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शहर का रंगमंडल सभागार दर्शकों से खचाखच भर चुका है। वे सभी देश के प्रख्यात
नाट्य निर्देशक इरफान अहमद साहब का नाटक देखने आए हैं। इरफान साहब प्रगतिशील
मिजाज के नाट्य निर्देशक कहे जाते हैं, लोक कलाओं में आधुनिकता की अद्भुत
ब्लेंडिंग करते हैं तथा अपने नाट्य संगीत और नृत्य बंधों से अपने नाटकों में
अजब सम्मोहन पैदा करते हैं। उनकी इसी ख्याति और अपनी संस्था से उनकी निकटता के
कारण हमने उन्हें अपने सम्मेलन की सांस्कृतिक संध्या में नाट्य प्रदर्शन के
लिए बुलाया है। वे शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक 'मिड समर नाइट्स ड्रीम' का
हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत करने वाले हैं। दर्शक शो के समय, यानी सात बजे से
पहले ही आ चुके हैं। अब साढ़े सात बज रहा है, सभागार पूरी तरह भर चुका है पर
नाटक शुरू नहीं हो रहा।
या यूँ कहा जाए कि इरफान साहब नाटक शुरू नहीं कर रहे।
उन्होंने मंच के बीचोंबीच एक कुर्सी डाल रखी है। यवनिका उठी हुई है। वे
दर्शकों की ओर पीठ करके बैठे हैं और पाइप का धुआँ उड़ा रहे हैं। हल्की रोशनी
में धुएँ के छल्ले उड़ाते वे इस इत्मीनान से बैठे हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो।
अब उन्होंने अपने दो कलाकारों को आवाज दी और उन्हें मंच सज्जा के निर्देश दिए।
पहले उन्होंने मंच के कुछ कोनों में पेड़ खड़े करवाए, फिर उन्हें हटवाया, फिर
दूसरी जगह खड़ा करवाया। फिर कुछ अन्य स्थानों पर अलग-अलग ऊँचाई वाले स्टूल
रखवाए, फिर उन्हें हटवाया, फिर दूसरी जगह रखवाया। फिर उन्होंने पर्दे पर कुछ
टाँगा, फिर उसे निकलवाया और दूसरी जगह लगवाया। इस बीच उन्होंने अपने कलाकारों
को एक बार जोर से डाँटा। उनकी आवाज सभागार में गूँज गई। एक सनाका सा खिंच गया।
कुछ लोगों को लगा कि नाटक शायद शुरू हो गया है इसलिए उन्होंने तालियों की
छिटपुट आवाज से इरफान साहब की डाँट का स्वागत कर दिया। पर उनके माथे पर कोई
शिकन तक नहीं आई।
अब उन्होंने दो कलाकारों को सीढ़ी पर चढ़ा दिया। वे ऊपर लगे पाइप पर कुछ रस्सी
के फुंदने लटकवाना चाहते थे, जो शायद वन में लता गुल्मों के प्रतीक थे। फुंदने
एक बार लटक गए पर इरफान साहब को उनका लटकना पसंद नहीं आया। उन्होंने पहले
उन्हें छह इंच आगे करवाया, फिर छह इंच नीचे, फिर कहा ठीक नहीं है। फिर एक फुट
आगे करवाया, फिर एक फुट नीचे, फिर कहा ठीक नहीं है।
सम्मेलन का आयोजक होने के नाते मैं मंच पर विंग्स में खड़ा था। विंग्स में
नाटक के पहले की कलाकारों की तनावभरी गहमा गहमी जारी थी। मेरे दिल की धड़कन
बढ़ती जा रही थी। आखिर कब तक ये ऐसा ही करते रहेंगे। अगर दर्शक उठकर जाने लगे
या उन्होंने इन्हें हूट कर दिया तो! हमारी तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा।
सम्मेलन की सारी सफलता धरी की धरी रह जाएगी।
अरुणा गुस्से में भरी मेरे पास आई,
'तुमसे पहले भी कहा था कि इन्हें मत बुलाओ। ये हर समय कोई न कोई बखेड़ा खड़ा
करते हैं पर तुम्हें तो इनकी महानता के सिवा कुछ दिख ही नहीं रहा था।'
मैंने धीरज से कहा,
'चलो बहस बाद में कर लेंगे, इस वक्त तो सोचो कि नाटक शुरू कैसे हो।'
अरुणा मुझे जवाब देने के लिए रुकी नहीं।
मैंने सोचा मैं खुद मंच पर जाकर इरफान साहब से बात करूँ। पर लगा कि इनका क्या
भरोसा। अगर मंच पर ही मुझ पर फट पड़े तो... इतने दर्शकों के सामने मेरी
बेइज्जती तो होगी ही अगले दिन के लिए अखबार की हेड लाइन भी पक्की हो जाएगी।
मैं विंग्स के पीछे पड़ी कुर्सी पर जाकर बैठ गया। मेरे दिमाग में वह दृश्य
उभरा जिसका अरुणा ने अभी-अभी जिक्र किया था।
उस दिन हमारी संस्था के राष्ट्रीय सम्मेलन की पूरी आयोजन समिति शहर के
सांस्कृतिक केंद्र रवींद्र भवन के रेस्त्राँ में उपस्थित थी। पूरी समिति का
मतलब हम पाँच - मैं कार्तिक, नरेंद्र, अमित, जावेद और अरुणा।
रेस्त्राँ की बाँस और घास की इथनिक कलाकारी वाली छत से सूरज की किरणें छन-छन
कर हम तक पहुँच रही थीं और ठंड की उस दुपहरी में उनका स्पर्श हमें सुखद
गर्माहट से भरे दे रहा था। आसपास फूलों की क्यारियाँ, दूर तक फैले लान की
हरियाली और उसके पार लहलहाते पेड़ हमारे दिलों में उत्साह पैदा कर रहे थे।
वैसे भी हम सम्मेलन की तैयारी पूरी कर चुके थे और उसकी निश्चित सफलता को लेकर
उत्साहित थे।
मैंने बात शुरू करते हुए कहा,
'सम्मेलन की तैयारी पूरी है। सभी तकनीकी सत्रों के वक्ता आने की हामी भर चुके
हैं। प्रदर्शनी का भी इंतजाम समय से हो जाएगा। बस एक ही काम बाकी रह गया है।
वह है सांस्कृतिक सत्र के बारे में तय करना।'
नरेंद्र ने अपनी खूबसूरत दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए पूछा,
'क्या तुमने कुछ सोचा है?'
मैंने कहा,
'हमारा सम्मेलन दो दिनों का है। बस बीच में एक शाम मिलती है। मैंने कोई खास मन
तो नहीं बनाया है पर मुझे लगता है कि हम वैज्ञानिक दृष्टि से लैस मनुष्य के
साथ-साथ कलात्मक रूप से समृद्ध, संवेदनशील मनुष्य की भी बात करते हैं। हमें
ऐसा कुछ करना चाहिए कि ये कल्पना हमारे काम में भी दिखे।'
नरेंद्र हमारे बीच कला संस्कृति की सबसे ज्यादा समझ रखता था। उसने कहा।
'हम किसी अच्छे नाट्य निर्देशक को क्यों न बुलाएँ, जो हमारे दर्शकों के दिल को
छू लेने वाला नाटक करे?'
अमित को हमारे ग्रुप में अच्छा मैनेजर समझा जाता था। वह नाटक वाटक को पुराना
आइडिया मानता था। उसने कहा,
'आजकल अच्छे नाटक हो कहाँ रहे हैं? सभी तो इलेक्ट्रानिक मीडिया की तरफ,
सीरियल्स की तरफ भाग रहे हैं।'
नरेंद्र ने कहा,
'मैं ये बात नहीं मानता, अभी भी इरफान अहमद जैसे लोग हैं जो अच्छा नाटक कर रहे
हैं, उन्हें बुलाया जा सकता है।'
अरुणा को जैसे ये सुझाव अच्छा नहीं लगा। उसने अपने ढीले-ढाले कुरते में से हाथ
निकालते हुए तीखी आवाज में कहा,
'क्यों इरफान साहब को ही क्यों? हम किसी नए निर्देशक को बुलाते हैं।'
'भई इरफान साहब प्रगतिशील विचारधारा के नाट्य निर्देशक हैं। उनके यहाँ लोक
भाषा में आधुनिकता की जो ब्लेंडिंग है, वह अद्भुत है। फ्रांस, इंग्लैंड और
जर्मनी तक में सराहे जाते हैं। नाट्य आंदोलन के पुराने अलमबरदार हैं। वे हमारे
दर्शकों को बांधे भी रखेंगे और हमसे अलग भी न होंगे।'
अरुणा ने कहा,
'प्रगतिशील माई फुट। पक्के अवसरवादी हैं, इमरजेंसी लगी तो इंदिरा गांधी के साथ
हो लिए और पुरस्कार में राज्य सभा मेंबरी पा गए। फिर तमाम सरकारी समितियों
में, देश विदेश की यात्राओं में और अनुदानों में अपना समय गुजारते रहे। उधर
हिंदूवादी दल ने जीना मुश्किल किया तो हमारे शहर में आ गए। अब मजे में हैं।
तमाम सरकारी समितियाँ उनके शो करवाती हैं, हम छोटे शहर के लोग उन्हें सिर
आँखों पर बिठाए रखते हैं, तमाम पुरस्कार आदि उनके कदम चूम रहे हैं, और उन्हें
क्या चाहिए? यही उनका संघर्ष है...।'
नरेंद्र ने थोड़ा गुस्से में कहा,
'अरुणा तुम्हारी बात सच है। पर ये पूरा सच नहीं। एक पूर्णकालिक नाट्य निर्देशक
को, जिसे अपने साथ पंद्रह कलाकारों का एक दल भी रखना है, उनके रहने, खाने-पीने
का इंतजाम करना है, बढ़ती उम्र के बावजूद अपनी कला को बचाए भी रखना है,
तुम्हारी समझ से और क्या करना चाहिए? प्रगतिशीलता हम लोगों के लिए एक शगल से
कुछ ही ज्यादा होगी। हमारी अपनी पक्की नौकरियाँ हैं, काम हैं। हम बचे हुए समय
में कुछ अच्छे काम भर करते हैं। पर क्या हम समझौते नहीं करते? पुरस्कारों और
सम्मानों के पीछे नहीं भागते? और इन तमाम समझौतों के बावजूद हमने कौन सा बड़ा
काम कर दिखाया? इमरजेंसी के समय तो एक पूरी की पूरी पार्टी इंदिरा गांधी के
साथ थी और क्या आज तुम्हारी क्रांतिकारी पार्टी कई बार कांग्रेस के साथ खड़ी
नहीं दिखती? मुझे नहीं लगता कि हमें किसी के भी जीवन संघर्ष को इतने सतही तौर
पर लेना चाहिए जैसे तुम ले रही हो...'
अरुणा ने मैदान नहीं छोड़ा,
'तो गाँव से आए भोले भाले कलाकारों का शोषण करना संघर्ष है? वे तो अपनी जगह पर
वैसे भी बड़े कलाकार थे। आपने उन्हें क्या दिया, एक लंबे नाट्य जीवन के दौरान
अपनी जमीन से कट जाने के सिवा? और क्या अब आप सोचते हैं कि उन कलाकारों का
क्या होगा? आपने तो अपने आपको एक सुंदर शहर में, एक हाई सोसायटी में व्यवस्थित
कर लिया। पर उनका क्या जिन्होंने पूरा जीवन आपके साथ खपाया? तुमने उस लोक
नर्तकी के बारे में नहीं सुना जो इरफान साहब के साथ जीवन भर रही और भयानक
गरीबी में इस दुनिया से गई?'
