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कहानी

रामकुमार के जीवन का एक दिन

संतोष चौबे


( 1 . )

दूध का ट्रक अभी-अभी रामकुमार के घर के सामने से गुजरा था और मोड़ पर से गुजरते समय, पहले वह अपनी विशिष्ट घरघराहट के साथ गुर्राया था और फिर दुम दबाकर भागने के पहले जोर से छींका था। रशीद भाई अपनी साईकिल के कैरियर पर ब्रेड और अंडों से भरी लकड़ी की पेटी लादे चें-पूं चें-पूं करते गुजर गए थे और उनके इस हस्तक्षेप से, मुहल्ले में जगार हो गई थी। सेंट जोसफ कान्वेंट के बच्चे रामकुमार के घर के सामने एकत्र हो चुके थे और छोटे-छोटे खेल खेलते हुए, बस के आने का इंतजार कर रहे थे। थोड़ी देर में बस आएगी, ड्रायवर नंदू अनिता मैडम के घर के सामने रुककर जोर जोर से हार्न बजाएगा और धीरे धीरे मुस्कुराएगा, अनिता मैडम हड़बड़ाती हुई जीना उतरेंगी और बस के सामने ड्रायवर के बगल वाली सीट पर बैठ जाएँगी। नंदू फिर बच्चों को बस में बैठाएगा और उड़न छू हो जाएगा।

अपने घर के सामने हो रही इस तमाम हलचल से बेखबर प्रख्यात बुद्धिजीवी और जुझारू कार्यकर्ता रामकुमार अपने बिस्तर पर औंधा पड़ा, गहरी नींद ले रहा था। तभी उसके फोन की घंटी चिड़िया की चहचहाहट की तरह बजी। उसकी पत्नी नीति ने फोन उठाते हुए कहा,

'दिल्ली से फोन है'

रामकुमार को ये आवाज कहीं दूर से आती जान पड़ी। सुबह के सात बजे थे और वह रात दो बजे सो पाया था। शाम पाँच बजे वह अपनी मेज पर बैठ गया था और लगातार, आठ नौ घंटे तक, कान्फ्रेंस के लिए रिपोर्ट तैयार करता रहा था। पर दो बजे के करीब, जब अक्षर एक दूसरे में गड्ड-मड्ड होने लगे और कंधों में अपार दर्द होने लगा और फिर भी रिपोर्ट पूरी नहीं हो पाई, तो उसने सो जाना ही बेहतर समझा। सोचा था सुबह एक आध घंटे ज्यादा सोकर रात की भरपाई कर लेगा। पर ये फोन...

उसने नीति की आवाज अनसुनी कर दी। करवट बदली और फिर आँखें बंद कर लीं।

'क्या कहूँ?'

नीति ने फिर पूछा। राम ने पैरों से चादर एक ओर ठेलते हुए कहा,

'कहो आ रहे हैं'

उसके सिर में हल्का सा दर्द था। शरीर टूट रहा था और आँखें जल सी रही थीं। बदन में हरारत थी, लगा बुखार आएगा। बेमन से फोन उठाते हुए उसने कहा।

'राम कुमार'

'...'

'हाँ, कान्फ्रेंस की मुझे सूचना है।'

'...'

'हाँ-हाँ, मैं कल सुबह निकल रहा हूँ'

'...'

'नहीं रिपोर्ट अभी पूरी तरह तैयार नहीं है। आज हो जाएगी। आई एम सारी। आई कुड नाट सेंड इट अर्लियर। साथ में ला रहा हूँ। कॉपी करा लूँगा।'

'...'

'ठीक है, फिर मिलते हैं।'

उसने कहा और फोन रख दिया।

अब बैठने का वक्त नहीं था। अगर जल्दी तैयार नहीं हुआ तो सुबह आने वालों का तांता शुरू हो जाएगा, और एक बार फिर, वह समय पर तैयार नहीं हो पाएगा।

वह उठा और वाश बेसिन के सामने जाकर खड़ा हो गया। जैसे किसी रोबोट की तरह उसने पेस्ट उठाया, ब्रश में लगाया और दाँत माँजना शुरू कर दिया।

