विज्ञापन कुछ इस प्रकार था,
हम लेखक बनाते हैं
अगर आप उन संवेदनशील लोगों में से हैं जिनके दिल में अभी भी हलचल होती है, जो
कुछ कर गुजरना चाहते हैं, जिन्हें शब्दों से प्यार है और जो उनसे नया संसार
रचना चाहते हैं, तो पूरे बायोडाटा के साथ हमसे संपर्क करें। हम लेखक बनाते
हैं। एक समय में केवल दस लोगों को लिया जाता है। सफलता की पूरी गारंटी।
पता है :
-
लेखक बनाओ केंद्र
द्वारा पोस्ट बाक्स नं. 000111
नई दिल्ली - 462001
लेखन अभिलाषी, यशःकांक्षी मनमोहन ने, जिसका पूरा नाम अपने उपनाम को मिलाकर,
मनमोहन कुमार 'नीरज' था, इस विज्ञापन को गौर से पढ़ा। उसकी आदत थी कि बैंक की
अपनी नौकरी पर जाने के पहले, अखबार को गौर से, पूरा-पूरा, विज्ञापनों सहित,
पढ़े। सुबह की चाय और सिगरेट के साथ वह इस 'पूरा अखबार पढ़ो' नामक दैनिक कार्य
की शुरुआत करता था और नित्य कर्म से गुजरते हुए, नाश्ते की टेबल पर लौटकर,
विज्ञापनों पर निशान लगाते हुए उसकी समाप्ति। लेखक बनने के अलावा उसके जीवन का
दूसरा प्रमुख लक्ष्य था अपने इस मध्यवर्गीय शहर में एक फ्लैट खरीदना। अखबार के
विज्ञापन इसमें दो तरह से मदद करते थे। एक तो वे उसे बताते थे कि फ्लैट खरीदना
उसके बस की बात नहीं। दूसरे वे उसे आश्वस्त करते थे कि फ्लैट अभी बन रहे हैं,
जब चाहो तब खरीद लेना। विज्ञापनों से मिलने वाली इस अधूरी आशा के साथ वह दस
बजे बैंक पहुँच जाता था।
बैंक में वह अपनी ही तरह के चार पाँच नवयुवकों और एक नवयुवती को मिलाकर बनाए
गए 'रोज अखबार की खबरों पर विस्तार से बात करो' नामक ग्रुप में शामिल था, जो
अभी दुनिया को समझने की कोशिश कर रहा था। इस ग्रुप के सदस्य काम के दौरान देश
की राजनीति से शुरू करके मोहल्ले में हुई दुर्घटना के समाचारों तक, चकर चकर
करते रहते थे। ग्राहकों का आना जाना इस चकर चकर में एक व्यवधान की तरह होता
था। शाम होते होते शेयरों की हालत पर सुख या दुख जताकर, बैंक की अंदरुनी
राजनीति पर एक भद्दा मजाक सुनाकर और स्कूटर पर सामान्य से कुछ अधिक जोर से किक
मारकर (जैसे कि जोर से किक मारने पर स्कूटर शायद अधिक तेजी से आगे जाए), हँसते
हुए, अगले दिन की चकर चकर के लिए विदा लेते थे। अखबार इस समूह के लिए जरुरी
भोजन था।
मनमोहन कुमार 'नीरज' अपने आपको ठीक ठाक लेखक मानते थे। बचपन में पाकिस्तान के
युद्ध से अनुप्राणित होकर लिखी गई उनकी कविता को प्राचार्य महोदय ने शाबाशी दी
थी और शहर के बड़े व्यंग्यकार ने, जो पुरस्कार वितरण करने आए थे, कहा था कि
'बालक में प्रतिभा है।' ये बात मनमोहन के मन में जम गई थी।
फिर जब कॉलेज की पत्रिका में, जिसका संपादक उनका दोस्त था, उनका एक व्यंग्य
लेख छपा और जिसके ऊपर उनकी क्लासमेट रंजीता ने मुस्कुरा कर उन्हें बधाई दी, तो
उन्हें विश्वास हो गया कि उनकी प्रतिभा सही तरह से प्रस्फुटित हो रही है, और
वे आगे जाएँगे।
वे आगे गए भी। बैंक में नौकरी मिलते ही उन्होंने बैंक की पत्रिका में लिखना
शुरू किया और 'निरंतर' नामक इस पत्रिका में अपनी टाई वाली फोटो के साथ निरंतर
छपने लगे। दैनिक अखबारों में भी उन्होंने रचनाएँ भेजना शुरू किया और कभी कभार
हाशिए पर छपे दिखने लगे। इससे अपनी प्रतिभा में उनका विश्वास और ज्यादा मजबूत
हो गया।
प्रतिभा को इससे ज्यादा सँवारने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी। कभी कभार
साहित्यिक क्षेत्रों में कोई उनसे थोड़ा पढ़ने पढ़ाने की बात भी कहता तो वे
शान से कहते - दूसरों को पढ़ने की फुरसत किसके पास है यार? समय मिलेगा तो अपना
ही नहीं लिखेंगे?
इसीलिए पहले पहल जब उन्होंने 'हम लेखक बनाते हैं' वाला विज्ञापन देखा तो
उन्हें लगा कि ये उनके लिए नहीं। वे तो पहले से ही लेखक हैं। उन्होंने अखबार
मोड़ कर रखा और बैंक चले गए।
बैंक में उस दिन फिक्स्ड डिपाजिट काउंटर पर पहुँचने के बाद, जो कि कैश काउंटर
के ठीक बगल में था और आज जिस पर साँवली सलोनी स्मिता बैठी हुई थी। उन्होंने एक
नजर जाली के पीछे बैठी स्मिता पर डाली। उसकी चुन्नी अपनी जगह पर थी, माथे पर
गोल बिंदी लगाए, हरे सूट में, गंभीर मुखमुद्रा के साथ ग्राहकों से टोकन लेते
हुए वह कैश गिन रही थी। ग्राहकों की जिज्ञासाओं का जवाब वह अपनी चुप्पी से
देती थी और फिर काउंटर पर पासबुक लगभग फेंकते हुए, उन्हें रवाना करती थी। वह
अपना काम इतनी गंभीरता से कर रही थी कि लगता था कि टोकन लेना और कैश देना उसके
जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। मनमोहन को उधर कोई संभावना नहीं दिखी।
अब उसने अपने दाईं ओर 'रोज अखबार पर बात करो' समूह के संयोजक मिलिंद कनमड़ीकर
की ओर देखकर कहा,
'यार मिलिंद, एक बात बता, क्या कोई किसी को लेखक बना सकता है?'
'मुझे क्या पता? मैं तो कभी लेखक बना नहीं। न ही बनना चाहता हूँ। पर सुनते हैं
आजकल भाई लोग किसी को भी कुछ भी बना देते हैं। अब अपने कप्पू को ही लो। उसने
कभी दस जनम में भी एक्टिंग की थी? पर इधर जयनारायण एक्टिंग स्कूल में दाखिला
लिया, उधर सीरियल में काम मिल गया। बस बन गया एक्टर। और वो रमा? किसी ने सोचा
था कि ये काली कलूटी लड़की मॉडलिंग करेगी...।'
'यार उसकी बॉडी अच्छी थी शुरू से...'
