आज वह घुट रही थी कि रवि चुप क्यों है -!!
जब रवि की बड़ी बड़ी शरबती आँखों में शीला की गहरी काली काली आँखों ने झाँका था
तो रवि ने अपनी आँखें ऐसे बंद कर ली थीं जैसे उसने शीला के पूरे वजूद को अपनी
लंबी लंबी पलकों वाली आँखों में समाँ लिया हो... उसको अपने साए में सुरक्षित
कर लिया हो... मोती को सीप में बसा लिया हो हमेशा के लिए...!
उस शाम दोनों उस पार्टी में आँखों ही आँखों में एक दूसरे से बातें करते रहे -
बिलकुल लेजर लाइट की तरह एक दूसरे का पीछा करते रहे... जैसे ही शीला चुपके से
उसकी ओर देखने की हिम्मत करती वो एकदम से अपनी नजरों से प्यार की हल्की सी
फुहार बरसा देता और दोनों मीठी सी मुस्कराहट के साथ आस पास के लोगों की ओर
जल्दी जल्दी देखने लगते की कहीं किसी और को उनके सितारों भरे आकाश और हर ओर
बिखरी चाँदनी का अहसास तो नहीं हो गया...! आज चीखते चिंघाड़ते ऑर्केस्ट्रा से
भी उनको बाँसुरी की सुरीली धुन सुनाई दे रही थी... शहनाई की आवाज गूँज रही
थी... हर ओर ऊर्जा की बचत करने वाली बत्तियों की मरी सी दूधिया रोशनी भी उनको
नीली नीली चाँदनी बरसाती हुई नजर आ रही थी।
ऐनी और श्याम की ये सातवीं वेडिंग-एनिवर्सरी थी... दोनों इस लिए बहुत खिले जा
रहे थे की उन्होंने जैसे आज टेनिस का डबल टूर्नामेंट जीत लिया हो। सेवेन-इयर्स
इच से वो भी डरे हुए थे... अंग्रेजों ने भी ये वहम बैठाया हुआ था कि अगर सात
साल शादी के निकल जाएँ तो समझो शादी आगे भी चलेगी। हालाँकि अब तो दो साल भी
गुजर जाने पर लोग अपने आप को बधाई देते देखे गए हैं। अब एक दूसरे की कमजोरियों
को बरदाश्त करने की सहनशीलता और माफ कर देने की नम्रता शायद शब्द-कोश से विदा
हो गए हैं...!
रवि ने कितनी बार श्याम को फोन करके मालूम करना चाहा था कि वो महिला कौन थी जो
उसके फंक्शन में आई थी जिसे देखकर रवि को अपनी पत्नी से और अधिक चिढ़ सी होने
लगी थी... ऐसी भी तो लड़कियाँ होती हैं जिनकी आवाज में भैरवी के कोमल सुर हो...
जिनके देखने से रोम रोम झूम उठे और जो मधुरता में संगीत की धुन बन जाए। श्याम
ना जाने क्यों रवि का प्रश्न हर बार टाल जाता पर दूसरे मित्रों को स्वयं ही आप
उसका नंबर बता देता।
एक दिन शीला कहीं जाने के लिए बाहर निकल रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी और उसने
ये सोचते हुए कि कौन इस समय बिना बताए चला आ रहा है। दरवाजे को चेन पर लगाकर
दरार से एक आँख से झाँकते हुए''कौन है'' पूछा। आवाज में थोड़ी सी घबराहट
थी''क्षमा कीजयेगा मैं बिना बताए चला आया हूँ, उस दिन श्याम के यहाँ आप से
मुलाकात हुई थी। बातें भी हुई थीं की आपने कहाँ पढ़ाई की है और आप आजकल क्या
करती हैं?''
