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प्रेमचंद की शेष रचनाएँ

प्रदीप जैन

अनुक्रम परिशिष्ट पीछे    

'असरारे मआबिद' : खोज किसी की
दावा किसी का

प्रेमचंद-स्मारक की व्यथा-कथा

प्रेमचंद और आर्य समाज

कृष्ण कुमार राय - यों नष्ट हो गईं
प्रेमचंद की पाण्डुलिपियाँ

उदयशंकर दुबे - मुरारी लाल
केडिया के दो पत्र

गगनेन्द्र कुमार केडिया - कहाँ हैं
प्रेमचंद की पाण्डुलिपियाँ?

संकलित रचनाओं की सन्दर्भिका

परिशिष्ट-1

‘असरारे मआबिद’ :

खोज किसी की दावा किसी का!

मुंशी प्रेमचंद का पहला उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ दीर्घकाल तक गुमनामी का शाप भोगता हुआ साहित्य-जगत् की आँखों से तब तक ओझल बना रहा जब तक कि उनके छोटे पुत्र अमृतराय ने उसे सन् 1962 में हिन्दी में अनुवाद करके ‘मंगलाचरण’ में सम्मिलित करके प्रकाशित नहीं करा दिया। ध्यातव्य है कि यह उपन्यास बनारस से मुंशी गुलाब चंद के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले एक अचर्चित तथा महत्त्वहीन से उर्दू साप्ताहिक ‘आवाजे खल्क’ में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था। प्रेमचंद का यह उपन्यास कभी पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ हो, इसका कोई संकेत प्राप्त नहीं होता, और सम्भवतः यही कारण है कि साहित्य-जगत् इस उपन्यास के अस्तित्व से ही अपरिचित बना रहा। इसके अतिरिक्त, प्रेमचंद ने इस उपन्यास में पंडित रतननाथ सरशार के प्रसिद्ध उपन्यास ‘फसाना-ए-आजाद’ की शैली का अनुकरण किया था और यह उपन्यास उनके अन्तिम उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ की भाँति अपूर्ण भी रह गया था, इसलिए यह भी सम्भव है कि स्वयं प्रेमचंद ने ही इस उपन्यास को विस्मृत कर देना उचित समझा हो, और इसी कारण से उन्होंने इस उपन्यास का उल्लेख तो क्या, कहीं कोई संकेत भी नहीं दिया है। और प्रेमचंद ही नहीं, उनके सम्पर्क के किसी व्यक्ति, यहाँ तक कि मुंशी दयानारायण निगम जैसे उनके किसी घनिष्ठ आत्मीय ने भी इस उपन्यास की कोई चर्चा नहीं की। ध्यातव्य है कि मुंशी प्रेमचंद जैसे सार्वकालिक महान् उपन्यासकार का यह प्रथम एवं अपूर्ण उपन्यास उनके देहावसान के लगभग 26 वर्ष उपरान्त साहित्य-जगत् को पहली बार हिन्दी में अनूदित होकर ही उपलब्ध हो सका। यह तथ्य भी अत्यन्त रोचक है कि मूलतः उर्दू में लिखा गया और प्रकाशित हुआ यह उपन्यास उर्दू में अपने मूल रूप में अभी तक भी उपलब्ध नहीं हो सका है और मदन गोपाल ने उर्दू में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ में इस उपन्यास को अमृतराय द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद से स्वयं उर्दू में अनुवाद करके प्रकाशित कराया है।

प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास ‘असरारे मआबिद’ के प्राप्त होने की कथा अत्यन्त रोचक है, साथ ही मदन गोपाल यह दावा भी करते हैं कि इसकी खोज उन्होंने की थी। मदन गोपाल के दावे के विपरीत अमृतराय को इस उपन्यास की खोज का श्रेय देते हुए डा. जाफर रजा लिखते हैं -

"असरारे मआबिद’ की चर्चा तो कुछेक आलोचकों ने की है किन्तु उन्होंने खोजपूर्ण दृष्टि नहीं अपनाई। बस इतना कहा जाता रहा कि ‘असरारे मुहब्बत’ या ‘इसरारे मुहब्बत’ नाम की प्रेमचंद की पहली रचना ‘आवाजे खल्क’ में छपी। इस उपन्यास को ढूँढ़ निकालने का श्रेय अमृतराय को है जिसे उन्होंने ‘मंगलाचरण’ संग्रह में सम्मिलित किया है।1

यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि प्रेमचंद अथवा उनके निकट सम्पर्क में रहे किसी भी व्यक्ति ने इस उपन्यास की कोई चर्चा नहीं की। प्रेमचंद के देहावसान के उपरान्त श्रद्धांजलि-स्वरूप प्रकाशित हसामुद्दीन गौरी की पुस्तिका ‘प्रेम सोग’ में इस उपन्यास का संकेत प्राप्त होने का उल्लेख करते हुए मदन गोपाल लिखते हैं -

"इसका हवाला मुझे हसामुद्दीन गौरी की ‘प्रेम सोग’ (1937 ई.) में मिला लेकिन वहाँ नाविल का नाम ‘इसरारे मुहब्बत’ था। गौरी के मुताबिक यह नाविल बनारस के ‘आवाजे खल्क’ में शाया हुआ था।2

और -

"जब मैं 1942-43 में प्रेमचंद पर अंग्रेजी में किताब लिख रहा था तब हसामुद्दीन गौरी का ‘प्रेम सोग’ पढ़ा। यह गौरी साहब का खिराजे अकीदत था जो उन्होंने प्रेमचंद के इन्तकाल के बाद लिखा था।... हसामुद्दीन गौरी का प्रेमचंद से ताल्लुक मकातीब के जरिये हुआ था, शायद बम्बई में मुलाकात हुई हो। मैंने 1943-44 में शाया हुई अपनी किताब ‘प्रेमचंद’ में ‘इसरारे मुहब्बत’ का हवाला दिया। इन्द्रनाथ मदान ने भी मेरी किताब में दी गई तफसीलात को अपनी किताब में जगह दी।3

स्पष्ट है कि हसामुद्दीन गौरी ने प्रेमचंद के इस सर्वप्रथम उपन्यास की चर्चा 1937 में ही कर दी थी परन्तु मदन गोपाल इसे खोजने में सफल न हो सके। उन्हीं के शब्दों में -

"मैं 1948 में फिर बनारस गया। मोहतरिमा शिवरानी देवी और प्रेमचंद के सौतेले भाई से ‘आवाजे खल्क’ के बारे में मालूमात हासिल करने की कोशिश की। उन्हें भी ‘आवाजे खल्क’ के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। मैंने ‘आवाजे खल्क’ के दफ्तर को ढूँढ़ निकाला। मैं वहाँ गया और पुरानी फाइल भी देखी मगर मुझे ‘इसरारे मुहब्बत’ नहीं मिला।4

1. प्रेमचंद : उर्दू-हिन्दी कथाकार,

2. तसानीफ प्रेमचंद : तलाश व तहकीक; आजकल, उर्दू, नई दिल्ली, अक्टू. 2003,

3. कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-1,

4. कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-1,

आश्चर्य है कि सन् 1948 में ‘आवाजे खल्क’ की फाइलों तक पहुँच हो जाने पर भी मदन गोपाल प्रेमचंद के इस पहले उपन्यास का पाठ क्या, शुद्ध नाम तक नहीं खोज पा सके थे। इससे मदन गोपाल का उपर्युक्त कथन ही सन्देहास्पद प्रतीत होता है। इस उपन्यास की खोज का श्रेय प्रेमचंद के कनिष्ठ पुत्र अमृतराय को है जिन्होंने इसे ‘आवाजे खल्क’ की फाइलों में से खोजकर प्रेमचंद के देहावसान के 26 वर्ष पश्चात् सन् 1962 में ‘मंगलाचरण’ में सम्मिलित करके प्रकाशित करा दिया। इसके सम्बन्ध में अमृतराय ने ‘मंगलाचरण’ की भूमिका में लिखा –

"असरारे मआबिद’ (देवस्थान-रहस्य) का हवाला मुझको दो-एक उर्दू आलोचना ग्रन्थों में देखने को मिला, लेकिन बस इतना ही कि ‘इसरारे मुहब्बत’ (!) नाम का एक किस्सा, मुंशीजी का, बनारस से निकलने वाले उर्दू साप्ताहिक ‘आवाज-ए-खल्क’ में सिलसिलेवार निकला। इतना ही सूत्र काफी हुआ, और इसे एक बहुत बड़ा शुभ संयोग मानना चाहिए कि उस पर्चे की फाइल मिल गई। यह एक निहायत गुमनाम सा पर्चा था जिसकी फाइल खुद उसके दफ्तर में ही मिल सकती थी, दूसरी किसी जगह उसके मिलने की कतई उम्मीद नहीं थी। नसीब अच्छा था जो यह फाइल अब तक वहाँ सुरक्षित रही आयी। बीच का एक अंक गुम हो गया है जिसका संकेत यथास्थान दे दिया गया है।1

उपर्युक्त उद्धरण में अमृतराय के उल्लेख ‘दो-एक उर्दू आलोचना ग्रन्थों’ में सम्भवतः हसामुद्दीन गौरी की पुस्तिका ‘प्रेम सोग’ भी सम्मिलित रही होगी। साथ ही इस उल्लेख से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद के इस प्रथम उपन्यास की चर्चा गौरी के अतिरिक्त कपितय अन्य उर्दू विद्वानों ने भी अवश्य ही की होगी, परन्तु इस सम्बन्ध में अमृतराय ने कोई निश्चित सूचना उपलब्ध नहीं की है। अन्य विद्वानों द्वारा इस उपन्यास की चर्चा का उल्लेख करते हुए डा. जाफर रजा लिखते हैं -

"असरारे मआबिद’ किताबी शक्ल में उर्दू में शाया नहीं हो सका है। उर्दू में प्रेमचंद अदबियात के माहिरीन इस नाविल का जिक्र करते थे लेकिन उन्होंने तलाश व जुस्तजू से दामन बचाए रखा। इतना कहकर इक्तिफा कर ली कि ‘इसरारे मुहब्बत’ के नाम से प्रेमचंद की पहली तखलीक ‘आवाजे खल्क’ में शाया हुई। इस नाविल की तलाश व दर्याफ्त की सआदत अमृतराय को हासिल हुई।2

1. भूमिका; मंगलाचरण,

2. प्रेमचंद : फन और तामीरे फन, 

यद्यपि डा. रजा ने किसी भी ऐसे उर्दू विद्वान् का नामोल्लेख नहीं किया जो उर्दू साप्ताहिक ‘आवाजे खल्क’ में ‘इसरारे मुहब्बत’ के प्रकाशित होने का उल्लेख करते हों तथापि उनके उपर्युक्त उल्लेख से अमृतराय द्वारा प्रस्तुत सूचना की पुष्टि हो जाती है।

उपर्युक्त उद्धरणों से भली भाँति स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद के सर्वप्रथम उर्दू उपन्यास को खोजकर पुनः प्रकाशित कराने का कार्य अमृतराय के ही उद्योग का सुपरिणाम था और इस कार्य में मदन गोपाल का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष योगदान नहीं था। फिर भी मदन गोपाल इस उपन्यास की खोज का श्रेय स्वयं लेने के लिए लालायित रहे और अपने पत्र दिनांक 14.12.1962 में उन्होंने प्रेमचंद के कनिष्ठ पुत्र अमृतराय को लिखा -

"जब तुम 1959 के आरम्भ में मेरे पास आए थे तो मेरी पुस्तक ‘प्रेमचंद’ में ‘इसरारे मुहब्बत’ का जिक्र हुआ है। तुम्हें यकीन नहीं आया था कि ‘आवाजे खल्क’ के नाम की कोई पत्रिका बनारस से निकली थी। मैंने तुम्हें बतलाया था कि यह अखबार बनारस से निकलता था और यह भी कि मैंने स्वयं उनके दफ्तर में जाकर कुछ पुरानी फाइलें भी देखी थीं परन्तु मुझे यह नावेल नहीं मिला था। मैंने स्वयं तुम्हें उस अखबार का पता दिया था और यह उस अखबार के एक अंक से जो मैं 1952 में ले आया था। यदि तुम ‘मंगलाचरण’ के सम्बन्ध में यह लिख देते कि किस प्रकार मेरे संकेत से तुम्हें सहायता मिली थी तो तुम्हारे काम के श्रेय में कमी नहीं हो जाती।1

अपने उत्तर में अमृतराय ने 15.1.1963 के पत्र द्वारा मदन गोपाल के आरोप का खंडन निम्नांकित शब्दों में किया-

"असरारे मआबिद’ के बारे में मैं बतलाना चाहता हूँ कि मैंने इसे बनारस के मित्रों की सहायता से ढूँढ़ निकाला। किसी ऐसी सूचना के आधार पर नहीं जो आप कहते हैं आपने दी। यह सूचना कि ‘इसरारे मुहब्बत’ बनारस के ‘आवाजे खल्क’ में छपा था केवल आपके पास ही नहीं थी। यदि आपने इसका जिक्र अपनी पहली किताब में किया हो तो मुझे याद नहीं है। इसे मैंने बीस वर्ष पूर्व पढ़ा था और इसकी प्रति अब मेरे पास नहीं है।2

1. प्रेमचंद के मदन गोपाल,

2. प्रेमचंद के मदन गोपाल,

अमृतराय के अत्यन्त स्पष्ट उत्तर के पश्चात् मदन गोपाल ने न तो अपने किसी पत्र में इस उपन्यास के सम्बन्ध में अमृतराय के कथन का खण्डन किया और न सन् 1962 में अमृतराय के विरुद्ध की गई अदालती कार्यवाही में इसके सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही किया। उपर्युक्त उत्तर देने के पश्चात् अमृतराय लगभग 33 वर्षों की सुदीर्घ कालावधि तक जीवित रहे और इस सम्पूर्ण अवधि में मदन गोपाल ने इस उपन्यास की खोज के अपने दावे की कोई चर्चा तक नहीं की। अतः मौनं स्वीकृति लक्षणम् के आधार पर यह मानने में कोई संकोच नहीं कि मदन गोपाल ने अमृतराय के कथन को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी थी। परन्तु आश्चर्य का विषय है कि अमृतराय के देहावसान के लगभग 4 वर्ष पश्चात् मदन गोपाल अप्रत्यक्ष रूप से इस उपन्यास की खोज का श्रेय स्वयं लेते हुए सन् 2000 में लिखते हैं -

"ग्यारह साल बाद अमृतराय मेरे गरीबखाने पर तशरीफ लाए, ‘इसरारे मुहब्बत’ का जिक्र आया। अमृतराय ने कहा कि बनारस से ‘आवाजे खल्क’ नाम का कोई अखबार नहीं शाया हुआ। मैंने बताया कि मैं उस दफ्तर में गया था। मेरे पास ‘आवाजे खल्क’ के दो तीन शुमारे भी हैं। एक कापी उन्हें दी। फिर अमृतराय वहाँ गए, उस नाविल को तलाश कर लिया। उनवान ‘इसरारे मुहब्बत’ नहीं बल्कि ‘असरारे मआबिद’ था। एक शुमारा 1.9.1904 का दस्तयाब नहीं हुआ और नाविल भी नामुकम्मिल था। नाविल का आखिरी किस्त यकुम फरवरी 1905 में शाया हुआ था।1

1965 में पहली बार प्रकाशित मदन गोपाल की पुस्तक ‘कलम का मजदूर प्रेमचंद’ का तीसरा संस्करण 2006 में प्रकाशित हुआ तो उसकी भूमिका में भी उन्होंने लिखा -

"प्रेमचंद ने ‘असरारे मआबिद’ लिखा जो बनारस के उर्दू साप्ताहिक ‘आवाजे खल्क’ में प्रकाशित हुआ। इसकी तलाश की कहानी रोचक है।..... हैदराबाद के हसामुद्दीन गौरी ने 1936 में श्रद्धांजलि देते हुए कहा था - प्रेमचंद का पहला उपन्यास ‘इसरारे मुहब्बत’ था। मुझे याद नहीं कि मैंने इसी उपन्यास के नाम को क्यों स्वीकारा और अपनी पुस्तक में इसका जिक्र किया, प्रेमचंद की किताबों की सूची में भी। डा. इन्द्रनाथ मदान तथा अन्य शोधकर्त्ताओं ने इसी नाम को उद्धृत किया। 1959 में अमृतराय मेरे घर आए। प्रेमचंद के उपन्यासों की चर्चा हुई। तब उन्होंने मुझसे कहा कि उन्होंने तलाश की थी, ‘आवाजे खल्क’ नाम की कोई पत्रिका बनारस से कभी नहीं निकली। मैंने उन्हें बताया कि मैंने स्वयं उस पत्रिका का दफ्तर देखा है और कुछ पुराने अंक भी देखे थे। मुझे ‘इसरारे मुहब्बत’ तो नहीं मिला; सोचा, फिर कभी जाकर देखने जाऊँगा। परन्तु मैंने अमृतराय को ‘आवाजे खल्क’ की एक प्रति दी। इसी को लेकर वह बनारस गए और ‘आवाजे खल्क’ की फाइलों से उपन्यास की चार किस्तें लाए और इसे ‘देवस्थान रहस्य’ के शीर्षक से ‘मंगलाचरण’ में प्रकाशित किया। उपन्यास का शीर्षक इस पत्रिका में थोड़ा भिन्न था। ‘इसरारे मुहब्बत’ की बजाय वह ‘असरारे मआबिद’ था। इसकी चार किस्तें ‘आवाजे खल्क’ में निकली थीं।2

1. कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-1,

2. कलम का मजदूर प्रेमचंद, तृतीय संस्करण,

उपर्युक्त उद्धरण में ‘आवाजे खल्क’ में इस उपन्यास की ‘चार किस्तें’ मिलने का उल्लेख भी रहस्यपूर्ण प्रतीत होता है। इस उपन्यास के उर्दू साप्ताहिक पत्र में लगभग 17 माह तक धारावाहिक निकलने का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होने पर भी ‘चार किस्तें’ ही प्रकाशित होने का उल्लेख अशुद्ध होने के साथ-साथ भ्रामक भी प्रतीत होता है।

यह अत्यन्त आश्चर्यजनक है कि मदन गोपाल ने ‘असरारे मआबिद’ की खोज की इस तथाकथित रोचक कहानी का 1965 में अमृतराय के जीवन काल में ही प्रकाशित ‘कलम का मजदूर प्रेमचंद’ के प्रथम संस्करण में कोई उल्लेख नहीं किया। बहुत सम्भव है कि यदि मदन गोपाल ऐसा करने का साहस जुटा पाते तो अमृतराय इस सम्बन्ध में वास्तविकता को सार्वजनिक करने में तनिक भी संकोच से काम न लेते।

उपर्युक्त समस्त विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि प्रेमचंद के इस सर्वप्रथम उपन्यास की खोज का श्रेय मात्र अमृतराय को ही है जिनके देहावसान के उपरान्त मदन गोपाल इस श्रेय को अपने नाम लिखाने के लिये योजनाबद्ध रूप से भ्रामक उल्लेख करते हुए प्रतीत होते हैं। यह भी आश्चर्यजनक है कि जो मदन गोपाल इस उपन्यास की खोज का दावा करते हैं, वे भी इसका मूल उर्दू पाठ प्रकाशित कराने में सफल नहीं हो सके और अमृतराय द्वारा किए गए इस उपन्यास के हिन्दी अनुवाद को पुनः उर्दू में अनूदित करके ही ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ में सम्मिलित कर लेते हैं।

परिशिष्ट-2

प्रेमचंद-स्मारक की व्यथा-कथा

nagrik-premchand

हमारे महान् देश में महान् साहित्यकारों के स्मारक बनाने की किसी स्वस्थ परम्परा का विकास अभी तक भी नहीं हो पाया है। यही नहीं, महान् साहित्यकारों की समस्त रचनाओं तथा पत्र आदि की बात तो एक ओर, उनकी विश्वविख्यात रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ भी संरक्षित करने का कोई प्रयास अभी तक नहीं किया जा सका है। काश! हमने इस दिशा में रूस से तनिक भी प्रेरणा ग्रहण करने का कोई प्रयास किया होता जहाँ मैक्सिम गोर्की के स्मारक में उनका लिखा पर्चा-पर्चा संरक्षित है, जहाँ एक-एक लेखक के कई-कई स्मारक बनाए गए हैं और जहाँ साहित्यकारों की स्मृतियों को स्थायी बनाने के व्यापक प्रयास किए जाते हैं।

भारतीय साहित्य-संसार में मुंशी प्रेमचंद एक ऐसा नाम है जिसे एक साथ दो भाषाओं - हिन्दी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य का निर्माता स्वीकार किया जाता है। 8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद का आकस्मिक देहावसान होने के उपरान्त हिन्दी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में प्रेमचंद का स्मारक बनाए जाने की चर्चा महीनों चलती रही, परन्तु खेद है कि इस दिशा में कोई सार्थक पहल न हो सकी। इसी चर्चा के मध्य सम्पादकाचार्य पं. बनारसी दास चतुर्वेदी ने लिखा था -

"प्रेमचंदजी का चाहे जो स्मारक बनाया जाय पर उसके साथ-साथ ये काम तो होने ही चाहिएँ - 1. स्वर्गीय प्रेमचंदजी का जीवन-चरित ...... 2. दूसरा काम यह है कि प्रेमचंदजी के ग्रन्थों की बिक्री का प्रबन्ध होना चाहिए, खास तौर से उन ग्रन्थों की बिक्री का जिन्हें उन्होंने स्वयं ही प्रकाशित किया था। 3. तीसरा काम यह है कि ‘हंस’ की आर्थिक दशा सुधारने का प्रयत्न होना चाहिए। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में प्रेमचंद ‘हंस’ को ठीक तौर पर चलाने के लिए अत्यन्त चिन्तित थे।.... हम जो कुछ करें श्रद्धापूर्वक करें। प्रेमचंदजी का यह श्राद्ध सर्वथा प्रेमपूर्वक ही होना चाहिए। उसमें दिखावट या दम्भ की थोड़ी सी मात्रा भी सम्पूर्ण कार्य के महत्त्व को नष्ट कर देगी।"1

1. प्रेमचंदजी का स्मारक, सम्पादकीय विचार; विशाल भारत, कलकत्ता, दिसम्बर 1936,

प्रेमचंद-स्मारक के प्रति हिन्दी-उर्दू साहित्य-संसार की घोर उदासीनता और उपेक्षा का अनुमान इस तथ्य से सहजता के साथ लगाया जा सकता है कि चतुर्वेदीजी ने प्रेमचंद-स्मारक के जो तीन प्रमुख कार्य बताए थे उनमें साहित्य-जगत् का कोई विद्वान् हाथ लगाने का प्रयास तक न कर सका। इसके विपरीत यह सारस्वत यज्ञ प्रेमचंद के पुत्रों ने ही सम्पन्न किया। उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद का विस्तृत जीवन-चरित उनके छोटे पुत्र अमृतराय ने अत्यन्त मनोयोग तथा अध्यवसाय से लिखकर 1962 में ‘प्रेमचंद : कलम का सिपाही’ शीर्षक से प्रकाशित कराया, प्रेमचंद के ग्रन्थों के प्रकाशन तथा बिक्री का कार्य उनके पुत्रद्वय ही करते रहे और उनके पुत्र ही प्रेमचंद के देहावसान के उपरान्त दशकों तक ‘हंस’ को नियमित रूप से प्रकाशित करते रहे। पं. बनारसी दास चतुर्वेदी द्वारा व्यक्त आशंका को चरितार्थ करते हुए साहित्य-जगत् के विद्वान् प्रेमचंद के जीवन तथा कृतियों पर कार्य करने में ‘दिखावट’ तथा ‘दम्भ’ से स्वयं को मुक्त न रख सके और मात्र ‘प्रेमचंद-विशेषज्ञ’ के रूप में स्थापित होने के लिए ही उनकी कृतियों का उपयोग व उपभोग करते रहे।