'बॉडी-वाडी छोड़ो। टी.वी. पर लोग चेहरा देखते हैं। पर उसके साथ तो फैशन
डिजाइनिंग वाली शबनम मैडम ने न जाने क्या किया कि वह फैशन इंस्टीट्यूट से,
एकदम से मॉडल बनकर निकली। अब मिक्सी के साथ देखो तो रमाजी, पंखे के साथ देखो
तो रमा जी, धुलाई का पावडर खरीदती रमाजी और आयोडीन वाला नमक बेचती रमाजी। तो
गुरु अपना तो मानना है कि जब कंप्यूटर सिखाया जा सकता है, पेंटिंग सिखाई जा
सकती है, गाड़ी चलाना सिखाया जा सकता है तो लेखक भी बनाया जा सकता है।'
'यार असल में एक विज्ञापन आया है ...लिखा है लेखक बनाएँगे। वैसे तो मुझे बकवास
लगती है। पर ट्राई करने में क्या हर्ज है?
'एक्सेक्टली। ट्राई करने में क्या हर्ज है? और वैसे भी तू कौन बड़ा लेखक
है...'
मनमोहन ने गुस्सा होते हुए कहा,
'कोई जनम से बड़ा लेखक नहीं होता। आज नहीं हूँ तो हो जाऊँगा...'
उस रात उसने एक जबर्दस्त सपना देखा। राजकपूर के ड्रीम सीक्वेंस की तरह, ड्रम्स
की तेज बीट्स और धुएँ के उठते गुबारों के बीच उसने अपने आपको तैरते हुए पाया।
धीरे-धीरे धुआँ छँटा तो उसके पीछे देश की सबसे प्रतिष्ठित वार्षिकी का
मुखपृष्ठ उभरा जिसका कद किसी बहुमंजिली इमारत की तरह था और जिस पर राजपूताना
स्टाइल की पेंटिंग बनी हुई थी जिस पर सफेद चोंगे में राजपूत नायक मूछों पर ताव
दे रहा था और लंबोतरे चेहरे वाली नायिका उसके पास ही शरमाहट भरी मुस्कुराहट
लिए आईना देख रही थी। तेज हवा से उस साहित्य वार्षिकी के पन्ने फड़फड़ाए और
अचानक जो पन्ने खुले उसमें अद्भुत सुंदरता के साथ, चित्रों और रेखाओं की
साज-सज्जा के बीच मनमोहन की कविताएँ छपी थीं। अभी मनमोहन अपनी कविताएँ पढ़ भी
नहीं पाया था कि हवा साहित्य वार्षिकी को उड़ा ले गई और धुएँ के गुबार ने मंच
को ढक लिया। इस बार जब धुआँ छँटा तो उसके पीछे से देश का सबसे अकड़ू संपादक
प्रगट हुआ जो मनमोहन को देखकर मुस्कुरा रहा था। मनमोहन को विश्वास नहीं हुआ।
उसने हड़बड़ा कर अपने आसपास देखा। अकड़ू संपादक ने मुस्कान और चौड़ी करते हुए
कहा - मैं तुम्हें ही देखकर मुस्कुराया था मनमोहन। जरा अपना लैटर बाक्स तो
देखो। मनमोहन के सामने उसका लैटर बाक्स था जिसमें अब तक भेजी गई तमाम रचनाओं
के स्वीकृति पत्र थे। संपादक ने लिखा था कि वह मनमोहन के महत्व को देखते हुए
प्रत्येक अंक में उसकी एक रचना दे रहा है। मनमोहन ने अभी सर उठाया ही था कि
झन्न की आवाज हुई, बादल तेजी से उठे और उन्होंने संपादक को ढक लिया।
अब ड्रम्स की आवाज तेज हो गई थी। बादल तेजी से आ-जा रहे थे। कभी उनके पीछे से
उभरता था देश के सबसे प्रख्यात प्रकाशक का चेहरा जो मनमोहन से अपना संग्रह
देने के लिए चिरौरी कर रहा था। कभी उभरती थी किसी लोकप्रिय अखबार की हेड लाइन
जो मनमोहन को प्रख्यात राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने की घोषणा कर रही होती थी। कभी
उसमें से हजारों की रायल्टी के चेक उड़ उड़कर मनमोहन के आसपास बिखर जाते तो
कभी वह खुद उड़कर खचाखच भरे हाल के जगमग मंच पर पहुँच जाता जहाँ खड़े होकर उसे
'आज की कविता' पर वक्तव्य देना होता।
अंत में ड्रम्स की बढ़ती गति के बीच चक्कर लेते हुए एक सुंदरी आई और उसने
मनमोहन का हाथ पकड़ कर कहा,
'चलो मनमोहन, प्रधानमंत्री ने तुम्हें बुलाया है।'
उस सुंदरी की शक्ल कैश काउंटर वाली स्मिता से बहुत मिलती जुलती थी।
सुंदरी मनमोहन को उड़ा कर कहाँ ले गई और उसके बाद क्या हुआ ये मैं आपकी
कल्पनाशीलता पर छोड़ता हूँ।
बहरहाल सुबह जब मनमोहन की नींद खुली तो वह नई दिल्ली के लेखक बनाओ केंद्र का
दौरा करने का मन बना चुका था।
कनॉट प्लेस की भव्य व्यस्तता से होकर जब मनमोहन एच ब्लाक की दूसरी मंजिल पर
स्थित 'लेखक बनाओ केंद्र' के सामने पहुँचा तो एकबारगी ठिठक कर रह गया।
केंद्र के प्रवेश द्वार पर जगमग काँच के बीचों बीच चमकता ब्रस हैंडल पकड़े एक
द्वारपाल खड़ा था जिसकी कड़क वर्दी और मूँछों को देखकर लगता था कि वह किसी को
अंदर नहीं जाने देता होगा।
मनमोहन ने एक बार सोचा कि अंदर जाए या नहीं। फिर ऊपर देखा। पता सही था। वह
'लेखक बनाओ केंद्र' ही था।
वह हिम्मत करके आगे बढ़ा। उसके दरवाजे के पास पहुँचते ही द्वारपाल नीचे झुका
और उसने दरवाजा खोल दिया।
अंदर घुसते ही मनमोहन और चमत्कृत हो गया। एक बड़े हाल में कंप्यूटरों की कतार
के पीछे लड़के-लड़कियाँ थे और दूसरी तरफ काले शीशों वाले केबिन। जैसे ही
चमकदार काउंटर के पीछे गुलाबी साड़ी में बैठी लड़की ने प्रश्नवाचक निगाहों से
उसकी ओर देखा, उसने कुछ सकपकाते हुए पूछा,
'लेखक बनाओ केंद्र यही है...?'
लड़की की निगाहों ने बता दिया कि आप बड़े अहमक हैं। अंदर आने के पहले पढ़ा
नहीं क्या? जाहिर तौर पर उसने कहा,
'ये...स'
'जी वो आपका विज्ञापन...'
'काउंटर नं. 10'
'जी?'
'काउंटर नं. 10 पर चले जाइए।'
वह अचकचाते हुए काउंटर नं। 10 पर पहुँचा। ये लड़की भी कंप्यूटर के पीछे बैठी
थी और लगभग रिसेप्शन वाली की तरह ही दिख रही थी। फर्क सिर्फ इतना था कि इसने
सफेद सूट पहना हुआ था। मनमोहन ने कहा,
'जी वो विज्ञापन के सिलसिले में...'
'हजार रुपये...'
'जी?'
