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विमर्श

अस्मिताओं में कैद इतिहास : जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन

शीतांशु


एक आई.सी.एस. अधिकारी के रूप में ग्रियर्सन समय-समय पर भारत के विभिन्न आंतरिक भागों में नियुक्त हुए थे। भारत में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, स्कूल इंस्पेक्टर, ज्वाइंट मजिस्ट्रेट जैसे पदों पर रहते हुए वे लगातार अध्ययनरत रहे और बिहार में कृषकों की स्थिति, विभिन्न भारतीय बोलियों और उपबोलियों के व्याकरण, भारत का भाषा सर्वेक्षण, तुलसीदास का आलोचनात्मक अध्ययन और हिंदी साहित्य का इतिहास जैसे विषयों पर उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य प्रकाशित किए। निःसंदेह एक अध्येता के रूप में भारतीय भाषाओं और साहित्य को समझने के लिए ग्रियर्सन अत्यधिक इच्छुक और प्रयासरत थे। भारतीय भाषाओं के क्षेत्र में ग्रियर्सन ने जिस सर्वेक्षण का प्रयास किया था आज आजादी के साठ साल बीतने के बाद भी भारत सरकार वैसा भाषा सर्वेक्षण करा पाने में असमर्थ रही है। ग्रियर्सन की इस कष्ट साध्यता के कारण ही भारत के कई विद्वानों ने उनकी आलोचना दृष्टि की सीमाओं को समझते हुए भी उन्हें अत्यधिक सम्मान दिया है। ग्रियर्सन की साहित्येतिहास की पुस्तक 'मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान' का हिंदी अनुवाद करने वाले श्री किशोरीलाल गुप्त ने इसे हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास माना है और पुस्तक के आरंभ में ग्रियर्सन की प्रशंसा में निम्न शब्द अंकित किए हैं -

'श्री ग्रियर्सन जी,

आपने विदेशी होते हुए भी हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास लिखा। हम हिंदी भाषा-भाषी इसके लिए आपके कृतज्ञ हैं, यह इसी से स्पष्ट है कि आपने जो कुछ लिखा, हमने उसे प्रायः उसी रूप में स्वीकार कर लिया और आपके द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान ने बाद में लिखे जाने वाले हिंदी साहित्य के इतिहासों के रूप-रंग को सँवारा।'1

इसी तरह 1932 में भारतीय विद्वानों ने ग्रियर्सन के सम्मान में एक स्मृति-ग्रंथ निकाला जिसमें रामकुमार वर्मा और पं. रामचंद्र शास्त्री ने ग्रियर्सन के लिए प्रशस्तियाँ लिखी हैं। इस ग्रंथ के समर्पण में यह लिखा गया कि - 'भारती और भाषिकी के प्रति आपकी विशिष्ट सेवाओं के महत्व का अतिशयोक्तिपूर्ण कथन असंभव है। अपने आगामी पीढ़ियों और शताब्दियों को भाषिक तथ्यों का एक कल्पतरु प्रदान किया है। आपने भारत के भाषा-संबंधी साहित्य को जितना समृद्ध किया है, उतना संसार का कोई देश गर्व नहीं कर सकता।' 2

हिंदी साहित्य के अमूल्य रत्नों तुलसीदास, मलिक मुहम्मद जायसी, विद्यापति और बिहारी को व्यवस्थित रूप में यूरोपीय जगत के समक्ष रखने का काम ग्रियर्सन ने ही किया। जायसी के बारे में ग्रियर्सन ने बहुत सम्मान के साथ यह मान्यता रखी है कि मलिक मुहम्मद का आदर्श अत्युच्च है और इस मुसलमान फकीर के संपूर्ण काव्य में, अपने देशवासी हिंदुओं के कुछ महात्माओं की सी विशालतम उदारता और सहानुभूति की शिराएँ सर्वत्र प्रवाहित हैं, जबकि हिंदू लोग अभी अँधेरे ही में उस प्रकाश के लिए टटोल रहे थे, जिसकी झलक उनमें से कुछ को मिल भी गई थी। तुलसीदास के प्रति ग्रियर्सन के हृदय में अतीव श्रद्धा थी और इनकी पुस्तक रामचरित मानस को वे हिंदुस्तान की दस करोड़ जनता के मध्य समादृत मानते थे। तुलसीदास पर उन्होंने कई लेख लिखे जिन्हें उन्होंने प्राच्यविदों के मध्य प्रस्तुत किया। इन लेखों में नोट्स ऑन तुलसीदास, कवित्त रामायण की रचना तिथि, तुलसीदास और बनारस में प्लेग विषयक नोट, तुलसीदास कवि और सुधारक, आधुनिक हिंदू धर्म और नेस्टोरियनों के प्रति उसका ऋण, क्या तुलसीदास कृत रामायण अनुवाद ग्रंथ है, इत्यादि प्रमुख हैं। तुलसीदास के बारे में ग्रियर्सन की स्पष्ट मान्यता है कि ''भारत के इतिहास में तुलसीदास का महत्व जितना भी अधिक आँका जाता है वह अत्यधिक नहीं है। इनके ग्रंथ के साहित्यिक महत्व को यदि ध्यान में न रखा जाए, तो भी भागलपुर से पंजाब और हिमालय से नर्मदा तक के विस्तृत क्षेत्र में, इस ग्रंथ का सभी वर्ग के लोगों में समान रूप से समादर पाना निश्चय ही ध्यान देने के योग्य है। ...पिछले तीन सौ वर्षों में हिंदू समाज के जीवन, आचरण और कथन में यह घुल-मिल गया है और अपने काव्यगत सौंदर्य के कारण वह न केवल उनका प्रिय एवं प्रशंसित ग्रंथ है, बल्कि उनके द्वारा पूजित भी है और उनका धर्म ग्रंथ हो गया है। यह दस करोड़ जनता का धर्मग्रंथ है और उनके द्वारा यह उतना ही भगवत्प्रेरित माना जाता है, अँग्रेज पादरियों द्वारा जितना भगवत्प्रेरित बाइबिल मानी जाती है।''3 मध्ययुग के साहित्य को ग्रियर्सन ने ही हिंदी साहित्य के स्वर्ण काल के रूप में याद किया है और यह भी कहा है कि अँग्रेजों के लिए यह जानना रुचिकर होगा कि जब ब्रिटेन राजदूतों के द्वारा प्रथम बार मुगल दरबार से संबंधित हुआ, जब ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई और दोनों जातियाँ जब जल और स्थल के कारण इतनी पृथक और दूरस्थ थीं, उसी समय दोनों राष्ट्र अपने साहित्यिक गौरव के चरम शिखर पर पहुँच गए थे।

