भुवनेश्वर के क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय के विवेकानंद छात्रावास का रूम
नंबर बयालिस। मैं और झा साहब विज्ञान कान्फ्रेंस में जाने के लिए तैयार होकर
जूते के तसमे कस रहे थे तभी दरवाजे पर महिला स्वर सुनाई दिया - 'चलें सर मैं
तैयार हूँ।'
हम दोनों के चेहरे एक साथ ऊपर उठे। सामने पीले बार्डर की नीली जार्जेट साड़ी
में लिपटी एक खूबसूरत प्रौढ़ महिला खड़ी थी। उनके कानों में सोने के झुमके और
पैरों में ओल्ड फैशन की सेंडिलें उन्हें किसी नवविकसित कस्बे की रहवासी साबित
कर रही थी। झा और मैंने एक दूसरे की तरफ आश्चर्य से इसलिए देखा था क्योंकि
कान्फ्रेंस में आने वाली ज्यादातर महिलाएँ अपने कीमती और बेहतरीन सलवार-सूट,
जींस-टॉप, मसूरी-स्लिक साड़ियाँ लाती हैं। पूरे पाँच दिन अपनी आधुनिक साज-सज्जा
की नुमाइश करती हैं।
इससे पहले कि हम जिज्ञासु उनका तआर्रुफ लेते, पास खड़े दुबेजी ने आगे बढ़कर उनका
परिचय देना शुरू कर दिया - 'आप श्रीमती कनकलता तिवारी हैं। आप मेरे कालेज में
प्राध्यापक हैं। आप कान्फ्रेंस में पेपर पढ़ने आई हैं।'
परिचय पूरा करके दुबे जी सपाटे से बाहर निकले थे। उनके पीछे श्रीमती तिवारी।
हम रूम लॉक करते रहे वे बरामदा पार कर मुख्य द्वार से ओझल हो गए।
कमरा तीन व्यक्तियों के लिए था। तीसरे व्यक्ति सदानंद दुबे थे जो झा सर के शहर
बेगूसराय के नजदीक ही किसी कस्बे में एक प्रायवेट महाविद्यालय चलाते हैं। जब
मैं आया था तब क्रीम कलर की सफारी पहने गोरे चिट्टे मँझोले कद के दुबे जी के
भाल पर बड़ा सा टीका चमकते देख मैंने झा सर पर सवालिया निगाह डाली थी। जवाब में
उनके चेहरे पर सिर्फ वैज्ञानिक किस्म की हँसी उभरी। मैं अर्थ समझ गया था। झा
सर ने उनके परिचय में दो वाक्य ही कह पाए थे कि दुबे जी ने उनके वाक्य को झटक
लिया और अपनी तारीफ में कसीदे पढ़ डाले। जाने कितने विषय में वे स्नातकोत्तर थे
और उनकी अँग्रेजी में भी मैथिली का पुट स्पष्ट झलकता था।
मैं हाथ में टूथपेस्ट-ब्रश और तौलिया पकड़े बाथरूम जाने के लिए तैयार खड़ा था
लेकिन दुबे जी की बातें थी कि खत्म ही नहीं हो रहीं थी। इतनी देर में वे उड़िया
लोगों की भाषा, रहन-सहन और शहर की गंदगी पर ढेरों कमेंट्स कर चुके थे। जोर
देकर ये भी बताया कि रेल्वे स्टेशन से आते समय कैसे उन्होंने ऑटो रिक्शे वाले
को पचास में तय किया और चालीस टिकाए क्योंकि ये ऑटो रिक्शे वाले लुटेरे होते
हैं। अब मैं लेट हो चुका था सो मैंने बैग से अंडरवीयर-बनियान निकाली और बाथरूम
में घुस गया।
मैं नहा कर निकला तब दुबे जी झा साहब को अपने सफर का किस्सा सुना रहे थे। कपड़े