'हमारी कंसल्टेंसी फीस हजार रुपये है। जमा करा दें।'
'हजार रुपये? विज्ञापन में तो कहीं ऐसा नहीं लिखा था।'
'जी फीस तो देनी ही पड़ती है। हमारा केंद्र देश का सबसे बड़ा केंद्र है। उसके
हिसाब से ये फीस बहुत कम है।'
मनमोहन ने जेब से पर्स निकाला। अच्छा हुआ जो चलते समय पाँच हजार रुपये अलग से
रख लिए। लड़की ने तेजी से नोट गिने। कंप्यूटर पर कुछ टाइप किया। रसीद प्रिंटर
से बाहर निकलकर आ गई। रसीद मनमोहन के हाथ में थमाते हुए उसने कहा।
'काउंटर नं. 12।'
अब तक मनमोहन समझ चुका था। उसने सीधे काउंटर नं. 12 पर पहुँचकर नीले सूट वाली
लड़की के हाथ में रसीद थमाते हुए कहा,
'ये लीजिए।'
लड़की ने एक मुस्कुराहट फेंकी और कंप्यूटर का बटन दबाया। प्रिंटर में से फिर
एक कागज सरसरा कर बाहर निकला। लड़की ने मनमोहन को कागज थमाते हुए कहा।
'चेक लिस्ट।'
मनमोहन ने देखा, कागज पर दस प्रश्न लिखे थे :
1.
नाम : कृपया इस तरह लिखें कि आपकी जाति का पता अवश्य लगे।
2.
अभी कहाँ रहते हैं?
3.
बिहार जाने में कोई आपत्ति तो नहीं है?
4.
विधा के बारे में कोई पूर्वाग्रह?
5.
आपके लेखन की मूल धारा क्या है? प्रेम कथाएँ और प्रेम कविताएँ लिखते हैं या
नहीं?
6.
रचनाओं में सेक्स से कोई परहेज?
7.
अब तक कुछ छपा तो नहीं?
8.
जे.एन.यू., लोकसत्ता, आई.टी.ओ. पुल पर कोई जान पहचान?
9.
कभी धम्मम् शरणम् गए?
10.
कभी संघम् शरणम् गए?
मनमोहन को ये प्रश्नावली समझ नहीं आई। फिर भी काउंटर के पास एक कोने में जड़ी
डेस्क के सामने खड़े होकर उसने उत्तर लिखने शुरू किए। पाँच और लोग भी उसी लाइन
में खड़े चेक लिस्ट भर रहे थे। मनमोहन का मन डूबने लगा। उसने लड़की को धीरे
से, भरी हुई चेक लिस्ट देते हुए कहा,
'हर रोज पाँच दस लोग तो आ जाते होंगे?'
'हाँ कभी कभी तो तीस चालीस लोग भी आ जाते हैं। पर हमारे यहाँ दस ही सीट्स हैं।
आजकल रश ज्यादा चल रहा है। पिछले दिनों महिलाओं की भी काफी भीड़ थी। पर आप
चिंता मत कीजिए। सूद साहब अच्छे आदमी हैं। वे कोई न कोई रास्ता निकाल ही
देंगे।'
'सूद साहब? कौन सूद साहब?'
'हमारे केंद्र के डायरेक्टर, और कौन? जाइए, आपके लिए काल है।' मनमोहन ने सूद
साहब के लकदक कमरे में कदम रखा।
सूद साहब बढ़िया ग्रे रंग का सूट और लाल रंग की टाई पहने बैठे थे। वे देखने में
लेखक कम किसी कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर ज्यादा लगते थे। उनके सामने काँच
की, बड़ी अर्द्धगोलाकार टेबल थी जिसके केंद्र में, घूमने वाली कुर्सी पर धीरे
धीरे झूलते हुए वे बैठे थे।
कमरे के एक कोने में काँच की शेल्फ में किताबें जमी हुई थीं और उनकी अपनी काँच
की अर्द्धगोलाकार टेबल से थोड़ा पीछे हटकर, सफेद सनमाइका वाली टेबल पर, एक
कंप्यूटर लगा था जिसके रंगीन मानीटर पर तरह तरह के ग्राफिक्स आ जा रहे थे।
सामने एक बड़ा मानीटरिंग बोर्ड था जिस पर पिछले पाँच साल के आँकड़े और ग्राफ
टँगे हुए थे, जिनसे मालूम पड़ता था कि 'लेखक बनाओ केंद्र' द्वारा पिछले पाँच
सालों में कितने लेखक बनाए गए। कितने लोगों ने नामांकन कराया और कितने लेखक बन
पाए।
अपनी इस तमाम चमक दमक के बावजूद सूद साहब मनमोहन को कुछ ठीक आदमी लगे।
उन्होंने कुर्सी से उठकर तपाक से हाथ मिलाया और कहा,
'आइए मनमोहन जी, आपका स्वागत है।'
'जी धन्यवाद। पर मेरा नाम आपको कैसे पता चला?'
'ओह! बहुत सरल है। हमारे केंद्र के कंप्यूटर लोकल एरिया नेटवर्क से जुड़े हुए
हैं। आपके आने के पहले आपका बायोडाटा मुझ तक पहुँच चुका है। ये देखिए...'
सूद ने अपनी कुर्सी को पीछे की ओर हल्का सा धक्का दिया। वह पहियों पर फिसलती
हुई कंप्यूटर तक पहुँची। सूद ने एक बटन दबाया। मनमोहन को अपनी चेकलिस्ट के
निष्कर्ष रंगीन मानीटर पर उभरते हुए दिखाई दिए...
'नाम, मनमोहन कुमार 'नीरज'। थोड़ा पुराना है। नाम के आगे सिंह, ठाकुर, वगैरह
नहीं लगाते। देश के तुलनात्मक रूप से शांत इलाके से आते हैं, जहाँ किसी तरह का
वर्ग संघर्ष वगैरह नहीं चल रहा। बिहार जाना नहीं चाहते। विधा अभी तक तय नहीं
की। अलग से प्रेमकथाएँ या प्रेम कविताएँ कभी नहीं लिखीं। खुले रूप में सेक्स
से परहेज। प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं में बार बार सेक्स पर चलने वाली बहस में
कभी नहीं कूदे। बैंक की पत्रिका में छपते हैं। आई.टी.ओ. पुल से या जे.एन.यू.
क्लब से कोई संबंध नहीं। न कभी धम्म की शरण में गए न कभी संघ की।
श्रेणी : न.सि.
संभावना : ककनौआ।
ट्रैक : फास्ट ट्रैक'
सूद ने पलटते हुए कहा,
'देखिए हमारे कंप्यूटर ने आपका पूरा विश्लेषण पेश कर दिया है। अब मैं आपसे एक
दो प्रश्न पूछूँगा।'
'जी!'
'बुरा न मानें तो एक बात कहूँ। आपका नाम बहुत पुराना सा है। मनमोहन कुमार
'नीरज'। कुछ कुछ कृष्णदास 'नीरज' की तरह लगता है। माना कि कृष्णदास जी बड़े
मंच लूटू किस्म के कवि थे और मंच के साथ-साथ उन्होंने लड़कियों के दिल भी काफी
मात्रा में लूटे पर अब उस तरह की कविता और उस तरह के नामों का जमाना गया। आप
अपना नाम नहीं बदल सकते? जैसे आजकल सिंहों का जमाना है। आप अपना नाम अवधेश
प्रताप सिंह, रुद्रप्रताप सिंह, बैजनाथ सिंह, नामदेव सिंह, या वैसा ही कुछ
नहीं रख सकते...?'
