'' साम्राज्यवाद हथियारों से हमला करने के पूर्व सांस्कृतिक आक्रमण करता है जो उपनिवेशों की जनता की संस्कृति के खिलाफ लंबे समय तक जारी रहता है। नव-औपनिवेशिक स्थितियों में यह सांस्कृतिक हथियार और भी तेजी से काम करता है ताकि इसके जरिए नया शासक वर्ग जो एक दलाल पूँजीपति की भूमिका निभाता है, अपने भूतपूर्व औपनिवेशिक शासकों के हितों की रक्षा करनेवाली मानसिकता का निर्माण कर सके।'' - न्युगी वा थ्योंगो
'' ...मेरे विचार से भाषा सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन है जिसके जरिए आत्मा को वश में किया गया और उसे बंदी बना लिया गया। शारीरिक गुलामी के लिए गोलियों को साधन बनाया गया लेकिन मानसिक और आत्मिक गुलामी भाषा के जरिए थोपी गई।'' ( न्युगी वा थ्योंगो : भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, पृष्ठ 9)
'' स्व की चेतना संवाद के दरवाजे का बंद होना नहीं है।'' ( फ्रैंज फेनॉन : धरती के अभागे, पृष्ठ 192)
हमारे यहाँ भाषा विज्ञान की पुस्तकों में 'भारोपीय भाषा परिवार' इस तरह पसरा हुआ है कि अन्य भाषा परिवारों के लिए जगह ही शेष नहीं है। चाहे वह पुस्तक 1948 में प्रकाशित हुई हो या 1953 में, उनमें 'मुंडा भाषा परिवार' को एक पैराग्राफ में निपटा दिया गया है। साम्राज्यवादी हथियार बने यूरोपीय भाषा शास्त्रियों ने जब यह अवधारणा दी कि ग्रीक, लैटिन, फारसी और संस्कृत एक भाषा परिवार की भाषाएँ हैं और इस समूह की मूल भाषा संभवतः संस्कृत है तो उन्होंने बिना लड़े कई मोर्चे फतह कर लिए। इस सैद्धांतिकी के तहत उन्होंने अपने औपनिवेशिक सत्ता को एक तरह की वैधता प्रदान करने की कोशिश की। ब्रिटिश गुलामी चार पाँच हजार वर्षों के बाद आर्य भाइयों का मिलन बन गई। ब्रिटिश तो बस अपने बिछुड़े भाइयों को सभ्य बनाने और रूल ऑफ लॉ सिखाने आए थे। केशवचंद्र सेन जैसे सक्षम समर्थक इस अवधारणा के पक्ष में खड़े मिले।
दूसरा मोर्चा यह फतह हुआ कि आर्यों के आव्रजन के सिद्धांत को इस अवधारणा से पुष्टि मिलती थी। सम्राज्यवादियों के अनुसार भारत में कोई मूलवासी था ही नहीं। पहले निग्रिटो आए, उसके बाद प्रोटो आस्ट्रेलाइड/आस्ट्रिक आए फिर द्रविड़, आर्य, शक, हूण, कुषाण, तुर्क, अफगान, मुगल तक बस आव्रजन की एक श्रृंखला थी जिसकी अगली कड़ी के रूप में अंग्रेजों के आगमन को भी स्वीकार करना था।
आर्यों की श्रेष्ठता की अवधारणा ने क्या-क्या गुल खिलाए! विश्व इतिहास के पन्नों पर नार्डिक आर्यों ने जिस तरह की होलोकास्ट की कालिख पोत दी उस पर बहुत चर्चा नहीं करनी है। भारत में ब्राह्मणवादी और पुनरुत्थानवादी ताकतों को इस अवधारणा ने ऐसी आत्ममुग्धता की खुमारी से भरा जो अभी तक नहीं उतरा है। इस 'आत्ममुग्धों' की लंबी सूची में नया-नया नाम मोहनदास करमचंद गांधी का जुड़ गया है। दक्षिणी अफ्रीकी भारतीय मूलवंशी अश्विन देसाई और गुलाम वाहेद ने अपनी नई पुस्तक 'साउथ अफ्रीकन गांधी : स्ट्रेचर बियरर ऑफ एंपायर' में इस तथ्य को प्रमाणित किया है कि ''Throughout his stay on African Soil (1893-1914) remained true to empire while expressing disdain for Africans. For Gandhi, Whites and Indian were bound by an Aryan bloodline that had no place for the African.''