ग्रियर्सन का यह भी प्रयास रहा कि प्राच्यविदों की चली आ रही परंपरा जो कि सिर्फ 'इंडियन ऐंटीक्वीटी' में ही गोता लगाते रहती है उसे संस्कृत के बाद भी हिंदुस्तान की साहित्यिक समृद्धि से परिचित कराया जा सके। इस तरह उन्नीसवीं सदी में ही उन्होंने प्राच्यविद्या के क्षेत्र में इस तरह की मान्यता रखकर और इस दिशा में कार्य कर अतीत में डूबे रहने की प्राच्यविदों की प्रवृत्ति में परिवर्तन लाया और भविष्य के अध्येताओं को भी पर्याप्त प्रभावित किया। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ''प्रथम तो प्राच्यविद्या विशारद मात्र संस्कृत की समाराधना में रत रहे, फिर बर्नफ की देख-रेख में उन्होंने पाली पर धावा किया। पिछले दिनों अमर प्राकृतों ने विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित किया। इस प्रकार हमारे शोध विषय का काल दिन-दिन और भी आधुनिक होता गया है। ...इतने पर भी यह संभव है कि प्राच्य विद्याओं के कुछ विद्यार्थी अब भी संस्कृत से पुराने प्रेम के साथ चिपके रहें, उनसे मैं आगे के इन पृष्ठों में सुलभ उस वैभवपूर्ण असंस्कृत सामग्री की परीक्षा करने के लिए कहूँगा, जिसमें कठिन संस्कृत ग्रंथों के अनेक भाषाभाष्यों के तथा व्याकरण, छंदशास्त्र, शब्द संग्रह, साहित्य और ऐसे ही अन्य अनेक विषयों पर लिखित शास्त्रीय ग्रंथों के नाम हैं।'' 4

प्राच्यविदों की परंपरा में हिंदी-हिंदुस्तानी के समृद्ध साहित्य के बारे में उर्दू शैली को छोड़कर अन्य बोलियों के बारे में और किसी प्राच्यविद ने इतना गंभीर अध्ययन तब तक प्रस्तुत नहीं किया था। ग्रियर्सन को यह भी प्रमाणित करना था कि जो कार्य वह कर रहे हैं वह अत्यधिक महत्वपूर्ण है इसलिए उन्होंने प्राच्यविदों द्वारा ही यूरोप में प्रसारित कुछ मान्यताओं को प्रश्न करने का भी प्रयास किया। यूरोप में यह मान्यता स्थापित थी कि भारतीय साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं हैं। चारणों की कविता के अपने माध्यम से ग्रियर्सन ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि भारतीय साहित्य में भी ऐतिहासिक ग्रंथ हैं और यह स्थापना उन्होंने यूरोपियन साहित्य से इसकी तुलना करते हुए रखी है। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ''जिस काम को टॉड इतनी गौरवपूर्ण शब्दावली में पहले ही कर गए हैं, उसी को पुनः करने की और भारतीय साहित्य पर लगाए गए इस आरोप को कि इसमें ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं हैं, ये राजपूत चारण किस प्रकार पूर्णतया निराधार सिद्ध कर देते हैं, यह संकेत करने की कोई आवश्यकता यहाँ नहीं प्रतीत होती। चारणों द्वारा प्रस्तुत इन वृतांतों का महत्व, जिनमें से कुछ के आधार नवीं शताब्दी तक के पुरातन ग्रंथ हैं, जितना ही अधिक आँका जाए, उतना ही कम है। यह सत्य है कि ऐसी अनेक कथाएँ हैं, जिनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद है, किंतु कौन सा तत्कालीन यूरोपीय इतिहास इनसे बरी है।''5

किंतु उनके चिंतन की इन सारी विशिष्टताओं के बाद भी अस्मिताई सीमाओं से उनकी इतिहास दृष्टि एवं आलोचना दृष्टि व्यापक तौर पर प्रभावित हुई है। हिंदी साहित्य के कई महत्वपूर्ण अध्येताओं ने स्पष्टतः ग्रियर्सन के लेखन में उनकी जातिगत और धर्मगत सीमाओं को रेखांकित किया है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. रामविलास शर्मा जैसे गंभीर अध्येता ग्रियर्सन के लेखन पर गंभीर आरोप लगाते हैं।

इन विवादों में सबसे पहले चर्चा जरूरी है ग्रियर्सन की भाषा दृष्टि की। भाषा साहित्य का मूल आधार है और अगर भाषा की समझदारी अस्पष्ट हो तो उसका प्रभाव साहित्य के स्वरूप और विश्लेषण पर अनिवार्य है। अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में कंपनी की भाषा-नीति, अर्थ-नीति, और प्राच्यविदों की दृष्टि के घाल-मेल ने हिंदी भाषा की व्यापकता को किस प्रकार सीमित कर दिया, उसके लचीलेपन को अस्मिताई आधारों पर कितना विकृत कर विश्लेषित किया गया, यह ग्रियर्सन में भी पर्याप्त रूप से चिह्नित किया जा सकता है। उन्नीसवीं सदी का मजेदार तथ्य यह है कि कोई विद्वान उर्दू को जनसमुदाय की भाषा मानता है तो कोई विद्वान हिंदी को। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो यह ढूँढ़ने के प्रयास लगभग नदारद हैं कि इनकी जातीय पृष्ठभूमि को एक समझ कर इनके अलगाववादी बिंदुओं की जगह इनके संपर्क सूत्रों की तलाश करें।