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हमारे समाज में सामान्य रूप से ‘स्मारक’ का अर्थ व्यक्ति विशेष की स्मृति में उसके जीवन से निकटतम सम्बन्धित स्थान विशेष पर एक भव्य भवन के निर्माण से ही लिया जाता है, और यही कारण है कि प्रेमचंद-स्मारक के लिए भी सदा भूमि और भवन की आवश्यकता अनुभव की जाती रही। इस स्मारक के लिए उनके जन्म-स्थान लमही में समवस्थित प्रेमचंद के उस पैतृक भवन से उपयुक्त अन्य कोई स्थान नहीं हो सकता था, जहाँ उनका जन्म हुआ था। ध्यातव्य है कि वह भवन पारिवारिक विभाजन में प्रेमचंद के छोटे भाई महताबराय के हिस्से में आ गया था।

दैनिक ‘आज’ से अवकाश प्राप्त करने के उपरान्त महताबराय सम्भवतः 1955 के अन्त में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के मुद्रण व्यवस्थापक के रूप में कार्यरत हो गए। उस समय सभा के अध्यक्ष पं. गोविन्द वल्लभ पन्त, उपाध्यक्ष आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और प्रधानमंत्री डा. राजबलि पाण्डेय थे। डा. राजबलि पाण्डेय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, गोविन्द प्रसाद केजरीवाल, राधाविनोद गोस्वामी, शम्भुनाथ वाजपेयी आदि द्वारा प्रेरित किए जाने पर प्रेमचंद के अनुज महताबराय ने 1956 के प्रारम्भ में नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के समक्ष प्रस्ताव प्रस्तुत किया -

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"यदि सभा द्वारा लमही में प्रेमचंद के एक उपयुक्त स्मारक की दिशा में पहल की जाय तो वह अपना पैतृक मकान, जिसमें प्रेमचंद का जन्म हुआ था, सहर्ष सभा को अर्पित करने को तैयार हैं।"1

1. बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद, 

महताबराय के इस उदारतापूर्ण प्रस्ताव पर सभा ने 14 जुलाई 1956 को आयोजित अपनी बैठक में प्रेमचंद-स्मारक हेतु एक संयोजन समिति का गठन कर दिया जिसके सदस्य थे - गोविन्द प्रसाद केजरीवाल, दिलीप नारायण सिंह, बच्चन सिंह, पं. करुणापति त्रिपाठी और महताब राय। इस नवगठित संयोजन समिति की एक बैठक 22 जुलाई 1956 को लमही में आयोजित हुई जिसमें डा. राजबलि पाण्डेय, श्रीमती शिवरानी देवी, जितेन्द्र प्रसाद, त्रिलोचन शास्त्री तथा पं. राधाविनोद गोस्वामी ने भी विशेष आमन्त्रित सदस्यों के रूप में भाग लिया। इस बैठक में व्यापक विचार-विमर्श के उपरान्त प्रेमचंद-स्मारक की विस्तृत रूपरेखा स्वीकार की गई जिसमें स्मारक सम्बन्धी अन्य योजनाओं के साथ-साथ निम्नांकित महत्त्वपूर्ण निर्णय भी लिया गया -

"एक पृथक् कक्ष में प्रेमचंद तथा उनसे सम्बन्धित सम्पूर्ण साहित्य उपलब्ध हो, प्रेमचंद की प्राप्त पाण्डुलिपियाँ, उनके पत्रादि तथा उनके उपयोग की उपलब्ध वस्तुएँ वहाँ लोगों के अवलोकनार्थ प्रदर्शित की जायँ।"1

जहाँ एक ओर समस्त साहित्य-संसार हाथ पर हाथ रखे मौन बैठा हुआ था, वहीं दूसरी ओर समस्त प्रतिकूलताएँ सहन करने का जीवट दिखाते हुए प्रेमचंद के अनुज महताबराय ने "उस समय तक अपना कोई अन्य निजी मकान न होते हुए भी पैतृक मकान को स्मारक के निर्माणार्थ सभा को अर्पित कर अपनी उदारता, भ्रातृ-स्नेह और हिन्दी के प्रति अनुराग का परिचय दिया था।"2

इस तथ्य की पुष्टि पं. विनोद शंकर व्यास के निम्नांकित शब्दों से भी हो जाती है -

"महताबराय ने अपने बड़े भाई के स्मारक के लिए जो जमीन काशी नागरी प्रचारिणी सभा को दान की है वह वही जमीन है जिसे हासिल करके उनके पूर्वज लाला गुरसहाय ने अपना मकान बनवाया था और महताबराय के पास अब यही एकमात्र पैतृक आवास रह गया था।"3

1. बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद,

2. बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ कथाकार प्रेमचंद,

3. प्रेमचंदजी के अनुज स्व. महताब राय; साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 19 मार्च 1961,

महताबराय की मौखिक सहमति पाते ही सभा स्मारक की दिशा में सक्रिय हो गई और प्रेमचंद की 20वीं पुण्य तिथि 8 अक्टूबर 1956 को सभा के ही ‘प्रेमचंद-स्मारक मंडल’ द्वारा लमही में भव्य आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता बलाईचाँद मुखोपाध्याय ‘बनफूल’ ने की थी। प्रेमचंद-स्मारक की दिशा में लगभग एक वर्ष तक कार्य करने के उपरान्त सभा को यह चिन्ता हुई कि महताबराय से भूखण्ड का दान-पत्र रजिस्टर्ड करा लिया जाय। इसके लिए सभा के प्रधानमंत्री डा. राजबलि पाण्डेय ने 20 नवम्बर 1957 के पत्र में महताबराय को लिखा -

"सभा स्वर्गीय प्रेमचंदजी के स्मारक के सम्बन्ध में जो कार्य कर रही है उस पर प्रबन्ध समति के गत 16-11-1957 के अधिवेशन में चर्चा हुई थी। समिति ने निश्चय किया है -

‘श्री महताबराय को आश्वासन दिया जाय कि प्रबन्ध समिति जैसा निश्चय कर चुकी है उसके अनुसार स्मारक अवश्य बनेगा। अतएव दान-पत्र की रजिस्ट्री कृपया कर दें। स्मारक सम्बन्धी कार्य अग्रसर कराने की व्यवस्था में यदि शैथिल्य बना रहे तो प्रबन्ध समिति इस सम्बन्ध में शीघ्र विचार कर यथोचित निश्चय करे जिससे यह कार्य पूर्व निश्चयानुसार अग्रसर हो।’

आशा है समिति के इस आश्वासन से आपको पूर्णतः सन्तोष होगा और दान-पत्र की रजिस्ट्री की व्यवस्था अब आप शीघ्र कर देंगे जिससे स्मारक सम्बन्धी अन्य कार्य आगे बढ़ाया जा सके।"

उपर्युक्त पत्र की प्रतिलिपि पं. शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ काशिकेय को भी प्रेषित की गई थी जिससे यह अनुमान होता है कि उनकी प्रेरणा से ही महताबराय ने प्रेमचंद- स्मारक हेतु अपना एकमात्र पैतृक भवन दान करने के मौखिक संकल्प को विधिक स्वरूप प्रदान करने के लिए स्वयं तथा अपने समस्त पुत्रों - राम कुमार राय, कृष्ण कुमार राय, विनय कुमार राय, नन्द कुमार राय और कौशल कुमार राय के संयुक्त हस्ताक्षरों से इस भवन का ‘दान-पत्र’ नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के पक्ष में 9 जुलाई 1958 को निष्पादित कर दिया जो 30 जुलाई 1958 को सब रजिस्ट्रार, वाराणसी द्वारा बही नं. 1, जिल्द 3378 के पृ.सं. 110/112 में नं. 4203 पर रजिस्टर्ड किया गया था। इस दान-पत्र का अविकल पाठ इस प्रकार है -

"हम लोग महताबराय पुत्र स्वर्गीय श्री अजायब लाल तथा राम कुमार, कृष्ण कुमार, विनय कुमार, नन्द कुमार और कौशल कुमार पुत्र महताबराय, साकिनान ग्राम लमही, थाना चोलापुर, जिला बनारस के हैं। विदित हो कि हम महताबराय, दानकर्ता सं. 1 के ज्येष्ठ भ्राता श्री धनपतराय (प्रेमचंद) हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान् तथा लेखक थे। उनके उपन्यास, कहानियाँ तथा नाटक हिन्दी साहित्य में बहुत उच्च स्थान रखते हैं। उनकी हिन्दी सेवाओं का आदर करने की दृष्टि से काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उनके जन्म-स्थान पर स्मारक बनाने का जो निश्चय किया है उसको हम लोगों ने भी बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार किया है। श्री प्रेमचंदजी का जन्म ग्राम लमही, जिला बनारस, थाना चोलापुर में मकान के जिस कमरे में हुआ था वह विभाजन द्वारा हम लोगों के हिस्से में आया है। अतः हम लोग अपनी स्वेच्छा, प्रसन्नता तथा स्वतन्त्रता से मकान का निम्नलिखित हिस्सा, जिसको इस अर्पण-पत्र के साथ संलग्न नक्शे में लाल रंग से तथा अक्षर क, ख, ग, घ से दिखाया गया है और जो कि मालियती मुबलिग एक हजार रुपया (1000) मात्र, जिसका आधा मुबलिग 500 पाँच सौ रुपया होता है, जो कि हम लोगों के हिस्से में आया है, काशी नागरी प्रचारिणी सभा को श्री प्रेमचंद-स्मारक बनाने के लिए निम्नलिखित प्रतिबन्धों के साथ अर्पित करते हैं -

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1. आज से निम्नलिखित अर्पित सम्पत्ति, जो संलग्न नक्शे में लाल रंग से दिखलाई गई है, उक्त सभा की सम्पत्ति हो गई। इस पर उक्त सभा के प्रधान मन्त्री डा. राजबलि पाण्डेय का कब्जा करा दिया गया है। अब उनको अधिकार है कि उस सम्पत्ति को स्मारक के निमित्त व्यवहार करें। हम लोगों को सभा के अधिकार में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करने का हक न है, न रहेगा।

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2. सरकारी कागजों में जहाँ आवश्यकता हो हम लोगों के बजाय काशी नागरी प्रचारिणी सभा का नाम दर्ज कराया जाय।

3. यह कि जो कुछ सम्पत्ति स्मारक की होगी उसकी भी मालिक नागरी प्रचारिणी सभा होगी। हम लोगों को किसी प्रकार का स्वामित्व का अधिकार न होगा।

4. यह कि सभा को पूर्ण अधिकार है कि उस मकान को गिराकर नया भवन आदि बनाए और कुएँ आदि भी खुदवाये तथा अन्य स्मारक सम्बन्धी कार्य करे।

5. यह कि उक्त सम्पत्ति हम लोग अपने कुल की मर्यादा, प्रतिष्ठा तथा समृद्धि के लिए अर्पण कर रहे हैं। इससे हमारे कुल का तथा श्री प्रेमचंदजी का नाम स्थायी रहेगा। अतः यह अल्पांश सम्पत्ति मालियती एक हजार रुपया स्मारक के लिए अर्पण की जाती है।

6. इस अर्पण-पत्र को हम लोगों ने पढ़कर तथा अच्छी तरह समझकर लिखा है और अपने-अपने हस्ताक्षर किये हैं। अतः यह अर्पण-पत्र लिख दिया कि प्रमाण रहे और समय पर काम आवे।

अर्पित की गई सम्पत्ति की चौहद्दी तथा ब्योरा - मकान दो खंड, मकान दो मंजिला तथा सहन मय जमीन जिस पर मकान बना है और जमीन सहन जो कि ग्राम की आबादी में है और जो कि संलग्न नक्शे में अक्षर क, ख, ग, घ से तथा लाल रंग से दिखाया गया है और जिसकी मालियत 1000/- (एक हजार रुपया) है, वह कुल दान की जाती है।

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पूरब - रास्ता और उसके बाद स्व. प्रेमचंदजी का मकान।

पश्चिम - शेष सहन और उसके पश्चात् श्री संजीवन राय और श्री श्यामलाल के मकान।

उत्तर - शेष सहन और उसके पश्चात् श्री संजीवन राय और श्री श्यामलाल के मकान।

दक्षिण - गली और उसके बाद श्री भगवान प्रसाद का मकान।

टाइपकर्ता - शम्भुनाथ वाजपेयी, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी। 09-07-1958

ह. महताबराय ह. राम कुमार राय ह. कौशल कुमार राय ह. विनय कुमार राय ह. कृष्ण कुमार राय ह. नन्द कुमार राय

ग. - ह. शंभुनाथ वाजपेयी ग. - ह. दीप नारायन लाल

इस दस्तावेज को श्री महताबराय पुत्र श्री अजायब लाल, पेशा व्यापार, रहने वाले मोहल्ला लमही, परगना शिवपुर, जिला वाराणसी ने दफ्तर सब रजिस्ट्रार, बनारस में आज तारीख 10, महीना 7, सन् 1958 ई. 1 व 2 बजे के बीच पेश किया। ह. वी.एस. मिश्रा, सब रजिस्ट्रार। 10-07-1958

महताबराय इस दस्तावेज के मजमून के सुनने व समझने के बाद व इस दस्तावेज की तकमील व तहरीर से श्री महताबराय मुकिर मजकूर व श्री राम कुमार व श्री कृष्ण कुमार व श्री विनय कुमार व श्री नन्द कुमार व श्री कौशल कुमार पेसरान श्री महताबराय, पेशा व्यापार, निवासी लमही उक्त ने इकबाल किया जिनकी पहचान श्री दीप नारायन लाल पुत्र श्री जुगल किशोर लाल, पेशा मोहर्रिरी, रहने वाले गाँव लमही उक्त और श्री शम्भुनाथ वाजपेयी पुत्र श्री शिवचरण वाजपेयी, पेशा नौकरी, रहने वाले मोहल्ला ईश्वरगंगी, शहर वाराणसी ने की। मुकिरान व गवाहान प्रतिष्ठित आदमी हैं इसलिए चिह्न अँगूठा से मुक्त किया गया। ह. वी.एस. मिश्रा, सब रजिस्ट्रार, 10- 07 -1958

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ह. महताबराय ह. राम कुमार राय ह. कृष्ण कुमार राय ह. विनय कुमार राय ह. नन्द कुमार राय ह. कौशल कुमार राय

ह. दीपनारायन लाल ह. शंभुनाथ वाजपेयी

ह. वी.एस. मिश्रा, सब रजिस्ट्रार

10-07-1958

बही नं. 1 जिल्द 3378 के पृष्ठ 110/112 में नं. 4203 पर आज दिनांक 30 जुलाई सन् 1958 ई. रजिस्ट्री की गई।

ह. वी.एस. मिश्रा, सब रजिस्ट्रार"

महताबराय और उनके पाँचों पुत्रों द्वारा दान-पत्र रजिस्ट्री करा देने के उपरान्त नागरी प्रचारिणी सभा ने एक परिपत्र जारी करके प्रेमचंद-स्मारक के निमित्त धन-संग्रह का अभियान छेड़ दिया जिसमें देश के प्रायः समस्त शीर्षस्थ नेताओं, उद्योगपतियों, साहित्यकारों तथा साहित्य प्रेमियों ने तो खुले हृदय से आर्थिक सहयोग किया ही, कुछ राज्य सरकारों ने भी अंशदान किया। इस प्रकार व्यापक रूप से धन संग्रह करके और देश के समूचे साहित्यिक वातावरण को प्रेमचंद-स्मारक निर्माण के नाम पर उत्साह से भरकर महताबराय द्वारा दान में दिए गए भूखण्ड पर 8 अक्टूबर 1959 को प्रेमचंद की 23वीं पुण्य तिथि के दिन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के कर-कमलों द्वारा प्रेमचंद-स्मारक का शिलान्यास हुआ। सभा द्वारा इस समारोह को कितनी भव्यता प्रदान की गई थी, यह इसके निमन्त्रण पत्र से स्पष्ट हो जायगा जिसकी प्रतिलिपि साथ में प्रस्तुत है।

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ध्यातव्य है कि शिलान्यास से पूर्व ही स्मारक बनाने के लिए प्रेमचंद के पैतृक निवास के रूप में प्रयुक्त होने वाले भवन के साथ-साथ वह कक्ष भी भूमिसात् कर दिया गया था जिसमें प्रेमचंद का जन्म हुआ था।

प्रेमचंद-स्मारक के लिए भूमि-भवन ले लेने और उसके शिलान्यास का भव्य समारोह आयोजित करके सभा ने अपना कर्त्तव्य पूर्ण समझ लिया और स्मारक-स्थल देखते ही देखते कूड़े-कचरे के ढेर में बदलता चला गया। दुर्भाग्य से 16 जनवरी 1961 को हृदयाघात के कारण महताबराय का आकस्मिक निधन हो गया जिसके उपरान्त सभा ने अखण्ड मौन धारण कर लिया।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लमही में प्रेमचंद-स्मारक का शिलान्यास किए जाने के बाद के 46 बरसों में प्रेमचंद-स्मारक के निर्माणार्थ धन एकत्रित करने के बावजूद नागरी प्रचारिणी सभा ने मात्र इतना ही किया कि कूड़े-कचरे के बड़े ढेर में बदल चुके स्मारक-स्थल की सफाई कराकर और चहारदिवारी से घेरकर उसके एक कोने में दो छोटी-छोटी कोठरियाँ बनवा दीं और पं. कमलापति त्रिपाठी के सौजन्य से प्रेमचंद की एक संगमरमरी आवक्ष प्रतिमा स्थापित करा दी जिसे प्रेमचंद- स्मारक के रूप में जाना जाता है। और, इसी कथित प्रेमचंद-स्मारक की दुर्दशा देखकर विख्यात कथाकार अखिलेश के अन्तर्मन की पीड़ा निम्नांकित शब्दों के रूप में फूट पड़ी -

"लमही में प्रेमचंद की जो मूर्ति लगी है, उसकी दोनों आँखें निकाल ली गई हैं। यह स्थिति काफी दिनों से है। प्रेमचंद की आँखें निकाल लेना एक तीक्ष्ण रूपक भी है। हमारे सबसे दृष्टिवान लेखक की आँखें निकाल ली जाती हैं और सभी चुप हैं। किसी को परवाह नहीं है। हमारे किसी लेखक संघ ने भी आवाज नहीं उठाई। हम कितने कृतघ्न हैं कि जिस प्रेमचंद ने असंख्य लोगों को अन्तर्दृष्टि दी, उसकी मूर्ति को हम पत्थर की आँख नहीं दे सकते।"1

यही है इस महान् देश की कृतघ्नी चेतना का घिनौना चेहरा। इससे भी अधिक वितृष्णा इस बात से होती है कि भारतीय साहित्य के प्रतिनिधि रचनाकार के स्मारक के साथ यह अनाचार देखकर भी न तो हमारी कुम्भकर्णी नींद टूटी और न अखिलेश के उपर्युक्त सार्वजनिक रहस्योद्घाटन का किंचित मात्र भी संज्ञान लेने का कोई उद्योग ही किया जा सका। अस्तु!

खुले आकाश के नीचे गर्मी-सर्दी-वर्षा सहने पर विवश प्रेमचंद की इस प्रतिमा पर बरसों बाद वाराणसी के प्रसिद्ध शाह उद्योग समूह के स्वामी चन्द्र कुमार शाह ने अपने व्यय से एक छतरी का निर्माण करा दिया और उन्होंने ही 1990 के आसपास परिसर की जर्जर हो चुकी चहारदिवारी और कोठरियों की मरम्मत भी कराई थी। इसके लगभग 5-6 वर्ष उपरान्त वाराणसी विकास प्राधिकरण ने भी इसी निर्माण का जीर्णोद्धार कराने का उद्योग किया। लेकिन इस मध्य महामहिम राष्ट्रपति महोदय द्वारा शिलान्यास करते समय स्थापित किया गया शिलापट्ट स्मारक-स्थल से गायब हो गया अथवा सुनियोजित रूप से गायब कर दिया गया और वहाँ इस तथ्य का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं रह गया कि यह वही भूखण्ड है जो प्रेमचंद के छोटे भाई महताबराय ने अपने अग्रज का स्मारक बनाए जाने के विशिष्ट उद्देश्य से दान दिया था और जहाँ भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद ने प्रेमचंद-स्मारक का शिलान्यास किया था।

1. विरासत की विस्मृति; उत्तर प्रदेश, लखनऊ, मार्च 1998,

आश्चर्य की बात है कि महामहिम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा 1959 में प्रेमचंद-स्मारक का शिलान्यास किए जाने के तथ्य की घोर उपेक्षा करके प्रेमचंद की 125वीं जयन्ती के समारोह में भारत सरकार के सूचना प्रसारण एवं संस्कृति मन्त्री एस. जयपाल रेड्डी ने 31 जुलाई 2005 को लमही जाकर पुनः प्रेमचंद-स्मारक का शिलान्यास कर दिया। इस आयोजन के निमन्त्रण पत्र की प्रतिलिपि साथ में प्रस्तुत है।

इस प्रकार का अनुत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार प्रेमचंद के प्रति अपमानजनक होने के साथ ही भारत गणतन्त्र के सर्वोच्च संवैधानिक पद की भी अवमानना करता है।

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प्रेमचंद-स्मारक बनाने के विशिष्ट उद्देश्य तथा शर्त के अधीन दान में प्राप्त किए गए भवन पर नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा ‘प्रेमचंद-स्मारक’ का निर्माण न कराए जाने से महताबराय और उनके पुत्रों द्वारा निष्पादित ‘दान-पत्र’ का कोई विधिक अस्तित्व ही शेष नहीं रह जाता। विधिक दृष्टि से देखा जाय तो शर्त पूरी न होने के कारण यह दान-पत्र स्वतः ही विखण्डित हो गया है और इसमें वर्णित भूमि तथा भवन पर महताबराय और उनके उत्तराधिकारियों का स्वामित्व स्थापित हो गया है। परन्तु नागरी प्रचारिणी सभा ने अत्यन्त अमर्यादित तथा विधि-विरुद्ध आचरण करते हुए दान में प्राप्त किए हुए भूभाग एवं भवन को उत्तर प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग को दान करके प्रेमचंद- स्मारक निर्मित कराने के अपने दायित्व से पल्ला झाड़ लिया। इस रजिस्टर्ड दान-पत्र का अविकल पाठ निम्नांकित है -

"नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी जो सोसाइटी रजिस्ट्रेशन ऐक्ट के अन्तर्गत पंजीकृत संस्था है बजरिए डा. पद्माकर पाण्डेय पुत्र स्व. सुधाकर पाण्डेय निवासी भवन संख्या के 65/22 जालपा देवी रोड, वाराणसी प्रधानमंत्री नागरी प्रचारिणी सभा जिसे आगे प्रथम पक्ष (दानकर्ता) कहकर सम्बोधित किया गया है

.......... प्रथम पक्ष

मुंशी प्रेमचंद राष्ट्रीय स्मारक संस्कृति विभाग, उ.प्र. सरकार द्वारा महामहिम राज्यपाल उ.प्र. बजरिए क्षेत्रीय सांस्कृतिक अधिकारी।

रजिस्ट्रीकरण अधिकारी संस्कृति विभाग वाराणसी - डा. लवकुश द्विवेदी

......... द्वितीय पक्ष (दानग्रहिता)

विदित हो कि सम्पत्ति जिसका पूर्ण विवरण व चतुर्दिक सीमा इस दान-पत्र के अन्त में दिया गया है यानी आराजी नम्बर मि. 90 रकबा 3710 वर्ग फीट स्थित मौजा-लमही, परगना-शिवपुर, तहसील व जिला वाराणसी जो बन्दोबस्ती आबादी है और जिसमें पुराने कमरे निर्मित हैं और चहारदिवारी से घिरी हुई है हम प्रथम पक्ष की है तथा प्रथम पक्ष उस पर बहैसियत मालिक वास्तविक रूप से अध्यासित है। प्रथम पक्ष उसका पूर्ण स्वामी है और उसे दान के रूप में द्वितीय पक्ष को हस्तान्तरित करने का पूर्ण अधिकार हासिल है।