'जी मैं अपना नाम कैसे बदल सकता हूँ? अव्वल तो जहाँ नौकरी करता हूँ वहाँ यही
नाम है। दूसरे इसी नाम से लिखना शुरू किया। और सबसे बड़ी बात तो ये है कि मुझे
अपना नाम अच्छा लगता है। आप कहें तो 'नीरज' ड्राप कर देता हूँ। पर कम से कम
मनमोहन तो रहने दीजिए।'
'चलिए मनमोहन से काम चला लेंगे। अब दूसरा प्रश्न - आप अपना ट्रांसफर खगड़िया
नहीं करा सकते?'
'ये खगड़िया कहाँ है?'
'बिहार में...'
'जी, जी नहीं।'
'तो सहरसा, मधेपुरा, दरभंगा कहीं भी करा लीजिए। मगर बिहार में होना चाहिए।'
'आखिर आप मुझे बिहार भेजना क्यों चाहते हैं?'
'देखिए हमारा काम आपको लेखक बनाना है। ऐसा आजकल आमतौर पर माना जा रहा है कि
वर्ग संघर्ष जातीय संघर्ष, राजनैतिक संघर्ष, सामाजिक संघर्ष वगैरह जो कुछ भी
हो रहा है, सब बिहार में हो रहा है, और कहीं कुछ नहीं हो रहा। इसलिए अगर बिहार
का कोई भी लेखक कुछ भी लिख रहा है तो उसमें ये तमाम तरह के संघर्ष दिखेंगे ही।
रूढ़िया हैं तो बिहार में और टूटना है तो वह भी बिहार में। नेता हैं तो बिहार
में और प्रणेता हैं तो बिहार में। आंचलिकता थी तो बिहार में थी और अब आधुनिकता
है तो वह भी वहीं। कुछ संपादक सिर्फ बिहार के लोगों को ही लेखक मानते हैं, और
उन्हें ही छापते हैं। इसलिए अगर आपका पता खगड़िया, मधेपुरा, दरभंगा वगैरह का
हुआ और बेहतर है कि उसमें मुकाम-पोस्ट मोकामा जैसा भी कुछ लिखा हुआ तो निश्चित
ही आपकी लेखकीय और छपकीय संभावनाएँ बढ़ जाएँगी।'
'जी हो सकता है। पर मुझे लगता है कि आपका ये दर्शन बहुत ही क्षेत्रीयतावादी
है। मैं इससे सहमत नहीं। वैसे भी फिलहाल मेरी बिहार जाने की कोई संभावना
नहीं।'
सूद ने थोड़ा गंभीर होते हुए कहा।
'मैं देख रहा हूँ कि आप थोड़ा डिफिकल्ट केस हैं। कोई बात नहीं। अच्छा ये बताइए
- ये सेक्स, प्रेम वगैरह से परहेज क्यों?'
'जी ऐसा कोई परहेज भी नहीं। पर रचना में जबरदस्ती उन्हें लाया जाए ये भी नहीं
चाहता।'
'आपके चाहने न चाहने से क्या होता है? लोग टी.वी. और सीरियल में तो देख ही रहे
हैं। मनमोहन जी, आपकी कहानी में कोकाकोला का विज्ञापन देने वाली लड़की के
स्तनों पर से फिसलते हुए झाग का विवरण होना चाहिए। किस्सों में आचार्य प्रवर
की धोती खींची जानी चाहिए। कहानी के अंत में गरमागरम सेक्स सीन होना चाहिए,
कुछ ऐसा कि दृश्यबंध पाठक के सामने से गुजरें, आवाजें उसे अपने कानों में
सुनाई पड़ने लगें। इनके बिना आपकी कहानी को कहानी नहीं माना जाएगा। खैर, मेरा
अंतिम प्रश्न - आप अँग्रेजी जानते हैं?'
'जी हाँ, लिख पढ़ लेता हूँ।'
'और कंप्यूटर से थोड़ा बहुत परिचय?'
'जी, बैंक में थोड़ा बहुत सीखा है।'
'एक्सीलेंट। तो आपकी दिशा मेरी समझ में आ गई।'
कहकर सूद ने कुछ बटन दबाए और कंप्यूटर के रिस्पांड करने का इंतजार करने लगा।
तभी मनमोहन ने कहा।
'एक दो प्रश्न मेरे भी हैं।'
'हाँ, हाँ जरूर।'
'मेरे बायोडाटा के विश्लेषण के बाद कंप्यूटर ने तीन शब्द लिखे थे। श्रेणी : न.
सि., संभावना : ककनौआ और ट्रैक : फास्ट ट्रैक। इनका मतलब?'
'ओह वो। वो हमारी अंदरुनी शब्दावली है जिससे हम लेखक का विश्लेषण करते हैं। आप
जानकर क्या करेंगे?'
'अगर कोई हर्ज नहीं हो तो बताएँ।'
'नहीं नहीं ऐसा कोई सीक्रेट भी नहीं है। आपने पूछा है तो बता देता हूँ। न.सि.
का मतलब है नए सिखाड़ू। वे सभी लेखक जो बिहार जाना नहीं चाहते, प्रेमकथाएँ
नहीं लिखते, सेक्स से परहेज करते हैं और आई.टी.ओ. पुल तथा जे.एन.यू. क्लब के
सदस्य नहीं हैं, इसी श्रेणी में आते हैं। ककनौआ का अर्थ है कि आपने अपनी विधा
का चयन अभी नहीं किया है अतः आप कवि या कथाकार, नाटककार या उपन्यासकार और
इनमें से कुछ नहीं सधा तो आलोचक भी बन सकते हैं। एक और पाँच के बीच के कई
परम्यूटेशन कांबीनेशन भी हैं। जैसे आप कक यानी कवि कथाकार, कनौ यानी कवि
नाटककार आलोचक, ककनौआ यानी कवि कथाकार, नाटककार, आलोचक, ककनौ यानी कवि कथाकार,
नाटककार, आलोचक और इसी तरह कनौआ, नौआ या सिर्फ कौआ बन सकते हैं। कुछ लोग तो
कौआ बनना काफी पसंद करते हैं।'
मनमोहन के लिए ये शब्दावली नई और आँखें खोलने वाली थी। उसने सकपकाते हुए पूछा,
'और ट्रैक?'
'ट्रैक दो तरह के होते हैं। फास्ट ट्रैक और स्लो ट्रैक। वे सभी जो तेजी से आगे
बढ़ना चाहते हैं। कुछ कुछ टेक्नालाजी ओरियेंटेड हैं और कंप्यूटर से परिचय रखते
हैं उन्हें हम फास्ट ट्रैक पर डाल देते हैं। पर अभी भी कुछ लोग आते हैं जो
मूल्यों, विश्वासों, समाज आदि की बातें करते हैं। उन्हें हम स्लो ट्रैक पर डाल
देते हैं। फास्ट ट्रैक पर भी दो विकल्प उपलब्ध हैं। एक टेक्नालाजी वाला विकल्प
और दूसरा व्यापार बढ़ाऊ विकल्प। मेरा ख्याल है आपकी दिशा है - फास्ट ट्रैक,
ऑप्शन नं. 1, टेक्नोलाजी...'
