'साहित्य की स्त्री दृष्टि' पदबंध साहित्यिक परिदृश्य में रचयिता एवं पाठक के
रूप में पुरुष के समानांतर स्त्री की सक्रिय उपस्थिति का स्वीकार है। यह
साहित्य-पाठ की दो दृष्टियों को प्रस्तावित करता है। एक, पुरुष-रचनाकारों
द्वारा स्त्री को देखे-समझे-चित्रित किए जाने की पारंपरिक दृष्टि जो रचनाओं
में पात्र अथवा सूक्ति बन कर उभरती है और प्रकारांतर से समाज व्यवस्था को
पुष्ट करती है, जैसे कबीर एवं तुलसी की स्त्रीविरोधी उक्तियाँ, या प्रेमचंद
द्वारा आधुनिक एवं चेतन स्त्री मालती को सही संदर्भ में चित्रित न कर पाने की
अक्षमता। इस दृष्टि के केंद्र में पितृसत्तात्मक व्यवस्था रहती है, अतः
जाने-अनजाने रचनाकार स्त्री-पुरुष की रूढ़ छवियों को पोषित करता चलता है।
साहित्य-पाठ की दूसरी दृष्टि स्त्रियों द्वारा स्त्री, पुरुष, समय, समाज और
साहित्य को विश्लेषित करने तथा इनके अंतस्संबंध को गुनने की दृष्टि है। यह
दृष्टि रचना और पाठ के दौरान निरंतर द्वंद्वग्रस्त दिखाई देती है।
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के संस्कार उसकी सोच और भाषा को अनुकूलित भी करते हैं
और मनुष्य के तौर पर अर्जित चेतना उन संस्कारों के विरोध में जाकर नई जमीन
तोड़ने का आग्रह भी करती है। यह दृष्टि आत्मान्वेषण की अकुलाहट से बँधी है जो
लैंगिक विभाजन के इर्द-गिर्द बुन दी गई स्त्री-पुरुष की भूमिकाओं और रूढ़
छवियों को निरंतर चुनौती देती है। इस प्रकार साहित्य की स्त्री दृष्टि मुकम्मल
रूप में साहित्य के बहाने समाज की संरचनाओं को नए सिरे से पढ़ने का एक अलग
धरातल मुहैया कराती है, और इस प्रयास में साहित्य की पुंसवादी दृष्टि का विलोम
बन जाती है।
साहित्य की स्त्री दृष्टि एक वैश्विक वैचारिक अवधारणा है जो भारत में 1975 में
अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के साथ क्रमशः आकार लेती दिखाई देती है। इसके मूल
में स्त्री मुक्ति आंदोलन की राजनीतिक एवं वैचारिक प्रतिबद्धता को लक्षित किया
जा सकता है जो दास प्रथा की समाप्ति के आंदोलन के दौरान स्त्रियों की स्थिति
में सुधार कार्यक्रम के रूप में प्रकट हुई। स्त्री विमर्श चूँकि स्त्री
अस्मिता को केंद्र में लाकर उसे 'मनुष्य' रूप में समझे जाने की आवश्यकता पर बल
देता है, इसलिए यह अनिवार्य रूप में समाज की विभिन्न संस्थाओं - परिवार,
विवाह, धर्म, न्याय, मीडिया - और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को स्त्री के संदर्भ
में देखता है। यह निश्चित है कि मनुष्य की सभ्यता का इतिहास पुरुष को केंद्र
में रख कर पुरुष द्वारा अपने समुदाय के हितों की रक्षा के लिए लिखा गया है।
इसमें दलित वर्ग की भाँति स्त्री का स्थान भी 'गौण' अथवा 'अन्य' है जिसके
'होने' की सार्थकता पुरुष की सहयोगी के रूप में है। राजनीतिक सत्ता एवं धर्म
का संरक्षण पाकर यह सामाजिक हठधर्मिता कालांतर में संस्कार का रूप ग्रहण कर
लेती है और इस प्रकार स्त्री की इयत्ता को स्वतंत्र मनुष्य के रूप में न मान
कर पुरुष की पूरक इकाई के रूप में मानने लगती है। यह समय और समाज को एकांगी
अथवा खंडित दृष्टि से देखने और उसे ही स्वस्थ-समग्र दृष्टि, चिंतन, दर्शन एवं
इतिहास का नाम देने की हठधर्मिता का उदाहरण है। साहित्य की स्त्री दृष्टि
वर्चस्ववादी ताकतों के इस दृष्टि-दोष को दूर करने का प्रयास करती है। साहित्य
की पुंसवादी दृष्टि जहाँ अपनी सुविधा और मनोरथ के अनुकूल स्त्री की संपूर्ण