"जी ठीक है आ जाइए मेरे पति भी बस नीचे आने ही वाले हैं", कहते हुए शीला ने
कुंडी हटाकर दरवाजा खोल दिया। अंदर आते हुए, आने वाले ने सर से सोला हैट
उतारकर झुकते हुए अँग्रेजी नमस्ते किया और शीला ने जल्दी से हाथ पीछे को कर
लिए कि कहीं घुटने मोड़ते हुए हाथ को चूमने के लिए दबोच ना ले। उसको कुछ कुछ
याद तो आया था कि महोदय कहाँ मिले थे पर उनका घर आ जाना कुछ समझ नहीं पा रही
थी शीला। पति के नीचे उतरने की ध्वनि से वो फिर से उठ कर खड़े हो गए। और हाथ
मिलाते हुए बताया कि फिल्म निर्माता है... "कैसे आना हुआ?" पति ने सीधा सवाल
पूछ लिया, सोचते हुए कि आज शीला कि चोरी पकड़ी गई। वह फिल्मों में जाना चाह
रही है। पति को पहले दिन से यह ख्याल परेशान करता रहता था कि सुंदर स्त्री से
विवाह कर के निबाह लेना आसान बात नहीं है।''शीलाजी ये आपको कहाँ मिले?'' पति
के सीधे सवाल से प्रोड्यूसर साहेब घबरा गए। शीला ने बता दिया पर बारीकी बताना
आवश्यक नहीं समझा क्योंकि सच्ची बात ये थी कि उसे स्वयं ही नहीं मालूम था कि
महोदय कैसे पधारे हैं। आप लोगों से मिलकर बहुत खुशी हुई फिर कभी आऊँगा जब आप
लोग बाहर नहीं जा रहे होंगे। और तेज तेज डग भरते आप ही कुंडी खोल जैसे आए थे
वैसे ही चले गए।
शीला खड़ी सोचती रही... काश इनकी जगह वो आ गया होता... वो अजनबी जिसने उसे फिर
से बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया है... वो जिसको हर समय देखने का जी चाहता
रहता है... जिसकी हँसी उसे हवाओं में... बारिश कि रिमझिम में और पुरवाई की
सरसराहट में भी सुनाई देती है। भला उसने स्वयं क्यों नहीं उस अजनबी का अता-पता
मालूम कर लिया...! वह आप ही मालूम कर लेती... उसने सोचा वो कोशिश करेगी...
अवश्य करेगी।
इस देश में यहाँ का यह कल्चर बन गया है। अगर गुजारा नहीं होता तो स्वतंत्रता
हासिल कर लो। आखिर भारत ने भी तो अंग्रेजों से स्वतंत्र कराया था अपने को -
अहिंसा द्वारा। वो भी कुछ ऐसा ही करेगी। स्वतंत्र हो जाएगी - छोड़ देगी पति
को... पर किसके लिए? वो आप ही आप चिंतित हो गई अपने इस तरह के ख्याल पर। जल्दी
से पति से कहा, "चलिए ना..." पति उसे घूरे जा रहे थे... वो उसे और अधिक कस कर
बाँधना चाह रहे थे। दोनों के विचार एक दूसरे के विरुद्ध एक ही समय में समय की
धारा के साथ बहे जा रहे थे।
अभी शीला अपने लंबे बालों को लहराती साड़ी का पल्लू सँभालती निकलने ही वाली थी
की उसके मोबाईल की सुरीली घंटी उसके पर्स में बजने लगी।
"पहचाना नहीं आपने?" खनकती सी गहरी आवाज शीला के छोटे छोटे लाल होते हुए कानों
से टकराई।
''नहीं पहचाना... अरे आप -! आप को मेरा फोन नंबर कैसे मिल गया? ...किसने
दिया... अरे कमाल हो गया... आप ही हैं ना...?"
''कौन... आप ही...?''
''मेरा नाम'आप ही' नहीं है...!
''मेरा मतलब है आप जो वहाँ थे...?''
''कहाँ थे?''
''मैं समझ गई...'' और वो खुशी के मारे आगे कुछ बोल ही नहीं सकी।
''आप चुप क्यों हो गईं... मैं आपकी आवाज सुनने को कब से मारा मारा फिर रहा
हूँ...''
"आवाज सुनने को बेचैन तो हुआ जा सकता है पर मारा मारा क्यों फिरना पड़ता है?''