उसकी आँखें अब तक पूरी तरह नहीं खुली थीं। वह जल्दी-जल्दी ब्रश कर रहा था और आज के कामों के बारे में भी सोचता जा रहा था। सुबह दस बजे से राज्य कार्यकारिणी की मीटिंग थी। नई आर्थिक नीतियों पर बातचीत होनी थी और आंदोलन की कार्यवाई तय की जानी थी। रात वाली रिपोर्ट अभी पूरी नहीं हुई थी। करीब दो घंटे उसमें भी लगने वाले थे। फिर जिलों से लोग आएँगे। उनकी अपनी अपनी समस्याएँ होंगी। आज लौटने में रात होना निश्चित था।

अचानक दाहिनी ओर की दाढ़ में पेस्ट लगा और एक टीस सी उठी। दाँत में कीड़ा लग गया था। वह बहुत दिनों से डॉक्टर के पास जाने की सोच रहा था, पर वक्त ही नहीं मिल पाता था। रोज सुबह उसे दाँत में तकलीफ होती थी, और रोज, वह मुँह धोने के बाद, उसे भूल जाता था।

अभी मुँह पोंछ ही रहा था कि कॉलबेल बजी।

उसने हड़बड़ी में तौलिया कंधे पर डालते हुए नीति से कहा,

'देखो तो कौन है? अगर हो सके तो टाल देना...'

नीति ने लौटकर कहा,

'सिराज आया है'

अब तक रामकुमार के पेट में दबाव बनने लगा था उसने सोचा कि निबट ले फिर सिराज से बात करेगा। फिर लगा कि नहीं, पहले बात कर ले फिर भीतर जाए।

दुविधा में तौलिया कंधे पर डाले ही वह बाहर निकल आया।

'क्यों सिराज, कैसे?'

उसकी आवाज में हल्की सी चिड़चिड़ाहट थी, जिसका तात्कालिक कारण तो पेट में बनता दबाव हो सकता था, पर उसका एक गैर तात्कालिक कारण भी था।

रामकुमार को जानने वाले जानते हैं कि वह एक यारबाश किस्म का आदमी था। रात रात तक दोस्तों के साथ अड्डा जमाना, किसी की जरा सी भी तकलीफ की खबर मिलने पर स्कूटर उठाकर निकल जाना, दोस्तों को खिलाना-पिलाना, घुमाना-फिराना, उसकी आदतों में शुमार था। पर इस बीच उसमें एक अजीब परिवर्तन आया था। उसे अपने समय, अपनी प्रायवेसी की चिंता सताने लगी थी। वह अब तक इस तरह दोस्तों और जनता का आदमी होकर रहता आया था कि उसका अपना कोई वक्त ही नहीं रहा था। अब उसे लगता था कि कम से कम सुबह शाम कुछ वक्त उसे अपने लिए मिल जाए तो थोड़ा बहुत पढ़ लिख लिया करे, अपने आप को व्यवस्थित कर लिया करे। पर यहीं पुराने संपर्क और लोगों के लिए कुछ कर गुजरने की उसकी अंदरुनी भावना, आड़े आ जाती थी। वो लोगों से मुँह खोल कर कुछ कह नहीं पाता था और लोग अपने आप में इतने मशगूल थे कि उसकी संवेदनाओं का सम्मान नहीं कर पाते थे। अंतर और बाह्य में ये संघर्ष ही उसकी चिड़चिड़ाहट का मूल कारण था।

सिराज ने उसके स्वर में हलकी सी चिड़चिड़ाहट को भाँप लिया। धीरे से कहा,

'भैया आपको तो मालूम ही है...'

हाँ उसे मालूम था। उसे मालूम था कि सिराज क्यों आया है। अपनी पाँचवीं नौकरी से निकाल दिए जाने के बाद उसे पिछले दो महीनों से फिर नौकरी की तलाश थी और वह सोचता था कि राम उसे नौकरी दिला सकता है। राम पूरी कोशिश कर रहा था। अपने हर परिचित के यहाँ उसे भेज चुका था। पर सिराज की बनावट में ही कुछ ऐसा था कि कोई उसे नौकरी पर नहीं रखता था। रामकुमार को खराब भी लगता था कि वह सिराज का छोटा सा काम नहीं करवा पा रहा और खीझ भी आती थी कि सिराज खुद अपने लिए कोई कोशिश क्यों नहीं करता। पर अपने स्वभाव के कारण वह सिराज को और उसके जैसे कई दोस्तों को, झटक नहीं पाता था।

उसे मालूम था कि अगर उसने सिराज को इस समय जरा भी लिफ्ट दी तो वह अपनी पूरी कहानी फिर से सुनाएगा। इसलिए उसने सीधे मुद्दे पर आते हुए कहा,

'काम हुआ?'