इयत्ता को परिभाषित करने का बौद्धिक-सांस्कृतिक प्रपंच है, वहीं साहित्य की
इतिहास दृष्टि स्त्री की आकांक्षाओं और संघर्ष का प्रतिबिंब है। अपनी बात कहने
से पहले चूँकि परंपरापोषित पूर्वाग्रहों को तोड़ने और पूरक पक्ष - पुरुष - के
भीतर स्त्री के प्रति संवेदनशीलता पैदा करने की माँग करती है, इसलिए यह
पितृसत्तात्मक व्यवस्था के पुनरीक्षण का बीड़ा भी उठाती है। साहित्य की स्त्री
दृष्टि चार रूपों में क्रियाशील दिखाई देती है :
* पुरुष-दृष्टि से विश्लेषित स्त्री-साहित्य की पुनर्व्याख्या
* पुरुष-दृष्टि से रचित साहित्य का पुनर्पाठ
* स्वयं साहित्य-सृजन द्वारा अपनी मनोकांक्षाओं की अभिव्यक्ति
* तमाम लैंगिक पूर्वाग्रहों से उपरत हो एक समग्र मनुष्य-समाज की निर्मिति का
स्वप्न
हिंदी साहित्य मूलतः पुरुष-रचित साहित्य है। आदिकाल से रीतिकाल तक की
साहित्य-परंपरा में मीराँबाई एकमात्र उल्लेखनीय स्त्री-रचनाकार के रूप में
साहित्येतिहास की पुस्तकों में दर्ज हैं, लेकिन अपनी रचनाशीलता और स्फूर्ति के
साथ वे औसत पाठक की स्मृति से नहीं टकरातीं। वे या तो चैतन्य महाप्रभु की
परंपरा में 'पग घुँघरू बाँध' नाचती भक्त हैं या सूरदास-रसखान की परंपरा में
'बसौ मोरे नैनन में नंदलाल' का आह्वान करतीं कातर प्राणी। आश्चर्य है कि भक्त
कवयित्री की संज्ञा देकर हिंदी की परंपरावादी आलोचना मीराँबाई के समूचे
साहित्यिक अवदान को अदृश्य कर देती है। वह राजसत्ता, कुलकानि और पितृसत्तात्मक
व्यवस्था को चुनौती देकर अपनी स्वतंत्र राहों का अन्वेषण करने हेतु बाहर की
विस्तृत दुनिया में निकली स्त्री-चेतना का पर्याय हैं लेकिन दुर्भाग्यवश कभी
इस रूप में विश्लेषित नहीं की जातीं। गत्यात्मकता, स्वतंत्र निणय लेने की
क्षमता और आर्थिक आत्मनिर्भरता के चलते वह पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था से
टकराने का माद्दा रखती हैं। संभवतः इसीलिए भक्ति की आत्मलीनता और निष्क्रियता
में बाँध कर हिंदी आलोचना उनके बड़े सरोकारों को दृष्टिओझल कर देती है। ठीक यही
दृष्टि-दोष सुभद्राकुमारी चौहान के साहित्यिक मूल्यांकन में भी दिखाई देता है।
उन्हें मात्र एक कविता 'खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी' तक सीमित
कर राष्ट्रीय धारा की कवयित्री बना दिया जाता है, जबकि अपनी कहानियों के
माध्यम से वे न केवल अपने युग की स्त्रियों के मानस को अभिव्यक्ति देती हैं,
बल्कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था के अमानुषिक रूप को भी उद्घाटित करती हैं। इसी
श्रृंखला में शिवरानी देवी और 'सीमंतनी उपदेश' की रचयिता को भी लिया जा सकता
है। शिवरानी देवी अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक 'प्रेमचंद : घर में' तथा कहानी
संग्रह 'नारी हृदय' में जिस निर्भीकता और ईमानदारी के साथ युग-सत्य और
स्त्री-आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देती हैं, और पुरुष की स्त्रीविरोधी दृष्टि
की पड़ताल करते हुए स्वयं स्त्रियों से स्वतंत्र भारत के निर्माण में कूद पड़ने
का आग्रह करती हैं ('समझौता' कहानी), वह उन्हें अनिवार्य रूप से प्रेमचंद का
विलोम बनाता है। किंतु इस प्रखर एवं ऊर्जस्वी कहानीकार की हिंदी साहित्य
द्वारा निरंतर उपेक्षा होती रही है। आलोचना की स्त्री दृष्टि इस सांस्कृतिक
प्रपंच को उघाड़ती है कि जहाँ मंडन मिश्र की इसलिए प्रशंसा होती है कि उन्होंने