नरेंद्र ने कहा,
'अरुणा तुम इरफान साहब के कलात्मक कद के साथ उनके व्यवहार का तालमेल नहीं बिठा
पा रहीं, तुम उनमें सुपर ह्यूमन या महामानव देखना चाहती हो। पर हैं तो वे भी
आखिर हमारी तुम्हारी तरह के सीमित क्षमताओंवाले मनुष्य। अगर तुम उनसे हाई
डिग्री की इंटेग्रिटी की अपेक्षा रखती हो तो दफ्तर में घूस खाने वाले अपने उस
लेखक मित्र से क्यों नहीं रखतीं जो शायद कभी तुम्हारा अफसर रहा हो, और अब तमाम
साहित्यिक पत्रिकाओं और गोष्ठियों में मसीहा बना फिर रहा है, तमाम पुरस्कार
समितियों और ज्यूरियों का सदस्य है और कहो कल को तुम्हें भी कोई सम्मान दे दे?
साथी लेखकों की विसंगतियों को तुम झेल सकती हो पर कलात्मक ऊँचाई प्राप्त कर
लेने वाले नाट्य निर्देशक को नहीं? असल में हम मध्यवर्गीय चरित्र के लोग हैं।
हमारा लक्ष्य क्रांति नहीं दूसरों की प्रशंसा, सम्मान तथा पुरस्कार पाना है
बस। फिर ब्रेख्त के बारे में तुम क्या कहोगी? क्या उनकी प्रगतिशीलता पर शक
किया जा सकता है और क्या फिर भी अपने कलाकारों के साथ उनके व्यवहार को लेकर अब
सैकड़ों उँगलियाँ नहीं उठतीं?'
जावेद अरुणा की मदद के लिए आगे आया।
'पर नरेंद्र भाई ये तो सच है कि इरफान साहब का व्यवहार अपने रंग भवन के
कलाकारों के साथ भी अच्छा नहीं रहा। किस तरह उन्होंने कलाकारों को परेशान
किया, उनकी नौकरियाँ छीनीं...'
'और कलाकारों का व्यवहार? क्या उसे आदर्श कह सकते हो? क्या वे खुद अपनी कला के
प्रति गंभीर थे? उनमें से अधिकतर ने अपनी संस्थाएँ बना ली थीं और सरकारी
अनुदान की जुगाड़ में लगे रहते थे। रंग भवन की नौकरी उनके लिए सिर्फ नियमित आय
का बहाना थी। सीरियल मिल जाए, स्पांसरशिप मिल जाए, बाहर काम मिल जाए और नौकरी
भी बनी रहे। ये तो प्रोफेशनल एटीट्यूड नहीं हुआ। बड़े से बड़ा नाट्य निर्देशक
भी उनसे काम नहीं ले सकता था...'
अब मैंने हस्तक्षेप करते हुए कहा।
'रुकिए भाई। हम सब यहाँ इरफान साहब का विश्लेषण करने नहीं बैठे हैं। अगर आप
उन्हें बुलाना नहीं चाहते तो हम किसी और को बुलाए लेते हैं। जावेद अब तक
चुपचाप बैठा है। वह बताए...'
'भई मुझे तो उनके नाटक अच्छे लगते हैं।'
अरुणा ने अपना विरोध कम करते हुए कहा,
'अगर नरेंद्र इतना चाहते हैं तो इरफान साहब को बुला लिया जाए। मुझे उन्हें
बुलाने में आपत्ति नहीं है। पर उन्हें प्रगतिशील कहे जाने में है...'
नरेंद्र ने कहा,
'मेरा कहना है कि वे जैसे हैं, वैसे हैं, पर अच्छे कलाकार हैं। उनके नाटक से
हमारे लोगों के बीच सही संदेश जाएगा। बस...'
मैंने बहस समेटते हुए कहा,
'तो ठीक है। नरेंद्र, तुम उनसे बात कर लो।'
'नहीं कार्तिक। बात तुम ही करो। तुम उन्हें जानते भी हो और सम्मेलन की
पृष्ठभूमि भी बता सकते हो'
संस्था के काम से मेरा उनके घर आना जाना था। इरफान साहब, उनकी पत्नी लतिका जी
और बेटी सुमन बड़ी सहजता से पेश आते थे। खुले दिल से स्वागत करते, संसार के
सभी विषयों पर बात करते, और कभी-कभी अचानक, उतनी ही सहजता के साथ, मेरे घर आ
जाते। बहुत थोड़े समय में शहर में उन्होंने अपना दायरा बड़ा कर लिया था। मैंने
कहा,
'ठीक है। तो मैं ही बात करके तुम्हें बताता हूँ। कोई और विकल्प?'
'पहले उनसे बात तो कर लो!'
इरफान साहब से मुलाकात करने में कोई दिक्कत नहीं हुई थी। उन्होंने कहा था - आ
जाइए, मैं शाम को रिहर्सल में रहूँगा। वहीं मिल लेंगे।
अपनी तमाम ख्याति और संपर्कों के बावजूद इरफान साहब के पास रिहर्सल करने की
जगह नहीं थी। वे एक सरकारी क्वार्टर की छत पर अपने कलाकारों के साथ रिहर्सल कर
रहे थे। सभी कलाकार, कुछ नए, कुछ पुराने - दरी बिछाकर जमीन पर बैठे थे और
इरफान साहब किसी दृश्य पर उनसे बात कर रहे थे।
मैंने कुछ संकोच के साथ प्रवेश किया। इरफान साहब के साथ-साथ कई कलाकारों से भी
मेरा परिचय था। इरफान साहब ने अपनी बात पूरी की। तब तक मैं खड़ा रहा। फिर
उन्होंने कहा, आइए, आइए। अब तक उनकी ओर केंद्रित कलाकारों ने भी अब हाथ हिलाकर
मेरा अभिवादन किया। मैंने जमीन पर बैठते हुए बिना भूमिका के कहा,
'इरफान साहब हम लोग रायपुर में अपना राष्ट्रीय सम्मेलन कर रहे हैं। चाहते हैं
पहले दिन शाम को आप हमारे यहाँ आएँ...'
'तारीख क्या है?'
'पाँच और छह नवंबर...'
'तो चार को तो मैं वहाँ हूँ ही। छत्तीसगढ़ सरकार अपना एक साल पूरा होने की
खुशी में मुझे बुला रही है। पाँच को आपके यहाँ आ जाऊँगा।'
फिर उन्होंने अपने आप ही कहा,
'कलाकारों के आने जाने का खर्च तो समारोह समिति दे ही रही है। बस आप अपने शो
का खर्च उठा लीजिएगा।'
फिर कुछ सोचकर उन्होंने कहा,
'आप शो कहाँ कर रहे हैं?'
'रंग मंडल में!'
'हाल खराब है, फिर भी चलिए देखेंगे।'
मैंने कहा,
'आप नाटक कौन सा कर रहे हैं?'
'भई कलाकारों की कमी है। दो अलग-अलग नाटक नहीं कर पाऊँगा। मैं उनके लिए
शेक्सपियर का 'मिड समर' कर रहा हूँ आपको भी, उसी से काम चलाना पड़ेगा।'
'आप वही करें। हमारी आडियंस बिल्कुल नई होगी उन्हें अच्छा लगेगा।'
'आप रायपुर के लिए कब निकलेंगे?'
'तीन को जा रहा हूँ।'
'हम लोग भी तीन को निकलेंगे। आप उसी दोपहर वाली गाड़ी में रहेंगे?'
'हाँ।'
'तो चलिए शायद ट्रेन में ही मुलाकात हो जाए।'
'जरूर'
मैंने अपनी आयोजन समिति में घोषणा कर दी, इरफान साहब आ रहे हैं।
इरफान साहब मुझे ट्रेन में ही मिल गए थे।
उनके साथ थीं उनकी पत्नी लतिका और बेटी सुमन।
इरफान साहब के हाथ में शायद किसी नाटक का ड्राफ्ट था जिसे वे चश्मा नाक पर
चढ़ाए पढ़ते जा रहे थे और बीच-बीच में कुछ काटते, कुछ जोड़ते जा रहे थे। लतिका
जी ए.सी. कोच की चौड़ी बर्थ पर आँखें मूँदे पसरी थीं। सुमन कोई मैग्जीन पढ़
रही थी।
मैंने कुछ संकोच के साथ कूपे में झाँकते हुए कहा,
'आई होप आई एम नाट डिस्टर्बिंग।'
सुमन ने अपनी बड़ी बड़ी आँखें उठाई और चहक कर कहा।
'अरे नहीं नहीं, बिल्कुल नहीं। आप आए हैं तो कुछ बातचीत होगी। हम तीनों तो बस
चुपचाप बैठे थे।'
इरफान साहब ने चश्मे के भीतर से निगाहें उठाकर मुझे देखा, हल्की सी मुस्कुराहट
बिखेरी पर अपना काम करना जारी रखा। लतिका जी उठकर बैठ गईं। अपनी कुछ ठोस आवाज,
जो उनके ठोस शरीर से मेल खाती थी, में पूछा,
'अरे आओ कार्तिक, कैसे हो?'
'ठीक हूँ। अकेले बैठे बैठे ऊब रहा था, सोचा आप लोगों के हालचाल पूछ लूँ। इरफान
साहब क्या कर रहे हैं?'
'एक संस्कृत नाटक पर काम कर रहे हैं। एकदम नया प्रोडक्शन होगा।'
'कब तक करेंगे?'
'देखो कब तक होता है। अभी तो स्क्रिप्ट पर काम हो रहा है। करीब तीन महीने तो
लग ही जाएँगे। बाइ द वे तुम अपना शो कहाँ कर रहे हो?'
लतिका जी बहुत अच्छी अँग्रेजी बोलती थीं और कई विषयों पर रोचक बातचीत कर सकती
थीं। अपने समय की प्रख्यात रंगकर्मी थीं। पर अब आलोचना और प्रत्यालोचना उनका
प्रमुख शगल था। मैंने कहा,
'जी रंग मंडल में।'
'एंड हाउ मच दे आर चार्जिंग यू?'
यहाँ 'दे आर' से उनका मतलब उन संगीतज्ञ दंपत्ति से था जिनसे शायद उनकी कभी
प्रतिस्पर्धा रही हो और जो अब रंगमंडल का संचालन करते हुए काफी पैसा कमा रहे
थे। मैंने कहा,
'पंद्रह हजार प्रतिदिन।'
'पंद्रह हजार...! ओ माई गाड। वो पति पत्नी लूट रहे हैं लोगों को।'
हालाँकि पंद्रह हजार रुपये किराया वाकई बहुत ज्यादा था पर लतिका जी की
प्रतिक्रिया मुझे कुछ कठोर लगी। आखिर रंगमंडल के संचालक भी कलाकार थे और लतिका
जी के समकालीन भी।
सुमन संवेदनशील थी। उसने भी लतिका जी की टिप्पणी का तीखापन महसूस किया। उसने
बात बदलते हुए कहा।
'कार्तिक, मैंने आपका उपन्यास पढ़ा। मुझे बहुत अच्छा लगा।'
इरफान साहब अब चर्चा के बीच में आए,
'हाँ भई। सुमन तुम्हारे उपन्यास की बड़ी तारीफ कर रही थी। कह रही थी बहुत
ड्रामेटिक है। मैं भी देखना चाहूँगा।'
मैंने सुमन से पूछा,
'आपको उसकी कौन सी बात अच्छी लगी?'
