ग्रीष्म की तपती दोपहरियों के बाद आती हैं वर्षा-बूँदें, कभी रिमझिम, कभी
झमाझम, और भीग उठती है माटी। उठती हैं एक सोंधी सुगंध। सच पूछें तो कई बार यह
सुगंध किसी फूल की सुगंध से भी अधिक प्रिय लगती है। उसमें एक सूचना छिपी होती
है - वर्षा की ओर से, आ रही हूँ मैं तुम सबको भिगोने। सबको। खेत में खड़े
किसान को और तुमको भी जो अभी घर की चारदीवारी के भीतर हो, या आठवीं या
अठारहवीं मंजिल की बालकनी में खड़े होने वाले हो या अपने फ्लैट की खिड़की से
मुझे देख रहे हो या सड़क पर हो, पैदल या किसी वाहन में, रेल में, साइकिल में,
मोटर वाइक में, कार में और यह सुगंध यह सोंधी सुगंध, तुम्हें घेरे ले रही है!
भला ऐसे में किसका मन-मयूर नाच नहीं उठता है! यह अलग बात है कि शहरी क्या,
ग्रामीण जीवन में भी अब आस-पास मयूर दिखते नहीं हैं, हाँ, उन्हें देखने को मन
तरसने लगता है...।
अगरतला, त्रिपुरा में रहने वाली बांग्ला कवियित्री मीनाक्षी भट्टाचार्य, अपनी
एक कविता 'वृष्टि' में लिखती है -
वृष्टि तोर बयस कतो?
भावते भालो
तुई पंचीस
ताई बूझि
भेजाते भालो वाशिश?
(वृष्टि, क्या है तुम्हारी उम्र? सोचना अच्छा लगता है कि तुम पच्चीस की हो,
तभी तो भिगोने से हैं तुम्हें प्रेम!)
यही तो है प्रकृति से दोस्ती करना। करोड़ों वर्ष की उम्र वाली वर्षा को पच्चीस
वर्ष की उम्र का मानकर, उसकी ओर देखना! प्रकृति के उपादानों से मैत्री करने की
यह चाह न जाने कब से कवियों-चित्रकारों के मन में बसी है, आम जनों के भीतर भी,
क्योंकि प्रकृति से मैत्री किए बिना उनका और हम सभी का, काम चलने वाला नहीं
है...।
कालिदास ने भी तो बना लिया था मेघ को 'मेघदूत'। प्रिया तक संदेश भला और कौन ले
जा सकता था। और आज भी तो हम भेजते हैं, स्मार्ट फोन पर, कंप्यूटर स्क्रीन पर
संदेश, किसी न किसी प्रकृति-दृश्य की इमेज नत्थी करके! 'गुडमार्निंग' भी भेजते
हैं, तो फूलों के चित्रों सहित! सच पूछें तो जितना ही मनुष्य विनष्ट करता आया
है, पेड़-पौधों को, नदियों को, वनों को, पर्वतों को, यहाँ तक कि रेत को उसका
गैर-कानूनी उत्खनन करके; उतना ही प्रकृति के साथ की 'चाह' हममें बढ़ती जाती
है! भूमाफिया जो विनष्ट करता है, प्रकृति के उपादानों को, वह भी वर्षा की चाह
रखता है या नहीं! यह अलग बात है कि तात्कालिक लाभ उठाने जाकर वह यह भूल जाता
है कि वह किसी खेत-पेड़ पर कुल्हाड़ी मारने जा रहा है खुद अपने पैर पर
कुल्हाड़ी मार रहा है!
प्रकृति से हम अपने को जितना दूर करते जाते हैं, उतना ही सूखते जाते हैं, किसी
सूखी नदी की तरह। फिर क्या रह जाता है उपाय अपने को सींचने का, जलमय बनाने का,
अपने को रससिक्त करने का सिर्फ यही तो कि बढ़ाए हाथ प्रकृति के उपादानों की ओर
बचा लें, जितना बचा सकते हो उन्हें। और यही तो हम करते हैं, जब लगाते हैं
पौधों की कतार, किसी बाल्कनी में, छत पर, रखते हैं चिड़ियों के लिए पानी किसी
जल-पात्र में, छोटे बच्चों को दिखाते हैं चाँद-तारे, और खुद विस्मय से भर जाते
हैं सींचते-लगाते हैं बाग-बगीचे फलों-फूलों के। जाते हैं समुद्र किनारे की सैर
को, करते हैं नाव-यात्रा किसी नदी पर, कहीं पहुँचते हैं, देखने को
सूर्योदय-सूर्यास्त!
और देखिए, वह प्रकृति ही तो है जो आपको करती नहीं है निराश! कहीं भी कहीं पर!