ग्रियर्सन भी अपनी भाषाई समझदारी में एक दूसरी ही अतिरंजना कायम करते दिखाई देते हैं। ग्रियर्सन भले ही एक ओर इस रूढ़िवादी स्थापना के विरोध में खड़े दिखाई दें कि संस्कृत से ही भारत की सभी भाषाएँ उत्पन्न हुई हैं, किंतु दूसरी ओर हिंदी प्रदेश की भाषाओं को संस्कृत से अलग कर उनमें ऐसा अलगाव देखते हैं जैसे उनका आपसी कोई संबंध न हो। रामविलास जी अपनी पुस्तक 'भाषा और समाज' में ग्रियर्सन की संस्कृत संबंधी और हिंदी-संस्कृत संबंध के बारे में रखी गई मान्यताओं का खंडन करते हैं। ग्रियर्सन की भाषा-नीति में रामविलासजी विद्वेष के बीज और ब्रिटिश कूटनीति का प्रसार देखते हैं। सबसे ज्यादा विवाद पैदा होता है बिहारी भाषा के बारे में ग्रियर्सन की मान्यता को लेकर। रामविलास जी ने लिखा है कि बिहारी भाषा ग्रियर्सन का अविष्कार थी। ग्रियर्सन की मान्यता थी कि मागधी प्राकृत से चार भाषाएँ उत्पन्न हुईं - बिहारी, बांग्ला, उड़िया और आसामी। बिहार की भाषा के बारे में ग्रियर्सन का कहना था कि वह हिंदी नहीं, बिहारी है। उनका मानना था कि बिहार की भाषाओं की प्रकृति हिंदी से कम और बांग्ला से अधिक मिलती है। इस संदर्भ में सबसे पहली गंभीर आपत्ति दर्ज की महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पत्रिका 'सरस्वती' के माध्यम से। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन की दृष्टि की सीमा को रेखांकित करते हुए लिखा कि बिहार वालों की भाषा की उत्पत्ति चाहे जिस भाषा से हो और उसकी प्रकृति चाहे जैसी हो बात यह है कि इस समय में शिक्षित और अधिकांश बोलते कैसी भाषा हैं।" 6 1923 में ग्रियर्सन की भाषा में भेद-भाव की नीति देखते हुए महावीर प्रसाद द्विवेदी ने एक लेख लिखा 'मर्दुम शुमारी की हिंदुस्तानी भाषा'। इस लेख में उन्होंने बताया है कि एक ही जिले में दो-चार कोस के फासले में बोली में अंतर पड़ जाता है। बोली के इस तरह बदलने को भाषा का बदलना मान लिया जाए तो कहीं-कहीं पर हर जिले में दो तीन बोलियों या भाषाओं की कल्पना करनी पड़ेगी।"7 द्विवेदी जी ने भाषाओं के इस अलगाववादी नीति के संदर्भ में सबल तर्क देते हुए लिखा है कि ''बोली में जैसे यहाँ, थोड़ी दूर पर अंतर हो गया है वैसे ही इंग्लैंड में भी हो गया है। यह बात मर्दुमशुमारी के सुपरिंटेंडेंट स्वयं भी स्वीकार करते हैं। पर वहाँ अँग्रेजों की अँग्रेजी बनी हुई है। उसमें भेद कल्पना नहीं की गई।''8

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन की भाषा-नीति पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि आखिर ग्रियर्सन हिंदुस्तानी नाम की भाषा को प्रधानता क्यों नहीं देते - ''इस देश की सरकार के द्वारा नियत किए गए डॉक्टर ग्रियर्सन ने यहाँ की भाषाओं की नाप जोख करके संयुक्त प्रांत की भाषा को चार भागों में बाँट दिया है - माध्यमिक पहाड़ी, पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी। आपका वह बाँट-चूँट वैज्ञानिक कहा जाता है और इसी के अनुसार आपकी लिखी हुई भाषा विषयक रिपोर्ट में बड़े बड़े व्याख्यानों, विवरणों और विवेचनों के अनंतर इन चारों भागों के भेद समझाए गए हैं। पर भेदभाव के इतने बड़े भक्त डॉक्टर ग्रियर्सन ने भी इस प्रांत में हिंदुस्तानी नाम की एक भी भाषा को प्रधानता नहीं दी।'' 9 हालाँकि ग्रियर्सन ने अपने लेखन में हिंदुस्तानी का जिक्र किया है किंतु इस हिंदुस्तानी के प्रति वे परंपरा में विद्यमान अस्मिताई सीमाओं से कितने ग्रस्त थे इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

महावीर प्रसाद द्विवेदी के विचारों से सहमत होते हुए डॉ. रामविलास शर्मा भी ग्रियर्सन की इस अलगाववादी भाषा-नीति में भारतीय जनमानस में अलगाववाद पैदा करने का लक्ष्य देखते हैं और अकादमिक जगत में इसके कुप्रभाव की ओर संकेत करते हैं। रामविलासजी ने अपनी पुस्तक 'महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' में ग्रियर्सन को विद्वेष कायम करने वाले के रूप में याद करते हुए लिखा है कि ''मगही, मैथिली और भोजपुरी-बिहार की ये तीन जनपदीय उपभाषाएँ हैं। इनमें भोजपुरी क्षेत्र बिहार और उत्तर प्रदेश (भूतपूर्व संयुक्त प्रांत) में बँटा हुआ है। यदि भोजपुरी को बिहारी भाषा कहा जाए, तो यह बिहारी भाषा जितनी बिहारी है उतनी है उत्तर प्रदेशी भी है। बिहारी नाम की कोई भाषा नहीं है, फिर भी ग्रियर्सन का अनुसरण करते हुए अनेक देशी-विदेशी विद्वान इस भाषा का उल्लेख करते आए हैं। बिहार की जनपदीय उपभाषाओं को चाहे कुल मिलाकर बिहारी भाषा की संज्ञा दी जाए, चाहे उन्हें अलग-अलग देखा जाए, मुख्य बात यह थी कि वे हिंदी की अपेक्षा बांग्ला भाषा के अधिक समीप मानी गई हैं। इससे जो लक्ष्य सिद्ध होता था, वह बनारस से लेकर पटना और दरभंगा तक एक विशाल क्षेत्र को हिंदी प्रदेश से अलग कर देना था।''10

