पर कतई नहीं गया।'

'चले जाते पटरी पर। तुम्हारा क्या, हाथ से रेल का इंजिन रोक लेते। बड़ी ताकत है तुममें। कल वैभवी देहरादून से आ रही है। हफ्ते भर बाद उसे देखने वाले मेहमान आ रहे हैं। मैं कह रही हूँ, सानू से घर खाली कराओ। कान में जूँ तक नहीं रेंगती। बना बनाया रिश्ता बिगड़ गया तो कहाँ ढूँढ़ेंगे इस बुढ़ापे में दूसरा रिश्ता।' पंडिताइन झल्लाई हुई थीं।

'सानू की तबीयत और आरिफ की लापरवाही भी तू जानती है। वह ध्यान रख पाएगा उसका। सानू को कुछ हो गया तो क्या जवाब दूँगा मैं जहूर मियाँ की आत्मा को।' पांडे जी थोड़े विचलित हो गए।

'देखो जी मैंने कलेजे से लगाकर पाला है सानू को। जितना हो सका पढ़ाया लिखाया। उसकी षारीरिक और मानसिक विकलांगता के बावजूद कोई कसर नहीं रखी उसे जिंदा रखने में। ब्याह किया, धंधा-पानी से लगाया। लेकिन अब मेरी बेटी की जिंदगी का मामला है। मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। एक तो यह मुसलमानों का मुहल्ला है, फिर घर पर भी मुसलमान। आप इन पंडितों को नहीं जानते। जमाना कितना ही आगे बढ़ गया हो मुए हैं पुरातनपंथी। बिल्कुल रिश्ता नहीं करेंगे। मैं कुछ नहीं जानती। आप कल उठते ही उनके लिए मकान-दुकान का इंतजाम करो। चार दिन में मुझे मेरा घर खाली चाहिए बस।' पंडिताइन ने फरमान सुना दिया था।

खाना खाते और फिर बिस्तर में जाने तक पंडिताइन ने पांडे जी से कोई बात नहीं की। शुगर - बीपी की गोलियाँ खाकर सोईं और घुरकने लगी।

पांडे जी की नींद गायब थी। पंडिताइन तो सिर पर चढ़ी है सानू को हटाने। आरिफ कभी-कभी नशा ही नहीं करता घर से गायब भी रहता है। उसके ड्रायवर और मैकेनिक नशेड़ी दोस्तों का आना-जाना शुरू हो जाएगा। लड़की परेशान हो जाएगी।

आज के समय में कहाँ मिलेगी इतनी सस्ती दुकान। कहाँ से लाऊँगा पगड़ी। आरिफ भी दे पाएगा तगड़ा किराया। डीआईजी बंगले चौराहे से लेकर पीजीबीटी कालेज तक दुकानें कितनी महँगी हो गईं हैं। पिछले दस सालों में कितना बदल गया है यह एरिया। जहूर मियाँ नहीं होते तो क्या मिल पाता उन्हें इस मकान का प्लाट आज से तीस साल पहले। छज्जन बाई से जहूर ने ही दिलाया था यह प्लाट उन्हें। छज्जन बाई के भतीजे ने कब्जा कर रखा था इस पर। जहूर ने समझाया था छज्जन को। पांडे मास्साब को दे दे प्लाट। पच्चीस हजार मिल जाएँगे वर्ना तेरा भतीजा फूटी कौड़ी भी नहीं देगा। बीस हजार प्रोविडेंट फंड से निकाला था और पाँच हजार में पंडिताइन के जेवर बेचे थे तब हो पाई थी रजिस्ट्री। छज्जन बुढ़िया को रजिस्ट्री के एक दिन पहले ही उठा लिया था जहूर ने। रजिस्ट्री की कानो-कान खबर नहीं हुई थी उसके भतीजे को। कुछ पुलिस और स्थानीय नेताओं को ले गया था जहूर तब हटा था छज्जन का भतीजा। पांडे जी भोपाल से तीन सौ किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा जिले में नौकरी करते थे। भोपाल में मकान बनाना उनके बूते न था। वह तो जहूर मियाँ ही थे जिन्होंने ठेकेदार से लेकर खरीदी तक का बीड़ा उठाया और बीस बाय पचास के प्लाट पर पांडे जी का दो मंजिला मकान खड़ा कर दिया। इत्तेफाक से उन दिनों भोपाल के नजदीक ही पांडे जी के पैतृक गाँव की जमीन का भाई बँटवारा हुआ था। उन्होंने अपना हिस्सा छोटे भाई को चार लाख में बेच दिया और बन गया मकान।