आर्य नस्लवाद की अवधारणा एक ऐसी गुदगुदी है जो केशवचंद्र सेन से लेकर केवल गांधी तक की पीढ़ी को ही नहीं बल्कि नई पीढ़ियों को भी आह्लादित कर रही है। इसी आह्लाद का यह परिणाम है कि उत्तर भारत में भाषा विज्ञान या लिंगुस्टिक के पाठ्यक्रम से इंडो-यूरोपियन भाषा परिवार के अलावे अन्य भाषा परिवार या तो ओझल है या उपेक्षा की घातक मार की शिकार हैं।
आंतरिक उपनिवेशवादी दृष्टि
चूँकि बड़े पैमाने पर उत्पादन हेतु विशालकाय परियोजनाओं का आर्थिक दर्शन यूरोप से उधार लिया गया था अतएव उनकी सफलता के सूत्र भी औद्योगिक पूँजीवाद के साम्राज्यवादी समाधान में ही निहित थे। यूरोपीय साम्राज्यवाद ने पूरे तृतीय विश्व को उपनिवेश बना कर, वहाँ के कच्चे माल, सस्ता श्रम और अबाध बाजार से अपने उद्योगों को मुनाफे के मशीन में बदल दिया था। किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद प्रत्यक्ष की जगह परोक्ष उपनिवेशवाद ने जन्म लिया। भारत जैसे देशों के लिए कहीं अन्यत्र उपनिवेश तलाशना तो मुश्किल था अतएव आंतरिक उपनिवेशवाद का विकल्प चुना गया। जिन इलाकों में खनिज संपदा थी, ऊर्जा संसाधन थे उन इलाकों के साथ उपनिवेश की तरह ही व्यवहार प्रारंभ हुआ। और खेदजनक है कि यह तस्वीर लगभग पूरी दुनिया की है। जैसे सम्राज्यवादी शक्तियाँ अपने उपनिवेशों की संस्कृति-भाषा आदि के प्रति उपेक्षा-नकार और घृणा भाव से भरी रहती थीं ठीक उसी प्रकार आंतरिक उपनिवेशवाद ने मुख्यधारा की संस्कृति को एक झूठी श्रेष्ठता और अहमन्यता के भाव से भरा है। अतः मुख्यधारा के विद्वतजनों का श्रेष्ठता भाव, भारोपीय भाषा परिवार से ही भाषा विज्ञान की शुरुआत करता है और वहीं अंत करता है। उनके लिए मुंडा भाषा परिवार, नागा भाषा परिवार आदि एक पैराग्राफ में निपटा देने वाले, यूँ ही, नामोल्लेख भर के लिए हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तर-पूर्व आदि क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा, सस्ता श्रम आदि तो चाहिए लेकिन यहाँ की संस्कृति-भाषा के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न है। वे एंथ्रोपोलोजी के बाहर अध्ययन-मनन और महत्व प्रदान करने योग्य नही हैं। अब पिछड़े, आदिम, अंत्यल्प आबादी वाले समुदायों की भी कोई अपनी भाषा-संस्कृति क्या हो सकती है? मुख्यधारा की सामान्य अवधारणा इस चर्चा को ही प्रश्नांकित करती है।
पारिवारिक वर्गीकरण और नामकरण
जहाँ आज हिंद महासागर है वहाँ लाख वर्ष पूर्व एक लेमुरिया महाद्वीप की कल्पना की गई। लेमुरिया से ही चल कर बारह आदिम जातियों के पूर्वज विभिन्न दिशाओं में बढ़े। नतीजन भारत से आस्ट्रेलिया और फिलीपीन्स से लेकर मेडागास्कर तक के मूलवासियों में एकरूपता और भाषागत समानता की अवधारणा भी सामने आई। किंतु अध्ययनों ने जब द्रविड़ भाषा एवं अन्य भाषाओं में भिन्नता सिद्ध की तो लेमुरिया सिद्धांत को आघात लगा।
फादर पेटर श्मिड्ट ने 1906 ई में ''आस्ट्रिक-भाषा परिवार'' शब्द का पहली बार प्रयोग किया और यह बताया कि ''इस परिवार की भाषाएँ मेडागास्कर से लेकर न्यूजीलैंड तथा दक्षिण अमेरिका के तट से प्रायः 400 की दूरी पर अवस्थित ईस्टर द्वीप समूह तक फैली हुई हैं। उन्होंने इस परिवार की कल्पना, ध्वनि, वाक्य-संरचना, व्याकरणिक विशेषताओं तथा किसी सीमा तक एक जैसे शब्दों की समानताओं के आधार पर की। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि इस सभी भाषाओं में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन-जैसे भेद मिलते हैं, उत्तम पुरुष सर्वनाम के अंतर्भावी और बहिर्भावी-जैसे भेदों का अस्तित्व है तथा मूल शब्द में सरल उपसर्गों, अनुनासिक तथा निरनुनासिक अंतःप्रत्ययों तथा प्रत्ययों के संयोग की एक-जैसी पद्धति मिलती है। उन्होंने अपने द्वारा प्रस्तावित ऑस्ट्रिक भाषा परिवार को दो उप-परिवारों में विभक्त किया - (1) ऑस्ट्रोनेशियन और (2) ऑस्ट्रोएशियेटिक। इनमें प्रथम के अंतर्गत मेडागास्कर, इंडोनेशिया तथा प्रशांत महासागर के द्वीपों की भाषाएँ आती हैं और द्वितीय के अंतर्गत निकट तथा वृहत्तर भारत में फैली हुई भाषाएँ आती है। (भारत का भाषा सर्वेक्षण, खंड -1, भाग -1, पृष्ठ-57)
