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कविता

मुकाम

प्रयाग शुक्ल


हम कहीं दूर चले जाते हैं। वापस आते फिर।
और उस जगह का नाम मालूम नहीं।
आकाश छ्त नहीं है, एक नीली गहराई में
नहीं, वह फैला हुआ नीला है
जिसका कोई शरीर नहीं। 'मुक़ाम सब उसी मुक़ाम
पर पहुँचते हैं' - फ़ैयाज ने कहा। फिर एक थाप है
शरीर से कुछ ले जाती हुई। हम सब डूब जाते
हैं। अनेकों बार मैंने अपने को डूबते हुए
देखा है। फिर वह शरीर वही शरीर नहीं रहता।

फ़ैयाज - तबला वादक फ़ैयाज खाँ


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