नीति आकर दो कप चाय रख गई।

सिराज ने कहना शुरू किया,

'नहीं भैया, अभी कहाँ? मैं गया था। पर कलेक्टर ने दो घंटे बाहर खड़ा रखा। फिर बाहर निकल कर गाड़ी में बैठते हुए कहा, कल आइएगा। मेरे पास तो वापस लौटने के लिए भी पैसे नहीं थे। जैसे तैसे घर लौट पाया। फिर अगले दिन गया। एक घंटे खड़ा रहा पर कलेक्टर दौरे पर चले गए। फिर दो दिन छोड़कर गया...।'

रामकुमार का सिर घूमने लगा। उसमें 'गया, खड़ा रहा, चले गए,' 'गया, खड़ा रहा, चले गए', ये तीन शब्द घूम-घूम कर सर की हदों से टकराने लगे। उनके इस घुमाव और पेट में होने वाली गुड़गुड़ में एक अजीब किस्म का सिंक्रोनाइजेशन था।

रामकुमार उन लोगों में से नहीं था जो भरी सभा में जोर से आवाज करते हुए अपना पेट हल्का कर लेते हैं। वह उठ कर दूसरे कमरे में गया, दबाव हल्का किया और फिर आकर सिराज के सामने बैठ गया।

'तुमने कलेक्टर से कहा नहीं कि तुम स्थानीय आदमी हो। उस काम पर तुम्हारा अधिकार बनता है...'

कहते कहते उसे खुद अजीब सा लगने लगा। वह सिराज को भी जानता था और कलेक्टरों को भी। न सिराज कभी उससे कुछ कह पाएगा और न कलेक्टर अपनी ओर से कुछ भलमनसाहत दिखाएगा।

सिराज ने फिर कुछ दयनीयता भरे गुस्से से कहा।

'भैया मेरी तो हालत खराब हो गई है। अगर आपने जल्दी ही कुछ नहीं किया, तो मैं आत्महत्या कर लूँगा...'

आज के जमाने में किसी को नौकरी दिलवाना कोई आसान काम नहीं और अगर पेट में दबाव बनता रहे तो उसके बारे में सोचना तक भी आसान काम नहीं। उसने खीझते हुए कहा।

'अच्छा कम से कम आज आत्महत्या मत करना। मैं आज कलेक्टर से बात करूँगा।'

कह कर वह अंदर चला गया।

अभी निबट कर बाहर आया ही था कि नीति ने कहा,

'शरीफ मियाँ बैठे हैं'

शरीफ मियाँ हालाँकि उसके अच्छे दोस्त थे और संस्था के काम से ही आए थे पर इस वक्त उनका आना उसे खल गया। नौ बज चुके थे और उसे तैयार होकर दस बजे मीटिंग में पहुँचना था। उसने बैठक में पहुँचते हुए कहा,

'कहिये शरीफ भाई?

शरीफ भाई शलवार कमीज में, कुर्सी पर पालथी मारे बैठे हुए थे। लगता था उन्हें कुछ भी कहने की कोई जल्दी नहीं है। उन्होंने इत्मीनान से सिगरेट का पैकेट जेब से निकाला, लाइटर से उसे सुलगाया और कुछ कश लगाने के बाद उससे पूछा,

'सिगरेट पियोगे?'

'नहीं यार, इस वक्त नहीं।'

'तो मियाँ बैठो तो, तुम्हें एक जलवेदार खबर सुनाएँ...'

'जो कुछ कहना है जल्दी कह डालिए'

'आजकल शहर की पॉलिटिक्स में अपना सिक्का चल रहा है। ये देखो...'

कहकर उन्होंने एक आमंत्रण पत्र जेब से निकाला और उसकी तरफ बढ़ा दिया।

'ये क्या है?'

'मियाँ सी.एम. हाउस का निमंत्रण है। सी.एम. रोजा इफ्तार की पार्टी दे रहे हैं। सीनियर सिटीजन के तौर पर हमें भी बुलाया है...'

उसने निमंत्रण पत्र वापस करते हुए कहा,

'चलिए अच्छा है। जब सी.एम. आपकी बात मानने लगें तो हमें भी एक आध बार मिलवा दीजिएगा। फिलहाल बताएँ कैसे आना हुआ...'

'बताते हैं मियाँ बताते हैं पहले काफी तो पिलवाइए।'

अब उसके सब्र का बाँध टूटने लगा उसने कुछ जोर से कहा,

'नीति, भाई दो कप काफी बना देना...'

