hindisamay head


अ+ अ-

कहानी

नौ बिंदुओं का खेल

संतोष चौबे


बहुत संभव है कि ये खेल आपने खेला हो। संभावना ये भी है कि आप इसके बारे में बिल्कुल न जानते हों। लेकिन हमारे आज के समय में, पूरे भारत में, यह खेल बड़े पैमाने पर खेला जा रहा है और भारत ही क्या, दुनिया के कई देशों में ये एक लोकप्रिय खेल है। तो फिर आप भी इसके बारे में क्यों न जानें? जानने के बाद आप कम से कम ये तो तय कर ही सकते हैं कि इसे खेलना है या नहीं और अगर खेलना है, तो किस तरह? यही सोचकर ये कहानी आपके सामने पेश कर रहा हूँ।

कहानी जहाँ से शुरू हो रही है वह है उद्योग विभाग के महाप्रबंधक अनुराग श्रीवास्तव का छोटा, मगर सुंदर सा, सम्मेलन कक्ष। इस वक्त वहाँ तीन लोग उपस्थित हैं। एक, शहर में नए ढंग की सोच रखने वाले, उद्यमी के रूप में प्रख्यात कार्तिक त्रिवेदी, दो, उसका बचपन का दोस्त अनुराग श्रीवास्तव और तीन... ठहरिए, इस तीसरे व्यक्ति का परिचय अभी आपको मिला जाता है।

तो आइए, कहानी शुरू करें?

एक मुलाकात अचानक

अनुराग श्रीवास्तव ने, अपने सुंदर से सम्मेलन कक्ष में बैठे, उस तीसरे व्यक्ति का परिचय कराते हुए कार्तिक से कहा,

'इनसे मिलो, ये हैं देश के बड़े उद्योग पति मिस्टर रमेश चंद्रा। इनके पास तुम्हारी समस्या का हल हो सकता है।'

छड़ी के सहारे खड़े होते जिस व्यक्ति ने कार्तिक से हाथ मिलाया वह उसे कुछ जाना पहचाना सा लगा। साँवला रंग, सिर पर भरे भरे लेकिन अधिकतर सफेद बाल, ऊँची कद-काठी और कुछ भोंथरे से नाक-नक्श। उसने सफेद कुर्ता-पाजामा पहना हुआ था, जो कुछ मैला सा था, जैसे उसे दो तीन बार पहनने के बाद भी धोया न गया हो। हाथ में तीन चार अँगूठियाँ, जिन में अलग-अलग तरह के नग जड़े हुए थे। मोटी उँगलियाँ और भारी हाथ।

कहाँ, इसे कहाँ देखा है, कार्तिक ने सोचा पर उसे कुछ ठीक-ठीक याद न आया।

अनुराग ने कहा,

'और रमेश जी, ये हैं मेरे बचपन के दोस्त कार्तिक, पढ़ने-पढ़ाने का काम करते हैं और इस काम को ही इन्होंने अपना उद्यम भी बनाया है। शहर में अपना एक बड़ा संस्थान खोलना चाहते हैं। जब आपकी ओर से जमीन बेचने का ऑफर आया तो मुझे लगा कि ये आपके सबसे बढ़िया ग्राहक हो सकते हैं। फिर आपकी जमीन भी अच्छे काम में लगेगी।'

ऐसा लगा जैसे रमेश चंद्रा की आँखें धीरे से झपक गई हों, जैसे उन्होंने कार्तिक को पहचाना हो। मगर पहचाना भी हो तो जाहिर नहीं किया। अपनी आवाज में नकली उत्साह भरते हुए उन्होंने कहा,

'हम तो जी भाई साहब जमीन बेचने के लिए ही बैठे हैं। फिर आप जिसे लाएँगे वह कोई बुरा आदमी थोड़े ही होगा।'

कह कर वे हँसे। एक खोखली सी, बनावटी हँसी। कार्तिक ने अब उन्हें पहचाना। वही हैं, बिल्कुल वही। वैसी ही भारी आवाज, वैसी ही खोखली हँसी जो छाती की खरखराहट के साथ रेसोनेट करती थी। और हँसते समय वही चमकते दाँत, जिनमें कहीं-कहीं सोना चमक जाता था। गुप्ता जी। रमेश चंद्र गुप्ता या आर.सी. गुप्ता। पर इन्होंने अपने नाम से गुप्ता क्यों गायब कर लिया? और ये तो बाहर चले गए थे। अब फिर यहाँ कैसे? परिचय दूँगा तो पहचान लेंगे। पर फिलहाल परिचय न दूँ तो ही ठीक है। बड़े खिलाड़ी थे गुप्ता जी। पहले देख तो लूँ कि उनका खेल क्या है? उसने कहा,

'एक बार जमीन देख लेते हैं। फिर तय कर लेंगे। पेपर्स वगैरह तो सब होंगे आपके पास?'

अनुराग ने कहा,

'पेपर्स सब मेरे पास हैं। तुम एक बार जमीन देख लो, फिर बैठकर फार्मेलिटीज हो जाएँगी।'

'और रेट? रेट आपने क्या तय किया है?'

'जमीन तो जी सोना है, सोना। पर मैं आपके लिए बिल्कुल रीजनेबल रेट लगाऊँगा। मुझे तो जमीन निकालनी है। फिर अनुराग जी बीच में हैं। पता नहीं इन्होंने आपको बताया कि नहीं। उस जमीन पर पचास हजार स्क्वेयर फीट का शेड भी खड़ा है।'

अनुराग ने बात समाप्त करते हुए कहा,

'दस एकड़ जमीन है और उस पर पचास हजार स्क्वेयर फीट का शेड है। चंद्रा जी जमीन निकालना चाहते हैं। रेट मैं सही लगवा दूँगा। तुम एक बार जमीन देख लो।'

'ठीक है, तो कल सुबह, दस बजे।'

कार्तिक ने दोनों से हाथ मिलाया और बाहर निकल आया।

शाम को अपने घर के लान पर, अपनी प्रिय मुद्रा में, जब वह पैर फैला कर बैठा और उसने चाय का बड़ा मग अपने हाथ में लिया तो उसे बड़ा सुकून महसूस हुआ।

शाम अब ढलने लगी थी। आसमान साफ था और उस पर तारे छिटके हुए थे। उत्तर में सबसे चमकदार ध्रुव तारा, उसी से कुछ दूरी पर सप्तर्षि। आसमान उसे बचपन से फैसिनेट करता था। गर्मियों में जब वे छत पर या घर के सामने छोटे से बगीचे में पानी का छिड़काव कर, बिस्तर ठंडे करने के बाद उन पर लेटते थे तो ऊपर आसमान जैसे उसे मोहित कर लेता था। जाने कैसे-कैसे विचार उसके मन में आते। वह आसमान में आकृतियाँ ढूँढ़ता, तारों और चंद्रमा से बातचीत करता, उन्हें अपने घर बुलाता। कभी आकाश की विशालता उसमें भय और क्षुद्रता का भाव भरती, कभी उसकी पल-पल बदलती छवियाँ उसे चमत्कृत करतीं। वह आसमान के प्रति जिज्ञासा का भाव लेकर बड़ा हुआ था। बड़ा होने के बाद भी ये फैसिनेशन उसके मन से गया नहीं। वह अब कई तारों को पहचान सकता था। समय मिलने पर वह अक्सर उन्हें निहारता। कभी नंगी आँखों से, कभी खुद के बनाए टेलिस्कोप से। तारों भरे आसमान की उसके जीवन में एक दार्शनिक जगह थी।

आज जब वह अपने घर के लान पर आसमान को निहारता, लेटा-अधलेटा सा था तो उसने सोचा - नियति भी कैसे कैसे खेल दिखाती है? आज जब वह इस शहर में अपनी जिंदगी नई समृद्धि के साथ शुरू करने जा रहा था तो एक बार फिर वही आदमी उसके जीवन में उपस्थित था जिससे उसका पहले सम्मान और फिर घृणा का रिश्ता था।

वही, रमेश चंद्र गुप्ता।

स्मृति में एक खेल

पहले पहल जब वह उनसे मिला था तब वे शहर के बड़े उद्योगपति थे और वह एक नवयुवक, ऊर्जा से भरा हुआ। हाल ही में पाए इंजीनियरिंग एवं प्रबंधन के ज्ञान से सन्नद्ध, जो कुछ कर दिखाने का जज्बा रखता था, हालाँकि यह तय नहीं था कि ठीक ठीक क्या कर दिखाना है? दुनिया खुली थी और वह दिशा पकड़ने के लिए स्वतंत्र था। हँसमुख, बुद्धिमान और शिक्षित, वह कहीं भी पहुँच सकता था।

लगभग पाँच साल में चार नौकरियाँ छोड़ने के बाद उसने अपना खुद का काम शुरू करने का निर्णय लिया। किसी भी नौकरी से उसका मन भरता ही नहीं था। बॉस उसे बहुत ही यांत्रिक और अकड़ू किस्म के नजर आते थे जो सभी क्रिएटिव संभावनाओं को समाप्त करना अपना कर्तव्य समझते थे; सहयोगी उसे हड़बिड़ए और मैनिपुलेटिव नजर आते थे जो जैसे तैसे आगे निकलना चाहते थे; पूरा वातावरण उसे नीरस और दमघोंटू लगता था जहाँ जीवन रस के सूखने की पूरी-पूरी संभावना थी। साल होते न होते उसका मन एक नौकरी से ऊब जाता और वह दूसरी की तलाश में लग जाता। नौकरियाँ उसे आसानी से मिल भी जाती थीं पर वे उसे संलग्न न रख पातीं। पाँच साल पूरे होते होते उसका मन नौकरी के विचार से ही भर गया। उसने सोचा वह अपना कोई काम करेगा।

पाँच साल में उसने काफी दुनिया देख ली थी और टेक्नॉलॉजी की उसे अच्छी समझ थी। कलर टी.वी. और इलेक्ट्रानिक इंडस्ट्री तब उभार पर थी और वह सर्किट डिजाइन का मास्टर था। उसने अपनी सलाहकार सेवाएँ शुरू कीं। यह काम वह लगभग अकेले ही शुरू कर सकता था।

देश में तब एशियाड खेलों की धूम थी। कलर टी.वी. इंडस्ट्री के विस्तार को एशियाड खेलों से जोड़ दिया गया था। लोग धड़ाधड़ अपने श्वेत-श्याम टी.वी. के बदले कलर टेलीविजन सेट्स खरीद रहे थे। आडियो इंडस्ट्री में भी बूम था। कार्तिक को लगा उसकी सलाहकार सेवा चल निकलेगी।