अब यह भी देखें कि ग्रियर्सन की इस भाषाई समझदारी ने उनकी इतिहास-दृष्टि और साहित्य-दृष्टि को कितना प्रभावित किया। ग्रियर्सन की इस भाषाई समझदारी का सबसे पहला प्रभाव था खड़ी बोली के पद्य के प्रति उनकी अरुचि। चूँकि वे देशी भाषाओं के प्रति ज्यादा झुके हुए थे, यह उनकी मान्यता में ठीक नहीं था कि पद्य के लिए खड़ी बोली का प्रयोग किया जाए। अपने इतिहास-ग्रंथ में ग्रियर्सन ने लिखा है कि यह (हिंदी) संपूर्ण उत्तर भारत में गद्य की स्वीकृत भाषा हो गई, किंतु यह कहीं की देश भाषा नहीं थी, अतः इसका काव्य के क्षेत्र में कहीं भी सफल प्रयोग नहीं हो सका। उल्लेखनीय है कि अयोध्या प्रसाद खत्री ने उन्नीसवीं सदी में ही खड़ी बोली में पद्य के लिए आंदोलन की शुरुआत की। इंग्लैंड में रहते हुए भी फ्रेडरिख पिन्कॉट ने खड़ी बोली में पद्य के विकास के लिए प्रयास किया। पिन्कॉट ने वहीं से अयोध्या प्रसाद खत्री की पुस्तक 'खड़ी बोली का पद्य' का प्रकाशन एक प्रंशसात्मक भूमिका लिखकर किया। खड़ी बोली के महत्व को समझते हुए पिन्कॉट इस प्रयास का स्वागत कर रहे थे और यह मान्यता रख रहे थे कि यह बेढंगी बात है कि गद्य एक भाषा में लिखी जाए और पद्य दूसरी भाषा में। किंतु ग्रियर्सन की भेदपूर्ण भाषा-नीति का प्रभाव उनके साहित्य चिंतन पर पड़ा और उन्होंने खड़ी बोली में पद्य लिखे जाने का विरोध किया। जब अयोध्या प्रसाद खत्री की यह पुस्तक ग्रियर्सन के पास विचार के लिए भेजी गई तो उन्होंने पद्य के लिए ब्रजभाषा का पक्ष लेते हुए स्पष्ट शब्दों में अपना मत अयोध्या प्रसाद खत्री को लिख भेजा - ''आपकी खड़ी बोली का पद्य पुस्तक की प्रति मिली। इसका प्रकाशन बहुत सुंदर हुआ है। लेकिन मुझे खेद है कि मैं आपके निष्कर्ष से सहमत नहीं हो सकता। मेरे मत में यह अत्यंत खेद का विषय है कि खड़ी बोली का आंदोलन ऐसे असंभव कार्य पर इतना श्रम और धन व्यय किया जा रहा है।''11 ग्रियर्सन ने यह भी मान्यता रखी कि खड़ी बोली के काव्यभाषा बनने में अनेक कठिनाइयाँ हैं। उन्होंने यह मत रखा कि खड़ी बोली के विरोध का आधार उसके प्रति अभिवृत्ति या कोई नकारात्मक मनोवृत्ति नहीं है बल्कि खड़ी बोली की भाषिक संरचना ही काव्यात्मक संस्कार और छंदशास्त्रीय विधान के प्रतिकूल बैठती है।" 12

ग्रियर्सन ने जो इतिहास ग्रंथ लिखा उस पर भी उनकी इस भाषा-नीति का गंभीर प्रभाव पड़ा। खड़ी बोली हिंदी के प्रति उनके रवैये के कारण उनके ग्रंथ में उर्दू साहित्य को स्थान नहीं मिला, जिसका प्रभाव परवर्ती इतिहास लेखन पर भी साफ दृष्टिगोचर होता है। ग्रियर्सन ने अपने इतिहास-ग्रंथ की प्रस्तावना में लिखा है कि ''मैं न तो अरबी फारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ, और न तो विदेश से लाई गई साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही। और मैंने इन अंतिम को, उर्दू वालों को, अपने इस विचार क्षेत्र से जान बूझकर बहिष्कृत कर दिया है, क्योंकि इन पर पहले ही गार्सां द तासी ने पूर्ण रूप से विचार कर लिया है।'' 13 ग्रियर्सन का यह कथन कई सवाल खड़े करता है, जैसे, औपनिवेशिक दौर में हिंदी की व्यापकता को चिह्नित करने के बजाए, उसके जातीय तत्वों को पहचानने के बजाय विभिन्न विद्वानों का ध्यान अलगाववादी बिंदुओं की ओर ही क्यों लगा रहा? मजेदार तथ्य यह है कि अठारहवीं सदी में हिंदी भाषा के संदर्भ में विचार करने वाले विद्वानों की मान्यताएँ एक-दूसरे के एकदम विपरीत खड़ी दिखाई देती हैं और ज्यादातर ये मानते हैं कि उनकी भाषा का विस्तार व्यापक जनसमुदाय में ज्यादा है। ग्रियर्सन का विचार तो समय के साथ भाषाई समझदारी को और भी पीछे धकेलता जाता है - तासी हिंदुई हिंदुस्तानी का इतिहास साथ में रखते हैं और ग्रियर्सन हिंदी को देश भाषा न मानते हुए सिर्फ वर्नाक्यूलर का इतिहास रखना चाहते हैं। ग्रियर्सन अपने उक्त कथन में उर्दू के भारतीय संस्कारों को समझने के बजाए उसे विदेशी साबित करते हैं और यह भूल जाते हैं कि उनके पहले कितने सारे अँग्रेज विद्वान इसी भाषा को हिंदुस्तान के शासन के लिए उपयुक्त भाषा ठहराने में लगे हुए थे। गार्सां द तासी के लिए उर्दू यहाँ के व्यापक जनसमुदाय की भाषा थी और इसी दृष्टि से उन्होंने अपना इतिहास लिखा था, लेकिन ग्रियर्सन यह कहते हैं कि मैंने उर्दू को इसलिए छोड़ दिया है क्योंकि उस पर तासी ने पूरा विचार कर लिया है, जबकि होना यह चाहिए था कि ग्रियर्सन को तासी की मान्यताओं का विश्लेषण करते हुए और उनसे अपनी दृष्टि का अंतर स्पष्ट करना चाहिए था। उर्दू को बस इसी कारण अपने विश्लेषण से बाहर निकाल देना वाजिब नहीं लगता, वह भी तब जब उनका मानना था कि 'हिंदुस्तान' से उनका अभिप्राय राजपूताना और गंगा जमुना की घाटी से है।