पत्नी भामती के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए सद्य रचित ग्रंथ पर अपने नाम
की जगह पत्नी का नाम लिखा, वहीं गार्हस्थिक दायित्वों को पूरा करने के साथ-साथ
साहित्य-साधना करने वाली शिवरानी देवी न केवल प्रेमचंद की पत्नी के रूप में
पहचानी जाती हैं, बल्कि उनके कृतित्व को प्रेमचंद द्वारा छद्मनाम से रचित
साहित्य कहने का दुस्साहस भी कर लिया जाता है। 'सीमंतनी उपदेश' की रचयिता को
'अज्ञात हिंदू महिला' कहना और उनकी रचना को जमींदोज कर देना साहित्य की
पुंसवादी दृष्टि के समकक्ष स्त्री-दृष्टि को विकसित न होने देने की कुत्सित
कोशिश है। बंगमहिला (मूल नाम राजेंद्रबाला घोष) के साहित्यिक अवदान को प्रकाश
और चर्चा में लाकर हिंदी आलोचना बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में
स्त्री-चेतना के विकास में साहित्य एवं समाज की भूमिका पर गौरवान्वित होती रही
है, किंतु स्त्री-दृष्टि इस प्रश्न को केंद्र में रख कर पुनर्विचार की माँग
करती है कि क्यों अज्ञात हिंदू महिला के अस्तित्व को जानबूझ कर नष्ट कर दिया
गया, और क्यों बंगमहिला को 'विद्रोही' स्त्री-चिंतक के रूप में रेखांकित किया
गया जबकि उनका समूचा लेखन पुरुष-व्यवस्था के परंपरागत स्वरूप के प्रति स्त्री
की सहर्ष स्वीकृति का आख्यान है।
साहित्य की स्त्री दृष्टि विश्लेषण की प्रक्रिया को पाठ और पुनर्पाठ की
निरंतरता से जोड़ती है, मूल्यांकन की निरंकुशता में बाँध कर जड़ नहीं करती। वह
पुरुष के संदर्भ में अपनी इयत्ता को पढ़े जाने का विरोध करती है। स्त्री-लेखन
के लिए आत्माभिव्यक्ति जितनी जरूरी है उससे कहीं ज्यादा जरूरी है स्त्री की
स्वतंत्र भास्वर अस्मिता पर कुठाराघात करते साहित्य और सांस्कृतिक संरचनाओं का
विरोध। महादेवी वर्मा पुरुष रचित साहित्य में चित्रित स्त्री छवि के प्रति
पहले ही असंतोष व्यक्त कर चुकी हैं। 'श्रृंखला की कड़ियाँ' में वे लिखती हैं -
"पुरुष के द्वारा नारी का चरित्र अधिक आदर्श बन सकता है परंतु अधिक सत्य नहीं।
विकृति के अधिक निकट पहुँच सकता है, परंतु यथार्थ के अधिक समीप नहीं। पुरुष के
लिए नारीत्व अनुमान है, परंतु नारी के लिए अनुभव। अतः अपने जीवन का जैसा सजीव
चित्र वह हमें दे सकेगी, वैसा पुरुष बहुत साधना के उपरांत भी शायद ही दे
सके।'' (घर और बाहर)
महादेवी वर्मा की मान्यता के अनुमोदन में वर्जीनिया वुल्फ की उस टिप्पणी को भी
लिया जा सकता है जहाँ वे सिद्ध करती हैं कि पुरुष द्वारा रचित साहित्य में
स्त्री के अंतर्जगत को जानने की उत्सुकता नहीं, बल्कि उसे अपनी मर्दानगी की
प्रयोगशाला बनाने की लालसा है। उनकी दृष्टि में पुरुष पुस्तकों को एक ऐसा
मायावी दर्पण बना देना चाहते हैं जिनमें "मर्दों की आकृति को उसके स्वाभाविक
आकार से दोगुना करके दिखलाने की जादुई और मजेदार शक्ति'' हो। "इसलिए नेपोलियन
और मुसोलिनी दोनों औरतों की हीनता पर इतना जोर देते हैं, क्योंकि अगर वे हीन
नहीं होंगी तो वे बड़ा नहीं बन पाएँगे। ...अगर वह सच बोलना शुरू कर देगी तो
दर्पण की आकृति सिकुड़ने लगेगी ...दर्पण वाली तस्वीर की महत्ता अपार है क्योंकि
इससे जीवनी-शक्ति भर जाती है, स्नायु-तंत्र उत्तेजित हो जाता है। इसको हटा
लीजिए और मर्द उसी तरह मर जा सकते हैं जैसे नशेड़ी को कोकीन न दीजिए तो वह मर
जाता है।'' साथ ही वे इस तथ्य को रेखांकित करना भी नहीं भूलतीं कि "अगर मर्दों
द्वारा लिखे कथा साहित्य के अतिरिक्त औरतों का कहीं और अस्तित्व न होता तो