तब रमेश चंद्र गुप्ता इलेक्ट्रानिक इंडस्ट्री के उभरते सितारे थे। टेलीविजन में देखो तो कोलंबिया इलेक्ट्रानिक, आडियो सिस्टम्स में देखिए तो एम टेक आडियो, कैसेट्स में देखिए तो यूनाइटेड कैसेट्स - हर तरफ रमेश चंद्र गुप्ता के लगाए यूनिट्स की धूम थी। कार्तिक के पिछड़े प्रदेश मे उन्हें औद्योगिक क्रांति लाने वाला माना जा रहा था। वे अक्सर उद्योगपतियों के चैंबर में या मंत्रियों के बंगलों पर टहलते मिल जाते। अखबार के तीसरे पृष्ठ पर अक्सर उनके साक्षात्कार छपते। वे आए दिन, कहीं न कहीं, किसी शो रूम या यूनिट का उद्घाटन करते पाए जाते।

ये स्वाभाविक ही था कि कार्तिक सबसे पहले रमेशचंद्र गुप्ता से मिलने का प्रयास करता। वह नया नया कंसल्टेंट बना था और उसके पास बहुत से विचार थे। उसे लगता था कि जो गुप्ता जी आज, कंज्यूमर इलेक्ट्रानिक्स के क्षेत्र में लीडर नजर आते हैं, वे पाँच वर्षों में ही पुराने भी पड़ सकते थे। जल्दी ही इस इंडस्ट्री में ठहराव आने की संभावना थी और उन्हें आज से ही डाइवर्सिफिकेशन की तैयारी करनी चाहिए थी। वह ऐसे बहुत से विचार उन्हें सुझा सकता था जिनसे वे पाँच साल आगे का प्लान बना पाते। वह सोचता था कि उन्हें अगर एक दो विचार भी जँच गए तो कुछ प्रोजेक्ट्स तो उसके हाथ में आ ही जाएँगे।

काफी प्रयासों के बाद उसे उनसे मिलने का अपाइंटटमेंट मिला। उसने बैठक की अच्छी तैयारी की। अलग-अलग विचारों पर केंद्रित प्रोजेक्ट प्रोफाइल बनाई, दोस्तों से गुप्ता जी के स्वभाव के बारे में जाना और बिल्कुल ठीक समय पर उनसे मिलने पहुँच गया। केबिन के बाहर बैठी रिसेप्शनिस्ट ने बताया कि गुप्ता जी फिलहाल व्यस्त हैं और उसे इंतजार करना होगा। करीब एक घंटे के इंतजार के बाद उसे भीतर बुलाया गया। केबिन के वातावरण से उसे नहीं लगा कि वे किसी काम में व्यस्त रहे होंगे।

वे बड़ी से टेबल के पीछे एक कुर्सी पर झूलते से बैठे थे। बैक ड्रॉप में विश्व का बड़ा सा नक्शा लगा था। पीछे की पूरी दीवार उस नक्शे से आच्छादित थी। पहली नजर में लगता था कि गुप्ता जी पीछे दिख रहे पूरे विश्व के मालिक हैं। निश्चित ही यह साज-सज्जा आगंतुकों पर प्रभाव जमाने के लिए की गई थी।

उन्होंने निगाहें उठाई और कहा,

'हाँ जी त्रिवेदी जी, बताइए।'

कार्तिक ने कहा,

'सर मैंने कंज्यूमर इलेक्ट्रानिक्स की फील्ड में आपकी ग्रोथ देखी है। पिछले पाँच वर्षों में आप ब्रंड लीडर बनकर उभरे हैं। पर मुझे लगता है कि अगले पाँच वर्षों में समय बदलेगा और इंडस्ट्री में ठहराव आएगा। आपको अभी से कुछ डाइवर्सिफिकेशन की तैयारी करना चाहिए।'

एक युवा लड़के को इतनी समझदारी की बात करते देख गुप्ता जी ठठा कर हँसे।

'तो आप मुझे सलाह देने आए हैं?'

'सर मेरी फर्म ही सलाहकार फर्म है। नई संभावनाओं की तलाश करना और अपने क्लायंट्स तक उन्हें पहुँचाना ही हमारा काम है।'

गुप्ता ने गंभीर होते हुए कहा,

'अच्छा तो बताइए, हमारे लिए आपके पास क्या आइडियाज हैं?'

कार्तिक ने अब अपनी पूरी कम्यूनिकेशन स्किल का इस्तेमाल किया। उसने उन्हें बताया कि क्योंकि वे पहले से ही इलेक्ट्रानिक्स इंडस्ट्री में हैं, वे स्वास्थ्य के क्षेत्र में इलेक्ट्रानिक उपकरण बनाने की संभावना पर विचार कर सकते हैं। आजकल स्कैनिंग, एम.आर.आई., इमेजिंग और टेस्टिंग के इतने उपकरणों की जरूरत पड़ती है, वे उन्हें बना सकते हैं या बाहर से बुलवा सकते हैं। दूसरे, उन्हें सिर्फ फिनिश्ड प्रॉडक्ट्स में ही नहीं रहना चाहिए। अगर वे कंपोनेंट स्तर पर जाएँ तो उनका लाभ बढ़ सकता है। तीसरे, वे वर्टिकल मोबिलिटी के बारे में सोचें। जैसे, अगर वे कैसेट्स बना रहे हैं, तो क्या वे रिकार्डिंग स्टूडियो और डिस्ट्रीब्यूशन चैनल के बारे में नहीं सोच सकते?

गुप्ता जी को कार्तिक के तीनों ही विचार बहुत पसंद आए थे। उन्होंने अपनी भारी हँसी, जो उनका ट्रेड मार्क थी, में हँसते हुए कहा था,

'बहुत बढ़िया त्रिवेदीजी, आपके तीनों आइडियाज बहुत अच्छे हैं। आप तो तीनों की अलग-अलग प्रोजेक्ट रिपोर्ट बना दीजिए।'

कार्तिक को अच्छा लगा। उसने एक बड़े क्लायंट को प्रभावित कर लिया था। पहली मुलाकात में ही रिपोर्ट बनाने का काम मिल रहा था। उसने कहा,

'यस सर।'

'पर एक बात ध्यान रखिएगा।'

'जी, बताएँ।'

'प्रत्येक प्रोजेक्ट सौ करोड़ से कम का नहीं होना चाहिए। छोटे प्रोजेक्ट्स में मेरी रुचि नहीं है।'

'जी, पूरी कोशिश करूँगा।'

'और इंफ्रास्ट्रक्चर एक बार में पूरा पूरा बनाइएगा। नो फेजिंग। सब काम एक साथ होगा अलग-अलग चरणों में नहीं।'

'जी, बेहतर है।'

कार्तिक ने संतोष की साँस ली। अब वह काम में जुट सकता था।

अगले तीन महीने कार्तिक ने कड़ी मेहनत की। उसने मार्केट डाटा में गहरा गोता लगाकर भविष्य के सही सही अनुमान लगाए। भविष्य की संभावनाएँ वाकई बहुत अच्छी नजर आ रही थीं। मशीनों और कच्चे माल के विक्रेताओं से उसने सीधी मुलाकातें कीं और उनसे सर्वोत्तम दरें प्राप्त कीं। उसने वित्तीय अनुमान इतनी अच्छी तरह तैयार किए कि कैश फ्लो और बैंक ऋण के लिए जरूरी सारे अनुपात बिल्कुल बैंक की जरूरतों के अनुसार निकल आए।

वह बीच-बीच में गुप्ता जी से मिलता रहता था और उनकी अंतर्दृष्टि से प्रभावित था। वे बड़ी आसानी से प्रोजेक्ट की कमियाँ पहचान लेते थे और सही सही सुझाव देते थे। अपने वित्तीय आँकड़े उन्हें जुबानी याद थे और वे जानते थे कि परियोजना रिपोर्ट में कहाँ, उनका बड़ी चतुराई से प्रयोग किया जाना है। बैंकों के संभावित सवालों से वे पूरी तरह परिचित थे और उनके जवाब वे रिपोर्ट में ही शामिल करवाते जा रहे थे। उन्होंने जोर देकर बिल्डिंग और मशीनों की कीमतें बढ़वाई जो शायद स्टील और डालर की कीमतों में संभावित उतार-चढ़ाव के मद्देनजर बढ़ाई गई थीं।

अब रिपोर्ट्स तैयार थीं और सबसे बड़ी बात ये थी कि गुप्ता जी इसका पूरा श्रेय कार्तिक को ही दे रहे थे। वे उसके काम से बहुत प्रभावित नजर आते थे। जब उसने रिपोर्ट्स प्रस्तुत कीं तो उन्होंने कहा,

'वाह त्रिवेदी जी वाह। मजा आ गया। बहुत बढ़िया रिपोर्ट्स बनाई हैं आपने।'

'सर इनमें आपके सुझाव भी शामिल हैं। इनमें आपका भी योगदान है।'

'अरे नहीं भाई, मैंने तो अपने अनुभव का कुछ लाभ आपको दिया था। मैं आपके जैसी भाषा थोड़े ही लिख सकता हूँ। रिपोर्ट्स तो आपने ही बनाई हैं। प्रोजेक्ट कंसल्टेंट भी आप ही होंगे।'

कार्तिक का सीना चौड़ा हो गया। इन्हें है सही आदमी की पहचान। तभी तो इतने यूनिट्स लगा रहे हैं, इतनी प्रगति कर रहे हैं।

गुप्ता ने आगे कहा,

'और हाँ, ये प्रोजेक्ट रिपोर्ट्स का बिल अकाउंट्स डिपार्टमेंट में दे दीजिएगा। एक दो दिन में पेमेंट हो जाएगा। अपनी आगे की कंसल्टेंसी फीस भी बता दीजिएगा। प्रोजेक्ट्स आपको ही लगवाने हैं।'

और वाकई एक दो दिन में उसका बिल क्लियर हो गया। पहली बार अपने मेहनताने का डेढ़ लाख रुपये का चेक उसके हाथ में आया। कार्तिक की खुशी का ठिकाना न था। आगे के बड़े कामों को देखते हुए उसने अपनी कंसल्टेंसी फीस बताई आठ लाख रुपये। गुप्ता ने उसे बुलाया और हँसते हुए कहा,

'देखिए त्रिवेदीजी, मैंने आपकी फीस अप्रूव कर दी है। अब आप काम बीच में मत छोड़िएगा।'

कार्तिक की सलाहकार सेवा की इससे बेहतर शुरुआत और क्या हो सकती थी?