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चूँकि द्वितीय पक्ष को मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में राष्ट्रीय स्मारक के निर्माण एवं विकास के लिए इस दान-पत्र में वर्णित सम्पत्ति की आवश्यकता है जिसके लिए द्वितीय पक्ष ने प्रथम पक्ष के समक्ष प्रस्ताव रक्खा तो प्रथम पक्ष निम्न जायदाद को दान देने के लिए सहर्ष तैयार हो गया, क्योंकि प्रथम पक्ष मुंशी प्रेमचंदजी के साहित्य से अत्यधिक प्रभावित है। प्रथम पक्ष यह चाहता है कि मुंशी प्रेमचंद की स्मृतियों को अक्षुण्ण रखा जाय तथा उनके साहित्य एवं विचारों का प्रचार व प्रसार हो। मुंशी प्रेमचंद के प्रति उक्त स्नेह, लगाव, आकर्षण एवं समर्पण की भावना के वशीभूत होकर प्रथम पक्ष अपनी सम्पत्ति जिसका वर्णन इस दान-पत्र के अन्त में दिया गया है को दान देना स्वीकार किया। अतः प्रथम पक्ष स्वस्थ चित्त व प्रसन्न मन से यह दान-पत्र द्वितीय पक्ष के हक में तहरीर करके संस्था व उसके स्थानापन्नों को निम्नलिखित शर्तों से आबद्ध करता है -

1. यह कि प्रथम पक्ष ने आज अपनी निम्न वर्णित सम्पत्ति द्वितीय पक्ष को दान में दे दिया और द्वितीय पक्ष ने उक्त सम्पत्ति को दान में प्राप्त किया।

2. यह कि निम्न वर्णित सम्पत्ति के बाबत हम प्रथम पक्ष को जो हक व अधिकार प्राप्त हैं वह सब हक व अधिकार द्वितीय पक्ष के हक में हस्तान्तरित हो गये तथा प्रथम पक्ष ने अपना वास्तविक अध्यासन दान में दी गयी सम्पत्ति से हटाकर उस पर द्वितीय पक्ष का वास्तविक अध्यासन बतौर दानग्रहिता करा दिया। आज की तिथि से द्वितीय पक्ष को पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया कि वह दान में दी गयी निम्न वर्णित सम्पत्ति का उपयोग सिर्फ मुंशी प्रेमचंदजी के स्मृति को अक्षुण्ण रखने तथा उनके साहित्य एवं विचारों के प्रचार व प्रसार हेतु उपयोग करे। दूसरे किसी कार्य के लिए दान में प्राप्त उपरोक्त सम्पत्ति का उपयोग या उपभोग नहीं किया जायेगा तथा प्रथम पक्ष नागरी प्रचारिणी सभा जो भारतवर्ष की अत्यन्त प्राचीन हिन्दी सेवी संस्था है उसके नाम को कायम रखने के लिए एक शिलापट्ट इस आशय का द्वितीय पक्ष द्वारा उससे दान में प्राप्त सम्पत्ति पर लगाया जायेगा जो सदैव उसी रूप में रहेगा जिसका द्वितीय पक्ष पूर्ण रूप से पालन करेगा।

3. यह कि द्वितीय पक्ष दान में प्राप्त सम्पत्ति पर मुंशी प्रेमचंद-स्मारक द्वितीय पक्ष का नाम दर्ज करा लेवे।

4. यह कि दान में दी गई सम्पत्ति पर प्रथम पक्ष ने न कोई भार कायम किया है और न उसे कहीं हस्तान्तरित किया है।

5. यह कि चूँकि निम्न वर्णित जायदाद का दान-पत्र बहक मुंशी प्रेमचंद राष्ट्रीय स्मारक संस्कृति विभाग, उ.प्र. सरकार द्वारा महामहिम राज्यपाल उ.प्र. के पक्ष में किया जा रहा है लिहाजा यह दान-पत्र उसी रूप में द्वितीय पक्ष के हक में लिखा जा रहा है।

तफसील जायदाद जिसके सम्बन्ध में यह दान-पत्र लिखा गया है - आराजी नम्बर मि. 90 (मिनजुमिला नब्बे) रकबा 3710 वर्ग फीट यानी 344-79 वर्ग मीटर भूभाग जमीन जिसमें पुराना कमरा निर्मित है तथा चहारदिवारी से घिरी हुई है स्थित वाका मौजा-लमही, परगना-शिवपुर, तहसील व जिला वाराणसी जिसकी चतुर्दिक सीमा इस प्रकार है -

पूरब - रास्ता बादहू मकान श्री प्रेमचंदजी।

पश्चिम - अशोक कुमार वगैरह सहन आबादी।

उत्तर - पक्की सड़क लमही लिंक मार्ग।

दक्षिण - गली बादहू दिनेश चन्द श्रीवास्तव।

नोट - कलेक्टर एवं जिला मजिस्ट्रेट वाराणसी के आदेश दिनांक 29-5-2006/07-07-2006 द्वारा क्षेत्रीय संस्कृति अधिकारी/रजिस्ट्रीकरण अधिकारी को (मुंशी प्रेमचंद राष्ट्रीय स्मारक) संस्कृति विभाग उ.प्र. सरकार द्वारा महामहिम राज्यपाल उत्तर प्रदेश की ओर से पंजीकरण हेतु अधिकृत किया गया है। स्टाम्प एवं निबन्धन शुल्क की देयता द्वितीय पक्ष उत्तर प्रदेश सरकार की है।

साक्षीगण - 1. दयाशंकर पाण्डेय, अहलमद, एस.एल.ए.ओ. कार्यालय, वाराणसी

2. भोला प्रसाद सिंह पुत्र स्व. मथुरा प्रसाद, ग्राम बहोरीपुर, परगना अठगावाँ, तहसील पिण्डरा, जनपद वाराणसी

तहरीर दिनांक 12-7-2006

मसविदाकर्ता - मुरारी राम यादव, एडवोकेट, कलेक्टरी कचहरी, वाराणसी

टाईपकर्ता - राधेश्याम प्रसाद, कलेक्टरी कचहरी, वाराणसी

आज दिनांक 12-7-06 को फोटोस्टेट प्रति बही सं. 1 खण्ड 2607 पृ.सं. 229/240 पर क्रम सं. 2719 पर रजिस्ट्रीकरण किया गया। ह. अपठित, उपनिबन्धक चतुर्थ, वाराणसी।"

उपर्युक्त दान-पत्र में वर्णित भूमि नागरी प्रचारिणी सभा को दान में मिली हुई भूमि है और उस पर प्रेमचंद-स्मारक का निर्माण न करा पाने के कारण महताबराय एवं अन्यों द्वारा निष्पादित दान-पत्र का कोई विधिक अस्तित्व शेष नहीं रह गया जिसके कारण सम्बन्धित सम्पत्ति पर सभा का कब्जा अवैध है - इस तथ्य को छिपाने के लिए दान-पत्र में यह उल्लेख नहीं किया गया कि सभा जिस सम्पत्ति का दान-पत्र निष्पादित कर रही है, उसका स्वामित्व उसे कैसे प्राप्त हुआ। इसका सीधा सा अर्थ यही है कि उत्तर प्रदेश सरकार को अंधेरे में रखकर सभा ने ऐसी सम्पत्ति उसे दान कर दी जिस पर उसका न स्वामित्व था, न ही जिसे दान करने की वह अधिकारी थी। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है कि सम्बन्धित सरकारी अधिकारी ने भी सम्पत्ति के स्वामित्व के सम्बन्ध में किसी प्रकार की जाँच किए बिना ही यह दान स्वीकार कर लिया, जो सरकारी विभागों और अधिकारियों की वर्तमान कार्यशैली का एक आदर्श उदाहरण है। उपर्युक्त दान-पत्र में सभा के नाम का स्थायी शिला-पट्ट लगाने की शर्त से भी सभा की दूषित मानसिकता स्पष्ट होती है। सम्भवतः इस शर्त द्वारा भी सभा यही चाहती थी कि यह तथ्य प्रकट न हो पाए कि सम्बन्धित सम्पत्ति सभा को महताबराय ने 1958 में रजिस्टर्ड दान-पत्र निष्पादित करके दान की थी और यह तथ्य प्रकट होते ही सम्बन्धित सम्पत्ति के सम्बन्ध में विधिक स्थिति भी स्पष्ट हो जानी अवश्यम्भावी थी। स्पष्ट है कि सभा द्वारा निष्पादित इस दान-पत्र का कोई भी विधिक अस्तित्व नहीं है और यह दान-पत्र वाएड एब इनीशियो (निष्पादन की तिथि से ही विधिशून्य) है।

जिस प्रकार महताबराय यावज्जीवन समस्त प्रतिकूलताओं से जूझते हुए भी अपने अग्रज प्रेमचंद के प्रति सर्वात्ममना समर्पित रहे और उनके देहावसान के उपरान्त भी उनकी स्मृतियों को स्थायी आधार देने के दृष्टिकोण से उन्होंने अपना एकमात्र पैतृक भवन भी सहर्ष अर्पित कर दिया था, ठीक उसी परम्परा का पालन उनके पुत्र भी कर रहे हैं। यदि महताबराय के पुत्रगण चाहते तो न्यायालय की शरण लेकर 1958 में निष्पादित दान-पत्र को शर्तों का उल्लंघन किए जाने के कारण विधिशून्य घोषित कराकर स्मारक-स्थल की भूमि पर अपना कब्जा पुनः स्थापित करके उसके स्वामित्व के अधिकार भी प्राप्त कर सकते थे, परन्तु सभा द्वारा दान में प्राप्त भूमि को अवैध रूप से दान कर देने पर भी उन्होंने सम्भवतः इसी कारण से कुछ कार्यवाही नहीं की होगी कि शायद अब भी प्रेमचंद-स्मारक बन जाय। अपने परिवार के यशस्वी बुजुर्ग के प्रति ऐसी अगाध श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण प्रणम्य है।

यह उल्लेख करना भी सर्वथा समीचीन होगा कि यदि नागरी प्रचारिणी सभा, केन्द्र सरकार अथवा उत्तर प्रदेश सरकार प्रेमचंद-स्मारक बनाने में स्वयं को अक्षम तथा अयोग्य समझती हों तो अच्छा होगा कि भूमि को दान पर दान करने के बदले महताबराय के उत्तराधिकारियों को लौटा दें ताकि वे साहित्यकारों, साहित्यप्रेमियों और प्रेमचंद साहित्य के प्रशंसकों के सहयोग से देश के सार्वकालिक महान् साहित्यकार का भव्य, नव्य और विशाल स्मारक स्थापित करने में सफल हो सकें।

महताबराय, महताबराय के पुत्रगण विशेषकर कृष्ण कुमार राय और प्रेमचंद के साहित्यकार पुत्र अमृतराय स्पष्ट रूप से इस मत के रहे हैं कि प्रेमचंद-स्मारक को वास्तविक स्वरूप प्रदान करने के लिए उसमें प्रेमचंद की कृतियों की समस्त उपलब्ध पाण्डुलिपियाँ, उनके पत्रादि, उनके ग्रन्थों के प्रथम संस्करण और उनकी रचनाओं से संवलित हिन्दी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं के समस्त सम्बन्धित अंक सुरक्षित तथा संरक्षित होने चाहिएँ। इसके साथ ही प्रेमचंद के वस्त्र, लेखनी आदि दैनन्दिन उपयोग की समस्त उपलब्ध वस्तुएँ भी उसमें संरक्षित तथा प्रदर्शित होनी चाहिएँ। वास्तव में इस समस्त सामग्री के अभाव में यदि प्रेमचंद-स्मारक बना भी दिया जाता है तो वह बिना प्राण की देह जैसा ही होगा।

परन्तु इस सामग्री को एकत्रित करना मानो मैनाक उठाना ही है। साहित्य-संसार इस तथ्य से सुपरिचित है कि कीर्तिशेष मुरारी लाल केडिया द्वारा बनारस में स्थापित श्रीरामरत्न पुस्तक भवन तथा अमृतराय के इलाहाबाद स्थित निवासस्थान से प्रेमचंद की अनेक रचनाओं की पाण्डुलिपियाँ, उनकी रचनाओं से संयुक्त हिन्दी-उर्दू पत्रिकाओं के अनेकानेक अंक, उनके मूल पत्र, उनकी डायरी, बैंक खाते की पासबुक, अनेकों दुर्लभ चित्र, उनकी अनेक पुस्तकों के प्रथम संस्करण, ‘हंस’ तथा ‘जागरण’ की फाइलें आदि नानाविध अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री किस प्रकार ‘उधार’ माँगी जाकर डा. कमल किशोर गोयनका के व्यक्तिगत संग्रह की शोभा बढ़ाती हुई शोधकर्ताओं तथा विद्वानों के साथ-साथ प्रेमचंद के प्रशंसकों की पहुँच से भी दूर हो गई है; और किस प्रकार ‘जमाना’ सम्पादक दयानारायण निगम, महताबराय तथा अन्य अनेक लोगों से प्रेमचंद के मूल पत्र लेकर मदन गोपाल ने अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति ही नहीं बना लिए, वरन उन पर अपना ‘कापीराइट’ बनाने का भी विधिविरुद्ध प्रयास किया। वास्तव में होना तो यह चाहिए था कि इस समस्त सामग्री को राष्ट्रहित में अधिग्रहीत करके प्रेमचंद-स्मारक में भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ सुरक्षित तथा संरक्षित कर दिया जाता। दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका, परन्तु अभी भी बहुत देर नहीं हुई है और इस दिशा में कोई संगठित प्रयास अवश्य ही किया जा सकता है।

प्रेमचंद-स्मारक का कोई भव्य भवन बने या न बने, नागरी प्रचारिणी सभा अथवा सरकार इस दिशा में कोई सार्थक पहल करे या न करे, इससे कुछ अन्तर पड़ने वाला नहीं है क्योंकि प्रेमचंद का वास्तविक स्मारक उनकी कालजयी रचनाएँ हैं। परन्तु यह खेद का विषय है कि विद्वानों तथा शोधकर्ताओं के प्रमाद तथा सुविधाभोगी वृत्ति के कारण आज प्रेमचंद की रचनाएँ ही संकटों से घिरी दिखाई दे रही हैं।

हिन्दी-साहित्य-संसार में प्राचीन तथा मध्यकालीन साहित्यकारों की रचनाओं के प्रामाणिक पाठ निर्धारण के तो अनेकों प्रयास हुए परन्तु आधुनिक कथा साहित्य की आधारशिला के रूप में सर्वमान्य प्रेमचंद की रचनाओं के प्रामाणिक पाठ निर्धारण की दिशा में एक कदम भी न उठाया जा सका। इसके विपरीत उनकी रचनाओं का पाठ विकृत करने का क्रम निरन्तर चलता जाता है। यहाँ तक ही नहीं, अन्य प्रसिद्ध तथा अल्पज्ञात लेखकों की रचनाओं को प्रेमचंद के नाम पर संकलित-प्रकाशित करके प्रेमचंद की सर्जनात्मक प्रतिभा का अनादर करने के साथ-साथ उनका कद घटाने का षड्यन्त्र भी धीरे-धीरे पनप रहा है। उल्लेखनीय है कि उर्दू में ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ शीर्षक से मदन गोपाल के सम्पादन में प्रकाशित प्रेमचंद की ग्रन्थावली में उर्दू के तीन सुप्रसिद्ध लेखकों की पूर्व प्रकाशित रचनाएँ प्रेमचंद के नाम पर संकलित करके प्रकाशित कर दी गईं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित है -

1. ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के भाग-20 में संकलित लेख ‘अकबरे आजम’ के मूल रचनाकार मौलवी मौ. अजीज मिर्जा हैं और यह लेख ‘जमाना’ के अक्टूबर 1905 के अंक में इसी शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

2. ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के भाग-21 में संकलित लेख ‘मौलाना वहीदुद्दीन सलीम’ के मूल रचयिता सैयद अब्दुल वदूद दर्द बरेलवी हैं और यह लेख ‘जमाना’ के अगस्त 1928 के अंक में ‘मौलाना सलीम पानीपती’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

3. ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के भाग-21 में संकलित लेख ‘अब्दुल हलीम शरर’ के मूल रचयिता ख्वाजा अब्दुल रऊफ इशरत लखनवी हैं और यह लेख ‘जमाना’ के फरवरी 1927 के अंक में ‘मौलाना शरर मरहूम’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

खेदजनक है कि हिन्दी में और भी अधिक अराजकता की स्थिति विद्यमान है। कानपुर के उर्दू मासिक ‘जमाना’ के दिसम्बर 1917 के अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘दर्द और दवा’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। डा. कमल किशोर गोयनका के सम्पादन में प्रकाशित ‘प्रेमचंद विश्वकोश’ के द्वितीय भाग के पृष्ठ संख्या 189 पर इस कहानी का सन्दर्भ देते हुए उसका शीर्षक आश्चर्यजनक रूप से बदलकर ‘दवा और दारू’ कर देने की पृष्ठभूमि क्या है, कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक उदाहरण और। प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम को अगस्त से दिसम्बर 1914 के मध्य एक पत्र लिखा था जिसका अविकल पाठ निगम साहब ने ‘जमाना’ के जनवरी 1915 के अंक में प्रकाशित करा दिया था। ‘जमाना’ में प्रकाशित इस पत्र का देवनागरी लिप्यन्तरण निम्नांकित है -

"मुशफिके मन, तसलीम। आपने सुरूर मरहूम के जो खुतूत और हजरत शाकिर के जो मसौदे मेरे पास भेजे हैं उन्हें देखने के बाद मुझे आपसे कुल्ली इत्तिफाक है कि उन नज्मों के असली मुसन्निफ सुरूर हैं। हजरत शाकिर ने संस्कृत से उर्दू में जरूर तर्जुमा किया है और नज्म के मुताल्लिक जाबजा हिदायतें भी की हैं मगर इन काविशों का यहीं तक खात्मा हो जाता है। ताज्जुब है कि उर्दू के तब्का-ए-मुसन्निफीन में भी इस किस्म की बिद्अतें होती हैं। कैसी हसरत का मकाम है कि उर्दू पब्लिक की नाकद्रदानी ने ऐसे खुशबयान सुखनवर को कलील नफे के लिए इन जरूरतों पर मजबूर किया। आपने मेरे दीबाचे में जो तरमीम फरमाई है वह बहमा वजूह मुनासिब है। काश, मुझे पहले इसका इल्म होता तो मैं हरगिज यह दीबाचा लिखने के लिए कलम न उठाता। वस्सलाम।"

परन्तु यही पत्र जब डा. कमल किशोर गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-2 के पृष्ठ संख्या 33 पर प्रकाशित किया तो इसका निम्नांकित पाठ प्रस्तुत किया -

" (सम्भवतः 1913)

मुशफिके मन,

तसलीम!

आपने सरवर मरहूम के नाम जो खत और हजरत शाकिर के जो मसौदे मेरे पास भेजे हैं, उन्हें देखने के बाद मुझे आपसे कुली इत्तफाक है। इन नज्मों के असल मुसन्निफ सरवर हैं। ताज्जुब है कि उर्दू के तब्काए-मुसन्निफिन (लेखक वर्ग) में इस किस्म की बद आदतें हैं। कैसी हैरत का मुकाम है कि उर्दू पब्लिक की नाकद्रदानी ने ऐसे खुशबयाँ सुखनबर को कलील नफा (छोटे लाभ) के लिए इन जरूरतों पर मजबूर किया। आपने मेरे दीबाचे में जो तरमीम फरमाई है, वह लहजा वजूह मुनासिब है। काश! मुझे पहले इसका इल्म होता तो मैं दीबाचा लिखने के लिए हर्गिज कलम ना उठाता।

वस्सलाम,

प्रेमचंद"

प्रेमचंद के एक ही पत्र के दोनों उपलब्ध पाठों की तुलना करने से पत्र की भाषा में कर दिया गया व्यापक परिवर्तन स्पष्ट हो जाता है। साथ ही डा. गोयनका द्वारा पत्र में से एक पूरा वाक्य ही उड़ा देने में क्या रहस्य है, कुछ समझ में नहीं आता। उल्लेखनीय है कि डा. गोयनका प्रेमचंद साहित्य के सर्वाधिक प्रचारित विशेषज्ञ हैं और उन्होंने पत्र की तिथि का अनुमान करने में ही त्रुटि नहीं की वरन् प्रेमचंद के आत्मीय मित्र और सुप्रसिद्ध शायर मुंशी दुर्गा सहाय ‘सुरूर’ जहानाबादी का नाम भी त्रुटिपूर्ण रूप से ‘सरवर’ प्रकाशित करा दिया।

उपर्युक्त इने-गिने उदाहरणों से ही भली प्रकार समझा जा सकता है कि प्रेमचंद साहित्य के पाठ निर्धारण के सम्बन्ध में कैसी घोर अराजकता व्याप्त हो गई है।

सन् 1980 में प्रेमचंद की जन्म शताब्दी और 2005 में 125वीं जन्म जयन्ती के समारोह व्यापक स्तर पर धूमधाम से मनाए गए, अनेक छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं ने विशेषांक प्रकाशित किए, सरकारी स्तर पर भी बड़े-बड़े समारोह हुए, बड़ी-बड़ी घोषणाएँ हुईं लेकिन समस्त चमक-दमक और धूमधड़ाके के मध्य प्रेमचंद के वास्तविक स्मारक - उनकी रचनाओं का कोई पुरसाने हाल न मिल सका, किसी ने उनकी दुर्दशा पर दो आँसू बहाने का भी कष्ट नहीं किया। इन दोनों साहित्यिक महाकुम्भों के मध्य की चौथाई सदी हिन्दी-उर्दू में गिने-चुने स्वनामधन्य ‘प्रेमचंद-विशेषज्ञों’ के उदय और प्रचार-प्रसार की साक्षी रही और इसी मध्य हिन्दी में ‘प्रेमचंद रचनावली’ और उर्दू में ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ शीर्षकों से प्रेमचंद की समस्त रचनाएँ हिन्दी-उर्दू में संकलित करने के बड़े-बड़े दावे भी कर दिए गए। परन्तु खेद का विषय है कि तथाकथित ‘प्रेमचंद-विशेषज्ञ’ देश-विदेश में आयोजित असंख्य समारोहों में लच्छेदार भाषण देकर पैसा कमाते घूमते रहे और प्रेमचंद की समस्त ज्ञात-अज्ञात हिन्दी-उर्दू रचनाएँ अपनी दुर्दशा पर खून के आँसू बहाती रहीं।

ध्यातव्य है कि प्रेमचंद केवल हिन्दी या उर्दू के रचनाकार ही नहीं थे वरन् लगभग 35 वर्षों के अपने लेखकीय जीवन में दोनों भाषाओं की एकता के लिए भी निरन्तर प्रयत्नशील रहे। प्रेमचंद की अधिकांश कहानियाँ तथा उपन्यास भी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुए। आश्चर्य का विषय है कि हिन्दी-उर्दू दोनों भाषाओं में अनवरत साहित्य सर्जन करने वाले विश्वविश्रुत रचनाकार के दोनों पुत्र उनके देहावसान के उपरान्त मात्र प्रेमचंद की हिन्दी रचनाओं के प्रकाशन तक ही सीमित बने रहे। उधर प्रेमचंद साहित्य के समस्त स्वयंभू ‘विशेषज्ञों’ में से कोई भी ऐसा न निकल सका जो उनकी हिन्दी-उर्दू रचनाओं के सम्बन्ध में समान अधिकार के साथ कार्य कर सकता। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि प्रेमचंदकालीन हिन्दी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में अचीन्ही पड़ी रचनाओं की खोज के श्रमसाध्य, समयसाध्य और व्ययसाध्य कार्य में हाथ डालने का साहस कोई न जुटा सका, और हिन्दी वालों ने हिन्दी की और उर्दू वालों ने उर्दू की यथाउपलब्ध रचनाएँ प्रकाशित करने को ही कार्य की पूर्णता समझकर भ्रमात्मक दावा कर दिया कि प्रेमचंद की समस्त रचनाएँ संकलित कर ली गई हैं। यह हिन्दी-उर्दू के साहित्य प्रेमियों, सुधी पाठकों और शोधकर्ताओं के साथ अन्याय ही नहीं, छल भी है।