यह कहते हुए उसने कंप्यूटर के कुछ बटन दबाए। सर, सर, सर... किर्र, किर्र,
किर्र... की आवाज आई। और कागज की एक स्लिप बाहर आई जिस पर डॉक्टर के परचे की
तरह उसका बायोडाटा, श्रेणी तथा ऑप्शन लिखे थे। सूद ने हाथ मिलाते हुए कहा।
'अच्छा मनमोहन जी ये रही आपकी स्लिप। आप कल ही हमारे केंद्र के नरेश
तेज-दौड़नकर से मिलिए। आगे की बात आपको वो समझा देंगे।'
मनमोहन के लिए ये बिल्कुल नया अनुभव था। वह कुछ कुछ औचक और कुछ कुछ भौंचक भाव
से, लेखक बनाओ केंद्र से बाहर निकला।
ये शायद संयोग ही था कि उसी समय केंद्र से लगी हुई किताब की दुकान से एक और
आदमी निकला जिसकी नुकीली नाक थी, माथा उठा हुआ था और दाढ़ी फहराती हुई। पता
नहीं क्यों मनमोहन को देखकर वह एक क्षण रुका, फिर बोला।
'लेखक बनने आए हो?'
'जी, जी हाँ।'
'पैसा दे दिया?'
'जी, जी हाँ।'
उसने अजीब सी निगाहों से एक बार मनमोहन को देखा और तेज तेज चलते हुए जीना उतर
गया।
मनमोहन कुछ कन्फ्यूज्ड और कुछ फ्यूज्ड होकर नीचे आया। वह थक गया था, और कुछ
आराम करना चाहता था। उसे सब कुछ बिल्कुल अजीब लग रहा था। पर अंदर, कहीं उसके
दिल में, धीमी धीमी सरसराहट भी हो रही थी। उसे इस खेल में कुछ मजा भी आने लगा
था। उसने तय किया, वह इसे पूरा खेलेगा। कल सुबह दस बजे वह नरेश तेज-दौड़नकर से
मिलने जरूर आएगा।
अगले दिन सुबह ठीक दस बजे मनमोहन 'लेखक बनाओ केंद्र' पहुँच गया। वह अब तक कुछ
कुछ बेधड़क हो चुका था। वह सीधे ऊपर पहुँचा। सभी काउंटरों को पार कर वह सीधा
काँच के एक केबिन के पास पहुँचा जिस पर लिखा था, फास्ट ट्रेक नं. 1. उसने काँच
का दरवाजा खोला और कोने में खड़े एक फ्रेंच कट दाढ़ी वाले की ओर देखकर पूछा,
'नरेश जी?'
उसने आँखों पर सुनहरी फ्रेम का चश्मा चढ़ा रखा था, जो नाक पर थोड़ा झुककर टिका
हुआ था। चौड़ा माथा जहाँ समाप्त होता था वहाँ से गंजा सिर शुरू हो जाता था, जो
थोड़ा सा उभार लेकर पीछे ढरकते हुए लंबे बालों से जाकर मिल जाता था, जो रूखे
थे और अद्भुत सिमेट्री के साथ सिर के पीछे की ओर बिखरे हुए थे। उसने धारीदार
शर्ट और लेवाय की सफेद जीन्स पहन रखी थीं और नीचे मेसकास के शानदार काले जूते।
शर्ट की बाँहें कैजुअल अंदाज में कोहनी तक मुड़ी हुई थीं। मनमोहन को देखकर वह
तेज गति से आगे बढ़ा, करीब करीब दौड़ते हुए दरवाजे तक आया और हाथ आगे बढ़ाते
हुए बोला,
'मिस्टर मनमोहन?'
इस बार मनमोहन नहीं चौंका। उसे मालूम था कि ये भी लोकल एरिया नेटवर्क से जुड़ा
होगा। उसने साधारण तौर पर कहा।
'जी।'
'यू आर फाइव मिनिट्स लेट मिस्टर मनमोहन।'
'माफ कीजिए। मुझे मालूम नहीं था कि आप समय के इतने पाबंद हैं।'
'होना ही पड़ता है। होना ही पड़ता है। ठीक ग्यारह बजे अनिमेष शंकर नारायण सिंह
आ जाएँगे। उसके बाद बारह बजे का वक्त मिस माधवानी के लिए तय है। एक बजे मैं
लंच पर चला जाता हूँ। फिर शाम चार से सात दूसरा सेशन लेता हूँ। खैर और समय
बरबाद न करें। शुरू करते हैं।'
'जी, शुरू तो आपको करना है।'
'ऑफकोर्स, ऑफकोर्स, मुझे आपके डिटेल्स मिल चुके हैं। अब मैं आपको अपने मूलभूत
सिद्धांतों से परिचित कराता हूँ।'
मनमोहन ने अपनी कुर्सी पास खिसकाई।
'सबसे पहले तो आप ये समझ लें कि हम फास्ट ट्रैक पर हैं और हम आपको कंप्यूटर के
माध्यम से रचना करना सिखाएँगे।'
'जी।'
'कंप्यूटर से रचना के कुछ जरूरी सिद्धांत हैं। पहला है, कोई भी रचनाकार कुछ
नया नहीं रचता। वह सिर्फ पुनर्रचना करता है। असल में किसी भी रचना के पीछे
छुपे मूलभाव कुल पाँच तरह के होते हैं, जैसे प्रेम है, करुणा है, भय है... आप
कोई भी रचना करें, वह इन पाँच मूल भावों पर ही आधारित होगी। सदियों से यही
होता रहा है। इसलिए आपका पहला काम होगा अपनी रचना के लिए मूल भाव चुनना। इसके
लिए आप हमारे कंप्यूटर की मदद ले सकते हैं।'
मनमोहन अपने आप को शिक्षित हुआ महसूस कर रहा था। उसने धीरे से कहा,
'जी।'
'अब अगर आपने रचना का मूलभाव चुन लिया तो आपको उस मूलभाव की आधारभूत शब्दावली
तक पहुँचना होगा। इसमें भी कंप्यूटर आपकी मदद करेगा। जैसे, अगर आपने मूलभाव
प्रेम चुना है तो आजकल की आधारभूत शब्दावली कंप्यूटर तत्काल आपको उपलब्ध
कराएगा। आपके सामने दिगंबर, दमकती लुनाई, देह, लपक, विकलता, कत्थई कुचाग्र,
मदनारूढ़, रत-उत्तप्त, शय्या, रतिश्लथ, स्पंदित एकांत जैसे सैकड़ों शब्द होंगे
जिनसे आप कविता बुन सकते हैं। अब अगर आपको शोषण के बारे में लिखना है तो आप
मूल भाव 'घृणा' और सब कैटेगरी 'शोषण' चुनिए। कंप्यूटर आपको बताएगा कि इस
कैटेगरी में आजकल फैशनेबल क्या है? जैसे कुछ दिनों पहले चिड़िया वगैरह थीं।
आजकल पेड़, हवा, साँस, चाँद (पूरा का पूरा), ईश्वर, जिन्न, आग, पोस्टर, इबारत,
धरती (तक झुका आम), रास्ता, आदमी, यात्रा, भयावह उदासीनता, प्रतीक्षा, समय
जैसे शब्द हैं, ये तत्काल आपके सामने होंगे।'
'जी फिर?'
