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व्याख्यान

शिमला और निर्मल

गगन गिल


तीन अप्रैल, 1929 की दोपहर को उनका जन्म हुआ था। करीब साढ़े ग्यारह-बारह बजे। कैथू की हरबर्ट विला में।

हरबर्ट विला का घर सन् 1990 में, जब उसे दिखाने मुझे निर्मल ले गए, करीब साठ साल बाद भी इतना बड़ा था, कि उसके दालान में बच्चों की टीम आराम से बैडमिंटन खेल सके। घर के सामने, नीचे की ढलान पर एननडेल का मैदान था, गोल्फ कोर्स, जहाँ कभी अंग्रेज युवक-युवतियाँ घुड़सवारी किया करते थे। निर्मल और उनके जैसे भारतीय बच्चे ऊपर से अंग्रेजों को देखते होंगे, कौतुक और सम्मोहन से, कि माल रोड पर तो भारतीयों का आना मना था।

माल रोड पर अंग्रेजों को देखना हो, तो लोअर बाजार की सीढ़ियाँ चढ़ कर ही देख सकते थे, जहाँ से मेमों का चेहरा नहीं, उनकी नंगी टाँगें दिखती थीं' - निर्मल ने बताया था, शिमला की उस यात्रा में।

उन दिनों अंग्रेजों की राजधानी आधा साल दिल्ली, आधा साल शिमला में काम करती थी। कभी-कभी पूरा साल ही शिमला में बनी रहती। सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने से पहले तक यही रवायत थी। युद्ध छिड़ने के बाद राजधानी 'ऊपर' नहीं गई - रामकुमार बताते हैं, निर्मल के बड़े भाई, यशस्वी चित्रकार रामकुमार।

निर्मल के बाऊ जी, श्री नंदकुमार वर्मा, अंग्रेजों के सेना मुख्यालय में काम करते थे, क्यू एम जी ब्रांच में। क्यू एम जी माने क्वार्टर मास्टर जनरल।

बाऊ जी और ताया जी अपने जमाने के केवल दो बीए पास थे, पूरी पटियाला रियासत में। अंग्रेज सरकार की नौकरी में आने से पहले बाऊ जी लाहौर में महाराजा कॉलेज के वार्डन यानी राजकुमार छात्रों के वार्डन हुआ करते थे।

बाऊ जी यारबाश तबीयत के थे, शायद ही कभी दफ्तर से सीधे घर लौटते हों। क्लब जाते थे, टेनिस खेलते थे, दोस्तों के साथ शाम का ड्रिंक लेते थे। 'ज्यादातर दोस्त उनके सरदार थे' - रामकुमार हँसते हैं - 'बाद में जब निर्मल ने तुमसे विवाह किया तो निर्मल के एक दोस्त ने, जिसकी बीवी भी सरदारनी थी, कहा, यार हम लोगों को एक यूनियन बना लेनी चाहिए!'

ताया जी बैंकर थे, शिमला बैंक में डायरेक्टर। बैंक से एक बार घर लौटने पर शायद ही वापस बाहर जाते थे। उन्हें पढ़ने का शौक था और रेडियो सुनने का। वे दूसरी जंग की खबरें सुनते रहते और नक्शे पर झंडे को आगे-पीछे बढ़ाते रहते, जैसा भी खबरें बतातीं कि हिटलर की फौजें यहाँ तक आ पहुँची। रेडियो सुन-सुन कर उन्होंने चार भाषाएँ सीख लीं थीं।

इंग्लैंड वापस लौट रहे एक अंग्रेज अफसर से ताया जी ने उसकी सारी लायब्रेरी खरीद ली थी और उसका पियानो भी। ताया जी खुशी-खुशी अपनी किताबें बच्चों को देखने देते, खासकर निर्मल-रामकुमार को। पियानो उनकी बैठक में एक ओर पड़ा शोभा बढ़ाता रहता, उसे बजाना पूरे खानदान में किसी को न आता था।

बाऊ जी मस्तमौला थे, ताया जी डिसिप्लिन पसंद। ताया जी के तीन बेटे पैदा होते ही मर गए थे, पत्नी कुबड़ी हो गईं थीं और किसी भतीजे के यहाँ रहती थीं अनबन के कारण।

मालूम नहीं, बाल निर्मल ने किसकी जच्चगी देखी थी छिपकर, माँ जी की या तायी जी की। 'लाल टीन की छत' के नौकर मंगतू की टाँगों से चिपटी बच्ची काया थी या बाल निर्मल? नौकर की टाँगों में बँधी पट्टियाँ, उसकी तकलीफ, उनके घर के नौकर की सच्ची कहानी जान पड़ते थे।

नौकर वर्मा परिवार का जरूरी अंग थे, लगभग उनके पारिवारिक सदस्य। वे उनके संग पहाड़ों पर जाते, वहाँ से लौटते। बच्चों के राजदार। बड़ों की दुनिया में उनके सबसे करीब। 'बीच रास्ते में'। उनकी कई छवियाँ निर्मल के यहाँ मिलती हैं - लाल टीन की छत, अंतिम अरण्य, सुबह की सैर आदि में।

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बाऊ जी की बजाय ताया जी ही बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी लेते थे, हालाँकि रामकुमार का मानना है, उन लोगों में पढ़ने के गुण ताया जी से नहीं, अपने बाबा से आए होंगे, जो पटियाला में मास्टर रहे थे, जिन्होंने अपनी जमा-पूँजी खर्च करके दोनों बेटों को बीए तक पढ़ाया था, जो बुढ़ापे में आँखें कमजोर होने पर अपने पोतों से, खास कर निर्मल से, इकन्नी इनाम देकर कल्याण पत्रिका की कहानियाँ पढ़वाया करते थे और जिनके संदूक में, मरने के बाद, सिर्फ किताबें निकलीं थीं।