मजेदार तथ्य यह है कि देशभाषा के प्रति ग्रियर्सन का आकर्षण इतना अधिक था और हिंदी भाषा के जातीय संस्कारों की उनकी समझदारी इतनी अधूरी कि प्रेमसागर की भाषा भी उनके लिए उर्दू ही ठहरती है। जबकि उनसे पहले सत्तर साल तक विद्वान उसे ही हिंदी, हिंदुई और साथ ही हिंदुओं की भाषा का आधार बनाने में लगे हुए थे। 'कंपनी के शासन में हिंदुस्तान' अध्याय में ग्रियर्सन लिखते हैं कि ''यह यूरोपीय लोगों को हिंदी नाम से ज्ञात और उन्हीं द्वारा आविष्कृत, अद्भुत संकीर्ण भाषा के प्रादुर्भाव का भी युग था। 1803 में, गिलक्रिस्ट की देख-रेख में लल्लूजीलाल ने अपना प्रेमसागर मिली जुली उस उर्दू जबान में लिखा, जो अकबर के खेमे के लोगों और बाजार के लोगों के मेल जोल से बनी थी, जहाँ प्रायः प्रत्येक जाति और देश के लोग एकत्र हुआ करते थे। हाँ, उन्होंने अरबी फारसी के बदले, केवल भारतीय मूल की संज्ञाओं और शब्दांशों के प्रयोग की विशेषता अवश्य रखी। इसका व्याकरण इसकी पूर्ववर्तिनी भाषा का ही था, किंतु सारा शब्दकोष पूर्णतया बदल गया था। नई भाषा यूरोपीय लोगों के द्वारा हिंदी कही गई और संपूर्ण भारतवर्ष में हिंदुओं की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई।'' 14

यहाँ महत्वपूर्ण है कि ग्रियर्सन प्रेमसागर को अविष्कार भी मानते हैं और उर्दू भी। यह तो सही है कि प्रेमसागर अविष्कार था किंतु यह एक ऐसा अविष्कार था जिसने हिंदी भाषा के स्वाभाविक विकसित होते स्वरूप से अलग इसे सिर्फ हिंदुओं की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किए जाने की नींव रखी। इसकी बड़ी सीमा थी कि इसमें से हिंदुस्तान की सामान्य बोल-चाल के शब्द निकाल दिए गए थे, अरबी-फारसी के स्वाभाविक शब्दों को भी इससे निकाल दिया गया था और ग्रियर्सन इस भाषा को उर्दू कहते हैं, देश भाषा का दर्जा नहीं देते। और भी महत्वपूर्ण ग्रियर्सन का यह कहना है कि नई भाषा यूरोपीय लोगों के द्वारा हिंदी कही गई और हिंदुओं की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई। आश्चर्यजनक है कि ग्रियर्सन इस बात का फक्र करते से जान पड़ते हैं कि एक ऐसी भाषा का अविष्कार अँग्रेजों ने किया जो सिर्फ हिंदुओं की राष्ट्रभाषा मात्र बन सकी। धार्मिक अस्मिताई आधार पर जिस तरह से ग्रियर्सन और उनके पूर्ववर्तियों ने अपना भाषा चिंतन विकसित किया उसने हिंदी प्रदेश में जिस सांस्कृतिक अलगाववाद को जन्म दिया वह आज भी खत्म होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है जबकि हिंदी अब इस प्रदेश में कोई समझता या बोलता न हो, यह नामुमकिन है। अँग्रेजों का यह अविष्कार सिर्फ इसलिए याद रखा जाना चाहिए कि हिंदी-उर्दू के स्वाभाविक जातीय विकास को ठेस पहुँचाने वाला यह पहला व्यवस्थित प्रयास था। ब्रिटिश इतिहासकारों की इन स्थापनाओं के कारण आज भी लोग उन आर्थिक कारकों को पहचानने में असमर्थ हैं जो धर्म से ज्यादा बड़ा आधार था हिंदी-उर्दू के अलग होने का। ग्रियर्सन जब प्रेमसागर की भाषा को हिंदुओं की राष्ट्रभाषा ठहराने लगते हैं तो रामविलासजी की यह मान्यता बिल्कुल ठीक प्रतीत होती है कि उनकी दृष्टि ने हिंदू गद्य और मुस्लिम गद्य की भावना को बढ़ावा दिया। आश्चर्यजनक है कि उन्हें 'अँग्रेजों की अविष्कृत भाषा' स्वीकार्य थी और हिंदी का सहज पद्य अस्वीकार्य था।

यह विचारणीय है कि परवर्ती साहित्येतिहास की परंपरा में उर्दू के शायर के रूप में स्थापित किए गए नजीर को उर्दू को देश भाषा न मानने वाले ग्रियर्सन के इतिहास में जगह मिल गई है। परवर्ती इतिहास में जनता का कवि नजीर किस तरह हिंदी साहित्य से धार्मिक अस्मिताई आधार पर अलग कर दिया गया और हिंदी साहित्य के विद्यार्थी अपनी जातीय परंपरा के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि को पढ़ने से किस कारण से वंचित रह गए यह विचारणीय है। ग्रियर्सन के इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि नजीर की कविता उन्हें बहुत पसंद नहीं है, लेकिन इसका कारण उसका उर्दू भाषा में होना नहीं है बल्कि उसकी अश्लीलता और असुरुचिपूर्णता है। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ''श्री फैलन का कहना है कि यह अकेले कवि हैं जिनकी रचनाएँ जनता तक पहुँची हैं और जो कुछ भी इन्होंने लिखा है, उसमें एक भी साधारण पंक्ति नहीं है। इन अत्यंत लंबे चौड़े कथनों से मैं सहमत नहीं। इनकी रचनाएँ निश्चय ही कुछ लोगों में अत्यंत प्रिय हैं, परंतु यह सर्वप्रियता तुलसीदास, सूरदास, जायसी और युग के अन्य महान कवियों की सर्वप्रियता के सामने कुछ नहीं है। मैं श्री फैलन कृत उनकी कृतियों के साहित्यिक मूल्यांकन से भी सहमत नहीं हूँ, क्योंकि यद्यपि वे जनसाधारण की भाषा में हैं, फिर भी इतनी अश्लील एवं असुरुचिपूर्ण हैं कि कोई भी यूरोपियन सुरुचि और शिक्षा का व्यक्ति उन्हें पसंद नहीं कर सकता।'' 15

