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रचनावली

हरिऔध् ग्रंथावली
खंड : 6
भाषा की परिभाषा

अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

संपादन - तरुण कुमार

अनुक्रम

अनुक्रम प्रथम खंड     आगे

 

प्रथम प्रकरण

भाषा की परिभाषा

भाषा का विषय जितना सरस और मनोरम है, उतना ही गंभीर और कौतूहलजनक। भाषा मनुष्यकृत है अथवा ईश्वरदत्ता उसका आविर्भाव किसी काल विशेष में हुआ, अथवा वह अनादि है। वह क्रमश: विकसित होकर नाना रूपों में परिणत हुई, अथवा आदि काल से ही अपने मुख्य रूप में वर्तमान है। इन प्रश्नों का उत्तार अनेक प्रकार से दिया जाता है। कोई भाषा को ईश्वरदत्ता कहता है, कोई उसे मनुष्यकृत बतलाता है। कोई उसे क्रमश: विकास का परिणाम मानता है, और कोई उसके विषय में 'यथा पूर्वमकल्पयत्' का राग अलापता है। मैं इसकी मीमांसा करूँगा। मनुस्मृतिकार लिखते हैं-

सर्वेषां तु सनामानि कर्माणि च पृथक् पृथक्।

वेद शब्देभ्य एवादौ पृथक् संस्थांश्च निर्ममे। 1 21

तपो वाचं रतिं चैव कामं च क्रोधामेव च

सृष्टिं ससर्ज चैवेमां ò ष्टुमिच्छन्निमा प्रजा:। 1 25

ब्रह्मा ने भिन्न-भिन्न कर्मों और व्यवस्थाओं के साथ सारे नामों का निर्माण सृष्टि के आदि में वेदशब्दों के आधाार से किया। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से परमात्मा ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोधा को उत्पन्न किया।

पवित्रा वेदों में भी इस प्रकार के वाक्य पाये जाते हैं-यथा

'' यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: ''

'मैंने कल्याणकारीवाणी मनुष्यों को दी'

अधयापक मैक्समूलर इस विषय में क्या कहते हैं, उसको भी सुनिए-

''भिन्न-भिन्न भाषा-परिवारों में जो 400 या 500 धाातु उनके मूलतत्तव रूप से शेष रह जाते हैं, वे न तो मनोराग-व्यंजक धवनियाँ हैं, और न केवल अनुकरणात्मक शब्द ही। हम उनको-वर्णात्मक शब्दों का साँचा कह सकते हैं। एक मानसविज्ञानी या तत्तवविज्ञानी उनकी किसी प्रकार की व्याख्या करे-भाषा के विद्यार्थी के लिए तो ये धाातु अन्तिम तत्तव ही हैं। प्लेटो के साथ हम इतना और जोड़ देेंगे कि 'स्वभाव से' कहने से हमारा आशय है 'ईश्वर की शक्ति से।''1

प्रोफेसर पाट कहते हैं-

''भाषा के वास्तविक स्वरूप में कभी किसी ने परिवर्तन नहीं किया, केवल बाह्य स्वरूप में कुछ परिवर्तन होते रहे हैं, पर किसी भी पिछली जाति ने एक धाातु भी नया नहीं बनाया। हम एक प्रकार से वही शब्द बोल रहे हैं, जो सर्गारम्भ में मनुष्य के मुँह से निकले थे।''2 जैक्सन-डेविस कहते हैं-भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधन है, स्वाभाविक और आदिम है। ''भाषा के मुख्य उद्देश्य में उन्नति होना कभी संभव नहीं क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी परिवर्तन नहीं हो सकता। वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं''। 3

इस सिध्दान्त के विरुध्द जो कहा गया है, उसे भी सुनिए-

डार्विन और उसके सहयोगी, 'हक्सले' 'विजविड' और 'कोनिनफार' यह कहते हैं-''भाषा ईश्वर का दिया हुआ उपहार नहीं है,भाषा शनै:-शनै: धवन्यात्मक शब्दों और पशुओं की बोली से उन्नति करके इस दशा को पहुँची है।''

'लाक', 'एडम्स्मिथ' और 'डयूगल्ड स्टुअर्ट' आदि की यह सम्मति है-

''मनुष्य बहुत काल तक गूँगा रहा, संकेत और भ्रू-प्रक्षेप से काम चलाता रहा, जब काम न चला तो भाषा बना ली और परस्पर संवाद करके शब्दों के अर्थ नियत कर लिये।''4

तुलनात्मक भाषा-शास्त्रा के रचयिता अपने ग्रन्थ के पृष्ठ 199 और 200 में इस विषय में अपना यह विचार प्रकट करते हैं-