उनकी कल्पना अत्यंत महत्वपूर्ण प्राणी के रूप में की जाती; अत्यंत
विविधतापूर्ण; बहादुर और अधम; अद्भुत और घिनौनी; अनंत रूपवती और चरम विकराल;
उतनी ही महान जितने कि मर्द। कुछ का कहना है कि और भी ज्यादा महान। लेकिन यह
औरत तो कथा साहित्य में है। वस्तुतः तो जैसा प्रोफेसर ट्रेवेलियन बताते हैं,
उसे ताले में बंद किया जाता था, पीटा जाता था और फर्श पर पटका जाता था।
काल्पनिक रूप से उसका महत्व सर्वोच्च है; व्यावहारिक रूप से वह पूर्णतया
महत्वहीन है। कविता में पृष्ठ दर पृष्ठ वह व्याप्त है, इतिहास से वह अनुपस्थित
है। कथा साहित्य में वह राजाओं और विजेताओं की जिंदगी पर राज करती है;
वास्तविकता में वह उस किसी भी लड़के की गुलामी करती है जिसके माँ-बाप उसकी
उँगली में एक अँगूठी ठूँस देते हैं। साहित्य में कुछ अत्यंत प्रेरक शब्द, कुछ
अत्यंत गंभीर विचार उसके होंठों से झरते हैं; असली जिंदगी में वह कठिनाई से पढ़
पाती है, कठिनाई से बोल सकती है और अपने पति की संपत्ति है।'' (वर्जीनिया
वुल्फ, अपना कमरा)
यथार्थ और अभिव्यक्ति के बीच की यह ठीक वही फाँक है जो रीतिकालीन साहित्य में
स्त्री को सौंदर्य, विलास, सत्ता और समृद्धि की प्रतिमूर्ति बना कर प्रणयी
पुरुष को उसका कृपाकांक्षी बनाती है। रीतिकालीन साहित्य पारिवारिक रिश्तों की
गुंजलक में उलझ कर रोज-रोज का कठोर जीवन जीती स्त्री के संघर्ष और आकांक्षा का
चित्रण नहीं करता, जहाँ संबंधों का ऊबड़-खाबड़ विभाजन स्त्री को पाँव की जूती से
ज्यादा रुतबा नहीं देता। यह वह दृष्टिओझल कर दिया गया यथार्थ है जो रीतिकाल और
आधुनिक काल की संधि पर खड़ी स्त्री को 'भाग्यवती' के रूप में पहचान देता है, और
इस प्रकार अतीत की ओर जड़ें पसार कर स्त्री की दारुण स्थिति के ढके हुए इतिहास
को उघाड़ देता है। किंतु इसका अर्थ यह नहीं कि आधुनिक काल स्त्री के प्रति
समस्त पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों को छोड़ कर उसे चेतन एवं व्यक्तित्वसंपन्न
नागरिक बनाने में जुट गया है। साहित्य की स्त्री-दृष्टि एक गहन तलस्पर्शी
आलोचना-दृष्टि के साथ नवजागरण के एजेंडे को समझ लेना चाहती है। सामाजिक
कुरीतियों का विरोध, स्त्री शिक्षा का प्रसार एवं स्त्री की स्थिति बेहतर
बनाने के लिए कानूनी अधिकारों का प्रावधान - ऊपरी दृष्टि से नवजागरण आंदोलन
स्त्री-मुक्ति का पैरोकार दीखता है, किंतु गहराई में उतरते ही पता चलता है कि
यह मामूली परिवर्तन के साथ यथास्थितिवाद को बनाए रखने का उपक्रम है। स्त्री
शिक्षा का पाठ्यक्रम लड़कों के पाठ्यक्रम से अलगा कर सिलाई-बुनाई-कढ़ाई-मामूली
गणित एवं व्याकरण तक सीमित रखना और भारतेंदु जैसे आधुनिक काल के प्रणेताओं
द्वारा यह कहना कि "लड़कियों को भी पढ़ाइए किंतु उस चाल से नहीं जैसे आजकल पढ़ाई
जाती हैं जिससे उपकार के बदले बुराई होती है। ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि
वह अपना देश और कुल धर्म सीखें। पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा
दें।'' (भारतेंदु समग्र, पृ. 1013) इस बात का प्रमाण है। समाजसुधार आंदोलन के
समानांतर सांस्कृतिक पुनरुत्थानवाद की लहर का जोर पकड़ना दरअसल भारतीय संस्कृति
को अंग्रेजों से बचाने की आड़ में स्त्रियों को घर की चौहद्दी तक बांधे रखने का
सुनियोजित षड्यंत्र है। इसलिए स्त्री-दृष्टि जब प्रेमचंद, जैनेंद्रकुमार,