डीआईजी बंगला चौराहे पर जहूर मियाँ की साइकल-पंचर की छोटी सी गुमटी थी। वहीं से थोड़ा आगे कॉलेज रोड पर पांडे जी के बड़े भाई जगन्नाथ पांडे का मकान था। जगन्नाथ पांडे बैंक में बड़े अधिकारी थे। इस मकान के पीछे नाले के उस पार बसी झोपड़पट्टी में जहूर की झोपड़ी थी। गुमटी में किसी दिन साइकल पंचर बनाते समय पांडे जी की दोस्ती जहूर से हो गई। जब भी वे भोपाल आते उनकी बैठक जहूर के साथ जरूर होती। जहूर के व्यक्तित्व में आकर्षण था और नियत में साफगोई। जहूर मैट्रिक पास था लेकिन गरीबी और बेरोजगारी के दंश के चलते साइकल पंचर की दुकान से गुजारा करता था। जगन्नाथ की पत्नी और बच्चे भी जहूर को पसंद करते थे क्योंकि वह उनके छोटे-मोटे काम कर देता था। जब जहूर ने पांडे जी का घर बनाने में मदद की तो सब उसके कायल हो गए थे।

पांडे जी की नींद पर जहूर की यादें और उसके अहसान हावी हो रहे थे। पंडिताइन गहरी नींद में थीं। पांडे जी को बेचैनी होने लगी तो वे उठे और छत पर आ गए।

दिसंबर की कड़क ठंड थी। भोपाल शहर रात की रोशनी से जगमगा रहा था। पंडिताइन की बातों से चिंता में डूबे पांडे जी ने देखा नजदीक ही यूनियन कार्बाईड कारखाना नजर आया। कितना नजदीक है यह अमेरिकी ब्रह्मपिशाच जिसने भोपाल को श्मशान में तब्दील कर दिया था।

वे सोचने लगे, मौत के किसी चेहरे से उन मौतों का चेहरा नहीं मिलता था। मृत्यु तो अदृश्य होती है, मगर इतनी संकेतहीन, इतनी अटपटी और त्वरित और वह भी सामूहिक मृत्यु। याद करते ही एक सिहरन सी हुई उन्हें। जहूर मियाँ याद आ गए। कैसे मौत हुई होगी जहूर की। कितना तड़पा होगा मेरा दोस्त। जाने कहाँ दफनाया होगा उसे, दफनाया भी या फिर - वे काँप गए।

वह एक खामोश ठंडी रात थी। दो-तीन दिसंबर 1984 की रात। ठिठुरते बच्चे माँ के आँचल में दुबके गहरी नींद ले रहे थे। झुग्गी-झोपड़ी के गरीब लोग बेखबर सोए थे। एक घना सन्नाटा पूरे शहर को आगोश में समेटे गहरी साँसें ले रहा था। पता नहीं ये साँस कब धुएँ से भरे कोहरे में बदल गई, पता नहीं कब असंख्य जहरीले साँपों ने एक साथ प्राण-वायु का डस लिया। झोपड़ियों, मकानों में सड़े हुए बादाम की गंध के साथ बेचैनी साँसों में उतर रही थी। पलक झपकते ही चीख-पुकार हाहाकार मच गया। लोग मौत के किसी अनाम आक्रमण से भयाक्रांत हो गए। पता ही नहीं चला कब हजारों लोग गिरते-पड़ते सड़कों पर दौड़ने लगे। कई अपने घर को खुला छोड़ बूढ़ों, बच्चों, बीमारों को छोड़ भाग खड़े हुए। कोई दो कदम दौड़कर गिरता तो कोई दस-पचास कदम चलकर। उन्हें उठाने की सुध किसे थी। लाशों से सड़कें-नालियाँ पट गईं, उन पर पैर रखकर जन-समुद्र प्राणों की रक्षा की हड़बड़ी में किसी अनाम सुरक्षाभूमि की तरफ लपक रहा था। घर-परिवार के लोग बिछुड़ गए तो उन्हें खोजने का वक्त था न उपाय। फिलहाल सारे संबंध निरर्थक हो गए थे। आसन्न मृत्यु भय से मनुष्य जाति नंगी हो गई थी, उनके सारे सभ्य आवरण उघड़ गए थे। भोपाल की वह रात उस वीभत्सता की चश्मदीद गवाह है।

