महाकाल की अनंत अवधि के किसी समय में समुद्र मंथन होता है। देवता और दानव
मिलकर मंदराचल पर्वत की रई और वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्र का मंथन करते
हैं। समुद्र में से मंथन की प्रक्रिया के कारण चौदह रत्न निकलते हैं। उन्हीं
में से एक रत्न अमृत भी निकलता है। अमृत के निकलते ही, उसका पान करने के लिए
देवताओं एवं राक्षसों में होड़ सी लग गई। उस घमासान के बीच इंद्र का पुत्र जयंत
अमृत कलश को लेकर वहाँ से भाग जाता है। भागने की प्रक्रिया में एवं यहाँ-वहाँ
उस अमृत कलश को लेकर जाने में भारतभूमि के चार स्थानों पर अमृत छलकता है और
उसकी अलग-अलग स्थानों पर चार बूँदें गिरती हैं। हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन
और नासिक में अमृत बिंदु गिरते हैं। धरती के ये चार स्थान पुण्य पावन हो जाते
हैं। इन्हीं चार स्थानों पर प्रति बारह वर्ष में कुंभ लगता है।
मेकल पर्वत से पावन सलिला नर्मदा निकलती है। मेकल की उत्तर में पूर्व में
पश्चिम तक फैली विंध्याचल की पर्वत श्रेणियाँ हैं। उन्हीं में से एक श्रेणी से
मालव धरती में प्रवाहित होनेवाले एवं उज्जैन को तीर्थ बनाने वाले पुण्य पावन
क्षिप्रा निकलती है। क्षिप्रा के तट पर उज्जैन में सिंहस्थ प्रति बारह वर्ष
में आता है। इस समय सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। नर्मदा साधना की नदी
है। उज्जैन में क्षिप्रा तट पर महाकाल विराजित हैं। ओंकारेश्वर में नर्मदा तट
पर ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर और ममलेश्वर स्थित हैं। क्षिप्रा और नर्मदा दोनों
को शिव का सान्निध्य प्राप्त है। नर्मदा तो शिव के कंठ से ही निकली है।
भारतवर्ष में तपस्या के लिए सर्वाधिक उपयुक्त और फलदायी पावन भूमि नर्मदा तट
ही है। नर्मदा सदानीरा भी है। ओंकारेश्वर में शिव ज्योतिर्लिंग स्वरूप हैं।
सामान्यतः जो भक्त सिंहस्थ में उज्जैन आते हैं, वे नर्मदा तट पर स्थित
ओंकारेश्वर भी पुण्यलाभ के लिए आते हैं। स्नान का महत्व क्षिप्रा और नर्मदा
दोनों का अपना-अपना है। अब तो नर्मदा का जल ही क्षिप्रा में तीर्थ जल के रूप
में प्रवाहित किया जा रहा है। नर्मदा के स्नान और दर्शन दोनों का महत्व पुराण
प्रसिद्ध है।
साधु, संत, तीरथवासी, परकम्मावासी, रोगी-भोगी जल में डुबकी लगा रहे हैं। जल
धारा रूप में बह रहा है। बिना निमंत्रण मेला लगा है। ऊपर-ऊपर सब लोग अलग-अलग
दीख रहे हैं। कई-कई वेश हैं। अपनी-अपनी भाषावाणी है। स्तर छोटा-बड़ा है।
चमक-दमक में फर्क है। सुविधाओं की मुँह देखी बातें हैं। लक्ष्मी का रूतबा
पच्चीस, पचास, सौ, हजार लोगों की भीड़ में अलग ही छिटकता है। चेहरों की बनावट
और रंगों की अपनी-अपनी पहचान है। मुस्कान और तृप्ति का प्रकार एक-सा है।
श्रद्धा के ठाठ निराले हैं। भावों का बहाव सबके भीतर है। एक-दूसरे से मिलकर