प्रेमचंद की समस्त हिन्दी-उर्दू रचनाओं को संकलित-प्रकाशित करने के साथ- साथ उनकी समस्त अप्राप्य रचनाओं को भी खोजकर संकलित करने से ही साहित्य- जगत् इस पाप का प्रायश्चित्त कर सकता है। ऐसा कर पाने पर ही हम हिन्दी-उर्दू साहित्याकाश को भगवान् सवितानारायण के सदृश अपनी सतरंगी तेजोमयी उर्मियों से निरन्तर आलोकित करने वाले कालजयी रचनाकार प्रेमचंद का वास्तविक स्मारक बनाकर भावी पीढ़ियों को उनकी विरासत सौंपने में सफल हो सकेंगे और दिसम्बर 1936 में अभिव्यक्त पं. बनारसीदास चतुर्वेदी की इस आशंका को निर्मूल सिद्ध कर सकेंगे-

"यह समय हिन्दी वालों की परीक्षा का है। देखना है कि हिन्दी जनता अपने सर्वश्रेष्ठ कलाकार के लिए क्या करती है। जमाना बड़ी तेजी के साथ बदल रहा है। साहित्य-क्षेत्र की दूसरी पीढ़ी बजाय बीस-पचीस वर्ष के दस वर्ष बाद ही आजायगी। सन् 1947 का नवयुवक हिन्दी लेखक पूछेगा - कहाँ हैं वे व्यक्ति जो प्रेमचंदजी के बड़े मित्र और प्रशंसक बनने का दम भरते थे? उन्होंने हमारे उस नर-रत्न की कीर्ति रक्षा के लिए - उसके व्यक्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए क्या किया? उस समय हम क्या जवाब देंगे? हर आदमी अपने हृदय पर हाथ रखके सोच ले और समय रहते सावधान हो जाय।"

 

परिशिष्ट-3

प्रेमचंद और आर्य समाज

अपने गुरु स्वामी विरजानंदजी महाराज के महाप्रयाण (14 सितम्बर 1868) के लगभग 7 वर्ष पश्चात् और मुंशी प्रेमचंद के जन्म (31 जुलाई 1880) से लगभग 5 वर्ष पूर्व युगपुरुष स्वामी दयानंद सरस्वतीजी महाराज ने 10 अप्रैल 1875 को मुम्बई में आर्य समाज नामक उस महान् संस्था की आधारशिला रखी, जिसने न केवल देश के सामाजिक वातावरण को व्यापक रूप से प्रभावित करके समाज को नितान्त नूतन दिशा देकर रूढ़िवादिता और सामाजिक बुराइयों के गहन अंधेरे से बाहर निकालने का सार्थक प्रयास किया, वरन् निपट निरंकुश विदेशी दासता का जुआ उतार फेंकने को उद्धत भारतीय जनता को साम्राज्यवाद से संघर्ष करने की अक्षय ऊर्जा से भी सम्पन्न कर दिया।

आर्य समाज का उद्देश्य अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के कारण देश में पाँव पसारते पश्चिमी अंधानुकरण का निषेध और अनादि काल से चले आते वैदिक धर्म, शिक्षा तथा दर्शन के सर्वथा अनुकूल पद्धति पर भारतीय समाज को संस्कारित करना था। भारतीय समाज के पुनरुत्थान के लिए स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने हिन्दू समाज की समस्त विकृतियों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने बहुदेववाद और मूर्तिपूजा का खण्डन करके एकेश्वरवाद की स्थापना की; जाति-पाँति के बन्धनों से ऊपर उठकर समूचे विश्व को एक ही आर्य जाति के रूप में देखने पर बल दिया; बाल-विवाह और समुद्र-यात्रा निषेध जैसी रूढ़ियों को तोड़ने का सफल प्रयास किया; विधवा-विवाह के समर्थन में शंखनाद करके नितान्त उपेक्षित जीवन जीने पर विवश विधवाओें की सामाजिक प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने का महनीय उद्योग किया और अन्यान्य कारणों से वैदिक धर्म का परित्याग करके अन्य धर्म अपना लेने वाले बन्धुओें को हिन्दू समाज में वापस लौटा लाने के लिए शुद्धि आन्दोलन छेड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में तो आर्य समाज के सत्प्रयासों से एक क्रान्ति ही हो गई। देश के सम्पूर्ण विस्तार में फैला दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालयों तथा महाविद्यालयों का सघन जाल तथा देश का प्र्रथम राष्ट्रीय विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी आर्य समाज की ही देन हैं। यद्यपि आर्य समाज की स्थापना के मात्र 8 वर्ष उपरान्त ही 30 अक्टूबर 1888 को स्वामी दयानंद सरस्वतीजी इस नश्वर संसार से विदा हो गए, परन्तु उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने देश को व्यापक रूप से आन्दोलित किया और उनके आदर्शों का अनुसरण करते हुए भारतीय समाज निरन्तर प्रगति करता रहा और कर रहा है। सन् 1901 में जब मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण किया तो उस समय समूचे देश में आर्य समाज तथा स्वामी दयानंद सरस्वतीजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों की तूती बोल रही थी, जिससे प्रेमचंद जैसे संवेदनशील रचनाकार का निस्पृह बने रह पाना असम्भव ही था।

प्रेमचंद का पहला उपन्यास बनारस से मुंशी गुलाब चन्द के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक ‘आवाजे खल्क’ में ‘असरारे मआबिद’ शीर्षक से 8 अक्टूबर 1903 से 1 फरवरी 1905 तक धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। अपने इस पहले ही उपन्यास में प्रेमचंद आर्य समाज के समाज-सुधार के आन्दोलन से स्पष्टतया प्रभावित दिखाई देते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने जिस प्रभावशाली ढंग से मन्दिरों के महन्तों तथा पुजारियों के दुराचार तथा कामवासनाओं का भण्डाभोड़ किया है, वह इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि आर्य समाज की सुधारवादी नीतियों का पालन करते हुए प्रेमचंद मूर्तिपूजा और उसके आवरण में होने वाले दुष्कृत्यों के विरुद्ध थे और यही मानते थे कि मूर्तिपूजा का पाखण्ड दूर होने पर ही समाज प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकता है।

विधवा-विवाह के समर्थन में जनमानस तैयार करने की आर्य समाज की भावना से प्रेमचंद अछूते न रह सके और उन्होंने विधवा-विवाह के समर्थन में एक उपन्यास ‘हमखुर्मा व हमसवाब’ लिखकर 1904 में प्रकाशित कराया। अब से एक शताब्दी पहले इस भावभूमि पर उपन्यास लिखकर रूढ़िग्रस्त भारतीय समाज के समक्ष प्रस्तुत करना एक क्रान्तिकारी कदम था, जिसकी पृष्ठभूमि में आर्य समाज का प्रभाव स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है। यहाँ यह उल्लेख करना भी सर्वथा समीचीन होगा कि प्रेमचंद ने इस उपन्यास का हिन्दी रूप भी ‘प्रेमा’ शीर्षक से 1907 में प्रकाशित कराया था ताकि उनकी बात हिन्दी पाठक वर्ग तक भी पहुँच सके। ध्यातव्य है कि 1901 से 1915 तक के कालखण्ड में ‘प्रेमा’ उपन्यास के अतिरिक्त प्रेमचंद की समस्त रचनाएँ केवल उर्दू में ही प्रकाशित हुईं। इस तथ्य के आलोक में आर्य समाज के प्रति प्रेमचंद का झुकाव सहज ही हृदयंगम किया जा सकता है।

जिस समय प्रेमचंद विधवा-विवाह के समर्थन में उपन्यास लिख रहे थे, उसी समय उन्होंने आर्य समाज के सिद्धान्तों को चरितार्थ करने का भी संकल्प कर लिया था। प्रेमचंद उस समय सरकारी शिक्षा विभाग में कार्यरत थे और उनका विवाह किसी कुँआरी कन्या से सहजता के साथ हो सकता था, परन्तु आर्य समाज की विचाराधारा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए उन्होंने 1907 में एक बाल-विधवा शिवरानी देवी से विवाह करके समाज के समक्ष आर्य समाजी सिद्धान्तों का आदर्श प्रस्तुत किया।

आर्य समाज ने अन्याय कारणों तथा प्रलोभनों से हिन्दू धर्म छोड़कर अन्य धर्म स्वीकार कर लेने वाले बन्धुओं की शुद्धि करके पुनः हिन्दू धर्म की विस्तृत सभा में सम्मिलित करने का अभियान छेड़ा था। शुद्धि आन्दोलन के क्रम में जब मलकाना राजपूत मुसलमानों के जबरन शुद्धिकरण के समाचार के साथ इसके विरोध में मुस्लिम समुदाय के संगठित होने की सूचना प्रेमचंद को प्राप्त हुई तो उससे व्यथित होकर उन्होंने मुंशी दयानारायण निगम के सम्पादन में कानपुर से प्रकाशित होने वाले उर्दू मासिक ‘जमाना’ के मई 1923 के अंक में ‘मलकाना राजपूत मुसलमानों की शुद्धि’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित कराया। प्रेमचंद का यह लेख बाह्य रूप में तो शुद्धि आन्दोलन का विरोध करता प्रतीत होता है और इससे क्षुब्ध होकर शुद्धि आन्दोलन के समर्थकों ने प्रेमचंद पर आक्षेप भी किए परन्तु वास्तविकता कुछ और ही है। प्रेमचंद ने अपने इस महत्त्वपूर्ण लेख में शुद्धि आन्दोलन को मुसलमानों के साथ-साथ ईसाइयों तक विस्तृत करने की भावना प्रकट की थी। इसके अतिरिक्त समाज से घृणित छुआछूत मिटाने और दलितोत्थान का आह्वान करते हुए उन्होंने लिखा -

"उनको क्यों नहीं अपनाते, जिनके अपनाने से हिन्दू कौम को असली कुव्वत हासिल होगी। करोड़ों अछूत ईसाइयों के दामन में पनाह लेते चले जाते हैं, उन्हें क्यों नहीं गले से लगाते। अगर आप कौम के सच्चे खैरख्वाह हैं तो इन अछूतों को उठाएँ, इन पामालों के जख्मों पर मरहम रखें, उनमें तालीम और तहजीब की रोशनी पहुँचाएँ, आला और अदना की कैदों को मिटाएँ। छूतछात की बेमानी और मुहमिल कैदों से कौम को पाक कीजिए। क्या हमारी रासिख-उल-एतकाद मजहबी जमातें डोमों और चमारों से बिरादराना मसावात करने के लिए तैयार हैं। अगर नहीं हैं तो उनकी शीराजाबन्दी का दावा बातिल है। आप या तो हुक्काम की रेशादवानियों के शिकार हो गए हैं, या मजहबी तंगनजरी ने आपकी बसारत को गायब कर दिया है। आपको वाजे हो कि मुसलमानों से दुश्मनी करके, अपने पहलू में काँटे बोकर आप अपनी कौम को मजबूत नहीं कर रहे हैं। आप मुसलमानों को जबरन, कहरन हुक्मराँ कौम की मदद लेने के लिए मजबूर कर रहे हैं। आप अपनी तलवार मुकाबिल के हाथ में दे रहे हैं। आपका खुदा ही हाफिज है।"

उपर्युक्त शब्दों से स्पष्ट है कि प्रेमचंद शुद्धि आन्दोलन के विरोधी नहीं हैं वरन् इसके प्रतिकूल वे इस आन्दोलन को एक व्यापक आधार देने का समर्थन करते दिखाई देते हैं। देश के स्वाधीनता संघर्ष में आर्य समाज के व्यापक योगदान की पृष्ठभूमि में भी प्रेमचंद स्वाधीनता प्राप्ति के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता को आवश्यक तत्त्व मानते हुए आर्य समाज के सिद्धान्तों और कार्यप्रणाली को व्यावहारिक रूप प्रदान करते दिखाई देते हैं।

भारतीय शिक्षा प्रणाली का प्रथम राष्ट्रीय विश्वविद्यालय स्वामी श्रद्धानन्दजी ने हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी के नाम से स्थापित किया था, जो आज तक देश के शैक्षिक वातावरण को सार्थक दिशा देने का महनीय कार्य सम्पादित कर रहा है। गुरुकुल कांगड़ी की साहित्य परिषद् के जुलाई 1927 में हुए वार्षिकोत्सव की अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी और इस उत्सव में वहाँ निरन्तर तीन दिन तक प्रवास करके गुरुकुल कांगड़ी से पर्याप्त परिचय प्राप्त किया था। वहीं पंडित पद्म सिंह शर्मा से प्रेमचंद के आत्मीय सम्बन्ध बने और उन्हीं दिनों वहाँ छात्र रहे चंद्रगुप्त विद्यालंकार से भी सम्बन्ध स्थापित हुए जो यावज्जीवन बने रहे। यह खेद का विषय है कि वहाँ दिया गया प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण तो प्रेमचंद साहित्य के विद्वानों की घोर उपेक्षा तथा उदासीनता का शिकार हो गया, परन्तु प्रेमचंद ने वहाँ के तीन दिनों के अनुभव लिपिबद्ध करके ‘गुरुकुल कांगड़ी में तीन दिन’ शीर्षक लेख के रूप में लखनऊ की मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ के अप्रैल 1928 के अंक में प्रकाशित करा दिए थे। प्रेमचंद साहित्य के अध्येताओं तथा स्वयंभू विशेषज्ञों ने इस तथ्य की भी उपेक्षा कर दी है कि प्रेमचंद के इस लेख का उर्दू अनुवाद उर्दू पत्रकारिता के युगपुरुष महाशय कृष्णजी के सम्पादन में लाहौर से प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक ‘प्रकाश’ के 22 अप्रैल 1928 के अंक में भी प्रकाशित हो चुका है। आर्य समाज से सम्बन्धित पत्र का सन्दर्भ न देने से ‘प्रेमचंद-विशेषज्ञों’ की पूर्वाग्रहग्रसित मानसिकता ही स्पष्ट होती है। गुरुकुल कांगड़ी के अनुभवों पर प्रेमचंद ने एक पूरक लेख लिखकर चार वर्ष उपरान्त पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के सम्पादन में कलकत्ता से प्रकाशित मासिक पत्र ‘विशाल भारत’ के अगस्त 1932 के अंक में ‘पद्मसिंह शर्मा के साथ तीन दिन’ शीर्षक से प्रकाशित कराया था, जो प्रेमचंद के मानस पर आर्य समाज की स्थायी छाप का ज्वलन्त प्रमाण है। खेद के साथ उल्लेख करना पड़ता है कि प्रेमचंद-विशेषज्ञों ने ‘विशाल भारत’ जैसी प्रसिद्ध तथा सहज उपलब्ध पत्रिका में प्रकाशित प्रेमचंद के इस लेख का भी कोई संज्ञान नहीं लिया कि कहीं प्रेमचंद और आर्य समाज के पारस्परिक सम्बन्धों को प्रामाणिक आधार देना ही आवश्यक न हो जाए। इसे साहित्यिक बेईमानी के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है?

दिल्ली से प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र ‘शुद्धि समाचार’ का जनवरी-फरवरी 1932 का संयुक्तांक श्रद्धानन्द बलिदान अंक के रूप में प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्रेमचंद का लेख ‘स्वामी श्रद्धानन्द और भारतीय शिक्षा प्रणाली’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस लेख में प्रेमचंद ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को स्वामी श्रद्धानन्दजी की देन पर विस्तार से प्रकाश डाला है। प्रकारान्तर से इस लेख को भी स्वामी श्रद्धानन्दजी द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी में बिताए गए तीन दिनों से प्रभावित स्वीकार किया जा सकता है। इस लेख से भी प्रेमचंद की आर्य समाजी विचारधारा ही प्रमाणित होती है।

ध्यातव्य है कि प्रेमचंद ने अपने 7 फरवरी 1913 के पत्र में मुंशी दयानारायण निगम को लिखा था -

"मेरे जिम्मे हमीरपुर आर्य समाज के दस रुपए बाकी हैं। बार-बार तकाजा हुआ है, मगर अपनी तिहीदस्ती ने इजाजत न दी कि अदा कर दूँ। आप अगर कर सकें तो बराहे रास्त मेरे नाम से हमीरपुर आर्य समाज के सेक्रेटरी के नाम दस रुपए का मनीऑर्डर कर दें। ममनून हूँगा। तकलीफ तो होगी, मगर मेरी खातिर इतना सहना पड़ेगा, क्योंकि यहाँ अब जलसा भी अनकरीब होने वाला है। मुकर्रर अर्ज यह है कि यह दस रुपए जरूर भेज देवें। मैंने जनवरी में अदा करने का हतमी वादा किया है।"1

उपर्युक्त पत्रांश से स्पष्ट है कि प्रेमचंद आर्य समाज का सदस्यता शुल्क भुगतान करने के लिए चिंतित हैं। इन शब्दों से यह समझने में कोई बाधा नहीं है कि सन् 1913 तक प्रेमचंद विधिवत् रूप से आर्य समाज के सदस्य बन चुके थे और उनका आर्य समाज से एक बार सम्बन्ध बना तो फिर जीवन-भर बना रहा। अपने जीवन के सांध्यकाल में प्रेमचंद ने लाहौर में आयोजित होने वाले आर्यभाषा सम्मेलन में भाग लेने का चंद्रगुप्त विद्यालंकार का निमंत्रण स्वीकार किया और अप्रैल 1936 में लाहौर जाकर एक लाख से अधिक श्रोताओं की विराट् सभा में आर्य समाज के पक्ष में बोलते हुए कहा -

"मैं तो आर्य समाज को जितनी धार्मिक संस्था समझता हूँ, उतनी तहजीबी संस्था भी समझता हूँ। बल्कि आप क्षमा करें तो मैं कहूँगा कि उसके तहजीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से ज्यादा प्रसिद्ध और रोशन हैं। आर्य समाज ने साबित कर दिया है कि सेवा ही किसी धर्म के सजीव होने का लक्षण है। सेवा का ऐसा कौन-सा क्षेत्र है, जिसमें उसकी कीर्ति की ध्वजा न उड़ रही हो। कौमी जिन्दगी की समस्याओं को हल करने में उसने जिस दूरंदेशी का सबूत दिया है, उस पर हम गर्व कर सकते हैं। हरिजनों के उद्धार में सबसे पहले आर्य समाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की जरूरत को सबसे पहले उसने समझा। वर्ण व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर है। जाति भेदभाव और खानपान के छूतछात और चौके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है।... इन विचारों को जनता तक पहुँचाने का बीड़ा आर्य समाज ने ही उठाया। अंधविश्वास और धर्म के नाम पर किये जाने वाले हजारों अनाचारों की कब्र उसने खोदी, हालाँकि मुर्दे को उसमें दफन न कर सका और अभी तक उसकी जहरीली दुर्गन्ध उड़-उड़कर समाज को दूषित कर रही है। समाज के मानसिक और बौद्धिक धरातल को आर्य समाज ने जितना उठाया है, शायद ही भारत की किसी संस्था ने उठाया हो। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगों के गहन विषयों को जनसाधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवर वाले ताले लगे हुए थे। ... गुरुकुलाश्रम को नया जन्म देकर आर्य समाज ने शिक्षा को सम्पूर्ण बनाने का महान् उद्योग किया है।"

प्रेमचंद के उपर्युक्त शब्द पुकार-पुकारकर कह रहे हैं कि ये उस व्यक्ति के मुँह से निकले हुए शब्द हैं, जिसने अपने जीवन को आर्य समाज की विचारधारा के अनुरूप ढाला है, जो आर्य समाज के संस्कारों से संस्कारित है और जो आर्य समाज की विचारधारा से पूर्णता में प्रभावित है। आश्चर्य है कि प्रेमचंद और आर्य समाज के इन पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में प्रेमचंद साहित्य के विद्वानों, प्रेमचंद-विशेषज्ञों और उनके जीवनीकारों ने अखण्ड मौन धारण कर लिया है और प्रेमचंद के आर्य समाजी होने की वास्तविकता के प्रतिकूल कभी उन्हें मार्क्सवादी, कभी गांधीवादी, कभी सामन्त का मुंशी और कभी साम्यवाद-विरोधी सिद्ध करने के दुष्प्रयास किए जाते रहे हैं। आर्य समाज और प्रेमचंद के पारस्परिक सम्बन्धों को विस्मृति के गहन अंधेरे गर्त में डाले रखने की दृष्टि से प्रेमचंद के कथित ‘विशेषज्ञों’ ने अन्यान्य हिन्दी-उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं की खोज की, अनेकानेक पत्र-पत्रिकाओं के सन्दर्भ प्रस्तुत किए, परन्तु किसी ने भी आर्य समाज से सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाओं को उलटने-पलटने का कोई प्रयास नहीं किया। प्रेमचंद जैसे देश के सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वमान्य रचनाकार के जीवन की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वास्तविकता को छिपाने का यह घिनौना षड्यंत्र है, जिसका भंडाफोड़ प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासुजी ने अपने लेख ‘मुंशी प्रेमचंद ऋषि दयानन्द और आर्य समाज’ में किया है।

पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि महाशय कृष्णजी के सम्पादन में लाहौर से उर्दू साप्ताहिक ‘प्रकाश’ प्रकाशित होता था, जो आर्य समाजी विचारधारा का एक प्रमुख पत्र था तथा प्रसिद्ध आर्य प्रकाशक महाशय राजपालजी (स्वामी राजपाल एंड संस, लाहौर; वर्तमान में दिल्ली) इसके सहायक सम्पादक थे। इस पत्र का 27 अक्टूबर 1929 का अंक ‘ऋषि नम्बर’ के रूप में प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्रेमचंद की एक उर्दू कहानी ‘आपकी तस्वीर’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस कहानी को अप्राप्य तथा असन्दर्भित बताते हुए प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इसका हिन्दी अनुवाद सन् 2003 में ‘आपका चित्र’ शीर्षक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया था। प्रो. जिज्ञासु द्वारा अनूदित इस कहानी का प्रारम्भिक अंश निम्नवत् है -

"लोग मुझ से कहते हैं तुम भी मूर्ति-पूजक हो। तुम ने भी तो स्वामी दयानन्द का चित्र अपने कमरे में लटका रखा है। माना कि तुम उसे जल नहीं चढ़ाते हो। इसको भोग नहीं लगाते। घण्टा नहीं बजाते। उसे स्नान नहीं कराते। उसकाशृंगार नहीं करते। उसका स्वांग नहीं बनाते। उसको नमन तो करते ही हो। उसकी (ऋषि दयानन्द की) विचारधारा को तो सिर झुकाते हो। मानते ही हो। कभी-कभी माला व फूलों से भी उसका सम्मान करते हो। यह पूजा नहीं तो और क्या है?

