उनकी पैदाइश एक उथले परिवार की थी। छोटे बच्चे के नाम के पीछे 'जी-ऊ' लगाकर
पुकारने का महीन खानदानी चलन नहीं था उस तरफ। उनका जन्म एक भाई की पीठ पर हुआ
था। इसलिए उनके जन्म को बोनस की तरह खुले मन से अपना लिया गया। इसी अकुलाहट
में किसी सगे की जुबान फिसली और जुबान से लुढ़का हुआ नाम, ताउम्र उनके साथ चिपक
गया - राजा जी।
उन्हीं राजा जी का बाजा गुम हो गया था। उस बाजे की काया-धुआ बाँसुरी से जरा
छोटी थी। नाक-मुँह कहीं पिपही जैसा। वह अश्लील आलाप निकालता था और शरीर भी
उसका दरक गया था जहीं-तहीं। वह बिल्कुल मामूली बाजा ही था, पर राजा जी उसे खोज
लेना चाहते थे किसी भी कीमत पर। नौटंकी खत्म हो चुकी थी और सामान सब समेटा जा
रहा था। राजा जी को यकीन था कि किसी ने हड़बड़ी में समेटने की धुन में सामानों
के अथाह में दफन कर दिया था बाजे को। राजा जी बेचारे सूराखों में, दरारों में,
बिल में, तिल में, मिला क्या में, नहीं मिला न-में ढूँढ़ रहे थे बाजे को।
बहरहाल एक अचंभे की तरह बाजा एक मसकी हुई साँस में बज गया था कहीं से और राजा
जी ने उसे खोज लिया था।
उन्हें यह जानने की कतई उत्सुकता नहीं थी कि जब उनके सिवा कोई न था उधर तो
बाजा बजा कैसे क्योंकि वे जानते थे कि बाजा कभी मौके बे-मौके लीक हो जाता था
तो कभी दम लगाकर फूँकने पर भी वह म्यूट रहना ही चुनता। राजा जी कभी भी उसकी इस
बात का बुरा नहीं मानते थे। दाँत जिनके झड़ गए हों आगे के वैसे बूढ़ों की तरह या
दाँत जिनके उगे नहीं हों उन बच्चों की तरह - राजा जी ने बाजे की मनमर्जी को
दूध-भात देकर अपना लिया था।
टोली की गाड़ी खुलने वाली थी। राजा जी लपक कर चढ़ गए और पिछली सीट पर उठंग कर
उन्होंने बाजा को बुशर्ट और बनियान के बीच फँसा लिया। इस तरह से वह सुरक्षित
लिफाफे में दर्ज हो चुका था। राजा जी के साथियों ने उन्हें छेड़ना शुरू कर दिया
था। उन्हें अच्छा लगता... हल्की सी गुदगुदी के बीच जब कोई बाजा के साथ उनका
संबंध जोड़ता था। कैसा भी संबंध। बदनाम गली वाला भी संबंध।
तभी एक मनचले छोकरे ने उनके लिए 'भतार' शब्द का प्रयोग किया और राजा जी ने झूम
वाली मुद्रा में कुछ अस्फुट गालियाँ बुदबुदाईं। एक किसी ने उन्हें छेड़ा कि
थोड़ी देर पहले कहाँ छिप गई थी बहुरिया... क्या गौने का मूड नहीं था उसका? यह
कम उत्तेजना वाली बात साबित हुई जाने क्यों पहले वाली बात की अपेक्षा। इसकी
वजह संभवतः यह थी कि यह पहले वाले मजाक से मिलता जुलता मजाक था और पक्की बात
कि वे मजाक या कि गाली-गलौज में भी मौलिकता चाहते थे।
पर इसी किसी वक्त उसने गहरी साँसें लीं और सीने के उतार-चढ़ाव पर ही बाजे से
आवाज रिस गई।