पांडे जी उस रात बड़े भाई जगन्नाथ जी के घर पर ही थे। दो दिन पहले आए थे। मकान बन चुका था, पुताई चल रही थी। भाभी और उनका बेटा अम्माँ को देखने गाँव गए थे। भैया के साथ बातें करते हुए ग्यारह बज गए तो वे उठकर अंदर के कमरे में सोने चले गए। कमरे की खिड़की आधी खुली रह गई थी। रात एक बजे अचानक उन्हें खाँसी आना शुरू हुई और धीरे-धीरे तेज होने लगी। ऐसा लग रहा था मानो किसी ने मिर्ची जला दी है। जब घुटन बढ़ी तो पांडे जी ने भैया का दरवाजा खटखटाया। भैया भी बुरी तरह खाँस रहे थे। कारण दोनों के समझ में नहीं आ रहा था। दोनों ने खिड़की के बाहर देखा, सफेद धुआँ सा छाया हुआ था। पांडे जी ने खिड़की बंद कर दी। खाँसी और आँखों में जलन बढ़ रही थी। अभी वे कुछ समझ पाते कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। दरवाजा खोला सामने खाँसते हुए बदहवास जहूर मियाँ थे। बाजू में अपनी दो साल की बेटी को दबाए थे, वह भी बुरी तरह खाँस रही थी।

'जल्दी घर बंद करो और भागो पांडे जी। बाहर सब भाग रहे हैं।' जहूर ठीक से साँस नहीं ले पा रहा था इसलिए बोलने में अटक रहा था।

'भाभी कहाँ है?' पांडे जी ने घबरा कर पूछा।

'झोपड़ी में बेहोश पड़ी है। वहाँ कई लोग मर रहे हैं। जाने कैसा धुआँ फैला है।' कहते हुए जहूर ने पानी माँगा था।

पांडे जी खाँसते हुए पानी लाए तब तक भैया ने सारे दरवाजे खिड़की बंद करके ताला चाबी ले आए थे। चंद मिनटों में वे लोग भी भीड़ के साथ भोपाल टाकीज की तरफ दौड़ रहे थे।

सड़कों पर अस्त-व्यस्त हालत में सैकड़ों बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष पड़े हुए थे। लोग सड़कों पर बेतहाशा दौड़ रहे थे। जहूर की बेटी को उल्टी हो रही थी लेकिन वह उसे लेकर दौड़ता रहा। कुछ लोग स्कूटरों से भाग रहे थे। किसी को किसी से बात करने का वक्त नहीं था। तीनों को श्वाँस का कष्ट बढ़ते ही जा रहा था। बेहोशी और चक्कर महसूस होने लगा तो वे सड़क के किनारे बैठ गए। थोड़ी घबराहट कम हुई तो हिम्मत कर फिर आगे बढ़े।

क्या नहीं देखा उस दिन पांडे जी ने। इकतरफा दौड़ती पागल भीड़। एकमुश्त पचीसों एक्सीडेंट। वह स्त्री जो चलती जीप से टपक पड़ी और पीछे के वाहन ने उसे कुचल दिया। न जीप रुकी न वह हत्यारा वाहन। न लोग चीखे न गुस्साए। न कोई रपट लिखी गई न कोई तफ्तीश हुई। हर कोई चाह रहा था जल्द से जल्द इस काले धुएँ की गिरफ्त से दूर हो जाए। ट्रकों पर लदते-फंदते लोग, घिसटते-घिघियाते लोग, एक ही दिशा में एक दूसरे को लाँघते भागे चले जा रहे थे।