ताया जी में साहबों वाली ठसक थी, बाऊ जी संयमी थे। उन दिनों छोटा शिमला से लेकर वाइस रीगल लॉज (अब इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज) तक का इलाका अंग्रेजों का था। एक सिरे से दूसरे तक, सीधी रेखा में। हिंदुस्तानी खड्डों में रहते थे, अंग्रेजी लक्ष्मण रेखा से नीचे, कैथू जैसी निचली जगहों पर। अंग्रेजों की दुम लगे भारतीय संजौली जैसे इलाके में, अंग्रेजी रेखा (माल रोड) के परले सिरे पर।

हालाँकि दोनों भाई ओहदेदार थे, बाऊ जी कैथू में रहे आए, ताया जी संजौली में। इससे दोनों भाइयों की शख्सियत का कुछ जायजा मिलता है।

दिल्ली लौटने पर बाऊ जी को रहने को, बहैसियत अंग्रेज सरकार के नौकरशाह, फिरोजशाह रोड, कुशक रोड, क्वीन मेरी एवेन्यू (अब पंत मार्ग) की कोठियाँ मिलती थीं। कैथू में बाऊ जी एक अंग्रेज की मिल्कियत वाले घर, हरबर्ट विला में निर्मल के जन्म के बाद कई बरस तक उसी के साथ सटे भज्जी हाउस में सपरिवार आकर रहते रहे। शिमला में भज्जी के राजा का घर था भज्जी हाउस।

लकड़ी और सीमेंट का बना हरे रंग का यह मकान 1 जनवरी 1990 की सुबह जब निर्मल मुझे दिखाने ले गए, हमारे विवाह के कोई पौने दो महीने बाद, और उसके साथ का हरबर्ट विला, उनका जन्म-स्थान, उनके कदमों की लोच देखते बनती थी। वह जैसे पाँच साल के हो गए थे, उत्साही और वाचाल, और मैं उनकी बाल-सखी बानो, दूर कहानी 'अँधेरे में' की बानो, जिसे वह अपने सब राज दिखाने लाए थे। यह और बात है, कि जब वह कहानी लिखी गई थी, इस पृथ्वी पर मेरा कोई अता-पता न था।

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अपने माता-पिता की आठ संतानों में से सातवें थे निर्मल।

आधे साल के हिसाब से, उनके जन्म के उस साल, सन् 1929 में, यदि अंग्रेजों की राजधानी नीचे से 'ऊपर' आई होगी, तो मेरा अनुमान है, यह अप्रैल का महीना रहा होगा, कि मार्च का महीना तो दिल्ली में भी खुशगवार रहता है।

यदि यह सही हो, तो दिल्ली से माता-पिता, पाँच भाई-बहनों (सबसे बड़ी बहन पद्मा बेवे की शादी कानपुर में हो चुकी थी), नौकर और दादा जी की पलटन के पहुँचने के तीन दिन भीतर ही निर्मल आन बिराजे होंगे। हिमालय के पहाड़ देखने को उतावले। साढ़े ग्यारह-बारह बजे दिन में।

'मैं आगे के कमरे में खेल रहा था जब दाई ने आकर मुझे बताया, तुम्हारा भाई हुआ है।' निर्मल से पाँच साल बड़े रामकुमार बताते हैं। सब भाई-बहनों में रामकुमार ही हैं, जिन्होंने निर्मल को पहली साँसें लेते देखा और अंतिम भी।

आज सन् 2012 की हरबर्ट विला में पीछे का एक कमरा, लकड़ी के फर्श और दीवार में अँगीठी वाला, पुरानी तर्ज वाला, अभी तक आश्चर्यजनक रूप से बचा है। इस या ऐसे ही किसी पिछले कमरे में निर्मल का जन्म हुआ होगा हालाँकि विला के कई कमरे नए जमाने के रंग-ढंग में मरम्मत हो तब्दील हो चुके हैं। लकड़ी की बजाय फर्श सेरेमिक टाइल्स का हो गया है। शिमला का एक संभ्रांत व्यवसायी परिवार बल्कि घराना पिछले तीस वर्षों से वहाँ रहता है।

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निर्मल के जन्म की इसी कल्पना को अगर थोड़ा और आगे बढ़ाऊँ कि उस साल, सन् 1929 में, शायद छह महीने बाद राजधानी 'नीचे' भी गई होगी, तो संभवतः छह महीने की नन्ही उम्र में बाल निर्मल ने शिमला की जादुई छुक-छुक से पहली रेल यात्रा की होगी। 10? सुरंगों, 20 स्टेशनों, 864 पुलों पर से गुजरती खिलौना रेल जिसे एक दिन युनेस्को धरोहर का दर्जा मिलना था।

इस ट्रेन के अनंत बिंब निर्मल कथाओं में भरे पड़े हैं, पहाड़ों के घुमाव, रास्ते की सुरंगें, कभी रेल के ऊपर से, कभी पुल के ऊपर से, कभी पटरियों के एकदम पास। 'लाल टीन की छत' की बच्ची काया की तरह उसका बाल लेखक भी यहाँ मँडराता होगा, समरहिल, शिमला में रेल रास्ते के आसपास।

दिल्ली जाते समय बाबा जी ट्रेन छूटने से कई घंटे पहले सारी पलटन समेत शिमला स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाते थे। बच्चे ऊधम मचाते घूमते।

माँ जी झल्लातीं, 'मुझे क्या पता था, मेरे पेट में से ये महाभारत की फौज निकलेगी।'

बाबा जी कहते, 'वक्त चुटकियों में बीतेगा' - रामकुमार की जुबानी।

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छह महीने का बच्चा अपने आसपास क्या देखता होगा? दो साल का क्या? पाँच साल का क्या?