कार्तिक ने करीब एक महीने में ही प्रोजेक्ट अप्रेसल करवा के ऋण स्वीकृत करवा लिया। गुप्ता जी को डिफेंड करना सरल था। शुरू में एक दो बार वे उसके साथ गए भी थे। इस दौरान अपना गुरु मंत्र देते हुए उन्होंने कहा था,

'हर समय बैंक के सबसे बड़े ऑफीसर से शुरू करना चाहिए। छोटे-मोटे ऑफीसर एक तो कम समझ रखते हैं और फिर भटकाने उलझाने का काम ज्यादा करते हैं। आपके साथ एक प्रोफेशनल कंसल्टेंट होना चाहिए और पुख्ता प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी, सो तुम और तुम्हारी रिपोर्ट्स हैं ही। तीसरा आदमी, प्रोजेक्ट मैनेजर लेवल का, साथ साथ दिखना चाहिए जो आपका बैग उठाकर चले। इससे अच्छा प्रभाव पड़ता है। और ध्यान रहे, हमें हर समय बड़ी गाड़ी में बैंक जाना है। वह प्रतिष्ठा की निशानी होती है।'

उन्होंने ठीक इसी तरह मूवमेंट किया। पहली एक दो मुलाकातों के बाद ही बैंक के जोनल मैनेजर ने कह दिया,

'सर, आपको आने की जरूरत नहीं। त्रिवेदी जी हैं तो, हम इनसे सारा डाक्यूमेंटेशन करवा लेंगे।'

फिर वे कभी बैंक नहीं गए। मार्जिन मनी का इंतजाम पहले से था। बाजार भी बैंकों को प्रामिसिंग दिखता था। सो ऋण स्वीकृत होने में कोई समय नहीं लगा। जल्दी ही जमीन खरीद ली गई। बिल्डिंग बनाने का काम शुरू हो गया और मशीनों के ऑर्डर देने की तैयारी भी प्रारंभ हो गई।

प्रोजेक्ट बनाने, ऋण स्वीकृत करवाने और काम शुरू करने के दौरान कार्तिक की गुप्ता जी से नजदीकियाँ बन गई थीं। अब उसकी उन तक सीधी पहुँच थी। वह कभी कभी यूँ ही उनसे मिलने, बात करने जा सकता था। ऐसे ही एक दिन जब वह उनसे मिलने पहुँचा तो वे प्रसन्न और हल्के मूड में, अपने विशाल केबिन के, सोफे पर बैठे हुए थे। उसे देखकर उन्होंने कहा,

'आओ भई कार्तिक, कैसा चल रहा है प्रोजेक्ट का काम?'

कार्तिक अब उनके लिए त्रिवेदीजी से कार्तिक हो चुका था।

'ठीक है सर। सब कुछ समय से चल रहा है।'

'बढ़िया, तो आओ बैठो। मैं तुम्हें काफी पिलवाता हूँ।'

उन्होंने घंटी बजाई। सफेद कपड़ों में सजा एक असिस्टेंट, सुंदर से कटलरी सेट में, कॉफी और बिस्किट रख गया। आज गुप्ता जी कुछ ज्यादा ही मजे में थे। उन्होंने चम्मच से एक दो बार खाली कप्स को बजाया। फिर खुद ही प्रसन्न हुए। कार्तिक ने मौका देखकर बात छेड़ी,

'सर कभी कभी मुझे आपकी निर्णय क्षमता पर आश्चर्य होता है। कितनी तेजी से आपने इन इकाइयों के बारे में सोचा। कितनी तेजी से काम शुरू करवाया। अभी चार महीने भी नहीं हुए हैं कि हम कंस्ट्रक्शन फेस में आ गए हैं। कैसे करते हैं आप ये सब?'

गुप्ता जी ने कार्तिक की बात का कोई सीधा जवाब नहीं दिया। उन्होंने कुछ देर सोचा, फिर एक कागज उठाया, उस पर नौ बिंदुओं से एक आयत बनाया और उसे कार्तिक को देते हुए बोले,

'कार्तिक, तुमने कभी ये नौ बिंदुओं का खेल खेला है?'

कार्तिक ने कागज हाथ में लेते हुए देखा, उस पर इस तरह का चित्र बना था :

उस चित्र को देखकर वह थोड़ा अचंभित हुआ। उसने कहा,

'नहीं सर, कभी नहीं।'

'तो इसे खेलकर देखो तुम सारी बात खुद ही समझ जाओगे। तुम्हें बिना पेन उठाए, इन सभी बिंदुओं को एक ही स्ट्रोक में जोड़कर दिखाना है, ऐसे कि पेन कभी भी एक रेखा पर दुबारा न चले। और ध्यान रहे, कुल चार रेखाएँ खींचकर ही तुम्हें इन बिंदुओं को जोड़ना है। इसे करके देखो, फिर कल मुझे बताना। मैं कल तुमसे आगे की बात करूँगा।'

कार्तिक कुछ सोचता हुआ सा, उस चित्र को लिए हुए बाहर आया।

रात में उसने बहुत कोशिश की कि वह उन नौ बिंदुओं को, बिना पेन उठाए और किसी एक रेखा पर बिना दुबारा चले, जोड़ पाए पर वह ऐसा नहीं कर सका। हर बार या तो कोई बिंदु छूट जाता था या रेखा कट जाती थी। या पाँचवीं रेखा का प्रयोग करना पड़ता था। थक कर उसने कागज और पेन अलग रखा और सोचा, कल गुप्ता जी से ही पूछूँगा।

पर अगले दिन गुप्ता जी कहाँ थे? वे तो मशीनों का ऑर्डर देने, उनका सिलेक्शन करने सीधे यू.एस. चले गए थे। उसे थोड़ा अटपटा लगा कि जाने के पहले उन्होंने उससे बात तक नहीं की। कोटेशन वगैरह तो उसी ने मँगवाए थे और उसे उनकी तकनीकी समझ भी थी। उसे तो उम्मीद थी कि उसे भी साथ ले जाया जाएगा। खैर, जैसी उनकी मर्जी। बस काम ठीक हो जाना चाहिए।

छह महीने के भीतर मशीनरी भारत आ गईं। बिल्डिंग भी लगभग तैयार थी। इंस्टालेशन के बाद रिकार्ड समय में उत्पादन शुरू हो गया। गुप्ता जी इस बीच बाहर ही बाहर रहे थे। निर्माण चोपड़ा करवा रहा था। मशीनें कार्तिक की देख-रेख में स्थापित हुई। उत्पादन शुरू होने के ठीक एक हफ्ते पहले वे शहर में पहुँचे, एक जोरदार उद्घाटन कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें मुख्यमंत्री सहित शहर के सभी बड़े लोग उपस्थित थे।

उनकी प्रतिष्ठा में अब दो तीन नई औद्योगिक इकाइयों का नाम और जुड़ गया था।

फिर एक दिन अचानक उन्होंने कार्तिक को बुलवा लिया।

आज वे बहुत अच्छे मूड में थे। उन्होंने उसे अपने अमेरिका प्रवास के किस्से सुनाए, वहाँ के विक्रेताओं के प्रोफेशनल व्यवहार के बारे में बताया और बताया कि कैसे उन्होंने वहाँ सबसे बढ़िया डील हासिल की। फिर पूछा,

'कार्तिक मैंने तुम्हें वह नौ बिंदुओं का खेल सुलझाने के लिए दिया था। क्या हुआ, तुमसे बना या नहीं?'

'नहीं सर। मैंने बहुत कोशिश की पर नहीं बना।'

'पहले पहल मुझसे भी नहीं बना था। इसको हल करने के लिए एक गुरु की दरकार होती है। मेरे गुरु बांगड़ ने मुझे इसे हल करना सिखाया था। चलो मैं तुम्हें उसकी कहानी सुनाता हूँ।'

कह कर गुप्ता ने अपनी कहानी सुनाना शुरू किया,

'कार्तिक, मैं शुरू से ऐसा नहीं था जैसा आज दिखता हूँ। मेरे पिता पास के छोटे कस्बे में चाय की दुकान चलाया करते थे। साथ ही वे राजस्थान से नमकीन के पैकेट बुलाकर, शहर में बेचते। करीब करीब तीस साल तक वे यही काम करते रहे। थोड़ी बहुत जो बचत होती थी उससे उन्होंने घर बनवा लिया। दुकान ठीक ठाक कर ली और हम चार भाई बहनों का पालन कर लिया, पर घर में हर समय पैसे की तंगी बनी रहती थी।

मेरे देखते देखते पिता के कई दोस्त करोड़पति अरबपति बन गए। चांडक ने अपना एक्सपोर्ट का बिजनेस खड़ा कर लिया, अग्रवाल ने कई शो रूम खोल डाले और राठी ने स्टील मिल डाल ली। मेरे पिता रहे वहीं के वहीं। मुझे बहुत कोफ्त होती थी। मैं पैसा कमाना चाहता था, ढेर सारा पैसा। चांडक, अग्रवाल और राठी की तरह।

फिर मैंने एक दिन तय किया, मैं पैसा कमाऊँगा, चाहे कुछ भी हो जाए।'

गुप्ता जी साँस लेने के लिए रुके,

'मेरे बड़े भाई ने सरकारी नौकरी कर ली थी। दो कमरों के सरकारी क्वार्टर में वह अपने बीवी बच्चों के साथ रहता था। मुझे जल्दी ही समझ आ गया कि उस तरह की नौकरी से पैसा नहीं कमाया जा सकता। किसी भी नौकरी में आप एक सीमा तक ही जा सकते हैं और मुझे सीमा पसंद नहीं थी। वैसे भी नौकरी का रास्ता बहुत लंबा रास्ता था और मैं जल्दी में था। सो मैंने तय किया कि मैं नौकरी नहीं, अपना कोई काम करूँगा।'

कार्तिक बहुत ध्यान से उन्हें देख रहा था,

'लेकिन काम शुरू करने के लिए भी तो पैसा चाहिए था। मेरे पास तो वह भी नहीं था। तब मैं बांगड़ के पास पहुँचा। वे मेरे पिता के दोस्त थे, हमारे घर उनका आना-जाना था और वे अक्सर मुझसे कहा करते थे - तू अपना कुछ धंधा शुरू कर भाया।'

गुप्ता जी अपनी कथा सुना ही रहे थे कि उनके ऑफिस में एक युवा-स्मार्ट से लड़के ने प्रवेश किया। उसे कोई फाइल देखना थी। गुप्ता जी ने परिचय कराते हुए कहा - ये मेरा बेटा दीपक है, इसने यू.एस. में मशीनरी वगैरह खरीदने में मेरी बड़ी मदद की और दीपक ये हैं कार्तिक, हमारे प्रोजेक्ट कंसल्टेंट। मैं इन्हें बिजनेस के कुछ गुर सिखा रहा था। दीपक जोर से हँसा, बिल्कुल अपने पापा की तरह, फिर बोला - 'लेट अस मीट सम टाइम' और जितनी तेजी से आया था उतनी ही तेजी से निकल गया।

गुप्ता जी ने अपनी बात जारी रखी,

'तो मैं बांगड़ के पास पहुँचा और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। मेरी बात सुनकर पहले तो वे मुस्कुराए फिर पूछा,

''एक बात बता, तेरे पास पैसा है नहीं। और तुझे पैसा चाहिए। तो तू सोच कि वह आएगा कहाँ से?''

''वही तो मैं आपसे पूछने आया हूँ।''

''देख, पैसा वहीं से आ सकता है जहाँ वह है, यानी तेरे धनी दोस्तों और रिश्तेदारों से, सो वे तो देने से रहे। उन्हें खुद पैसा कमाना है। या फिर लोगों से शेयर के रूप में, तो अभी तू वह भी नहीं कर सकता क्योंकि मार्केट में तेरी कोई साख नहीं है। तो आखिरी रास्ता बचता है बैंक, तू बैंकों के बारे में सोच।''

''पर भैया बैंक से भी ऋण लेने के लिए इतना पैसा तो चाहिए कि मैं अपना मार्जिन लगा सकूँ।''

''वह इंतजाम मैं कर दूँगा। शुरू में मार्जिन का पैसा मैं तुझे दे दूँगा। पर तुझे वह वापस करना पड़ेगा।''

''कैसे?''