सन् 1963 ई, में प्रो. एच. जे. पिन्नो ने आस्ट्रिक वर्ग की भाषाओं का सामान्य वर्गीकरण निम्नवत किया :
(1 .) पश्चिमी शाखा (निहाली मुंडा)
(अ) पश्चिमी : निहाली
(ब) पूर्वी : मुंडा :
(1) उत्तरी : (अ) खेरवारी (संताली, मुंडारी, कोरवा, हो आदि)
(ब) कोरकू
(2) दक्षिणी : (अ) केंद्रीय : खड़िया, जुआड, गदावा आदि
(ब) दक्षिणी-पूर्वी : सोरा, गोरूम, गुलोब आदि
(2 .) पूर्वी शाखा (ख्मेर-निकोबरी)
(अ) पश्चिमी : निकोबरी
(ब) पूर्वी : प्लाउड-ख्मेर :
(1) पश्चिमी : खासी
(2) उत्तरी : प्लाउड, वा, रियाड आदि
(3) पूर्वी मोन, ख्मेर, बहनार, स्रे आदि
(4) दक्षिणी : मलक्का : सकई, जाकुद, सेमड
(डॉ. डोमन साहू 'समीर' : संताली भाषा और साहित्य उद्भव और विकास, पृष्ठ 2-3)
डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के अनुसार आस्ट्रोएशियेटिक उप-परिवार की शाखा मुंडा भाषा समुदाय के लिए ''मुंडा'' शब्द का प्रयोग मैक्सम्यूलर की देन है। उन्होंने भारत के संदर्भ में द्रविड़ भाषाओं से पृथक एक भाषा परिवार की पहचान की थी, जिसके लिए उन्होंने 1854 ई में इस शब्द का प्रयोग किया था।'' (मुंडा भाषा परिवार और मुंडारी, दस्तक : आदिवासी विशेषांक पृ. 250)
लेकिन मैक्सम्यूलर के मुंडा भाषा परिवार नामकरण को खारिज करते हुए 1866 ई. में जार्ज कैंपबेल ने इस भाषा परिवार को 'कोलारियन' नाम दिया। डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के अनुसार ''उन्होंने मैसूर राज्य के कोलार जिले के साथ मुंडा जाति का संबंध स्थापित करना चाहा, जो बाद में निराधार प्रमाणित हुआ। पुनः उन्होंने कोल और आर्य के संयोग से बने जिस कोलार्य या कोलारियन की प्रस्तावना की, इससे इस जाति का संबंध आर्यों से भी स्थापित हो जाता है। इस धारणा को भी कोई आधार नहीं है। यही कारण है कि सर जार्ज ग्रियर्सन ने 'कोलारियन' शब्द का खंडन करते हुए मैक्सम्यूलर द्वारा प्रस्तावित ''मुंडा'' नामकरण की स्वीकृति पर बल दिया।'' (मुंडा भाषा परिवार और मुंडारी : दस्तक, आदिवासी विशेषांक : पृ. 251)
किंतु डॉ. रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी : खंड 3 के अध्याय 3 में 'मुंडा भाषा परिवार' को 'कोल भाषा परिवार' के रूप में ही उल्लेखित करते हैं। अपने उक्त अध्याय की प्रस्तावना में उनका तर्क है कि 'भारत का एक प्राचीन भाषा परिवार 'कोल' है। बहुत से लोग इसे 'मुंडा' कहते हैं। डॉ. चाटुर्ज्या ने 'बंगला भाषा के उद्भव और विकास ग्रंथ' में लिखा है कि मुंडा शब्द की अपेक्षा कोल शब्द का व्यवहार अधिक समीचीन है। कोल परिवार में मुंडा एक विशेष समुदाय है, 'कोल' शब्द इस परिवार के सभी समुदायों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। इस परिवार की भाषाएँ मध्य भारत, बिहार, पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती हैं। मुंडारी, संताली, कूर्कू, हो सबर, भाषाओं के बोलने वालों की संख्या लाख, दो लाख, कहीं पाँच लाख से ऊपर है, शेष भाषाओं के बोलनेवालों लाख से भी कम हैं और कुछ के बोलने वाले हजार से भी कम हैं। (पृष्ठ 86)
' आस्ट्रिक' और ' कोल' नामकरण का रहस्य
भाषा परिवारों का नामकरण करने में उनकी उत्पत्ति यूरोप या उसके आसपास मानने के पीछे यूरोपीय भाषा वैज्ञानिकों को मानस को समझने में कोई दिक्कत नहीं होती। एक तो उनकी यूरो-केंद्रित दृष्टि हर भाषा-संस्कृति का जन्म अपने यहाँ मानने की वर्चस्ववादी मानसिकता से ग्रस्त नजर आती है दूसरी यह कि निग्रिटो से आर्य तक, शक, हूण, कुषाण से लेकर मुगल तक भारत में बाहर से ही आए तो उनके सम्राज्यवादी विस्तार पर क्यों उँगली उठायी जाए?