बदलने के लिए मैंने सूटकेस देखा। सूटकेस वहाँ कहीं नहीं था। मैं ढूँढ़ने लगा तो
झा साहब ने बताया कि मैं शायद सूटकेस लाया ही नहीं। केवल बैग था मेरे पास। अब
मैं सकते में था। मतलब सूटकेस ऑटो में छूट गया। सारे कपड़े और रिसर्च पेपर्स
सूटकेस में हैं।
मैं सिर पकड़ कर बैठ गया था। झा साहब मुझसे पूछताछ में लगे थे तभी छात्रावास के
चौकीदार ने दरवाजे पर आवाज लगाई - सर किसी का सूटकेस तो नहीं छूटा, बाहर ऑटो
ड्रायवर लेकर खड़ा है।
मैं तुरंत उधर भागा था। मेरे पीछे झा और दुबे भी।
मैंने लपककर ऑटो ड्रायवर के हाथ से सूटकेस लिया और खोलकर तफ्तीश की, सभी चीजें
यथावत थीं। ड्रायवर ने बताया कि स्टेशन पहुँचकर उसने सूटकेस देखा और वापस ला
रहा है। कृतज्ञता के साथ धन्यवाद देते हुए मैंने ड्रायवर की जेब में दो सौ
रुपए डाले। पेट्रोल के और ईनाम के। लौटते हुए झा और मैंने दुबे के चेहरे पर एक
साथ देखा था, क्या वहाँ 'ऑटो रिक्शे वाले लुटेरे होते हैं' वाला भाव अभी भी
मौजूद है, दुबे जी थोड़ा झेपें जरूर थे लेकिन उनके विचार की सख्ती कायम थी।
बोले थे शायद उसे सूटकेस में अपने काम का कुछ नहीं मिला होगा इसलिए इनाम पाने
ले आया।
बहरहाल मैं और झा साहब कान्फ्रेंस हॉल की ओर बढ़ गए। झा साहब के मिलने से मैं
खुश था। झा सर के बिना पाँच दिन की विज्ञान कान्फ्रेंस बोझिल हो जाती है। हर
दो साल में आयोजित होने वाली विज्ञान कान्फ्रेंस के लिए शोध पत्र भेजने के
पहले हम एक-दूसरे से संपर्क करना नहीं भूलते ताकि दोनों ही कान्फ्रेंस में
पहुँच सके। वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और विज्ञान संचारकों के लंबे-लंबे
व्याख्यानों को सुनने के बाद की बौद्धिक थकान को हल्का करने के लिए कान्फ्रेंस
के बाद झा सर और मैं हल्की फुल्की गपशप, हँसी-ठिठोली करते। सिगरेट पीते और शहर
में तफरीह करते।
रजिस्ट्रेशन काउंटर पर मिसेज तिवारी लाइन में हमसे कुछ आगे खड़ी थीं। दुबे जी
नहीं दिख रहे थे, शायद रजिस्ट्रेशन करा चुके। हमने देखा, मिसेज तिवारी काउंटर
पर बहस कर रही थी और फिर बैग और फाईल लिए बिना ही वे गुस्साई-सी गर्ल्स हॉस्टल
की तरफ जा रही थीं। काउंटर प्रभारी ने बताया था कि वे अपना लेटर कमरे में भूल
आईं हैं और बिना लेटर के ही रजिस्ट्रेशन करने के लिए जोर दे रही थीं।
अब हमें चाय-नाश्ता और खाने के कूपन मिल गए थे सो हम पहले नाश्ता-टेबिल की तरफ
मुड़ गए। दुबे जी वहाँ पहले से मौजूद थे। उनके हाथ में प्लेट थी जिसमें उसके
क्षेत्रफल से ज्यादा सांभर-बड़ा-इडली भरे थे। हमारे पहुँचते ही दुबे जी के