पांडे जी ने देखा भैया से नहीं चला जा रहा है लेकिन कोई किसी को सहारा देने की स्थिति में नहीं था। उन पर भी बेहोशी छा रही थी। जहूर की भी हालत खराब थी। अचानक लोगों से भरा एक ट्रक साईड लेने के लिए उनके पास रुका। भागते लोग उस पर चढ़ने लगे। जहूर ने पांडे जी को ट्रक में लटक रहे रस्से को पकड़ा कर ऊपर चढ़ा दिया। लोगों की धक्का-मुक्की के बीच भैया को चढ़ा रहा था कि ट्रक चल पड़ा। जहूर ने ट्रक के पीछे दौड़ते हुए आव देखा न ताव अपनी दो साल की बेटी को पांडे जी की तरफ उछाल दिया। पांडे जी जोर-जोर से भैया और जहूर चिल्ला रहे थे लेकिन ट्रक फर्राटे से निकल गया था। जहूर की बेटी को लोगों ने झेला लेकिन उसका सिर ट्रक की बॉडी से टकरा गया था। वह जोर से चीखी और बेहोश हो गई। पांडे जी भी ज्यादा देर खुद को सम्हाल नहीं पाए और जाने कब होश खो बैठे।

पांडे जी कब और कैसे उज्जैन पहुँचे उन्हें नहीं मालूम। उज्जैन के एक सरकारी अस्पताल में उन्हें होश आया था। साँस लेने में उन्हें तकलीफ हो रही थी, मिथाईल आइसोसायनाईट ने उनके फेफड़ों पर कब्जा कर लिया था। बड़े भैया और जहूर की खबर देने वाला कोई नहीं था लेकिन एक नर्स ने आकर बताया था कि उनकी बेटी का इलाज बच्चा वार्ड में चल रहा है। उसके सिर पर बहुत चोट आई है। बेटी यानी जहूर की बेटी। पांडे जी ने घबरा कर पूछा था, वह कैसी है? नर्स ने बताया उसकी आँखों और फेफड़ों में गैस का बहुत ज्यादा असर है, सिर पर चोट होने से वह अनकासेंस है।

पांडे जी जब उज्जैन में श्वाँस और बेहोशी से जूझ रहे तब भोपाल ने युग-युग जी लिए। जन्म-जन्मातंर भोग लिए। भोपाल के सारे अस्पताल मुर्दों और बीमारों से खचाखच भरे थे। हजारों शव ठिकाने जगाए जा रहे थे। खाली घरों और नालों के इर्द-गिर्द शव पड़े थे। पचासों शव कतारों में इकट्ठे जलाए जा रहे थे। पूरा प्रभावित भोपाल श्मशानी घुटन से भरा था। हवा अजब कसैली हो गई थी। पेड़-पौधे कंकालों की तरह शून्य में ताक रहे थे। बस्तियाँ की बस्तियाँ सूनी-उजड़ी पड़ी थीं।

उज्जैन अस्पताल में कुछ स्वयंसेवी सेवाभावी गैस पीड़ितों की मदद कर रहे थे। पांडे जी चेतन हुए तो उन्होंने स्वयंसेवियों को बताया कि उनके प्रोफेसर गुरु एस रामचंद्रन उज्जैन की शांति कालोनी में रहते हैं। अगले दो घंटे में रामचंद्रन अस्पताल पहुँचे और उनकी खबर से दूसरे दिन तक उनको लेकर बेचैन-परेशान पंडिताइन और अन्य परिजन-मित्र उज्जैन पहुँच चुके थे। पंडिताइन ने जहूर की बेटी सानिया को अपने आँचल में समा लिया। घर के लोगों ने पांडे जी को बताया कि उस रात गैस का गुबार छँटने पर बड़े भैया बुरी हालत में घर वापस आ गए थे और उन्हें किसी ने अस्पताल पहुँचा दिया था। लेकिन जहूर मियाँ का कहीं कोई पता नहीं था। बड़े भैया ने सिर्फ इतना बताए थे कि वह स्टेशन की तरफ भागा था।