''आस्ट्रिक (आग्नेय) लैटिन भाषा में आउस्तेर है जिसका अर्थ है दक्षिण प्रांत। जब यूरोपीय अन्वेषकों ने प्रशांत के दक्षिण में एक विशाल महादेश को पाकर उसक नाम आस्ट्रेलिया रख लिया तो उसी आधार पर परवर्ती मानव-वैज्ञानिकों और भाषा शास्त्रियों ने यहाँ की मूल प्रजातियों और भाषाओं का 'प्रोटो आस्ट्रेलाइड' और 'आस्ट्रिक' (दक्षिण) नामकरण किया।'' (जगदीश त्रिगुणायत : मुंडा लोक कथाएँ : पृष्ठ 26)
यानि कि यह मानकर चला जाए कि मानव सभ्यताएँ-संस्कृतियाँ और भाषाएँ सब यूरोप के पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण से ही पूरे विश्व में फैली। सारी सभ्यताएँ-संस्कृतियों और भाषाओं का मूल केंद्र यूरोप को मानकर ही आगे बढ़ा जाए। धरती के नक्शे के अन्य भूभाग, वहाँ की नदियाँ, आबोहवा, मिट्टी, वनस्पतियाँ सब बाँझ थीं। वहाँ न तो कोई सभ्यता-संस्कृति-भाषा पैदा हो सकती थी और न विकसित। ऐसी शुद्ध सम्राज्यवादी अवधारणा को स्वीकार करने का कोई कारण ही नजर नहीं आता।
भाषा विज्ञानी राजेंद्र प्रसाद सिंह का मानना है कि ''केवल आस्ट्रिकों को ही नहीं अपितु भारत के सभी जातियों को भूमध्यसागर के कूल-कच्छारों से आया हुआ साबित कर दिया गया है जैसे कभी धार्मिक स्थापनाओं में पृथ्वी पूरे ब्रह्मांड की धुरी मान ली गई थी। रोचक तथ्य यह है कि भूमध्य सागर के तट पर मुंडा भाषा परिवार की कोई भी भाषा नहीं बोली जाती है। संताली की लोक-कथाएँ तो एक अलग कहानी कहती है कि मानव दंपत्ति का जन्म, पूरब की ओर, समुद्र में 'हाँस-हाँसिल' नाम के दो पक्षियों से हुआ है। पश्चिम आया कहाँ से?'' (भाषा का समाजशास्त्र, पृ. 75)
इस भाषा परिवार के 'कोल' नामकरण को जार्ज कैंपबेल, डॉ चाटुर्ज्या और डॉ. रामविलास शर्मा जैसों की जिद को समझा जाए। दिनेश्वर प्रसाद यह स्वीकार करते हैं कि ''मैक्सम्यूलर द्वारा प्रस्तावित नामकरण ही आज स्वीकृत है। इस नाम के संबंध में तर्क यह है कि 'कोल' जिसका अर्थ संस्कृत में 'सूअर' है, एक अपमानजनक शब्द है और किसी जाति के लिए इसका प्रयोग अनुचित समझा जाना चाहिए।'' (वही पृ. 251)
'कोल' या 'कोलारियन' के संदर्भ में राजेंद्र सिंह का मानना है कि ''...श्रम, कृषि और हस्तशिल्प से जुड़ी मुंडा भाषाओं को कोलारियन अथवा कोल भाषाएँ कहना कहाँ तक सार्थक है?