हम कुछ भी नहीं जानते, निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं, लेकिन निर्मल की कथाएँ पढ़ें - अँधेरे में, पहाड़, लाल टीन की छत, अंतिम उपन्यास 'चुप होता हुआ समय' के अंश - तो कुछ-कुछ समझ में आता है। वह सब उसी बाल-उम्र में छप गया होगा उनके भीतर, उनके मन पर। सिर्फ लिखा उन्होंने उसे बाद में। ठहर-ठहर कर।

'अँधेरे में' कहानी से एक उद्धरण है -

बीच की तीन पगडंडियों को पार करके बानो आती थी।

' इन पहाड़ों के पीछे दिल्ली है। है न बानो ?'

बानो ने सिर हिला दिया , उसे दिल्ली की बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी , उस बेचारी ने अब तक दिल्ली नहीं देखी थी।

' मेरे अलूचे तुम ले लेना बानो।"

' तुम्हारे गले-सड़े अलूचे कौन खाएगा! जब दिल्ली जाओगे , अपनी पोटली में बाँधकर साथ ले जाना!" बानो खीज कर बाहर भाग गई।

इन दिनों मेरे कमरे में आने से पहले बानो की तलाशी ली जाती थी कि कहीं वह खट्टे अलूचे और कच्ची खूबानियाँ लुका-छिपा कर भीतर न ले आए। उसके दुपट्टे के सिरे में नमक-मिर्च की पुड़िया बँधी रहती - बीमारी से पहले हम अलूचों को उनमें भिगो कर चटनी बनाया करते थे।'

निर्मल की आरंभिक कहानियों में से एक यह कहानी। 'अँधेरे में'। सन् 195? के आसपास प्रकाशित।

उन दिनों दिल्ली के करोल बाग वाले घर की बरसाती में लिखी गई कहानियों में से एक।

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बाऊ जी ने रिटायर होते-होते नई दिल्ली के वेस्टर्न एक्सटेंशन एरिया में वह मकान खरीदा था। हर मंजिल पर एक बड़ी बैठक, दो बेड रूम का सेट। नीचे की मंजिल में किरायेदार थे, बीच की मंजिल में बैठक पर बाऊ जी का एकछत्र अधिकार था, रसोई के साथ लगते बेडरूम पर माँ जी का, सामने का कमरा कहलाता तो निर्मल का था हालाँकि छोटी बहन निर्मला, जिनकी अभी शादी नहीं हुई थी, उस पर बराबर की काबिज थीं।

ऊपर की बरसाती रात के समय रामकुमार-विमला भाभी जी की थी। दिन के समय उसमें एक ओर रामकुमार का ईजल लगा होता, एक ओर छोटे-से मेज पर निर्मल बैठे लिखते, निर्मला किसी न किसी बहाने वहीं एक तरफ कुर्सी पर बैठी होतीं।

बड़े भाई साहब सेना में कर्नल थे, सो उस घर में रहने वाले वर्मा खानदान के बाशिंदे यही सब थे।

एक दिन निर्मल अपने लिखने की मेज से उठ कर कहीं गए तो देखा निर्मला ने, सारा पन्ना कटा पड़ा है, जबकि वह समझ रही थीं, यह सारा समय निर्मल लिख रहे थे!

लिखते कम, काटते ज्यादा थे निर्मल।

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'अँधेरे में' प्रेम त्रिकोण की कहानी है, शिमला में घटित। कहानी में पहाड़ और रिज ही नहीं, अलूचों और खूबानियों की चटनी भी आ गई है। करोल बाग की बरसाती में। एक तीव्र स्मृति, एक तीव्र अभाव हो कर।

बचपन के ये स्वाद ताउम्र निर्मल के साथ रहे।

छोटे बच्चों की तरह वह दिल्ली में बाजार से कभी लाल बेरों पर मसाला डलवा कर ले आते, कभी पिके-फसे अलूचों की चटनी बनाते नमक-मिर्च लगाकर। दिल्ली में अलूचे-खूबानियाँ आते ही वह आम खाना भूल जाते। हम किसी पहाड़ से छुट्टियाँ मना कर लौट रहे होते तो बीच शहर बस रुकते ही अलूचे-खुबानियों के डिब्बे खरीदते और अपनी बस की सीट के नीचे उन्हें रखे-रखे हम दिल्ली आन पहुँचते।

ऐसा गहरा उनके भीतर पहाड़ बसा था।

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एक अक्षुण्ण अकेलापन है निर्मल के यहाँ। कई-कई छटाओं में। हमेशा असहनीय नहीं, अकसर एक आस्तित्विक स्थिति जैसा।

कहाँ से आया होगा ऐसा अकेलापन?

माँ-बाऊ जी, भाई-बहन, सब थे उनके बचपन में। पुचकारने वाले। दुनिया न थी लेकिन। दुनिया जिसकी रौनक वह कौतुक से देखते, जिसके व्यापार में उनका बाल-मन कहानियाँ देखता था।

किसी-किसी साल बाऊ जी का दफ्तर 'नीचे' न जाता, शिमला में ही रह जाता। बाकी सब चले जाते, नब्बे फीसदी शिमला के बाशिंदे, बस सेना मुख्यालय वाले बच जाते।

'हम जाते हुए लोगों को बड़ी ईर्ष्या से देखते। बर्फ से ढका शिमला भूतों का डेरा लगता। स्कूल बंद होते। हम बच्चे आवारा से इधर-उधर डोलते' - बकौल रामकुमार।

जाते हुए लोगों से ईर्ष्या का यह अनुभव 'लाल टीन की छत' में भी आया है मगर औंधा हो कर। उपन्यास की एंग्लो-इंडियन पात्र 'नीचे' जा रहे लोगों को हिकारत से देखती है, जैसे वे तुच्छ हों, जो पहाड़ का जादू नहीं समझते!