उत्तर देता हूँ कि श्रीमन् इस आदर (ताज़ीम) व पूजा में अन्तर है। बहुत बड़ा अन्तर है। मैं उसे अपने कक्ष में इसलिए नहीं लटकाये हुए हूँ कि उसके दर्शन से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। मैं आवागमन के चक्कर से छूट जाऊँगा। उसके दर्शन मात्र से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे अथवा मैं उसे प्रसन्न करके अपना अभियोग (बेंम) जीत जाऊँगा अथवा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लूंगा किंवा और किसी ढंग से मेरा धार्मिक अथवा सांसारिक प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा। मैं उसे केवल इस कारण से अपने कमरे में लटकाये हुए हूँ कि स्वामी जी के जीवन का उच्च व पवित्र आचरण सदा मेरे नयनों के सम्मुख रहे। जिस घड़ी सांसारिक लोगों के व्यवहार से मेरा मन ऊब जाये, जिस समय प्रलोभनों के कारण पग डगमगायें अथवा प्रतिशोध की भावना मेरे मन में लहरें लेने लगे अथवा जीवन की कठिन राहें मेरे साहस व शौर्य की अग्नि को मन्द करने लगें, उस विकट वेला में उस पवित्र मोहिनी मूर्त के दर्शनों से आकुल व्याकुल हृदय को शान्ति हो। दृढ़ता धीरज बने रहें। क्षमा व सहनशीलता के मार्ग पर पग चलते चलें तथा मैं अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि इस चित्र से मुझे लाभ पहुँचा है और एक बार नहीं कई बार।"1

यही नहीं, स्वामी दयानन्द जी के आदमकद चित्र के दर्शन करने मात्र से हृदय परिवर्तित हो जाने की घटना का भावपूर्ण चित्रण करते हुए इसी कहानी में प्रेमचंद लिखते हैं -

"अभी चूंकि कुछ देर थी अतः सोचा चलो सन्ध्या कर लूं। ज्यूं ही सन्ध्या-कक्ष में प्रवेश किया, भीतर पग धरते ही वहाँ नित्य की भाँति जिस वस्तु पर दृष्टि पड़ी वह स्वामी जी का मानवीय आकार का चित्र था। मैं एकदम चौंक पड़ा। जैसे कोई व्यक्ति उस समय चोर के कन्धे पर हाथ धर दे जबकि वह सेंध मार रहा हो। मेरा कलेजा धक से हो गया। प्रतिदिन यही चित्र देखा करता था। दिन में सैकड़ों बार उस पर दृष्टि पड़ती थी। आज मेरी जो मनःस्थिति बनी वैसी कभी भी न हुई थी। ऐसा लगा कि वे नयन तर्जना के लिए मेरी ओर देख रहे थे। उनमें कितनी झिड़की थी। कितनी लज्जा, कितना अनुताप, कितनी निराशा, हा! मैं उस ओर ताक ही न सका। एकदम आँखें झुका लीं। उन आँखों के सामने खड़े होने की मुझे हिम्मत ही न हुई। वे चित्र के नयन नहीं थे। जीवित, तेजस्वी, प्रेरक नयन थे, हृदय में घुस जाने वाले, नोकदार सरिये के समान सीने में चुभने वाले। मुझे ऐसा भय लगा कि गिर पडूंगा। मैं वहीं फर्श पर बैठ गया। मेरा शीश अपने आप ही झुक गया।

सर्वथा अनजाने में, सर्वथा अनुभव न होने वाली रीति से मेरे निश्चय में, विचारों में, इच्छाओं में एक क्रान्ति हो गई। इस सत्य के पुतले ने, इस तेज पुञ्ज व्यक्तित्व ने मेरी अन्तरात्मा को जगमगा दिया। हृदय में क्या-क्या भाव जागृत हुए, इसका मुझे पता नहीं।"1

1. आपका चित्र,

इस कहानी के उपर्युक्त उद्धरणों से सुस्पष्ट है कि आर्य समाज और उसके प्रवर्तक स्वामी दयानन्द जी में प्रेमचंद की अगाध निष्ठा थी। ध्यातव्य है कि प्रो. जिज्ञासु जी इस कहानी को अप्राप्य तथा असन्दर्भित बताने की त्रुटि कर बैठे। वास्तविकता यह है कि ‘प्रकाश’ में प्रकाशित होने के लगभग दो माह पश्चात् इस कहानी का संशोधित हिन्दी रूप कलकत्ता से पं. बनारसी दास चतुर्वेदी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र ‘विशाल भारत’ के दिसम्बर 1929 के अंक में ‘कवच’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। और इसका वही संशोधित उर्दू रूप 1930 में उर्दू कहानी संकलन ‘प्रेम चालीसी’, भाग-2 में ‘हिर्जे जाँ’ शीर्षक से सम्मिलित किया गया था। आश्चर्य का विषय है कि ‘आपकी तस्वीर’ कहानी के दो प्रमुख तथा पूर्व उद्धृत अंशों में से प्रथम अंश, जिसमें स्वामी दयानन्द जी का स्पष्ट एवं विस्तृत उल्लेख किया गया है, इस कहानी के परवर्ती रूपों से हटा दिया गया है। इसके अतिरिक्त द्वितीय अंश में न केवल स्वामी दयानन्द जी के स्थान पर ‘माताजी’ का उल्लेख किया गया है, वरन् बहुत सा भाग परिवर्तित भी कर दिया गया है। यह अंश हिन्दी कहानी ‘कवच’ में निम्नवत् प्राप्त होता है -

"अभी चूंकि देर थी, मैंने सोचा, आओ सन्ध्या कर लूं। ज्यों ही सन्ध्या के कमरे में कदम रखा, माताजी के तिरंगे चित्र पर नजर पड़ी। मैं मूर्तिपूजक नहीं हूँ, धर्म की ओर मेरी प्रवृत्ति भी नहीं है, न कभी कोई व्रत रखता हूँ, लेकिन न जाने क्यों, उस चित्र को देखकर अपनी आत्मा में एक प्रकाश का अनुभव करता हूँ। उन आँखों में मुझे अब भी वही वात्सल्यमय ज्योति, वही दैवी आशीर्वाद मिलता है, जिसकी बाल-स्मृति अब भी मेरे हृदय को गद्गद कर देती है। वह चित्र मेरे लिए चित्र नहीं, बल्कि सजीव प्रतिमा है, जिसने मेरी सृष्टि की है और अब भी मुझे जीवन प्रदान कर रही है। इस चित्र को देखकर मैं यकायक चौंक पड़ा, जैसे कोई आदमी उस वक्त चोर के कंधे पर हाथ रख दे जब वह सेंध मार रहा हो। इस चित्र को रोज ही देखा करता था, दिन में कई बार उस पर निगाह पड़ती थी, पर आज मेरे मन की जो दशा हुई, वह कभी न हुई थी। मालूम हुआ कि वह आँखें मुझे धिक्कार रही हैं। उनमें कितनी वेदना थी, कितनी लज्जा और कितना क्रोध! मानो वह कह रही थीं, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मैं उस तरफ ताक न सका। फौरन आँखें झुका लीं। उन आँखों के सामने खड़े होने की हिम्मत मुझे न हुई। वह तस्वीर की आँखें न थीं, सजीव, तीव्र और ज्वालामय, हृदय में पैठने वाली, नोकदार भाले की तरह हृदय में चुभने वाली आँखें थीं। मुझे ऐसा मालूम हुआ, गिर पडूंगा। मैं वहीं फर्श पर बैठ गया। मेरा सिर आप ही आप झुक गया। बिल्कुल अज्ञातरूप से मानो किसी दैवी प्रेरणा से मेरे संकल्प में एक क्रान्ति-सी हो गयी। उस सत्य के पुतले, उस प्रकाश की प्रतिमा ने मेरी आत्मा को सजग कर दिया। मन में क्या-क्या भाव उत्पन्न हुए, क्या-क्या विचार उठे, इसकी मुझे खबर नहीं।"1

1. प्रेमचंद रचनावली, भाग-14,

इस अंश के दोनों रूपों की तुलना करने से स्पष्ट होता है कि यद्यपि प्रेमचंद ने इसमें से ‘स्वामी जी’ शब्द परिवर्तित करके ‘माता जी’ लिखा है और इसकी पुष्टि में माता जी के अनुकूल भावों को भी अभिव्यक्त किया है, परन्तु मूल शब्द अर्थात् स्वामी दयानन्द जी से भाव-साम्य रखने वाले शब्दों ‘सत्य के पुतले’ और ‘प्रकाश की प्रतिमा’ को ज्यों का त्यों रहने दिया जो ‘माता जी’ शब्द के लेशमात्र भी अनुकूल नहीं है।

इस कहानी से स्वामी दयानन्द जी का नाम हटाने में प्रेमचंद का क्या प्रयोजन था, यह कहना तो कुछ सम्भव नहीं है लेकिन इसके प्रथम प्रकाशित उर्दू रूप से इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं रहता कि प्रेमचंद आर्य समाज की विचारधारा में पूर्णता के साथ दीक्षित थे। आश्चर्य की बात है कि 20 भागों में प्रकाशित ‘प्रेमचंद रचनावली’ और 24 भागों में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के सम्पादकों ने ‘प्रकाश’ में प्रकाशित इस कहानी के प्रथम पाठ का सन्दर्भ ग्रहण करने की कोई चेष्टा नहीं की। इसके अतिरिक्त हमारे सबसे बड़े प्रेमचंद विशेषज्ञ डा. कमल किशोर गोयनका ने इस कहानी के प्रथम पाठ का सन्दर्भ तो ग्रहण किया ही नहीं, वरन् इसके उर्दू में प्रथम प्रकाशन की भी कोई चर्चा नहीं की। यहाँ यह उल्लेख करना भी कुछ असंगत नहीं होगा कि ‘प्रकाश’ में प्रेमचंद की अनेक कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं, जिनकी ओर अभी तक भी साहित्य-संसार का कोई ध्यान नहीं जा पाया है।

ध्यातव्य है कि प्रेमचंद की इस उर्दू कहानी को ‘प्रकाश’ की फाइलों में से खोजकर उसकी मूल प्रति स्वर्गीय रामलाल नाभवी ने मुम्बई के प्रेमचंद-विशेषज्ञ गोपाल कृष्ण माणकटाला को उपलब्ध करा दी थी, जो उन्होंने अमृतराय को सन् 1991 में भेज दी थी। इसकी प्राप्ति सूचना देते हुए अमृतराय ने अपने 29 मई 1991 के पत्र में माणकटालाजी को लिखा था -

"आपकी इत्तिला के लिए अर्ज है कि आपके 13 मई के खत के साथ मुझे प्रेमचंद की वह नायाब कहानी - ‘आपकी तस्वीर’ और रस्तोगी साहब के मजमून का जीरोक्स मोसूल हुए।... मैं प्रेमचंद की इस नायाब कहानी को जरूर पहले किसी परचे में, रिसाले में शाया कराऊँगा। मजमूए की बात तो तब तक रुकी रहेगी जब तक मुंशीजी की ऐसी नयी नायाब कहानियाँ और भी न मिल जायें। जो हो, यह कहानी जब भी और जहाँ भी शाया होगी उसके साथ यह इत्तिला भी जरूर जाएगी कि इसकी तलाश का सेहरा जनाब रामलाल नाभवी के सिर पर है।"1

उपर्युक्त पत्र लिखने के पश्चात् यह कहानी अमृतराय ने कहीं प्रकाशित कराई हो, इसका कोई प्रमाण सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। प्रतीत होता है कि अमृतराय के संज्ञान में यह तथ्य आ गया होगा कि इस कहानी को प्रेमचंद ने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन के साथ हिन्दी में ‘कवच’ और उर्दू में ‘हिर्जे जाँ’ शीर्षकों से प्रकाशित करा दिया था। और सम्भवतः इसी कारण से अमृतराय ने इस कहानी के प्रथम पाठ को पुनः प्रकाशित करने में कोई रुचि नहीं ली होगी।

क्या साहित्य-संसार अपने सर्वश्रेष्ठ कथा-शिल्पी, उपन्यास-सम्राट् मुंशी प्रेमचंद और आर्य समाज के पारस्परिक सम्बन्धों को यथार्थ के धरातल पर परिभाषित करने के लिये ‘आपकी तस्वीर’ के अतिरिक्त ‘प्रकाश’ तथा अन्य आर्य समाज से सम्बन्धित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित प्रेमचंद की अन्यान्य रचनाओं को खोजकर उनकी विस्तृत एवं तथ्यपरक समीक्षा करने का कुछ उद्योग कर सकेगा?

1. इंशा, उर्दू मासिक, कलकत्ता, मई-जून 2008, 

 

परिशिष्ट-4

कृष्ण कुमार राय

यों नष्ट हो गईं प्रेमचंद की पाण्डुलिपियाँ

सभी साहित्य-प्रेमी इतना तो अवश्य जानते होंगे कि अमर कथा-शिल्पी प्रेमचंद ने जितना कुछ हिन्दी में लिखा है उससे कहीं अधिक योगदान उनका उर्दू साहित्य में भी रहा है। अपनी कुछ प्रारम्भिक हिन्दी रचनाओं को छोड़कर उन्होंने अधिकांश हिन्दी रचनाओं का प्रकाशन स्वयं अपने सरस्वती प्रेस प्रकाशन से किया था जो मुद्रणालय के साथ-साथ प्रकाशन संस्था भी थी। उनकी उर्दू की प्रायः सभी रचनाएँ उनके अभिन्न मित्र कानपुर निवासी मुंशी दयानारायण निगम ने अपने समय की मशहूर उर्दू पत्रिका ‘जमाना’ में छापी थीं, लेकिन उनकी ज्यादातर उर्दू किताबें लाहौर से प्रकाशित हुई थीं जो उस समय भारत का हिस्सा था और उर्दू साहित्य के प्रकाशन का गढ़ माना जाता था। वर्ष 1947 में देश के विभाजन के बाद पंजाब सूबे का यह नगर पाकिस्तान का अंग बन गया। इतना अधिक लेखन कार्य करने के बावजूद भी प्रेमचंद की आधी से अधिक हिन्दी और उर्दू की पाण्डुलिपियाँ आज अनुपलब्ध और विलुप्त हैं। इसका रहस्य क्या है, इस सम्बन्ध में आज तक न तो किसी साहित्य-मनीषी या इतिहासकार ने अन्वेषण किया और न किसी शोधार्थी ने ही इस तथ्य की तह तक पैठने की जहमत उठाने की कोशिश की, जबकि प्रेमचंद का निधन हुए अभी केवल सात दशक से कुछ अधिक समय गुजरा है। यहाँ तक कि भाई अमृतराय (प्रेमचंद के यशस्वी पुत्र) ने भी अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘कलम का सिपाही’ में, जो प्रेमचंद की सर्वाधिक प्रामाणिक जीवनी मानी जाती है और जिसके लिए उन्हें सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार तथा साहित्य अकादमी के विशिष्ट सम्मान प्राप्त हुए थे, उक्त तथ्य के सम्बन्ध में कोई प्रकाश नहीं डाला है। सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, मदन गोपाल और जनाब जैदी साहब सरीखे खोजी रचनाकारों की शोधपूर्ण पुस्तकें भी इस विषय पर खामोश हैं। इस समय प्रेमचंद-परिवार का ज्येष्ठतम जीवित सदस्य होने के नाते मैं कुछ ऐसे तथ्य हिन्दी और उर्दू साहित्य-प्रेमियों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो अभी तक अज्ञात और अप्रकाशित हैं। मेरे जीवन-काल के बाद शायद इन तथ्यों पर प्रकाश डालने वाला कोई न होगा क्योंकि इनकी व्यक्तिगत जानकारी रखने वाला परिवार का कोई अन्य सदस्य अब जीवित नहीं रहा। अतीत के गर्त में विलुप्त होने से पहले इन महत्त्वपूर्ण तथ्यों के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा करना मैं अपना नैतिक दायित्व भी समझता हूँ।

लमही ग्राम में हमारे परिवार के दो मकान थे। पहला वह बड़ा पुश्तैनी घर जिसकी एक कोठरी में 31 जुलाई 1880 को सरस्वती के वरद पुत्र प्रेमचंद का जन्म हुआ था और दूसरा उसके ठीक सामने स्थित वह मकान जिसका प्रारम्भिक निर्माण वर्ष 1922-23 में मेरे पिता स्व. महताब राय (धनपत राय यानी प्रेमचंद के एकमात्र अनुज) ने एक बड़े बरामदे सहित चार कमरों वाली दो मंजिली बैठक के रूप में कराया था। लगभग पाँच वर्ष बाद सन् 1928 में परिवार के सदस्यों की संख्या में वृद्धि के फलस्वरूप प्रेमचंद ने इस बैठक के रूप और आकार में कुछ परिवर्तन और विस्तार कराकर उसे दूसरे आवासीय भवन के रूप में बदल दिया था। डा. सम्पूर्णानन्द, डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. राजबली पाण्डेय, गोविन्द प्रसाद केजरीवाल प्रभृत साहित्य मनीषियों के इस स्पष्ट आश्वासन पर कि काशी नागरी प्रचारिणी सभा के तत्वावधान में लमही ग्राम में एक भव्य और बहुउद्देश्यीय प्रेमचंद-स्मारक का निर्माण यथाशीघ्र कराया जायेगा, पिताजी ने अपना पहला पुश्तैनी मकान अपने पिता-तुल्य अग्रज की स्मृति में बनने वाले प्रस्तावित स्मारक के निर्माणार्थ सभा को सहर्ष अर्पित कर दिया था। 8 अक्टूबर 1959 को प्रेमचंद की 23वीं पुण्य-तिथि के अवसर पर देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद ने लमही पधारकर एक भव्य समारोह में प्रस्तावित स्मारक-भवन के शिलान्यास की औपचारिकता भी पूरी कर दी थी। तथाकथित भव्य स्मारक के निर्माण हेतु किस निर्दयता के साथ वह पुश्तैनी मकान ढहाकर समतल कर दिया गया था और बाद में स्मारक के नाम पर वहाँ क्या और कैसा निर्माण कराया गया, इस सम्बन्ध में अलग से विस्तारपूर्वक चर्चा करूँगा। इस समय तो केवल यह तथ्य उजागर करना मेरा मुख्य उद्देश्य है कि आखिर प्रेमचंद की ढेर सारी बहुमूल्य पाण्डुलिपियाँ, जो आज अनुपलब्ध हैं, किस प्रकार नष्ट हो गईं।

सन् 1936 के पूर्वार्द्ध में प्रेमचंद की गम्भीर बीमारी के कारण जब मेरे पिताजी अपने बड़े भाई की तीमारदारी और चिकित्सा-व्यवस्था के लिए मिर्जापुर में अपना मुद्रण व्यवसाय बन्द कर अन्तिम रूप से वाराणसी आ गये तो हम लोग लमही वाले अपने पुश्तैनी मकान में रहने लगे जिसमें न केवल प्रेमचंद का जन्म हुआ था बल्कि जहाँ उन्होंने अपनी अधिकांश जिन्दगी गुजारी थी। सामने वाले दूसरे मकान में ताला लगा था क्योंकि प्रेमचंद उन दिनों वाराणसी नगर में किराये के मकान में रहा करते थे और उनका मुद्रण तथा प्रकाशन व्यवसाय भी वहीं से संचालित होता था। पिताजी नित्य सबेरे साइकिल उठाते और शहर चल देते। वहाँ सारा दिन बड़े भाई की सेवा-टहल में व्यतीत करते और डाक्टरों-वैद्यों के दवाखानों के चक्कर काटते रहते। देर रात गये जब वह लौटकर गाँव आते तो प्रायः हम बच्चे सो गये रहते। किन्तु इतनी भाग-दौड़ और सारे उपचारों के बावजूद क्रूर काल ने अन्ततः 8 अक्टूबर 1936 को पौ फटते-फटते प्रेमचंद को अपना ग्रास बनाकर ही दम लिया। हिन्दी और उर्दू के उस जाने-माने लोकप्रिय कथाकार के निधन से काशी नगरी तो सूनी हो ही गयी, हिन्दी कथा-साहित्य का एक स्तम्भ धराशायी हो गया। वर्षों तक रोज सुबह बेनिया बाग के मैदान में साथ-साथ चहलकदमी करने वाले अपने जमाने के दो दिग्गज साहित्यकार प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद की सुपरिचित जोड़ी टूट गयी। मेरे पिताजी पर तो अपने अग्रज के असामयिक निधन से मानो वज्रपात हो गया। मैं उस समय मात्र तेरह वर्ष का अल्हड़-अनजान बालक था, प्रेमचंद की महानता से सर्वथा अनभिज्ञ। हमारी नजरों में तो वह केवल हमारे ‘बड़का बाबू’ थे जिनसे हमें भरपूर प्यार-दुलार भी मिला था और यदा-कदा डाँट-फटकार भी। घोर उदासी के माहौल में घर के सभी प्राणियों को रोता-बिलखता देखकर मैं भी खूब रोया था। होश सँभालने के बाद मैंने पहली बार घर से अरथी उठते उसी दिन देखी थी। सारा गाँव वहाँ उमड़ पड़ा था; कायस्थ, कुनबी, लोहार, भर-चमार और तुरुकिया नाई, सबके सब। लगता था उन सबका कोई सगा-सम्बन्धी उन्हें छोड़कर चला गया था। ढेर सारे शहरी लोग भी आये हुए थे, किन्तु चन्द जाने-पहचाने चेहरों को छोड़कर अन्य को मैं पहचानता भी नहीं था। हाँ, बाद को जरूर पता चला कि उनमें कुछ सुविख्यात साहित्यकार और पत्रकार भी थे। उन मनहूस दिन की याद आज भी विस्मृत नहीं हुई है।

वर्ष 1937 में किसी समय लमही वाले पुश्तैनी मकान के कमरों की सफाई के दौरान मेरे अग्रज स्व. डा. राम कुमार राय (भूतपूर्व प्रवक्ता, मनोविज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय तथा वैदिक साहित्य, तंत्र-मंत्र, योगादि जैसे दुरूह विषयों पर लगभग पचास बृहदाकार हिन्दी तथा अंग्रेजी ग्रन्थों के प्रणेता) की निगाह रसोई-घर में बने लकड़ी के मचान के एक कोने में रखे भारी-भरकम झाँपे पर पड़ी जो मकड़ियों के जालों और गर्द-गुबार से ढँका हुआ था। मैं भी अपने भाई के साथ सफाई के काम में जुटा हुआ था। मेरी उम्र उस समय केवल 13-14 वर्ष की थी और आठवीं कक्षा में पढ़ता था, जबकि मुझसे लगभग दो वर्ष बड़े भाई दसवीं कक्षा के छात्र थे। हम लोगों को इतना तो अवश्य पता था कि हमारे ताऊ प्रेमचंद ने हिन्दी और उर्दू में ढेर सारी किताबें लिखी हैं, किन्तु उस समय तक साहित्यकारों को आज की तरह मान-सम्मान प्राप्त नहीं होता था और न असाधारण प्रतिभा के धनी अति विशिष्ट व्यक्ति के रूप में उनकी विशेष पहचान होती थी, अपने गाँव-घर में तो और भी नहीं। फिर हम अबोध भाइयों को तो प्रेमचंद के महान् व्यक्तित्व और उनकी बहुमूल्य साहित्यिक देन का कोई खास अहसास भी न था। केवल बाल-सुलभ कुतूहल और जिज्ञासावश हम लोगों ने लकड़ी के मचान पर चढ़कर मकड़ी का जाला झाड़-पोंछकर झाँपे को किनारे खिसकाया। कागज-पत्रों से भरे उस झाँपे में बड़ा वजन था। दीमकों ने भी उन कागजात के साथ खूब मनमानी कवायद की थी। हम लोगों ने जोर लगाकर किसी तरह झाँपे को नीचे उतारा और उसे आँगन में खिसकाकर वहीं पलट दिया। झाँपे में भरी ढेरों हिन्दी और उर्दू की पाण्डुलिपियाँ आँगन में छितरा गईं। कुछ मोटी-मोटी नत्थियों के रूप में थीं, कुछ जंग लगी आलपिनों तथा क्लिपों में जकड़ी हुई थीं और कुछ अलग-अलग पुलिन्दों के रूप में डोरियों से बँधी हुई थीं। कुछ बिखरे पन्नों पर अंग्रेजी में भी टिप्पणियाँ और इबारतें लिखी हुई थीं। झाँपे का वजन छः-सात पसेरी से कम न रहा होगा। अधिकांश कागजात को दीमकों ने आंशिक रूप से नष्ट कर उनका रूप विकृत बना डाला था, फिर भी काफी कुछ सही-सलामत था, गो कि काफी लम्बे समय से निरन्तर रसोई-घर का धुआँ लगते-लगते कागजात पीले पड़ गये थे, परन्तु लिखावट की स्याही काफी चटक और पठनीय थी। उल्लेखनीय है कि इन पंक्तियों के लेखक का जन्म इसी रसोई वाले कमरे में हुआ था, जबकि बड़े भाई राम कुमार राय का जन्म उसी ऐतिहासिक कमरे में हुआ था जहाँ बालक धनपतराय उर्फ नवाबराय (बाद को प्रेमचंद के नाम से विख्यात) ने सर्वप्रथम धरती का स्पर्श किया था।