लोग ठठाकर हँस पड़े कि बहुरिया ने भी हुँकारी भर दी। यह और बात है कि राजा जी
के अलावे बाजे की उस आवाज को कोई और नहीं सुन पाया था। लोग यूँ ही हँसे। पर
उनके यूँ ही हँसने का भी मतलब वही था।
राजा जी ने याद किया... कब से था उनका साथ! राजा जी बेशक कुँवांरे थे। इसलिए
ठीक ठीक इस सवाल से गुजरते हुए वे गजब की सरसराहट के शिकार हुए। एक मद्धम लौ
नाभि के कहीं पास से उठी थी। अगर कि मर्दों की भी नाभियाँ हुआ करती हों तो।
उनके अतीत में, एकांत अतीत में... एकदम जड़ की फुनगी तक उस बाजे की शुमारी थी।
कभी बजते हुए कभी तो बेआवाज ही, वे दोनों तलुवे सटाकर साथ चलते आए थे। राजा जी
उसकी टेक से सुदूर पीठ में उठी खुजली का मन बहला सकते थे। वे उसे अपनी कान की
जड़ों में मुनीम की कलम सरीखे खोंसकर कुछ पढ़े लिखे होने का रुआब ही चमका सकते
थे। यानी कि बेआवाज हुए हुए भी उसकी अपनी उपयोगिता रहा करती थी।
सब कुछ वैसे ही मजे मजे का चल रहा था कि एक खचाक से गाड़ी उनकी रुक गई। राजा जी
और सारे बाकी उचक उचक कर देखने लगे कि हुआ क्या? उन्हें ज्यादा अहकानने का
मौका न मिला। क्योंकि बाधा तो वाकई आ चुकी थी। सब को उतारा जाने लगा।
उन लोगों को मौके-बेमौके भेड़-बकरी बन जाने की आदत थी। वे सब वक्त की माँग को
भाँप गए और तत्काल अपना-अपना मुखौटा तलाश लिया उन्होंने। वे हमेशा तैयार रहते
थे इस तरह के दृश्य में जाने के लिए पर फिर भी इस मर्तबा ऐसा कुछ था कि कि
उन्हें कुछ ज्यादा भेड़-बकरी सा महसूस हो रहा था।
सब उतार दिए गए। वे आगे से पीछे तक गिन लिए गए। सतरह। नौटंकी का टोला। सबको
कुछ परचे पकड़ाए गए और सामने की बस में लादा जाने लगा। कुछ लोगों ने पता नहीं
क्यों एक-दूसरे के हाथ पकड़ लिए। कोई समझदार भी था उनमें से और उस किसी ने यह
फुसफुसा दिया था कि उन्हें किसी जलसे के लिए ले जाया जा रहा था।
उन्हें इस गाड़ी से उस बस तक हाँकने वाले लोग भी हँसमुख दिख रहे थे भले बस में
चढ़ाए जाते वक्त उनके जरा से हाथ जो बदन में लग रहे थे वे झनझनाहट पैदा करने का
माद्दा रखते थे। इस तरह से सब कुछ सामान्य जैसा ही था पर कुछ लोग थे कि सिहर
सिहर जा रहे थे। बहरहाल वे इतने थोड़े थे कि उनके कँपकँपाने को आसानी से
नजरअंदाज किया जा सकता था।
भोरे भोर उन्हें बस से उतार दिया गया था। भीड़ बहुत थी और जत्था के जत्था लोग
जमा थे उधर। सड़क के एक तरफ पूरी के साथ भाप उठाती आलू-पानी की तरकारी बँट रही
थी। राजा जी का जत्था इस अकबकी का शिकार हो गया कि भोरे-भोर पहले दिशा-मैदान
की जगह खोजी जाए या पूरी की पंगत में लगना मुनासिब। खैर इस अकबकी को न टिकना
था न वह टिकी। लोगों ने धड़ाधड़ पूरी-आलू वाली लंबी पंगत की पूँछ पकड़ ली। चींटी