निर्मल इसी तरह करते थे। जिस चीज से उन्हें चोट पहुँचती, उस पर वह हँस देते। सामने वाला हैरान होता, कैसे आदमी हैं, इन्हें चोट नहीं पहुँचती? मैं उनकी पीड़ा को देखती, उसके एकांत को।

'कभी हम भाई-बहन काली बाड़ी पहुँच जाते। वहाँ मंदिर में चोर-सिपाही खेलते। बीच में काली माई, आसपास हम सब। मंदिर में आग जलती रहती थी, वह गर्म भी होता था' - रामकुमार के अनुसार।

यह काली बाड़ी का मंदिर 'लाल टीन की छत' में अविस्मरणीय हो कर आया है।

बचपन की धमा-चौकड़ी का स्थान निर्मल-कथा में आते ही किसी रहस्यमय सन्नाटे से घिर गया है, जहाँ काली माई के सामने काया अकेली खड़ी है। अपने भाई छोटे के 'साथ', फिर भी अकेली, क्योंकि वह 'बड़ी' हो रही है और छोटा तो अभी बिलकुल ही बच्चा है।

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'बचपन में हम निर्मल को फ्रॉक पहना कर लड़की बना देते थे, वो हम बहनों में लड़की की तरह खेलता रहता था। छोटा-सा निर्मल, गोल-मटोल, गोरा-चिट्टा उसका रंग, जैसे किसी अंग्रेज का बच्चा हो।'

निर्मल से दो साल बड़ी उनकी बहन सरला बताती हैं।

'कभी तीजों पर हम मेहँदी लगातीं, खासकर अगर बेवे या कमला बेवे में से कोई मायके आई होतीं। तब निर्मल, कोई चार-पाँच साल की उम्र का, बहुत जिद करता, मेहँदी लगवाने की। हम इसकी गोरी-गोरी हथेलियों में मेहँदी की टिक्की रख कर पट्टी से मुट्ठी बाँध देतीं। ये रात भर मुट्ठी बंधवाए सोता।'

ये भज्जी हाउस की घटनाएँ हैं।

'वो रामलीला कब हुई थी?' मैं राम से पूछती हूँ। निर्मल से सुन चुकी थी वह किस्सा।

'सन् 1933-34 के आसपास की बात है। उन दिनों कैथू में बहुत से बंगाली परिवार रहते थे। लड़कियों-लड़कियों ने तय किया, चलो रामलीला करते हैं। बिमला बेवे (निर्मल की बड़ी बहन, जिनकी शादी हो चुकी थी) जनक बनी, सरला सीता की सखी बनी और निर्मल जो यों भी लड़की बना उनके साथ खेलता ही था, सीता जी के स्वयंवर में हार जाने वाला राजा। रामलीला काली बाड़ी के हॉल में हुई। जब छोटे से निर्मल ने खूब जोर लगा कर धनुष उठाने की एक्टिंग की और फिर गिर पड़ा, जैसा उसे बताया गया था, इतनी तालियाँ बजीं कि निर्मल, स्वयंवर का छोटा राजा, शरमा कर जाके सीता की गोद में बैठ गया, इस पर और भी तालियाँ बजीं।'

यह प्रसंग इन बिन इसी तरह निर्मल के अंतिम अधूरे उपन्यास 'चुप होता हुआ समय' में आया है।

पद्मभूषण, ज्ञानपीठ सम्मानित निर्मल।

दिल्ली के घर में सुबह अपनी मेज पर लिखते निर्मल।

सुदूर बचपन की मीठी स्मृति को पन्ने पर पुनर्जीवित करते निर्मल।

***

'इस गली में मेरा दोस्त रहता था, छोटा सा सरदार बच्चा।'

भज्जी हाउस से निकलते हुए उस सुबह निर्मल ने बताया था।

'क्या नाम था उसका?'

'गोगी।'

निर्मल मुझे भी कभी-कभी गोगी कहा करते थे।

'मैं उसे राख की चाय पिलाया करता था। बच्चे थे हम। बड़ों की नकल किया करते थे। मैं देखता था, बाऊ जी के दोस्त जब आते हैं, तो उन्हें कैसे कप-प्लेट में चाय दी जाती है। एक दिन गोगी आया तो मैंने भी वैसे ही किया। चाय कैसे बनती है, ये तो कुछ मालूम नहीं था, कप के पानी में फायर-प्लेस की थोड़ी सी राख घोल कर मैंने उसे पीने को दी।"

'और वो पी गया?'

' हाँ, सब की सब। मैंने पूछा, गोगी चाय कैसी बनी है? उसने कहा, बहुत अच्छी।'

' हाय राम, कहीं वह मर न गया हो।'

'अरे नहीं। अभी कुछ साल पहले मैं मैक्समूलर लायब्रोरी में काम कर रहा था कि एक हट्टा-कट्टा सरदार आया। बोला, माफ कीजिए, क्या आप निर्मल वर्मा हैं? मैंने कहाँ, हाँ। उसने कहा, मैं गोगी हूँ, मुझे पहचाना? मेरी चाय पी कर वो ऐसा हट्टा-कट्टा हो गया था!'

निर्मल मेरे साथ भी खेल करते रहते थे बच्चे की तरह। एक बार थकी हुई मैं ऑफिस से लौटी तो दौड़े-दौड़े गए ऑमलेट और कॉफी बनाने। ऑमलेट मुझे पहले पकड़ा गए। जब तक कॉफी लिए लौटे, मैं ऑमलेट खा चुकी थी। वह बहुत हैरान-परेशान।

'तुमने सारा खा लिया?'

'हाँ, क्यों?'

'उसमें माचिस की तीली थी।'

'तुम्हें पता था?'