''पहिला सिध्दान्त यह है कि पदार्थों और क्रियाओं के नाम पहले जड़-चेतनात्मक बाह्य जगत की धवनियों के अनुकरण के आधाार पर रखे गये। पशुओं के नाम उनकी विशेष आवाजों के ऊपर रखे गये होंगे। कोकिल या काक शब्द स्पष्ट ही इन पक्षियों की बोलियों के अनुकरण से बनाये गये हैं। इसी प्रकार प्राकृतिक या जड़ जगत् की भिन्न-भिन्न धवनियों के अनुसार जैसे वायु का सरसर बहना, पत्तिायों का मर्मर रव करना, पानी का झरझर गिरना या बहना, भारी ठोस पदार्थों का तड़कना या फटना

1. देखो, मैक्समूलर-के 'लेक्चर्स आन दि साइन्स आफ लांगवेज़', पृष्ठ 439।

2. देखो अक्षर विज्ञान, पृष्ठ 33-34

3. वही।

4. देखो, हारमोनिया, भाग-5, पृष्ठ 73

इत्यादि के अनुकरण से भी अनेक नाम रखे गये। इस प्रकार अनुकरण के आधाार पर मूल शब्दों का पर्याप्त कोश बन गया होगा। इन्हीं बीज रूप मूल शब्दों से धीरे-धीरे भाषा का विकास हुआ है। इस सिध्दान्त को हम शब्दानुकरण-मूलकता-वाद नाम दे सकते हैं।

दूसरे सिध्दान्त इस प्रकार हैं। हर्ष, शोक, आश्चर्य आदि के भावों के आवेग में कुछ स्वाभाविक धवनियाँ हमारे मुँह से निकल पड़ती हैं, जैसे हाहा, हाय हाय! वाह वाह, इत्यादि। इस प्रकार की स्वाभाविक धवनियाँ मनुष्यों में ही नहीं और प्राणियों में भी विशेष-विशेष रूप की पाई जाती हैं। प्रारम्भ में ये धवनियाँ बहुत हमारे मनोरोगों की ही व्यंजक रही होंगी, विचाराें की नहीं। भाषा का मुख्य उद्देश्य हमारे विचारों को प्रकट करना होने से इन धवनियों ने भाषा के बनाने में जो भाग लिया, उसके लिए यह आवश्यक था कि ये धवनियाँ मनोरोगों के स्थान में विचारों की द्योतक समझी जाने लगी हों। इन्हीं धवनियों के दोहराने, कुछ देर तक बोलने और स्वर के उतार- चढ़ाव द्वारा इनके अर्थ या अभिधोय का क्षेत्रा विस्तीर्ण होता गया होगा। धीरे-धीरे वर्णात्मक स्वरूप को धाारण करके यही धवनियाँ मानवी भाषा के रूप में प्राप्त हो गई होंगी। इस प्रकार हमारी भाषा की नींव आदि में इन्हीं स्वाभाविक धवनियों पर रखी गई होंगी। इस सिध्दान्त का नाम हम मनोरोग-व्यंजक शब्द-मूलकता-वाद रख सकते हैं।''

उभय पक्ष ने अपने-अपने सिध्दान्त के प्रतिपादन में ग्रन्थ के ग्रन्थ लिख डाले हैं और बड़ा गहन विवेचन इस विषय पर किया है। परन्तु आजकल अधिाकांश सम्मति यही स्वीकार करती है कि भाषा मनुष्यकृत और क्रमश: विकास का परिणाम है। श्रीयुत बाबू नलिनीमोहन सान्याल एम. ए. अपने भाषा-विज्ञान की प्रवेशिका में यह लिखते हैं-

''मैक्समूलर ने कहा है कि हम अभी तक यह नहीं जानते कि भाषा क्या है-यह ईश्वरदत्ता है, या मनुष्यनिर्मित या स्वभावज। परन्तु उन्होंने पीछे से इसको स्वभावज माना है और बाद के दूसरे विद्वानों ने भी इसको स्वभावज प्रमाणित किया है।''