की तरह सरक रही थी लाइन पर वे लोग अजीब थे बुरा नहीं मानते थे किसी भी बात का।
रैली की तैयारी पूरी थी। मुख्यमंत्री आने वाले थे। राजा जी का पार्टी-ऊर्टी
में ज्यादा मिजाज रमता न था। बल्कि किसी पार्टी के झंडे को इतने करीब से, उसके
कोने को मरोड़-चमोड़ पाने जितने करीब से, वे पहली बार देख रहे थे। उन्होंने होश
आने पर झंडे पर से मोड़ के उन निशानों को फटाफट थूक लगाकर मिटाना चाहा। फिर एक
दफे झंडे को उलटा भी मोड़ा गया - निशान मिटाने की खातिर। पर दाग तो पड़ चुका था।
'दाग अच्छे हैं' कहकर वे बात को इग्नोर कर सकने की हैसियत में नहीं थे।
उन्होंने धीरे से झंडे को कमर के नीचे सरका लिया। कभी कभी किसी चीज पर बैठ
जाने से इस्त्री हो जाने जैसा असर हो जाता था। बहरहाल, यहाँ बात पार्टी-उर्टी
की थी ही नहीं। मुख्यमंत्री का कद इन बातों से ऊपर उठ चुका था।
मुख्यमंत्री बोलते बहुत अच्छा थे। फिर सामने वाले के लिए विशुद्धतः कान बनने
से ज्यादा किसी भूमिका का स्कोप न था। ऐसा कि श्मशान में भी बोलने लगें तो दरी
चद्दर कम पड़ जाए जिंदा-मुर्दा के लिए। उनके गले में गजब का उतार-चढ़ाव था। जब
उनका सुर नीचे की राह पकड़ता तो एकदम दिल से सटे लहरिया मार कर निकल जाता और जब
सुर उनका ऊपरी डगर धरता तब इतना उत्साह जाग जाता कि सामने वाला मुट्ठी भींचकर
ही जोश में नारा लगा देने से अपने आप को रोक पाता। राजा जी कितनी तो बार उनका
भाषण सुन चुके थे। पर सामने-सामनी का यह पहला मामला होता।
बहरहाल, दोपहर ढलने लगी। बल्कि तीनपहर चारपहर जैसा सूचकांक।
राजा जी से तिरछे सटकर एक औरत बैठी थी। शुरुआत उस औरत ने बहुत सँभलकर बैठने से
की होगी पर जैसे जैसे वक्त निकलता गया था, वह पूरे पूरी लिसड़ा कर बैठ गई थी और
अब तो उसके तलुवों के ऊपर बित्ता भर पिंडली भी खुली थी। न। राजा जी को देखना
भी होता तो वे तलुवा ही देखते। औरत के तलुवे में जरूरत से ज्यादा रेघाएँ थीं।
थीं रेखाएँ वे। पर इतनी मैली कुचली थीं कि उन्हें रेघा के हिज्जे में पढ़ा जा
सकता था। औरत का बिछुआ त्वचा में अंदर धँस गया था और इस तरह एकसार था कि अगर
उन्हें अलगाया जाता तो संभव था दोनों का अस्तित्व खत्म हो जाता। जबकि उस तरह
धँसे बिछुअे की कोई पीड़ा तलुवे की शक्ल पर दिखाई न देती थी।
औरत का चेहरा टेढ़ा-मेढ़ा था। तलुवा भी जरूर उसके शरीर का ही विस्तार लगता था पर
जाने क्यों राजा जी को वह बाँध रहा था। कौन से पाँव का रहा होगा। उस तरह से
बैठने पर वह बाएँ पैर का तलुवा हो सकता था। औरत उबियाई हुई थी और इस बात से
एकदम अनजान थी कि उसके तलुवों में कोई संभावना हो सकती थी। बल्कि ऐसा कहा जाता
तो वह बिल्कुल कम समझती और तलुवे को ढाँक ही लेती जरूर पहली प्रतिक्रिया में।।