'रीडेबिलिटी। मुझे लगता है प्रोज की सबसे बड़ी बात है उसकी रोचकता और
रीडेबिलिटी। पाठक किसी कहानी और उपन्यास को उठाए और उसे दो पेज के बाद पढ़ न
पाए तो उसके होने का क्या मतलब? आपका उपन्यास पहले पैराग्राफ से पकड़ता है।
मैंने उसे एक सिटिंग में पढ़ा।'
मुझे अपनी प्रशंसा अच्छी लग रही थी। सुमन ने कहना जारी रखा।
'और दूसरी बात है उसकी गहराई। उसमें एक ऐसी गहरी उदासी है जो आपको भीतर तक
उदास तो करती है पर पात्रों के प्रति प्यार भी जगाती है। बड़े फलक का उपन्यास
है। उस पर नाटक या फिल्म बने तो बड़ा मजा आए। मैंने बाबा से कहा है उसे एक बार
पढ़ें।'
इरफान साहब ने कहा,
'इस संस्कृत नाटक से फुरसत पाते ही पढ़ूँगा। वैसे कार्तिक लगता ऐसा है कि तुम
अभी भी पोस्टमॉडर्न नहीं हुए हो। गहराई वगैरह की चिंता करते हो, वरना आजकल तो
सतही चमक का जमाना है।'
मैंने उत्साह से कहा,
'अगर आप करेंगे तो मैं नाटक की दृष्टि से स्क्रिप्ट दोबारा तैयार कर दूँगा।'
'जरूर। आपकी भी मदद लेंगे। वैसे हमारे यहाँ स्क्रिप्ट भी टीम वर्क ही है।'
सुमन ने एक बार फिर चर्चा में प्रवेश किया।
'कार्तिक, आजकल आप क्या कर रहे हैं?'
मैंने हँसते हुए कहा।
'फिलहाल तो सम्मेलन की तैयारी कर रहा हूँ।'
'नहीं, उसके अलावा?'
'शोर पर एक कहानी लिखी है।'
'शोर पर? इंटरेस्टिंग!'
'बचपन में मैं जलतरंग बजाया करता था। उसकी मिठास जैसे अब तक मेरे मन में बसी
हुई है। धीरे-धीरे शोर और बेसुरेपन से मुझे घृणा होती गई। अपने कमरे में पंखे
की आवाज तक से मुझे दिक्कत होती थी। मैंने शहर के कोने में इसीलिए मकान बनाया
था कि मैं शोर से बच सकूँ। फिर धीरे-धीरे मोहल्ले वालों ने गणेश जी और दुर्गा
जी बिठाना शुरू किया। एक चबूतरा बना। फिर उसे घेर कर प्रतिमा स्थापित कर दी
गई। अब वहाँ एक मंदिर है। और जैसे उसके होने की शर्त है खराब और खर खर साउंड
सिस्टम पर, रोज सुबह पाँच बजे से, एक ही तरह के भजन, कस्बों और गाँवों से उठे
उत्साही गायकों की बेतुकी तुकबंदियाँ, लगातार चलने वाले प्रवचन और पाठ। फिर
जैसे ये कम नहीं था, मेरे घर के बगल में एक नेता किस्म के आदमी ने महाविद्यालय
स्थापित कर दिया। अब सुबह आठ बजे से शाम के पाँच छह बजे तक करीब चार पाँच सौ
मोटरसाइकिलों के आने जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहता है। बीच के समय में
छात्र हुड़दंग और गाली गलौज करते रहते हैं। मैं पूरी तरह शोर से घिर गया हूँ।
जलतरंग की मीठी आवाज पीछे, कहीं बहुत पीछे, छूट गई है। शोर मुझे धीरे-धीरे मार
रहा है और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, कुछ इस तरह की थीम है कहानी की...।'
कूपे में कुछ देर को निस्तब्धता छा गई। इरफान साहब के भी कान शायद हमारी तरफ
ही लगे थे क्योंकि उन्होंने अपनी स्क्रिप्ट बंद करते हुए कहा,
'कार्तिक, दिस इज पावरफुल। मुझे लगता है कि अब लोगों की सुनने की क्षमता भी कम
होती जा रही है। इस तरह की थीम्स पर नाटक किए जाने चाहिए। एकदम कंटेपरेरी थीम
है और नाटककार को कंटेपरेरी से नहीं डरना चाहिए। मैंने फार्मेट भले ही लोक से
लिए हों पर थीम्स एकदम नए, एकदम मॉडर्न उठाए हैं। मैं इस तरह के प्रयोगों से
कभी नहीं डरा। इस तरह से शायद मैं बात कहने के ढंग में एक नयापन ला सका हूँ।
आई थिंक दैट कुड बी टेकन एस माई कंट्रीब्यूशन।'
'जी हाँ। आपके यहाँ फोक और कंटेपरेरी का जबर्दस्त समन्वय है।'
इरफान साहब अब कुछ मूड में आ गए थे। हर कलाकार की तरह उन्हें भी अपने बारे में
बात करना पसंद था। उन्होंने कहा,
'असल में एक नाट्य निर्देशक का सबसे बड़ा चैलेंज है अपनी रंगभाषा की तलाश।
मैंने अपने लिए एक रंगभाषा खोजी जैसे एक कथाकार या कवि अपनी एक भाषा, एक
मुहावरा, एक डिक्शन तलाशता है और उसमें अपनी बात कहता है। आप पहली लाइन या
पहले पैरे से ही समझ सकते हैं कि ये फलाँ की कहानी है, फलाँ का उपन्यास है,
फलाँ की कविता है। कुछ इसी तरह से नाटक का भी है। मेरी रंगभाषा ही मेरी पहचान
है, मेरा होना है।'
मैं जैसे इरफान साहब के रचनात्मक विश्व में घूम रहा था। मैने कहा,
'अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ?'
'हाँ, हाँ जरूर...।'
लतिका जी और सुमन भी शायद मेरी टोन से आकर्षित हुईं। मैंने पूछा,
'आपको नहीं लगता कि आप अपने आपको रिपीट कर रहे हैं। शायद अब आपको रुककर अपनी
सभी चीजों को डाक्यूमेंट कर लेना चाहिए? इतने सारे नाटक हैं, इतना रिच नाट्य
संगीत है, बच्चों के लिए आपके नाटक हैं, कविताएँ हैं, क्या इन सबको एक जगह
लाने की जरूरत नहीं? ये काम कौन करेगा?'
'कार्तिक ये होना चाहिए। पर अगर आप पूछें कि मेरी आज की सबसे बड़ी चिंता क्या
है तो मैं कहूँगा अपने साथ जीवनभर काम कर रहे अपने कलाकारों का सेटलमेंट। जब
मैं दिल्ली से यहाँ आया था तो सरकार के इस वादे पर कि वह हमें कुछ जमीन देगी,
हमारी रैपरट्री को मदद करेगी पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया। कलाकार अधिकतर किसान
हैं। फसल बोने और कटाई के समय घर चले जाते हैं। शहर में वैसे भी उनका मन नहीं
लगता। अगर कहीं एक जगह उन्हें रखा जा सकता तो ये टीम जीवित रहती। पर अब ये
संभव नहीं लगता। अगर आप मेरे बारे में पूछें तो मुझे लगता है कि मैं एक
परफार्मर हूँ। डाक्यूमेंट करने का काम दूसरों का है। मुझे बैठना अच्छा नहीं
लगता। मंच मुझे लुभाता है। मैं बार-बार वहाँ जाना चाहता हूँ। मैं बस परफार्म
करते रहना चाहता हूँ, कर रहा हूँ।'
तीन प्राणियों का वह परिवार उस समय मुझे अच्छा लगा था। मुझे लगा था कि तमाम
अवसरवाद और घटियापन के आरोपों के बावजूद कहीं बहुत गहरे इरफान साहब अपने साथी
कलाकारों को लेकर चिंतित थे। उनका कलाकार जीवित था, जीवित रहना चाहता था और
पचहत्तर वर्ष की उम्र में, जब अधिकांश लोग अपनी प्रसिद्धि और यश के प्रकाश में
जीवित रहना चाहते हैं, परफार्म करना चाहता था। मुझे अचानक ही उस परिवार का
अकेलापन और उसका दुनिया से जुड़ाव एक साथ ही समझ में आया, कहूँ अच्छा लगा।
लतिका जी ने चर्चा में आए इस मोड़ को शायद भाँप लिया था। उन्होंने जैसे तिलस्म
को तोड़ते हुए कहा।
'चलो इरफान, बातचीत बहुत हो चुकी। अब हम लोग कुछ खाते हैं। कार्तिक हैव अ बाइट
विद अस।'
'श्योर...'
मैंने कहा।
गाड़ी किसी प्लेटफार्म पर प्रवेश कर रही थी।
सुबह जब मैं रायपुर प्लेटफार्म से बाहर आया तो दृश्य बदला हुआ था।
हमें लेने रायपुर के दोस्त और दो गाड़ियाँ पहुँची हुई थीं पर इरफान साहब को
लेने उनकी सरकारी गाड़ी नहीं आई थी। कल ट्रेन में मुझे अंदाज नहीं लग पाया था
कि उनके पास इतना सामान होगा। पर आज देखा, बड़े-बड़े बक्से, अटैचियाँ और
डिब्बे आदि लिए दो तीन कुलियों के साथ इरफान साहब, लतिका जी और सुमन चले आ रहे
थे। मुझे लगा तीन व्यक्तियों के हिसाब से ये सामान कुछ ज्यादा था। इरफान साहब
के हाथ में उनका वही बैग था जो उनकी पहचान बन चुका था, जिसमें वे अपना पाइप और
पाइप बनाने का सामान, छोटी मोटी दवाएँ, कुछ जरूरी कागजात और एक छोटी सी शीशी
रखा करते थे जिसमें से गाहे बगाहे एक घूँट लेना उन्हें ताजगी प्रदान करता था।
मुझे देखकर लतिका जी ने कहा,
'देखो कार्तिक, मैंने कहा था न, ये सरकार हमें बुला तो लेगी पर फिर हमारा
ध्यान रखना भूल जाएगी। न कोई हमें लेने आया है, न गाड़ी आई है, पता नहीं कल
पहुँच चुके हमारे कलाकारों का क्या हाल होगा! इरफान तुमने खबर तो की थी...'
'यस यस, आई रैंग अप। प्रोटोकाल ऑफिसर से मेरी फोन पर बात भी हुई थी...'
'तो फिर कोई आया क्यों नहीं? कलाकारों को बुलाने का क्या यही तरीका है? ये लोग
अपने आपको समझते क्या हैं...'
'डोंट गेट एंग्री लतिका। आई कैन रिंग अप नाउ एंड फाइंड आउट...'