संस्कृत में 'कोल' कहते हैं सूअर को। ब्रह्मा के विरोध में विश्वमित्र ने ने जिन बारह जीवों की रचना की थी, उनमें एक सूअर भी था। विश्वमित्र का यह विद्रोह ब्राह्मण-संस्कृति को एक चुनौती थी। इसलिए आर्यवादी भाषाओं में 'सूअर' एक गाली है। 'कोल' शब्द संताली में 'होड़' है। इसका मतलब यह नहीं है कि ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिरूप हैं। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि वहाँ 'कोल' के बदले 'होड़' का प्रयोग किया जाता है। यह 'होड़' ही हो-भाषा में 'हो' (मनुष्य) है। जब आदिवासियों को तिरस्कारवाची 'कोल' की संज्ञा दी होगी तब उन्होंने इसके विरोध में अपने को होड़/हो (मनुष्य) कहा होगा। शायद 'मुंडा' शब्द इस भाषा परिवार के लिए ज्यादा सार्थक और उपयुक्त होगा। मुंडारी भाषा के इस शब्द का अर्थ होता है - ग्राम प्रधान या सिर। यह शब्द उनके लिए सम्मानजनक है। इसीलिए मुंडा आदिवासी उपनाम के रूप में इस शब्द का प्रयोग करते हैं।'' (भाषा का समाजशास्त्र पृ. 79)
मुंडा भाषा परिवार की विशेषताएँ
डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के आलेखों एवं ग्रेगॉरी डी. एस. एंडरसन द्वारा संपादित 'द मुंडा लैंग्वेजेज' के आलेखों से 'मुंडा भाषा परिवार' की निम्न विशेषताएँ रेखांकित की जा सकती हैं :-
- मुंडा भाषाओं के ध्वनितंत्र की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। इनमें एक काकल्य स्पर्श ध्वनि का व्यवहार है। इसे अंग्रेजी में ग्लौटल स्टौप कहते हैं और इसके लिए प्रश्न चिह्न जैसा ध्वनि चिह्न बना देते हैं।
- इस परिवार में क्, त्, प् आदि व्यंजनों का एक अवरुद्ध रूप भी होता है। अन्य भाषाओं में ऐसी स्पर्श ध्वनियों के उच्चारण में पहले वायु का अवरोध है, फिर उसका विस्फोट होता है। जहाँ केवल वायु का अवरोध हो और विस्फोट न हो वहाँ अवरुद्ध व्यंजनों का उच्चारण होगा। अंग्रेजी में ये चेकड् कौन्सोनेंट् कहलाते हैं।
- इन भाषाओं की तीसरी विशेषता स्वरों की दीर्घता का अनिश्चित होना है। इनमें स्वर की दीर्घता पहचान में तो आ जाती है पर वह अर्थ विच्छेदक नहीं होती। चौथी विशेषता यह है कि इनमें सघोष महाप्राण ध्वनियों का अभाव है किंतु द्रविड़ भाषाओं की अपेक्षा ये महाप्राण ध्वनियों को अधिक सरलता स्वीकार करती हैं।
- इन भाषाओं की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि शब्द के आरंभ में ड्.,ञ् जैसी नासिक्य ध्वनियों का प्रयोग हो सकता है। बोंडा भाषा के ञेरी (शरीर), ड.कुइ (छोटी बहन) जैसे शब्दों में यह प्रवृति देखी जा सकती है।
- लिंगुआ पत्रिका के खंड 14, 1965 में कुइपर ने मुंडा भाषाओं के व्यंजन परिवर्तन पर आलेख लिखा था। इनमें जो अनेक प्रकार के परिवर्तन दिखाये गए हैं, उनमें एक वह है जहाँ क्-ख्-ग्-घ् ध्वनियाँ ह् में बदलती हैं। इनमें ख् और मुंडा भाषाओं की मूल ध्वनियाँ नहीं हैं। पूर्वी बंगाल की बोलियों तथा तमिल में मध्यवर्ती क्-ग् को ह् में बदलने की प्रवृति है।
- इन भाषाओं में ध्वनि परिवर्तन की एक विशेषता यह है कि द्- ड् ध्वनियाँ र् और ल् में बदलती हैं। तमिल के समान इनमे जहाँ-तहाँ आदि स्थानीय ल्के पहले अतिरिक्त स्वर जोड़ने की प्रवृति है, तथा कुछ मुंडा भाषाओं में आदि स्थानीय न् की जगह ञ् का व्यवहार होता है।
