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कविता

बात

प्रयाग शुक्ल


उस बात के सिरे के लिए कोई
शब्द नहीं है शुरू में।
और जितने आते हैं उन्हें हम एक-एक कर
अधूरा मानते हुए छोड़ने लगते हैं।
हम कई चीजों को याद करते हैं
और पाते हैं कि वे उस बात के बीच
की नहीं हैं। यह एक लंबा सिलसिला है।
अंत में हम उठ पड़ते हैं,
कापी कलम और सिगरेट का पैकेट
सँभालते।


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