भगवतीचरण वर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे मानवतावादी स्त्रीचिंतकों की
रचनाओं का अनुशीलन करती है तो सहानुभूति की पहली परत उतरते ही ये रचनाकार
स्त्री की सामाजिक-सांस्कृतिक हीनता की अवधारणा का पोषण करते नजर आते हैं।
पुरुष-रचित साहित्य के स्त्री-पाठ के समानांतर स्त्री-दृष्टि उसी युग में
क्रियाशील स्त्री-पुरुष रचनाकारों का तुलनात्मक अध्ययन भी कर लेना चाहती है।
बेशक उस दौर का अधिकांश स्त्री-लेखन (उदाहरणार्थ बंगमहिला, चंद्रकिरण
सौनरेक्सा, उषादेवी मित्रा आदि) पितृसत्तात्मक व्यवस्था द्वारा दी गई दृष्टि
से ही संचालित होता है, लेकिन स्त्रियों के मूलभूत मुद्दों और स्त्री-मानस की
अभिव्यक्ति के निगूढ़तम क्षणों में वह अपनी नैसर्गिक ऊर्जा को अभिव्यक्त भी कर
देता है। स्त्री-दृष्टि से साहित्य का पुनर्पाठ एक और तथ्य को प्रकाश में लाता
है कि निबंध/संपादकीय में पुरुष रचनाकार सजग नागरिक के रूप में
स्त्री-अधिकारों की पैरवी करते दीखते हैं, किंतु अपने सर्जनात्मक साहित्य में
पात्रों एवं घटनाओं के आपसी द्वंद्व में वे अनजाने ही परंपरापोषित
पूर्वाग्रहों से संचालित हो जाते हैं। उदाहरण के लिए विधवा विवाह के समर्थन
में निबंधकार भारतेंदु की टिप्पणियाँ 'नीलदेवी' नाटक में विधवा विवाह के
पक्ष-विपक्ष में आयोजित डिबेट का रूप ले लेती है। लेखक के लिए यह बेहद
सुविधाजनक स्थिति है क्योंकि अब उसे किसी एक पक्ष में खड़े होने की बाध्यता
नहीं। इसके ठीक विपरीत उसी काल का स्त्री-लेखन 'स्टैंड' लेकर अपने मंतव्यों को
दृढ़ता एवं स्पष्टता के साथ पाठक तक संप्रेषित करता है। विधवा विवाह के संदर्भ
में भारतेंदु की दृष्टि का ढुलमुलपन उनकी 'धर्मग्रहीता' मल्लिकादेवी के
उपन्यास 'कुमुदिनी' (संभावित रचना काल 1878-1880 के बीच) में डिबेट की
व्यर्थता से ऊपर उठ कर कर्तव्य का रूप लेता है जहाँ लेखिका अपनी विधवा नायिका
का न केवल प्रेमविवाह संपन्न कराती हैं बल्कि विवाह के अनुष्ठानधर्मी उत्सव का
परित्याग कर स्त्री जीवन को बंदी बनाने वाली सांस्कृतिक अर्हताओं को अँगूठा
दिखाती हैं। ठीक यही बात प्रेमचंद के उपन्यास 'निर्मला' और शिवरानीदेवी की
कहानी 'साहस' के लिए कही जा सकती है जहाँ दहेज प्रथा एवं अनमेल विवाह के
प्रतिकार के लिए उठी कलम एक कृति (निर्मला) में स्त्री को सहानुभूति देकर उसकी
बेबसी को सींचती है, और दूसरी कृति (साहस) में उसे नायकत्व देकर स्वयं
स्थितियों से टकराने और अपना रास्ता खोजने की दृढ़ता देती है। स्त्री-दृष्टि से
साहित्य का पाठ करने पर ज्ञात होता है कि साहित्य में भी स्त्रियाँ कठपुतलियाँ
हैं, हाशियाग्रस्त हैं और 'स्त्रियोचित मूल्यों' की संवाहक हैं, जबकि मूल्यों
को 'स्त्रियोचित' विशेषण में बाँधने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि मूल्य मनुष्य
के व्यवहार को नियमित करने के लिए हैं, उसे लिंग में बाँट कर 'छूट' देने के
लिए नहीं।
एक अन्य तथ्य भी गौरतलब है कि समाज में पुरुष वर्चस्व के कारण संप्रेषण की
भाषा पुंसवादी हो गई है। साहित्य में भी वह ठीक इसी रूप में अभिव्यक्त होती
है। सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा झाँसी की रानी को 'मर्दानी' कहना जिस
सक्रियता, दृढ़ता, गत्यात्मकता, निर्भीकता और नेतृत्वशीलता जैसे गुणों की ओर
संकेत करता है, वे स्त्रियों के लिए आदर्श नहीं बताए गए हैं। यह 'पुरुषार्थ'
है जो 'पुरुषार्थ चतुष्ट्य' का नाम लेकर साहित्य को भी संचालित करता है। जाहिर