मुंडा भाषाओं की रूपात्मकता पर भाषा विज्ञानी पिनोव ने गंभीरता से काम किया है। उनका एक आलेख 'ए कंपैरिटिव स्टडी ऑफ दि वर्ब् इन दि मुंडा लैग्ग्वजेज इन भाषाओं की क्रियापदों पर प्रकाश डालता है। पिनोव के अनुसार मुंडा भाषाओं में कर्मसूचक सर्वनाम चिह्न क्रिया के बाद आता है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मुंडा भाषाओं के आदिम रूपों में कर्मसूचक संज्ञा शब्द भी क्रिया के बाद आता था। किंतु कर्ता के लिए उन्होंने लिखा है कि आदिम मुंडा भाषाओं में वह क्रिया के पहले आता था। वास्तव में मुंडा भाषाओं का वाक्यतंत्र क्रियाभिमुख था। खड़िया के 'उड्तिं (मैं पीता हूँ) में 'उड्' क्रिया है, 'इञ्' कर्ता-सर्वनाम है।
आर्य और मुंडा भाषाओं के प्राचीन संबंधों का एक प्रमाण क्रिया और संज्ञा रूपों में द्विवचन का प्रयोग है। मुंडा भाषाओं में द्विवचन का प्रयोग अब भी होता है जबकि संस्कृत की उत्तराधिकारिणी भाषाओं में लुप्त हो गया है।
मुंडा भाषाओं की एक विशेषता यह है कि वे क्रियापदों के एक या अधिक वर्णों की, या अक्षर ध्वनियों की, आवृत्ति करती हैं। वर्ण की आवृत्ति बहुधा क्रिया के अर्थ को सघन करने के लिए होती है यथा संताली 'दल' माने मारना, 'ददल' माने ज्यादा मारना।
इस भाषा परिवार की क्रियापद रचना संयोगात्मक या संश्लिष्ट है। क्रियामूल में प्रत्यय जोड़कर वचन-पुरुष का बोध कराना और क्रिया की पूर्णता, अपूर्णता, निरंतरता आदि का बोध कराना मुख्य बात है। इस दृष्टि से संस्कृत और मुंडा भाषाओं में जबरदस्त समानता है। क्रियापदों में सहायक शब्दांश जोड़े जाते हैं। कभी-कभी यह निश्चय करना संभव नहीं होता कि क्रियापद में जो कुछ जोड़ा गया है, वह प्रत्यय है या स्वतंत्र शब्दांश। इन भाषाओं में क्रियापदों समेत विभिन्न कोटि के शब्दों में प्रत्यय और उपसर्ग लगते हैं। यहाँ अंतप्रत्यय का भी प्रयोग होता। यह अंतप्रत्यय की प्रवृति न आर्य भाषाओं में है न द्रविड़ भाषाओं में। जैसे मुंडारी के कृत प्रत्यय जो क्रिया के प्रथम वर्ण के बाद 'न' मध्य प्रत्यय जोड़कर संज्ञा शब्द बनाते हैं :-
क्रिया-संज्ञा
मुंडारी हिंदी मुंडारी हिंदी
दुब बनाना नइ बनावट
ओल लिखना ओनोल लिखावट
दाल मारना दानाल मार
मुंडा भाषाओं में लिंग व्याकरणिक नहीं है। सभी जीवित प्राणी पुलिंग है और निर्जीव वस्तुएँ स्त्रीलिंग है। आवश्यकतानुसार संज्ञाओं में पुरुष और स्त्रीवाचक शब्दों का इस्तेमाल कर लिया जाता है।
संस्कृत पर मुंडा भाषाओं का प्रभाव :-
सुदीर्घ अवधि का साथ एवं समावेशी स्वभाव के कारण दोनों भाषा परिवारों ने एक दूसरे को प्रभावित किया है। फादर जॉन हॉफमैन एवं फादर पी. पोनेट के मुंडारी भाषा पर किए गए सघन कार्य को डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने आगे बढ़ाते हुए 'मुंडारी शब्दावली : अखिल भारतीय संदर्भ' पर महत्वपूर्ण कार्य किया है। मुंडा भाषाओं का संस्कृत पर प्रभाव का आकलन करते हुए उन्होंने काल्डवेल, गुंडर्ट प्रिजिलुस्की, कायपर, बरो आदि भाषा विज्ञानियों के कार्यों को रेखांकित किया है। इन विद्वानों ने यह स्पष्ट किया है कि संस्कृत भाषा की मूर्धन्य ध्वनियाँ मुंडा और द्राविड़ भाषाओं से आगत हैं, क्योंकि भारत के बाहर की आर्य भाषाओं में मूर्धन्य ध्वनियों का अभाव है।
संस्कृत की शब्दावली की परीक्षा करने के बाद प्रो. प्रिजिलुस्की ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इसमें 'म्ब' और 'बु' ध्वनियों वाले शब्दों में से अधिकांश मुंडा से गृहीत हैं, जैसे - अलाबु, कंबल, कदंब, तुंब, तुंबरू, निंब, निंबु, निंबुक, रंभा, उदुंबर, जंबु, जंबीर, शिंब और स्तंब।
कई पेड़ों-फलों के नाम मुंडा भाषाओं से संस्कृत में समाहित हुए हैं, यथा : नारिकेल, गुबाक, कदल, तांबूल, हरिद्रा, श्रृंगबेर, वातिंगन आदि। उसी प्रकार से स्थान के नाम यथा : कोसल-तोसल, अंग-बंग, कलिंग-गिलिंग आदि।