'और तब तक हम यहीं खड़े रहें, इस सामान के साथ...'
अब मैंने हस्तक्षेप करते हुए कहा,
'आप चिंता मत कीजिए। हमारी दो गाड़ियाँ आई हैं, पहले ये आपको छोड़ेंगी फिर
हमें। हम लोग आधा घंटा इंतजार कर लेंगे...'
सुमन जो अब तक एक बक्से पर बैठी थी बोली,
'नहीं नहीं आप क्यों तकलीफ करते हैं। बाबा हम लोग टैक्सी ले लेते हैं।'
मैंने कहा, 'तकलीफ की क्या बात? गाड़ियाँ हैं तो। ये आपको छोड़कर आएँगी तब तक
हम लोग एक कप चाय पी लेंगे।'
लतिका जी ने स्वीकृति जताने का उपक्रम किया, इरफान साहब सामान के इर्द गिर्द
घूमने लगे कि कोई मदद करे तो उसे गाड़ियों में चढ़ाया जाए। रायपुर से आए
साथियों ने दो मिनिट में पूरा सामान गाड़ियों में लाद दिया। उससे कुछ ज्यादा
देर लतिका जी को गाड़ी में बैठने में लगी। उन्होंने खिड़की से बाहर मुँह निकाल
कर कहा,
'थैंक्स वेरी मच कार्तिक।'
अभी गाड़ियाँ गई ही थीं कि अनूप दौड़ता-भागता आता नजर आया। उसने अपना
ट्रेडमार्क पैंट और कुरता पहन रखा था। शादी के बाद उसका वजन कुछ बढ़ गया था।
तेज-तेज चलने के कारण वह कुछ हाँफ सा रहा था। उसने आते ही पूछा,
'कार्तिक भाई, इरफान साहब आ गए क्या?'
'आ भी गए और चले भी गए। तुम लोगों पर बहुत गुस्सा हो रहे थे। वो तो कहो हमारी
गाड़ियाँ थीं सो हमने भिजवा दिया। नहीं तो तुम्हारी शामत आ जाती...'
'धन्यवाद यार। पर वे गुस्सा क्यों हो रहे हैं? मेरी उनसे बात हुई थी फोन पर।
वे तो कल आने वाले थे। आज कैसे आ गए...'
एक जोर का ठहाका पड़ा।
'तो तुम्हें मालूम कैसे पड़ा कि वे आज आ रहे हैं...'
'मैं तो आप लोगों से मिलने आ रहा था। रास्ते में दीपक मिल गया। बोला इरफान
साहब शायद आज ही पहुँच रहे हैं...'
'चलो अब दौड़ लगा लो। बात कर लेना, शांत हो जाएँगे। तब तक हम लोग चाय पीते
हैं।'
अनूप उल्टे पाँव दौड़ा।
हम लोग चाय की दुकान की तरफ बढ़े।
सम्मेलन स्थल पर पहुँचने के बाद मैं इरफान साहब को भूल गया। वहाँ अजब गहमागहमी
थी। अमित, जावेद और अरुणा वहाँ पहले ही पहुँच चुके थे। अमित के जिम्मे बाहर से
आने वाले लोगों की देखभाल और तकनीकी सत्रों के संचालन का काम था। जावेद
स्थानीय प्रचार प्रसार और भोजन आदि की व्यवस्था में था। अरुणा ने प्रदर्शनी
लगाने और साज सज्जा की जिम्मेदारी ले रखी थी। मेरा काम संयोजकों का संयोजन
करना था। मैंने सभी से अलग अलग बात की, पूरे स्थल का जायजा लिया, दोपहर की
प्रेस कान्फ्रेंस के बारे में पूछताछ की और स्थानीय विश्वविद्यालय तथा शिक्षा
संस्थाओं में हमारे सम्मेलन के प्रति रुचि का अंदाजा लगाया।
करीब बारह बजे एक बार फिर हम सब तैयारियों की समीक्षा के लिए बैठे।
अमित ने कहा,
'सभी आने जाने वालों का शिड्यूल तैयार है। यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में ठहरने
की व्यवस्था है। लाने वालों की टीम और गाड़ियाँ तैयार हैं। अतिथि आज शाम से आना
शुरू होंगे। उन्हें लाने का प्रबंध पूरा है और गेस्ट हाउस में भी अपने दो
लड़के रहेंगे।'
जावेद ने बताया,
'शहर में करीब दो हजार कार्ड बाँटे गए हैं। महत्वपूर्ण व्यक्तियों से मेरी खुद
बात हो गई है। तीन बजे तुम प्रेस कान्फ्रेंस ले ही रहे हो। लगभग पूरा मीडिया
रहेगा। इसके पहले भी खबरें ठीक ठाक छपी हैं। हमारा दृष्टिकोण अखबारों में जा
रहा है।'
अरुणा ने कुछ चिंता जताई,
'भई मुझे कुछ मदद की जरूरत है। इस शहर की गति बहुत धीमी है। लोग ढंग का पंडाल
तक खड़ा नहीं कर सकते, पैनल नहीं बना सकते, एक एक सामान के लिए बाजार के दस दस
चक्कर लगाने पड़ते हैं। मेरे साथ एक दो आदमी और काम पर लगें, नहीं तो कल सुबह
तक भी प्रदर्शनी लगना मुश्किल है।'
पतली पतली उँगलियों, तीखी नाक और झूलते बालों वाले अपने दोस्त नीरज और मिनटों
में पंडाल खड़ा करने वाले हैदर भाई को मैं इसी तरह की इमरजेंसी के लिए साथ
लाया था। मैंने कहा,
'तुम चिंता मत करो, नीरज पूरी मंच सज्जा देख लेगा, बस थर्मोकोल पर काम करने
वाला एक लोकल आर्टिस्ट ढूँढ़ना पड़ेगा। हैदर पंडाल में मदद कर देगा। शाम तक सभी
स्टाल तैयार हो जाने चाहिए। और नीरज, तुम्हारे लिए एक काम और है...'
'क्या?'
'तुम्हें इरफान साहब को लाकर एक बार मंच दिखाना है। उनकी टीम शायद आज एक बार
रिहर्सल करेगी। फिर सुबह जल्दी एक रन थ्रू करना चाहें तो कर लेने देना। जरूरी
ये है कि इरफान साहब मंच देख लें क्योंकि उन्हें शिकायत बनी रहती है। शो के
लिए अलग से पब्लिसिटी कर दी गई है या नहीं?'
'पब्लिसिटी की गई है और अलग कार्ड भी बाँटे गए हैं। वैसे इरफान साहब का नाम ही
काफी है...'
मैंने बैठक समाप्त की और प्रेस कान्फ्रेंस के अपने वक्तव्य को देखना शुरू
किया।
रात दो बजे हैदर ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा, 'आइए भाईजान आपको रोशनी दिखा
दें'। फिर उसने एक झटके से हैंडल नीचे किया। पूरा पंडाल और सभागार रोशनी से
जगमग हो उठे। सबने हैदर को बधाई दी।
अमित ने हर घंटे पर चाय का प्रबंध कर रखा था - अब हम एक-एक गिलास गर्मागर्म
चाय पी सकते थे। चाय के बाद नीरज ने मेरा कंधा थपथपाते हुए कहा, 'अब आप जाइए।
सुबह मंच आपको तैयार मिलेगा'। मुझे मालूम था उसके कथन में शक की कोई गुंजाइश
नहीं थी।
सम्मेलन की भव्य शुरुआत हुई थी। सूचना प्रौद्योगिकी को आम आदमी तक पहुँचाने की
हमारी थीम को मीडिया ने बहुत अच्छी तरह रिसीव किया था। अरुणा और नीरज ने अपना
वादा पूरा करते हुए शानदार प्रदर्शनी लगाई थी जो संस्था के इतिहास और तकनीक के
इतिहास को साथ साथ प्रस्तुत करती थी। मंच सादा पर सुंदर था तथा उस शहर में
पहली बार आधुनिक प्रोजेक्शन सिस्टम का प्रयोग करते हुए उसकी गरिमा बढ़ा दी गई
थी।
सभी सत्र शानदार तरीके से संपन्न हुए। तकनीकी सत्रों के वक्ता तैयारी से आए थे
और लगभग हर सत्र में छात्रों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। जावेद की
मोबिलाइज़ेशन और भोजन आदि की व्यवस्था भी बिल्कुल समय पर चल रही थी।
जब शाम को अंतिम सत्र हुआ तो मैंने बहुत हल्का महसूस किया।
अभी अंतिम सत्र के अध्यक्ष अपना समापन वक्तव्य दे ही रहे थे कि मुझे इरफान
साहब और लतिका जी सामने वाले द्वार पर दिखाई दिए।
अध्यक्ष मंच से उतरकर बाहर तक भी नहीं पहुँच पाए होंगे कि इरफान साहब मंच पर आ
गए। मैं अतिथियों को बाहर छोड़कर मंच पर आया तो वहाँ हड़कंप मचा हुआ था। इरफान
साहब नीरज पर जोर जोर से गुस्सा हो रहे थे।
'ये आपने क्या बैकड्राप लगा रखा है? इसे खुलवाइए।'
'सर, ये रातभर में काफी मुश्किल से खड़ा किया गया है, और विंग्स से जुड़ा हुआ
है। इसे खोलने में ही करीब एक घंटा लग जाएगा। सात बजे से शो का टाइम दिया गया
है। फिर सम्मेलन तो कल भी चलना है। अगर इसे खोल दिया गया तो मुझे आज रात भर
फिर काम करना पड़ेगा, इसे खड़ा करने के लिए।'
'मैं कुछ नहीं जानता। आप इसे खुलवाइए और विंग्स को भी पीछे करवाइए।'
मैं तब तक मंच पर आ गया था। अब उन्होंने मुझ पर गुस्सा करना शुरू किया।
'कार्तिक ये सब क्या है? बैकड्राप इतना आगे लगा दिया गया है कि मंच की पूरी
गहराई ही चली गई है। यू शुड हैव डिस्प्लेड बैटर सेंस। इसे हटवाइए और मंच खाली
करवाइए।'
'सर, मैं देखता हूँ।'
मैंने कहा, और चिंता में पड़ गया। सवा छह बज रहे थे और हमने शो का टाइम सात
बजे का दिया था। अगर हम बैकड्राप खोलते भी हैं तो निश्चित रूप से सात बजेगा।
फिर इरफान साहब अपना मंच लगाना चाहेंगे। इन्होंने ये बात कल क्यों नहीं कही?
मैंने नीरज से कल ही कह दिया था कि इनको लाकर मंच दिखा देना। नीरज कर क्या रहा
था?
मैं नीरज को एक ओर ले गया।
'क्यों, तुमने इन्हें कल मंच नहीं दिखाया?'
'मैं गया था इन्हें लेने। पर इन्होंने दीपक को भेज दिया। खुद आए ही नहीं
देखने।'
'फिर दीपक ने क्या कहा?'
