अमृतसर से एक विशेष मोटर लाहौर को रवाना होती है। इस विशेष मोटर में भारत के
प्रधानमंत्री मित्रता का गंगाजल लेकर जाते हैं। पिछले पचास वर्षों के बैर के
मैल को धोने की क्षीण आशा किंतु अपार सदइच्छाएँ उस मोटर में सवार होती हैं। 20
फरवरी, 99 की ढलती साँझ में बरसों पूर्व सोई मिताई जागती है। मोटर के पीछे
उड़ती धूल गुलाल-सी लगने लगती है। तब वृक्ष भी अपने पत्तों की झंडियाँ लेकर
दोनों देशों के पवित्र मनों के स्वागत में सीमा पर और सड़कों के किनारे खड़े हो
जाते हैं। शिमला समझौता नई सुबह की गरम चाय लाहौर में पीने के लिए अपने चेहरे
की उबासी और धूल-छार झाड़ने लगता है।
यदि मन में कुछ, वचन में कुछ तथा कर्म कुछ और हों तो दोस्ती के लिए बढ़ाए गए
हाथ झूठे साबित होंगे। राजनीति, कूटनीति की चट्टान से फिसलकर कुनीति के कीच
में लथपथ हो जाएगी। जो हाथ दोस्ती के लिए बड़े हैं, वे अचानक तोप-तमंचे और
मिसाइलें दागने लगेंगे। हाथों का शिवत्व खत्म हो जाएगा। जो हाथ सर्जन के लिए
बढ़े हैं, वे शव की चाहना करने लगेंगे। जो शायरी प्रधानमंत्री की मोटर यात्रा
के समय परचम फहराती रही; वह दो-दो धार रोने लगेगी। जो कविता दर्शन की भाषा में
बात करते हुए देह सहित खगोल-भूगोल का भेद मिटाकर विशुद्ध चेतना को गाती है, वह
मनुज की करतूत पर थू-थू करने लगेगी। मनुष्य अपनी औकात में है तो कीड़े-मकोड़े
बराबर, पर उसने अपनी चालाक महत्वकांक्षा से जमाने की बर्बादी का सरो-सामान
जुटा रखा है।
मड़कुटे देश की उग्रता तब हास्यापद हो जाती है, जब वह अपने घरों-महलों को बेचकर
हथियारों की होड़ा-होड़ी में प्राणों को झोंकता है। नकटे की नाक कटती है, तो
दुनिया तमाशा देखती है और नकटा बवाल मचाता हुआ गली-गली घूमता रहता है। वह
संवेदना भी बटोर नहीं पाता। संवेदना उसे मिलती भी है तो स्वार्थ में लिपटी
हुई। ये संवेदनाएँ भाड़े के टट्टुओं पर लदी हुई होती हैं। पर कमजोर घोड़ों से
कभी युद्ध नहीं जीते जा सकते। कोल्हू का बैल बैलगाड़ी की दौड़ में ज्यादा देर
ताती नहीं कर सकता।
फिर भी भारत का पड़ोसी भाई-तीन बार पटकनी खाकर पुनः-पुनः युद्ध की भाषा दोहराता
है। यह धरती किसी के बाप की नहीं है। न जाने किस घड़ी में आदमी का जन्म हुआ और
उसने अपनी विकसनशीलता को हवस का रूप दे दिया। वह धरती का बँटवारा कर बैठा। वह
आकाश में सीमा रेखा खींच बैठा। माना कि यह उसके घर और देश की चौहद्दी की
दृष्टि से युग के अनुसार जरूरी हो गया था, पर वह अपने सींगों से पड़ोसी के घर
की दीवाल के खेटे खाता है। उसके आँगन के पेड़ की पत्तियों को नोचता है। पड़ौस के
बड़े-बड़ाते उसे बरजते हैं, तो सीमा के कंटीले तारों के ऊपर से तो वह मित्रता का
हाथ बढ़ाता है और नीचे पाँवों से मिट्टी कुरेदकर अपनी चौगान में रूके गंदे पानी
को पड़ोसी के आँगन में चुपचाप घुसा देता है। यह उसका अंतरराष्ट्रीय स्तर का
शरीफाना अंदाज है या मनुष्य की विकासयात्रा में हासिल किए हुए बजरबट्टू। कुछ
चमकीले-नुकीले पत्थर। कुछ बढ़े हुए नाखून। माचिस की काड़ी। गाली में तब्दील होती
भाषा।
भारत की विदेश नीति हमेशा शांति की रही है। उसकी नीयत में कहीं खोट नहीं है।
उसने कभी किसी का छीना नहीं। कभी किसी का माल दबाया नहीं। वह शांति के गीत
गाता रहा। उसकी संस्कृति में समन्वय तथा नए उपकरणों को पचाकर आत्मसात करने की
अद्भुत क्षमता है। भारत उस सिद्धांत से परिचालित है, जिसमें विश्व के समस्त
राष्ट्रों और पंथों को परस्पर मिल-जुलकर रहने की स्वतंत्रता है। इसने जब भी
गाया है, जीवन का राग ही गाया है। अमरता को ही सराहा है। इसने ऐसे रास्तों को