है इसकी रेंज से स्त्रियाँ पूरी तरह छूट जाती हैं। वे अधिक से अधिक 'जनाना'
कही जाती हैं जो किसी भी पुरुष के लिए गलीज 'गाली' से अधिक महत्व नहीं रखता।
यहीं इस तथ्य का उल्लेख किया जाना भी अनिवार्य है कि जितनी भी गालियाँ समाज
में प्रचलित हैं, वे स्त्रियों के अंगों या स्त्री-पक्ष के संबंधियों को लेकर
हैं जो भाषिक स्तर पर समाज में स्त्री को घृणित और हीन बनाने के लिए काफी हैं।
स्त्री-लेखन स्त्री के तलघर को उसकी सृजनेच्छा के साथ बाहर लाता है। रिश्तों
और साँसों की डोर में गुँथ कर जीवन जीते हुए वह पाती है कि परंपरा, संस्कृति
और साहित्य जिन स्त्री-छवियों का आरोपण उस पर करते हैं, और उसकी संपूर्ण
जीवंतता को 'सतीत्व' में बाँध कर उसे पंगु बना रहे हैं, वह उसके चेतन-अवचेतन
का सत्य नहीं है। वह लिखती है क्योंकि आत्माभिव्यक्ति की अकुलाहट उसे
राससुंदरी देवी (बांग्ला की पहली स्त्री-आत्मकथाकार) की तरह अपनी सीमाओं का
अतिक्रमण करना सिखाती है। वह पाती है कि तमाम आरोपित जड़ता के बावजूद जीवन और
जगत के बारे में उसकी दृष्टि, सोच, सपने और असहमतियाँ हैं जिन्हें सबके साथ
साझा करना दूसरे के संदर्भ में अपने को समझे जाना भी है। उल्लेखनीय है कि
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान स्त्रियों की अभिव्यक्ति पहले-पहल
सृजनात्मक रूप में प्रस्फुटित नहीं हुई, वरन बौद्धिक तेवरों के साथ समस्या और
रूढ़ियों का तार्किक विश्लेषण करने में हुई। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में
रचित 'सीमंतनी उपदेश', 'हिंदू स्त्री का जीवन' (पं. रमाबाई) और 'स्त्री-पुरुष
तुलना' (ताराबाई शिंदे) जैसी कृतियाँ भारतीय धर्मग्रंथों का विश्लेषण करते हुए
उन्हें मूलतः स्त्रीविरोधी भाषित करती हैं। महिमामंडन के जरिए स्त्री का शोषण
करते रहने के कुचक्रों का पर्दाफाश करते हुए पहली बार ये तीनों कृतियाँ स्त्री
को 'सती' अथवा रीतिकालीन नायिका के कुहासे से मुक्त कर मनुष्य रूप में देखने
का संस्कार देती हैं।
यह तय है कि जब-जब समाजसुधारक एवं चिंतक परंपरागत दबावों से मुक्त होकर
समाज-व्यवस्था के जीर्णोद्धार की कोशिश में जुटते हैं, तब-तब उनकी वैचारिक
चेतना सवाल बन कर हाशिए की अस्मिताओं को अपने प्रति आत्मसम्मान के भाव से
आलोकित करती हैं। जाहिर है इसीलिए 'सीमंतनी उपदेश' की रचयिता के तीखे-तुर्श
तेवर परवर्ती स्त्री-साहित्य में आत्मान्वेषण की अकुलाहट बन कर उभरे हैं जो
समाज का ध्यान दो बिंदुओं पर केंद्रित करना चाहते हैं। एक, पितृसत्तात्मक
व्यवस्था की संरचना, रणनीति एवं उद्देश्यों से परिचित होने की अनिवार्यता ताकि
स्त्रियों के साथ-साथ पुरुष भी समझ पाएँ कि उनकी मनुष्ता का आखेट कर आरोपित
एवं एकांगी भूमिकाओं को उनकी समग्र अस्मिता पर चस्पाँ कर दिया गया है। दूसरे,
इस तथ्य को रेखांकित किया जाना कि स्त्री-मुक्ति स्त्री द्वारा वर्जनाहीन
उच्छृंखल जीवन की पैरवी नहीं है, बल्कि यह किसी एक व्यक्ति/संस्था/समाज के
घनीभूत दबावों से मुक्त होकर एक संवेदनात्मक विवेकशलता से जीवन जीने की
सामंजस्यपूर्ण दृष्टि है। कृष्णा सोबती के साहित्य में आकर यह स्त्री को
'कामिनी' (रतिसुख का सामान) छवि से मुक्त कर स्त्री-यौनिकता के सोशल-बायलॉजिकल
संदर्भों में केंद्र में लाती है, तो मृदुला गर्ग के माध्यम से मातृत्व और
स्त्री-पुरुष के संदर्भ में स्त्री की आस्था और स्वायत्तता को उभारती है।
