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कविता

जाने क्या-क्या

हरप्रीत कौर


चीजे कुछ
रही अनसँवरी
जीवन बना रहा बेतरतीब
दोस्त रूठ कर खड़े रहे
घर के बाहर
रसोई में पकते रहे पसंदीदा व्यंजन
समय जाता रहा
ससुराल से आती रही बहन
लोहड़ी दीवाली होली पर आती रहीं
दो पीढ़ियों की विदा हुई बेटियाँ
बुआ आती रही नाती के साथ
घर भर के पुरुषों को बँधती रही राखियाँ
वर्ष भर जमा होती रहीं घर भर में
बड़े हो रहे हाथों की छोटी चूड़ियाँ
पलंग के पाए पर बँधते रहे स्त्रियों के रिबन
जूड़े के फूल
दीवारों पर जमा होती रहीं पत्नी की बिंदियाँ
अलमारी में सहेजता रहा यात्राओं के टिकिट
पुराने दिनों की याद सरीखा
आता-जाता रहा प्रेम
पिता हो गए रिटायर
डायरी में दर्ज होते रहे लड़कियों के पते
थोड़े से कामों के लिए आया था इधर
जाने क्या-क्या करता रहा वर्ष भर

(अंतिम पंक्तियाँ भगवत रावत की एक कविता पढ़ते हुए)
 


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