अपनाया ही नहीं, जो बंद गली के छोर बन जाते हों। सुग्रीव को बाली से मुक्त
कराकर पंपापुर का राज्य सुग्रीव को ही सौंपा है। लंका विजय के बाद विभीषण को
सारा-सब दे दिया। इसने कलिंग की युद्ध भूमि में तलवार त्यागी हैं, लेकिन हारकर
नहीं, जीतकर। ताशकंद समझौते में जीती हुई जमीन लौटाई है। बांग्लादेश को
स्वतंत्र होने में मदद की और उससे एक कौड़ी की चाहना न रखते हुए, उसे स्वतंत्र
राष्ट्र बना दिया। शौर्य, धैर्य और शील के पहियों वाली मोटर पर सवार होकर इसी
भारत ने शांति और सौहार्द्र के गीत लिखना चाहे हैं। इसके पास वीरता और विजय से
भरी बहुत गाथाएँ हैं। भारत के अमर शहीदों और वीर सपूतों को सौ-सौ नमन।
आज कारगिल और लद्दाख क्षेत्रों में भारत के पड़ोसी ने शांति भंग की है। 8-10
मई, 99 से उसने पड़ोसी धर्म की धज्जियाँ उड़ाई हैं। उसके इरादे ठीक नहीं हैं।
दोस्ती का हाथ बढ़ाकर हजारों घुसपैठियों को शैतानियत के लिए इन क्षेत्रों में
भेज देना, यह भारत सहित विश्व शांति को भंग करने की नापाक हरकत है। यह दोगलापन
है। यह शिमला समझौते और लाहौर समझौते का सीधा-सीधा उल्लंघन है। सबसे बड़ी बात,
यह उस देश की अमानवीय और क्रूर हरकत है, क्योंकि इससे दोनों देशों की शिराओं
और धमनियों में तनाव पैदा होता है, जो उनकी जीवनी शक्ति को बनाए रखती हैं। यह
एक तरह से भारत के द्वार पर आकर उसे बाहर निकलने की ललकार है। भारत युद्ध नहीं
चाहता। उसने कभी युद्ध नहीं चाहा। परंतु आज कारगिल की वादियाँ रौंदी जा रही
हैं। लद्दाख के दरों का आकाश धुआँ-धुआँ है। ऐसी गृह-स्थिति और बदलते
अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में भारत को अपना रुख तो तय करना होगा। यह देश मित्र
के ललाट पर तिलक लगाना जानता है, तो दुश्मन दावागीर का मस्तक झारना भी जानता
है। इसने योग्य जन के पाँव पूजे हैं। बदतमीज का सिर नहीं पूजा।
रामचरितमानस का एक प्रसंग याद आ रहा है। रावण घुसपैठिए की तरह सूनी पर्णकुटी
में से सीता को चुरा ले जाता है। बिलखती सीता की आवाज सुनकर जटायु युद्ध के
लिए सन्नद्ध हो जाता है। रावण से जटायु आकाश में भयंकर युद्ध करता है। अंत में
रावण खिसियाकर जटायु के पंख काट डालता है। राम-सीता को खोजते-खोजते वहाँ
पहुँचते हैं, जहाँ जटायु अपने जीवन की अंतिम साँसें ले रहा है। जटायु पूरा
वृतांत सुनाता है। अंतिम बेला है। जटायु के प्राण उड़ना चाहते हैं। तब राम,
रावण की दुष्प्रवृत्ति पर और सीता की दशा विचारकर भीतर से शौर्य-स्वरूप हो
जाते हैं। वे जटायु से कहते हैं कि आप स्वर्ग को जा रहे हो, जहाँ पिता दशरथ भी
गए हुए हैं। हे तात! सीता हरण की खबर आप पिता से मत कहना। यदि मैं राम हूँ, तो
कुछ दिनों बाद रावण स्वयं सपरिवार जाकर पूरी घटना पिता को सुनाएगा। अपने
बाहुबल पर इतना दृढ़ विश्वास सत्यनिष्ठा और सबका हित चाहने वाले पुरुषोत्तम के
पास ही हो सकता है।
सीता हरन तात जनि, कहहु पिता सन जाइ।
जो मैं राम त कुल सहित, कहिहि दसानन आइ।
अद्भुत बात है। यह प्रसंग वर्तमान में भी कई संदर्भ रूपायित करता है। कारगिल
में घुसपैठियों के प्रवेश के पीछे पाकिस्तान की टुच्चई और पाक सेना का उन्हें
समर्थन उजागर हो गया है। बाँबी में घुसा साँप बाहर आ गया है। उसका कुचला जाना
तय है। घुसपैठियों को भागने के लिए राह नहीं मिलेगी। वे गलत इरादों से आए हैं।
वे हिमशिखरों में गल-गलकर मिट्टी हो जाएँगे और भारत का ईश्वर-खुदा कहीं है; तो
स्वयं ऊपर जाकर अपनी करतूतों की कहानी स्वीकार कर बखान करेंगे। यह इसलिए कि
भारत के पास आत्मिक चेतना की प्रबल शक्ति है, इसके साथ ही देश की सुरक्षा के