'हिंदू स्त्री का पत्नीत्व' लेख में महादेवी वर्मा ने स्त्रियों की जिस दारुण
अवस्था को चित्रित किया है, वह शिक्षा और सभ्यता के प्रसार के बावजूद आज भी
अधिसंख्य स्त्रियों का जीवन-सत्य है - "यदि हम कटु सत्य सह सकें तो लज्जा के
साथ स्वीकार करना होगा कि समाज ने स्त्री को जीविकोपार्जन का साधन निकृष्टतम
दिया है। उसे पुरुष के वैभव की प्रदर्शनी तथा मनोरंजन का साधन बन कर जीना पड़ता
है।''
स्त्री-लेखन मानो इसी बिंदु की परिक्रमा करते हुए बार-बार यही सवाल उठा रहा है
कि विवाह संस्था की जीवंतता और अन्योन्याश्रित भाव को स्त्री के सामाजिक दमन
का औजार क्यों बना दिया गया है? क्यों प्रगति के तमाम दावों के बावजूद समाज
रीतिकालीन सामंती दर्प के साथ स्त्री को 'देह' समझने और 'उपभोग' के बाद
दुत्कार देने के साथ संस्कार से बँध खड़ा है? यह वह सवाल है जो विवेक और
आत्म-संयम के खिसकते ही वैचारिक विघटन में तब्दील हो जाता है। 'देह' समझे जाने
का आक्रोश जब यौन शोषण के खिलाफ दैहिक उच्छृंखलता का रूप लेता है, तब
स्त्री-लेखन के तमाम समतामूलक सकारात्मक सरोकार ध्वस्त हो जाते हैं और
स्त्री-दृष्टि से रचित 'रीतिकालीन साहित्य' का मार्ग प्रशस्त करते हुए स्त्री
की पुंसवादी दृष्टि का आरेखन करने लगते हैं। दुर्भाग्यवश इक्कीसवीं सदी में
वैचारिक दृष्टि से शून्य ऐसी युवा पीढ़ी का आविर्भाव कथा और कविता के क्षेत्र
में हो चुका है जो बोल्ड लिख कर सनसनी के माध्यम से नाम कमाना चाहती हैं। जिस
परिमाण में लेखिकाओं की बाढ़ आई है, उस परिमाण में स्त्री-प्रश्न पर समाज न
संजीदा दिखाई देता है, न संवेदनशील। अपनी कामनाओं से संचालित यह स्त्री सिर्फ
अपने लिए समस्त समाज-संस्थाओं और जीवन-मूल्यों में परिवर्तन चाहती है। जाहिर
है, इस प्रक्रिया में वह पूरक दृष्टि से समय एवं समाज का पुनरीक्षण करने की
बजाय एकांगी एवं खंडित दृटि से अपने मनोवेगों की अभिव्यक्ति करने लगती है।
इसीलिए परिमाण में कम होने के बावजूद साहित्य की स्त्री दृष्टि का श्रेष्ठ
स्त्री-आलोचना द्वारा रचित है जो स्त्री-मुक्ति की पाश्चात्य अवधारणा को
भारतीय संदर्भ देकर उसे भारतीय समाज की अनिवार्यता बताती है। दूसरे, भावातिरेक
में बह कर किसी भी स्खलन को अपनी पहचान एवं मूल्य बनाने की प्रवृत्ति का विरोध
करती है। परिमार्जक का काम करते हुए स्त्री-आलोचना उपभोक्तावादी संस्कृति के
दुष्प्रभावों से स्वयं को बचा कर 'मनुष्य' बने रहने का आग्रह भी करती है, और
इस प्रकार स्त्री-लेखन को 'देह' का खुला खेल न बना कर सभ्यता समीक्षा में
स्त्री के योगदान की आवश्यकता को रेखांकित करती है।
साहित्य की स्त्री दृष्टि अपने आदर्श रूप में अर्धनारीश्वर की परिकल्पना का
आख्यान है। लैंगिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर वह पूरे समाज में मनुष्य एवं
नागरिक होने का बोध भर देना चाहती है। वर्चस्व का संबंध अनिवार्यतः दमन से
होता है, और सत्ता का संबंध शोषण से। अतः स्त्री-पुरुष संबंध की पुनर्रचना के
लिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था के मौजूदा ढाँचे को पूरी तरह ध्वस्त करना अनिवार्य
है। अर्धनारीश्वर की अवधारणा एक ध्रुव पर खड़े
यथास्थितिवादियों/संस्कृतिवादियों की जड़ सोच पर कुठाराघात करती है तो दूसरी ओर
दूसरे ध्रुव पर खड़े बोहेमियन स्त्रीवादियों की निरंकुशता का भी अस्वीकार है।
'अर्धनारीश्वर' शिव के पर्याय के रूप में नहीं, शिव और शक्ति, संवेदना और