'मैंने उसे बैकड्राप कहाँ लगेगा बता दिया था। कितना एरिया नाटक के लिए उपलब्ध
रहेगा यह भी समझा दिया था। फिर उन्होंने एक पूरी रिहर्सल की। उसके बाद भी कुछ
नहीं कहा।'
इरफान साहब ने पीछे से, कुछ जोर से कहा,
'कार्तिक वी आर लूजिंग टाइम।'
मैं समझ गया। बैकड्राप खुलवाना ही पड़ेगा। मैंने नीरज से कहा,
'हैदर को और तीन चार लड़कों को बुलवा लो। इसे खोलो और पीछे बड़ा नीला परदा
टाँगने का प्रबंध करो। जितनी जल्दी हो सके करो। कल के बारे में फिर रात में
सोचा जाएगा।'
फिर मैंने इरफान साहब से कहा।
'सर मैं करवाता हूँ। आप चाहें तो तब तक आर्टिस्ट से बात कर लें।'
उन्होंने रूखेपन से जवाब दिया।
'मुझे मालूम है मुझे क्या करना है।'
मैंने इस समय उनसे उलझना ठीक नहीं समझा और विंग्स में चला गया।
नीरज और हैदर ने अद्भुत फुर्ती दिखाई और पौने सात बजे तक बैकड्राप बदल दिया।
अगले दस मिनिटों में उन्होंने विंग्स पीछे किए और मंच को लगभग खाली कर दिया।
मुझे लगा कि मंच अब नाटक के लिए तैयार है और कुल मिलाकर हम समय पर शो शुरू कर
देंगे।
सात बज रहे थे। दर्शकों ने हाल में आना शुरू कर दिया था। ठीक उसी समय इरफान
साहब ने मंच के बीचों बीच एक कुर्सी डाली, दर्शकों की ओर पीठ कर उस पर बैठे,
और पाइप का धुआँ उड़ाने लगे।
(
2.)
सभागार दर्शकों से खचाखच भरा हुआ, मंच पर दर्शकों की ओर पीठ कर बैठे, धुएँ के
छल्लों के बीच खुले मंच पर मंच सज्जा करवाते हुए इरफान साहब, पूरी परिस्थिति
में कुछ न कर पाने की असहायता के साथ कुर्सी पर बैठा हुआ मैं और वातावरण में
एक असहज तनाव।
मेरा पारा चढ़ने लगा। आखिर ये अपने आपको समझते क्या हैं? जो लोग सामने बैठे
हैं, वे कोई मायने नहीं रखते? वे देश भर से आए प्रतिष्ठित वैज्ञानिक,
कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी थे। शहर के बहुत से लोग भी इरफान साहब का नाटक देखने
पहुँचे थे। वे बहुत दिनों बाद वहाँ परफार्म करने वाले थे। इरफान साहब उन सबको
चींटियों की तरह ले रहे थे। वे ऐसा प्रदर्शित कर रहे थे जैसे एक महान शख्सियत
अपने काम में लगी है। बाकी सब भुनगे हैं, बैठे रह सकते हैं।
मैंने विंग्स में सुमन को पकड़ा,
'सुमन बाबा से पूछो, शो कब शुरू करेंगे। दर्शक जाने कब से आ चुके हैं।'
सुमन ने मंच पर जाकर उनसे कुछ कहा। उन्होंने नाराजी भरे जवाब के साथ उसे वापस
भेज दिया।
'कह रहे हैं, शुरू करते हैं।'
'एक बार पूछ लो कि कार्तिक औपचारिक परिचय कराना चाहता है। वे ठीक समझते हैं या
नहीं।'
इस बार सुमन ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी हिम्मत उनके पास जाने की नहीं पड़ी।
करीब सवा आठ बजे इरफान साहब खड़े हुए। उन्होंने एक आर्टिस्ट को इशारा किया जो
कुर्सी उठाकर ले गया।
इरफान साहब अब दर्शकों से मुखातिब हुए।
'नमस्कार'
दर्शकों ने तालियों की गड़गड़ाहट से उनका स्वागत किया। वे थियेटर के बड़े आदमी
माने जाते थे और पूरा देश उनके नाम से परिचित था। स्पष्ट ही दर्शकों ने देरी
होने का बुरा नहीं माना था और वे अब भी नाटक देखने को तैयार थे। मुझे दर्शकों
पर अजीब सा प्यार उमड़ा। अब इरफान साहब ने कहना शुरू किया।
'माफ कीजिए, नाटक को शुरू करने में हमें थोड़ी देर हो गई। दरअसल हमें मंच ही
देर से मिला। हम रिहर्सल भी नहीं कर पाए हैं, फिर भी, जैसा भी हो, नाटक जरूर
दिखाएँगे।'
मैं विंग्स में खड़ा जलने लगा। ये भरे हाल में हम पर तोहमत लगा रहे हैं। हम जो
इनकी छोटी छोटी जरूरतों के प्रति सचेत रहे, इन्हें सर आँखों पर बिठाए रहे, शो
में बुलाने से लेकर रहने, ठहरने और गाड़ियों का प्रबंध करते रहे वो सब बेकार
था? मुझे अपनी संगठन क्षमता पर गर्व था। मेरे आयोजन में कोई एक दाग नहीं लगा
सकता था। पूरा सम्मेलन वैसे शानदार तरीके से चल रहा था। पर इरफान साहब के लिए
ये सब बेमानी था।
मैंने उनसे पूछना चाहा कि आप कहाँ के प्रोफेशनल हैं? हमने बुलाया तो था आपको
मंच व्यवस्था पर बात करने, क्यों नहीं आए आप? आपको सरकारी मेल मुलाकातों और
धंधों से फुरसत मिलती तब तो आते। आपके एक शब्द पर हमने मंच की दुबारा व्यवस्था
की, ये आपको नहीं दिखता। आपको इस बात का भी गुमान नहीं कि हम खुद दूसरे शहर से
आकर यहाँ सम्मेलन कर रहे हैं और सारे लड़के लगभग रातभर इसे सफल बनाने के लिए
जुटे रहे हैं।
कल को अखबार वाले और सब बातों को भूल जाएँगे और हेडिंग डाल देंगे।
'इरफान साहब ने सम्मेलन में आयोजकों की आलोचना की।'
तो हमारी तो सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा। मैंने गुस्से में अपने आपसे कहा।
'किस कदर इनसेसिंटिव आदमी है ये।'
दर्शकों में से किसी ने चिल्लाकर कहा,
'कोई बात नहीं इरफान साहब, आप नाटक कीजिए। हम लोग बैठे हैं।'
और नाटक शुरू हुआ।
इरफान साहब एक बार फिर मंच पर आए और उन्होंने सूत्रधार का जिम्मा सम्हाला।
'दोस्तों ये नाटक शेक्सपियर के मिडसमर नाइट्स ड्रीम पर आधारित है। नाटक में
हिंदी और छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं का प्रयोग किया गया है। मैं जरूरी समझता हूँ
कि आपको शुरू में इसकी कहानी बहुत थोड़े में बता दूँ।
एथेंस का ड्यूक थिसियस अमेजनों की रानी हिपोलाइटा से विवाह की तैयारी कर रहा
है। विवाहोत्सव की उसकी योजनाएँ गँवई कारीगरों के एक दल को अपने ही द्वारा
बनाई एक त्रासदी का मंचन करने को प्रेरित करती हैं, जिसकी रिहर्सल वे पास के
एक वन में करने का निश्चय करते हैं।
उसी समय एक प्रेमी युगल हर्मिया और लाइसेंडर, उसी वन में छिप जाते हैं क्योंकि
हर्मिया का पिता चाहता है कि हर्मिया का विवाह डेमेट्रियस नामक दूसरे नवयुवक
से हो। प्रेमी युगल गलती से अपनी योजनाएँ हेलेना को बता देते हैं जो
डेमेट्रियस को चाहती है।
ड्यूक के विवाह के उपलक्ष्य में वन, आई हुई परियों से भरा हुआ है। उनके राजा
ओबेरान की अपनी रानी टाइटानिया से खटपट हो गई है। ओबेरान पक नामक गण को एक ऐसा
फूल खोजने वन में भेजता है जिसका रस यदि किसी सोते हुए व्यक्ति की पलकों में
निचोड़ दिया जाए तो वह जागने के बाद जिस पहले जीव को देखेगा उसी के प्रेम में
पड़ जाएगा।
तो आइए देखते हैं चारों प्रेमी युगलों के क्या हाल हैं, और गँवई कारीगरों की
मंडली ड्यूक थिसियस के विवाह उत्सव में कैसा नाटक प्रस्तुत करती है।
हाँ, एक बात और। शेक्सपियर ने इस पूरे नाटक को वर्स में यानी कविता में लिखा
है। हमने इसके लिए देश भर से छंदों की तलाश की, धुनों की तलाश की। जहाँ तक हो
सके इसे कविता में ही रखा है। तो आइए देखें नाटक 'वसंत ऋतु का सपना...'
इरफान साहब अपनी खरखरी आवाज में रुक-रुक कर बोलते जा रहे थे। उनकी धीमी आवाज
में एक तरह का जादू था। दर्शक उनकी तरफ पूरी तरह आकर्षित थे। मुझे लगा नाटक की
ठीक शुरुआत हो गई है। मैं विंग्स से निकलकर दर्शकों में जा बैठा। नाटक कुछ कुछ
पारसी मंच की स्टाइल में आगे बढ़ रहा था।
थिसियस : मेरी महबूब हिपोलाइटा, बस अब हमारी शादी का दिन करीब खिंचा चला आ रहा
है, खुशी के दिन आसमान पर नए चाँद को जन्म देंगे, लेकिन ये पुराना चाँद घटने
में कितनी देर लगा रहा है, इसने मेरी ख्वाहिशात को कुछ इस तरह रोक रखा है,
जैसे कोई सौतेली माँ या रईस बेवा एक नौजवान के प्रेम पर पाबंदी लगा दे।
हिपोलाईटा : चार दिन तेजी से रात में डूब जाएँगे, चार रातें, तेजी से स्वप्न
बन जाएँगी और उसके बाद एक नया चाँद चाँदी की कमान बनकर आसमान पर झलक आएगा। वह
हमारी खुशियों की सदारत करेगा।
थिसियस : हिपोलाइटा, मैंने तलवार के बल पर तेरा दिल जीता और तेरी मुहब्बत
हासिल करने में तुझे सदमे पहुँचाए, लेकिन तुझसे शादी मैं किसी और रंग में
करूँगा, शानो शौकत के साथ, एहसासे कामरानी के साथ, मसर्रत और खुशियों के साथ।
नाटक में पारसी थियेटर जैसी भाषा रच दी गई थी, और वह दर्शकों तक पहुँच रही थी।
नाटक बड़ी आसानी से हिंदी छोड़कर छत्तीसगढ़ी में प्रवेश कर जाता था और किसान
कलाकारों का सहज अभिनय दर्शकों को लोटपोट किए दे रहा था :
क्विन्स : निक बाटम तोला पिरेमस के पार्ट करे बर हे।
बाटम : ये पिरेमस कोन हे, प्रेमी हे कि अत्याचारी हे?