''अभी तुझे बताता हूँ। तू पहला काम ये कर कि कोई बड़ा सा प्रोजेक्ट बना। ऐसा जो बैंक को पसंद आए। छोटा काम नहीं करना, क्योंकि छोटे और बड़े काम में मेहनत एक बराबर लगती है।''

''और मार्जिन?''

''मार्जिन शुरू में दिखानी पड़ती है। सो मैं तुझे दे ही रहा हूँ। बाद में तेरी प्रोजेक्ट कास्ट में ही तेरी मार्जिन भी शामिल होगी। वह तू निकाल लेना और मुझे वापस कर देना।''

गुप्ता जी ने कहा,

'मुझे कुछ समझ आया कुछ नहीं। फिर मार्जिन के अलावा और भी तो काम थे। जमीन, मशीनरी, प्रोजेक्ट के लिए आदमी, पब्लिसिटी। वे सब कैसे होंगे? मैंने बांगड़ से फिर अपनी बात कही। उसने अभी अभी अपनी नई स्टील मिल डाली थी। पहले से ही स्टील मिलों की एक चेन उसके पास थी। बांगड़ ने मुझे एक बड़ा गिलास भरकर छाछ पिलाई और बोला,

''तू अपना दिमाग जरा ठंडा रख भाया। गरम दिमाग से पैसा नहीं कमाया जाता। अब मैं तुझे एक काम देता हूँ, तूने अब तक जो बातें मुझसे कही हैं और मैंने जो तुझे समझाई हैं, उनकी एक लिस्ट बना।''

'मुझे बांगड़ से बात करते हुए अब मजा आने लगा था, हालाँकि मुझे समझ नहीं आया था कि वह मुझसे लिस्ट क्यों बनवा रहा था, पर फिर भी मैंने बनाई, जो इस प्रकार थी,

1. विचार कि पैसा कमाना है, ढेर सारा पैसा। इसी से खुशी पाई जा सकती है।

2. नौकरी लंबा रास्ता है। अपना काम शुरू करना होगा।

3. दोस्तों और रिश्तेदारों से धन नहीं पाया जा सकता। बैंक से ही लेना होगा।

4. बैंक के लिए जरूरी मार्जिन बांगड़ उधार दे देंगे।

5. प्रोजेक्ट बड़ा बनाना है। मार्जिन भी कीमत में ही शामिल हो। उसे बाहर निकाला जाएगा।

6. जमीन लें, मगर सस्ती।

7. मशीनरी खरीदें, मगर महँगी।

8. प्रोजेक्ट चलाने के लिए आदमी (?)।

9. प्रचार, जोरदार होना चाहिए।

मैंने लिस्ट बांगड़ को दी तो उसे देखकर वह बहुत खुश हुआ। बोला - तू होशियार आदमी है। तू वहाँ पहुँच गया है जहाँ मैं तुझे ले जाना चाहता हूँ। तू कर लेगा। पर मैंने फिर भी कहा - भैया मुझे अब भी बात ठीक ठीक समझ नहीं आई है। जवाब में उसने मुझे यही नौ बिंदुओंवाला आयत पकड़ा दिया था। और कहा था - मान ले कि तेरी लिस्ट में दिए गए नौ बिंदु ये नौ बिंदु हैं। अब तू बिना कलम उठाए, एक ही स्ट्रोक में उन्हें जोड़कर दिखा। ध्यान रखना कि किसी भी रेखा पर दुबारा कलम नहीं चलानी है और चार रेखाओं से ज्यादा का प्रयोग नहीं करना है। मैंने बहुत कोशिश की पर जोड़ नहीं पाया, जैसे तुम नहीं जोड़ पाए। तब बांगड़ ने अपना गुरु मंत्र मुझे दिया।'

कार्तिक अपनी उत्सुकता दबा नहीं पा रहा था। वातावरण में अच्छा खासा तनाव बन गया था। कार्तिक सोफे पर सामने की ओर झुक आया था। उसने पूछा,

'क्या? क्या था वह गुरु मंत्र?'

'बांगड़ ने मुझे बताया - भाया, तू इन नौ बिंदुओं को तब तक नहीं जोड़ सकता जब तक कि इनके बाहर का एक दसवाँ बिंदु न खोज ले। पहले से खेल रहे लोग या सरकार, ये थोड़े ही चाहते हैं कि हर आदमी पैसा कमा ले। हर आदमी पैसा कमा लेगा तो उनका क्या होगा? इसलिए नियम ही ऐसे बनाए जाते हैं कि लोग चकरघिन्नी बने रहें, कोल्हू के बैल की तरह पिसते रहें, कठिनाई पर कठिनाई झेलते रहें और सीमा के भीतर रहें। होशियार आदमी इस बात को समझता है। वह पहले सीमाएँ तोड़ता है, दिए गए फ्रेम से बाहर निकलता है और सफलता हासिल करता है। बस ये ध्यान रखता है कि बाहर निकलने के बाद भीतर आने की संभावना बनी रहे। इतना कहने के बाद बांगड़ ने मुझे एक और चित्र दिया जो इस प्रकार था।'

कहकर गुप्ता ने एक कागज उठाया, उस पर दूसरा चित्र बनाया और कार्तिक को दिया।

कार्तिक ने चित्र को ध्यान से देखा। चित्र में दो स्थानों पर कलम आयत से बाहर निकली थी। अब गुप्ता ने कहा,

'कुछ समझे?'

'जी, दो स्थानों पर कलम आयत के बाहर निकली है, और सभी बिंदु एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सिर्फ चार रेखाओं का ही प्रयोग किया गया है।'

'बिल्कुल ठीक, बांगड़ ने इसका मतलब बताते हुए मुझे समझाया था। ऐसा है भाया कि अगर तुझे पैसा कमाना है तो तुझे अपनी सोच की सीमा से बाहर निकलना पड़ेगा। दिए गए नियमों के भीतर कभी किसी ने पैसा कमाया है? तू सोच और अपना दसवाँ बिंदु खोज।'

'तो आपने अपना दसवाँ बिंदु खोजा?'

'हाँ।'

'वह क्या था?'

गुप्ता ने उठते हुए कहा,

'वह मैं तुम्हें आज नहीं बताऊँगा। वह तुम्हें खुद ही खोजना पड़ेगा। कभी जरूरत हो तो चोपड़ा से बात करना। वह शायद तुम्हें समझा दे।'

कार्तिक ने कहा,

'ठीक है सर। मैं जोर नहीं दूँगा। सर, एक बात और थी।'

'बोलो।'

'मैंने अपनी कंसल्टेंसी फीस का बिल अकाउंट्स में दे दिया है। आपको याद होगा कि आठ लाख की बात हुई थी। मुझे एडवांस में दो लाख ही मिले थे। अब यूनिट चालू हो गए हैं। मेरा काम भी खत्म हो गया है। आप अकाउंट्स से कहकर मेरा पेमेंट करवा दें।'

'करवा दूँगा भाई करवा दूँगा। तुम एक हफ्ते बाद मैनेजर से मिल लेना। मैं उससे कह दूँगा।'

कार्तिक ने 'थैंक यू सर' कहा और बाहर निकल आया।

एक हफ्ते बाद जब वह कोलंबिया इलेक्ट्रानिक्स के दफ्तर में पहुँचा तो मालूम पड़ा गुप्ता जी आज उससे नहीं मिल पाएँगे।

दूसरे हफ्ते जब वह फिर पहुँचा तो ट्रेसी, उनकी रिसेप्शनिस्ट, ने बताया कि वे एक जरूरी मीटिंग में हैं और वह पंद्रह दिन बाद आ सकता है।

जब वह पंद्रह दिन के बाद पहुँचा तो गुप्ता जी बाहर चले गए थे। फिर वे छ्ह महीने तक नहीं लौटे।

खबर आई कि कोलंबिया इलेक्ट्रानिक्स, एमटेक आडियो और एडवांस हेल्थ सिस्टम्स नामक उनकी कंपनियों में कर्मचारियों को तनख्वाह मिलना बंद हो चुका है। धीरे-धीरे करके बहुत सारे लोग उनके यहाँ से नौकरियाँ छोड़ रहे हैं। सिर्फ कुछ सीनियर लोग ही रह गए हैं जिन्हें अभी बचा के रखा गया है। वे सभी, जो ऊँची-ऊँची तनख्वाहों पर नौकरी पाने की खुशी मना रहे थे, अब या तो नौकरी छोड़ चुके थे या निकाले जा चुके थे। वे अब फिर से बेरोजगार थे।

कार्तिक को ये खबरें सुनकर बहुत दुख होता। इनमें से कुछ यूनिट्स के साथ उसका इमोशनल जुड़ाव था। वह प्रोफेशनल सर्कल में गर्व के साथ अपने पहले असाइनमेंट का जिक्र करता था। वह मानता था कि गुप्ता जी के साथ काम करने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है। वह उन्हें सफल होते देखना चाहता था। यह बात उसकी समझ के बाहर थी कि इतनी संभावनाशील इकाइयों पर गुप्ता जी ध्यान क्यों नहीं दे रहे थे।

दूसरी ओर उसे अपनी कंसल्टेंसी फीस की भी चिंता थी। बार-बार के फॉलोअप के बाद भी उसे अपनी बकाया फीस नहीं मिली थी। उसे याद आया गुप्ता ने एक बार चोपड़ा का नाम लिया था। वह चोपड़ा से मिलने पहुँचा।

ऑफिस में एक अजीब तरह की मनहूसियत छाई हुई थी। यूनिट शुरू होने के बाद जब वह पहले पहल आया था तो कैसी चहल पहल थी। अब प्रोडक्शन बंद था। ऑफिस में कुल दस बारह लोग थे। चोपड़ा अपने केबिन में बैठा था। उसके माथे पर शिकन तक नहीं थी। कार्तिक को देखकर उसने कहा,

'आइए त्रिवेदी जी आइए। गुप्ता जी तो हैं नहीं।'

'जी मुझे मालूम है। मैं आपसे ही मिलने आया हूँ।'

'जी बताएँ।'

'आपको मालूम है कि मेरा कंसल्टेंसी बिल अभी तक कंपनी ने नहीं दिया है। क्या आप बता सकते हैं कि मेरा पेमेंट कब तक होगा?'