अब शरीफ मियाँ ने अखबार में लिपटा एक कार्ड शीट का गोला निकाला और उसे सामने टेबल पर खोलते हुए कहा,

'ये पोस्टर का डिजाइन देखिए।'

एक भद्दा सा पोस्टर सामने था। पोस्टर में छोटे बड़े अक्षरों का कोई बैलेंस नहीं था। रंग गाढ़े और अजीबोगरीब से चुन लिए गए थे। मुख्य नारा पूरी तरह से गायब था और रामकुमार की संस्था का मोनो तक उसमें दिखाई नहीं दे रहा था। अब राम का पारा चढ़ने लगा।

'मियाँ ये भी कोई डिजाईन है?'

शरीफ मियाँ ने आदत के मुताबिक कहा,

'क्यों इसमें क्या बुराई है?'

'वह स्पष्टीकरण देने के मूड में नहीं था।

'बस भाई ठीक नहीं है, इसे बदलवाइए'

'बताइए तो क्या बदलवाना है?'

'रंग बदलिए, अक्षर बदलिए, नारा बदलिए, गरज कि पूरा पोस्टर बदलिए।'

कहकर वह अंदर जाने लगा।

दोस्तों से इस तरह बात करना उसे अच्छा नहीं लगता था। पर क्या करे? अगर कोई सालों साल उसके साथ काम करने के बाद भी उसे न समझ पाए तो वह क्या करे?

'काफी...'

दरवाजे पर लगभग टकराते हुए नीति ने कहा,

'मुझे देर हो रही है तुम थोड़ा शरीफ मियाँ के साथ बैठकर पी लो...'

फिर वह दाढ़ी बनाने के शीशे के सामने खड़ा हो गया।

ब्लेड पुराना था। पहली बार घुमाने पर ही काटने लगा। उसने ब्लेड का पैकेट देखा। खाली था। झुँझला कर नीति से कहा,

'भाई मेरा ब्लेड तो...'

फिर चुप हो गया। इस वक्त बात बढ़ाने का कोई मतलब नहीं था। शाम को ब्लेड लाने का ध्यान रखना होगा।

इस वक्त उसने पुराने ब्लेड से ही काम चलाया। शीशा देखा, गर्दन पर बाल छूट गए थे। उसने सोचा कल देखा जाएगा और बाथरूम में घुस गया।

वातावरण में ठंडक थी। ठंडे पानी से नहा लेने पर उसके शरीर में खुजली सी होती थी और लाल चकत्ते उभर आते थे। पर लगभग रोज ही उसे ठंडे पानी से नहाना पड़ता था क्योंकि पानी गर्म करने का वक्त ही नहीं होता था। वह जल्दी जल्दी नहाकर बाहर आया, जल्दी से कपड़े पहने और नाश्ते की टेबल के सामने जाकर खड़ा हो गया।

दो पराँठे और एक गिलास दूध वहाँ पहले से रखे थे। उसने पराँठे को गोल किया और जल्दी जल्दी खाने लगा। खाने के साथ साथ वह चहलकदमी भी करता जा रहा था। इससे उसे सोचने में मदद मिलती थी और शरीर में कुछ गर्मी लाने में भी। सोचते सोचते ही उसने दूध का गिलास उठाया, एक घूँट लिया और तेजी से नीचे रख दिया। दूध बहुत गर्म था पर उसने ध्यान नहीं दिया था। जीभ बुरी तरह जल गई। उसने नाश्ता अधूरा ही छोड़ दिया।

नीति ने कहा,

'ये पराँठा तो खा लो'

'बस हो गया'

'जब तक तुम नाश्ता करते हम तुम्हारी पैंट प्रेस कर देते...'

'ठीक तो है'

'अच्छा आज शाम घर का सामान लेने...'

'तुम ले आना'

'बच्चों के स्कूल भी बुलाया था'

'तुम हो आना'

'अम्मा की शुगर टेस्ट करा लो। दो दिन से चक्कर-चक्कर कर रही हैं'

'कल देखेंगे'

'कब तक आओगे'

'रात तक'

'कल जाना है?'

'हाँ'

अब बात करने का वक्त नहीं था। उसने चप्पल डाली और चल पड़ा। जैसे ही स्कूटर स्टार्ट की, चप्पल टूट गई। वह टूटी चप्पल पहने ही निकल पड़ा।

( 2.)