हाथों की गरमाहट महसूसने की हृदय-यात्रा सबमें निरंतर है। बहते जल में स्नान
कर तीर्थ बनने की नहीं, तीर्थ जानने-समझने की बारीक ललक आँखें खोल रही है।
आदमी जल में है। आदमी प्रवाह में है। जल, प्रवाह और उसके विराट में आदमी स्वयं
को छोड़ रहा है। विशाल-जनसमूह का नदी में नहाना, स्नान-पर्व हो रहा है। भीड़
समूह बनकर अनुभूति हो रही है। उधर कोई गा रहा है -
चलो रे भैया, चलिहै नरमदा के तीर,
परब को दिन आयो।
गंगा नहाये, जमुना नहाए,
अब देखिहैं मैया तेरो नीर,
परब को दिन आयो।
धरम-करम को तीर्थ-जल में फूलों की तरह छोड़कर एक डुबकी व्यक्ति अपनी भौतिक
इच्छाओं की भी लगाता है। रोगी चाहता है - जल से बाहर निकलते ही देह कंचन हो
जाए। गरीब-गुरबा दूर-दूर से चले आते हैं। इस जनम में नहीं तो अगले जनम में
कम-से-कम भर पेट भोजन और सिर पर छप्पर की जुगत हो जाए। कोई सोचता है बस यहाँ
से जाते ही कोरट-कचहरी के लफड़े निपट जाए। छात्र सोचता है - कुछ अच्छे नंबर
पाने की हिकमत हाथ आ जाए। कई मिन्नत करते हैं 'हे नदी मैया, तेरा पानी बादलों
के द्वारा इस बरस खेतों में दहपेल बरसे'। घाट पर दूर अकेले में जो डोकरी बैठी
बहते जल को टकटकी बाँधकर देख रही है, बेटे-बहू ने घर से निकाल दिया है। जीवन
से किचवा मरी है। चाहती है बस यहाँ से वापस नहीं जाना पड़े। नदी में स्नान,
निर्वाण हो जाए। वह अधेड़-सा आदमी जाँघिया पहने घाट पर जंगल में रीछ की तरह घूम
रहा है - अपने कैमरे में इस समय और उसके दृश्यों को बंद कर सबकुछ अपने घर ले
जाकर एलबम में खोंस देना चाहता है। ये कार, हवाई जहाज, स्कूटर वाले लोग यहाँ
पिकनिक-विकनिक सरीखा ही कुछ अनुभव कर रहे हैं। भीतर से नदी स्नान में बारीक-सा
कुछ नैतिक चिलक रहा है। बाहर-बाहर व्यवहार आधुनिक होने का है। एक आदमी आँखों
में भारतवर्ष को देखता है। उसमें लोगों, भीड़नुमा लोगों, समूहनुमा लोगों,
एकीकृत लोगों, भावों के वृत्त में खड़े स्वाभाविक लोगों और कुल मिलाकर एक पर्व
बनते देखता है। वह इन सबमें मिल जाना चाहता है। वह जल की बूँद-बूँद में
व्यक्ति की अस्मिता परखता है। वह नदी किनारे के जल-प्रवाह में देश की मौलिक
ऊर्जा को महसूसता है।
महापुरुषों की लीलाभूमि और ऋषियों की तपोभूमि कालांतर में तीर्थ रूप में
विकसित हुई। उन दिनों ऋषि अपने शिष्यों तथा गायों के साथ घूमते रहते थे।
नदियों के किनारे उन्हें अच्छे लगते थे। वहाँ रुकने में सुविधा थी। हरी-हरी
धरती का खुला-खुला भाग उन्हें पड़ाव डालने के लिए रोकता था। ऐसी जगहों पर वे
ठहर जाते थे। आसपास के लोग आकर उनसे मिलते थे। ऋषि की वाणी का सम्मान होता था।
जीवन के अबूझ प्रसंगों की पर्तें खुलती थी। छात्रों का अध्ययन और लोकशिक्षण एक
साथ संपन्न होता था। आज जो छोटे-बड़े तीर्थ हैं, वे कभी ऋषियों के आश्रम और
शिक्षा के केंद्र रहे हैं। ज्ञान और तपस्या से प्राप्त प्राण-ऊर्जा से ऋषि,