बड़े भाई जाकर पिताजी को बुला लाये और उन्हें सारे बिखरे हुए कागजात दिखलाये। वह अन्यमनस्क भाव से बोले, ‘तुम लोगों ने आँगन भर में यह क्या कबाड़ फैला दिया। सारे दीमक घर में फैल जायेंगे।’ पिताजी बतलाने लगे कि यह सब उनके भैया के लिखे उपन्यासों, कहानियों, लेखों आदि के पुराने पाण्डुलेख हैं और यह सारी सामग्री पत्र-पत्रिकाओं में तथा किताबों के रूप में छप चुकी है। चूँकि मकान में छोटे-मोटे ताखों को छोड़कर कोई अलमारी वगैरह नहीं थी, इसलिए सारी पाण्डुलिपियाँ झाँपे में भरकर मचान पर डाल दी गयी थीं जहाँ दशकों से उपेक्षित पड़े-पड़े वह इस अवस्था को प्राप्त हो गयी थीं। दीमकों और रसोई के धुएँ ने उन कागजात का रूप ऐसा बिगाड़ डाला था कि पिताजी ने आँगन में दूर तक बिखरे उस अम्बार को बटोर-बटारकर उसे जला देने को कहा ताकि दीमकों का भी सफाया हो जाय। फिर भी उनके चले जाने के बाद हम लोगों ने जिज्ञासावश उस ढेर को काफी कुरेदा और उलटा-पलटा। उर्दू में लिखी अनेक बृहदाकार नत्थियाँ और कुछ अन्य फुटकर कागजात काफी सुरक्षित थे, किन्तु हम लोगों की उनमें कोई दिलचस्पी न थी क्योंकि हम दोनों में से कोई भी उर्दू नहीं जानता था। न जाने क्यों हिन्दुस्तानी दीमकों ने भी उर्दू की इबारत वाले इन कागजात को चाटने में कम रुचि दिखलायी थी। कुछ हिन्दी कहानियों के पाण्डुलेख, जो दीमक के प्रभाव से अछूते बचे थे तथा कुछ अन्य कागजात हम लोगों ने अलग निकालकर सुरक्षित रख लिये और शेष अम्बार को बटोरकर उसमें आग लगा दी। देखते ही देखते सब कुछ भस्म होकर राख के ढेर में तब्दील हो गया जिसे उठाकर हम लोग घर के पिछवाड़े घूरे पर फेंक आये। उस समय उन पाण्डुलिपियों का महत्त्व समझने की बौद्धिक क्षमता हम दोनों भाइयों में न थी। जो कागज-पत्र इस तरह लापरवाही के साथ झाँपे में भरकर इतने वर्षों से रसोई-घर के मचान पर जलौनी लकड़ियों के ढेर के पीछे उपेक्षित पड़े हुए थे उन्हें हमारी बाल-बुद्धि ने कोई दुर्लभ या बहुमूल्य वस्तु नहीं समझा और न पिताजी ने ही उन्हें सुरक्षित रखने पर बल दिया। हम लोगों को इस बात का भी ज्ञान न था कि किसी रचनाकार द्वारा लिखी गई सामग्री छप जाने के बाद भी पाण्डुलेखों का अपना अलग ही महत्त्व होता है। बहरहाल जो थोड़ी सामग्री हम लोगों ने निकालकर सुरक्षित रख ली थी उनमें से कुछ भाई अमृतराय काफी समय बाद मेरे बड़े भाई से माँग ले गये। दोनों में केवल डेढ़-दो माह की छोटाई-बड़ाई थी और आपस में खूब जमती भी थी। कुछ पाण्डुलेख बड़े भाई श्रीपतराय (प्रेमचंद के ज्येष्ठ पुत्र) भी माँगकर ले गये। शेष थोड़ी-बहुत सामग्री मेरे अग्रज डा. रामकुमार राय के पास पड़ी रह गयी जो सम्भवतः अब भी उनके बृहद् निजी ग्रन्थागार के किसी बण्डल में सुरक्षित पड़ी होगी।

यह तो रही प्रेमचंद की ढेर सारी पाण्डुलिपियों के दुर्भाग्यपूर्ण दहन की मार्मिक अनकही कहानी। बचपन में अज्ञानतावश अनजाने में हम लोगों से जो साहित्यिक अपराध हुआ, आशा है साहित्य-जगत्, इतिहासकार और शोधकर्मी उसके लिए हमें क्षमा करेंगे। यों तो कालान्तर में जब हम लोग साहित्य का मर्म समझने योग्य हुए तो हमें स्वयं अपनी नादानी पर बेहद पश्चात्ताप हुआ और हम सोचने लगे कि यदि हमने थोड़ा परिश्रम करके झाड़-पोंछकर उन पाण्डुलेखों को सुरक्षित रख लिया होता तो आज प्रेमचंद की बहुत सारी अनमोल पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध होतीं और किसी संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही होतीं, भले ही वह आधी-अधूरी रहतीं जिन्हें रख-रखाव की असावधानी के कारण दीमकों और रसोई-घर के धुएँ ने काफी हद तक क्षतिग्रस्त कर कुरूप बना डाला था।

अब आइये कुछ अन्य अनकहे तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं। शायद कम ही लोगों को पता होगा कि प्रेमचंद कलम के एक समर्थ सिपाही होने के साथ-साथ बड़े ही अध्ययनशील व्यक्ति भी थे। उन्हें साहित्यिक पुस्तकों से बेहद लगाव था। उनके निजी संग्रह में हजारों की संख्या में बहुमूल्य पुस्तकें उपलब्ध थीं। अंग्रेजी और उर्दू कथा-साहित्य का उन्होंने खूब अध्ययन किया था और प्रायः सभी प्रमुख रचनाकारों की कृतियाँ उनके निजी संग्रह में उपलब्ध थीं। उनकी हिन्दी पुस्तकों का भण्डार भी कुछ कम न था। यह सारी पुस्तकें लमही स्थित दूसरे वाले मकान की ऊपरी मंजिल के दो कमरों में भरी पड़ी थीं। इनके अतिरिक्त अपने समय की प्रायः सभी जानी-मानी हिन्दी और उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं के ढेर सारे अंक भी उनके संग्रह में मौजूद थे। प्रेमचंद की मृत्यु के पश्चात् दो-चार वर्षों तक तो माता शिवरानी देवी प्रायः अकेले ही लमही आकर गाँव के दूसरे वाले मकान में कुछ समय व्यतीत करती थीं। खाती-पीती हम लोगों के साथ थीं, यह उनका अधिकार भी था, और रमदेइया नाम की एक अधेड़ तुरुकिया नाइन उनकी खिदमत किया करती थी। गाँव में हम लोगों की ही बिरादरी के एक निठल्ले व्यक्ति थे जो कोई काम-धन्धा तो करते नहीं थे, लेकिन थे अव्वल दर्जे के चापलूस और मक्कार इन्सान। खेती-बारी भी नाम-मात्र की थी। उस दिवंगत महानुभाव का नाम लेना तो अब उचित न होगा, लेकिन उनके फितरती स्वभाव से सारा गाँव बखूबी वाकिफ था। गाँव के रिश्ते के नाते वह माता शिवरानी देवी को ‘चाची’ कहकर सम्बोधित करते थे। उन्होंने अपनी चापलूसी की बदौलत माताजी को इस कदर प्रभावित कर रखा था कि वह उन्हीं को अपना सबसे बड़ा हितैषी मान बैठी थीं। कालान्तर में जब माताजी गाँव के मकान में ताला लगाकर लगभग स्थायी रूप से पहले वाराणसी नगर में और बाद को इलाहाबाद में अपने पुत्र-द्वय श्रीपतराय तथा अमृतराय के साथ रहने लगीं तो गाँव वाले मकान की चाभी उसी महानुभाव को सुपुर्द कर गयीं और उन्हें यह हिदायत कर गयीं कि कभी-कभी मकान की सफाई करा दिया करें और उस पर बराबर निगाह रखें। दुर्भाग्यवश हम लोग भी तब वाराणसी नगर में ही रहने लगे थे। गाँव वाले पुश्तैनी मकान में कुछ समय तक केवल हमारी दादी रहा करती थीं। कभी-कभी हम भाई-बहनों में से भी कोई दादी के साथ गाँव में रहता था। यों कुछ अन्य पट्टीदारों का परिवार भी उसी मकान के दूसरे हिस्सों में रहा करता था। चूँकि आँगन एक ही था, इसलिए दादी को कोई असुविधा नहीं होती थी। उक्त महानुभाव ने माता शिवरानी देवी द्वारा सुपुर्द मकान की धीरे-धीरे ऐसी देख-रेख और सफाई की कि 3-4 वर्षों के अन्दर ही प्रेमचंद का बहुमूल्य भरा-पूरा ग्रन्थागार इतना दुर्बल हो गया कि उसमें केवल गिनी-चुनी दो-तीन सौ पुस्तकें ही शेष रह गयीं। उस विश्वासघाती व्यक्ति ने धीरे-धीरे वहाँ की तीन-चौथाई से भी अधिक पुस्तकें ले जाकर पुस्तक-प्रेमियों के हाथों औने-पौने दामों में बेच डालीं और सारा पैसा हजम कर गये। हम लोगों को जब उनके कारनामे की भनक लगी तो काफी देर हो चुकी थी। फिर भी माता शिवरानी देवी से सारी बातें बतलायीं, किन्तु उस व्यक्ति ने माताजी को इतना प्रभावित कर रखा था कि उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। विवश होकर जब भाई अमृतराय को सारी बातें बतलायीं तो वह लमही आये और पिता की अमूल्य धरोहर की दुर्दशा देखकर बेहद मर्माहत हुए। बची हुई अधिकांश किताबें वह उठवाकर अपने साथ इलाहाबाद ले गये। शेष पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ आदि मेरे बड़े भाई राम कुमार राय उठवा लाये और उन्हें सँजोकर अपने निजी ग्रन्थागार में रखा जहाँ आज भी वह सुरक्षित रखी हैं। भाई राम कुमार राय का तो वर्ष 1990 के आरम्भ में निधन हो गया किन्तु उनकी यादों को सँजोये उनका बृहद् ग्रन्थागार आज भी लमही ग्राम स्थित उनके नये मकान में सुरक्षित है जिसकी देख-रेख मुख्यतः उनके सुपुत्र प्रदीप और राकेश करते हैं। साहित्य-प्रेमी और शोधकर्मी प्रायः उनके इस ग्रन्थागार का लाभ उठाने आते रहते हैं जहाँ विभिन्न विषयों के कई हजार दुर्लभ ग्रन्थ उपलब्ध हैं जिनमें वैदिक और प्राचीन तन्त्र साहित्य की बहुलता है।

प्रेमचंद के दूसरे वाले आवासीय भवन और उनके निजी उपयोग की सामग्री, फर्नीचर आदि की लूट-खसोट और बर्बादी की कहानी भी कुछ कम मर्माहत करने वाली नहीं है। मकान में जिस समय ताला लटका रहता था और उसकी देख-रेख करने वाला गाँव में घर-परिवार का कोई न था, लोग धीरे-धीरे उसके खिड़की-दरवाजे तक उखाड़कर ले जाने लगे। जाहिर है कि इस तरह की चोरी करने वाला कोई बाहरी व्यक्ति नहीं हो सकता। गाँव के ही कतिपय अवांछनीय तत्वों द्वारा यह कुकृत्य किया गया होगा। कुछ ही दिनों में मकान इतना असुरक्षित हो गया कि उसमें छुट्टा पशुओं तक का प्रवेश भी सुगम हो गया और वह धीरे-धीरे उनके शरण-स्थल के रूप में परिवर्तित हो गया। जुआड़ियों और दुष्कर्मियों ने भी जब जी चाहा स्थिति का भरपूर लाभ उठाया। इसी दौरान एक कुनबी परिवार के मुखिया और उनके बेटों ने, जिन्हें शिवरानी देवी ने अपना कुछ खेत जोतने-बोने का अधिकार दे रखा था, घर में रखे सामानों, फर्नीचर आदि को हटाना-बढ़ाना शुरू कर दिया। प्रेमचंद के चचेरे भाई के वंशज, जो गाँव में ही रहते हैं, से पारिवारिक सम्पत्ति की यह बंदर-बाँट देखी नहीं गयी और बचा-खुचा सामान तथा फर्नीचर उठवाकर वह अपने घर ले गये। इस तरह लमही वाला दूसरा मकान वीरान होकर धीरे-धीरे खँडहर में तब्दील हो गया। इन सारी गतिविधियों से बेखबर स्थानीय साहित्यकार और पत्रकार तथा नागरी प्रचारिणी सभा के पदाधिकारीगण हर वर्ष प्रेमचंद की जयन्ती मनाने की औपचारिकता पूरी करने लमही में एकत्र जरूर होते रहे, किन्तु उस इतिहास-पुरुष के मकान और सम्पत्ति की लूट-खसोट तथा बर्बादी की घटना को मूक दर्शक बनकर देखते रहे। कभी किसी साहित्य-प्रेमी अथवा साहित्यिक संस्था ने इसके खिलाफ आवाज उठाने का साहस नहीं दिखलाया। प्रशासन-तन्त्र द्वारा ऐसे मामलों में चुप्पी साधे रहना तो इस देश की त्रासदी रही है। काश, प्रेमचंद जैसे महान् रचनाकार का जन्म रूस, इंग्लैण्ड, फ्रांस या जर्मनी जैसे किसी पाश्चात्य देश में हुआ होता!

ज् एस-2/51-ए, अर्दली बाजार

अधिकारी हास्टल के समीप

वाराणसी-221002

परिशिष्ट-5

उदयशंकर दुबे

मुरारी लाल केडिया के दो पत्र

श्री मुरारी लाल केडिया काशी के प्रतिष्ठित तथा धनवान व्यक्ति थे और उन्होंने ही काशी में श्रीरामरत्न पुस्तक भवन स्थापित किया था। वे नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से भी जुड़े थे। प्राचीन वस्तुओं की खरीद-बिक्री करना उनका व्यापार था और साहित्य-सेवा व्यसन। काशी के साहित्यिक क्षेत्र में श्री रायकृष्ण दास, मुरारी लाल केडिया और डा. वासुदेव शरण अग्रवाल का त्रिगुट प्रसिद्ध है। अपनी साहित्य- सेवा के चलते केडिया जी ने काशी में श्रीरामरत्न पुस्तक भवन के नाम से ऐसा अनूठा पुस्तकालय स्थापित किया था जिसमें केवल दुर्लभ पुस्तकें ही संगृहीत नहीं थीं वरन् अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों के हस्तलेख, चित्र तथा दैनन्दिन प्रयोग की दुर्लभ वस्तुएँ भी प्रचुर परिमाण में संगृहीत थीं। मुंशी प्रेमचंद के देहावसान के उपरान्त उनकी धर्मपत्नी श्रीमती शिवरानी देवी ने प्रेमचंद के अनेकों हस्तलेख, शैक्षणिक उपाधियाँ तथा दैनन्दिन प्रयोग की वस्तुएँ श्री केडिया जी को सहर्ष भेंट कर दी थीं, जिनका अनेक शोधकर्ताओं ने व्यापक उपयोग भी किया। श्रीरामरत्न पुस्तक भवन की अवशेष सामग्री भारत कला भवन को भेंट कर दी गई थी, जो वहाँ आज तक सुरक्षित है।

मेरे घनिष्ठ मित्र श्री उदयशंकर शास्त्री जी पुरातत्वविद थे, जिन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के खोज विभाग में सन् 1942 से 1945 ई. तक हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। श्री रायकृष्ण दास जी के कहने पर शास्त्री जी सभा छोड़कर उनके भारत कला भवन में चले गए। वहाँ कुछ वर्षों तक कार्य करने के बाद वे के.एम. इंस्टीट्यूट, आगरा में हस्तलिखित ग्रन्थों का कार्य करने हेतु चले गए और अंतिम समय तक वहीं रहे। शास्त्री जी ने ‘सूर सौरभ’ पत्रिका का भी सम्पादन किया। शास्त्री जी से मेरी आत्मीयता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि मेरे व्यक्तिगत संग्रह में उनके लगभग 200 पत्र उपलब्ध हैं।

श्री उदयशंकर शास्त्री के पास काशी से सम्बन्धित पर्याप्त सामग्री थी। यह सामग्री आधुनिक काल के सम्बन्ध में होने के कारण मेरी इसमें अभिरुचि नहीं थी। मेरा सारा समय पाण्डुलिपियों में ही बीत जाता था जबकि मैं आगरा में शास्त्री जी के यहाँ जाकर वर्ष में 10-15 दिन पड़ा रहता था।

सन् 1983 ई. में सूर स्मारक मंडल, आगरा से डा. कैलाश चंद्र भाटिया और डा. सिद्धेश्वर नाथ श्रीवास्तव के सम्पादन में पं. उदयशंकर शास्त्री स्मृति ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। इसमें मैंने भी एक लेख ‘प्राचीन भारतीय मनीषा के सूत्रधारः पं. उदयशंकर शास्त्री’ शीर्षक से लिखा था। इस ग्रन्थ में अमृतराय (18, हेस्टिंग्स रोड, इलाहाबाद)-जी का दिनांक 18-12-61 ई. का एक पत्र छपा है, जिससे ज्ञात होता है कि शास्त्रीजी के पास प्रेमचंद की ‘स्वराज्य के फायदे’ शीर्षक रचना थी, जिसकी प्रतिलिपि अमृतराय जी चाहते थे। पूरा पत्र इस प्रकार है-

18, हेस्ंटग्स रोड,

इलाहाबाद

18-12-61

प्रिय भाई उदयशंकर जी,

मैं आपको तीन पत्र भेज चुका हूँ, पर आपने एक का भी उत्तर देने का कष्ट नहीं किया। क्या पत्रोत्तर का विधान आपके शास्त्र में नहीं है? अबकी मुझे यह भी संदेह हो रहा है कि आप वहाँ पर हैं भी कि नहीं? और अगर हैं भी, उत्तर क्यों नहीं देते।

छोटा सा एक कार्य है, जिसके लिये मैं बार-बार आपका शरणागत हो रहा हूँ। आपके पुस्तकालय/संग्रहालय में प्रेमचंद की लिखी हुई एक छोटी सी पुस्तिका है जिसका नाम है ‘स्वराज्य के फायदे’। उसी की नकल मुझे चाहिये। मुझसे बड़ी भूल हुई, वह पुस्तिका मेरे पास यहाँ आई थी, मैंने उसकी नकल कराये बिना उसको लौटा दिया। और अब उसके बिना काम अटक रहा है।

भाई, इतना कष्ट मेरे लिये कीजिये। अभी उसको रजिस्ट्री से मेरे पास भेज दीजिये लेकिन रजिस्ट्री में भी चीजों के खो जाने का डर रहता है, इसलिये उससे भी अच्छा होगा कि आप उसकी नकल किसी लिपिक से कराके मेरे पास भेज दें और लिपिक को जो देय हो, मुझे लिख दें, मैं उसी रोज भेज दूँगा। क्या मैं आपसे इतनी सहायता की भी आशा नहीं कर सकता?

आशा है आप स्वस्थ और सानन्द हैं।

आपका

अमृतराय

सेवा में,

श्री उदयशंकर शास्त्री1

1. पाठालोचन सिद्धान्त और प्रयोग : पं. उदयशंकर शास्त्री स्मृति ग्रंथ (द्वितीय भाग), संपादक - डा. प्रणवीर चौहान, पृ. 32, प्रकाशक-सूर स्मारक मंडल, आगरा, प्रथम संस्करण 1988 ई.

श्री अमृतराय के सन् 1961 के उपर्युक्त पत्र से स्पष्ट है कि शास्त्री जी के संग्रह में प्रेमचंद से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण सामग्री सुरक्षित थी, जिसे बाद में चलकर श्री गोयनका ने प्राप्त कर लिया होगा, जिसका स्पष्ट संकेत केडिया जी के पत्र में उपलब्ध है।

काशी के साहित्यिक क्षेत्र में प्रायः चर्चा होती रहती थी कि दिल्ली के डा. कमल किशोर गोयनका ने मुरारी लाल केडिया जी से श्रीरामरत्न पुस्तक भवन में संगृहीत प्रेमचंद के लगभग समस्त हस्तलेख आदि अपने शोध कार्य हेतु उधार लिए थे लेकिन उनमें से एक-दो को छोड़कर शेष सामग्री लौटाई नहीं। एक बार श्री उदयशंकर शास्त्री ने मुरारीलाल केडिया जी के दो ऐसे पत्र प्रकाशित करा देने के लिए मुझे दिए, जिनमें इस सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। संयोग कुछ ऐसा हुआ कि मैं उन पत्रों का उपयोग न कर सका और वे मेरे पास ही रह गए। प्रेमचंद साहित्य पर शोध कार्य में संलग्न प्रियवर डा. प्रदीप जैन के जिज्ञासा करने पर मुझे केडिया जी के इन दो महत्त्वपूर्ण पत्रों का स्मरण हो आया जो उन्होंने पंडित उदयशंकर शास्त्री, गांधी नगर कालोनी, आगरा (उ.प्र.) के पते पर भेजे थे। मेरी संक्षिप्त टिप्पणियों से संवलित मुरारी लाल केडिया के दोनों पत्रों का सम्पूर्ण पाठ प्रस्तुत है -

1

केडिया भवन

सी.के. 14/11, नन्दन साहू लेन

वाराणसी

4-1-81

आदरणीय शास्त्रीजी,

सादर प्रणाम

कितने ही मास बीत गए, आपने पत्र देने की कृपा नहीं की। मेरे कई पत्रों के उत्तर भी नहीं दिए। फिर मैंने भी पत्र नहीं दिया।

आशा है आप स्वस्थ-सानन्द होंगे। यहाँ सब प्रसन्न हैं।

कला भवन वालों ने तो बड़ा धोखा दिया। कल दिल्ली के एक सज्जन आए थे। आपकी पुरानी वाली (कला भवन वाली) साड़ी 500) में उन्होंने ले ली। रुपए नगद मिल गए - भेज रहा हूँ - कृपया पहुँच दें। दूसरी को भी शीघ्र निकाल दूँगा।

ओंकार शरद1 वाली पुस्तक मैंने इलाहाबाद से मँगवा ली। उसे वकील की नोटिस दूँगा। मेरे पास उसकी दो रसीदें हैं। 200)00 नगद एवं 300)-400) की पुस्तकों की रसीद है। उसने उक्त अध्याय में यह झूठ ही झूठ लिखा है। राजा भैया वाली बात भी सफेद झूठ है। उस समय वे ना. प्र. सभा में जाते ही नहीं थे। उनसे बात हो गई है। वे उसके खंडन में मुझे पत्र लिख देंगे। यह दुष्ट अब प्रयाग के दैनिक ‘भारत’ का संपादक हो गया है। ...(अपठनीय) ने माया में मेरा नाम नहीं दिया था।

सूर सौरभ बराबर मिल रहा है (आपकी कृपा से)। इसके एक अंक में सूरदासजी का चित्र छपा है। उसमें उनका जन्म संवत् गलत छपा था। इस संबंध में मैंने दो कार्ड लिखे थे। परन्तु आपने उत्तर नहीं दिया।

श्री विद्यानिवासजी का एक निबन्ध संग्रह ‘कौन हूँ फुलवा बिननहारी’ छपा है। इसमें पं. कालीप्रसादजी का निधन 20 वर्ष की अवस्था में छप गया है। इस सम्बन्ध में उन्हें पत्र लिखा था परन्तु उन्होंने भी उत्तर देने की कृपा नहीं की।

पं. विश्वनाथ प्रसादजी2 विश्वविद्यालय में ही रह रहे हैं। वहाँ वे 3 वर्षों के लिए विजिटिंग प्रोफेसर नियुक्त हुए हैं। स्वास्थ्य में बहुत सुधार हुआ है।

कमल किशोर गोयनका महान दुष्ट परन्तु भाग्यवान है। दूसरों से झटकी हुई सामग्री से रुपए कमा रहा है। मुझे प्रेमचन्दजी के 2 हस्तलेख उसने लौटाए हैं - शेष अभी उसी के पास हैं। आपको उसने क्या सताया था3- कृपया लिखें। आगरे में जिन सज्जन से उसने सामान झटकने का असफल प्रयास किया था, उनके पास प्रेमचन्दजी से संबंधित क्या सामग्री है - यह अवश्य लिखें। जयन्ती की धूम तो अभी तक है। अपने यहाँ की सामग्री पर 3 टी.वी. फिल्में बनी।1 फीचर फिल्म बनी। वाराणसी और दिल्ली से मेरी वार्ता 3 बार प्रसारित हुई।

आप वाली पुस्तिका की साइक्लोस्टाइल प्रतियाँ मैंने बहुत जगह भेजीं - बहुत जगह छपी भी। किसी ने मेरे नाम से छाप दिया - किसी ने अपने नाम से छाप दिया। कई ने नाम दिया ही नहीं। गड़बड़ करने वालों को मैंने खूब झाड़कर पत्र लिखे। कभी यहाँ पधारिएगा तब दिखलाऊँगा।

1 छोटा से (सा) लेख ‘प्रेमचन्दजी उपन्यास सम्राट कैसे हुए’ शीर्षक से मैंने भी लिखा। यह भी बहुत जगह छपा। एक प्रति आपको भी भेज रहा हूँ।

श्री प्रेमचन्दजी ने श्री रामदासजी गौड़ को जो पत्र लिखा था - उसकी प्रतिलिपि शीघ्र भेजिएगा। मूल पत्र की फोटोस्टेट कापी भेज दें तो और भी उत्तम है। व्यय मेरा लगेगा।

सूर सौरभ में छपी हुई रचनाओं की पांडुलिपियाँ भी यदि आप ‘श्रीरामरत्न पुस्तक भवन’ के संग्रहालय में भेजते रहें तो कृपा हो। व्यय मैं दूँगा।

बच्चों का सादर प्रणाम!