'बस अब क्या! आपने मूल भाव चुन लिया है। आपके पास आधारभूत शब्दावली है। बस अब
आपको उसे एक प्लॉट में फिट करना है। हमारे कंप्यूटर में करीब दो हजार पाँच सौ
तेरह प्लॉट स्टोर्ड हैं। हम रोज उनकी संख्या बढ़ाते जा रहे हैं। आप ऑप्शन
दबाइए और प्लॉट देखते चलिए। जैसे हम अपना वही मूलभाव प्रेम लेते हैं। देखिए
इसके भीतर ही करीब एक सौ बयासी चुनाव उपलब्ध हैं। प्लॉट नं. एक सबसे पुराना है
और प्लॉट नं। एक सौ बयासी अभी कल ही प्रविष्ट हुआ है। अब अगर आप आज से कोई बीस
बरस पहले लिख रहे होते तो आप शायद प्लॉट नं. बाईस चुनते जिसमें था, 'भरी
दुपहरी में घर की बरसाती पर कॉलेज के शिक्षक का अपनी छात्रा के साथ प्रेम।' पर
अगर आपको आज चुनना पड़े तो आप शायद प्लॉट नं. एक सौ बहत्तर चुनेंगे जो है -
'रात्रि के स्पंदित एकांत में छात्रा का अपने शिक्षक के साथ रतिश्लथ होना'।
अगर आप आज से दस साल पहले कविता लिख रहे होते तो चिड़ियों और पत्तियों से बच
नहीं सकते थे, वैसे ही जैसे आजकल प्रश्न पूछते बच्चों से बचना बड़ा मुश्किल
है। हमारा कंप्यूटर आपको सैकड़ों विकल्प देता है। आप बकरी से लेकर साँड़ तक कुछ
भी चुन सकते हैं।'
मनमोहन की आँखें फटी की फटी और मुँह खुला का खुला रह गया। उसने कभी सोचा भी
नहीं था कि रचना इस तरह से भी हो सकती है। उसने अचकचाते हुए कहा,
'चलिए मान लेते हैं कि मैंने इस तरह एक रचना कर ली। अब उसे भेजूँगा कहाँ? कौन
उसे छापेगा?'
नरेश तेजदौड़नकर ने इत्मीनान से कहा,
'यहीं हमारा कंप्यूटर फिर आपके काम आएगा। इसमें करीब दो सौ इक्कीस पत्रिकाओं
के नाम, उनके संपादकों के पते, पत्रिका का चरित्र और उनके संपादकों का चरित्र
विस्तृत टिप्पणी के साथ उपलब्ध है। ये देखिए। ये नंबर एक पर 'कपोत' नामक
पत्रिका है। करीब सत्तर साल पहले के महान लेखक की परंपरा के साथ अपने को
जोड़ती है। साहित्यिकों के अखाड़े के बीचोंबीच स्थित है। इसका मूल चरित्र है
सनसनी। अगर आपने कामरेड के जूते या गांधी की हत्या या एक हिजड़े का प्रेम या
नीली फिल्म जैसी कोई सनसनीखेज चीज लिखी जिससे जुलाहों में लठालठी की संभावना
हो, तो आप तत्काल स्थापित हो जाएँगे। वैसे टिप्पणी से स्पष्ट है कि संपादक
महोदय खुद भी काफी सनसनीखेज आदमी हैं। कंप्यूटर से आपको पूरी जानकारी मिल रही
है। बस अब आपको अपनी रचना के चरित्र को पत्रिका तथा संपादक के चरित्र से मैच
कराना है। देखिए आपकी रचनाएँ किस धड़ल्ले के साथ छपती हैं और आप किस तेजी से
लेखक बनते हैं।'
मनमोहन ने कुछ कृतज्ञभाव से कहा।
'जी ठीक है। अब मुझे क्या करना होगा?'
'मैं आपको एक हफ्ते का कोर्स दूँगा। आप खुद ही अपनी प्रगति देख लेंगे।'
ग्यारह बजने वाले थे। मनमोहन उठने को हुआ। तभी नरेश ने नम्रता से कहा।
'पाँच सौ रुपये।'
'जी?'
'कोर्स की फीस। पाँच सौ रुपये।'
मनमोहन ने एक बार फिर रुपये दिए। नरेश ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा।
'आइए मैं आपको अपना केंद्र दिखा दूँ।'
फिर वह अपनी तेज गति के साथ उस विशाल हाल के दौरे पर निकल पड़ा। मनमोहन को
उसके साथ चलने के लिए लगभग दौड़ना पड़ रहा था।
'ये देखिए। ये है कविता लेखन केंद्र। यहाँ हम करीब हजार कविताएँ रोज प्रोड्यूस
कर लेते हैं। इसमें नए लोगों को ज्यादा आनंद आता है। और ये है कहानी लेखन
सेंटर। करीब करीब सौ कहानियाँ रोज का आउटपुट देता है। हालाँकि इतनी माँग नहीं
है इसलिए काफी रचनाएँ बेकार भी हो जाती हैं। कुछ गंभीर लोग उपन्यास लेखन
केंद्र में भी आते हैं। हालाँकि विधा कठिन है पर हमने इसे काफी सरल बना दिया
है। देश विदेश के करीब एक हजार उपन्यास हमारी मशीनों में हैं। आप आसानी से
अध्यायों को इधर उधर कर सकते हैं। इस तरह के उपन्यासों की विदेशों में ज्यादा
माँग है। इसलिए हम लोग अपना एक्सपोर्ट यूनिट भी खोलने जा रहे हैं।'
'और वो? वहाँ भीड़ कुछ ज्यादा है?'
'वो? वो व्यंग्य लेखन सेंटर है। करीब करीब हर अखबार या पत्रिका में व्यंग्य के
कॉलम होते हैं। इसीलिए लोग उस तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं।'
अब वे दरवाजे तक आ गए थे। नरेश ने गर्मजोशी से हाथ मिलाया और कहा।
'अच्छा मनमोहन जी, कल मुलाकात होगी।'
मनमोहन बाहर निकल आया। उसने जीने पर कदम रखा ही था कि देखा वही फहराती दाढ़ी
वाला आदमी जीना चढ़ रहा था। उसने मनमोहन को पहचान लिया। मुस्कुराते हुए कहा,
'क्यों दोस्त कोर्स शुरू हो गया?' मनमोहन ने कुछ नहीं कहा। बस एक हल्की सी
मुस्कान बिखेरी और नीचे आ गया।
अगले दिन से रोज सुबह दस बजे वह नरेश तेजदौड़नकर के ऑफिस में जाने लगा।
पहला दिन उसने कुंजियों को पहचानने में लगाया। उसने देखा कि मूलभाव वाली
कुंजियाँ कौन सी हैं और आधारभूत शब्दावली वाली कौन सी। फिर उसने प्लॉट वाले
मीनू का विस्तृत अध्ययन किया। और अंत में पत्रिकाओं और संपादकों से परिचित
हुआ।
अगले दिन वह कुछ उत्साहित होकर नरेश के फास्ट ट्रैक नं. एक पर पहुँचा। उसने
सोचा था आज कुछ रचनाएँ करके अवश्य देखेगा। उसने तमाम कुंजियों को सही सही
दबाया और फिर प्रिंटर को प्रिंट आदेश देने के बाद आशा भरी निगाहों से उसकी ओर
देखने लगा।
न कंप्यूटर में कुछ हुआ, न प्रिंटर आगे बढ़ा।
इस बार उसने कुंजियों का नया सेट चुना और फिर प्रिंट आदेश दिया।
किर्र, किर्र, किर्र, किर्र... खटाक्। किर्र किर्र किर्र किर्र... खटाक् की
आवाज के साथ प्रिंटर आगे बढ़ा, और उसने एक कागज बाहर फेंक दिया।
मनमोहन ने बड़ी आशा के साथ कागज उठाया। वह पूरी तरह खाली था। उसने तेजदौड़नकर
से पूछा।
'क्या बात है? कंप्यूटर कोई रचना नहीं कर रहा?'