तुलनीय शब्दों के आधार पर कायपर ने कुछ ध्वनि-संबंधी नियम निर्धारित किए और ऐसे सतर शब्दों पर विचार किया जो मुंडा भाषाओं से संस्कृत और उसकी उत्तराधिकारिणी भाषाओं में आए, यथा : अराल, आकुल, कज्जल, कंठ, कनक, कबरी, कुंठ, कलिंग, खड्ग, खल्वाट, गण, घट, चाट, जंबाल, जाल, डाल, डिंब, तांबूल, तिमिर, तुमुल, दंड, दाड्मि, दुंदुभी, पतंग, पुंडरीक, फल्गु, मुकुर, लंपट, ललित, वातुलि, शकुंति, श्रृंखला, श्रृंगार, हला आदि।
मुंडारी पर संस्कृत का प्रभाव
डॉ. दिनेश्वर प्रसाद ने इस संदर्भ में सबसे पहले उन संस्कृत शब्दों का उल्लेख किया है जो संस्कृत और मुंडारी में एक ही रूप में उपस्थित हैं। यथा : अंक, अगम, अन्न, आहार, आत्मा, इतिहास, उदास, उचित, उत्तर, एकता, कमल, काल, कुंडल, गुरु, चंडी, चुंबक, नगर, नरक, मधु, माला, मुरली, मन, मुनि, सभा, समतल, समय आदि।
ऐसे कई संस्कृत शब्द भी हैं जो मुंडारी में रूप परिवर्तन के बावजूद पहचाने जा सकते हैं यथा : अंद मनोआ (अंध मानव), अंगोर (अंगार), कंता (कथा), चंदि (छंद), तुलम् (तूलम), दिसुम (देशम), दुखम-सुखम (दुखम-सुखम), पारकोम् (पर्यक्रम), सकम् (शकम), सिसिर (शिशिर) आदि।
इसी प्रकार संस्कृत शब्दों का ध्वनि परिवर्तन, व्याकरणिक कोटि परिवर्तन, अर्थ परिवर्तन आदि के साथ मुंडा भाषाओं में उपस्थिति के उदाहरण दिए जा सकते हैं।
स्पेक्ट्रम / कंटिनम सिद्धांत और मुंडा भाषा परिवार
तद्भव के अप्रैल 2015 अंक में श्री राजकुमार ने अपने शोधपरक आलेख, 'बहता नीर : आरंभिक आधुनिक भारत में भाषा और समाज' में औपनिवेशिक अनुकूलन से मुक्ति का आह्वान करते हुए भारतीय भाषाओं के स्वरूप पर विचार किया है और इनकी आंतरिक एकताओं को गहराई से रेखाकिंत करते हुए इनके समावेशी चरित्र को स्पष्ट किया है। इसी क्रम में वे भाषा के रूपात्मक एकता के स्पेक्ट्रम/कंटिनम सिद्धांत को निरूपित करते हैं। अपने आलेख में श्री राजकुमार, किशोरीदास बाजपेयी, बाबूराम सक्सेना के उद्धरणों से अपने सिद्धांत को सुस्पष्ट करते हैं। यथा : किशोरीदास बाजपेयी के 'हिंदी शब्दानुशासन' से उद्धृत यह उद्धरण ''काल की ही तरह देशभेद से भी भाषा बदलती है, बहुत धीरे-धीरे। आप प्रयाग से पश्चिम चलें, पैदल यात्रा करें, चार पाँच मील नित्य आगे बढ़ें, तो चलते चलते आप पेशावर या काबुल तक पहुँच जाएँगे पर यह न समझ पाएँगे कि हिंदी कहाँ किस गाँव में छूट गई, पंजाबी कहाँ प्रारंभ हुई, पश्तो ने पंजाबी को कहाँ रोक दिया। ऐसा जान पड़ेगा कि प्रयाग से काबुल तक एक ही भाषा है। ... इसी तरह पूर्व की यात्रा पैदल करने आप हिंदी की विभिन्न 'बोलियों' में तथा मैथिली, उड़िया, बंगला आदि में अंतर वैसा न लख पाएँगे। यही क्यों, दक्षिण की ओर चलें तो ठेठ मदरास तक पहुँच जाएँगे, भाषा संबंधी कोई भी अड़चन सामने नहीं आएगी। किंतु वायुयान से उड़ कर मद्रास पहुँचिए, जान पड़ेगा भाषा में महान अंतर है! आप कुछ समझ ही न सकेंगे''।
श्री राजकुमार का स्पैक्ट्रम सिद्धांत और वाजपेयी जी का उपर्युक्त उद्धरण आर्य भाषा से निसृत बोलियों-संपर्क भाषाओं की आंतरिक एकता की दृष्टि से शत-प्रतिशत यही सिद्ध होते हैं। झारखंड की संपर्क भाषाओं नागपुरिया, खोरठा, पंचपरगनिया, अंगिका आदि में भी यह एकता देखी जा सकती है। बंगाल और उड़ीसा के सीमा क्षेत्र के गाँवों-कस्बों में मिश्रित बोलियाँ विकसित हुईं और फली-फूली। पूर्वी सिंहभूम की सीमा पर प्रखंड है बहरागोड़ा, जिसकी सीमाएँ बंगाल और उड़ीसा दोनों से जुड़ी हैं, नतीजन वहाँ की संपर्क भाषा का रंग अनूठा है जिसमें उड़िया, बंगला और हिंदी की बोलियों ने मिलजुल कर एक अलग बहुरंगी बोली को