गैस त्रासदी के कई दिनों बाद तक पांडे जी जहूर को ढूँढ़ते रहे लेकिन वह और उसकी पत्नी शायद हत्यारी डायन अमेरिकी कंपनी की भेंट चढ़ गए। अमेरिकी कंपनी का यह कारखाना 1969 में कायम हुआ था। टार्च की सेल बनाने के निरामिश उद्योग से इसने जमने की भूमिका बांधी। ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह फिर अपने पैर पसारे और 1976 से इसमें कीटनाशक दवाइयाँ बनने लगी। सेविन नाम की यह दवाई खेती के कीड़े मारने के लिए है। सेविन मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस की मदद से बनती है लेकिन इसके प्रभाव को तीव्र करने और सस्ते उत्पादन के लिए 'फास्जीन' नामक भयंकर जहरीली गैस भी कुछ अंशों में मिलाई जाने लगी। कहते हैं इस गैस का प्रयोग हिटलर ने दूसरे विश्वयुद्ध में यहूदियों का सफाया करने के लिए किया था।

पांडे जी ने त्रासदी में तत्काल तो जहूर और उसकी बीवी को खो दिया था लेकिन बड़े भैया भी ज्यादा दिन नहीं रह पाए। गैस के संक्रमण से उन्हें फेफड़ों का कैंसर हो गया और उन्हें दुनिया छोड़नी पड़ी। भतीजा भाभी को लेकर अपनी नौकरी वाली जगह चला गया था। पांडे जी ने अपना मकान किराए पर दिया और नौकरी पर लौट आए थे।

सानिया उनके लिए चुनौती थी। उसका मानसिक विकास रुक गया था और निमोनिया-दमा हमेशा बना रहते। पच्चीस-पच्चीस हजार का गैस राहत मुआवजा दोनों के इलाज में ऊँट के मुँह में जीरा साबित हुआ था। निःसंतान पंडिताइन ने सानिया को सिर आँखों पर रखा।

जात-समाज में बात फैल गई थी कि पांडे जी मुसलमान की लड़की पाल रहे हैं। उन पर सानिया को अनाथ आश्रम भेजने के भी दबाव आए लेकिन दोनों ने जहूर की अमानत को कलेजे से लगाकर रखा। उसका नाम सानिया से सानू कर दिया गया था। ब्राह्मण संस्कार में पल रही सानू अविकसित दिमाग के कारण दस साल की उम्र तक केवल अक्षर ज्ञान सीख पाई थी। हाईस्कूल की उम्र में वह पाँचवी तक पढ़ पाई।

जब सानू आठ साल की थी तभी बड़ी उम्र में पंडिताइन की गोद भर गई थी। खूबसूरत बेटी हुई। नाम वैभवी। सानू को बहिन मिली। सानू-वैभवी में कभी कोई फर्क नहीं समझा गया। जब वैभवी हायर सेकेंडरी पास हुई तब पांडे जी रिटायर्ड होकर भोपाल आ गए थे। वैभवी एमबीए करने देहरादून चली गई।

जवान हो चुकी सानू पांडे जी के लिए चिेंता का कारण बन गई थी। कम दिमाग, साँवला रंग, आँखों पर मोटा चश्मा और कमजोर फेफड़े वाली सानू को वे कहाँ ब्याहेंगे समझ नहीं आ रहा था। कुछ गरीब ब्राह्मणों में बात चलाने की कोशिश की थी, असफलता हाथ लगी। मेरे बाद उसका क्या होगा, कसक सालती रहती।