मैदान में बैठने से मिलने वाली कीमत उसके लिए भी अधिक थी पर घर का बहुत सा
उघड़ा हुआ काम और बच्चे आदि उसे उस तरह से वक्त के टुकड़े में आनंद खोज पाने से
रोक दे रहे थे। वह औरत भाग कर घर पहुँचना चाह रही थी पर उठ नहीं पा रही थी।
इसी हाँ-न को साधने के लिए उसने एक तिनके से जमीन को खोदना शुरू किया। संयोग
से तिनका भी बाएँ हाथ में ही पकड़ा हुआ था औरत ने।
राजा जी को समय गुजारने में मजा आने लग गया एकबारगी। बल्कि उन्होंने नए सिरे
से समय को पकड़ लिया। अब वक्त को धीमे धीमे गुजरने देना था। राजा जी ने भी दबे
हाथ से एक तिनका उठा लिया और औरत के तलुवे के ठीक बगल में घास की खुदाई शुरू
कर दी। वे इस तरह स्त्री के दुनिया खोदने के अभियान में शरीक थे। एक पल के लिए
उनके मन में कौंधा कि वे बाजे के नुकीले कोर से कोई कमाल कर सकते थे।
राजा जी का हाथ कपड़े के ऊपर से बाजे पर गया पर सिर्फ इस अहसास भर के लिए कि
नीचे का दृश्य सुंदर था पर कपड़े के भीतर से उभरे उस पिपही से ज्यादा नहीं।
औरत के हाथ का तिनका काँपा। शोर अचानक जोर का उठ गया था। माहौल जो थिराया हुआ
था, यकायक हड़बड़ा गया। मंच पर पहले आपाधापी मची। फिर गजब की शांति और आखिर में
मुख्यमंत्री को आसन तक पहुँचते देखा लोगों ने। राजा जी गरदन उचका कर मंच का सब
देखना चाह रहे थे। पर वह औरत बगल वाली और दुबक गई थी अपने आप में, ऐसा
उन्होंने कनखियों में देखा।
मुख्यमंत्री बढ़िया बोल रहे थे। बेदाग। शानदार!
एक बार राजा जी ने नजरें घुमाकर औरत को देखा तो वह अब भी बेसुधी में घास
कबाड़ने का काम किए चली जा रही थी। गजब थी वह। ऐसा अच्छा भाषण चल रहा था और फिर
भी अकुताई हुई थी वह जाने के लिए।
अब राजा जी बहुत सारे आकर्षणों से एकसाथ घिरने लग गए। छाती से लगा पिपही का बल
था। पार्श्व में एक बाबली सी औरत थी। बचा खुचा जो रह गया वह सब मुख्यमंत्री के
सुकून वाले वादे पूरा कर दे रहे थे। उन वादों को मुख्यमंत्री के पीछे पीछे
बुदबुदाकर ही राजा जी ऐसे तृप्त हो जा रहे थे कि आगे उन वादों के पूरे होने का
सवाल उन्हें जरा भी अपना नहीं लग रहा था।
राजा जी को राजनीति बहुत कम समझ में आती थी। इस तरह वे अपना नाम धरनेवाले के
सपनों से न्याय नहीं कर पाते थे। पर यह भी था कि किसी के भाषण पर शुद्ध ताली
पीटने के लिए किसी नीति को समझने की क्या जरूरत थी भला। कुल मिला-जुला, राजा
जी एक अच्छी भीड़ होने के सारे गुण दिखाए पर दिखाए चले जा रहे थे कि तभी एक
हादसा होने लग गया।
उन्हें समझने में थोड़ा वक्त लगा, पर बाकियों के मुकाबिल वे जल्दी समझ गए - कि
यह हादसा उनके भीतर से आकार ले रहा था।
बाजा बजने लगा था!