शीला ने आवाज की कँपकँपाहट पर काबू पाते हुए पूछा।
हर फंक्शन में पहुँच जाता हूँ केवल इस आशा में कि आप आई होंगी। उस दिन श्याम
के घर भी इसी उम्मीद में चला गया था फिर आशा के ग्रुप के साथ'लव एट फर्स्ट
साइट' भी देखने चला गया... वैसे आपका नाम क्या है?''
''मैं क्यों बताऊँ, पहले आप बताइए...!!
''आपने कभी सूरज की ओर देखा है?"
''हाँ... देखने की बहुत कोशिश की थी पर जल जाती थी उसकी गरम गरम किरणों
से...!!''
''मैं भी चाँद की ठंडी किरणों की शीतलता से थर थर काँपने लगता था...''
''ऐसा तो कुछ भी नहीं होता था...!!''
''तो फिर क्या होता था?''
''बस कुछ होता था जिसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।"
''आप तो सचमुच की कावियत्री हैं...''
''नाम बताएँ अपना...'' उसने अपना पर जोर देते हुए कहा।
''रवि है मेरा नाम..."
''मैं शीला हूँ...''
'शीला की जवानी...'' उसने गाते हुए शरारत से कहा और खनकती हुई हँसी हँसने लगा।
शीला खो गई उस पहले दिन के मिलन में जब वो बार बार जोर जोर से हँसता और शीला
मजबूर हो जाती उसकी ओर देखने को...
''शीलाजी आपको मालूम है ना कि आप केवल सुंदर ही नहीं आपकी आवाज की मिठास मंदिर
का मधुर संगीत है मस्जिद की पवित्र अजान है... गिरजे की पाकीजगी है आपकी आवाज
में...''
शीला ये सब सुनने के लिए जैसे व्याकुल थी... बिलकुल चुपचाप एक एक शब्द जैसे
लिखती जा रही हो... उन गुदगुदा देने वाले शब्दों को बार बार सुनना चाह रही
हो... वह खामोश रही जब तक वो बोलता रहा... ना जाने क्या क्या कह गया अपनी धुन
में। जैसे आज मदिरा की दुकान पर मदिरा बे-पैसों के लुटाई जा रही हो... वो
प्यार के नशे में जैसे चूर होती जा रही हो... लड़खड़ा गई हो... पर किसी के
मजबूत बाजुओं ने उसे सँभाल लिया हो। फंक्शन में वह सफेद कुरते पाजामे में सब
से अलग दिखाई पड़ रहा था... उसकी कल्पनाओं का राजकुमार लग रहा था... अगर वह
दूसरी महिलाओं की ओर पल भर भी देखता तो शीला व्याकुल हो जाती... ना जाने
क्यों...! शीला को वह अपना सा महसूस होने लगा था...
शीला दुविधा मे पड़ी हुई थी कि किधर जाए किस से जुड़ी रहे और किस से नाता तोड़
ले...?
चौबीस वर्ष काले पानी कि सजा काटने के पश्चात अब वही अकेलापन वही वीरानी वही
अँधेरा उसको अपने जीवन साथी महसूस होने लगे थे। जीवन साथी जिसने पवित्र अग्नि
के नारंगी धनक रंगों के किनारे किनारे फेरे लगाकर साथ निभाने कि शपथ ली थी वो
तो गैरों के साथ सारा दिन कुछ काम के बहाने और कुछ काम मे अधिक से अधिक सफलता
पाने की लालच में... दूसरों को अपने से बहुत पीछे छोड़ देने की चाहत में...
कभी यह फैसला ना कर सका की अधिक उचित जीने का कौन सा अंदाज होना चाहिए। पत्नी
और बच्चों के बीच समय बिताना उसे समय की बर्बादी लगती। उस कीमती समय मे तो कुछ
अच्छे काम किए जा सकते है कुछ काम निकालने वाले लोगों से मिल लूँगा, बिजनेस
मिलेगा प्रोमोशन मिलेगा... ये होता दामोदर का उत्तर जब बच्चे और शीला मिल कर
विनती करते पति और पिता से कि आज छुट्टी का दिन हमारे संग घर मे बिता लीजिए...
"पापा मेरे साथ खेलने वाला कोई नहीं है। मुझे टेबिल टेनिस खेलना है, आज तो
संडे है आप चलिए मेरे साथ खेलने... पापा मना नहीं कीजिएगा... प्लीज पापा...!"