चोपड़ा ने थोड़े आश्चर्य से उसकी ओर देखा, जैसे उसने कोई अजीब बात पूछ ली हो। फिर गंभीर होते हुए कहा,

'देखिए त्रिवेदी जी, फिलहाल तो कंपनी की वित्तीय स्थिति अच्छी नहीं है। जब ठीक हो जाएगी तब हम खुद आपको बुला लेंगे।'

कार्तिक को थोड़ा गुस्सा आया,

'मगर मेरा पेमेंट तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था, तब तो कंपनी की वित्तीय स्थिति अच्छी थी।'

'देखिए होने को तो बहुत से काम हो जाने चाहिए थे। प्रोडक्शन अब तक दुगुना हो जाना चाहिए था, कर्मचारियों को छोड़कर नहीं जाना चाहिए था, गुप्ता जी को यहीं रहना चाहिए था पर हुआ ये है कि कंपनी बंद होने की कगार पर है, हमारे पास पैसा नहीं है और हम आपको पेमेंट नहीं कर सकते।'

'और गुप्ता जी, वे खुद कहाँ हैं?'

'जहाँ भी होंगे अपना नौ बिंदुओं का खेल, खेल रहे होंगे।'

अचानक कार्तिक को याद आया गुप्ता ने कहा था कि चोपड़ा उसका दसवाँ बिंदु जानता है। पेमेंट मिले या न मिले वह चोपड़ा से ज्ञान तो हासिल कर ही सकता है। उसने अपनी आवाज नीची करते हुए कहा,

'अच्छा चलिए अपना पेमेंट मैं गुप्ता जी से ले लूँगा। आप तो मुझे एक बात बताइए, उनका दसवाँ बिंदु क्या है? उन्होंने खुद मुझे कहा था कि चोपड़ा ये बात जानता है।'

अब चोपड़ा हँसा।

'क्या आपको नहीं मालूम?'

'जी नहीं।'

'उनका दसवाँ बिंदु है उनकी दूसरी कंपनी, सिस्टम्स एंड सर्विसेज जिसे उनका बेटा दीपक देखता है। पूरा कंस्ट्रक्शन और मशीनरी परचेज उसी के माध्यम से होता है।'

'लेकिन उससे क्या?'

'उसी से तो पूरा खेल बनता है त्रिवेजी जी। आपको याद है कि गुप्ता जी ने बीच-बीच में आपसे प्रोजेक्ट में करेक्शन लगवाए थे? सबसे पहले उन्होंने कंस्ट्रक्शन कास्ट यानी बिल्डिंग की कीमत ज्यादा करवाई। वैसे आठ सौ रुपये स्क्वेयर फीट पर शेड बन जाते हैं पर प्रोजेक्ट में उन्होंने कीमत बारह सौ रुपये स्क्वेयर फीट करवाई। इस तरह उनकी मार्जिन से ज्यादा पैसा तो कंस्ट्रक्शन कास्ट में से ही निकल आया। फिर ये जो सारी मशीनरी आप देख रहे हैं यह यू.एस. से आयात की गई है। कहने को तो ये नए के नाम पर लाई गई है पर है यह पुरानी। इसे रंग रोगन करके नया कर दिया गया है। जो पैसा उन्हें मशीनरी के लिए बैंक से मिला है उससे आधी से भी कम कीमत पर मशीनरी उन्होंने खरीदी है। तीन सौ करोड़ की प्रोजेक्ट कास्ट पर वे पहले ही सौ करोड़ रुपये बाहर निकाल चुके हैं।'

कार्तिक गहरे आश्चर्य और अविश्वास के साथ ये सब सुन रहा था। तो उसका उपयोग सिर्फ इतना था कि वह एक प्रोफेशनल था और उसे सामने रखकर बैंक त्र ऋण जल्दी स्वीकृत करवाया जा सकता था। अब उसकी जरूरत समाप्त हो चुकी थी। उसने चोपड़ा से कहा,

'लेकिन इन इकाइयों को चलना भी तो है?'

'ये आपसे किसने कहा? औद्योगिक क्षेत्र की आधे से ज्यादा इकाइयाँ बंद पड़ी हैं।'

'तो आप इन्हें भी बंद कर देंगे?'

'हम बंद कर नहीं देंगे। ये अपने आप बंद हो जाएँगी।'

'तो इतने कर्मचारी, टेक्नोक्रेट्स, इंजीनियर - इन सबकी नौकरियों का क्या होगा?'

'सब जा तो रहे हैं नौकरियाँ छोड़कर। दूसरी ढूँढ़ लेंगे।'

'और बैंक लोन? उसे तो वापस करना पड़ेगा?'

'देखिए त्रिवेदी जी, गुप्ता जी की लायबिलिटी उनकी मार्जिन तक सीमित है। उससे दुगुना पैसा तो वे पहले ही बाहर निकाल चुके। बाकी पैसा बैंकों, शेयरधारकों और सरकार का है। हो सके तो वे कंपनी से वसूल कर लें।'

'तो अब आप क्या करेंगे?'

'फिलहाल तो हम इंडस्ट्रियल रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड में जाएँगे। कंपनी की वित्तीय स्थिति मजबूत करने के लिए और पैसा माँगेंगे।'

'इस तरह और पैसा मिलेगा तो आप और पैसा बाहर निकालेंगे?'

'बिल्कुल। इसमें क्या शक?'

'लेकिन क्या और पैसा मिलेगा?'

'मिलेगा, मिलेगा क्यों नहीं? इस देश में सब कुछ संभव है।'

चोपड़ा ने कहा और मुस्कुराया। वही होंठों के कोनों से निकलती कुटिल मुस्कुराहट। कार्तिक ने पूछा,

'और गुप्ता जी, फिलहाल वे कहाँ हैं?'

'इस समय वे उड़ीसा का औद्योगिक विकास कर रहे हैं। उन्हें वहाँ एक स्टील मिल डालनी है। और भी बहुत से आइडियाज उनके पास हैं। उसके बाद वे किसी नए राज्य का रास्ता पकड़ेंगे। देश में इतने सारे राज्य हैं। इतना औद्योगिक पिछड़ापन है। गुप्ता जी बहुत अनुभवी आदमी हैं - वे अपने अनुभव का लाभ हर राज्य को पहुँचाए बिना नहीं मानेंगे।'

अब कुछ पूछना बाकी नहीं था। अपने ऑफिस लौटते समय वह सोच रहा था- तो इस तरह हो रहा था देश का औद्योगिक विकास और रोजगार का सृजन? उसके दिमाग में हाल ही में पढ़ी एक आर्थिक सर्वे रिपोर्ट की प्रतिध्वनि गूंजी- देश के औद्योगिक घरानों के पास बैंकों का लगभग एक लाख पचास हजार करोड़ रुपया था जिसे वे लौटा नहीं रहे थे। बैंकों के नान परफार्मिंग असेट्स बढ़ते ही जा रहे थे। आखिर ये सब डूबा हुआ पैसा किसका था? बैंकों का या भारत की जनता का?

दोस्तो ये कहानी यहाँ समाप्त की जा सकती है। जहाँ तक रमेश चंद्र गुप्ता का सवाल है, ये यहाँ लगभग समाप्त भी हो चुकी है, या कम से कम वहाँ आ गई है जिसके आगे जानने में शायद आपकी बहुत रुचि न हो। पर असल सवाल तो नौ बिंदुओं के खेल का था, और अभी ये जानना बाकी है कि क्या उसे किसी और तरह से भी खेला जा सकता है?

कंसल्टेंसी के अपने पहले अनुभव के बाद कार्तिक को भी ये सवाल बहुत दिनों तक मथता रहा। असल में बड़े खिलाड़ी इस बात को बिल्कुल भी नहीं समझ पाते कि उनकी खेल पद्धति का देश के युवा दिमागों पर क्या असर पड़ेगा। पता नहीं उन्होंने कभी 'हार की जीत' कहानी पढ़ी भी थी या नहीं। और अगर पढ़ी थी तो क्या उसे गुना भी था? देश वैसे तो उनके एजेंडा में होता ही नहीं और कभी राडार पर आता भी है तो तब, जब उनके स्वार्थों को नुकसान पहुँच रहा हो।

सो कार्तिक को इस सवाल से अकेले ही जूझना पड़ा। उसका दिल ये मानने को तैयार नहीं था कि गुप्ता जी के रास्ते पर चलकर ही सफलता पाई जा सकती है। इसका मतलब तो ये होता कि दुनिया में अच्छाई नाम की कोई चीज नहीं है और चोरी तथा कमीनापन ही एकमात्र सत्य है।

कोई तो और रास्ता होगा?

मगर क्या?

इसका उत्तर उसे युवाओं के ही एक कान्फ्रेंस में मिला।

कार्तिक कथा

ये लगभग वही समय था जब भारत में सूचना तकनीक ने प्रवेश किया ही था। कंप्यूटर जहाँ तहाँ दिख जाते थे। मेन फ्रेम से आगे बढ़कर मिनी और अब डेस्कटाप, धीरे-धीरे देश में अपनी जड़ें जमाते जा रहे थे। ऑफिसों में वे टाइपराइटर की जगह ले रहे थे और स्कूलों में ब्लैक बोर्ड की।

कोई भी नई तकनीक कार्तिक को बहुत आकर्षित करती थी। उसने जल्दी ही कंप्यूटर से पहचान कर ली और उस पर काम करना सीख लिया। फिर वह छोटे-छोटे प्रोग्राम लिखने लगा, और फर्स्ट लेवल मेंटेनेंस करने लगा। उसे सबसे अच्छी बात ये लगती थी कि आप किसी मशीन को आदेश दें और वह आपके आदेशानुसार काम करने लगे। वह कंप्यूटर की संभावनाओं और उसकी कार्य पद्धति से चमत्कृत था। धीरे-धीरे वह इस विषय पर लेक्चर डिमांस्ट्रेशन देने लगा और शहर में उसकी ख्याति फैल गई। अब उसे स्कूलों, कॉलेजों और प्रोफेशनल सोसायटीज में बोलने के लिए बुलाया जाने लगा।

ऐसे ही एक भाषण में, जब वह स्कूल के छात्रों के बीच कंप्यूटर की कार्यप्रणाली पर बोल रहा था और जब उसे लगा था कि उसने एक बहुत ही शानदार वक्तव्य दिया है, एक छात्र ने अचानक उठकर कहा था,

'सर, आप इस विषय को हमें हिंदी में नहीं समझा सकते? मुझे आपका अँग्रेजी में दिया गया वक्तव्य बिल्कुल समझ नहीं आया।'

कार्तिक के दिमाग में एक बिजली सी कौंधी थी। उसे लगा था - इस तरह के तो लाखों छात्र होंगे जो जानना चाहते होंगे, सीखना चाहते होंगे पर अँग्रेजी नहीं जानने के कारण वे इस तकनीक से अछूते रह जाएँगे? तो क्या वह उन्हें हिंदी में नहीं सिखा सकता? सिखा सकता है, भला क्यों नहीं सिखा सकता? अभी तक किसी ने प्रयास नहीं किया ये अलग बात है पर यहीं तो संभावना भी छुपी हुई है, वह प्रयास करेगा। थोड़ी तैयारी करनी होगी, सो वह कर लेगा।

अगले एक महीने में कुछ अनुवाद और कुछ अनुभव के माध्यम से, उसने कंप्यूटर पर हिंदी में एक लेक्चर तैयार किया। प्रयोग के तौर पर एक दो स्कूलों और महाविद्यालयों में हिंदी में ही लेक्चर डिमांस्ट्रेशन दिए। छात्रों के बीच उसे बहुत सराहना मिली और जोरदार तालियों से उसका स्वागत किया गया। ये उसके लिए प्रेरणा के क्षण थे।

अब उत्साहित होकर, दिन रात जुटकर उसने एक किताब तैयार की। भाषा सीधी सादी और सरल, अभिव्यक्ति सहज मगर तार्किक। फिर उस किताब के आधार पर उसने एक कोर्स तैयार किया। उसे पूरा भरोसा था कि इस कोर्स को स्कूलों में संचालित किया जा सकता है।

अब सवाल था कैसे? कैसे इस कोर्स को स्कूलों में प्रारंभ किया जाए?