उन्होंने नहीं छुआ था जरा भी किसी की भी कसम। उनके बिना छुए ही, या किसी के भी
बगैर छुए ही बाजा बज चला था।
वह अमूमन धीमे बजता था।
हे भगवान वह तो गला खँखारने भर बजता था पर उस वक्त वह जोर जोर बज चला था।
राजा जी ने हाथ धरा कस कर छाती पर। उन्हें नहीं पता था कि आवाज को रोक लेना है
कि बजने देना है पिपही को। उन्हें भाषण-ऊषण का कोई कायदा मालूम नहीं था। कहा न
कि उन्हें राजनीति का कुछ भी पता न था। वे भौंचक्क थे। उन्हें तो वैसे होना ही
पता था बस।
लोग पहले अकचकाए। फिर घबड़ाए। फिर स्थिराए। फिर अकुलाए - उस आवाज को रोक देने
के लिए जो मुख्यमंत्री के भाषण के आगे एक बड़ा सा शोर बनकर उपस्थित हो गई थी।
कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। सचमुच कोई आवाज न बची थी सिवाय बाजे की आवाज के।
मंच से बोलने वाले ने बाजे की आवाज की एक आरंभिक थाह के बाद कुछ देर तक जूझना
चाहा उससे पर बात कुछ बनी नहीं। नतीजा माइक की एक ककर्श चींख के साथ मामला
शांत हो गया मंच का।
अब सिर्फ वह आवाज ही बची जो राजा जी के भीतर से आ रही थी। वह उस वक्त कायनात
में शेष रह गई एकमात्र ध्वनि थी। राजा जी ने धीमे धीमे हाथ गिरा लिया नीचे
छाती से। उन्होंने आँखें उठाकर किसी की तरफ नहीं देखा था पर ऐसा लग गया था
उन्हें कि अब उनके देखने की जमीन छिन चुकी थी। वे अपने हिस्से का देखना देख
चुके, इस तरह से स्थिति को ठीक ठीक देख लिया था उन्होंने।
बस एक हासिल था कि अपने देखने के आखिर में उनकी आँखें माकूल जगह पर टिक गयीं
थीं - तिनके से घास या कि जमीन ही खोदती औरत की हथेली और वहाँ पड़ा एक साबूत
तलुवा।
औरत पहले जैसी ही थी। तिनके वाले हाथों का हिलना थोड़ा कम-ज्यादा था पर वह वैसी
ही थी। संभवतः वह अपनी दुबली पतली एक गवाही से कि सब कुछ सामान्य है, ढाँक
लेना चाहती थी बात को या फिर वह इतना ज्यादा वहाँ नहीं थी कि इस आवाज को भी
सामान्य घटनाक्रम का हिस्सा मान बैठी थी।
बाजा बजे चला जा रहा था।
राजा जी को घसीटकर मंच तक ले जाया गया कि मंच खुद उन तक आया यह दो अलग अलग
मान्यताएँ थीं। इन संभावनाओं पर जब होता तब होता विचार। फिलवक्त तो
मुख्यमंत्री का चेहरा उनके सामने था। थिराया हुआ चेहरा जो एक बेसिक सवाल पूछ
रहा था कि राजा जी को अपना वैसा राजसी नाम रखवाने की क्या जरूरत थी। राजा जी
जड़ पड़े सामने वाले चेहरे से इतना दहस गए कि उन्होंने अपना नाम ही निकालकर
सामनेवाले को दे देना चाहा फौरन। पर नाम को लेने में दिलचस्पी थी ही किसकी।
बाजा चाहिए था बाजा।
मुख्यमंत्री का चेहरा राजा जी के ठीक सामने था। स्थिर पथराया। फिर अचानक
मुख्यमंत्री ठठाकर हँस पड़े। जरा देर पहले औरत वाले प्रसंग में जैसे राजा जी को
मजा आ गया था वैसे ही अबकि मुख्यमंत्री जोरदार मजे में लोट-पोट हो गए। इतने
किलक में कोई तभी हँस सकता था जब उसे बचपन की कोई गली दिख गई हो। संभव है कि
कोई बाजा मुख्यमंत्री के भीतर भी छिपा छिपा रिस गया हो कभी छुटपन में। तभी वे
- निकालो निकालो इस मजेदार आदमी के भीतर से कौतुक रच देने वाले बाजे को निकालो
- वाले झूम में ठठा पड़े थे।
बस आँखों का इशारा मिलना था कि राजा जी को छह सात पता नहीं कितने हाथों ने पकड़
लिया। कोई एक हथेली घुस गई उनके भीतर बेधड़क। पर यह क्या? वह हथेली ढूँढ़ नहीं
पाई कुछ भी। फिर बहुत सारे हाथ एक साथ घुसे उधर और रटी रटाई लीक में निकले सभी
खाली वापस। तो? हेरा चुका था बाजा भीतर ही कहीं?