क्षेत्र विशेष को फूल की पवित्रता और जल की शीतलता देते थे। इनके संपर्क से
व्यक्ति को अपने जीवन में नई ताकत और नया आलोक मिलता था। अगस्त्य ने वेदपुरी,
नर-नारायण ने बद्रीनाथ, अत्रि-अनसूया ने चित्रकूट, विश्वामित्र ने सिद्धाश्रम,
दत्तात्रेय ने गिरनार, ब्रह्मा ने पुष्कर और शिव ने कैलाश एवं गुरु
गोविंदपादाचार्य ने ओंकारेश्वर को लोक-शिक्षण के महती उद्देश्य से भव्यता
प्रदान की। राम-कृष्ण और अन्य अवतारों की लीलाभूमियों में युगांतर में आस्थाओं
से तीर्थों की स्थापना हुई। ये तीर्थ ईश्वर के भावना-शरीर माने गए।
हजारों वर्षों से खास बने हुए, इन स्थलों के दर्शन पर ध्यान दें तो, पाएँगे कि
आत्मिक शांति पाने और उद्विग्नता का शमन करने में ये तीर्थ बहुत प्रभावशील
होते थे। समय-समय पर व्यक्ति वहाँ पहुँचकर साफ-सुथरे वातावरण में वास करता था।
विशेष पर्वों पर सुविधानुसार लोग इकट्ठे होकर ऋषि-मुनियों के सान्निध्य का लाभ
लेते थे। उनके विचार-विमर्श और मेघा-मंथन से उपजे निष्कर्षों से जीवन की
गुत्थियाँ सुलझाते थे। माघ महीने में त्रिवेणी तट पर एक मास रहकर
मकर-संक्रांति स्नान करते थे। इसे कल्पवास कहा गया है - 'एक मास भरि मकर
नहाए।' एक मास सिंहस्थ में उज्जैन रहते थे। जीवन की झंझटों की समीक्षा उनसे
दूर रहकर तीर्थवास के दौरान की जाती थी। अपने लोगों के मोह से दूर रहकर स्वयं
को राग-द्वेष पर तौलते थे। दूसरे के गुणों को देखकर ग्रहण करने का मौका मिलता
था। साधनों के अभाव में पैदल यात्रा और चलते-चलते तीरथ कर आने के पीछे
लोक-जीवन की शिक्षा, भावात्मक एकता, सांस्कृतिक चेतना का फैलाव तथा मानव-धैर्य
को संवर्धित करने वाली आस्थाओं को सींचने का विचार प्रमुख रूप से रहा है।
इस उद्देश्य से बद्रीनाथ, द्वारिकापुरी, रामेश्वरम् और जगन्नाथपुरी चार धामों
की स्थापना हुई। काशी, कांची, मायापुरी, द्वारावती, अयोध्या, मथुरा और अवंतिका
सात पुरियों की पवित्रता सिद्ध हुई। वाराणसी, गुप्तकाशी, उत्तरकाशी,
दक्षिणकाशी और शिवकाशी पाँच काशियाँ कहलाई। गंगा, जमुना, सरस्वती, नर्मदा,
गोदावरी, कावेरी और सिंधु सप्त नदियों से जलौधमग्ना भूमि को स्पष्ट देखा गया।
हरीहर क्षेत्र, प्रभास क्षेत्र, रेणुका क्षेत्र, भृगुक्षेत्र, पुरुषोत्तम
क्षेत्र तथा सूकर क्षेत्र, सात क्षेत्र भारतवर्ष की ऐतिहासिक पहचान बने। बिंदु
सरोवर, नारायण सरोवर, पंपा सरोवर, पुष्कर सरोवर और मानस सरोवर के माध्यम से इस
देश में व्यापक तीर्थ स्थापित हुए। नदियों की परिक्रमा, चौरासी कोस की
ब्रज-यात्रा और स्थान-स्थान की पंचकोशी यात्राएँ तीर्थ उपादान के रूप में
विकसित हुईं। इन सभी को स्नान-पर्व से जोड़ा गया। स्नान, आत्मा और शरीर दोनों
का अंग बन गया। लोग जुटते थे। जुटकर भारत की पहचान बन जाते थे। बिखरा-बिखरा
देश एक जगह छोटे रूप में ठोस बनकर दिखता था। ऐसे ही अवसरों पर ऋषि-मुनियों का