"अब मेरा यही काम रह गया है कि मै तेरा जी बहलाऊँ...? मजदूरी तू करेगा...?
तेरे पेट का नरख कौन भरेगा...?"
एयर कंडीशन कमरे मे गदीले कालीन कि तह जूतों के नीचे दबाकर बैठे बैठे चाय और
कॉफी के साथ सिगरेट का धुआँ उड़ाते और घंटी बजा बजा कर लंबी गोरी सुनहरे बालों
वाली और काली पतली कमर वाली... आगे पीछे से गोल गोल शरीर वाली सेक्रेट्रियों
को बार बार कमरे मे बुलाकर खिदमत करवाने को दामोदर मजदूरी करना कहता था। पर
बोलता ऐसे था जैसे... सीधा झोपड़पट्टी से उठ कर आया हो। शायद वो आखिरी दिन था
जब बेटे ने बाप से लाड़ में कुछ माँगा हो... अब मिले हुए को ठुकराना ही उसकी
आदत बन गई थी। स्कूल से देर मे आने लगा वहीं खेलता रहता। आखिरी बच्चा होता जो
खेल के मैदान से विदा किया जाता। वैसे भी वो बड़ा सा बस्ता लाद कर बस ही से
स्कूल भेजा जाता कि अय्याशी की आदत ना पड़े... एक ही तो बेटा है बिगड़ ना
जाए...!
शीला महसूस करती कि वो ना जाने कब से एक आदर्श इनसान की छवि बनाए हुए थी। वह
ना जाने कहाँ से और कैसे उसके जीवन मे बस चला आया और बिल्कुल ऐसे समाता जा रहा
हे जैसे 'जिग-सॉ पजल' मे टेड़े-मेढ़े टुकड़े एक दूसरे मे फिट होते जाते हैं और
चित्र अपनी सुंदरता और पूर्णता के साथ आगे बढ़ता जाता है और अंत में एक ऐसा
चित्र तैयार होता है जिसके टुकड़े देखने से महसूस ही नहीं होता था कि एक दूसरे
से जुड़कर ये ऐसी तस्वीर बनेगी। रवि और शीला ऐनि और श्याम की पार्टी को अपने
लिए भाग्यवान मानकर चल रहे थे।
शीला कि देखभाल रवि ऐसे करता जैसे न जाने कब से तरसा हुआ हो। बच्चों की तरह
उसके लिए खाना खुद निकालकर परोसता और जब वह खा रही होती तो उसे एकटक
निहारता... शरबती पुतलियों में चमक के दो सितारे नजर आने लगते थे। कपड़े भी
इस्त्री करने को खड़ा हो जाता था। शीला बिल्कुल चकराई रहती। उसने आज तक सपने
में नहीं सोचा था कि पुरुष ऐसे भी देखभाल कर सकते हैं। वो समझती थी कि महीने
मे एक बार पति ने हथेली पर पगार रख दी तो वही हो गई मजदूरी पूरे महीने की। अब
पति देव ऐश करेंगे और पत्नी मजदूरी... उसकी, घर की और बच्चों की देखभाल। रवि
तो ऐसा नहीं था वह काम पर भी जाता और पत्नी को भी उत्साहित करता कि वो भी लिखे
पढ़े, पेंटिंग करे या सोशल वर्क करे घर में बैठ कर समय न बरबाद करे। क्योंकि
अकेलापन इनसान का शत्रु होता है उलटे सीधे विचार जन्म लेने लगते है। ये कैसा
इनसान है...! कभी कभी डरने लगती कि ये सब कहीं खत्म न हो जाए, वह बदल न जाए!