ग्रियर्सन के इतिहास में नजीर को स्थान मिल जाना महत्वपूर्ण बात है। इसे आधार बना कर हम समझ सकते हैं कि अपने जातीय परंपरा के कवियों के साथ हमने कितना अन्याय किया है। किंतु ग्रियर्सन के इतिहास ग्रंथ के हिंदी अनुवादक किशोरीलाल गुप्त ने नजीर के विवरण पर अपनी टिप्पणी रखते हुए लिखा है कि नजीर हिंदी के कवि नहीं हैं, उर्दू के शायर हैं। किशोरीलाल जी के इस कथन पर यहाँ मैं यह टिप्पणी देना जरूरी समझता हूँ कि धार्मिक अस्मिता की सीमाओं को बढ़ाने में जितनी भूमिका अँग्रेजों ने निभाई है उसे स्थायी बनाने में भारतीयों ने कोई कम योगदान नहीं दिया है।

अब इसका थोड़ा विश्लेषण कि ग्रियर्सन के इतिहास की अवधारणा को उनकी अस्मिताओं ने कैसे प्रभावित किया। यह बताया जा चुका है कि हिंदी साहित्य के कई अमूल्य रत्नों से यूरोप को परिचित कराने का काम सबसे पहले ग्रियर्सन ने किया। कई विद्वान उसे ही हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास मानते हैं। ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य के इतिहास की सूचना देने वाले अपने से पूर्ववर्ती ग्रंथों की तुलना में अपने ग्रंथ को ज्यादा व्यवस्थित बनाया। शिवसिंह सरोज और अन्य पूर्ववर्ती ग्रंथों का सहयोग लेकर इतिहास लेखन के मानदंडों पर अपने ग्रंथ को उन्होंने और खरा बनाया। सरोज के महत्व को उन्होंने स्वीकार करते हुए लिखा है कि ''एक देशी ग्रंथ जिस पर मैं अधिकांश में निर्भर रहा हूँ और प्रायः सभी छोटे कवियों और अनेक अधिक प्रसिद्ध कवियों के भी संबंध में प्राप्त सूचनाओं के लिए जिसका मैं ऋणी हूँ, शिवसिंह सेंगर द्वारा विरचित और मुंशी नवल किशोर लखनऊ द्वारा प्रकाशित अत्यंत लाभदायक शिवसिंह सरोज है।''16 उन्होंने कवियों के बारे में जानकारी को और भी व्यवस्थित करने का प्रयास किया हालाँकि उसमें बहुत सारी त्रुटियाँ विद्यमान रहीं जिनकी ओर उनके अनुवादक किशोरीलाल गुप्त ने ध्यान आकर्षित किया है। इतिहास के काल विभाजन का प्रथम प्रयास उन्होंने ही किया। उनके ग्रंथ की कई विशेषताओं का आचार्य शुक्ल के भी इतिहास पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। कई कवियों के बारे में ग्रियर्सन और शुक्ल जी की मान्यताओं में काफी समानताएँ हैं। तुलसीदास के प्रति जैसा प्रेम ग्रियर्सन में दिखाई देता है वैसा ही सघन प्रेम आचार्य रामचंद्र शुक्ल में भी। मानस में शुक्ल जी को राम, सीता, भरत इत्यादि का चारित्रिक गुण और आदर्श स्थापना का प्रयास जैसे आकर्षिक करता है, ग्रियर्सन को भी ठीक वैसे ही करता है। माधुर्य, शील और आदर्श स्थापना का प्रयास ही ग्रियर्सन के आकर्षण का कारण है। इतना ही नहीं, तुलसीदास को अपना मानदंड बनाने के कारण अन्य कवियों के मूल्यांकन में ग्रियर्सन जैसी गलतियाँ कर गए हैं कुछ वैसा ही प्रभाव कुछ कवियों के संदर्भ में आचार्य शुक्ल में भी दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास के कालखंडों में जो रीतिकाल नामकरण किया है, उस नाम के बारे में सबसे पहली चर्चा ग्रियर्सन ने ही 'रीतिकाव्य' कालखंड के माध्यम से अपने इतिहास में की है। निश्चय ही ग्रियर्सन के इस पुस्तक के प्रकाशन ने हिंदी साहित्येतिहास की धारा को और गतिशील बनाया और अपनी संपदा के प्रति हिंदी जगत के बुद्धिजीवियों में और भी आकर्षण पैदा किया। किंतु इन उपलब्धियों के बाद भी अस्मिताई सीमाओं से उनका लेखन अत्यधिक प्रभावित था जिसने इतिहास की धारा को भी पर्याप्त प्रभावित किया है।