जन्म दिया है। उसी प्रकार की अविष्कृति उड़ीसा और आंध्र के सीमा क्षेत्रों में परखी जा सकती है। किंतु यह मुक्त समावेशीकरण मुंडा भाषाओं के साथ नहीं हो सका है। यहाँ तक कि भिन्न मुंडा भाषा परिवार के लोग की आपस में उस क्षेत्र में प्रचलित हिंदी से निसृत बोलियों का ही संपर्क भाषा के रूप में उपयोग करते दिखते हैं। भाषा शास्त्रियों के लिए यह परिघटना एक चुनौती खड़ी करती है। विशेषकर स्पैक्ट्रम/कंटिनम सिद्धांतकारों को समावेशीकरण की बाधाओं का अध्ययन करना चाहिए। हालाँकि डॉ. डोमन साहू 'समीर' ने संताली और हिंदी का तुलनात्मक अध्ययन एवं डॉ. मथियस डुंगडुंग ने 'हिंदी और खड़िया : तुलनात्मक और विश्लेषाणात्मक अध्ययन' पर ग्रंथों का प्रकाशन कर संभवतः इस दिशा में कदम बढ़ाए हैं।
लेकिन यह भी लगता है कि सैकड़ों वर्षों से इन आदिवासी इलाकों में सदानों/गैर-आदिवासियों की उपस्थिति के बावजूद मुंडा भाषा परिवार की भाषाओं का संपर्क भाषा के रूप में सहज रूप से नहीं अपनाया जाना कहीं न कहीं मूलरूप में भिन्नता एवं भिन्न भाषा परिवार के सिद्धांत को ही प्रमाणित करता दिखता है। यह भी सत्य है कि विश्वविद्यालयों के भाषा विज्ञान के विभाग भारोपीय भाषा परिवार से ही इतना अभिभूत या मुग्ध रहे हैं कि मुंडा भाषा परिवार पर विचार करने के लिए अवसर ही नहीं निकाल सके हैं। आज भी मुंडा भाषा परिवार के भाषा विज्ञानी अध्ययन के लिए सबसे अच्छी किताब सन 2013 ई. में प्रकाशित ग्रेगॉरी डी.एस. एंडरसन द्वारा संपादित पुस्तक 'द मुंडा लैंग्वेजेज' ही है। अर्थ यह कि पहले भी मैक्सम्यूलर, कैंपवेल, विलियम जोन्स, फादर पेटर श्यिड्ट, फादर जॉन हॉफमैन, पी.ओ. वोन्डिग इस भाषा परिवार पर विचार कर रहे थे और आज भी लिविंग टन्गस इन्स्टीच्यूट फॉर एंडन्जेरड लैन्ग्ग्विजेज, सालेम, ओरगॉन, अमेरिका के निदेशक ग्रेगॉरी एंडरसन ही गंभीर काम कर रहे हैं। यह अत्यंत ही विचारणीय प्रश्न है। आज भी फादर हॉफमैन की सोलह खंडो की एन्साइक्लोपीडिया मुंडारिका एवं पी.ओ. वोन्डिंग की सात खंडो की 'ए संताली डिक्शनरी' न केवल इस भाषा परिवार की शब्द संपदा से हमारा परिचय करवा रही है बल्कि हमारे मानसिक आलस्य और उपेक्षा भाव को गहराई से चिन्हित भी कर रही हैं।
संदर्भ ग्रंथ
1. जी.ए. ग्रियर्सन : लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया
2. फॉदर जॉन हॉफमैन : एन्साइक्लोपीडिया मुंडारिका
3. जार्ज यूले : द स्टडी ऑफ लैंग्वेजेज : कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस
4. ग्रेगॉरी डी.एस. एंडरसन। द मुंडा लैंग्वेजेज : रोडल्ट्ज प्रकाशन
5. एफ. ए. यूक्सबॉन्ड : मुंडा-मग्यार-माओरी : ज्ञान पब्लिशिंग हाउस
6. सोफाना श्रीचंपा, पाडल शिडवेल : आस्ट्रोएशियाटिक स्टडीज : मोनख्मेर स्टडीज जर्नल स्पेशल इश्यू 2
7. संताली : ए नेचुरल लैंग्ग्वजेज : डॉ. पी.सी. हेंब्रम
8. रामविलास शर्मा : भारत का प्राचीन भाषा परिवार एवं हिंदी खंड. 3
9. श्री जगदीश त्रिगुणायत : मुंडा लोक कथाएँ : हिंदी राजभाषा परिषद, बिहार
10. डॉ. डोमन साहु 'समीर' : संताली भाषा और साहित्य (उद्भव और विकास)
11. डॉ. डोमन साहु 'समीर' : हिंदी और संताली तुलनात्मक अध्ययन
12. गणेश एन देवी : भारत भाषा लोक सर्वेक्षण : झारखंड की भाषाएँ
13. प्रो. (डॉ.) कृष्ण चंद्र टुडू : संताली का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन
14. डॉ. दिनेश्वर प्रसाद : मुंडारी शब्दावली : अखिल भारतीय संदर्भ
15. राजेंद्र प्रसाद सिंह : भाषा का समाजशास्त्र
16. राजकुमार : बहता नीर : आरंभिक आधुनिक भारत में भाषा और समाज : तद्भव अप्रैल 2015