बदलाव तो जीवन का एक अटूट सत्य है। अहसास भी नहीं होता है और चुपके से जैसे
स्टेशन पर रेलगाड़ी फिसलती हुई दाखिल हो जाती है और देखते ही देखते जगह बदल
जाती है... साथी बदल जाते हैं मंजिल आकर फिर खो जाती है वह इसी आँख मिचोली से
डरा करती थी। वह चाहती थी रवि के साथ एक ही स्टेशन पर बैठी रहे और रेलगाड़ी
कभी न आए।
उसे रवि के साथ नाव में सैर करना भला लगता। लहरों से खेलना, पानी के छींटे रवि
के मुँह पर डालना, उसका सफेद मलमल का कलफ लगा लखनवी कढ़ाई वाला कुर्ता जिससे
उसकी मजबूत बाँहें झलक रही होतीं जब उसका कुर्ता भीग कर उसके शरीर से चिपक
जाता तो भी वो हँसता रहता जैसे कह रहा हो शीला तुमको क्या मालूम तुम्हारे
हाथों से बरसाया हुआ यह जल मेरे लिए नव-जीवन की ध्वनि है... अपनापन है... जीवन
की सच्चाई है। यही तो जीना है!
सुबह से लेकर सूरज ढलने तक बड़ी बड़ी शीशों वाली बिल्डिंग में मेज पर सर झुकाए
और कानों में टेलिफोन लगाए समय बिता देना ही तो जीवन नहीं होता। हाँ पैसा तो
होता है... मगर पैसा कमाने के चक्कर में दिल बहलाने का समय खो चुका होता है।
उस समय को रोक लेने का मन नहीं करता पर इस समय को जो तुम पानी की बौछार कर रही
हो तुम्हारे होंठ तुम्हारा एक एक अंग तुम्हारे उलझे हुए हवा मे लहराते बाल
लहरों के साथ साथ मेरे मन मे हलचल मचा देते हैं... इस समय को जकड़ लेने का मन
करता है।
जकड़ तो गई थी शीला और पकड़ लिया था उसको पूस माघ के सूखे जीवन ने सावन भादों
बनकर रवि ने... रवि थोड़े समय के लिए जैसे ही घर पहुँचता फौरन फोन कर के उदास
आवाज में कहता कि उसको अँधेरा अच्छा नहीं लगता... उसको शीला से जुदा होना
पड़ता है... घर पहुँचते ही सवेरे की पूरब से फूटती हुई लाली की राह देखने
लगता। मुर्गे की अजान जिस से वो बहुत घबराया करता कि उसकी नींद टूट जाती थी...
अब उसकी प्रतीक्ष करता कि जल्दी अजान की आवाज आए तो वह निकल पड़े शीला के
द्वार... सर्दी की कड़कड़ाती सुबह को गाता हुआ प्यार के नशे मे मस्त शीला के
पास होता।
दोनों को अपनी राहों का कोई पता नही था कि किधर को जा रही है... केवल ये अहसास
था कि दो मतवाले जिनको कभी खुशी नही मिली थी अब वो खुशियों पर सवार नाचते फिर
रहे हैं हर हर बात पर जी भरकर हँसते दोनों। शीला की खनखनाती हँसी पर रवि झूम
उठता। उसके अपने घर में जैसे हँसी का काल पड़ा हो...
रवि इतना अच्छा बाप था कि अपनी बेटी के लिए हर दम शीला से बात करता कि वो कैसे
उसके जीवन में भी खुशियाँ भर दे... वहीं उसका पति दामोदर तो केवल शीला से यही
शिकायत करता रहता कि शीला उसको देर तक आफिस मे बैठने पर नाराजगी जाहिर करती
है... वह चाहता है कि शीला बच्चों को भी समझा दे कि उनको भी कोई शिकयात करने
की आवश्यकता नहीं है... इस बार वो पूरी तौर से प्रयत्न कर रहा है की उसे डबल
प्रोमोशन मिल जाए इस से पगार भी डबल हो जाएगी। काम तो पेट के लिए करता था
बच्चों को तो पैदा करवाने की उसकी जिम्मेदारी थी। बच्चे की हर कमजोरी शीला के
कारण थी और हर अच्छी बात दामोदर से विरसे मे मिली थी। धन एकत्रित करता अपनी
अय्याशी के लिए। शीला को कभी ना मालूम होने देता कि उसकी आमदनी कितनी है और
पैसे कहाँ छुपाकर रख रहा है।
रवि तो अपनी पूरी पगार अपनी पत्नी को दे देता था कभी ना पूछ्ता कि वो उन पैसों
से क्या कर रही है। उसका मानना था कि पत्नी तो घर की लक्ष्मी होती है... अपने
उसूलों को अपनी आपस की खट पट मे ना आने देता... शीला अक्सर सोचती अगर उसके पति
के भी कुछ उसूल होते तो आज वह रवि के पीछे क्यों पागल होती।
वो छोड़ देगी उसको... चौबीस वर्ष तो निभा लिए... क्या उसने अपने पूरे जीवन की
बलि देने का ठेका ले रखा है...!