एक दिन ताहिर भाई के गैरेज में स्कूटर ठीक कराते वक्त उन्होंने अपनी चिंता जाहिर की - गरीब मुस्लिम लड़का हो तो बताएँ। धंधा हम खोल देंगे। दूसरे ही दिन ताहिर भाई आरिफ को ले आए थे। आवारा किस्म का, साँवला भेंगा सा आरिफ। माँ-बाप नहीं है। मेरे मैकेनिक दोस्त के गैरेज में काम करता है। साल-दो-साल में मिस्त्री बन जाएगा। इसकी गृहस्थी बस जाए तो अच्छा होगा।

पंडिताइन के विरोध के बावजूद विवाह तय किया गया। ताहिर की मदद से एक मुस्लिम वैवाहिक सम्मेलन में निकाह कराया गया। सानू के लिए सब कुछ अप्रत्यासित और अजूबा था। आरिफ के कोई घर द्वार तो थे नहीं सो पांडे जी ने उनके लिए नीचे वाला कमरा खाली कराया, इस तरह सानू की नई जिंदगी का आगाज हुआ। सानू बहुत सुखी नहीं थी क्योंकि आरिफ गैरजवाबदार था और कई जगह काम पकड़ता छोड़ता था। सानू की मानसिक विकलांगता के चलते आरिफ का प्यार उसकी देह तक ही सीमित था।

आरिफ की बार-बार रुपयों की माँग और गैरजरूरी हरकतों को रोकने के लिए पांडे जी ने उसका गैरेज नीचे की दुकान में खोल दिया। यह दुकान उन्होंने अपने लिए बना रखी थी। आरिफ के पैंर बँध गए और दाल-रोटी लायक धंधा भी चल पड़ा। फर्क केवल इतना पड़ा कि मुस्लिम परिवारों में आने-जाने के कारण सानू का धीरे-धीरे इस्लामीकरण हो रहा था। सख्त हिदायत के बाद भी पंडिताइन को डर बना रहता था कि आरिफ यहाँ मटन-मुर्गा न बना ले।

अब तो बेटी की शादी के चलते पंडिताइन सानू-आरिफ को यहाँ से हटाना ही चाहती है।

पंडिताइन सुबह से ही पांडे जी के पीछे लग गई - 'तुमने देखा कि नहीं उनके लिए मकान?'

पांडे जी झल्लाकर बोले थे - 'तुम्हें कैसे समझाऊँ, यहाँ आरिफ पर मेरा नैतिक दबाव है। यहाँ से हटने पर वह लाचार सानू की जिंदगी नरक बना देगा। सुनो ये मेरा जीवन जहूर मियाँ की बदौलत ही है। सानू पर मैं आँच नहीं आने देना चाहता। गैस राहत आंदोलन में मैं इतना सक्रिय क्यों हूँ ताकि हम दोनों को पाँच-पाँच लाख मुआवजा मिल जाए तो मैं सारा रुपया सानू के मकान-दुकान में लगा दूँगा।'

'कब बाबा मरेंगे और कब बिरद बटेंगे? लेकिन अभी मेरी बेटी का क्या होगा?' पंडिताइन आशंकित सी उन्हें देख रही थी।

'मुझे अमेरिका की पिछलग्गू भारतीय सरकारों पर तो नहीं लेकिन भारतीय न्याय व्यवस्था पर जरूर विश्वास है कि वह दिन जल्द ही आएगा।' एक गहरी आश्वस्ति के साथ पांडे जी ने बहस का पटाक्षेप किया।

बहरहाल दूसरे दिन वैभवी देहरादून से आ गई थी। माँ-बेटी में भी उस बात को लेकर गहरी गुफ्तगू हुई थी। वैभवी पापा की भावनाओं को समझती थी इसलिए उनसे कुछ कहना उसके बूते नहीं था।

मेहमानों के आने से घर की रौनक बदल गई थी। नाश्ता, फलों और मिठाइयों की खुशबू से कमरा भरा था। लड़का शिखर किसी बड़ी कंपनी में इंजीनियर है और खूबसूरत भी।