राजा जी का ध्यान इस नयी संभावना की तरफ नहीं था जरा भी। वे तसल्ली में थे कि
उन्हें थोड़ा वक्त मिल गया आवाज पर अपने तरीके से काबू पा चुकने के लिए।
उन्होंने छोटी साँसों के कुछ मौलिक प्रयास किए। टीवी पर दिखने वाले एक बड़े योग
बाबा की नकल में साँसों को भीतर रोककर पेट को आगे पीछे फुलाया पिचकाया। फिर एक
बार अंतड़ी-जिगर किसी को भी बहला कर हिचकी या खाँसी जैसा कुछ प्रभाव उत्पन्न
करना चाहा क्योंकि उनका मानना था कि लंबे समय तक शरीर से एक साथ दो आवाजें
नहीं निकल सकतीं। इस तरह से यह हिचकी-खाँसी के ज्वार में बाजे की आवाज को रोक
पाने की तरकीब थी जो प्रमाणिक बनते बनते रह गई। फिर एक बार किसी चोर निगाह में
उन्होंने अपने मुँह पर उँगली तक रख ली। पर सारे दाँव बेकार गए।
अब मुख्यमंत्री के चेहरे से मजे की लकीरें मिटनी शुरू हुई। राजा जी को उस
दुर्दशा के बीच एक बार यह तक लगा कि मुख्यमंत्री की नजर उस मचोड़े झंडे पर तो
नहीं पड़ गई थी जिसे कभी उन्होंने अपने कमर के नीचे दबाया था और जो उस वक्त
उनके अपनी जगह से उठा लिए जाने के बाद उघड़ा पड़ा रह गया था उधर। लिहाजा राजा जी
सबकी गिरफ्त में हुए हुए से भी धप से जमीन पर बैठ जाने को आतुर हुए। वे साफ
साफ अकबकी के शिकार भी पाए गए तभी। उन्हें ठीक नहीं पता था कि छिपे हुए बाजे
को उघाड़ देने में लोगों की मदद करना ज्यादा जरूरी हुआ कि उघड़े हुए झंडे को
छिपा लेने में अपनी सहायता करना ज्यादा माकूल।
जब बहुत सारे हाथ भीतर से किसी यंत्र को ढूँढ़ न पाए तो मुख्यमंत्री साफ-साफ
हैरत में पड़े। यह व्यक्ति क्या कोई प्रतिलीला रचना चाह रहा था उनके बरअक्स!
कोई साजिश तो नहीं थी अपोजिशन की। या कि तुक्का-तुर्रम ही यह जिसे उनके तवज्जो
से बिलावजह प्रसिद्धि मिल जाती। क्या इस सब को ज्यादा लंबा खिंचने देना घातक न
था!
राजा जी गिड़गिड़ाने के स्तर तक पहुँच चुके थे।
राजा जी कुछ चिल्लाने लगे। राजा जी ने पैर पकड़ लिए। वे किसी बड़ी साजिश के
बीचोंबीच थे। वे बर्बादी में भीतर तक थे। वे चाहते थे, वे चाहते तो थे कि
मुख्यमंत्री बोलें। माइक से बोले। भाषण बोलें। कुछ भी बोलें। उनके सिवा कोई न
बोले।
मुख्यमंत्री को लग गया कि यह व्यक्ति या तो मसखरा था या मँजा हुआ चालबाज। वह
दोनों में से कोई भी होता फिर भी जो हुए जा रहा था उसे साफ-साफ मुख्यमंत्री के
खिलाफ खड़ा होना ही माना जाता किसी भी सूरत-मूरत में। मुख्यमंत्री के हाथ राजा
जी की ओर बढ़े मद्धम ताव में पर हाथ उनके कुछ कदम बढ़कर ही रुक गए। क्या वाकई एक
अदने से आदमी के भीतर से आती आवाज को राकने के लिए मुख्यमंत्री को अपने हाथों
का इस्तेमाल करना पड़ता!