ठेकेदार तो दामोदर था अपने परिवार के जीवन को अपने तौर से जीने के लिए मजबूर
करने का ठेकेदार - कोई अधिकार नही दे रखा था... दिशाओं की पहचान वो कराता
था... पूरब को पश्चिम और पश्चिम को पूरब कह दे तो वही सही होता... और रवि को
अगर शीला कह दे आज उसका रवि उत्तर से निकलेगा तो रवि अपने आने की दिशा बदल
देता। ना जाने कैसा अजनबी था...! जो पहले दिन से अपना सा ही लगता था...
दोनों के जीवन का एक हिस्सा बीता जा रहा था इसी उधेड़बुन मे कि साथ कैसे रह
सकेंगे...! कोई राह नजर ना आती... कोई उपाय समझ नहीं आता। साथ रहने की चाह जोर
पकड़ती जाती। जी चाहता साँझ की बेला जब पशु भी पैरों की मिट्टी झाड़ एक जगह हो
जाते है एक दूसरे के साथ रात बिताते है... पंछी भी चूँ चूँ कर परिवार को
इकट्ठा कर लेते है। जब तक उनका जोड़ा नही आ जाता घोंसले से हल्की हल्की हलचल
सी सुनाई देती रहती है। किंतु शीला और रवि चाहते हुए भी ऐसा नही कर पा रहे थे।
उनको थोड़ा सा समय भी अलग काटना कठिन होता जा रहा था। अँधेरी रातें नोचने को
दौड़तीं... रातें कम लंबी होती है पर उनकी लंबाई मीलों लंबी लगने लगतीं जब वो
अंधियारा अपने साथी से अलग काटना पड़े। लोग चलते चलते थक जाते है पर रवि और
शीला जैसे हार मानने को तैयार नही थे।
समाज की हार से कौन बच सका है...?
'रवि अगर तुम समय पर घर नही आए तो मैं पुलिस को बता दूँगी कि तुम शीला के साथ
समय बिताते हो। तुम्हरा जी घर में नहीं लगता। तुमको किस बात की कमी महसूस होती
है। मुझे बताओ मैं पूरी करूँगी... उस कुतिया से पीछा छुड़ाओ उसका तो पति
बेचारा भी नही संतुष्ट है उस से। कितना व्याकुल था अपनी पत्नी के लिए जब वो
तुम्हारे साथ गुलछर्रे उड़ा रही थी। कितना भला मानुस है कि उसको बाल पकड़ कर
बाहर नहीं निकाल दिया। तुम्हारे लिखी कविताओं की कापियाँ बना ली है मैंने। मै
तुम्हें कोर्ट ले जाऊँगी। छोड़ूँगी नहीं। ऐसा समझाऊँगी कि याद रखोगे...!
रवि बिल्कुल चुप खड़ा सुनता रहा। उस से लड़ा नही जाता था। आवाज भी ऊँची नहीं
कर पाता। पत्नी चिल्लाए जा रही थी... जितना वो चिल्ला रही थी उतना ही वो घुटता
जा रहा था...
नाव मे बैठा हिचकोले खा रहा था... शीला अपनी लंबी लंबी गुलाबी उँगलियों के
मदिरा के प्याले से उसके ऊपर दरिया के शीतल चाँदी जैसे चमकते जल का छिड़काव कर
रही थी पर वह दूर कही अंगारों पर बैठा था। वो भिगाए जा रही थी - रवि की हँसी
जैसे पथरा गई थी... उसकी शरबती आँखों का रंग हल्का पड़ गया था... आँखों मे दो
चमकते हुए सितारे भी डूब गए थे...!!