मिलन-सम्मेलन होता था। अपने समय के अनुसार शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य,
विज्ञान और न्याय पर चर्चाएँ होती थी। समाधान ढूँढ़े जाते थे। ज्ञान की नई
खोजें होती थीं। कुंभ पर्वों से धार्मिक सम्मेलनों और भारतवर्ष के एक बड़े
भ्रमणचक्र के पूरा होने की अवधारणा जुड़ी है। हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन, नासिक
में प्रति तीन वर्ष में (प्रत्येक में बारह वर्ष में) लगने वाले कुंभ व्यक्ति
के जीवन में अमृत की तलाश की राह खोलते हैं। सबके केंद्र में मनुष्य ही रहा
है। साधारण समस्याओं से लेकर गूढ़ रहस्यों की गाँठ खोलने का प्रयास और उज्ज्वल
भविष्य का निर्माण ही इनका उद्देश्य है। एक जमाना रहा होगा, जब इन पर्वों के
बाद, तीर्थों से व्यक्ति विश्रांति के बाद नई क्षमता, नई दृष्टि, नई समझ और नई
आग के साथ अपने कर्म में लौटता होगा।
आर्थिक विकास और समझ की दादागिरी में जीवन में भौतिकता को जरूरत से ज्यादा
महत्व दिया। पूरे सांस्कृतिक सोच को पुराना और पुराणपंथी करार देते हुए एक
नासमझ समझ को आधुनिकता मान लिया। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि जो लोग भारतीय
संस्कृति चेतना की गहराई में डुबकी लगाने की क्षमता नहीं रखते थे, इनके लिए
आलोचना का मार्ग सुगम था। आलोचना कर उसके बाजू से निकल जाना और अपनी अक्षमता
को आधुनिकता के लेबल में सही ठहराना एक फैशन बन गया। ज्ञान-बोध और अपनी
मौलिकता के प्रति अधकचरी पीढ़ी ने यह काम हल्ला बोल की तर्ज पर किया। समाज में
क्रांतिकारी परिवर्तन की डींग भरने वालों ने बदलाव के उन सूत्रों की ओर कभी
नहीं निहारा, जो इस देश की मिट्टी-पानी के अनुरूप बदलते संदर्भों में समाज की
नई संरचना करते। विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के साथ ही अपने देश का जो
होच-पोच स्वरूप था, वह अभी भी है। हम अभी तक कोई एक सांस्कृतिक स्वरूप और जीवन
का आदर्श रूप तय नहीं कर पाए। सब अच्छा है, की दुर्घटना में किसी एक को अपना
आदर्श नहीं बना पाए। जबकि सच्चाई यह है कि देश, काल, वातावरण से परे होकर भी
सच, सच ही होगा। आदर्श दो नहीं हो सकते। सत्य दो नहीं हो सकते। इनमें से राह
खोजते और राह पकड़ते हुए लक्ष्य तो एक ही निर्धारित करना होगा। इन तीर्थों में
बैठकर भारतीय मनीषा ने देश का लक्ष्य स्पष्ट किया था। जीवन का चरम खोजा था।
लोग बिना आमंत्रण आ रहे हैं। ऊपर-ऊपर ही सही तीर्थ को आज की खिड़की से इतिहास
में देख रहे हैं। पूरे आधुनिक होने के बाद कहीं भीतर कुछ अच्छा करने के नैतिक
दबाव में नदी के पानी में अपने को क्षण-दो-क्षण के लिए ही सही पूरे मन से छोड़
रहे हैं। बस इस अपार भीड़ के अनुशासित आचरण और नदी के प्रवाह में स्वयं को बूँद
बनाकर प्रवाहित करने के भाव ने ही आदमी के भीतर भारतीयता और भारतीयता के भीतर
मानव कल्याण को जिंदा रखा है। साबुत रखा है।