माचिस की तीली मेरे मुँह में आ गई थी, उसे देख मुझे हैरानी हुई पर भूख इतनी थी, कि उसे अलग करके मैं ऑमलेट खा गई थी।

'हाँ, वो अंडे में गिर गई थी, मुझे समझ में नहीं आया उसे कैसे निकालूँ, सोचा, ऑमलेट बना कर निकालूँगा, भूल गया।'

***

गोगी की बहन थी करम कौर।

'करम कौर जी, आप अपनी चुन्नी मुँह में से निकाल लीजिए, मुझे डर लगता है', हाबलू कहता है उनसे, 'चुप होता हुआ समय' के अंश में।

क्या सचमुच जिंदगी के पन्नों से निकल कर कहानी की हकीकत में उतर आर्इं थीं करम कौर?

मुद्दा यह नहीं कि करम कौर या कोई अन्य परिचित निर्मल के कथानक में पूरा उपस्थित है या अधूरा। वह वास्तविकता से उठाया गया है या कल्पना से। मार्मिक यह है कि बचपन के छूटे साथी कोई न कोई पात्र बन कर हमेशा उनके मन में किसी न किसी तरह उपस्थित रहे आए।

***

जाखू की पहाड़ी पर उनका स्कूल था - हारकोर्ट बटलर। तीनों भाई उसी स्कूल में पढ़ने जाते। राम और भैया जी (कर्नल साहब) पैदल, निर्मल सबसे छोटे होने के कारण घोड़े पर।

कैसी ममता रही होगी बाऊ जी की। भाँप लिया होगा कमजोर है, छोटा है, बस्ता नहीं उठेगा इससे खड़ी चढ़ाई पर।

माँ जी सब बच्चों में अकेले निर्मल के कपड़े, मोजे अपने हाथों तह करके अलमारी में रखतीं। बाकी सब को नौकर देखता।

गोल-मटोल, नटखट, पढ़ाकू उस बच्चे को, कद्दू जिसका नाम था बचपन में, क्या इतना उत्कट आभास था इस ममता का, प्रेम का, जो अमूमन सब माँ-बाप अपनी संतानों पर लुटाते हैं, बिना किसी फल की अपेक्षा किये?

जाने कैसे संताप में निर्मल ने यह लिखा होगा, सन् 19?0 में विदेश से लौट कर, माँ-बाप से खाली घर में रह कर, बरसाती की अकेली मेज पर। कहानी 'जिंदगी यहाँ और वहाँ' में।

'वे (माता-पिता) कभी सोच भी नहीं सकते, कि इतनी यातना सहकर उन्होंने जिसे जन्म दिया है, वह बड़ा हो कर इतनी यातना बर्दाश्त कर सकता है - इसीलिए वे चले जाते हैं। अपने बच्चों से पहले ही उठ जाते हैं। खत्म हो जाते हैं, मर जाते हैं!"

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निर्मल घोड़ा चला लेते हैं, मुझे पता भी न चलता यदि एक बार माउंट आबू की यात्रा में, जब हम दोनों अपने-अपने घोड़े पर बैठे थे और रस्सी घोड़े वाले के हाथ में थी, अचानक निर्मल अपना घोड़ा भगा ले गए।

मेरी चीखें निकल गईं कि अब शायद उनकी लाश ही मिलेगी किसी खड्ड में, जब उनका घोड़े वाला हँसता हुआ लौट आया, 'आप परेशान न हों मैडम, बाबू जी को घुड़सवारी आती है। घोड़ा नहीं भागा, बाबू जी भागे हैं।'

***

छोटे निर्मल को भाई-बहन प्यार करते होंगे, बुद्धू भी बनाते होंगे। बच्चों के खेल भरे पड़े हैं उनकी कथाओं में। इतना कि वयस्क भी बचपन के खेल खेलते दिखते हैं उनमें। डायरी का खेल, दूसरी दुनिया, सुबह की सैर जैसी कहानियाँ - बचपन ही है उनके यहाँ जीवन समझने की कुंजी।

शुरू के वर्षों में रामकुमार के खासे चेले थे निर्मल, ऐसा लगता है। राम भी उन्हें बहुत चाहते थे, लगभग लक्ष्मण की तरह। सन् 1950-52 में पेरिस-प्रवास के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में भेजीं रामकुमार की कला रिपोर्ट्स बड़े ध्यान से पढ़ते थे निर्मल। हिंदी पत्रिकाओं से मिले मानदेय से पेरिस में रहने का खर्चा आराम से निकाल लेते थे रामकुमार। एक रुपये के चार फ्रेंक मिलते थे उन दिनों।

पहले रामकुमार कहानियाँ लिखने लगे, फिर उनकी देखा-देखी निर्मल भी।

कॉलेज की छुट्टियों में, सन् 19?6-?? में कभी, मैंने एक किताब पढ़ी थी निर्मल की, शायद 'पिछली गर्मियों में'।

हिंदी मेरा विषय नहीं था लेकिन मोहन राकेश, कमलेश्वर को पढ़ चुकी थी, अपने पिता के मुँहबोले गाँव-भाई ताया जी से मिलतीं मुफ्त की किताबों के कारण।

(ताया जी की बुक-बाइंडिंग की दो बड़ी-सी दुकानें थीं, चाँदनी चौक की दुकान पर पंजाबी की और शाहदरे वाली दुकान पर हिंदी की किताबें जिल्द बनने आती थीं। उन्होंने आठवीं की छुट्टियों में मुझे किराये पर गुलशन नंदा और कर्नल रंजीत की किताबें पढ़ते हुए क्या देखा कि जब आते, दोनों हाथों में किताबें लिए आते!)

किताब के ब्लर्ब पर निर्मल के परिचय में अन्य बातों के साथ अंत में लिखा था - 'निर्मल वर्मा लेखक-चित्रकार रामकुमार के छोटे भाई हैं।'

मुझे बड़ा अजीब लगा कि यह कैसा लेखक है जो लिखता है, वह किसका भाई है।

तब मुझे क्या पता था, एक दिन मेरी उनसे शादी होगी!