यहाँ रामकुमार के बारे में थोड़ा जान लेना बेहतर होगा।

रामकुमार अपने छात्र जीवन में एक जुझारू छात्र नेता के रूप में उभरा था। वह पढ़ाई लिखाई में होशियार था और वहाँ भी आगे जा सकता था पर राजनीति उसे ज्यादा आकर्षित करती थी। रणनीति बनाने में वह उस्ताद था। जाने कितने महाविद्यालयीन चुनाव उसने जीते, जाने कितने छात्र आंदोलनों का नेतृत्व किया, जाने कितने नेताओं को उसने उठाया-गिराया।

वह भाषा का जादूगर था और भावनाओं का अच्छा खेल कर लेता था। जब बोलने खड़ा होता तो हजारों लड़के लड़कियाँ पागल हो जाते। धीरे धीरे वह प्रादेशिक और फिर राष्ट्रीय छात्र नेता के रूप में जाना जाने लगा।

कई राजनैतिक पार्टियों ने उस पर डोरे डाले। पर वह अंदर से बहुत ईमानदार और वीतरागी किस्म का आदमी था। उसने मेहनतकशों की पार्टी में जाना ही ठीक समझा जहाँ संघर्ष के सिवा कुछ नहीं था।

छात्र राजनीति से वह मजदूरों के संघर्ष में आया और फिर वहाँ से बुद्धिजीवियों के मोर्चे पर। अब कभी पर्यावरण के लिए, कभी सांप्रदायिक एकता के लिए, कभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के खिलाफ और कभी सांस्कृतिक अस्मिता के लिए लड़ते, उसे देखा जा सकता था।

लोगों को उसके जुझारूपन और आंतरिक ऊर्जा के वैभव पर बहुत आश्चर्य होता। जैसे वह थकना जानता ही नहीं था। वह चला जा रहा था, चला जा रहा था...

फिर भरी इमरजेंसी में, भारी सुरक्षा और दमन के बीच उसने मुख्यमंत्री के ऊपर जूता फेंक मारा। पकड़ा गया और दो साल जेल में रहा।

जेल से निकलकर उसने अपने छात्र जीवन की संगिनी नीति से शादी कर ली। नीति बहुत समझदार किस्म की लड़की थी। वह रामकुमार को दिल से प्यार करती थी, उसकी भावनाओं, उसकी विश्वदृष्टि, उसके इरादों से इत्तेफाक रखती थी, उसका आदर करती थी। उसने इधर एक छोटी सी नौकरी कर ली थी। दोनों में अच्छी निभ रही थी।

या कम से कम लगता तो ऐसा ही था।

( 3.)

रामकुमार ने संतू की दुकान के सामने स्कूटर रोकते हुए कहा,

'लेना यार संतू, इस चप्पल में एक दो कीलें मार देना'।

रामकुमार और संतू में दोस्ती थी।

असल में इलाके के बहुत से मजदूरों, कामगारों, सफाई कर्मचारियों और ठेले वालों से उसकी दोस्ती थी। वह उन्हें बहुत निकट से जानता था और वे भी, कठिनाई पड़ने पर, उसी के पास आया करते थे।

संतू ने कीलें मारते हुए कहा,

'भैया अब इसके दिन पूरे हो गए। इसे बदलवाओ। कहो तो मैं आपके लिए नई जोड़ी बना दूँ?'

'बदलवाते हैं यार।'

'इस बार बहुत दिनों में दिखे?'

'हाँ, बाहर गया था।'

'आपसे थोड़ी बात भी करनी थी, गुमटी के बारे में...'

'क्यों दरोगा फिर कुछ कह रहा है क्या?'

'हाँ यहाँ से हटाने को कहता है। अब इतने दिनों में तो यहाँ काम जम पाया है। आप थोड़ी बात कर लीजिएगा।'

'करूँगा, एक दो दिन में।'

रामकुमार ने कहा और आगे बढ़ लिया।

जैसे जैसे वह कार्यालय की ओर बढ़ रहा था उसका मूड बदलता जा रहा था। दूर दूर से आने वाले अपने साथियों के चेहरे उसकी नजरों के सामने आ रहे थे। उन लोगों ने नई आर्थिक नीतियों के खिलाफ अपने इलाके में क्या किया ये जानने की उत्सुकता उसे सताने लगी थी। उसे भी इसी विषय पर बातचीत करनी थी। वह अपने विचारों को व्यवस्थित करने लगा।

साथी कार्यालय में पहुँच चुके थे। रामकुमार के पहुँचते ही उसे तरह तरह की जिज्ञासाओं ने घेर लिया।

'राम भाई नमस्ते।'

'नमस्कार, और क्या हाल हैं?'