मित्रो यहाँ मैं ये कहना चाहता हूँ कि दुनिया में फैली तमाम निगेटिविटी के बावजूद एक अच्छे विचार की जगह हमेशा इस संसार में बनी रहती है। अच्छे विचार उस हरी दूब की तरह होते हैं जो कठोर धरती को चीरकर ऊपर आ ही जाती है, एक अच्छी कविता की तरह।

तो कार्तिक के पास भी एक अच्छा विचार था। उसने अपने कुछ मित्रों से बात की। उन्होंने कहा,

'तुम स्कूल शिक्षा के कमिश्नर से क्यों नहीं मिलते? वे अच्छे आदमी हैं। शिक्षा के काम में जेनुइन रुचि लेते हैं। तुम्हारा आइडिया उन्हें पसंद आ सकता है।'

कार्तिक उस नई पीढ़ी का प्रतिनिधि था जिसे किसी से भी मिलने में कोई गुरेज नहीं था। हो सकता है कमिश्नर बड़े आदमी हों, या अकड़ू किस्म के हों। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? मना ही तो करेंगे? पर मिलने में क्या हर्ज है? वह थोड़ी आशा और थोड़े अविश्वास के साथ उन तक पहुँचा। उसने उन्हें अपना अनुभव सुनाया फिर किताब और कोर्स का परिचय दिया। उसने कहा,

'सर, मुझे पूरी उम्मीद है कि स्कूलों में इसे अवश्य पसंद किया जाएगा।'

कार्तिक को सुखद आश्चर्य हुआ जब कमिश्नर ने कहा,

'मुझे आपका आइडिया पसंद है। पर सरकार इस काम के लिए कोई पैसा नहीं दे सकती। मैं आपको अनुमति दे सकता हूँ। आप पहले दस स्कूलों में ये काम शुरू करें। अगर ये प्रयोग सफल हुआ तो अगले वर्ष सौ स्कूल आपको दूँगा।'

कार्तिक का अच्छाई पर भरोसा बढ़ा। उसने कहा,

'सर, मैं करके दिखाऊँगा।'

कार्तिक के लिए इसके बाद के पंद्रह साल एक सपने की तरह थे। एक सपना जिसमें दृश्य तेजी से बदल रहे थे, पात्र तेजी से बदल रहे थे, स्थान तेजी से बदल रहे थे। पूरा परिदृश्य गतिमान था, और उसमें तरह तरह के रंग भरे हुए थे। अब क्योंकि सपने को ठीक ठीक परिभाषित नहीं किया जा सकता, मैं आपको ये बताने की कोशिश नहीं करूँगा कि कैसे कार्तिक ने पहले दस स्कूलों को और फिर सौ स्कूलों को कुशलता से संचालित किया, कैसे उसने उत्साही लड़कों और लड़कियों की टीम बनाई और उन्हें अपने साथ काम करने के लिए प्रेरित किया, कैसे उसके काम को पहले राज्य में और फिर केंद्र में सराहना मिली, कैसे भारत सरकार ने अन्य राज्यों में भी उसके प्रोजेक्ट का विस्तार किया, कैसे काँच की दीवारों के पीछे छुपे रहस्यमय केंद्रों से बाहर निकालकर उसने कंप्यूटर को गाँवों तक पहुँचाया, कैसे उसने इस पूरे काम को आनंददायक बनाया और कैसे एक राष्ट्रीय केंद्र की स्थापना की जिसे देखने देश विदेश की ढेरों हस्तियाँ पहुँचती थीं, कैसे वह एक सामान्य कंसल्टेंट से उठकर सेलेब्रिटी और इनोवेटर बना जिस पर अखबार और पत्रिकाएँ अपने ढेरों कॉलम-न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। पंद्रह वर्षों के भीतर उसका नेटवर्क देशभर में फैल गया जिसमें करीब दस हजार प्रशिक्षण केंद्र शामिल थे। कार्तिक के बड़े स्वप्न में अब उसके सहयोगियों के छोटे-छोटे सपने भी शामिल थे जो सब मिलकर एक सुंदर कोलाज बनाते थे। ये सब इतनी तेज गति से घटित हुआ कि अगर मैं पूरे घटना-क्रम को पकड़ना भी चाहूँ तो शायद नहीं पकड़ पाऊँगा।

फिलहाल तो मैं आपको एक फाइव स्टार होटेल के चमक दमक भरे विशाल हाल में लिए चलता हूँ जहाँ कार्तिक को, राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए नामांकित होने के बाद अपना प्रेजेंटेशन करना है। ज्यूरी में देश के आई.टी. क्षेत्र के बड़े दिग्गज, राष्ट्रीय प्रबंधन एवं तकनीकी संस्थानों के प्रोफेसर, बड़े बड़े वित्त विशेषज्ञ बैठे हैं। कार्तिक उन सबके प्रभाव से मुक्त, सामने की सीट पर बैठा है। उसे प्रेजेंटेशन के लिए बुलाया गया।

अपने प्रेजेंटेशन की शुरुआत में ही उसने कहा कि वह अपनी बात हिंदी में कहेगा। इस पर ज्यूरी के कुछ सदस्यों ने, जो दक्षिण भारत से आते थे, नाक भौं सिकोड़ीं। कार्तिक ने यह देखकर कहा - 'प्लीज डू नाट वरी। आई विल आलसो ट्रांसलेट इट फार यू इन इंगलिश।' एक ज्यूरी सदस्य ने कहा - 'बट यू हैव ओनली फिप्टीन मिनिट्स।' कार्तिक ने कहा - 'नो प्राब्लम। आई विल प्राबेबली टेक लेसर टाइम। आई विल ओनली शो यू अ पिक्चर।' इतना कहकर उसने स्क्रीन पर एक चित्र दिखाया जो इस प्रकार था :

अब उसने कहा,

'दोस्तों, मेरा मॉडल बहुत सरल है। जरा आप यह चित्र देखिए। हमारे देश में 50-60 बड़े शहर हैं, करीब 650 जिले हैं, 6500 विकासखंड हैं, 2,50,000 पंचायतें हैं और 7,00,000 गाँव हैं। लेकिन हमारी सारी सूचना क्रांति ऊपर के 50-60 शहरों पर केंद्रित रही है। हमारा पूरा ध्यान इस बात पर है कि हम अपने बच्चों को पहले पढ़ने फिर काम करने के लिए विदेश भेज दें या वहाँ का काम एक बी.पी.ओ. कंपनी की तरह अपने यहाँ करने लगें। हाँ, इससे हमारे देश ने कई बिलियन डालर्स कमाए हैं और उससे मेरा कोई विरोध नहीं।

पर क्या हमें पिरामिड के निचले भाग की तरफ भी नहीं देखना चाहिए, जहाँ देश की लगभग 70 फीसदी आबादी निवास करती है? क्या हमारी सूचना क्रांति इन लोगों को छुए बिना निकल जाएगी, निकल जानी चाहिए? और ये लोग अँग्रेजी तो बोलते ही नहीं, असल में देश के 85 फीसदी लोग अँग्रेजी नहीं बोलते पर इस क्रांति का पूरा कारोबार अँग्रेजी में चल रहा है।

तो मैंने अपने आप से पूछा, क्या करना चाहिए?

मैंने किया सिर्फ इतना कि बच्चों से और अपने लोगों से हिंदी में बात करना शुरू किया। फिर हिंदी में और भारतीय भाषाओं में किताबें तैयार की और स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। हमने पिछले पंद्रह वर्षों में करीब 10,000 उद्यमी और इंट्रेस्टेड शिक्षक तैयार किए हैं जो दिन में स्कूली बच्चों को पढ़ाते हैं और शाम को उनके माता पिता तथा अन्य शहरी लोगों को। प्रारंभ में हमें सरकारी मदद मिली, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं, पर अब हम ये काम बिना सरकारी मदद के भी कर सकते हैं, कर रहे हैं। सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस मॉडल को पूरे देश में फैलाया जा सकता है। बच्चे काम करते करते नए गेम्स और एप्लीकेशंस बना सकते हैं। शिक्षक पढ़ाने के नए तरीके खोज सकते हैं। सूचना पाने और भेजने के नए तरीके ईजाद किए जा सकते हैं और अवसरों की एक नई खिड़की खोली जा सकती है। हमारे इस काम ने उनका जीवन पूरी तरह बदल दिया है।

दैट्स आल फ्रेंड्स। दिस इज आल आइ हैव टू से। थैंक यू सो मच। एंड बाई द वे, आई हैव टेकन ओनली एट मिनट्स।'

हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। ज्यूरी सदस्यों ने खड़े होकर उसे बधाई दी। सबको लगा जैसे एक नया रास्ता मिल गया है। माहौल में एक अजब उत्तेजना फैल गई। उसके बाद के प्रेजेंटेशन रस्मी अंदाज में पूरे किए गए। उस साल का राष्ट्रीय पुरस्कार कार्तिक को ही मिला। जब राष्ट्रपति ने, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दुनिया से आते थे, उसे पुरस्कार देते हुए मंच पर कहा,

'वेल डन, माई फ्रेंड। आई विल आस्क द गवर्नमेंट टू स्प्रेड दिस मॉडल टू वन लैख पंचायत इन द कंट्री।'

और जब वाकई सरकार ने राष्ट्रपति की सलाह मानते हुए उसके मॉडल के आधार पर एक लाख पंचायतों में वैसे ही केंद्र स्थापित करने की घोषणा की तो उसका मन प्रसन्नता से भर गया। उसे अपने काम की सार्थकता और जीवन में आनंद महसूस हुआ।

घर पहुँचते पहुँचते उसने सोचा कि अगर आज गुप्ता जी आसपास होते तो उन्हें बतलाता कि नौ बिंदुओं का खेल कुछ अलग तरह से भी खेला जा सकता है। फिर उसने एक कागज उठाया और लिखा :

1. नौकरी नहीं, उससे मन नहीं भरता।

2. अपना काम, उसकी दिशा तय की जा सकती है।

3. उत्पादन और सेवा क्षेत्र में से सेवा क्षेत्र। वहाँ छोटी पूँजी से काम शुरू किया जा सकता है।