कृपा बनाए रहें।

यहाँ योग्य कार्य लिखें।

आपका

मुरारी लाल केडिया

8/1

ड्राफ्ट बनने में विलंब हुआ, अतः पत्र आज जा रहा है।

मुरारी लाल केडिया

1 डा. राममनोहर लोहिया के परम भक्त ओंकार शरद इलाहाबाद के प्रतिष्ठित साहित्यकारों में थे। वे मुझसे भी परिचित थे।

2. आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मगध विश्वविद्यालय, गया चले गए थे। उनके शिष्य डा. पूर्णमासी राय, जो मेरे प्रिय मित्र हैं, आजकल बनारस में रह रहे हैं। आचार्य जी के पास ब्रह्मनाल पर मैं भी जाता था। उनके दो पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं।

3. शास्त्री जी ने इस संदर्भ में मुझे कभी कुछ नहीं बताया। मेरा अनुमान है कि श्री गोयनका जी उनसे प्रेमचंद जी सम्बन्धित सामग्री ले गये होंगे और लौटाने में टाल-मटोल करते होंगे या हड़प कर गये होंगे। चूँकि केडिया जी ने गोयनका के विषय में अपनी टिप्पणी दी है उसी से अंदाज किया जा सकता है कि श्री गोयनका ने शास्त्री जी की मूल सामग्री अवश्य पचा ली होगी।

4. पं. उदयशंकर शास्त्री जी की पुत्री कु. इन्दुप्रभा त्रिवेदी (अब श्रीमती इन्दु) काशी के प्रसिद्ध चित्रकार उस्ताद रामप्रसाद पर शोध कार्य कर रही थी। उसी के लिये शास्त्री जी उस्ताद रामप्रसाद द्वारा बनाये गये चित्रों की फोटोकापी संगृहीत कर रहे थे। उन्होंने मुझसे भी कहा था। कु. इन्दु को साथ लेकर मैं कला भवन गया था, वहाँ से कई चित्रों की प्रतिच्छाया कराया था।

उस्ताद रामप्रसाद के पुत्र शारदा प्रसाद थे। जाति के यादव (अहीर) थे। पिता-पुत्र रायकृष्ण दास जी के यहाँ वैतनिक कार्य करते थे। मुगल शैली के चित्रों की प्रतिलिपि करने में उस्ताद रामप्रसाद बेजोड़ थे। इसी से राय साहब ने उन्हें अपने यहाँ रखा था।

1. 5. दैनिक पत्र ‘आज’, वाराणसी के 5 जुलाई 1959 के अंक में प्रकाशित केडिया जी का लेख।

 

2

वाराणसी

31-1-85

आदरणीय शास्त्रीजी,

सादर प्रणाम।

आपका पत्र अभी मिला। मैंने प्रत्येक चित्र एवं निगेटिव को अलग-अलग पैक किया था और विवरण लिख दिया था। आपको भ्रम क्यों हुआ?

इसमें शिव पार्वती हैं बादामा वाला प्रिंट है - उक्त चित्र उ. (उस्ताद) रामप्रसादजी4 का है और हाथी दांत पर है। यह राय साहब ने मुझे भेंट में दिया था। मूलचन्द का चित्र लंबा है। विषय धार्मिक है।

एक राधा-कृष्ण का है। यह रामप्रसादजी का अन्तिम चित्र है। मैंने तो पूरा विवरण लिख दिया था।

सभा का अर्द्धशताब्दी इतिहास देखा। यह संवत् 2000 में छपा है। उसमें जो विवरण है नीचे लिखता हूँ -

"भारत कला भवन ने मुगल शैली की चित्रकला के एकमात्र वर्तमान प्रतिनिधि वयोवृद्ध उस्ताद रामप्रसादजी के सम्मान में उन्हें एक हजार रुपए की थैली भेंट करने की योजना बनाई थी। समस्त भारत के गुणग्राही तथा गुणीजनों ने इस कार्य में सहयोग दिया और यह कार्य 22 मार्गशीर्ष 1997 को प्रयाग विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर श्री अमरनाथ झा के सभापतित्व में संपन्न हुआ। (अत्यन्त शोक है कि ऐसे विशिष्ट कलाकार का 26 आश्विन 2000 को देहावसान हो गया।)

और कुछ विवरण मिलेगा तो फिर भेजूँगा। प्रेमचन्दजी की जीवन झाँकी को नए एवं शुद्ध रूप में मैं तैयार कर रहा हूँ। एक प्रति आपको भेजूँगा। कुछ समय लगेगा।

दो-एक बानगी

1. फरवरी 1927 (वर्ष 5 खंड 2 संख्या 1) से माधुरी (लखनऊ) के संपादक नियुक्त हुए। (माधुरी की फाइल से) - श्रीमती गीतालाल - ‘साहित्य’ जनवरी 1960 (आपकी) जीवन झाँकी में 1929 में माधुरी के संपादक हुए।

2. उन्होंने 1919 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की (हमारे संग्रह के प्रमाण पत्र से - श्रीमती गीतालाल। जीवन झाँकी में - सन् 1912 - में बी.ए. पास किया।

3. श्रीमती गीता लाल -

"प्रेमचन्द के इंटरमीडिएट पास करने की तारीख रहबर (पृष्ठ 31) तथा डा. रामविलास शर्मा की पुस्तक (पृष्ठ 6) और यहाँ तक कि हाल में प्रेमचन्द स्मारक शिलान्यास के सन्दर्भ में ना.प्र. सभा द्वारा प्रचारित ‘श्री प्रेमचन्द की जीवन झाँकी’ में भी 1910 दी हुई है। श्रीमती शिवरानी देवी ने 1914 (पृष्ठ 27) तिथि दी है, किन्तु ये तिथियाँ गलत प्रमाणित हो चुकी हैं। रामरत्न पुस्तक भवन (वाराणसी) में इंटरमीडिएट का प्रमाण पत्र सुरक्षित है। इस प्रमाण पत्र के अनुसार प्रेमचन्द ने 1916 में, जब वे बस्ती में अध्यापक भी थे, यह परीक्षा पास की। (केडिया पू. नि. आज 5 जु. 19595)

इतने नमूने पर्याप्त हैं।

कृपा बनाए रहें। मेरे इस प्रकार के पत्रों को कृपया सुरक्षित रखें और काम हो जाने के पश्चात् लौटाने का कष्ट करें।

आपका

मुरारी लाल केडिया

ज् ग्राम करेरुआ

पोस्ट खमरिया

जनपद मिर्जापुर-221306

 

परिशिष्ट-6

गगनेन्द्र कुमार केडिया

कहाँ हैं प्रेमचंद की पाण्डुलिपियाँ?

वाराणसी के श्रीरामरत्न पुस्तक भवन में हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा अन्य कई भाषाओं के अनेकानेक दुर्लभ ग्रंथों का संग्रह था। इस पुस्तकालय की सबसे बड़ी विशेषता थी इसका संग्रहालय, जिसमें हिन्दी के साहित्यकारों की हस्तलिपियों, हस्ताक्षरों, पत्रों, चित्रों तथा उनके निजी उपयोग की वस्तुओं का अनूठा संकलन था जो इस पुस्तक भवन को सामान्य पुस्तकालयों की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी सिद्ध करता था। इस प्रकार के संग्रह की उपादेयता और महत्ता का ज्ञान ‘भवन’ में संगृहीत स्वर्गीय प्रेमचंदजी संबंधी संग्रह से सरलतापूर्वक हो जाता था। अब यह सारा संग्रहालय भारत कला भवन (का.हि.वि.वि.) को भेंट स्वरूप दे दिया गया है। इस संग्रहालय को काशी कौस्तुभ स्व. श्री मुरारी लाल केडिया ने अपनी अनूठी लगन एवं बेजोड़ उत्साह के बल पर, एकल प्रयास से स्थापित किया था।

‘भवन’ में प्रेमचंदजी के हस्ताक्षर, उनके परीक्षा संबंधी कुछ प्रमाणपत्र, उनके अनेक ग्रंथों की पाण्डुलिपियाँ, उनके वस्त्र, चश्मा तथा कुछ अन्य सामग्री संगृहीत थे। ये सब वस्तुएँ उनकी पत्नी श्रीमती शिवरानी देवी ने उनके निधन के अनंतर अनुग्रहपूर्वक ‘भवन’ को अर्पित की थीं। ‘भवन’ में प्रेमचंदजी के ‘प्रेमचंद’ नाम से ही नहीं, ‘धनपतराय’ नाम से भी हस्ताक्षर थे, जो उनका मूल नाम था।

प्रमाणपत्रों से प्रकाश

इनसे विदित होता है कि प्रेमचंदजी ने ‘परमानेंट जूनियर इंग्लिश टीचर्स’ परीक्षा सन् 1904 में गवर्नमेंट सेंट्रल ट्रेनिंग कालेज, इलाहाबाद से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। एतत्संबंधी इनका सरकारी प्रमाणपत्र दर्शनीय है, इसमें गणित संबंधी इनकी कमजोरी का उल्लेख इस प्रकार हुआ है, ‘नाट क्वालिफाइड टू टीच मैथमेटिक्स’ (गणित पढ़ाने के अयोग्य)। प्रधानाचार्य के ‘जेनरल रिमार्क्स’ (समान्य टिप्पणी) के अंतर्गत लिखा है, ‘ही वर्क्ड अर्नेस्टली एंड वेल’ (उन्होंने परिश्रमपूर्वक एवं भली- भाँति कार्य किया है।) इस प्रमाणपत्र पर इनका नाम केवल ‘धनपतराय’ लिखा है।

सन् 1904 में ही प्रेमचंदजी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ‘स्पेशल वर्नाक्यूलर परीक्षा’ भी उत्तीर्ण की जिसमें इनके विषय थे हिंदी और उर्दू। इसके प्रमाणपत्र में इनका पूरा नाम ‘धनपतराय श्रीवास्तव’ लिखा है। यह परीक्षा इन्होंने इलाहाबाद ट्रेनिंग कालेज से दी थी।

इंटरमीडिएट की परीक्षा ‘धनपतराय’ नाम से इन्होंने 1916 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। उस समय ये बस्ती में अध्यापक भी थे, जैसा कि इनके प्रमाण-पत्र में उल्लिखित है। इस परीक्षा में इनके विषय थे - अंग्रेजी साहित्य, तर्कशास्त्र (आगमन और निगमन), फारसी एवं आधुनिक इतिहास।

बी.ए. की परीक्षा भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही इन्होंने ‘धनपतराय श्रीवास्तव’ के नाम से 1919 में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। इनके परीक्षा विषय थे- अंग्रेजी-साहित्य, फारसी और इतिहास। उन दिनों भी ये अध्यापकी करते थे।

इनके 10 जून 1909 के एक नियुक्तिपत्र की शुद्ध प्रतिलिपि भी है जिसमें इलाहाबाद डिवीजन के इंसपेक्टर आफ स्कूल्स, श्री जे. डब्लू. बेकन ने कानपुर के डिस्ट्रिक्ट स्कूल के प्रधानाध्यापक को लिखा है - हैज दि आनर टू इन्फार्म हिम दैट दि चेयरमैन, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, हमीरपुर; हैज अप्वाइंटेड मिस्टर धनपतराय नाइंथ मास्टर डिस्ट्रिक्ट स्कूल कानपुर ऐज सबडेपुटी इंस्पेक्टर आव स्कूल्स हमीरपुर आन प्रोबेशन। दि मुंशी शुड बी आस्क्ड टू रिपोर्ट हिमसेल्फ टू चेयरमैन डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हमीरपुर ऐट ए वेरी अर्ली डेट (ससम्मान सूचित करता हूँ कि हमीरपुर के जिला बोर्ड के अध्यक्ष ने कानपुर जिला स्कूल के नवें अध्यापक श्री धनपतराय को परीक्षण पर हमीरपुर के स्कूलों का सह-उपनिरीक्षक नियुक्त किया है। मुंशी से कहा जाय कि वे अति आसन्न तिथि पर हमीरपुर जिला बोर्ड के अध्यक्ष से स्वयं मिलें)।

इसके पृष्ठ भाग पर गवर्नमेंट हाई स्कूल कानपुर के प्रधानाध्यापक का 16 जून 1909 का ‘फारवर्डिंग नोट’ (अग्रसारक टिप्पणी) भी है।

वस्त्र

प्रेमचंदजी के अनेक वस्त्र - कुरते, पायजामे, कोट, टोपी, शेरवानी आदि भी ‘संग्रह’ में हैं। खद्दर के इन वस्त्रों से उनकी सादगी, आर्थिक स्थिति एवं आकार का ज्ञान होता है। रूस के लेनिनग्राद विश्वविद्यालय के हिंदी के प्राध्यापक श्री विक्तर बालिन तो इन वस्त्रों का नाप तक लिखकर ले गये थे। वे श्री प्रेमचंद पर अनुसंधान कर रहे थे और शीघ्र इनके संबंध में एक पुस्तक भी लिखने वाले थे।

पाण्डुलिपियों से नवीन प्रकाश

‘संग्रह’ में प्रेमचंदजी की अनेक पुस्तकों, कहानियों, लेखों आदि की हिंदी तथा उर्दू की पाण्डुलिपियाँ संकलित हैं, जिनसे अनेक नवीन तथ्यों का उद्घाटन होता है। प्रेमचंद के अक्षर छोटे हैं। अनेक स्थलों पर लिपि अस्पष्ट भी है, पढ़ने में आयास पड़ता है। अतः इनकी लिपि सुपाठ्य नहीं कही जा सकती।

आर्यसमाज के किसी वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर लाहौर में इन्होंने जो भाषण दिया था, उसकी पाण्डुलिपि भी ‘संग्रह’ में है। यह भाषण ‘कुछ विचार’ में प्रकाशित हो चुका है। इनकी तीन कहानियों की पाण्डुलिपियाँ भी ‘संग्रह’ में हैं, जिनके नाम हैं- ‘रहस्य’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तथा ‘कश्मीरी सेब’। ‘कश्मीरी सेब’ इनकी अंतिम कहानी है। ‘रहस्य’ की पाण्डुलिपि तो प्रेस कॉपी है, परंतु ‘शतंरज के खिलाड़ी’ की मूल पाण्डुलिपि है, जिसके साथ उसका सार-संकेत (सिनाप्सिस) भी है। यहाँ यह उल्लेख्य है कि अपनी हिंदी एवं उर्दू की समस्त रचनाओं का सार-संकेत प्रेमचंदजी अंग्रेजी में ही बनाया करते थे जिससे स्पष्ट है कि वे कहानी-उपन्यास की कथावस्तु की कल्पना अंग्रेजी माध्यम से ही किया करते थे। हिंदी-उर्दू में लिखने वाले इस महान् लेखक के विचार का माध्यम न हिन्दी थी, न उर्दू। उस युग के बहुत से लेखक अंग्रेजी माध्यम से कार्य करते थे। हिंदी के सर्वप्रधान समीक्षक स्वर्गीय आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी अंग्रेजी में सार-संकेत लिखा करते थे। उनकी ‘रस-मीमांसा’ पुस्तक से यह प्रमाणित है।

कर्मभूमि और कर्बला

इनके उपन्यास ‘कर्मभूमि’ के प्रथम भाग के अंतिम अंश एवं द्वितीय भाग के प्रारंभिक अंश की पाण्डुलिपि भी ‘संग्रह’ में है। इसके प्रथम पृष्ठ पर ‘कर्मभूमि 16 अप्रैल 1931 प्रेमचंद’ लिखा हुआ है। यह उपन्यास सन् 1932 में प्रकाशित हुआ। इस पाण्डुलिपि में बीच-बीच में कई पृष्ठों पर अंग्रेजी में सार-संकेत (सिनाप्सिस) भी है। इसमें एक अन्य मनोरंजक बात यह दिखाई देती है कि प्रकाशित उपन्यास के नायक एवं उसके पिता का नाम अमरकांत एवं समरकांत है। परंतु प्रस्तुत पाण्डुलिपि के दूसरे भाग के दूसरे अध्याय के अंतिम अनुच्छेद के पूर्व सर्वत्र अमरनाथ एवं समरनाथ नामों का व्यवहार हुआ है। अंतिम अनुच्छेद में तथा उसके आगे वाले अध्याय में भी अमरनाथ नाम का प्रयोग दिखाई देता है। यह अनुच्छेद दूसरी बैठक में लिखा गया प्रतीत होता है, जैसा कि लिखावट से स्पष्ट है। नामों का ऐसा ही परिवर्तन ‘डामुल का कैदी’ शीर्षक कहानी की पाण्डुलिपि में भी है, जिसका उल्लेख आगे किया जाएगा।

‘कर्मभूमि’ के इन अंशों के आगे ही एक नये उपन्यास की रूपरेखा भी अंग्रेजी में लिखी हुई है। इसे पढ़ने से ज्ञात होता है कि यह उपन्यास प्रेमचंदजी के मस्तिष्क में ही रह गया और वे इसे लेखनीबद्ध नहीं कर सके। यह रूपरेखा भी अपूर्ण है। आठ अध्यायों की रूपरेखा बनाने के बाद नवें अध्याय की संख्यामात्र लिखी हुई है। यह मूल रूप में उद्धृत की जा रही है -

‘टू आस्पेक्ट्स - ऐन अनहैपी मैरिड लाइफ ड्यू टू डिफरेंस इन आउटलुक एंड मैंटिलिटी, देयर इज एंथूजिएज्म, सैक्रीफाइस, डिवोशन, बट आल्सो ए लांगिग, ए यर्निंग फार लव, दि हर्ट इज नाट अवेकेंड देयर इज नो स्पिरिचुअल अवेकेनिंग। वाइफ्स सैक्रिफाइसेज क्रिएट लव। स्पिरिचुअल अवेकेनिंग, आल्सो कम्स, देन होल आउटलुक चेंज्ड। दि होल एटमस्फियर इज प्यूरीफाइड।

ए यूथ पनिश्ड फार ट्रांसपोर्टेशन इन ए पोलिटिकल मर्डर ट्रायल। हिज बिट्रेथेड एंड फादर बोथ आर ट्रांसफार्म्ड। ह्वेन ही रिटर्न्स ही फाइंड्स देम रेडी टु वेलकम हिम। आल फीयर वैनिश्ड।

दि डीटेल्स शुड बी वर्क्ड आउट-160 पेजेज। फर्स्ट चैप्टर-दि ट्रायल एंड पनिशमेंट, प्राइस-12/-

सेकेंड - दि बिट्राथेड गर्ल वाज प्रेजेंट ऐट दि कोर्ट। शी प्रपोजेज टु रिमेन विद दि फादर आव हर फिएंसी। हर फिएंसीज फेयरवेल लेटर।

थर्ड - दि फादर सब्सक्राइव्स सीक्रेटली टु दि फंड आफ दि पोलिटिकल पार्टी एंड रेडी टु हेल्प इन एवरी वे।

फोर्थ - दि सीक्रेट इज डाइवल्ज्ड बाई वन आव दि पार्टी। दि पुलिस थृेटेन दि फादर बट ही इज ऐडमंट। हिज डाटर-इन-ला इनकरेजेज हिम।

फिफ्थ - दि डाटर-इन-ला अटेंड्स ए पोलिटिकल मीटिंग एंड इज वोसीफेरसली चियर्ड। शी इज इलेक्टेड प्रेसीडेंट आव दि कांग्रेस कमीटी।

सिक्स्थ - लाहौर कांग्रेस-शी अटेंड्स एंड डेलिवर्स ए स्पीच ऐट लाहौर। दि रेजोल्यूशन फार इंडिपेडेंस। शी सपोर्ट्स इट इन एक्सेलेंट स्पीच।

सेवेंथ - दि रैटीफिकेशन। हर एफर्ट्स टु फार्म ए लेडी वर्क्स यूनियन सक्सेसफुल।

एर्थ - पिकेटिंग बाई दि लेडी। एंड अरेस्ट।

नाइंथ -

शीर्षकहीन कहानी

इसी के आगे एक अन्य शीर्षकहीन कहानी की पाण्डुलिपि है। यह कहानी काफी हेरफेर के साथ ‘मानसरोवर’ के दूसरे भाग में ‘डामुल का कैदी’ नाम से प्रकाशित हो चुकी है। प्रेमचंदजी एक बार लिखने के पश्चात् पुनः कथानक में कितना भारी परिवर्तन करते थे, यह इस कहानी की मूल पाण्डुलिपि से स्पष्ट है। मूल कहानी एवं प्रकाशित कहानी के आरंभिक दो एक अनुच्छेद तो लगभग ज्यों के त्यों हैं परन्तु उसके बाद दोनों का कथानक सर्वथा भिन्न हो जाता है, यहाँ तक कि दोनों को दो भिन्न कहानियाँ कह सकते हैं। मूल कहानी में कहीं ‘डामुल का कैदी’ है ही नहीं। मूल कहानी का कथानक संक्षेप में यों है - सेठ खूबचंद अफसरों की कृपा से बड़े धनी हैं, अभाव है केवल संतान का। इसी बीच ये मिल में मजदूरी घटाने की घोषणा करते हैं, जिसके विरुद्ध मजदूर गोपी नामक युवक के नेतृत्व में हड़ताल करते हैं। आवेश में गोपी को सेठजी गोली मार देते हैं। परंतु वह मरते-मरते भी क्रुद्ध जन-समूह को कसम खिलाता है कि वह सेठजी को न मारे। उसके त्याग से सेठजी नास्तिक से आस्तिक हो जाते हैं। लौटते समय एक मित्र इन्हें एक वेश्या के यहाँ जबर्दस्ती ले जाता है। पर उस वेश्या के सौंदर्य में भी सेठजी को परमात्मा के दर्शन होते हैं। सेठजी अब जनहित में लग जाते हैं। शोषक से सेवक हो जाते है। सेठजी की भक्ति के प्रभाव से वेश्या का हृदय भी परिवर्तित हो जाता है। भगवत्कृपा से सेठजी को पुत्ररत्न की प्राप्ति होती है जिसे लेकर वे मंदिर में जाते हैं। वहीं उस वेश्या से भेंट होती है, जिसने अपने कुत्सित व्यवसाय का त्याग कर दिया है और कहानी वेश्या के इस वाक्य के साथ समाप्त हो जाती है कि, ‘जब तक जिऊँगी, आपका यश मानूँगी।’