सानू की खुशी का ठिकाना न था। सारा घर उसकी चहलकदमी से भरा था। उसने आज गोटे और सितारों से भरा अपनी शादी का लाल शलवार सूट पहन रखा था। अपने मोटे चश्मे के बावजूद वह खूबसूरत दिखने की कोशिश कर रही थी।

शिखर के साथ उसका छोटा भाई और पापा आए थे। पांडे जी उनके साथ बैठे थे।

सानू कभी किचन में पंडिताइन के पास कभी पांडे जी के पास तो कभी तैयार हो रही वैभवी के पास मँडरा रही थी।

कुछ समय के लिए वैभवी-शिखर को बातचीत करने के लिए अकेले कमरे में छोड़ दिया गया। आधुनिक जमाने के दो उच्च शिक्षित युवा आमने-सामने बैठे थे।

औपचारिक परिचय के बाद वैभवी ने शिखर से कुछ इस तरह कहना शुरू किया - 'हम वह पीढ़ी हैं जो भूमंडलीकरण की व्यापकता से उपजी है। सोच का विस्तार और उन्नति का आकाश हमारे सामने है। तकनालॉजी का सूरज हमारा अभिवादन करता है और सामाजिक रूढ़ियों के अँधेरे हमारी राह में नहीं आते।'

बीच में टोकते हुए शिखर ने कहा था - 'अचानक ये भाषण क्यों?'

वैभवी ने शिखर को सानिया उर्फ सानू की पूरी कहानी सुनाई। साथ ही पिताजी के उस डर से भी अवगत कराया जो सानू को लेकर इस रिश्ते के टूटने से है।

सानू की कहानी सुनकर शिखर के रोंगटे खड़े हो रहे थे। वैभवी महसूस रही थी कि संवेदना की एक लहर शिखर के नख से चोटी तक दौड़ रही है। शिखर के चेहरे पर दिखते सकारात्मक भाव उसे खुश कर रहे थे।

यहाँ नाश्ता-चाय में मशगूल शिखर के पिताजी के सामने पांडे जी अपनी बेटी की खूबियाँ गिनाते हुए सानू की चर्चा पर उतर आए। उन्होंने गैस हादसे की कहानी से लेकर आज तक की तसवीर शिखर के पिताजी के सामने रख दी।

शिखर के पिताजी के माथे पर बल पड़ रहे थे। औपचारिक सी भाषा में उन्होंने कहा था - 'हमें क्या कहना साहब निर्णय तो बच्चे को लेना है।'

जब शिखर-वैभवी बैठक में वापस आए तब दोनों के चेहरों पर नई रंगत देख पंडिताइन ने राहत की साँस ली थी।

शिखर ने आते ही पंडिताइन और पांडे जी के पैर छुए, फिर पांडे जी की तरफ मुखातिब होकर कहा - 'सर आप दोनों के जज्बात और त्याग को सलाम है।'

शिखर के व्यवहार से पांडे जी भाव-विभोर हो गए थे। उनकी आँखें छलछला आईं। पांडे जी ने आँखें बंद कीं और मन ही मन कहा था - देखो जहूर मियाँ, हमारी सानू हमारे पास ही रहेगी। शिखर ने हमें सरकार से भी बड़ा मुआवजा दे दिया है।

पांडे जी ने आँखें खोली तब शिखर अपने पिता से कह रहा था - 'चलिए पिताजी हम यहाँ रिश्ता नहीं कर पाएँगे।'

पिताजी तो जैसे इसी क्षण का इंतजार कर रहे थे, तुरंत खड़े हो गए।

भौचक्के से पांडे-पंडिताइन कुछ कह पाते इससे पहले ही वे तीनों सीढ़ियाँ उतर चुके थे।

शाम होते-होते वैभवी देहरादून जाने की तैयारी कर रही थी। पंडिताइन अपनी खीझ आरिफ सानू पर निकाल रही थी। उदास से पांडे जी ऊपर छत पर चले आए।

सामने देखा, हजारों मृत्युओं के जश्न से आकंठ डूबा यूनियन कार्बाइड दैत्य अपनी चिमनियों के दंड को थामें दंभ से खड़ा था।


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