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वर्मा बहनों में सबसे मेधावी थीं बिमला जीजी। उनकी मनीषा का असर दोनों छोटे भाइयों पर पड़ा।

जीजी को स्कूल में इनाम में किताबें मिलतीं। उन्हें सब से पहले निर्मल चाटते, फिर कोई और। रामकुमार बिमला जीजी स्कूल जाते हुए रास्ते में पुल पर रुक कर इतनी लंबी बातें करते, कि दोनों देर से स्कूल पहुँचते। डाँट पड़ती। लड़के-लड़कियों के अलग-अलग स्कूल थे तब।

जीजी को प्रभाकर परीक्षा की तैयारी करवाने घर में मास्टर आता था। निर्मल वहीं कमरे में खिड़की के पास बैठे सुनते रहते। परीक्षा होने को हुई तो निर्मल ने कहा, मैं भी बैठ जाता हूँ। और प्रभाकर की परीक्षा में जीजी से ज्यादा नंबर आए निर्मल के।

युवावस्था में जीजी जब गले के कैंसर से पीड़ित हुर्इं, उन्हें सार्इं बाबा के किसी चमत्कार से बचने की आशा थी। तब निर्मल उनकी इच्छा पूरी करवाने उन्हें बैंगलौर ले गए थे, सार्इं बाबा के दर्शन कराने। 19?0 के दशक की शुरुआती बात है। विदेश से भारत लौट आने के बाद।

रात भर दोनों पेड़ के नीचे बैठे रहे भक्तों की भीड़ में। जीजी ने सार्इं बाबा की भभूत खाई भी बड़े विश्वास से और अंत तक निर्मल को दिखाती रहीं, देख, पानी गटक पा रही हूँ कि नहीं।

यह अदम्य जिजीविषा, जीने की ऐसी अबूझ प्यास निर्मल में भी थी। पीड़ा से बिंधे होने पर भी।

***

एक और वाकया। राम का ही सुनाया हुआ -

उनके स्कूल का सालाना दिन था, सबके माता-पिता आए थे, बाऊ जी भी आए हुए थे। कई प्रतियोगिताएँ हुर्इं, दौड़ की, गाने की, बैडमिंटन की, उन्हें कई सारे इनाम मिले, पेंसिलें वगैरह।

निर्मल तब दूसरी-तीसरी में रहे होगे, रामकुमार छठी-सातवीं में। जब सारे इनाम राम को मिले और निर्मल को कोई भी नहीं, तो नन्हे निर्मल ने रोना शुरू कर दिया। बाऊ जी ने राम की पेंसिलें लेकर आधी निर्मल को दे दीं, कि 'तुम्हारा छोटा भाई है।'

बड़े होकर पुरस्कारों, ओहदों और यश से हद दर्जा उदासीन रहे निर्मल का यह हाल था बचपन में, भाई रामकुमार के इतने पुरस्कारों को देख कर!

'आप तो शुरू से ही बहुत टेलेंटेड थे।" मैं रामकुमार से कहती हूँ। मैं सचमुच प्रभावित हूँ। सुनती हूँ, बहुत अच्छा गाया करते थे रामकुमार बचपन में।

'अरे नहीं, गाने के मुकाबले में तो उस बार मैं अकेला ही था स्कूल में। एक दिन पहले ही पोनी बाबू अपने जीजा जी से मैंने गाना सीखा था, वो भी वहाँ जाकर भूल गया, पर गाने वाला अकेला था प्रतियोगिता में, सो इनाम मुझे मिल गया। दौड़ के मुकाबले का ये हाल कि सारे बच्चे एक दिशा में दौड़े और मैं दूसरी तरफ। वहाँ खड़ा एक आदमी देख रहा था, उसने कहा, नहीं नहीं, ये बच्चा सबसे तेज दौड़ा था, सो वो इनाम इस तरह मिला। अगर बाकियों के साथ मैं दौड़ा होता तो इनाम कभी न मिलता।"

'ड्राइंग में तो आपको बहुत इनाम मिलते होंगे?'

'उसमें तो मैं फेल हो गया था सातवीं में।'

रामकुमार हँसते हैं अपने पर, बिलकुल निर्मल जैसे।

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स्कूल में निर्मल के सहपाठी थे, जगदीश स्वामीनाथन, जो बाद में भारत के प्रसिद्ध चित्रकार हुए।

बचपन में स्वामी औघड़ और धुनी बालक थे, बहुत नटखट। कक्षा में शरारत करते पकड़े जाते और बेंच पर खड़े होने की सजा मिलती। मास्टर स्वामीनाथन के परम मित्र निर्मल को, जो क्लास में पढ़ाकू माने जाते थे, उनकी शिकायत लगाता।

यह बात मुझे स्वयं स्वामी ने बताई, जब हमारी शादी के बाद किसी बैठक में शामलाल के घर मैं उनसे मिली। निर्मल की तरफ इशारा करके बोले, 'तू इधर आ कर बैठ, ये तुझे अपने बारे में क्या बताएगा, मैं बताता हूँ।'

उस रोज मौसम बहुत अच्छा था। सन् 1935-3? की बात है शिमला की। हारकोर्ट बटलर स्कूल की। स्वामी को फिर बेंच पर खड़े होने की सजा मिली थी। मास्टर सारी क्लास को पिकनिक पर ले गया, स्वामी को बेंच पर छोड़ कर।

'ये भी चला गया था पिकनिक पर!' बड़ा ही दुख था स्वामी को इतने बरस बाद भी।

'और मालूम है, जाते-जाते क्या कहा मास्टर ने इस को? अपने दोस्त से कहो, आदमी बने आदमी! वो मास्टर मुझे आदमी भी नहीं समझता था?'