राजा जी की कनपटी पर लाल लाल बज्जर हथेलियाँ पड़ीं। हथेलियाँ किसी भी रंग की
हों निशान पीछे लाल थे। हल्के लाल। साँवले रंग की त्वचा पर उसे कत्थई भी पढ़ा
जा सकता था। उस तरह से कोई मार पीट करता जाए तो बाजा दरक कर टूट सकता था भीतर
भीतर। टूटता वह तो शायद कि आवाज बंद हो सकती थी। और आवाज से छुटकारा ही तो
पाना था। पर जाने क्यों राजा जी पहली दफे साफ साफ आँसुओं से भर गए। राजा जी
बहुत जोर जोर से रोने लगे। उनकी आवाज नहीं निकली कोई पर एक बच्चा भी कह सकता
था कि वे रो जोर से रहे थे।
उनका बाजा बस बज ही तो रहा था। बजते जाना क्या इतना बड़ा दोष होता है। रुकिए
रुकिए सब लोग। वे खुद ही खोज कर चुप करा लेंगे उसे। राजा जी ने किसी तरह लोगों
के हाथों के बीच से जगह बनाकर अपनी हथेलियों को बुशर्ट में बनियान में छाती
में सब जगह डाला। कुछ मिला नहीं कहीं। दरअसल कोई कपड़ा ही मिला नहीं कहीं।
बुशर्ट, बनियान...। छाती भी तो उनकी थी नही कहीं।
मुख्यमंत्री के सामने पूरा सब उघड़ा पड़ा था। राजा जी का बुशर्ट बनियान सब चिथड़ा
था पर बाजा नहीं था। आवाज थी पर बाजा नहीं था।
बावजूद इसके कि मुख्यमंत्री का जबड़ा भिंचा था, चेहरे को उनके, सौम्य ही गिना
जा सकता था। स्थिराया चेहरा। अब वे बिल्कुल अपनी तरह थे।
एक से ज्यादा लीलाएँ थीं वहाँ, दृश्य जिन्हें एकसाथ समेट पाने में असमर्थ था।
फिर?
टिकता तो वही जो ज्यादा पैंतरेबाज हो।
एक ठंडे चेहरे वाला आदमी जिसकी आवाज रोक दी गई थी और जिसके कि भाषण के कुछ
कतरे माइक की नली में अब भी कहीं तलाश किए जा सकते थे। या फिर एक दूसरा आदमी
जो रोने का नक्शा जरूर पसार रहा था पर कुछ अफवाह किस्म का शक धूल में यह फैलता
था धीमे धीमे कि बाजे की आवाज को खुराक दरअसल उस आदमी से ही मिल रही थी।
औरत बार बार चिहुँक कर कलाई देख ले रही थी। उसकी कलाई पर कोई घड़ी नहीं बँधी
थी। वह घड़ी देखना नहीं जानती थी वरना तो बगल वाले की कलाई पर झाँककर भी उधारी
का समय माँग सकती थी। उसने अकुताई हुई साँसें छोड़ीं। कीमत जितनी मिलने वाली थी
उसके मुकाबिल वक्त ज्यादा लिप रहा था यह रैली का झमेला। ओह कब तक निबटता सब!
इस तरह वह कलाई देखकर समय पर नजर रखने का भ्रम रच रही थी बस।
औरत थी चुटपुटिया।
पता नहीं लग पा रहा था पर वह अब तक कायदे भर की जमीन साफ कर चुकी थी।
कभी जब अधमरे या अधजिए राजा जी या दूसरे सारे किरदार ही बाजा को खोज खोज कर थक
जाते तो उसकी गुमशुदगी की रपट इस शफ्फाक जमीन पर मजे में दर्ज करवाई जा सकती
थी।