तेजदौड़नकर ने तेजी से कुछ बटन दबाए और कहा,
'आपकी शब्दावली आपके मूलभाव के अनुरूप नहीं चुनी गई है। इसलिए रचना नहीं हो
रही। कोई बात नहीं, कल देखिएगा।'
अगले दिन मनमोहन ने कुछ प्रगति की। प्रिंटर पहली बार में चल पड़ा। मनमोहन ने
देखा, लिखा था -
'...'
मनमोहन ने फिर कोशिश की। इस बार बात आगे बढ़ी। प्रिंटर किर्र... खटाक्,
किर्र...खटाक् की आवाज करते हुए आगे चला और उसने तीन लाइनें प्रिंट कीं।
'क, क, क, क, क, क...'
'ख, ख, ख, ख, ख, ख, ख...।'
'ग, ग, ग, ग, ग, ग, ग...।'
तेजदौड़नकर ने प्रसन्न होते हुए कहा,
'बधाई मनमोहन जी। आप प्रगति कर रहे हैं। आपने क ख ग लिखना सीख लिया है। अगले
एक दो दिनों में आप दो चार लाइनें और फिर पूरी कविता लिखने लगेंगे।'
और वाकई अगले दिन मनमोहन ने कंप्यूटर से दो तीन लाइनें लिखवा लीं। फिर एक पैरा
और छठवाँ दिन आते आते एक पूरी कविता।
सिर्फ एक ही दिक्कत थी। कविता समझ में नहीं आ रही थी।
मनमोहन ने एक बार फिर उसे ध्यान से पढ़ा -
'धरतीदिगंबरहैऔरआसमानदिगंबरहरीघासपरस्पंदितएकांत...'
उसने नरेश तेजदौड़नकर से कहा,
'देखिए ये कैसी कविता है? कुछ समझ में नहीं आ रही।'
तेजदौड़नकर ने एक सरसरी निगाह प्रिंट आउट पर डाली और कहा,
'कविता ठीक बनी है। बस आपने स्लैश कमांड नहीं दिया इसलिए वाक्य अलग अलग नहीं
टूटे। एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अब देखिए मैं स्लैश कमांड देता हूँ।'
नरेश ने स्लैश कमांड दिया। कंप्यूटर ने जहाँ उसकी मर्जी आई खड़ी रेखाओं से
शब्दों को अलग अलग कर दिया। फिर उसने प्रिंट आदेश दिया। मनमोहन ने देखा सामने
साफ सुथरी कविता खड़ी थी। नाम था - 'दिगंबर'।
धरती दिगंबर है
और आसमान दिगंबर
हरी घास पर स्पंदित एकांत में
हम दोनों...
मनमोहन ने पूरी कविता ध्यान से पढ़ी। उसमें, जैसा कि स्पष्ट है, धरती दिगंबर
थी और आसमान दिगंबर। नायक और नायिका दोनों हरी घास की शय्या पर स्पंदित एकांत
में दिगंबर थे और दिगंबर होने के बाद जो करना चाहिए कर रहे थे। रतिश्लथ होने
के बाद कहीं कोई पश्चाल्लज्जा नहीं थी।
मनमोहन ने दो तीन बार उस कविता को पढ़ा।
उसे लगा कि वह स्वयं उस कविता के पीछे दिगंबर खड़ा है। उसके साथ उसकी प्रेमिका
(जिस पर अब तक उसका प्रेम खुल नहीं पाया था) दिगंबर खड़ी है। उन दोनों के पीछे
सारे मुहल्ले वाले और उनके भी पीछे हरी घास के बड़े मैदान पर पूरा शहर दिगंबर
खड़ा है और वे सब उसे और स्मिता को देखकर हँस रहे हैं। पूरे माहौल में हँसी है
एक विद्रूपता से भरी हँसी। हा... हा... हा... हा..., हा... हा... हा... हा...।
मनमोहन ने नरेश तेजदौड़नकर को वह कविता वापस करते हुए कहा।
'ये कविता अच्छी है। पर मैं इसके ऊपर अपना नाम लिखवाना नहीं चाहता।'
'क्यों? कविता मॉडर्न और नए मिजाज की बन पड़ी है। आप बहुत जल्दी लिखना सीख गए
हैं।'
मनमोहन ने कुछ तल्खी से कहा,
'मैंने आपसे कहा तो, मैं अपना नाम इसके ऊपर लिखवाना नहीं चाहता।'
'जैसी आपकी मर्जी। वैसे ये कविता बड़ी चमकदार पत्रिका में छप सकती है। आप एक
बार फिर सोच लें।'
'सोच लिया। मुझे ऐसी कविता के ऊपर अपना नाम नहीं लिखवाना।'
'तो एक बार शोषणवाला मोड ट्राइ कर लें। वहाँ भी कई विकल्प हैं।'
'जी नहीं।'
मनमोहन ने कहा और फास्ट ट्रैक नं. एक से बाहर निकल आया।
उस शाम मनमोहन गहरी निराशा में रहा। उसे समझ आ गया था कि कैसे हजारों हजार
कहानियाँ, हजारों कविताएँ और उपन्यास लिखे जा रहे हैं। जैसे पत्रिकाओं का पेट
भरने के लिए मशीनें लगी हुई थीं जो लगातार रचनाएँ फेंक रही थीं फिर उनकी
लुग्दी बनाती थीं, फिर जोड़ तोड़ कर नया रूप देती थीं और फिर पत्रिका की ओर
रवाना कर देती थीं। उसने तय किया कि वह वापस अपने शहर लौट जाएगा। पर फिर भी
सूद को गालियाँ तो सुनाना ही चाहिए।
इस सबके लिए सूद जैसे लोग ही जिम्मेदार हैं। उसी ने विज्ञापन देकर उसे फँसाया
उसका समय और पैसे बरबाद करवाए। एक बार फिर सूद को सबक सिखाने के इरादे से वह
लेखक बनाओ केंद्र की ओर चल पड़ा।
उसने सोचा था कि जाते ही सूद के कमरे में घुसेगा और सीधे उसे कॉलेज के जमाने
की सीखी हुई तगड़ी गालियाँ सुनाएगा। कहेगा सूद, भो... वाले, ये लेखक बनाने का
फ्रॉड बंद कर। अपने पैसे वापस माँगेगा, धमकियाँ देगा, धरना देगा, काउंटर पर
बैठी लड़कियों के सामने सीन खड़ा कर देगा, सूद ने प्रतिरोध किया तो शायद उसको
दो हाथ भी जमाए...
अभी वह लेखक बनाओ केंद्र की सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि किसी ने धीरे से उसके
कंधे पर हाथ रखा।
वही नुकीली नाक, फहराती दाढ़ी और उठे हुए माथे वाला आदमी था। उसने मुस्कुराते
हुए कहा।
'कहो दोस्त, क्या हाल हैं?'
मनमोहन ने कुछ नहीं कहा। फहराती दाढ़ी ने बात आगे बढ़ाई।
'सूद से मिलने आए हो?'
'हाँ।'
'उसे गालियाँ दोगे?'
'हाँ।'
'उससे पैसे वापस माँगोगे?'
'हाँ।'
'पीटोगे?'
'अगर जरूरत पड़ी तो।'
'मगर इससे क्या होगा? क्या लेखक बन जाओगे?'