इस संदर्भ में सबसे पहले तुलसीदास और भक्तिकाल से ही आरंभ करते हैं। तुलसीदास की काव्यकला और विषय वस्तु की श्रेष्ठता के अलावा तुलसीदास ग्रियर्सन को इसलिए भी आकर्षित करते हैं क्योंकि रामचरित मानस के चरित्र स्वाभाविक ढंग से ईसाई मत की उपासना पद्धति के अनुकूल ठहरते हैं। एक समय तक हिंदी साहित्यकारों में यह मान्यता प्रचलित थी कि 'सूर-सूर तुलसी शशि'। ग्रियर्सन इस मान्यता को बदलना चाहते थे। इस मान्यता को बदलने में कोई दिक्कत नहीं है अगर इसका मानदंड उनकी काव्यकला और साहित्य का विषयवस्तु हो। ग्रियर्सन इस मान्यता को इसलिए भी बदलना चाहते थे कि यूरोपीय और ईसाई मानदंडों पर सूर की कविता से तुलसी की कविता ज्यादा पूर्ण उतरती है। ग्रियर्सन लिखते हैं - ''अपने देशवासियों द्वारा यह बाद वाले सूर, तुलसी के साथ-साथ काव्य कला की परम पूर्णता के सिंहासन के अधिकारी समझे जाते हैं, लेकिन यूरोपीय आलोचक इस बाद वाले कवि तुलसी को ही सर्वश्रेष्ठता का मुकुट पहनाना चाहेंगे और आगरा के इस अंधे कवि को उससे नीचा, यद्यपि फिर भी बहुत ऊँचा स्थान देंगे।''17 इसी तरह जब 'सुसंस्कृत' यूरोपीय मानदंडों का प्रश्न आता है तो कहीं कहीं उन्हें तुलसी की कविता में भी कमी दिखाई दे जाती है - ''तुलसीदास भी भारतीय काव्य प्रणाली के परंपरागत घने कुहासे से पूर्णतया ऊपर नहीं उठ सके हैं। मैं स्वीकार करता हूँ कि उनके युद्ध वर्णन प्रायः अस्वाभाविक और विकर्षक है और कभी-कभी दुखद और उपहासास्पद के बीच की सीमा का भी अतिक्रमण कर जाते हैं। देशी लोगों की दृष्टि में कवि के लिखे हुए ये ही सर्वोत्तम छंद हैं, पर मैं ऐसा नहीं समझता कि सुसंस्कृत यूरोपीय को इनमें कभी भी अधिक आनंद आ सकता है।''18

ईसाई मत के साथ इस लगाव ने ही उन्हें इस अवधारणा को विकसित करने के लिए प्रेरित किया कि भक्ति-आंदोलन के मूल में नेष्टोरियन ईसाई मठों का प्रभाव है। 'आधुनिक हिंदू धर्म और नेष्टोरियनों के प्रति उसका ऋण' निबंध उनके इतिहास की पुस्तक के लगभग बीस साल बाद 1907 में प्रकाशित हुआ था। इसमें ग्रियर्सन ने यह लिखा कि ''कोई भी मनुष्य जिसे पंद्रहवीं तथा बाद की शताब्दियों का साहित्य पढ़ने का मौका मिला है, उस भारी व्यवधान को लक्ष्य किए बिना नहीं रह सकता जो पुरानी और नई धार्मिक भावनाओं में विद्यमान है। हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते हैं, जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी भी देखा है। ...इस युग मे धर्म ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय हो गया था। यहाँ से हम साधना और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति की नहीं है, बल्कि जिनकी समता मध्ययुग के यूरोपियन भक्त बर्नर्ड ऑफ क्लेयरबक्स, टामस ए केंपिन और सेंट थेरिसा से है।'' 19 ग्रियर्सन यह स्थापित करने का प्रयास करते हैं कि दूसरी-तीसरी शती में नेस्टोरियन ईसाई मद्रास प्रेसीडेंसी के कुछ हिस्सों में आकर बस गए थे और भक्ति आंदोलन के सूत्रधारों को इन ईसाई भक्तों के संदेश से ही प्रेरणा प्राप्त हुई थी। कहना न होगा कि यह मान्यता कितनी तर्कहीन है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अत्यंत सबल प्रमाणों के आधार पर भक्ति की एक स्वाभाविक भावधारा के विकास को प्रमाणित किया है और ग्रियर्सन की इस अतार्किक मान्यता के बारे में लिखा है कि ''यह बात एकदम गलत है। अब इस अटकल के सहारे स्थिर किए हुए मत पर कोई विश्वास नहीं करता, इसलिए इसका उत्तर देना बेकार है।''20

इसी तरह कृष्ण काव्य का मूल्यांकन भी इसी ईसाईयत के प्रभाव में ही उन्होंने किया है। इसी क्रिस्टोमैथी के कारण उन्हें रामकाव्य की तुलना में कृष्णकाव्य में कमी दिखाई देती है। ग्रियर्सन ने लिखा है कि ''अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में भी कृष्ण काव्य रामानंद के उपदेशों के उदात्त तत्वों से रहित है। आत्म-विस्मृति ही नहीं, सर्व-विस्मृति उत्पन्न करने वाला, उस प्रेम-स्वरूप प्रिय के चरणों में निवेदित यह एकांतिक प्रेम, इसका सार है, जो प्रायः स्वार्थमय है। यह ईसाई धर्म के प्रथम और सर्वश्रेष्ठ आदेश की शिक्षा देता है, परंतु दूसरे आदेश को पूर्णतः भुला देता है। यह दूसरा आदेश इस प्रकार है - अपने पड़ोसी को उतना ही प्यार करो जितना स्वयं अपने को करते हो।'' 21

यह धार्मिक अस्मिता का प्रभाव ही था कि कबीर को इन प्राच्यविदों ने समन्वयवादी के रूप में देखा। कबीर के बारे में इस तरह की स्थापनाएँ दी गईं कि वे हिंदू और इस्लाम धर्म की प्रमुख विशेषताओं का समन्वय करना चाहते थे। परवर्ती इतिहास लेखन पर इस विचार का प्रभाव रहा और कबीर को लोगों ने धर्मगुरु और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के रूप में ही देखा, जबकि होना यह चाहिए था कि इस बात पर जोर दिया जाए कि कबीर ने कैसे लोगों से दोनों ही धर्मों के आडंबरों को त्याग देने का आह्वान किया था। कबीर को इस रहस्यवाद से मुक्त करने में हिंदी आलोचना का एक लंबा समय व्यतीत हो गया। इधर कबीर को प्रेम के कवि के रूप में स्थापित करने का प्रयास हिंदी आलोचना में कुछ विद्वानों ने किया है। वस्तुतः हिंदी साहित्य को समझने के लिए, इसकी विशाल धार्मिक सांस्कृति विरासत को समझने के लिए जिस व्यवस्थित, अंतर्दृष्टि संपन्न और पक्षधरताओं से रहित आलोचना-दृष्टि की जरूरत थी, ग्रियर्सन उसे पूर्णतः साध पाने में अक्षम रहे।