4. शहर और गाँव में से गाँव, वहाँ ज्यादा जरूरत है।

5. परिवेश-भारतीय, भाषा-भारतीय।

6. शिक्षा को केंद्र में रखें।

7. सरकारी मदद - कम से कम ली जाए।

8. नेटवर्क, वह बड़े से बड़े कार्पोरेट को टक्कर दे सकता है।

9. खुला दिमाग। इनोवेशन से गतिशीलता।

फिर उसने लिखा - 'मेरा दसवाँ बिंदु, क्रिएटिविटी।'

उसके आगे एक लाइन और लिखी थी -

'इससे संतोष और आनंद भी प्राप्त होता है।'

आप कह सकते हैं वाह भई वाह। ये भी कोई बात हुई? आदमी कहीं इस तरह से, सीधी-रेखा में सफलता हासिल करता है? क्या कार्तिक के रास्ते में कठिनाइयाँ नहीं आई होंगी? क्या सभी ने उसे सिर्फ सहयोग ही किया होगा? क्या उसके संगठन के भीतर से उसे चुनौती नहीं मिली होगी? क्या टेक्नॉलॉजी ने उसे परेशान नहीं किया होगा? और इस सबके बीच उसका घर परिवार, नाते रिश्तेदार और उसका व्यक्तिगत जीवन? क्या वह ठीक-ठीक चल पाया? कहानी में वह सब भी तो आना चाहिए।

तो मित्रों मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि ये सारी बातें मैंने आपको जान बूझकर नहीं बताईं। ये सब बताने के लिए मुझे एक छोटा मोटा उपन्यास लिखना होता और, हालाँकि मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि कार्तिक का चरित्र औपन्यासिक है पर फिलहाल हम नौ बिंदुओं के खेल पर बात कर रहे थे और यहाँ कार्तिक के जीवन को उतना ही लाया गया है जितना इस खेल को समझने के लिए जरूरी था।

यह भी सच है कि उसके सामने वे सारी कठिनाइयाँ थीं। पर कार्तिक के पास थी एक अंतर्दृष्टि, जो वैसे तो हम सबके पास होती है पर जिसे हमने कहीं भीतर गहराई में छुपा लिया है, जो कार्तिक के यहाँ दिनों दिन पैनी होती जाती थी और जिससे वह कठिनाइयों के पार देख लेता था। एक उत्साह, जो दिनों दिन बढ़ता ही जाता था और उसे थकने नहीं देता था। एक ललक, जिसका दायरा बढ़ता जाता था और ये सब मिलकर उसके मन में एक ऐसा पर्यावरण रचते थे जिसमें सारी कठिनाइयाँ घुल जाती थीं।

फिर दारुण कठिनाइयों के बारे में हमारे कुछ कथाकार आपको बता तो रहे हैं! इतना कि आप कहानी पढ़ना भूल जाएँ। असल में हुआ यह है कि हमने खुली आँखों से देखना बंद कर सैद्धांतिकी के चश्मे से जीवन को देखना शुरू कर दिया (तू कहता कागद की लेखी)। इस प्रक्रिया में 'मेरा तेरा मनवा कैसे एक होई रे' का सवाल खड़ा हो गया है। हमारा अच्छाई पर से पूरा भरोसा ही उठ गया है। हम ये मान ही नहीं पाते कि अच्छे काम भी किए जा सकते हैं, किए जाते हैं और समाज उन्हें आज भी स्वीकार करता है। नतीजतन हमने अच्छे काम करना बंद कर दिया है और हम अधिक, और अधिक आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। हमारी कहानी भी इसी आत्मकेंद्रीयता की कहानी बनती जा रही है। बाजार के लिए इससे सुखद क्या हो सकता है?

फिर भी मैं आपकी ये बात मानूँगा कि सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं था। कभी नहीं रहा। आज भी नहीं था। और आपकी इसी बात को पुष्ट करने के लिए कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ और पेश करता हूँ।

अब कुछ छोटी छोटी कहानियाँ

यह वही समय था जब आई.टी. क्षेत्र की एक प्रमुख कंपनी ने अपना नाम 'सत्यम्' रख लिया था पर काम सारे झूठे कर रही थी। कंपनी में दस हजार कर्मचारी कार्यरत दिखाए जा रहे थे पर थे कुल पाँच हजार, बाकी पाँच हजार कर्मचारियों की तनख्वाह कैश में निकाली जा रही थी जिससे कंपनी के मालिक ने हजार एकड़ से अधिक जमीन खरीद ली थी। अब प्रिंटिंग डिवाइसेज इतने अच्छे आ चुके थे कि वे बैंक के फिक्स्ड डिपाजिट सर्टिफिकेट तक प्रिंट कर सकते थे। इस 'झूठम्' कंपनी के मालिक ने कुछ इस तरह के प्रयोग भी किए थे।

इसी समय देश भर को सहारा देने का दम भरने वाले एक चालाक उद्योगपति ने लोगों को धोखा देकर 24,000 करोड़ रुपये इकट्ठे कर लिए थे जिन्हें वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद लौटा नहीं रहा था और बार-बार मीडिया में अपनी मूँछों के पीछे से मुस्कुरा रहा था।

उधर एक चिट फंड कंपनी चलाने वाले पति-पत्नी, राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर 4,000 करोड़ रुपये इकट्ठे कर चुके थे और उसे इधर उधर करने के बाद अब इधर उधर भाग रहे थे। उन्हें बचाने के लिए उनके दोस्त राजनेता घोषणाएँ कर रहे थे और लोग अपने आपको लुटा पिटा महसूस कर रहे थे।

इसी समय एक मुख्यमंत्री प्रदेश के औद्योगिक विकास के लिए एक बड़े वैश्विक सम्मेलन का आयोजन कर रहे थे जिस पर उड़ती हुई खबरों के अनुसार करीब 300 करोड़ रुपये खर्च होने वाले थे। मंच पर उनके साथ वही सब उपरोक्त श्रेणी के उद्योगपति बैठे थे। उनमें से प्रत्येक उठकर मंच पर से बड़ी बड़ी घोषणाएँ कर रहा था। घोषणा जितनी बड़ी होती उतनी ही ज्यादा तालियाँ मिलतीं। मसलन देश की सबसे बड़ी पेट्रोकेमिकल कंपनी के होनहार वारिस ने घोषणा की कि वे प्रदेश के लिए बिजली बनाएँगे और इसके लिए 30,000 करोड़ रुपये का निवेश करेंगे। बस उन्हें एक हजार एकड़ जमीन और कोयला खदानें दे दी जाएँ। सबको सहारा देने वाले उद्योगपति ने कहा कि वे प्रदेश के औद्योगिक नगर में एक शानदार एंटरटेनमेंट क्लब बनाना चाहते हैं जिसके लिए उन्हें शहर से लगी 100 एकड़ जमीन चाहिए, वे 1,000 करोड़ रुपये का निवेश ले आएँगे। सीमेंट से जुड़े एक बड़े उद्योगपति ने कहा कि वे एक फिल्म सिटी बनाकर पूरी चंबल घाटी की तसवीर बदल देंगे बस उन्हें 10,000 एकड़ जमीन दे दी जाए।

सभी मंत्री एवं मुख्यमंत्री उद्योगपतियों के साथ। सभी बड़े और छोटे अफसर उद्योगपतियों की सेवा में। विकास का अद्भुत नजारा था।

पूरी सरकार, पूरा अमला, सारे मंत्री, उद्योगपतियों की सेवा में थे। दुनिया भर के व्यंजन भोजन के दौरान मौजूद थे। सामान्य समय में लोगों से सीधे मुँह बात न करने वाले कई सरकारी अफसर, नकली मुस्कान चिपकाए, काउंटर खोले बैठे थे कि आइए और समझौतों पर दस्तखत करिए। सम्मेलन के आखिरी दिन अखबार ने, जिसे सम्मेलन को कवर करने के लिए बड़े सरकारी विज्ञापनों से नवाजा गया था, बड़ी बड़ी हेडलाइन लगाते हुए सूचित किया - 2,56,000 करोड़ के समझौतों पर दस्तखत हुए। हर क्षेत्र में प्रदेश का विकास होगा। सभी उद्योगपतियों ने मंच से मुख्यमंत्री की तारीफ की। मुख्यमंत्री जी ने ध्यान रखा कि इस तारीफ के वक्त उनके राष्ट्रीय नेता भी मंच पर मौजूद रहें। इस तरह सब कुछ ठीक ठाक, सफलतापूर्वक एवं संतोषप्रद ढंग से संपन्न हो गया।

कार्तिक भी जिज्ञासावश इस सम्मेलन में गया था। सम्मेलन के बाद अपने उद्योग विभाग के मित्र अनुराग से उसने पूछा था,

'करीब दो साल पहले भी तो ऐसा ही सम्मेलन हुआ था?'

'हाँ।'

'उस समय भी करीब 1,50,000 करोड़ के समझौते किए गए थे?'

'हाँ।'

'अगर वो हो जाता तो प्रदेश की तो तसवीर बदल जाती?'

'बिल्कुल ठीक।'

'फिर क्या हुआ?'

'यार, तुम भी बच्चों जैसी बातें करते हो। निवेश किसे करना है? यहाँ तो अपने नाम और अपनी कंपनी की प्रतिष्ठा का लाभ उठाकर जमीनों और खदानों पर कब्जा करने की होड़ लगी है। पिछली बार इसी पेट्रोकेमिकल वाले ने 20,000 करोड़ का निवेश करने की घोषणा की थी और बहुत सी कोयला खदानें अलाट करवा ली थीं।'

'पर ये कोयला खदानें, पहाड़ और जंगल, उनके तो नहीं?'

'ऐसा तुम मानते हो। वे मानते हैं कि पूरा देश उनका है।'

'पर इस सबसे सरकार को क्या फायदा?'

'सरकार को नहीं, पार्टी को है। इस साल चुनाव हैं। पार्टी को भी तो चंदा चाहिए। चंदा दो और जमीन लो।'

'और मान लो निवेश करना ही पड़े तो?'