विवेक, स्त्री और पुरुष की संयुक्ति का रूपक रचता है जहाँ 'मनुष्य' स्वयं अपने
भीतर संवेदना के स्तर पर स्त्री है, और निर्णयक्षमता के स्तर पर पुरुष। यह
अवधारणा सामाजिक उत्पाद के रूप में जेंडर की अवधारणा को अस्वीकार करती है तो
इसका अर्थ यह नहीं कि 'लिंग' के विभेद को भी अस्वीकार करती है। दरअसल लैंगिक
विभेद स्त्री-पुरुष की प्राकृतिक विशिष्टताओं के वाहक हैं; वे सोशल हाइरार्की
का कारण नहीं बन सकते। स्पेस के साथ समर्पण, दृढ़ता के साथ कोमलता, स्पर्धा के
साथ संरक्षण, स्वायत्तता के साथ सहभागिता के गुणों की संयुक्ति 'अर्धनारीश्वर'
की अवधारणा को बनाती है जिसे मीराँबाई अपने पदों में चिरकाम्य साँवरिया के रूप
में उपस्थित करती हैं और मृदुला गर्ग 'कठगुलाब' उपन्यास में विपिन के रूप में।
जाहिर है यह स्त्री रोती-बिसूरती-कुंठित-कलहप्रिया नहीं होगी जो बकौल कृष्णा
सोबती पहले अपनी करुणा से पुरुष की हिंसा पकाती है और फिर उसकी हिंसा से अपनी
करुण स्थिति मजबूत करती है।
साहित्य की स्त्री दृष्टि समाज के पुनर्संस्कार का बीड़ा है। आत्मानुशासन तथा
विवेक के साथ यह बदलती परिस्थितियों के अनुरूप अपनी दृष्टि को निरंतर परिष्कृत
करते रहने की दायित्वशीलता है। चूँकि यह 'ट्रायल एंड एरर' पद्धति के जरिए
आत्मालोचन की बीहड़ यात्रा है, इसलिए अपने स्खलनों और विघटन को भी जाँच लेना
चाहती है। आज मुख्यधारा के साहित्य में जिस प्रकार दलित एवं स्त्री लेखन को
साहित्य के समग्र स्वरूप के लिए घातक आक्रमण की संज्ञा दी जाती है, और अस्मिता
विमर्श को पश्चिम से आयातित अवधारणा कह कर पिछवाड़े डाल देने की रणनीति गढ़ी जा
रही है, उससे स्वयं स्त्री-रचनाकारों में अपने को सायास 'स्त्री' न कहलाने का
आग्रह बढ़ता जा रहा है। यह प्रवृत्ति शनैः शनैः घर करती जा रही है कि
स्त्रीदृष्टि मूलतः संकीर्ण और आत्मरतिग्रस्त होती है जो घर की चौहद्दी से
बाहर जीवन की जटिलताओं को देख ही नहीं पाती। प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि
स्त्री-लेखन एवं स्त्री-दृष्टि जैसी कोई चीज नहीं होती क्योंकि सृजन की
ऐकांतिक साधना में साहित्यकार अनिवार्यतः हर तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक विभाजन
से परे 'मनुष्य' होता है। लेकिन यह सामान्यीकरण अपने तईं इस बड़े सवाल को
जान-बूझ कर अनुत्तरित छोड़ देता है कि अपने व्यक्तित्व को प्रतिफलित करते हुए
जिस अंतर्दृष्टि के साथ लेखक रचनाशील है, वह लिंग-धर्म, वर्ग-वर्ण के
अनुशासनों और दबावों के भीतर ही आकार ग्रहण करती है? भय, स्वप्न या राग की बात
करते हुए स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, सवर्ण-दलित के कोण एक ही बिंदु से उठ कर
अनायास इतनी तेजी से दूर होते चलते हैं कि अकसर एक ही घर, एक ही समाज और एक ही
समय में साथ रहने वाले भी अजनबी दीखने लगते हैं। इसलिए स्त्री एवं दलित
रचनाकारों द्वारा रचा गया साहित्य अब तक के सुपरिभाषित साहित्य को कठघरे में
खींच लाता है और जान लेना चाहता है कि स्त्रियों और दलितों की उपस्थिति में
क्या वह अपनी उसी गर्वोन्नत मुद्रा में अखंड-अभंग साबुत 'मनुष्य' की गरिमा की
रक्षा का दावा दोहरा सकता है? चूँकि साहित्य का सवर्ण-पुरुष चरित्र उसके
रचयिता के अपने चरित्र का प्रतिबिंब है, अतः जरूरी है कि उस एकांगी-खंडित
अभिव्यक्ति को 'संपूर्ण' करने के लिए हाशिए पर धकेल दिए गए अंगों-उपांगों को
भी अपना दाय निभाने दिया जाए।