'नहीं मगर मन में संतोष तो होगा।'
'अगर वाकई तुम्हें सिर्फ इसी बात से संतोष मिल सकता है तो जाओ, पीटो सूद को।
पर तब मैं कहूँगा कि तुम वाकई लेखक बनने लायक नहीं।'
मनमोहन ने इस बार फहराती दाढ़ी से सीधे मुखातिब होते हुए कहा,
'मैं आपको जानता नहीं हूँ, आपके नाम से भी परिचित नहीं, फिर आपको मेरी इतनी
चिंता क्यों?'
'इसलिए क्योंकि तुम मुझे अच्छे लगते हो। पहले दिन से, जबसे तुम मुझे दिखे। मैं
तुम्हें दोस्त बनाना चाहता था। आओ, नीचे चलकर चाय पीते हैं।'
मनमोहन अनायास ही उसके साथ नीचे उतर आया। वह मनमोहन को कनॉट प्लेस के पिछवाड़े
बनी चाय की दुकान पर ले गया। पहली बार मनमोहन ने देखा कि कनॉट प्लेस का कोई
पिछवाड़ा भी है। एक मठरी और चाय का गिलास मनमोहन के हाथ में पकड़ाते हुए उसने
कहा,
'मेरा नाम सुकांत है...'
'मैं मनमोहन। आप वही प्रसिद्ध कवि 'सुकांत' तो नहीं जिनका अभी अभी कविता
संग्रह आया है?'
'आपने ठीक पहचाना। मैं वही सुकांत हूँ। धरती के इस छोटे से टुकड़े पर, एक भाषा
जानने वाले करोड़ों लोगों में से कुछ एक पढ़े लिखे लोग, मेरी कविताओं को समझ
लेते हैं और उनकी प्रशंसा कर देते हैं। लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? कम से
कम मुझे तो इस कारण से असामान्य दिखने या होने का अधिकार नहीं मिल जाता।'
'आप अन्यथा न लें तो एक बात पूछूँ?'
'आप पूछ सकते हैं। और अगर आप इजाजत दें तो आपका प्रश्न मैं ही रख देता हूँ -
सुकांत जी आप इतना अच्छा कैसे लिख लेते हैं, यही न?'
'बिल्कुल ठीक। आपने कैसे जाना?'
'मैं सूद के केंद्र के सामने किताबों की दुकान पर सालों से उठता बैठता रहा
हूँ। देशभर के लोग वहाँ आते हैं। मैं उनसे टकराता ही रहता हूँ। करीब करीब सभी
लोग यही प्रश्न पूछते हैं। मैं आपको इसका उत्तर दूँगा। पर आज नहीं। आप ये
बताइए, आप दिल्ली कितनी बार आए हैं?'
'यही कोई दो तीन बार!'
'आपने दिल्ली देखी है?'
'जी थोड़ी बहुत। यही कनॉट प्लेस, पहाड़गंज, नई दिल्ली...'
सुकांत ने उसकी बात काटते हुए कहा,
'नहीं देखी। आपने दिल्ली नहीं देखी। चलिए मैं आपको दिखाता हूँ।'
अगले सात दिन तक सुकांत मनमोहन के साथ दिल्ली घूमता रहा। वह उसे जामा मस्जिद
के नीचे लगे भीड़ भरे बाजार में ले गया और कंधे चीरती हुई सदर बाजार की तंग
गलियों में, लाल किले के झरोखों से इतिहास दिखाया और पीछे लगने वाले कबाड़ी
बाजार से वर्तमान, मंडी हाउस के रेस्त्राँ से कलामंच की झलक दिखाई और
यू.एन.आई. कैंटीन में पत्रकारों की बहसों में शामिल कराया, वे जे.एन.यू. गए और
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर भी, वे किताबों की दुकानों पर गए और अखबारों के
कार्यालय में भी। पराँठे वाली गली से बंगाली मार्केट तक और कनॉट प्लेस से लेकर
कुतुब तक, जाने कितने अड्डों को सुकांत जानता था, सन सत्तावन की लड़ाई के बारे
में गालिब के विचारों से लेकर कनॉट प्लेस के निर्माण के इतिहास तक उसे सैकड़ों
चीजों के बारे में दिलचस्प जानकारी थी लेकिन फिर भी, वह इसका प्रदर्शन नहीं
करता था। धीरे धीरे उसके साथ घूमते हुए दिल्ली को जाना जा सकता था। सुकांत की
दिल्ली एक ऐसा दृश्य थी, जो यथार्थ था मगर स्वप्न की तरह था, जो दिखता था मगर
पकड़ में नहीं आता था, जो था पर नहीं था। वह सुकांत के विवरण से बनती थी, उसी
से बिगड़ती थी।
सातवें दिन कनॉट प्लेस के पिछवाड़े चाय की दुकान पर, खोखे पर बैठते हुए सुकांत
ने कहा,
'अच्छा भाई मनमोहन, आज से अपना घूमना खत्म। अब मुझे काम में लगना पड़ेगा।'
'आप करते क्या हैं?'
'यही, फ्रीलांसिंग'।
मनमोहन धीरे धीरे चाय पीता रहा। फिर बोला।
'आपके साथ सात दिन गुजारने के बाद घर जाना अच्छा तो नहीं लग रहा पर जाना
पड़ेगा। मुझे भी नौकरी पर लगना है। पर सुकांत जी आपने अब तक अपना वादा पूरा
नहीं किया है।'
'कौन सा?'
'वही अच्छा लिखने के बारे में कुछ बताने वाला।'
सुकांत हँसने लगा। उसने कहा।
'बताया तो!'
मनमोहन ने प्रश्नवाचक निगाहों से सुकांत की ओर देखा। वह अब गंभीर हो गया था।
उसने मनमोहन से पूछा।
'अच्छा मनमोहन तुमने मुझे अपने बहुत सारे अनुभव सुनाए पर ये नहीं बताया कि
पिछले दिनों तुमने कुछ लिखा भी?'
'जी... जी... कुछ खास नहीं'
'देखो मनमोहन। हममें से बहुत से लोग, जो लेखक बनना चाहते हैं। अक्सर सोचते ही
रहते हैं कि उन्हें लेखक बनना है। लिखते कुछ नहीं। लेखक बनने के लिए सबसे
जरूरी है लिखना।'
फिर कुछ रुककर उसने कहा,
'और दूसरी बात है पढ़ना। बिना पढ़े, बिना जाने तुम्हारी बात में घनत्व नहीं आ
सकता।'
मनमोहन ने कुछ कहना चाहा। पर सुकांत ने हाथ के इशारे उसे रोकते हुए कहा,
'अब तुम कहोगे किस चीज के बारे में लिखूँ? तो मैं कहूँगा - जीवन के बारे में।
जैसा तुमने उसे देखा, सुना, समझा है वैसा। अगर सच्चा लिखोगे तो भाषा और कहन
तलाश लोगे। बाकी सब टोटका है।'
सुकांत ने धीरे धीरे चाय का गिलास खत्म किया। फिर मनमोहन से हाथ मिलाया और
कहा।
'अच्छा दोस्त, फिर मुलाकात होगी।'
अपने कंधों को थोड़ा सा झुकाए, फहराती दाड़ी वाला सुकांत लंबे लंबे कदमों से
वापस, किताबों की दुकान की तरफ जा रहा था।
वही कनॉट प्लेस थी और वही 'लेखक बनाओ केंद्र' पर मनमोहन ने आज अपने आपको
अद्भुत रूप से हल्का महसूस किया।