मैं जो देख चुका था। कोणार्क के पास चंद्रभागा में सूर्योदय, एक बार, समुद्र
से उठते हुए सूर्य का उदय! वहीं, कुछ बरस बाद जैसलमेर से कोई सत्तर किलोमीटर
दूर 'सम' नामक की जगह पर रेत पर डूबते सूर्य का सौंदर्य देखने पहुँचा था, और
उतना ही चकित विस्मित हुआ था जितना कि चंद्रभागा के सूर्योदय को देख कर!
चंद्रभागा में सूर्योदय देखने के लिए रात दो-तीन बजे से ही लोग इकट्ठा होने
लगते हैं। क्योंकि सूर्योदय से पहले वहाँ पहुँच जाना होता है, भीड़ होने से
पहले। और जब समुद्र के जल से उठता है सूर्य, (ऐसा ही तो मालूम पड़ता है) तो
आँखें विस्फारित हो जाती हैं। अचरज से। उसे देखने के लिए विदेशी भी होते हैं,
स्थानीय जन भी, और देश के कई भागों से वहाँ एकत्र हुए लोग भी। तब 'चंद्रभागा
में सूर्योदय' शीर्षक से एक कविता ही लिखी थी। और रेतीले 'सम' पर भी तो यही
दृश्य देखा था - सैकड़ों लोग जमा थे। विदेशी भी। देसी भी। एक जापानी चित्रकार
रेत में 'डूबते' हुए सूर्य का दृश्य अंकित कर रहे थे। बीसियों ऊँट भी थे। उन
पर सवारी गाँठते, पैदल चलते, स्त्री-पुरुष-बच्चे थे, सैकड़ों! कहाँ समुद्र का
जल, कहाँ रेत का समुंदर! प्रकृति की जयपताका सब जगह फहरा रही है।
प्रकृति के उपादानों में से मुख्य उपादान यही तो हैं : जल, वृक्ष,
सूर्य-चंद्रकिरणें, वर्षा-बूँदें, अग्नि लपटें, पक्षु-पक्षी, जलचर-थलचर!
पत्र-पुष्प! और हाँ, रेत-चट्टानें तक! न जाने कब कौन, कहाँ भा जाए! कोई
स्फूर्ति भर जाए।
सो, आँखें खुली रखना भी प्रकृति से मैत्री करना है। नागार्जुन ने लिखी है न
अद्भुत कविता "बादल को घिरते देखा है'। और 'अज्ञेय' की 'असाध्य वीणा', प्रकृति
के हजारहा उपादानों का उत्सव मनाती हुई! और पंत और प्रसाद! एक से एक
प्रकृति-बिंब हमें सौंपते हुए! प्रसाद ने लिखा है : 'मैं हृदय की बात रे मन'
शीर्षक अपने एक गीत में "पवन की प्राचीर में रुक / जला जीवन जी रहा झुक / उस
झुलसते विश्व-दिन की / मैं मधुर ऋतु-रात रे मन...! मैं हृदय की बात रे मन!"
तो हृदय की सच्ची-खरी बात के लिए भी, उपमाएँ, और बिंबावलियाँ प्रकृति-उपादानों
से ही सूझती हैं!
जब भी कुछ झुलसने की, मुरझाने की प्रतीति होती है, तो मन भागता है - फूलों की
ओर, तितली की ओर, पंछियों की ओर, जल की ओर, वासंती भाव की ओर! अचरज नहीं कि
2009 की अपनी एक लंदन यात्रा में सुबह वहाँ के एक अखबार में लंदन के पार्कों
में तितलियों की खोज-खबर लेने वाली एक रिपोर्ट पढ़कर मन प्रसन्न हो उठा था। आप
तो जानते ही हैं, मन में किसी चिंता, पीड़ा का टनों भार हो, और अगर उसी वक्त
एक तितली पास से गुजर जाए तो वह सारा भार अपने पर ले लेती है और आपको पल भर के
लिए टनों के भार से मुक्त कर देती है। और सुबह की सैर के समय ऐसी जगहों की ओर
तो पैर स्वयं चलने लगते हैं, जहाँ जल हो, पक्षी हों, पेड़-पौधे हों।
सो, अभी एक बार फिर मुंबई के कोलाबा के इलाके में जब दो-तीन दिन ठहरा तो चला
जाता था 'गेट वे ऑफ इंडिया' पर कबूतरों का समागम देखने, समुद्र देखने, उस पर
तिरते बोट देखने, और हाँ, सूर्योदय देखने...।
पिछले पचास वर्षों की अपनी यात्राओं में, देश-विदेश में; प्रकृति के मनोरम
दृश्य देखे हैं, तो उसके झंझावती, रूप भी। और कह सकता हूँ कि दोनों तरह के
रूपों की ओर मैत्री का हाथ बढ़ाया है!
मनुष्य-मन में, शरीर में, सब तरह की शक्ति, सब तरह की ऊर्जा, प्रकृति ही तो
भरती आई है, सदियों से।