प्रभु क्षीर सागर में लेटे हैं। प्रभु क्षीर सागर में ही लेटते हैं और भक्त
खारे सागर की चैरासी लाख योनियों में भटकते हैं।
प्रभु तंद्रालीन हैं। अक्सर प्रभु तंद्रालीन ही होते हैं। प्रभु ध्यानस्थ भी
होते हैं। वे जब चाहें ध्यान में चले जाते हैं और जब चाहें उससे बाहर आ जाते
हैं। सांसारिक सांसद भी ऐसा करते हैं। पर अज्ञानी भक्त उनके तंद्रालीन होने और
ध्यानस्थ होने का भेद नहीं जान पाता है। प्रभु आवश्यकतानुसार तंद्रा से बाहर आ
जाते हैं। प्रभु तंद्रालीन होते समय भी विश्व की गतिविधियों का न केवल ज्ञान
रखते हैं अपितु आवश्यकता पड़ने पर अवतार भी लेते हैं।
प्रभु को अनुभूति हुई कि उनके चरण-कमल में लक्ष्मी जी विद्यमान नहीं हैं। भक्त
जानते होंगे कि लक्ष्मी को श्री भी कहते हैं। श्रीविहीन होते ही प्रभु का
ध्यान भंग हो जाता है।
प्रभु ने मुदित नेत्र खोले, सामने नारद जी विद्यमान थे। प्रभु के चरणों में
अथवा उनके समक्ष कोई न कोई भक्त सदैव विद्यमान रहता है। ऐसा 'संविधान' है कि
प्रभु को उनके भक्त अकेला न छोड़ें। सेवा को कोई न कोई सेवक तत्पर विद्यमान
रहना चाहिए। सेवक का अर्थ ही है सेवा करने वाला और प्रभु का अर्थ ही होता है
सेवा करवाने वाला। जो सेवक अपने सेवा धर्म की हानि करता है प्रभु उससे रुष्ट
हो उसे श्राप दे देते हैं तथा उसकी कोई रक्षा नहीं कर पाता। और जो सेवा धर्म
का पालन करता है, उसे वरदान मिलता है और प्रभु उसकी रक्षा करते हैं। प्रभु उसे
दरिद्र सुदामा से धनवान सुदामा बना देते हैं। प्रभु उसे पुरस्कार सम्मान
दिलाते हैं। प्रभु उसे पदोन्नति देते हैं। प्रभु मंत्रीपद भी देते हैं। प्रभु
ऐसे सेवकों के, जो प्रभु के लिए जान पर खेल जाते हैं, सोने चाँदी से उसका मुँह
भर देते हैं। मुँह बंद होते ही सेवक न्याय-अन्याय से आँखें मूँद लेता है।
नारद ने नारायण! नारायण! का जाप किया और प्रभु मुस्कराए। प्रभु मंद मंद
मुस्कराए। प्रभु मंद मंद ही मुस्काते हैं। वे कोई सांसारिक नेता थोड़े ही हैं
जो वोट के लिए अट्टहास करें। वे कोई बाबा भी नहीं हैं जो अपना उत्पाद बेचने के
लिए चौड़ी मुस्कान के साथ प्रदर्शन करें। प्रभु तो केवल मंद मंद मुस्काते हैं
और शेष कार्य उनके भक्त करते हैं। प्रभु के लिए कहाँ मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा
बनवाना ठीक होगा, कहाँ गिराना ठीक होगा। कब प्रभु सोएँगे, कब प्रभु छप्पन भोग
का भोग लगाएँगे। आदि आदि अनादि।
प्रभु अंर्तयामी होते हैं, फिर भी उन्होंने नारद के समक्ष जिज्ञासा प्रकट की -
लक्ष्मी जी दिखाई नहीं दे रहीं?'
नारद उवाच - प्रभु आप तो अंर्तयामी हैं, सब जानते हैं। आजकल माता को तनिक भी
समय मिलता है, वे धरती पर चली जाती हैं। उनके भक्तों ने उन्हें बहुत व्यस्त
किया हुआ है। भारतभूमि में उनका कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। पहले वे पुलिस थानों,
सरकारी दफ्तरों आदि में ही व्यस्त रहती थीं, आजकल न्यायालयों आदि मे भी व्यस्त
रहने लगी हैं। वैसे प्रभु आप अंर्तयामी हैं।
प्रभु मुस्कराए - आज किस भक्त की तिजोरी में कैद होने गई हैं?