इसके विपरीत प्रकाशित कहानी में जब सेठजी के घर पर जन-समूह गोपी की हत्या के बदले की भावना से आक्रमण करता है तब सेठजी सबके सामने अपना अपराध स्वीकार करके 14 वर्षों के लिए डामुल (कालापानी) चले जाते हैं। इसी बीच उनके पुत्र उत्पन्न होता है जिसका चेहरा एकदम गोपी का-सा है। सेठजी सजा काटकर लौटते हैं एवं पत्नी तथा पुत्र से मिलते हैं। आठ दिन बाद पुनः मिल में हड़ताल हो जाती है और सेठजी का लड़का नेतृत्व करता हुआ मारा जाता है। पर भगवद्भक्ति की ओर उन्मुख सेठजी उसकी मृत्यु के पश्चात् भी प्रसन्न हैं, क्योंकि, उससे मजदूरों का हित हुआ।

इसी प्रकार के बड़े परिवर्तन ‘कायाकल्प’ में भी हैं। इससे स्पष्ट है कि प्रेमचंदजी बाद में काफी काट-छाँट करते थे, न केवल भाषा के सुधार के लिए अपितु कथानक के पुनर्गठन के लिए भी।

‘कर्मभूमि’ में जिस प्रकार लिखते-लिखते उन्होंने नायक का नाम अमरनाथ से अमरकांत कर दिया, उसी प्रकार प्रस्तुत कहानी में भी वेश्या का नाम श्यामा से लैला कर दिया है। संभवतः न जँचने पर प्रेमचंदजी बीच में ही नाम बदल देते थे और नयी प्रति तैयार करते समय एकरूपता ला देते थे।

अंतिम पृष्ठों में उर्दू में लिखे ‘बदरुद्दीन तैयबजी’ शीर्षक लेख की पाण्डुलिपि है।

‘संग्रह’ में ‘कर्बला’ नाटक के प्रथम अंक के दृश्य 5 के पृष्ठ 62 से द्वितीय अंक के दृश्य 6 के पृष्ठ 111 तक की पाण्डुलिपि भी है। इसमें बहुत से पृष्ठों को लिखकर काट दिया गया है। यह भी मूल पाण्डुलिपि है, प्रेस प्रति नहीं। इसमें ध्यान देने की बात यह है कि प्रथम अंक का छठा दृश्य लिखकर पूरा काट दिया गया है और उसी के बाद दूसरा अंक आरंभ हो गया है। परंतु प्रकाशित पुस्तक में दो दृश्य 6 और 7 भी हैं, जो बाद में बढ़ाये गये हैं।

चौगाने हस्ती

प्रेमचंदजी के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ के उर्दू संस्करण ‘चौगाने हस्ती’ की उर्दू पाण्डुलिपि भी इस संग्रह में है। इसके प्रथम पृष्ठ पर बाँयी ओर हाशिये पर लिखा है ‘कमेंस्ड आन फर्स्ट अक्टूबर 1922’ (1 अक्टूबर 1922 को आरंभ किया) और अंत में लिखा है, ‘डेटेड फर्स्ट अप्रैल 1924, 116 पेजेज हिंदी फिनिश्ड डेटेड ट्वेल्फ्थ अगस्त 1924’ (तारीख 1 अप्रैल 1924, 116 पृष्ठ हिन्दी की प्रति 12 अगस्त 1924 को समाप्त हुई।) प्रस्तुत उपन्यास हिन्दी में रंगभूमि के नाम से 1925 में प्रकाशित हुआ। ‘चौगाने हस्ती’ का आरंभ प्रेमचंदजी ने उर्दू लिपि में ‘ओम्’ लिखकर किया है। इससे इनकी आर्यसमाज के प्रति निष्ठा का संकेत मिलता है, क्योंकि आर्यसमाज में ओम् का अत्यधिक महत्त्व स्वीकृत है। इसी पाण्डुलिपि के अंत में उनकी अत्यंत प्रसिद्ध कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ की भी पाण्डुलिपि है।

प्रेमाश्रम

प्रेमचंदजी के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ के उर्दू संस्करण की अधूरी पाण्डुलिपि (फारसी लिपि) भी संग्रह में उपलब्ध है। इसमें 15वें अध्याय के 4 पृष्ठ तथा 19वें अध्याय के अंतिम अंश से 38वें अध्याय तक के पृष्ठ हैं। मूल उपन्यास नीली स्याही से लिखा गया है। परंतु काली स्याही से 34वें अध्याय के अंत में 8-10-25 तथा 38वें अध्याय के अंत में 14-10-25 तिथियाँ लिखी गई हैं। इन तिथियों के संबंध में दो संभावनाएँ की जा सकती हैं कि या तो ये तिथियाँ हिन्दी अनुवाद की हों या पाण्डुलिपि के दुहराने की। प्रथम संभावना का खंडन इस कारण सहज ही हो जाता है कि हिंदी में यह उपन्यास 1922 में ही छप चुका था। दूसरी संभावना भी इसलिए ठीक नहीं है कि कहीं भी संशोधन आदि नहीं मिलते, जो दुहराने की स्थिति में अवश्य होते। ये तिथियाँ उपन्यास-लेखन की भी प्रतीत नहीं होतीं, क्योंकि उस स्थिति में पहले तो ये भी नीली स्याही से लिखी गयी होतीं और हिंदी में यह 1922 में ही छप चुका था। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि ये तिथियाँ उर्दू संस्करण की प्रेस-प्रति तैयार करने की हैं।

कायाकल्प

‘कायाकल्प’ की पाण्डुलिपि संग्रह में दो जिल्दों में संगृहीत है, जिन पर क्रमशः भाग-1 और भाग-2 लिखा हुआ है। दोनों भागों में दस-दस अध्याय हैं। परंतु प्रकाशित उपन्यास में भागों का उल्लेख नहीं है। अतः अध्यायों की संख्या क्रमशः बढ़ती गयी है। प्रकाशित उपन्यास तथा प्रस्तुत पाण्डुलिपि में इतने अधिक अंतर हैं कि दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने पर अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का पता लग सकता है। उदाहरण के लिए पाण्डुलिपि के दूसरे भाग का प्रथम अध्याय प्रकाशित उपन्यास का इकतीसवाँ अध्याय है। ‘कायाकल्प’ में अनेक कथाएँ हैं और उनका मेल बड़े विचित्र ढंग से किया गया है। इसके फलस्वरूप जान पड़ता है कि प्रेमचंदजी को इस उपन्यास के नामकरण के संबंध में भी पर्याप्त उलझन हुई थी। पहले भाग के आरंभ में इन्होंने तीन नाम लिखे हैं - ‘असाध्य साधना’, ‘माया स्वप्न’ और ‘आर्तनाद’। किन्तु दूसरे भाग में केवल ‘आर्तनाद भाग दो’ लिखा है। परंतु ग्रंथ प्रकाशित हुआ है ‘कायाकल्प’ नाम से। उपर्युक्त नामों की सार्थकता का विचार एक स्वतंत्र विषय है। पहले भाग में आरंभ में 10 अप्रैल 1924 और दूसरे भाग के आरंभ में 12-11-24 तिथियाँ लिखी हुई हैं। ‘कायाकल्प’ का प्रकाशन 1926 में हुआ। प्रथम एवं द्वितीय भागों के आरंभ में लिखी तिथियों से स्पष्ट है कि प्रथम भाग के लिखने में 7 मास का समय लगा। लगभग इतना ही समय द्वितीय भाग के लिखने में लगा होगा, यदि वह लगातार लिखा गया होगा। परंतु प्रकाशित ग्रंथ एवं उसकी प्रस्तुत पाण्डुलिपि में बड़ा अंतर है। संभवतः यही इसके इतने विलंब से प्रकाशित होने का कारण है।

दूसरे भाग के 9वें अध्याय के आरंभ में ‘नाइंथ चैप्टर अहल्या एंड राजा’ रोमन अक्षरों में लिखा हुआ है। सभी उपन्यासों के बीच-बीच में अंग्रेजी में अनेक वाक्य लिखे हुए हैं। इन सबसे अंग्रेजी माध्यम से कल्पना करने की उनकी प्रवृत्ति का पता चलता है।

दूसरे भाग के पाँचवे अध्याय के प्रथम पृष्ठ के पीछे अंग्रेजी में उन्होंने उपन्यास के प्रमुख पात्र ‘चक्रधर’ के चरित्र के संबंध में कुछ संकेत इस प्रकार लिखे हैं -

आइडियाज

ट्रायल्स एण्ड ट्रबुल्स मोल्ड दि ह्यूमेन करेक्टर, दे मेक हीरोज आव् मेन। पावर एंड अथारिटी इज दि कर्स आव् ह्यूमेनिटी। इवेन दी हाइएस्ट फाल ए विक्टिम टु पावर एंड लूज देयर करेक्टर।

चक्रधर रोज मारली ह्वाइल स्ट्रगलिंग फार एक्जिस्टेंस हिज फाल बिगैन ह्वेन ही केम इन पावर।

(परीक्षाएँ एवं कठिनाइयाँ मानव-चरित्र का निर्माण करती हैं, वे मनुष्यों को वीर बनाती हैं। शक्ति एवं अधिकार मानवता के अभिशाप हैं। महापुरुष भी शक्ति के शिकार हो जाते हैं और अपना चरित्र खो देते हैं।

जब चक्रधर अपने अस्तित्व के लिए युद्ध करता रहा था तब वह नैतिक दृष्टि से ऊपर उठा। जब उसे शक्ति प्राप्त हुई तो उसका पतन आरंभ हो गया।)

इसकी पाण्डुलिपि में स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार के हिसाब भी लिखे हुए हैं, जिनमें से कितने ही मौखिक किये जा सकते थे। प्रेमचंदजी लिखते समय भी कितने परेशान एवं उलझनों में घिरे होते थे, इसका ज्ञान इन पाण्डुलिपियों को देखने से ही हो सकता है। स्थान-स्थान पर रुपयों के हिसाब लिखे हुए हैं। उपन्यास लिखते समय भी वे यह नहीं भूल पाते थे कि मकान का किराया शीघ्र देना है।

पुस्तकों के प्रकाशन की योजना

‘कायाकल्प’ की पाण्डुलिपि के बीच में एक स्थान पर पुस्तकों के प्रकाशन की एक योजना भी अंग्रेजी में बनी हुई है। इससे पता चलता है कि ये पंडित जे.पी. भार्गव के साथ ‘सार्वजनिक ग्रंथमाला’ नाम से पुस्तकें प्रकाशित करना चाहते थे। वहाँ इस योजना का विवरण लिखा हुआ है- किस प्रकार से पुस्तकें प्रकाशित होंगी, आपसी अनुबंध क्या होंगे, किसे क्या पारिश्रमिक मिलेगा आदि। आरंभ में ग्रंथों की सूची भी है। यह योजना यहाँ मूल रूप में उद्धृत की जा रही है-

1. दि सिरीज आव् दि बुक्स विल बी नेम्ड ‘सार्वजनिक ग्रंथमाला’।

2. इट विल बी दि ज्वाइंट कसर्न आफ पं. जे.पी. भार्गव एंड धनपतराय बी.ए.। जेनरल बुक्स विल बी पब्लिश्ड। स्कूल बुक्स विल आल्सो बी पब्लिश्ड।

टर्म्स -

1. पंडित जे.पी. भार्गव विल बेयर दि कास्ट आफ पब्लिशिंग दि बुक्स। दि एडिटिंग वर्क विल बी डन बाई डी. राय। दि कपीराइट्स आफ दि बुक्स विल बी सेटेल्ड विथ दि आथर्स बाई बोथ दि पार्टनर्स।

2. दि पार्टी नं. 1 विल अंडरटेक टु पे रेम्यूनरेशन टू दि आथर्स एंड कापीराइट आफ सच बुक्स विल रेस्ट विथ हिम। फाइव पी.सी. आफ दि प्राफिट्स विल गो टुवर्ड्स एडिटिंग चार्जेज।

3. प्रेमचंद्स वर्क्स विल बी पब्लिश्ड बाई दि पार्टीज आन रायल्टी सिस्टम। फाइव पी.सी. आव् नेट प्राफिट्स विल गो टु ईच पार्टी आफ्टर दि पब्लिशिंग चार्जेज हैव बीन डीफ्रेड बाई दि पार्टी नं. 1।

4. इन केस आव् स्कूल बुक्स, दि रिस्पांसिबिलिटि आव् कंपाइलेशन विल रेस्ट विथ पार्टी नं. 1। ही विल हैव टु पे दि आथर आन हिज ओन एकाउंट। दि मनी पेड बाई द पार्टी नं. 1 विल बी चार्ज्ड टु दिस।

5. दि बुक्स आव् दि सिरीज विल बी पब्लिश्ड ऐट दि सरस्वती प्रेस एंड अनलेस दि प्रेस इज अनेबुल टु कोप विद दि वर्क नो वर्क बिल बी पब्लिश्ड ऐट ऐनी अदर प्रेस।

6. दि स्टैंडर्ड आव् दि वर्क विल बी हाई एंड दि रेट्स आव् पब्लिकेशन विल बी सेटेल्ड बाई म्यूचुअल कंसल्टेशन।

7. इन केस दि पार्टीज लाइक टु ब्रेक अप, कापीराइट आव् सच बुक्स ऐज हैज बीन पेड फार बाई पार्टी नं. 1 विल बी हिज प्रापर्टी ह्वाइल प्रेमचंद्स कापीराइट बिलांग टु पार्टी नं. 2।

8. इन केस।

एक पृष्ठ पर मनमोदक, अतीत स्मृति, सुघड़ बेटी एवं सुशील कुमारी नामक पुस्तकों का विज्ञापन भी लिख रखा है।

सृष्टि का आरंभ

इस अनूदित पुस्तक के आधे अंश की पाण्डुलिपि भी संग्रहालय में है। यह किसी अन्य व्यक्ति की लिखावट में है। इसमें तीसरे पृष्ठ पर कुछ अंश ऊपर से चिपकाया है जिसकी लिखावट प्रेमचंदजी की है। सर्वप्रथम यह रचना बिना अनुवादक के नाम के प्रेमचंदजी के निधनोपरांत ‘हंस’ के मार्च-अप्रैल 1937 के अंकों में प्रकाशित हुई है। तत्पश्चात् 1938 में यह पुस्तकाकार प्रकाशित की गयी। इसमें जिस लेखनी से संशोधन है वह अनुवाद की लेखनी से भिन्न है, पर वह प्रेमचंदजी की भी नहीं है, इसकी लिखावट किसी अन्य व्यक्ति की है। इससे यह संदेह होता है कि अनुवाद प्रेमचंदजी ने ही किया या किसी अन्य व्यक्ति ने। इस संदेह को पाण्डुलिपि के आरंभ में लिखे पत्र से और भी बल मिलता है। यह प्रेमचंदजी की ही लिखावट में है और संभवत पंडित बनारसीदासजी चतुर्वेदी को लिखा गया है। मूल पत्र यों है- ‘प्रिय बनारसी दास जी, यह एक छोटा-सा ड्रामा बर्नार्ड शॉ की एक नयी रचना का अनुवाद है, इसे बड़े परिश्रम से कराया है। रचना कितनी उच्च कोटि की है, पढ़ने से ज्ञात होगी। किसी नाम की बहुत जरूरत हो तो ध. रा. दे दें। हाँ, हाँ पुरस्कार वही दें जो आप अच्छे अनुवादों का दे सकें। आशा है, आप सानंद होंगे।

भवदीय

ध. राय (धनपतराय)

इसमें लिखे शब्दों ‘कराया है’ तथा नाम छिपाने की इच्छा से संदेह पुष्ट होता है, पर बहुत संभव है कि उन्होंने अनुवाद बोलकर कराया हो, जैसा कि प्रकाशक का मत है। इसी से मिलती-जुलती, पर किसी अन्य लिपि में एक अन्य पुस्तक ‘स्टोरी आफ दि मैनकाइंड’ के अनुवाद के कुछ पृष्ठ भी संग्रह में हैं जिनमें प्रेमचंदजी के हाथ के बहुत से संशोधन हैं। इनके पीछे उर्दू की किसी रचना के कुछ अंश भी हैं।

इन पाण्डुलिपियों से एक और अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात का ज्ञान होता है जिसकी ओर लेखक का ध्यान प्रेमचंदजी के सुपुत्र एवं हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार श्री अमृतराय ने आकृष्ट किया। वह यह कि प्रेमचंदजी अपने पात्रों का चयन वास्तविक जीवन से करते थे और उपन्यास के आरम्भ में पात्र के कल्पित नामों के साथ वास्तविक नाम भी स्मरणार्थ लिख लेते थे।

कायाकल्प, भाग-1 दूसरे पृष्ठ पर अंग्रेजी में लिखे ऐसे वाक्य मिलते हैं, जिनके कुछ अंश मूल रूप में दिए जा रहे हैं -

‘बिबुधा इज यज्ञनारायण उपाध्याय - क्रैफ्टी, पेनोमोनिअस, सेल्फिश बट सर्विसफुल टैक्टफुल।

(बिबुधा यज्ञनारायण उपाध्याय है - धूर्त, कृपण, स्वार्थी परंतु सेवा करने वाला कुशल।)

विशाल सिंह इज बेचनलाल - सिंपुल ऑनेस्ट.......

कल्याण सिंह इज चंद्रिका...........

चक्रधर इज जे. प्रसाद.......... वेरी शाई..........,

(विशाल सिंह बेचनलाल है - सरल, ईमानदार........

कल्याण सिंह चंद्रिका है....

चक्रधर जे. प्रसाद है - बड़ा शर्मीला........)

प्रेमचंदजी उपन्यास लिखने के बाद उसका संशोधन भी करते थे, परिवर्तन-परिवर्द्धन भी करते थे। यत्र-तत्र उन्होंने इन मूल पाण्डुलिपियों में ‘कापीड आउट’ लिखकर तिथि का उल्लेख किया है जिससे स्पष्ट है कि प्रेस-प्रति वे अलग से दुबारा लिखते या लिखवाते थे। इसका सहज ही अनुमान ‘चौगाने हस्ती’ के अंत में लिखी गई तिथियों से होता है। ‘चौगाने हस्ती’ के अंतिम अंशों में काली स्याही से (मूल उपन्यास नीली स्याही से लिखा है) जून-जुलाई 1925 की अनेक तिथियाँ यत्र-तत्र लिखी हैं जो प्रेस प्रति तैयार करते समय स्मरणार्थ लिखी गयी प्रतीत होती हैं। ऐसी ही तिथियाँ ‘प्रेमाश्रम’ में भी हैं जिनका उल्लेख पहले हो चुका है।

इन पाण्डुलिपियों में व्यवहृत कागज एवं उस पर घने एवं छोटे अक्षरों में प्रायः कागज के दोनों ओर लिखने की प्रवृत्ति उनकी आर्थिक स्थिति और मितव्ययिता की भी द्योतक है।

विशेष अनुसंधान करने पर इन पाण्डुलिपियों से प्रेमचंदजी की लेखन-शैली के संबंध में अन्य अनेक नवीन तथ्यों का पता लगाया जा सकता है।

इसी भाँति ‘श्रीरामरत्न-पुस्तक भवन’ में संगृहीत अन्य पाण्डुलिपियों के अध्ययन द्वारा अनेक लेखकों के संबंध में नवीन तथ्य उपलब्ध हो सकते हैं। आज देश में हिन्दी में अनुसंधान करने वाले विद्यार्थियों की संख्या जिस गति से बढ़ती जा रही है, उससे यह आशा होती है कि भविष्य में इस संग्रह का पूरा लाभ हिन्दी संसार उठायेगा और तभी संग्रहालय का लक्ष्य भी पूरा होगा।

उपरोक्त सभी पाण्डुलिपियाँ डा. कमल किशोर गोयनका, स्व. मुरारीलाल केडिया से प्रेमचंद पर शोध कार्य के लिए इस वचनबद्धता के साथ ले गये कि कार्य पूरा होने पर लौटा देंगे। सरल हृदय और दूसरों की सहायता के लिए सदैव तत्पर केडियाजी ने उन्हें सहर्ष सभी पाण्डुलिपियाँ दे दीं। अनेक वादों-तकादों के बाद भी श्री गोयनका ने केवल अपेक्षाकृत महत्त्वहीन ‘सृष्टि का आरंभ’ की ही पाण्डुलिपि वापस की। प्रेमचंद शताब्दी समारोह पर आयोजित देशव्यापी समारोहों एवं प्रदर्शनियों में इन पाण्डुलिपियों का प्रदर्शन कर न केवल कपटपूर्ण ढंग से नाम कमाया, वरन दाम भी कमाया। शोध कार्य करके उन्होंने जो पुस्तकें प्रकाशित कीं, उनमें न तो केडियाजी के प्रति कहीं आभार प्रदर्शित किया, न उनकी मुद्रित प्रतियाँ भेजीं। उनकी यदि कोई अंतरात्मा हो तो उससे निवेदन (अपील) है कि सारी पाण्डुलिपियाँ मुझे वापस भेजकर अपने कुकृत्यों का प्रायश्चित्त कर लें, अन्यथा उनकी इस कृतघ्नता के लिए संभवतः ईश्वर भी उन्हें क्षमा नहीं करेगा। नाम और दाम से बढ़कर मन की शान्ति है जो सुयश से प्राप्त होती है। वह तो उन्हें कदापि नहीं मिलेगी। यदि वे मानव हैं तो आज भी उनके हृदय का कोई कोना तो उन्हें कचोटता ही होगा। मुझे पाण्डुलिपियाँ वापिस करके वे इन सबसे मुक्ति और मन की शान्ति क्यों नहीं प्राप्त कर लेते? नाम और नावा बहुत कमाया, अब तो बस करें, कहीं तो सीमा-रेखा खींचें।

ज् डी-63/10 महमूरगंज

वाराणसी-221010

परिशिष्ट-7

संकलित रचनाओं की सन्दर्भिका

क्र. शीर्षक प्रथम प्रकाशन पाठ का स्रोत

1. दाराशिकोह का ‘आजाद’, लाहौर, सितम्बर 1908 मूल

दरबार

2. सौदा-ए-खाम ‘हमदर्द’, दिल्ली, अगस्त 1914 तमद्दुन,दिल्ली, फरवरी 1920

3. इश्तिहारी शहीद ‘जमाना’, कानपुर, अप्रैल-मई 1915 मूल

4. जंजाल ‘तहजीबे निस्वाँ’, लाहौर, मूल

3 अगस्त व 10 अगस्त 1918

5. महरी ‘जमाना’, कानपुर, नवम्बर 1926 मूल

6. वफा की देवी ‘निजात’, कहानी संकलन 1933 मूल

7. अहदे अकबर में ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’, अलीगढ़, मूल

हिन्दुस्तान की अक्टूबर-नवम्बर 1907

हालत

8. इत्तिफाक ताकत है ‘आजाद’, लाहौर, मूल

मार्च 1908

9. आबशारे न्याग्रा ‘जमाना’, कानपुर, मूल

जुलाई 1908

10.जॉन ऑफ आर्क ‘जमाना’, कानपुर, मूल

जुलाई 1909

11.कलामे सुरूर ‘जमाना’, कानपुर, मूल

जुलाई 1911

12.शहीदे आजम ‘कारनामा-ए-हुसैन’, मूल

संकलन, मई-जून 1931

13.पद्म सिंह शर्मा के ‘विशाल भारत’, कलकत्ता, मूल

साथ तीन दिन अगस्त 1932

14.साहित्य और ‘विशाल भारत’, कलकत्ता, मूल

सदाचार अक्टूबर 1932

15.अहमद अली के ‘नया अदब और कलीम’, लखनऊ मूल

नाम पत्र जनवरी-फरवरी-मार्च 1940

16.सज्जाद जहीर के ‘नया अदब और कलीम’, लखनऊ मूल

नाम पत्र जनवरी-फरवरी-मार्च 1940

17.पं. देवीदत्त शुक्ल ‘सम्मेलन पत्रिका’, प्रयाग मूल

के नाम पत्र पौष-ज्येष्ठ 1903-04 शक

18.प्रेमचंद-महताबराय --- मूल

पत्राचार

19.पण्डित जी के --- मूल

नाम पत्र

 


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