'बढ़िया, और आपके?'

'ठीक ठाक।'

'इस बार आप हमारे जिले के बहुत पास से निकल आए।'

'क्या बताएँ, लौटने की जल्दी थी।'

'पत्रों का भी जवाब नहीं मिल रहा?'

'दूँगा यार, देख ही नहीं पाया।'

'दिल्ली की क्या खबर है?'

'अच्छी हलचल है।'

'हमारे जिले में भी माहौल तो अच्छा है, बस एक बार आपको आना है।'

'जरूर।'

रामकुमार ने सबसे बात की। वह किसी का दिल दुखाना नहीं चाहता था। साथियों के बीच आकर उसने अपने आपको बहुत ताकतवर महसूस किया। उसकी चिंता का दायरा अचानक बहुत बड़ा हो गया। वह परिवर्तन के लिए जारी एक बड़े संघर्ष से अपने आपको जुड़ा महसूस करने लगा। उसने कहा,

'आइए मीटिंग शुरू करते हैं।'

मीटिंग शुरू होते ही वह दूसरी तरह का आदमी हो गया। उसने बहुत मजबूती के साथ नई आर्थिक नीतियों के पीछे छुपे अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र को खोलकर बताया। उसने देश की आत्मनिर्भरता और उससे जुड़ी आम भारतीय की अस्मिता का प्रश्न बहुत भावुकता के साथ उठाया। उसने देश में जारी लूट के खिलाफ आह्वान किया। वातावरण काफी हाई वोल्टेज पर चार्ज हो गया। एक गरमागरम बहस छिड़ गई जो अंत में जाकर आम सहमति पर समाप्त हुई। अगले दो महीनों के लिए आंदोलनात्मक कार्रवाई का प्लॉन बनाया गया और सबने पूरी ताकत लगाने का आश्वासन दिया।

रामकुमार ने संतोष की साँस ली। उसका काम हो चुका था। उसने सिर उठाया। देखा दो बज रहे थे। उसे अपनी कल की बची हुई रिपोर्ट भी पूरी करनी थी। खाना खाने का वक्त नहीं था। उसने संजय से कहा,

'चलो संजय, बहुत काम है।'

वह जाकर अपनी सीट पर बैठ गया। उसने बोलना और संजय ने लिखना शुरू कर दिया...।

'विकसित देश दुनिया को आज ऐसे दो भागों में विभाजित कर देना चाहते हैं जिनमें से एक, दुनिया के सभी संसाधनों का, उसके ज्ञान, विज्ञान का, व्यापार का मालिक हो और दूसरा मजबूरी में अपने संसाधनों का दोहन करवाता रहे...।'

'राम भाई टेलीफोन...'

'लाओ बात कराओ...'

'...।'

'हाँ संजय आगे चलो। प्रतिद्वंदिता विहीन विश्व में अमेरिकी दादागिरी का स्वरूप भी बहुत भोंडा होता चला जा रहा है। अमेरिका विश्व के तमाम बाजारों पर कब्जा कर लेना चाहता है जिससे अपनी डूबती अर्थव्यवस्था को बचा सके...।'

'राम भाई वो भिंड वाले आपसे मिलने के लिए बैठे हैं।'

'चलो बात कर लेते हैं। संजय तुम यहीं रुकना...'

'...'

'चलो शुरू करो संजय। विश्व बैंक के दबाव के आगे...'

'राम भाई दस अगस्त को आपको हमारे जिले में आना है।'

'राम भाई, अगली मीटिंग आठ की है'।

'राम भाई, आपको ग्यारह को दिल्ली पहुँचना है'।

'राम भाई, वो पुस्तिका कब निकल रही है?'

'राम भाई, हम खर्चे का हिसाब आपको देना चाहते हैं।'

'राम भाई...'

'राम भाई...'

'राम भाई...'

राम ने सबको धैर्यपूर्वक निबटाया। बीच बीच में थोड़ा झुँझलाया पर रिपोर्ट लिखवाना जारी रखा। उसने दिन में खाना नहीं खाया था। शाम के छह बजने वाले थे और उसे कस कर भूख लग आई थी। वह रिपोर्ट के अंतिम हिस्से पर पहुँचा।

'हम सबका ये कर्तव्य बनता है कि...'