इतना बड़ा कलाकार, इतना नेक इनसान, इतना प्यारा भाई जैसा दोस्त निर्मल का और ऐसा तीखा दुख, जो अब कैसे भी दूर न हो सकता था निर्मल से।

मैंने बस हाथ रख दिया, स्वामी के हाथ पर।

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शिमला में स्वामीनाथन कैथू में निर्मल के संगी थे और दिल्ली के करोल बाग में उनके पड़ोसी।

बालिग होते दिनों में दोनों की खूब बहसें होतीं, घर के नीचे एक खंभे के पास खड़े दोनों घंटों बातें करते रहते। कभी एक घर पहुँचाने जाता, कभी दूसरा। बाऊ जी सैर करने जाते, लौट आते, तो भी दोनों वहीं, खंभे के नीचे। 'क्या बातें करते रहते हो तुम दोनों?'

हैरानी उन्हें इसलिए भी होती कि इसी चुप्पा-से लड़के को उनके किसी दोस्त ने गूँगा समझ लिया था और बड़ा अफसोस जताया था उनके गूँगा बेटा होने पर।

निर्मल गांधी जी की प्रार्थना सभा में जाते और कम्युनिस्ट छात्रों की बैठक में भी। सेंट स्टीफन्स कॉलेज में पढ़ रहे थे उन दिनों।

स्वामीनाथन और निर्मल, दोनों ने विभाजन के दिनों में दरियागंज इलाके में लाशें उठाने का काम किया। एक घर में दूसरी मंजिल पर लाश उठाने गए तो देखा, सोने की चूड़ियाँ चमक रही हैं, लाश गल-सड़ चुकी थी।

दोनों ने एक साथ कम्युनिस्ट पार्टी जॉयन की, धरनों में हिस्सा लिया, पुलिस की मार खाई। समाज बदल डालने का ऐसा जज्बा था दोनों में। शुरू जवानी के दिनों में समूचे भविष्य को दाँव पर रख दिया दोनों ने। आजादी के कई वर्षों बाद तक, सब जानते हैं, कम्युनिस्ट कोई होता तो उसे सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी।

सन् 1951-52 के आसपास की बात है। पार्टी का फरमान आया कि रिवोली सिनेमा में किसी अमरीकन फिल्म का शो होने वाला है, सब लड़के वहाँ गुप्त रूप से पहुँच कर गड़बड़ी करें। एक लड़के को फिल्म शुरू होते ही मंच पर जा कर पर्दा फाड़ना था, बाकियों को नारे लगाने थे। पुलिस को खबर लग चुकी थी, वह भी चौकस थी।

प्लानिंग के मुताबिक सब कम्युनिस्ट लड़के-लड़कियाँ हॉल में छितरा कर बैठ गए। फिल्म शुरू हुई तो जिस लड़के को शुरुआत करनी थी, वह बिदक गया। उठा ही नहीं पर्दा फाड़ने।

काफी देर साथी लोग इंतजार करते रहे, फिर एक उठा नारे लगाने, उसके पीछे बाकी सब भी। फिल्म रुक गई, पुलिस हरकत में आ गई, नारे लगाने वालों को पुलिस पकड़ने लगी।

इनकी साथिन एक लड़की थी। उसे जब पुलिस घसीट ले जाने लगी, निर्मल अपनी बारीक आवाज में चिल्लाए, 'आप ऐसा नहीं कर सकते।'

पुलिस वाले ने देखा, दुबला सा एक लड़का है। लड़की छोड़ निर्मल से बोला, 'अबे तू भी आ जा।'

पंद्रह-बीस छात्र-छात्राओं को पुलिस वाले पकड़ कर ले आए। कनॉट प्लेस के बीचोंबीच मैदान था, (जहाँ रैंबल रेस्तराँ हुआ करता था, उसके पास), वहाँ बैठा दिया धूप में। दो-चार घंटे वायरलेस चलता रहा। ऊपर से कोई ऑर्डर नहीं मिला कि एक्शन क्या हो।

जो गुनाह था, सजा पाने के लिए काफी कम था, कानून की कोई धारा सिद्ध न होती थी। छात्र भी धूप में घास के तिनके चबाते बैठे रहे। फिर शायद पुलिस वालों को आदेश मिला, इधर-उधर देखने का बहाना करें, अगर ये भाग जाएँ तो इनके पीछे न दौड़ें। मुँह छिपाने को इतना काफी था।

सो यही हुआ। शाम होते-होते सब भाग निकले। क्रांति हो गई थी।

विमला फारूकी चुनावों में उम्मीदवार बनीं, तो निर्मल और स्वामी घर-घर उनके साथ उनकी पैरवी करते घूमे। एक घर में गए तो चारपाई पर कुछ औरतें बैठीं थीं। निर्मल ने कहा, 'ये चुनाव में खड़ी हुई हैं।'

एक औरत उठ कर उन्हें जगह देती बोली, 'खड़ी क्यों हैं बहन, बैठ जाइए।"

सन् 1953 में बेरोजगारी के खिलाफ प्रदर्शन करते समय निर्मल जेल में बंद कर दिए गए। घर में अंग्रेजों के पुराने अफसर बाऊ जी को जेल वाली बात बताई नहीं जा सकती थी। रामकुमार ने झूठ बोला, निर्मल दोस्तों के साथ आगरे गया है।

बाऊ जी से छिप-छिप कर रामकुमार खाना लेकर जेल जाते रहे। एक हफ्ते बाद निर्मल छूट कर घर आए तो बड़ी शहादत की मुद्रा में कि जेल काट कर आए हैं। उन्हें कुछ मालूम न था, रामकुमार ने क्या कह रखा है घर में। बाऊ जी ने देखा तो कहा, 'बड़े लाल हो गए हैं तुम्हारे गाल। लगता है, आगरे की यात्रा बड़ी अच्छी रही।"