नारद जी नहीं मुस्कराए, सर झुकाकर बोले - प्रभु माँ आजकल कैद नहीं होती हैं,
कैद करती हैं। वैसे प्रभु आप तो अंर्तयामी हैं।
- नारद! मेरे भक्त कबीर की तरह तुम भी उलटबाँसी का प्रयोग करने लगे। वो स्वयं
को राम की कुतिया कहता था और अपना नाम मुतिया बताता था। पर मुझे माया से ठगा
हुआ बताता था। लक्ष्मी जी मेरे चरणों में सदैव मेरी सेवा करती रहती हैं पर वह
कहता था कि मुझे ठगती हैं। नारद, सेवा करने वाला क्या कभी ठगता है?
- प्रभु एक बार भारत देश के संसद परिसर में जाकर लक्ष्मी भक्तों से मिल लें तो
आपके इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। वैसे प्रभु आप तो अंर्तयामी हैं।
प्रभु ने हुँ हुँ किया। हुँ हुँ के बाद कुछ क्षण चिंतन के बिताए और कहा - तो
लक्ष्मी जी भक्तों की कैद में नहीं हैं, भक्तों को कैद कर रही हैं। ये
उलटबाँसी नहीं हैं।
नारद उवाच - हाँ प्रभु आजकल यही सीधीबाँसी है। आजकल माँ की कैद - शरण में आने
के लिए अनेक भक्त वैसे ही उत्सुक हैं जैसे कामी कामदेव के बाण खाने को उत्सुक
होता है या फिर कोई सांसारिक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने को उत्सुक होता
है। माँ के भक्तों की संख्या दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रही है। आपके
मंदिरों को आपके भक्त सोने चाँदी के चढ़ावे से संपन्न कर रहे हैं। पुजारियों की
कुटिया मुटिया गई है। आपके मुटियाए पुजारियों की संतान लक्ष्मी माता के नाम
स्मरण में ही डूबी हुई है। वे जितना डूबती हैं, माता उनको उतना ही तारती हैं।
धर्म का सेंसेक्स हाई है प्रभु। अब धर्म की हानि की संभावना भी कम है। धर्म तो
लाभ ही लाभ में है। हो सकता है इस कलयुग में आपको धर्म की हानि के चलते अवतार
न लेना पड़े। माँ ही व्यस्त रहेंगी। वैसे प्रभु आप तो अंर्तयामी हैं।'
प्रभु ने फिर हुँ किया। हुँ के बाद कुछ क्षण चिंतन के बिताए। चिंतन के इन
क्षणों में उन्हें नारद की स्वामिभक्ति पर भी संदेह हुआ। इतना सब कुछ हो गया
और अंर्तयामी प्रभु को...
नारद कुछ और विस्तार से कहो। लक्ष्मी जी की कथा सुनने में आनंद आ रहा है। इस
कथा के समक्ष मेरी सत्यनारायण वाली कथा फीकी पड़ रही है।
नारद उवाच - प्रभु मैं आपको सुबुद्धि नामक बालक की एक कथा सुनाता हूँ।
सुबुद्धि नामक बालक मातृ एवं पितृ भक्त था। युवावस्था में भी कुमुखी और सुमुखी
कन्याओं की उसी प्रकार उपेक्षा करता था जैसे कलियुग में जीवन मूल्यों की की
जाती है। माता-पिता इस कारण उसे अपनी योग्य संतान मानते थे। आप तो जानते ही
हैं कि प्रभु योग्य भक्त और योग्य संतान के लिए सबकुछ न्योछावर कर दिया जाता
है। सुबुद्धि के माता पिता ने पहले तन फिर मन और अंततः धन न्योछावर करना आरंभ
कर दिया। आपके भक्त भी तो आप पर पहले तन फिर मन और अंततः धन न्योछावर कर देते
हैं। बदले में आप उन्हें वरदान देते हैं। उन्हें भी विश्वास था कि जो पुत्र
अध्ययनकाल में इतनी सेवा कर रहा है वह नौकरी काल मे कितनी सेवा करेगा।
सुबुद्धि न केवल माता पिता की सेवा करता अपितु वह नित्य प्रति आपकी भी पूजा
अर्चना किया करता था। आपके मंदिरों के भी होल सेल में चक्कर लगाता था। उसका
चक्कर लगाना सफल हुआ और उसे अच्छी नौकरी मिली। प्रभु जैसे कलियुग में अच्छी
शिक्षा से अभिप्राय महँगी शिक्षा से होता है वैसे ही अच्छी नौकरी से अभिप्राय
अच्छे पैकेज से होता है। अच्छे पैकेज वाले लड़के को अच्छे पैकेज वाली लड़की भी