'तो भी अपना पैसा कौन लगाता है? सब बैंक से ही पैसा लेते हैं। ज्यादातर रिस्क बैंक या सरकारी संस्थानों की होती है।'

इसी समय पार्लियामेंट की वित्त पर विचार करने वाली स्टैंडिंग कमिटी की रिपोर्ट आई जिसका एक हिस्सा मैं आपको सुनाता हूँ,

'सरकारी बैंकों के घावों से खून रिस रहा है। करीब डेढ़ वर्षों के भीतर ही 82,000 करोड़ रुपये के ऋण, खराब ऋणों में तब्दील हो चुके हैं जिन्हें अब वसूला नहीं जा सकता। बैंकों के एन.पी.ए. यानी नान परफार्मिंग असेट्स में गगनचुंबी बढ़ोत्तरी हुई है। मार्च 2011 से दिसंबर 2012 के बीच बैंकों का एन.पी.ए. बढ़कर 83,400 करोड़ रुपये तक पहुँच गया है, जिसने उनकी बैलेंस शीट्स को पूरी तरह बिगाड़ दिया है। भारत के सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का लाभ 3,658 करोड़ से घटकर 3,398 करोड़ रह गया है। अपनी बैलेंस शीट्स को साफ सुथरा करने के लिए बैंक खराब ऋणों को उनसे हटा रहे हैं, जैसे कि हाल ही में कैनरा बैंक ने 1,450 करोड़ रुपये के ऋण को राइट ऑफ किया। प्रति वर्ष सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक 15,000 से 16,000 करोड़ रुपयों के ऋण राइट ऑफ करते हैं। दिसंबर 2012 तक सार्वजनिक क्षेत्रों के खराब ऋण 1,56,000 करोड़ रुपये तक पहुँच गए थे।'

तो ये थी 'विकास' की हमारी गाथा।

आप शायद कहें कि यही तो हम भी कह रहे थे।

पर मैं अर्ज करना चाहता हूँ हुजूर कि आप ये भी तो देखिए कि इसी समय में कई छोटे छोटे लड़के और युवा ऐसी एप्लीकेशंस बना रहे थे जो जीवन की किसी न किसी समस्या को सुलझाकर उसे सुविधाजनक बना सकती थीं, और इस प्रक्रिया में वे मिलियन डालर कंपनियाँ खड़ी कर रहे थे। 86 करोड़ लोगों के पास मोबाईल फोन पहुँच चुका था और सिर्फ सूचना के आधार पर वे अपनी जिंदगी की दिशा बदलने में सक्षम थे। एक डाटा एंट्री आपरेटर ने इस बात को समझते हुए अपनी एक डायलिंग कंपनी बनाई थी जो अब अत्यधिक सफल कंपनी थी। जल्दी ही पंचायतों तक ब्राडबैंड पहुँचने वाला था जो शिक्षा की पूरी दिशा बदल देगा और समझदार व्यक्ति अलग अलग भाषाओं में सामग्री निर्माण के काम में जुटे थे क्योंकि ब्राडबैंड पर जो पहुँचेगा, वह इन भाषाओं की ई-सामग्री होगी। कई सामाजिक उद्यमी, किसी एक सामाजिक समस्या को सामने रख, उद्यम के द्वारा उसे सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। एक संस्था ने पुराने कपड़ों की रिसाइकलिंग की समस्या को उठाया था और अपने नए प्रयोगों से दुनिया भर में गूँज पैदा कर दी थी, एक जिद्दी पर्यावरणवादी ने दिल्ली का आकाश साफ करने में बड़ी सफलता हासिल की थी और कार्तिक ने...

जी, कार्तिक ने तकनीक के विकास के पैटर्न को भाँपते हुए, इंटरनेट के आगमन के साथ-साथ अपने प्रशिक्षण केंद्रों पर कई तरह की ऑनलाइन सेवाएँ प्रदान करना शुरू किया था जो उनको पुनः सृजित कर रहा था। अब शिक्षा के साथ-साथ उसके केंद्र बैंकिंग सेवा भी प्रदान कर सकते थे, आपका रेलवे टिकिट बुक कर सकते थे और बच्चों को स्कालरशिप तथा बूढ़ों को पेंशन भी प्रदान कर सकते थे। इससे उनका सामाजिक उपयोग बढ़ा था। लाखों लोग अब उनसे लाभ उठा रहे थे।

अपने आप में वे छोटे थे, मगर नेटवर्क में थे इसलिए ताकतवर थे। बड़े बड़े कार्पोरेट अपने प्राडक्ट्स या सेवाओं के वितरण के लिए उनके पास आते थे। अब वह बराबरी से उनके साथ बात कर सकता था। ये प्रतिरोध का उसका अपना तरीका था।

उसने अपना दसवाँ बिंदु खोज लिया था।

और अंत में संगीत

तो दोस्तों, अब कहानी का अंत आ ही पहुँचा है।

बस यही बताना रह गया है कि कहानी की शुरुआत में, लंबे समय के बाद मिले रमेश चंद्र गुप्ता के साथ, कार्तिक की अगली मुलाकात कैसी रही।

वह और अनुराग सुबह-सुबह फैक्टरी के गेट पर पहुँच गए थे जिसकी जमीन और शेड बिकाऊ थे। रमेश चंद्रा गेट पर ही कुर्सी डाल कर बैठे थे। उन्हें देखकर वे खड़े हो गए। छड़ी के सहारे कुछ कुछ लंगड़ाते हुए आगे बढ़े।

अनुराग ने कहा,

'आइए जमीन देख लेते हैं।'

गुप्ता जी फिर धीरे-धीरे लंगड़ाते हुए आगे चले। कार्तिक को याद आया, यही फैक्टरी थी जिसकी उसने प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाई थी। शुरू-शुरू में कैसी चहल पहल, कैसी रौनक और कैसी सुंदरता यहाँ बिखरी रहती थी। जीवन की सुंदरता। और आज? थोड़ी सी पक्की सड़क को छोड़कर चारों ओर घास उग आई थी। शेड खाली पड़े थे और उनमें मकिड़यों के जाले लगे थे। कई जगह दीवारों पर से प्लास्टर उखड़ गया था, खिड़कियों के काँच टूट चुके थे और ट्रसेस तथा ग्रिल्स नीचे लटक आए थे। पूरे शेड्स में भारी मनहूसियत और मुर्दनी छाई हुई थी।

कार्तिक ने पूछा,

'चंद्रा साहब, किसी भी शेड में मशीनें नहीं दिखाई पड़ रही हैं। उनका क्या हुआ?'

गुप्ता जी बोले,

'बैंकों का भारी लोन था, वे खोल कर ले गए।'

कार्तिक ने आदतन एक बिजली का स्विच दबाया। गुप्ता ने कहा,

'बिजली कहाँ है भाई साहब! बड़ा बिल आता था सो कटवा दी। बरसों से बिजली का बिल पटाया नहीं गया है।'

'ओह!'

अब कार्तिक और अनुराग, गुप्ता जी को वहीं छोड़कर पीछे जमीन पर घूमने निकले। ये रहा प्रिंटेड सर्किट बोर्ड निर्माण का शेड, और ये असेंबली तथा टेस्टिंग हाल, ये था मार्केटिंग ऑफिस जहाँ चोपड़ा से मुलाकात हुई थी, और ये डिस्पैच डिवीजन। सब कुछ एक खंडहर में तब्दील हो चुका था। कार्तिक का मन भर आया। ये फैक्टरी उसकी नहीं थी, पर अपनी पहली संतान की तरह उसने इससे बेइंतहा प्यार किया था। वह इसे सफल होते देखना चाहता था। पूरी तरह खिले गुलाब की तरह, सुगंध बिखेरते हुए।

उसने अनुराग से कहा,

'चलो यार, वापस चलें!'

लौटते समय उन्होंने देखा, आम के पेड़ की छाँव में फैक्टरी के चौकीदार ने तीन चार कुर्सियाँ डाल दी थीं। गुप्ता जी वहीं बैठे थे। वे लोग भी कुछ देर सुस्ताने के लिए वहीं रुक गए। कार्तिक को लगा अब वह अपना परिचय दे सकता है। उसने गुप्ता से मुखातिब होते हुए कहा,

'रमेश जी, आपने मुझे पहचाना?'

'जी, जी नहीं।'

'मैं कार्तिक, कार्तिक त्रिवेदी।'

रमेश जी थोड़ा चौंके। उनके चेहरे पर कई भाव आए और गए। फिर अपने आपको सहज करते हुए उन्होंने कहा,

'ओ हो त्रिवेदीजी। वही मैं कहूँ कि आप पहचाने पहचाने से क्यों लग रहे हैं? आप कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं आजकल?'

कार्तिक ने संक्षेप में उन्हें अपने नेटवर्क के बारे में बताया। वे खुश हुए। बोले,

'बहुत बढ़िया जी बहुत बढ़िया। तो आप तो अपने संस्थान के लिए यही जमीन फाइनल कर डालिए। इससे आपका पुराना रिश्ता है।'

कार्तिक उस रिश्ते की परिभाषा में जाकर एक बूढ़े और अशक्त आदमी से कोई कठोर बात नहीं कहना चाहता था। उसने बात बदलते हुए कहा,

'और आप, आप कहाँ हैं आजकल? भाभीजी कैसी हैं?'

गुप्ता जी ने कुछ थके स्वर में कहा,

'भाभीजी अब कहाँ रहीं? मैं अकेला ही दिल्ली में रहता हूँ।'

'और दीपक? आपका बेटा दीपक?'

'वह तो उसी समय अलग हो गया था। पैसा वैसा तो था ही उसके पास। वह अमेरिका में सैटल हो गया।'

'पहले तो आप रमेश चंद्र गुप्ता लिखते थे। ये गुप्ता कहाँ छूट गया?'

'अब आपसे क्या छुपाना? मीडिया में बहुत बदनामी हो रही थी। सो बीच में आर.सी. गुप्ता से रमेश चंद्रा कर लिया। अब यही नाम है।'

ताजिंदगी नौ बिंदुओं का खेल खेलने के बाद अब गुप्ता जी अकेले थे। बेटा तो पहले ही अलग हो गया था। पत्नी भगवान के घर चली गईं। अब कोई साथी संगी भी नहीं। यहाँ तक कि अपना नाम भी छोड़ना पड़ा था। अब वे जीवन के बियाबान में निपट अकेले थे और ये कितना भयावह था।

कार्तिक को लगा, सभी खेलों का एक दसवाँ बिंदु और भी होता है। आप उसे नियति कह लें, भाग्य कह लें या पोएटिक जस्टिस, मगर वह होता जरूर है।

गुप्ता जी पूछ रहे थे,

'तो आपने क्या तय किया?'

'जी मैं जरा विचार कर लूँ, फिर कल अनुराग को बता दूँगा।'

शाम को दोनों दोस्त कार्तिक के घर के बाहर लॉन पर बैठे थे। आसमान साफ था और तारे अपनी अद्भुत आभा के साथ पूरे आसमान पर छिटके हुए थे। दोनों के हाथ में थे चाय के बड़े मग। अनुराग ने शुरुआत करते हुए कहा,

'तो रमेश जी से हाँ कह दूँ? जमीन रोड से लगी हुई है। करीब पचास हजार स्क्वेयर फीट का शेड भी है, वह तो उन पर कुछ दबाव है कि वे जल्दी में बेचना चाह रहे हैं। तुझे कम से कम दो करोड़ का फायदा होगा।'

'नहीं यार, मेरा मन नहीं कर रहा।'

'क्यों?'

'तूने महसूस नहीं किया? उस जमीन से कुछ ऐसी तरंगें निकल रही थीं जो आपके मन में अवसाद पैदा करती हैं।'

'पर सोच कि तुझे कितना फायदा हो सकता है।'

'अगर ले लूँगा, तो फायदे से ज्यादा नुकसान होगा।'

'कैसा नुकसान?'

'मन का नुकसान। मेरा तो मन ही मेरी पूँजी है। सबसे बड़ी पूँजी।'

कह-कर कार्तिक उठा।

उसने पास ही रखे सिस्टम पर एक सी.डी. लगाई।

रोनू मजूमदार ने बाँसुरी पर एक लंबा आलाप लिया।


End Text   End Text    End Text