स्वामी पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस में काम किया करते थे। निर्मल को अनुवाद का काम दिलवा देते थे। कई बार निर्मल के नाम से वह स्वयं ही अनुवाद कर लेते और पारिश्रमिक ले लेते। संघर्ष के दिन थे दोनों के।

अनुवाद के साथ-साथ निर्मल घर के पास एक कोचिंग सेंटर में पढ़ाने जाया करते थे। बाद में उन्हें काम मिल गया राज्य सभा के सचिवालय में बतौर अनुवादक।

उन्हीं सन् 1952-56 के बरसों में देवेंद्र इस्सर ने कल्चरल फोरम बनाया। करोल बाग इलाके में रहने वाले उत्साही लेखक उसके मेंबर थे - भीष्म साहनी, कृष्णबलदेव वैद, निर्मल, रामकुमार, मनोहरश्याम जोशी, महेंद्र भल्ला। कोई दस-बीस श्रोता भी आ जाते। प्रथा यह थी कि जिसे कहानी सुनानी होती, वह सब को चाय पिलवाता।

उन्हीं बहसों के चलते धीरे-धीरे सब निखरे, फिर बिखर गए। कोई अमेरिका चला गया, कोई योरप, कोई रूस। सब ने अपनी-अपनी नियति का सामना किया। वह वे बन हुए, जिस रूप में हम आज उन्हें जानते हैं।

सन् 1956 के आसपास निर्मल का कम्युनिस्ट पार्टी से तीखा मोहभंग हुआ। कॉलेज के दिनों से चला कुल सात साल का वह संबंध हंगरी पर रूसी सेना के हमले के साथ टूट गया था।

दिलचस्प तथ्य यह है कि निर्मल चेकोस्लोवाकिया जैसे साम्यवादी देश में सन् 1959 में तब गए, जब वह कम्युनिज्म से मोहभंग कर चुके थे, जबकि अभी तक हिंदी साहित्य के कुछ लोग इसका उलट समझते हैं, कि शायद इस सदस्यता के कारण ही वह चेकोस्लोवाकिया गए।

मोहभंग और बाकायदा इस्तीफा देने के बाद न सिर्फ एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में जा कर रहना, बल्कि वहाँ से भारत के अखबारों, ख़ासकर टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पन्ने के लिए रिपोर्ट भेजना यकीनन जोखिम भरा काम था उन वर्षों में।

प्रवास के उन सात वर्षों में - सन् 1959 से 1968 तक (बीच में 1964-66 के दो साल वह भारत में रहे) - निर्मल ने कम्युनिस्ट व्यवस्था का जो विद्रूप अपनी आँखों वहाँ देखा, व्यक्तियों पर अंकुश और प्रताड़ना के लिए जासूसी - संभवतः उसी ने उन्हें न केवल साम्यवाद, बल्कि अंग्रेजों के औपनिवेशिक प्रभाव से भी मुक्त किया। यह उनकी प्रश्नाकुलता थी जिसने उनकी चेतना के भारतीय तत्व को ऐसा निथरा किया।

चेकोस्लोवाकिया प्रवास के काफी पहले से रूसी और चेक लेखक उनके प्रिय रहे थे। तॉल्स्तॉय, चेखव, चापेक। हैदराबाद से निकलने वाली बदरीविशाल पित्ती जी की पत्रिका 'कल्पना' में 'दीवार के दोनों ओर' स्तंभ वह लिखा करते थे। लेखन में सहज, आम बोली जाने वाली खड़ी बोली उनका चुनाव थी।

उनकी माँ अपने दोनों बेटों की कहानियाँ बड़े चाव और उत्सुकता से पढ़तीं। रामकुमार की कथाएँ उन्हें तुरंत समझ में आ जातीं। निर्मल की कहानियाँ उन्हें कुछ अनिश्चित सा छोड़तीं।

अपने घर आने वाले युवा लेखकों, बेटों के मित्रों, से वह फिक्र में पूछतीं, 'ये निर्मल कैसी कहानियाँ लिखता है?'

ऐसा सन्नाटा, अकेलापन उनके बेटे में। डायरी का खेल, माया का मर्म, तीसरा गवाह।

मनुष्य की एकांतिक नियति निर्मल को मथती थी। सुदूर बचपन का, शिमला का, सन्नाटा उनकी आत्मा में बस गया था।

वे कैसे लोग थे, जो पहाड़ छोड़ नीचे दुनिया में चले जाते थे?

रानीखेत के पहाड़ों पर, लड़कियों के कॉलेज के नीचे से गुजरते हुए वे रुके थे। सन् 1954 के आसपास। पहाड़ों पर कुछ समय बिताने गए युवा निर्मल।

ऊपर से लड़कियों के हँसने की, ठिठोली की आवाज ने उन्हें रोक लिया था। छुट्टियाँ शुरू हो रहीं थीं।

लेकिन उस हँसी से जो शुरू हुई थी उनकी लंबी कहानी, 'परिंदे', उसमें लतिका अकेली रह गई थी, स्कूल की हेड मिस्ट्रेस, खाली स्कूल में।

यथार्थ इसी तरह आता था अकसर उनकी रचना में। असलियत का औंधा हो कर।

मनुष्य को अपनी नियति का अकेलापन ढोते रहना चाहिए? कि उसे छोड़ देना चाहिए?

लतिका और डॉक्टर ह्यूबर्ट के जरिये निर्मल हिंदी साहित्य में इस एकांतिक नियति की प्रस्तावना रख चुके थे।

यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न था, जिसका सामना लगभग साठ साल फैले अपने लेखन में उन्हें बार-बार करना था।
 

भाषा एवं संस्कृति विभाग, हि.प्र. द्वारा गेयटी थियेटर शिमला में 15-16 सितंबर 2012 को आयोजित 'निर्मल पर्व' के अवसर पर दिया गया वक्तव्य।


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