क्विन्स : प्रेमी हे। जौन हा बहुत बहादुरी से अपन प्रेमिका के सेती अपन ला मार
डार थे।
बाटम : अइसन पार्ट ला ठीक से करे बर एक कनी आँसू लाए ला पड़ही। अगर में पार्ट
करहूँ, तो भइगे आडियन्स थोड़ा सम्हल के बइठे, काबर के दर्शकगण के रोवई के कोई
ठिकाना नइ रिही। में हा अइसन रोवई रोहूँ के तूफान खड़ा कर दे हूँ। फिर हाँ,
मोर असल कमाल हे अत्याचार। एक कनी मोला रावण नई तो कंस के पाट ला करन दे। नई
तो एक शेर के जबड़ा ला फाड़न दे, मैं सब कुछ फाड़ फूड़ के रख देहूँ।
दर्शक हँस हँस के दोहरे हुए जा रहे थे।
फिर छंदों की बारी आई। हिंदी और उर्दू कविता के जाने कितने रूप इन छंदों में
खुलने लगे। नाटक की कविता आम कविता से कैसे अलग होती है और उसकी धुनें किस तरह
दर्शकों को बस में कर सकती हैं उसका साक्षात प्रदर्शन नाटक कर रहा था।
अपनी उदासी, अपनी प्रसन्नता, अपनी करुणा और अपने संगीत से वे धुनें दर्शकों पर
जादू कर रही थीं। बीच-बीच में बिजली की तरह चमकते नृत्य बंध जैसे इस जादू को
तोड़ते थे और नया वितान रचते थे।
ओबेरान की कारस्तानियाँ और पक द्वारा जानबूझ कर की गई गलतियाँ प्रेमियों को कई
गलतफहमियों में डाल रही थीं जो तभी सुलझीं जब ओबेरान ने टाइटानिया को उसका
असली रूप लौटाया।
अब चारों प्रेमियों को सही साथी मिले और ड्यूक थिसियस उन्हें अपने साथ
विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए एथेंस ले गया जहाँ गँवई कारीगरों ने अपना
लोटपोट करने वाला मंचन प्रस्तुत किया। राजा और उसके साथियों की कला के बारे
में समझ और उनका उच्चवर्गीय चरित्र तथा गँवारू कारीगरों का त्रासद सच उस नाटक
में कुछ इस तरह अलग-अलग खड़े थे कि शेक्सपियर का लोहा मानने का दिल करता था।
गँवई कारीगरों का नाटक चूँकि एक त्रासदी था, धीरे धीरे करके उसके सभी कलाकार
मर खप गए। उसका नायक पिरेमस भी और नायिका थिस्बी भी।
थीसियस : बस अब चाँद और शेर लाशों को दफनाने के लिए बच गए हैं।
डेमेट्रियस : जी, और अभी दीवार भी बची है।
बाटम : नहीं हुजूर। आप नहीं समझे, दीवार दुनोझन के बीच खड़े रिहिसे, बस अब वो
खतम होगे, ढहगे। बस मालिक अब नाटक के अंतिम संवाद बाँच गेहे। ओला प्रस्तुत
करबो के डांस दिखाबो?
थीसियस : नहीं नहीं अंतिम संवाद रहने दो। तुम्हारा नाटक किसी अंतिम संवाद का
मोहताज नहीं। अलबत्ता अपना डांस जरूर दिखाइये, अंतिम संवाद को टाल जाइए।
सभी कलाकारों का मंच पर आना, कोरस का एक ऊर्जावान, आशा से भरा सम्मोहक गीत, और
दर्शकों से ये इल्तजा कि भाइयों बहनों बुरा न मानना, बुरा लगे गर खेल, बाती
उतनी रोशनी देती, जितना डालो तेल। हम वादा करते हैं अगली बार जो हम आएँगे, आज
के नाटक से कुछ बेहतर नाटक दिखलाएँगे।
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच इरफान साहब ने फिर मंच पर प्रवेश किया। कलाकारों
के साथ झुककर एक बार पुनः दर्शकों का अभिवादन किया। तालियों की गड़गड़ाहट
दुगुनी हो गई। एक बार पुनः उन्होंने अभिवादन किया और कलाकार नेपथ्य में चले
गए। अब दर्शकों ने मंच पर जाकर बधाई देने का सिलसिला शुरू किया।
भीड़ कुछ कम होने पर मैं इरफान साहब के पास गया। उन्हें बधाई देते हुए कहा,
'इरफान साहब नाटक बहुत बढ़िया हुआ। बधाई।'
वे कुछ खिंचे खिंचे से लगे। एक तल्ख सा 'शुक्रिया' उन्होंने कहा और दूसरी ओर
निकल गए।
लतिका जी प्रशंसकों से घिरी खड़ी थीं और नाटक की खूबियाँ बखान रही थीं।
बीच-बीच में इरफान साहब का नाम भी आ रहा था। घेरे से निकल कर जब वे मेरी ओर आई
तो मैंने कहा,
'लतिका जी, एक अच्छे नाटक के लिए बहुत-बहुत बधाई। क्या पैक अप में आप कुछ मदद
चाहेंगीं।'
उन्होंने खासी बेरुखी से जवाब दिया,
'नहीं हमारे आर्टिस्ट पैकअप कर लेंगे'
'तो मैं खाना लगवाऊँ।'
'आप इरफान से पूछ लें। शायद सरकारी डिनर के बारे में उन्होंने हाँ कह दिया
है।'
मैं फिर उखड़ने लगा।
'चलिए मैं बाहर जाकर तैयारी तो करवाता हूँ। आप पैकअप करवा के आएँ। मैं इंतजार
कर रहा हूँ।'
मैने नीरज को आर्टिस्ट को चाय वगैरह पिलवाने का आदेश दिया और बाहर निकल आया।
(
3.)
मैं बाहर आकर खाने के पंडाल के सामने एक अँधेरे कोने में कुरसी डालकर बैठ गया।
मुझे पता था खाना समय पर तैयार हो गया होगा। वहाँ देखने की मुझे कोई जरूरत
नहीं थी। मित्र और कार्यकर्ता सभी अपने अपने काम में लगे थे। कुछ दर्शक अब तक
प्रदर्शनी से हिलगे हुए थे। पंडाल हल्की और सुंदर रोशनी से जगमग थे। भव्यता
बढ़ाने के लिए लगाई गई झंडियाँ हवा में धीरे धीरे लहरा रही थीं। माहौल
पुरसुकून था।
पर मेरे दिल में चैन नहीं था। सम्मेलन की अद्भुत सफलता के बावजूद मेरे दिल में
चैन नहीं था। खोजने से मुझे लगा ये बेचैनी इरफान साहब और लतिकाजी की बेरुखी,
उनकी उपेक्षा और मंच पर मेरे साथ किए गए व्यवहार के कारण थी। आखिर किस तरह का
आदमी है ये? अभी कल तक आपसे बिल्कुल अपनों की तरह पेश आ रहा था, अपनी रचनात्मक
चिंताएँ आपके साथ बाँट रहा था, अपने सपनों को बेझिझक शेयर कर रहा था और आज इस
कदर बेरुखी? आखिर वह ये क्यों नहीं समझ पाता कि हम सब उसे सर आँखों पर बिठाए
हुए हैं और उसे भी हमारे सम्मान का प्रतिदान करना चाहिए? आखिर गलती भी उन्हीं
की थी। उन्होंने पहले से आकर मंच का जायजा नहीं लिया था। फिर सारा दोष हमीं पर
क्यों? और अब जबकि नाटक अच्छा हो गया है तो वे प्रसन्न क्यों नहीं होते? हम एक
महान आदमी से रूबरू थे या एक घटिया इनसान से? यह प्रश्न एक बोझ की तरह मेरे मन
पर लदा था।
मैं दो दिन की जगार और थकान से भरा था। शायद यही सोचते-सोचते मैं तंद्रा में
चला गया। या मुझे झपकी सी लग गई। हालाँकि बीच-बीच में मैं अपने आसपास की
हलचलों को महसूस कर पा रहा था पर फिर भी जैसे मैं वहाँ नहीं था।
मेरी उदासी, मेरी प्रसन्नता, मेरी जगार, मेरी थकान को धकेलते हुए एक कहानी के
कुछ पात्र मेरे दिमाग में घुस गए। कहानी मेरे प्रिय लेखक 'सामरसेट मॉम' की थी।
'महान गायिका' या ऐसा ही कुछ नाम था उसका।
एक नवोदित लेखक एक महान गायिका के बारे में उपन्यास लिखना चाहता है। नवोदित
लेखक का पहला उपन्यास कथा लेखक को अच्छा लगा था सो वह उसे पसंद करने लगता है।
जब नवोदित लेखक की कथा लेखक से मुलाकात होती है तो वह उसे अपनी आर्थिक
कठिनाइयों के बारे में बताता है जिस पर लेखक, नवोदित को कुछ दिन अपने घर रहकर
काम करने बुला लेता है। पीटर मेलरोस नाम था नवोदित का। उसके बारे में लेखक
हमें कुछ इस तरह बताता है :
'जब एक रेस्त्राँ के टेबल पर हम आमने सामने बैठे तो मुझे वह कुछ ज्यादा ही
शर्मीला लगा। वह काफी बोलने की कोशिश कर रहा था पर मुझे लगा कि वह असहज है।
मुझ पर कुछ इस तरह का प्रभाव पड़ा कि उसकी आश्वस्ति कुछ ओढ़ी हुई है और अपने
एहसासे कमतरी को छुपाने के लिए प्रयुक्त की जा रही है। उसके मैनर्स कुछ अटपटे
से थे। वह दूसरों के बारे में कुछ कठोर बात कहता तथा फिर उससे पैदा हुई झेंप
को मिटाने के लिए नर्वस हँसी हँसने लगता। हालाँकि वह आत्मविश्वास से भरे होने
का अभिनय कर रहा था, फिर भी बार-बार मुझसे हर बात की आश्वस्ति चाहता था। आपके
बारे में कुछ चिढ़ाने वाली बातें करके, आपको थोड़ा गर्म करके, वह आपसे कुछ ऐसी
बातें कहलवाना चाहता था जिनसे ये प्रतीत हो कि वह खुद उतना ही शानदार आदमी है
जैसा कि वह स्वयं को समझता था। वह अपने दोस्तों और सहयोगियों के अभिमतों और
उनके व्यक्तित्वों से घृणा करता था, पर उसके लिए उन अभिमतों से महत्वपूर्ण भी
शायद कुछ नहीं था। मुझे वह घृणा से भरा चालाक युवक लगा हालाँकि इसमें भी कुछ
खराबी नहीं थी। चालाक नवयुवक स्वाभाविक रूप से घृणा से भरे हुए ही होते हैं।
वे शिकायत करते करते थक जाते हैं कि दुनिया उनकी प्रतिभा का सम्मान नहीं करती।
वे कुछ देना चाहते हैं पर कोई लेना नहीं चाहता। वे प्रसिद्धि पाने के लिए आतुर
होते हैं पर वह उनके रास्ते आते नहीं दिखती।'
लेखक पीटर मेलरोस से बहुत रोचक बात करते हैं।
'अच्छा एक बात बताओ। तुम एक महान कलाकार के बारे में लिखना तो चाहते हो पर
तुमने क्या किसी महान कलाकार को निकट से देखा है?'
'नहीं, देखा तो नहीं। पर मैंने लगभग सभी बड़े कलाकारों की आत्मकथाएँ पढ़ डाली
हैं और उनके संस्मरणों को चाट गया हूँ। मुझे लगता है मैं उनके बारे में जानता
हूँ।'
लेखक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ पूछते हैं,
'तो जरा अपनी महान कलाकार के बारे में बताइए तो...'
