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कविता

बिस्तर

प्रयाग शुक्ल


रात आती है -
बिछ जाता है बिस्तर।
बिस्तर रहता है
और उसका भरोसा।
लौटूँगा लेटूँगा
फैलाकर पाँव -
पारकर
फिर एक दिन !

घट जाती है एक दिन में
कितनी ही चीजें !

यह जो मैं पड़ा हूँ
बिस्तर पर -
न जाने कितने दोनों का
पुलिंदा !
क्या साबुत ?

उठकर बैठ जाता हूँ -
फिर देर तक
नहीं आती नींद !


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