फिर संजय से कहा,

'चलो भई संजय, अब खत्म करो। टाइप करके रात तक घर पहुँचा देना।'

वह सीट से उठ ही रहा था कि विजय ने कहा,

'राम भाई सात बजे पर्यावरण संगोष्ठी में जाना है। उनका दो बार फोन आ चुका है।'

राम थक गया था। पर पर्यावरण समूह वाले उसके अच्छे परिचित थे। अगर नहीं जाता तो बुरा मानते। उसने कहा,

'चलो, कहीं कुछ खा लें।'

फिर बाहर निकल आया

( 4.)

राम ठीक सात बजे संगोष्ठी स्थल पर पहुँच गया।

करीब तीस चालीस लोग वहाँ पहुँच चुके थे और अलग-अलग समूहों में खड़े बतिया रहे थे। कुछ लोग सिगरेट फूँक रहे थे या चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। बीच बीच में किसी के मजाक पर जोर का ठहाका पड़ता था। फिर बात सम पर आ जाती थी।

ये वही लोग थे जो राम को हर गोष्ठी में दिखाई पड़ते थे। राम को ऊब सी लगने लगी। उसने संयोजक को ढूँढ़ा और कहा,

'भई शुरू करवाइये'

'बस भाई साहब, एक दो मिनट और देख लें।'

फिर वे अंदर जाकर बैनर बाँधने लगे। करीब दस मिनिट बाद बाहर आकर उन्होंने एक नजर मारी। कोई दो चार लोग ही और बढ़े थे। वे अब अलग अलग लोगों से आत्मीयता पूर्वक मिलने का अभिनय करने लगे। एक जूनियर से लड़के ने उनके कान में आकर कुछ कहा। वे थोड़ा सा चौंके फिर पास के कमरे में फोन करने चले गए। बाहर आए तो उनके माथे पर चिंता की सलवटें थीं। उन्होंने राम के पास आकर कहा,

'राम भाई, आपसे एक रिक्वेस्ट है। सिंह साहब को प्रमुख वक्ता के रूप में बुलाया था। अभी-अभी खबर मिली है कि वे नहीं आ सकेंगे। अब आप ही विषय प्रवर्तन कर दें...'

राम ने झुँझलाते हुए कहा,

'यार मैं बहुत थका हुआ हूँ और इस विषय पर मेरी तैयारी भी नहीं है।'

संयोजक ने कहा

'राम भाई आपको तैयारी की क्या जरूरत। आप तो आज के हालात से पूरी तरह परिचित ही हैं। और आपका हर विषय में अध्ययन है। आप बड़ी आसानी से बोल सकते हैं...'

'ठीक है, शुरू करवाइए'।

राम जाकर हाल में बैठ गया। उसने जेब में से एक कागज निकाला और उस पर कुछ लिखने लगा। गोष्ठी शुरू हुई।

अब संस्था के सचिव ने अतिथियों को मंच पर बुलाया।

अब संस्था के संयुक्त सचिव ने अतिथियों का परिचय कराया।

अब संस्था की प्रमुख महिला कार्यकर्ता नं. 1 ने अतिथि नं. 1 को फूल भेंट किए।

अब संस्था की प्रमुख महिला कार्यकर्ता नं. 2 ने अतिथि नं. 2 को गुलदस्ता भेंट किया।

अब संस्था के कुछ छूट गए व्यक्तियों ने, जो अन्यथा शायद बुरा मानते, अतिथियों का स्वागत किया।

अब संस्था के नवयुवकों ने एक गीत गाया, जो भजन की तरह था।

संयोजक ने फिर बोलना शुरू किया,

'हमारे बीच प्रदेश के प्रमुख बुद्धिजीवी और जुझारू कार्यकर्ता रामकुमार मौजूद हैं। पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई में उनका बड़ा योगदान रहा है। आज वे हमारे सामने...।'

राम इस तरह के परिचय सैकड़ों बार सुन चुका था। उसे इनसे बड़ी कोफ्त होती थी। वह चाहता था कि लोग गंभीरता से विषय के बारे में सोचें, कुछ पूर्व तैयारी के साथ आएँ और बहस को अगली बौद्धिक सीढ़ी पर ले जाने में मदद करें। पर वह ये भी जानता था कि लोग विषय से पूरी तरह अनभिज्ञ होंगे कि उसे मूलभूत बातों से शुरुआत करनी होगी और फिर मूलभूत प्रश्नों के उत्तर देने होंगे।