'वह युवा और सुंदर है, गुस्सैल मगर उदार है। वह एक भव्य महिला है। संगीत उसका
पहला प्यार है। न सिर्फ उसकी आवाज में संगीत है बल्कि उसके हावभाव, उसकी चाल
भी संगीतमय है। संगीत उसकी आत्मा में बसा हुआ है। वह ईर्ष्या और घृणा से कोसों
दूर है, और कला के प्रति उसका प्रेम इस कदर उमड़ा हुआ है कि वह दूसरे अच्छे
गायकों को गाता देख उनकी दिल से प्रशंसा कर सकती है। किसी के दुर्भाग्य से
प्रभावित होकर वह उसे अपना सब कुछ दे सकती है। वह महान प्रेमिका है और अपने
प्रेमी के लिए पूरी दुनिया लुटा सकती है। वह बुद्धिमान और पढ़ी लिखी है। वह
अच्छाई की प्रतिमा है।'
लेखक ने हँसते हुए पीटर मेलरोस से कहा था,
'बेहतर होगा कि तुम किसी बड़ी गायिका से मुलाकात करो। शायद तुम्हारी धारणा कुछ
बदले।'
इस पर पीटर मेलरोस ने उत्सुकता से पूछा था।
'क्या आप मुझे किसी बड़ी गायिका से मिलवा सकते हैं?'
लेखक हामी भरते हैं और वे पीटर मेलरोस को प्रसिद्ध गायिका ला फाल्टरोना से
मिलवाते हैं। मौका है लेखक के घर पर ही रात्रिभोज का जिसमें बस तीन लोग शामिल
हैं - लेखक खुद, पीटर मेलरोस और ला फाल्टरोना। वह जानती है कि ये कोई बड़ी
पार्टी नहीं है फिर भी वह मेलरोस पर बिजलियाँ गिराने के लिए अपनी भड़कीली और
शानदार पोशाक पहन कर आई है। लेखक धीरे-धीरे उसे बातचीत में खींच लेते हैं। वह
अपने बारे में बढ़चढ़ कर हाँक रही है। कैसे उसे सारी दुनिया से शिकायत है, बता
रही है। उसके प्रोग्राम मैनेजर उसके गीत चुरा लेना चाहते हैं, पैसा छीन लेना
चाहते हैं, उसके प्रेमी उससे धोखाधड़ी करते हैं, प्रतिस्पर्धी कलाकार कैसे उसे
समाप्त करना चाहते हैं और आलोचक किस तरह पैसा लेकर उसके खिलाफ लिखते हैं और
कैसे सिर्फ अपनी बुद्धि के बल पर वह हर बार बच निकलती रही है। उसने जैसे अपना
एक विश्व चित्रित कर लिया था जिसमें वह पीटर मेलरोस को खींचती लिए जा रही थी।
इस दौरान वह बिना किसी शर्म के घटिया और ओछी कहानियाँ सुनाती चली जा रही थी,
जिनमें अंत में वह क्रूर, षड्यंत्रकारी, खोखली तथा स्वार्थी नजर आने लगी थी।
लेखक को यह सब दिख रहा था। पर पीटर मेलरोस को वह बिल्कुल अपनी सोची हुई कहानी
की नायिका की तरह नजर आई थी, शुद्धता, पवित्रता और कला की लड़ाई लड़ती हुई
महान गायिका।
इस मुलाकात के बाद ला फाल्टरोना विश्व के दौरे पर चली जाती है, लेखक की उससे
दूसरी मुलाकात तब होती है जब वह अपने विश्व दौरे से लौटकर आती है।
इस बार उसने लेखक को अपने घर खाने पर बुलाया है। वह रस ले लेकर अपने विश्व
दौरे के झूठे सच्चे किस्से सुना रही है जिन्हें लेखक पहचान रहा है। इस बार
क्योंकि पीटर मेलरोस साथ नहीं है इसलिए संवाद दो परिपक्व दिमागों के बीच चल
रहा है जो एक दूसरे के खेल को बहुत अच्छी तरह समझ रहे हैं। फाल्टरोना खुल कर
अपने हरामीपन पर हँस रही है।
अंत में हँसते-हँसते वह गंभीर होती है। और कहती है,
'मैं गाना चाहती हूँ।'
छत की खिड़की से बाहर समुद्र दिख रहा है। बाहर हल्की बारिश हो रही है और पेड़
धीमे-धीमे लहलहा रहे हैं। रात उभार पर है और बेसुध कर देने वाली है। फाल्टरोना
पहले गुनगुनाना शुरू करती है। लेखक के शरीर में हल्की सी फुरफुरी छूट जाती है।
स्वर को पकड़ लेने के बाद वह एक गीत गाना शुरू करती है। मृत्यु का गीत, माम ने
उस अनुभव का विवरण कुछ इस तरह दिया था,
'धीमे, मीठे और स्वर्गीय संगीत के स्वर, हवा में काँपते हुए समुद्र के पानी के
ऊपर तैरने लगे। तारों भरी उस रात में उनका प्रभाव अद्भुत और रोमांचक था। ला
फाल्टरोना की आवाज अभी भी सुंदर, मृदु और स्फटिक सी साफ थी। वह अद्भुत
भावनात्मक उभार के साथ गा रही थी। उसकी आवाज में इतनी गहरी उदासी और दुख था कि
मेरा दिल पिघलने लगा और गले में एक गोला सा बनकर अटक गया। फाल्टरोना की आँखों
से भी गाते समय आँसू बह रहे थे। हम दोनों में से कोई बहुत देर तक कुछ नहीं
बोला। हम चुपचाप खड़े सामने लहराते समुद्र को निहार रहे थे...'
मैं तंद्रा में सामरसेट मॉम के साथ बह गया था। लहराता समुद्र सामने था और थी
फाल्टरोना की मृदु, सुरीली, गहरे दुख से भरी आवाज, मैं सोचने लगा - क्या था,
क्या था उस कहानी का अंत?
(
4.)
अचानक किसी के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी। एकाएक समझ
में नहीं आया कि मैं कहाँ हूँ। धीरे-धीरे मैं सम्मेलन स्थल पर वापस लौटा।
इरफान साहब इस बार जावेद पर गुस्सा हो रहे थे,
'अब इन उपहारों का क्या फायदा? आपको ये सब कलाकारों को मंच पर देना चाहिए था।'
जावेद कलाकारों को, जो भोजन कर चुके थे, संस्था की ओर से एक-एक बैग उपहार में
बाँट रहा था। शायद कलाकारों ने ही इसकी माँग भी की थी। अरुणा मेरे पास आई और
बोली,
'जाओ, वे फिर गुस्सा हो रहे हैं।'
मैं अभी तक माम की कहानी से बाहर नहीं आ पाया था। मैंने आँखों पर पानी के
छींटे मारे और इरफान साहब के सामने जा खड़ा हुआ। उनके मुँह से हलकी सी बू आ
रही थी। लगता था इस बीच वे अपने बैग से छोटी शीशी निकाल कर उसका सेवन कर चुके
थे। मुझे देखते ही बोले,
'कार्तिक, अब ये बैग वगैरह गिफ्ट देने का क्या मतलब? जो कुछ करना था मंच पर
करना चाहिए था।'
'इरफान साहब हम लोग मंच पर ये कब करते? मंच तो आपने शुरू से आखिर तक छोड़ा ही
नहीं!'
बात इरफान साहब को चुभ गई। हालाँकि वह बहुत सरलता से कही गई थी। उन्होंने
गुस्से में थर थर काँपते हुए कहा,
'मैंने मंच नहीं छोड़ा? मंच पर तो आपने कब्जा कर रखा था। मैंने किस तरह से शो
किया मैं ही जानता हूँ।'
मुझे ये बात समझ नहीं आई। हमें मंच पर कब्जे की कोई जरूरत नहीं थी। मंच तो
हमारा ही था। मैंने कहा,
'आपने किस तरह से शो किया? हम लोग आपकी मुँह निकाली करते रहे हैं, दीपक कल आकर
मंच देख गया था। आपके भी आने की बात थी। अगर आप समय नहीं निकाल पाए तो अकेले
हमें ही दोष क्यों? फिर अंत में शो बढ़िया हुआ, दर्शक खुश होकर गए हैं, लेट अस
बी हैपी अबाउट इट।'
अब लतिका जी की बारी थी,
'हैप्पी? हाउ कैन वी बी हैप्पी? आपने न तो इरफान का परिचय कराया न कलाकारों
का। और तो और आपने फूलों की भी बेइज्जती की। मंच के पीछे इतने सारे गुलदस्ते
रखे थे, आपने वे हमें भेंट तक नहीं किए। हम और सब सह सकते हैं फूलों की
बेइज्जती नहीं सह सकते। फूलों के बारे में हम बहुत संवेदनशील हैं।'
'और आदमियों के बारे में?' मैंने पूछना चाहा।
बात मेरी समझ के बाहर थी। हमने कौन से फूलों की बेइज्जती कर दी? अमित, अरुणा,
जावेद, नरेंद्र और सभी कार्यकर्ता इरफान साहब को विदा करने के लिए वहाँ इकट्ठा
हो गए थे। उन्हें और लतिका जी को मुझ पर इस तरह नाराज होते देख वे धीरे-धीरे
वहाँ से हट गए।
मैं अपने आपको बेहद अपमानित महसूस कर रहा था। आखिर मैं उस सम्मेलन का संयोजक
था और वहाँ काम कर रहे सभी लोगों का लीडर। हमें एक टीम के रूप में काम करने की
आदत थी और एक दूसरे के प्रति गहरा सम्मान उसकी पहली शर्त थी। हम बहुत प्यार से
इरफान साहब को सम्मेलन में लाए थे और वे थे कि हमें चोट पर चोट पहुँचाए जा रहे
थे।
अनूप ने धीरे से आकर मुझे कहा,
'फिलहाल ये उखड़ गए हैं। या नाटक के बाद का अपना टेंशन रिलीज कर रहे हैं। अभी
इनसे मत उलझो। और लतिका जी बात बढ़ाने में माहिर हैं। उन्हें लगता है कि वे
गुलदस्ते जो सुबह वाले अतिथि छोड़ गए हैं, उनके लिए थे। उन्होंने यही बात
इरफान साहब के मन में डाल दी है।'
मैंने अभी भी बात सम्हालने की कोशिश की।
'इरफान साहब, आप मंच पर परफार्म कर रहे थे। मैंने सुमन से कहा भी था कि वह
आपसे पूछे कि क्या परिचय की आवश्यकता है? पर आपने सीधे नाटक शुरू कर दिया। जब
आप परफार्म कर रहे हों तो हम बीच में कैसे कूदते? कमान आपके हाथ में थी, यदि
कुछ गफलत हुई भी है तो आपके प्रति गहरी श्रद्धा और सम्मान से उपजे संकोच के
कारण हुई है।'
'सम्मान वम्मान सब ढकोसला है। इसी शहर में आपके भाई आनंद रहा करते थे वे होते
तो तड़ से मंच पर आ जाते परिचय कराते और माहौल बना देते।'
कितनी आसानी से ये एक व्यक्ति की दूसरे से तुलना कर देते हैं। आनंद थियेटर का
ही आदमी था और मैं विज्ञान का। हम लोगों के अनुशासन में फर्क था। क्या इनकी
आदमियों की पहचान इतनी धूमिल हो चुकी है?