बाहरी उपकरण तो उसने अपनी प्रज्ञा से हासिल किए ही हैं। 1974 और 1998 के पोखरण
परमाणु परीक्षण इसके साक्ष्य हैं। आत्मरक्षा करने एवं अन्याय से लड़ने के लिए
भीतरी और बाहरी दोनों शक्तियाँ परमावश्यक है। राम के पास भीतरी शक्ति सत्य और
परहित की है, तो बाहरी शक्ति के रूप में वे अनेक ऋषियों के आश्रमों की
प्रयोगशालाओं से विविध आयुध भी प्राप्त करते हैं। वानर-भालुओं की सेना भी
बनाते हैं। यह देश अपनी परंपरा में जीता हुआ नए-नए रूप में समृद्ध होता रहता
है।
एक बच्चा वह होता है, जो अपने पास की चीजों से संतुष्ट होता है; उनमें से भी
कुछ चीजें अपने पास में बैठे बच्चे को दे देता है। उसे भी खिलाता है तथा खुद
भी खाता है। और खुश होता रहता है। बेपरवाह खेलता रहता है। दूसरा बच्चा वह होता
है, जो अपने पास की चीजों को तो अवेड़े रहता है, साथ ही दूसरे बच्चे के पास की
चीजों पर झपट्टा मारता रहता है। हथियाना चाहता है। चीजें न मिलने पर वह अपने
पास की चीजें भी ठीक से नहीं खा पाता और दूसरे के पास की लेने के लिए रीं-रीं
करके रोया करता है। जब वह समझाने से भी नहीं समझता, नहीं मानता, तो बाप एक
थप्पड़ लगाता है। अक्ल दुरुस्त हो जाती है। होश ठिकाने लग जाते हैं। बच्चे में
यह आदत एक दिन में नहीं आ जाती। कहीं पारिवारिक संस्कार गहरे में काम करते
हैं। राष्ट्रों और जातियों की परंपरा और संस्कार सदियों की देन हुआ करते हैं।
भारत की पाँच हजार साल की जीवन परंपरा में उसने यही पाया कि पृथ्वी या
ब्रह्मांड में जीव सृष्टि की ऊर्ध्वमुखी संभावना सहअस्तित्व और सामंजस्य में
ही है। उसे 'बाँटकर खाना' और 'मिलकर रहना' घूँटी में पिलाया जाता है। गलत को
ठिकाने लगाने के लिए उसे शस्त्र विद्या भी सिखाई जाती है। शास्त्र और शस्त्र
दोनों मिलकर ही उसे आत्मरक्षा और मानवोचित पूर्णता देते हैं। भारत की यही रीति
है। यही नीति है। अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल याद आते हैं -
सरफरोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना, बाजू-ए-कातिल में है।
कोई भी राष्ट्र हारना नहीं चाहता। कोई कौम खत्म होना नहीं चाहती। जिंदगी अनमोल
है। प्रकृति में अनेक जीवों में अस्तित्व की लड़ाई से मनुष्य ने सीखा कि लड़ाई
नहीं करना चाहिए। यह उसने ज्ञान के माध्यम से अनुभव के आधार पर सभ्यता तथा
संस्कृति के सोपान चढ़ते हुए सीखा। उसे यह निष्कर्ष दिलाने में बुद्धि से
ज्यादा हृदय की भूमिका रही। अधूरी बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य और विश्व का न भला
हुआ है और न होगा। भावों ने ही उसे सहअस्तित्व की बान दी है। मनुष्य या कोई भी
राष्ट्र जब-जब भी इसके खिलाफ जाता है, तब-तब कारगिल जैसी स्थिति पैदा होती है।
यह मनुष्यों और राष्ट्रों की विकास की दिशा की ओर भी खड़ा सवाल है, कि फिर
सभ्यता की चढ़ाइयाँ क्यों चढ़ी? बर्बरता ही वरेण्य है तो यह सब महल-चौबारे क्यों
बनाए गए? मनुष्य अपनी नादानी में बहुत दिनों तक नहीं जी सकता। किसी की युद्धक
हरकतों से कोई राष्ट्र खत्म भी नहीं होता। जापान, दक्षिण-उत्तर कोरिया और
इसराइल तो हमारे सामने इसी सदी के प्रमाण हैं। इसलिए हम उम्मीद करें कि हमारा
दोस्त शांति विरोधी और आत्मघाती हरकतें करने से बाज आएगा। कारगिल, लद्दाख सहित
संपूर्ण नियंत्रण रेखा पर कटीले तारों के आर-पार वनफूलों की असमाप्त फसल
लहलहाएगी। उन वादियों में जल्दी ही वनपाखी वायुयानों से भी ऊँची उड़ान बेखौफ
होकर भरेगा। मनुष्य, पक्षी और पेड़ का बचा रहना, इस पृथ्वी की ममता के लिए बहुत
जरूरी है।