मिल जाती है। प्रभु आजकल वर वधू के गुण नहीं पैकेज मिलाए जाते हैं।
हे प्रभु, अच्छे पैकेज वालों के अच्छे दिन और अच्छी रातें कंपनी की हो जाती
हैं। विवाह के लिए दोनों को बहुत मुश्किल से छुट्टी मिली पर वर्क फ्राम होम भी
करना पड़ा। और प्रभु अगले ही दिन हनीमून की बजाय दोनो कंपनी के काम से अपने
अपने गंतव्य पर चले गए। नववधू का मुँह देखने आए रिश्तेदार और पड़ोसिनों ने सास
का मुँह देख और उसे शगुन पकड़ा रसम निभाई कर ली।
चार दिन बाद बहू लौटी। कैब से उतरी। सास-ससुर प्रसन्न हुए। प्रसन्नता में ससुर
ने बहू का अटैची उठाया तो कमर ने सावधान किया कि प्यारे, बहू का बोझ तुम ही
ढोओ। अगली बार ढोया तो मैं बोल जाऊँगी। इससे पहले कि बहू पाँलागी करती मोबाईल
ने कर्दन किया। इंपोर्टेंट विदेशी क्लाइंट का फोन था। बहू ने इयर प्लग ठूँसा
और घर में मोबाईल हो गई। तीस मिनट बाद पाँलागी करने का सुअवसर मिला तब तक चरण
प्रतीक्षा में थक चुके थे। थके चरणों की पाँलागी से आर्शीवाद भी थका-सा निकलता
है।
पुत्र दो दिन बाद आया। उस दिन पत्नी प्रोजेक्ट के कारण आधी रात को आई।
सुबुद्धि को तनिक भी गुस्सा नहीं आया।
पैकेज वाला जीवन द्रुतविलंबित चलने लगा। पिता बीमार हुए तो अस्पताल के पैकेज
पे उन्हें भरती करवा दिया। माँ की सेवा की आवश्यकता हुई तो उसे नर्स का पैकेज
दिलवा दिया। सुबुद्धि ने अनेक बार माता-पिता संग पैकेज टूर बनाया पर कंपनी के
काम ने उन्हें एयेरपोर्ट से लौटाया। दयालु कंपनी ने उनके आर्थिक नुकसान की
भरपाई की। माता-पिता का तो कोई नुकसान हुआ ही नहीं था!
नित्य प्रति आपकी पूजा अर्चना करने वाला सुबुद्धि आजकल लक्ष्मी मैया की अर्चना
करता है। लक्ष्मीशरणम् गच्छामि के मंत्र का जाप करता है। वह उच्चारता है - हे
भ्रष्टाचार प्रेरणी, हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी!
मुझ पर ऐसे ही कृपा कर। बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की
होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई । यहाँ तक मुझमें चोरी,
भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदिच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के
होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर
किसी प्रदेश का मंत्री / किसी थाने का थानेदार / किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी
/ आदि आदि बन देश-सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता। युवा
में मैं सावन का अंधा ही रहा पर तेरी कृपा से दिव्यचक्षु हो गया। रिश्वतकेशी
तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं और तेरे भक्त संसद तक में पहुँच कर
महान देशसेवक बनते हैं। तू अपनी कृपा में निंरतर वृद्धि करती रहना। तू जब
कहेगी, जहाँ कहेगी मैं चला जाऊँगा। मेरा और मेरी पत्नी का पैकेज दिन दूनी रात
चौगुनी गति से बढ़ता रहे जिससे मैं अपने माता-पिता की कैंसर जैसी बीमारी का भी
हँसते खेलते इलाज कर सकूँ।''
प्रभु लक्ष्मी माता के सम्मोहन में डूबे सुबुद्धि से उसके माता-पिता केवल तन
और मन चाहते हैं पर वह ब्याज सहित धन सेवा कर रहा है। उसका तन और मन लक्ष्मी
माता की कैद में हैं।
इस बार प्रभु ने हुँ भी नहीं किया। प्रभु तो अंर्तयामी हैं। वे अंतर्ध्यान भी
होते हैं। और नारद? वे तो भक्त हैं। और भक्त तो कैद होता है।