अब इरफान साहब लड़खड़ाते कदमों से अपनी गाड़ी की ओर जा रहे थे। पीछे-पीछे
ढरकती हुई लतिका जी।
सुमन अब तक चुप रही थी।
मैंने उसे एक ओर ले जाकर कहा,
'देखो सुमन, कहीं कोई भारी गलतफहमी हो गई है। जिन फूलों के बारे में लतिका जी
कह रही हैं वे सुबह अतिथियों को भेंट कर दिए गए थे। वे उन्हें छोड़ गए, हमने
तो उन्हें सम्हाल कर रख दिया था। शायद एक बार फिर उपयोग करते। पर इरफान साहब
ने मौका ही नहीं दिया।'
सुमन ने कहा,
'ओह, नाउ आई अंडरस्टैंड। आप चिंता न करें। मैं उन्हें बता दूँगी।'
इरफान साहब स्वगत की मुद्रा में थे,
'और साहब, आपने खाने के लिए हमारा इंतजार क्यों नहीं किया। हम अपने आर्टिस्ट
के साथ खाना खाते हैं। आपको रुके रहना चाहिए था। सम्मान वगैरह बेकार की बातें
हैं। आप कहना क्या चाहते हैं? मैं सब समझता हूँ। वी आर नो फूल्स...'
उन्हें कौन बताता कि हम लोगों ने अब तक खाना नहीं खाया था, कि हम उन्हीं का
इंतजार कर रहे थे, कि असल में तो उन्होंने ही ये तय नहीं किया था कि वे हमारे
साथ खाएँगे या सरकारी डिनर में जाएँगे...
सुमन ने आगे बढ़कर गाड़ी का दरवाजा खोला, उसने कहा,
'बाबा, अब चलिए।'
इरफान साहब, लतिका जी और सुमन गाड़ी में बैठे, सिर्फ सुमन ने कहा,
'अच्छा कार्तिक, फिर मिलेंगे।'
और वे चले गए।
अनूप ने जो अब तक आर्टिस्ट को विदा कर रहा था, मेरे पास आकर कहा,
'ये हर नाटक के पहले या बाद में कुछ इस तरह का करते हैं। ये नाटक के बाहर अपना
व्यक्तित्व स्थापित करने का उनका तरीका है। गलती से इस बार फायरिंग लाइन में
तुम आ गए।'
कह कर वह हँसा। मुझे उसकी हँसी अच्छी नहीं लगी,
'अगर व्यक्तित्व स्थापित भी करना चाहते हैं तो ये तो देखें कि किस तरह का
व्यक्तित्व स्थापित हो रहा है। अच्छा या बुरा? और फिर दूसरों पर उनका क्या
प्रभाव पड़ रहा है। आखिर वे एक आंदोलन के बीच आए थे!'
'कार्तिक तुम समझ नहीं रहे। सवाल अच्छे या बुरे का है ही नहीं। सवाल
थियेट्रिकल होने का है। नाटकीय होने का, बस। वे हर बार ये सिद्ध करते हैं कि
वे नाटकीय व्यक्ति हैं बस...'
अनूप की ये बात अपने पूरे तनाव, थकान, मान, अपमान के बीच मेरे दिमाग में कौंधी
- सवाल अच्छे या बुरे होने या दिखने का नहीं था। सवाल था थियेट्रिकल होने का,
नाटकीय होने का, शायद वही उनका जीवन था।
फिर भी मेरी अपमानित 'इगो' ने प्रतिरोध किया। अगर वे अपने व्यवहार और जीवन में
नाटकीय होकर संगति बनाते हैं तो भी उन्हें देखना तो चाहिए, कि और लोग उनसे किस
तरह का रिश्ता रखते हैं। या वे महानता की उस ऊँचाई तक उठ गए हैं, जहाँ औरों का
अस्तित्व ही नहीं रह जाता। अगर ऐसा है तो भयानक है।
मेरी टीम के सब लोग चुप थे। सम्मेलन की सफलता के उत्साह पर जैसे इस घटना ने
पानी डाल दिया था। हम सब बुझा बुझा महसूस कर रहे थे। किसी से ठीक से खाना नहीं
खाया गया। अरुणा ने कहा,
'चलो चलते हैं। अभी एक दिन और है!'
(
5.)
फिर सम्मेलन अपनी गति से चला पर मेरा उसमें दिल नहीं लगा। पूरे सम्मेलन के
दौरान और ट्रेन से लौटते समय भी जैसे मैं किसी अलग दुनिया में रहा। अमित
बीच-बीच में कहता भी रहा - कार्तिक तुम इरफान साहब वाली घटना को भूल नहीं पाए
हो। इस तरह उसे दिल पर मत लो। उन्हें अपना काम करना है और हमें अपना। आखिर
सिर्फ उन्हीं के कहने से तो तुम्हारी क्षमता पर प्रश्नचिह्न नहीं लग जाता?
मैं ये जानता था। फिर भी दिल उनके व्यवहार को स्वीकार करने को तैयार नहीं था।
मैं खुले तौर पर उनका प्रतिकार कर अपने आपको छोटा बनाना नहीं चाहता था। वह और
भी घटिया होता। तो? तो मैंने सोचा कि अब इनसे कोई संबंध नहीं रखूँगा।
धीरे-धीरे उन्हें अपने जीवन से बाहर कर दूँगा। अब मेरा रास्ता अलग, उनका अलग।
मैं इरफान साहब को भूलने की कोशिश करूँगा।
पर इस निर्णय के बाद भी मेरी बेचैनी बनी रही। मैं अभी भी उनके संदर्भ में एक
तार्किक परिणति पर नहीं पहुँच पाया था। ये बेचैनी शायद उस तार्किक परिणति तक न
पहुँच पाने का नतीजा थी। उसके बिना मुझे हर निष्कर्ष अधूरा-अधूरा लग रहा था।
मुझे सही जगह पर पहुँचना था। मुझे वहाँ पहुँचना ही था।
एक छोटी सी घटना ने मेरी इसमें मदद की।
मैं अपने शहर में पहुँचा ही था कि सुबह-सुबह सुमन का फोन आ गया,
'कार्तिक कैसे हो?'
'ठीक हूँ।'
'सुनो क्या तुम थोड़ी देर के लिए घर आ सकते हो?'
मैं उनसे मिलना नहीं चाहता था। मैंने पूछा,
'क्यों?'
'बस ऐसे ही, बाबा तुमसे कुछ बात करना चाहते हैं।'
मैंने कुछ तल्खी से कहा,
'क्यों, उस दिन सारी बातें हो तो गईं।'
'नहीं नहीं वह बात नहीं, कुछ और बात है। तुम जरूर आ जाओ।'
अब क्या बात हो सकती है? मेरी फिलहाल उनकी किसी भी बात में कोई दिलचस्पी नहीं
थी। पर दिल में एक जिज्ञासा भी उठी। आखिर अब वे क्या कहना चाहते हैं। एक बार
सुन लेने में क्या हर्ज। मैं अपना निर्णय तो ले ही चुका हूँ। उस पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ने वाला। चैप्टर पूरी तरह बंद करने के पहले अगर एक अंतिम पेज पढ़ना रह
गया है तो चलो उसे भी पढ़ लिया जाए।
मैं तालाब वाली पहाड़ी पर स्थित उनके घर पहुँचा।
लतिका जी ने अपना सामान्य स्वागत किया,
'आओ कार्तिक, कैसे हो?'
'जी ठीक हूँ।'
'इरफान तुमसे कुछ बात करना चाहते थे।'
इरफान साहब खाने की मेज की तरफ मुँह किए बैठे थे। मेरी तरफ उनकी पीठ थी।
उन्होंने धीरे से कुर्सी घुमाई, वे बहुत थके थके लग रहे थे। लगभग पानी पानी।
'भई कार्तिक, मुझे लगता है कि मुझे उस दिन वह सब नहीं कहना चाहिए था।'
मैं क्या कहता। मैं चुप रहा।
उन्होंने फीकी सी हँसी हँस कर कहा।
'जाने क्या बात है। आजकल मैं जब भी कुछ कहना चाहता हूँ बात बनने के बदले बिगड़
जाती है। शायद मुझे कुछ कहना ही नहीं चाहिए।'
मैं अभी भी चुप था।
'सुमन ने बताया कि आप लोगों का सम्मेलन दूसरे दिन भी चलने वाला था और कई
तैयारियाँ आपने अगले दिन के लिए कर रखी थीं। हमें लगा कि वे हमारी टीम के लिए
थीं और उनका उपयोग नहीं हो सका। बस यही बात थी...'
अब लतिका जी ने कहा,
'असल में कार्तिक तुम्हें और इरफान को उस दिन रायपुर में साथ-साथ मंच पर दिखना
चाहिए था। इससे एक बिल्कुल अलग मेसेज लोगों के बीच जाता।'
तो क्या ये अपने गृहनगर में भी उपेक्षित महसूस करते हैं? या इन्हें वाकई हमारे
आंदोलन के साथ खड़े रहने की जरूरत महसूस होती है? अपनी तमाम महानता, ऊँचाई और
कलात्मकता के साथ क्या ये वाकई जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं? या फिर ये सिर्फ
मेरी आहत भावनाओं का तुष्टीकरण कर रहे हैं?
जो भी हो, चारों ओर बिखरी किताबों, सुबह की खिड़कियों से झिर कर आती रोशनी, और
उदास रंगों वाली साज-सज्जा के बीच वह परिवार आज मुझे फिर अच्छा लगा। अपने
व्यवहार पर पुनः विचार करता, अपनी गलतियाँ खोजता और इसमें दूसरों को शामिल
करता हुआ।
मैं विदा लेकर बाहर निकल आया। सब कुछ जितना सहज था उतना ही विश्वसनीय...
अचानक मॉम की कहानी का वह भूला हुआ अंत मेरे दिमाग में कौंध गया। उस महान
गायिका के अद्भुत गायन के बाद वे कहते हैं,
'इसके बदले कि मैं उसमें दुनिया की तमाम खासियतें ढूँढ़ूँ, मैं उसे उसी तरह
लेना चाहूँगा जैसी वह है। अपनी तमाम गलतियों, गफलतों और विशाल गलतफहमियों के
बावजूद, आपको अपने पास बुलाती हुई...'
सामने पहाड़ी ढलान पर वही खूबसूरत रंगबिरंगे फूलों से ढका वन नीचे लहराती झील
तक पसरता चलता गया था, जहाँ दूर देशों से आए धवल पक्षियों का समूह अठखेलियाँ
कर रहा था। मुझे जाने क्यों लगा कि ओबेरान और उसकी रानी टाइटैनिया, और वे
परियाँ और वे गण और वो गरीब कारीगरों का नाट्य दल यहीं कहीं इसी वन में है। एक
गण ने जैसे हँसते हुए मेरे कान में कहा - क्यों दोस्त, इरफान साहब से गुस्सा
हो? मगर उनके शेक्सपियर को तो याद रखोगे न!
मैं बहुत दिनों के बाद खुलकर मुस्कराया। उस दिन पहाड़ी ढलान से उतरते हुए
मैंने अचानक अपने आपको बहुत हल्का और धुला-धुला महसूस किया।