उसने अपना कागज सामने रखा और विकसित तथा विकासशील देशों के बीच अंतर्विरोध वाली अपनी लाइन पकड़ी।

'जैव विविधता के मसले को हमें विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ते अंतर्विरोध के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में उन्होंने अपने जैविक संसाधन नष्ट कर लिए हैं और करते जा रहे हैं। अब वे चाहते हैं कि विकासशील देशों के पास जो जैविक संसाधन रह गए हैं उन पर कब्जा कर लिया जाए। पर उन्होंने खुद जो जैव तकनीक विकसित की है, उसका बँटवारा नहीं चाहते। असमानता की इस शर्त को हमें कतई नहीं मानना चाहिए...'

संयोजक ने श्रोताओंपर एक नजर डाली। वे रामकुमार से एक चुंबक की तरह चिपक गए थे। रामकुमार ने विषय को अपने पूरे कंट्रोल में ले लिया था। अब वह उसे सही मुकाम पर ले जाकर ही छोड़ेगा ये सोचकर संयोजक ने गोष्ठी की चिंता छोड़ी और चाय वगैरह की चिंता में लगे।

रामकुमार विषय को बिल्कुल सही मुकाम पर ले गया। उसने ठीक-ठीक बहस कराई और फिर जैव विविधता संधि के खिलाफ मीटिंग में प्रस्ताव पास करा के ही उसे समाप्त किया।

वह हाल के बाहर निकल आया। अब वह सीधे घर जाना चाहता था। पर लोगों ने प्रश्न पूछना अभी छोड़ा नहीं था। उसने सबसे बात की। सबको जवाब दिया।

तभी संयोजक ने फिर कहा,

'राम भाई, आप घर ही जाएँगे न?'

'जी, जी हाँ।'

'तो एक छोटा सा काम और कर दीजिएगा प्लीज। ये रश्मि जी अकेली हैं। इन्हें घर छोड़ दीजिएगा।'

हालाँकि देर हो चुकी थी और राम सीधे घर जाना चाहता था, पर वह रश्मि जी को अकेले भी नहीं छोड़ सकता था। रश्मि जी उसके घर के विरुद्ध दिशा में रहती थीं, पर राम पहले उन्हें छोड़ने गया फिर उसने अपने घर का रास्ता लिया।

( 5.)

रात के ग्यारह बज रहे थे। राम बेहद थका हुआ था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि इस भरे पूरे दिन को संतोषप्रद माने या नहीं। वह लगभग बिस्तर पर गिर पड़ने के लिए घर पहुँचा।

नीति खाने के लिए बैठी थी। उसने कहा।

'खाना खाओगे?'

'हाँ।'

फिर उसने बिना बातचीत किए दो रोटी खाई। सोने के पहले कहा,

'कल सुबह जाना है।'

'मालूम है।'

'कपड़े वगैरह...।'

'रख दिए हैं।'

उसने बत्ती बुझाई और सो गया।

( 6.)

उसकी गाड़ी सुबह सात बजे जाती थी। पर उसकी नींद करीब चार बजे ही खुल गई।

कमरे में सुबह की बेसुधी छाई हुई थी।

शायद पूर्णिमा थी, क्योंकि शीशे से छनकर चाँदमी कमरे में आ रही थी। उसने देखा नीति का चेहरा चाँदनी में दमक रहा था।

अचानक रामकुमार को लगा, जाने कितने दिन हुए उसने अपनी पत्नी को छुआ तक नहीं था।

उसने नीति का चेहरा अपने हाथों में ले लिया और उससे धीरे-धीरे प्यार करने लगा।

सब कुछ जल्दी ही खत्म हो गया।

नीति उठने की तैयारी करने लगी।

तभी रामकुमार ने आदतन उससे पूछा,

'क्यों कैसा रहा?'

उसने कोई जवाब नहीं दिया।

तब रामकुमार ने आजिजी से उसका हाथ पकड़कर कहा,

'तुमने बताया नहीं?'

नीति ने धीरे से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा,

'राम, आजकल तुम प्यार भी इस तरह से करने लगे हो जैसे कोई काम पूरा कर रहे हो।'

राम को गहरा धक्का लगा।

उसने उठकर खिड़की खोल दी।

पूरब में वही रक्तिम व्याकुलता थी।


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