हिंदी क्षेत्र के आपसी संबंध को ग्रियर्सन समझ पाते और एक व्यवस्थित भाषा-दृष्टि तैयार कर पाते अगर अपने इतिहास-ग्रंथ में रामचरित मानस के बारे में लिखे गए अपने ही वक्तव्य को थोड़ा ध्यान से पढ़ लेते। रामचरित मानस अगर इस क्षेत्र के करोड़ों लोगों के हृदय से जुड़ा हुआ था तो इसका तात्पर्य यह भी है कि इस क्षेत्र के लोग, वे चाहे किसी भी प्रदेश के हों उनकी भिन्नता ऐसी नहीं है जैसी ग्रियर्सन को दिखाई देती है। अपने ही इतिहास-ग्रंथ में ग्रियर्सन ने मीरा के बारे में यह लिखा है कि मैंने मिथिला के लोगों से जबानी सुनकर इनके कहे जाने वाले कुछ गीतों का संकलन किया है। ग्रियर्सन की भाषा-दृष्टि और इतिहास-दृष्टि की यह कमी ही थी कि वे यह समझ नहीं सके कि ऐसा कैसे हुआ कि राजस्थानी मीरा की कविताएँ उनकी नजर में बांग्ला के करीब मैथिल प्रदेश में कैसे इतनी प्रचलित हुईं।

उनकी इन्हीं अस्मिताई सीमाओं ने उनके इतिहास के काल-विभाजन को भी प्रभावित किया। ग्रियर्सन के काल विभाजन के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जो कालविभाजन युगीन प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर होना चाहिए उस पर उनकी अँग्रेजियत और ईसाईयत हावी हो गई। अठारहवीं सदी के पहले तक के काल-विभाजन में तो युगीन साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने का कुछ प्रयास तो दिखाई देता है किंतु अठारहवीं सदी के बाद के साहित्यिक परिदृश्य को युगीन प्रवृत्तियों के माध्यम से पहचानने के बजाए उन्होंने कंपनी के शासन और महारानी विक्टोरिया के शासन के माध्यम से पहचानने की कोशिश की है। यह समस्या कई प्राच्यविदों के साथ रही है कि उनके द्वारा किए गए विवेचनों में अठारहवीं सदी के पहले के साहित्य में ईसाईयत और फिर बाद में औपनिवेशिक शासन का प्रभाव हावी हो जाता है। ग्रियर्सन ने यद्यपि सामग्री को कालक्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किंतु जब वे कहते हैं कि यह सर्वत्र सरल नहीं रहा है तो उसके पीछे यही कारण है कि साहित्य को समझने के लिए साहित्यिक मानदंडों के प्रयोग के बजाए वे अन्य प्रभावों को अपने विश्लेषण पर हावी होने देते हैं।

'कंपनी के शासन में हिंदुस्तान' और 'महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान' जैसे अध्यायों में, जो ग्रियर्सन के अपने समय के ज्यादा निकट है, ग्रियर्सन की भ्रांत धारणाएँ ज्यादा स्पष्टता से चिह्नित की जा सकती हैं। इस दौर के बारे में ग्रियर्सन का यह कहना है कि यह पुनर्जागृति का, उत्तरी भारत में मुद्रण यंत्रों के प्रारंभ का और प्रशंसनीय कार्य करने वाली आधुनिक ढंग की पाठशालाओं के श्रीगणेश का समय है। कहना न होगा कि जिस दौर की ग्रियर्सन इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, वास्तव में उसी दौर में अँग्रेजों ने भारत का आमूल-चूल दोहन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में कंपनी का खर्च अत्यंत न्यून था और उसका लक्ष्य आंग्लीयता को बढ़ाना था। ग्रियर्सन अठारहवीं सदी में मुगल साम्राज्य के पतन और मराठा के पतन को तो पूरा ध्यान में रखते हैं किंतु अँग्रेजों ने जो तबाही मचाई उसका जिक्र उनके इतिहास में कहीं भी नहीं आता। 'महारानी के भारत' का वर्णन करते हुए ग्रियर्सन यह लिखते हैं कि यह समय आंतरिक अशांतियों से मुक्त था और ज्ञान-प्रसार और ज्ञान-प्राप्ति के लिए हर तरह का प्रोत्साहन दिया जाता था जबकि कुछ ही समय बाद देश में उठे तूफान ने अँग्रेजी हुकूमत की कलई खोल कर रख दी। ग्रियर्सन के लिए नवजागरण का क्या मतलब था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उन्हें कहाँ तक ग्राह्य थी, यह उनके निम्न कथन से बड़ी आसानी से समझा जा सकता है - 'बंगला पत्रकारिता को कलंकित करने वाले राजद्रोही और कटुभाषी समसामयिकों की तुलना में, हिंदी समाचार पत्र नियमतः और सामान्यतः कहीं अधिक अच्छे हैं।' कहना न होगा कि अस्मिताई सीमाओं में कैद होकर व्यवस्थित से व्यवस्थित विद्वान भी महान गलतियाँ करता जाता है और निःसंदेह ग्रियर्सन का इतिहास-लेखन इसका उत्तम उदाहरण है।

संदर्भ

1. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान (अनुवाद- किशोरी लाल गुप्त), हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी, संस्करण- 1957

2. मुरलीधर श्रीवास्तव, हिंदी के यूरोपीय लेखक, विहार हिंदी ग्रंथ अकादमी, पटना, 1973, पृ.113

3. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, द मॉडर्न व वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान (अनुवाद - किशोरी लाल गुप्त), वही, पृ.124

4. वही, पृ.43

5. वही, पृ.49

6. रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ.234

7. वही, पृ.234

8. वही, पृ.235

9. वही, पृ.235

10. वही, पृ.234

11. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, भाषाई अस्मिता और हिंदी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992, पृ.162

12. वही, पृ.162

13. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान (अनुवाद - किशोरी लाल गुप्त, वही, प्रस्तावना से

14. वही, पृ.229

15. वही, पृ.151

16. वही, पृ.45

17. वही, पृ.53

18. वही, पृ.132

19. हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 1990, पृ.58

20. वही, पृ.59

21. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन, द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान (अनुवाद- किशोरी लाल गुप्त), वही, पृ.284


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