कमेंट्स शुरू हो गए - हर चीज में दही डाल रखा है, हलुआ में शक्कर गायब है,
यहीं अंडे रख दिए हैं, कोई कैसे नाश्ता करे साहब?, कॉफी है क्या गटर का पानी
है। यही सब लूट बिहार में होती, आग लगा देते साहब।
अपनी प्लेटें लगाते हुए झा साहब और मैं केवल मुस्कराए थे।
उद्घाटन सत्र में जब हम वैज्ञानिक प्रोफेसर यशपाल को सुन रहे थे तब दुबे जी
जरूर साथ थे लेकिन फिर वे दिन भर नहीं दिखे। शाम को जब हम मित्रों के साथ
लिंगराज मंदिर घूमने का प्रोग्राम बना रहे थे तब वे टपक पड़े। साथ चलने को
तैयार हुए और मैडम तिवारी को भी ले आए।
सिटी बस में तिवारी मेरे साथ ही बैठी थीं। चर्चा के दौरान वे कहीं से भी गंभीर
साइंस कम्युनिकेटर नहीं लगी। काफी कुरेदने पर केवल उन्होंने इतना बताया था कि
उनके दो बच्चे हैं एक बेटा, एक बेटी और उनके पति भी प्रोफेसर हैं।
लिंगराज मंदिर में झा साहब और मैं मंदिर के प्राचीन आर्किटेक्ट पर चर्चा कर
रहे थे तभी बड़बड़ाते हुए दुबे जी आ गए। उनके हाथ में पूजा की टोकरी, हार और बड़ा
सा नारियल रखा था - क्या लूट मचा रखी है साहब, बीस रुपए का नारियल और पच्चीस
रुपए के ये फूल...। लग रहा था गुस्से से मूर्ति पर फेंक देंगे। उधर तिवारी
पुजारी से बहस कर रही थीं। वे या तो लंबी लाईन तोड़कर आगे आ गईं थी या दक्षिणा
को लेकर विवाद था।
लौटते समय वे अपने भगवान से मिलकर भी तनावग्रस्त थे जबकि हम दोनों न मिलकर भी
शांतचित्त थे। रास्ते में मैडम तिवारी ने झा साहब से पूछा था - आप लोग अपने
परिवार को साथ क्यों नहीं लाते, इसी बहाने वे भी घूम लिया करेंगे। झा साहब का
तर्क था - मैडम यहाँ केवल प्रतिभागी के लिए आवास-भोजन की व्यवस्था होती है।
परिवार के साथ शहर के किसी होटल में रुकना पड़ता है। खर्चा तो बढ़ ही जाता है
साथ ही कान्फ्रेंस की गंभीर वैज्ञानिक बौद्धिक बहसें उन पर भारी पड़ती है।
मैंने परिवार लाने वालों की दुर्गति देखी है वे न कान्फ्रेंस के रहते हैं न
परिवार के। दोनों जगह जहालत झेलते हैं।
अगले दो दिन हम कान्फ्रेंस में व्यस्त रहे। इस बीच शायद दुबे जी मैडम तिवारी
के साथ पुरी घूम आए थे क्योंकि रात में मित्रों के साथ हॉस्टल के बरामदे में
उनके जगन्नाथ मंदिर के धार्मिक महत्व पर प्रवचन चल रहे थे।
इधर मेरे दिमाग में मैडम तिवारी को लेकर चल रहा शक मजबूत होते जा रहा था। मैं
अपना शक झा साहब को जाहिर करना चाह रहा था लेकिन मुझे अभी पुख्ता सबूतों की
जरूरत थी।
चौथे दिन पहले सत्र ही में हमारा शोध पत्र वाचन हो गया था इसलिए आठ-दस मित्रों
के साथ कोणार्क सूर्य मंदिर घूमने का प्रोग्राम बन गया। तिवारी-दुबे भी साथ
थे। मंदिर पहुँचते ही सूर्य मंदिर में लगी नग्न मूर्तियों को देखकर तिवारी न
केवल भड़क गईं, दुबे जी को लेकर अलग चली गईं जबकि अन्य महिला प्रोफेसर मंदिर की
स्थापत्य कला और आर्किटेक्ट पर चर्चा करती रहीं।
रात डिनर में झा साहब को मैं अपने शक से रूबरू कराना चाहता था सो हमने जल्दी
खाना खाया और ऐसे स्थान पर खड़े हो गए जहाँ से दुबे जी को हम देख सकते थे लेकिन
दुबे जी हमें नहीं देख सकते थे।
दुबे जी आए, कूपन देकर प्लेट ली। खाना लगाया। भरपेट खाना खाया। पुनः प्लेट में
खाना लगाया और पंडाल के कोने में पहुँचे। वहाँ शॉल ओढ़े मैडम तिवारी खड़ी थीं।
उन्होंने दुबे जी से प्लेट ली और खाना शुरू कर दिया। अब वे टेबिल के पास आकर
अपने पसंद का खाना खा रही थीं।
झा साहब सन्न थे, बोले - 'मतलब, तिवारी के पास खाने का कूपन नहीं है।'
'वे कान्फ्रेंस की प्रतिभागी भी नहीं है।' मैंने चुटकी लिया।
'तो फिर कौन है?'
'यही तो मालूम करना है।'
'चलिए कमरे में सब साफ हो जाएगा।' झा साहब बोले और मुझे कमरे में खींच लाए।
आते ही उन्होंने बैग से वह पुस्तक निकाली जिसमें सभी प्रतिभागियों के
शोध-सारांश और परिचय छपे हैं। सारी किताब छान मारी, प्रोफेसर कनकलता तिवारी
कहीं नहीं थी। दुबे जी जरूर अपने हल्के-फुल्के शोध के मौजूद थे।
झा साहब ने मेरे तरफ देखा तो मैंने हँसकर कहा - 'याद करिए सर रजिस्ट्रेशन
काउंटर पर उनके पास लेटर नहीं था फिर भी वे रजिस्ट्रेशन करा रही थीं। मेरा शक
सही है तो ये मैडम तिवारी नहीं, मिसेज दुबे हैं। प्रोफेसर सदानंद दुबे की
धर्मपत्नी। दुबे जी ने गर्ल्स हॉस्टल में उनकी इंट्री करा कर होटल खर्च के
हजारों रुपए बचा लिए। एक ही प्लेट में खाना खाकर सैकड़ों बचा लिए बस हाउसवाइफ
मिसेज दुबे को प्रोफेसर कनकलता तिवारी बनाना पड़ा।
'जब हम घूमने जाते थे तब कनकलता को हमारे साथ छोड़ने में कोई परहेज नहीं करता
था पट्ठा। हमें शक न हो कि वह उसकी बीवी है।' झा साहब ने ठहाका लगाया और मुझे
एक सिगरेट ऑफर की।
तय हुआ कल तक उन्हें अहसास नहीं होना चाहिए कि हम राज जान चुके हैं।
कान्फ्रेंस समाप्त हुई। पहले दुबे जी की गाड़ी थी। हमें रात में निकलना था।
दुबे जी ने ऑटो में सामान लादा और कनकलता के बाजू में बैठ गए। जैसे ही ऑटो
स्टार्ट हुआ एक तरफ मैं और दूसरी तरफ झा साहब खड़े हो गए।
'अच्छा दुबे जी गुड वाय। साथ में बैठी भाभी जी का ध्यान रखिएगा। बच्चों को
हमारा प्यार दीजिएगा। अच्छा भाभी जी प्रणाम।' मैंने मुस्कराते हुए कहा था।
'अगली कान्फ्रेंस में उड़िसा के लुटेरों पर शोध कीजिएगा दुबे जी।' झा साहब बोले
थे।
हम उन दोनों का फक्क चेहरा देखना चाहते थे लेकिन ऑटो जा चुका था।