भाषा चाहे स्वभावज हो अथवा मनुष्यकृत, ईश्वर को उसका आदि कारण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि स्वभाव उसका विकास है और मनुष्य स्वयं उसकी कृति है। मनुष्य जिन साधानों के आधाार से संसार के कार्यकलाप करने में समर्थ होता है, वे सब ईश्वरदत्ता हैं, चाहे उनका सम्बन्धा बाह्य जगत् से हो अथवा अन्तर्जगत् से। जहाँ पंचभूत और समस्त दृश्यमान जगत् में उसकी सत्ताा का विकास दृष्टिगत होता है, वहाँ मन, बुध्दि, चित्ता, अहंकार, ज्ञान, विवेक, विचार आदि अन्त:प्रवृत्तिायों में भी उसकी शक्ति कार्य करती पाई जाती है। ईश्वर न तो कोई पदार्थविशेष है, न व्यक्तिविशेष, वरन् जिस सत्ताा के आधाार से समस्त संसार, किसी महान् यंत्रा के समान परिचालित होता रहता है, उसी का नाम है ईश्वर। संसार स्वयं विकसित अवस्था में है,किसी बीज ही से इसका विकास हुआ है। इसी प्रकार मनुष्य भी किसी विकास का ही परिणाम है किन्तु उसका विकास संसार-विकास के अन्तर्गत है। कहने वाले कह सकते हैं कि मनुष्य लाखों वर्ष के विकास का फल है, अतएव वह ईश्वरकृत नहीं। किन्तु यह कथन ऐसा ही होगा, जैसा बहुवर्ष-व्यापी विकास के परिणाम किसी पीपल के प्रकाण्ड वृक्ष को देखकर कोई यह कहे कि इसका सम्बन्धा किसी अनन्तकाल व्यापी बीज से नहीं हो सकता। भाषा चिरकालिक विकास का फल हो और उसके इस विकास का हेतु मानव-समाज ही हो किन्तु जिन योग्यताओं और शक्तियों के आधाार से वह भाषा को विकसित करने में समर्थ हुआ,वे ईश्वरदत्ता हैं, अतएव भाषा भी ईश्वरकृत है, वैसे ही जैसे संसार के अन्य बहुविकसित पदार्थ। भगवान् मनु के उपर्युक्त श्लोकों का यही मर्म्म है। प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से जिस प्रकार परमात्मा ने तप, रति, काम और क्रोधा को उत्पन्न किया,उसी प्रकार वाणी को भी, यही उनका कथन है। जैसे कोई तप और काम को आदि से मनुष्य-कृत नहीं मानता, उसी प्रकार वाणी को भी मनुष्य-कृत नहीं कह सकता। मनुष्य की वाणी ही भाषा की जड़ है, वाणी ही वह चीज है, जिससे भाषा पल्लवित होकर प्रकाण्ड वृक्ष के रूप में परिणत हुई है, फिर वह ईश्वरकृत क्यों नहीं?

'यथेमां वाचं कल्याणी मा वदानि जनेभ्य:', इस श्रुति में भी 'वाचं' शब्द है, भाषा शब्द नहीं। प्रथम श्लोक के वेद शब्देभ्य,वाक्य में भी शब्द का ही प्रयोग है, उस शब्द का जो आकाश का गुण है और आकाश के समान ही व्यापक और अनन्त है। वाणी मनुष्य-समाज तक परिमित है किन्तु शब्द का सम्बन्धा प्राणिमात्रा से है, स्थावर और जड़ पदार्थों में भी उसकी सत्ताा मिलती है। यही शब्द भाषा का जनक है, ऐसी अवस्था में यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि भाषा ईश्वरीय कला की ही कला है। कोलरिक कहता है-

''भाषा मनुष्य का एक आत्मिक साधान है, इसकी पुष्टि महाशय ट्रीनिच ने इस प्रकार की है-ईश्वर ने मनुष्य को वाणी उसी प्रकार दी है, जिस प्रकार बुध्दि दी है, क्योंकि मनुष्य का विचार ही शब्द है, जो बाहर प्रकाशित होता है।''1

मैंने मनु भगवान के विचारों को स्पष्ट करने और भाषा की सृष्टि पर प्रकाश डालने के लिए अब तक जो कुछ लिखा है;उससे यह न समझना चाहिए कि ईश्वर और मनुष्य की कृति में जो विभेद सीमा है, उसको मैं मानना नहीं चाहता। गजरे को हाथ में लेकर कौन यह न कहेगा कि यह माली का बनाया है, परंतु जिन फूलों से गजरा तैयार हुआ उनको उसने कहाँ पाया,जिस बुध्दि, विचार एवं हस्तकौशल से गजरा बना, उन्हें उसने किससे प्राप्त किया। यदि यह प्रश्न होने पर ईश्वर की ओर दृष्टि जाती है और उसके प्राप्त साधानों और कार्यों में ईश्वरीय विभूति दीख

1. देखो, स्टडी ऑफ वड्र्स, आर. सी. ट्रीनिच, डी. डी.

पड़ती है, तो गजरे को ईश्वर-कृत मानने में आपत्तिा नहीं हो सकती, मेरा कथन इतना ही है। अनेक आविष्कार मनुष्यों के किये हैं, बड़े-बड़े नगर मनुष्यों के बनाये और बसाये हैं। उसने बड़ी-बड़ी नहरें निकालीं; बड़े-बड़े व्योमयान बनाये, रेल-तार आदि का उद्भावन किया, ऊँची-ऊँची मीनारें खड़ी कीं; सहòों प्रकाण्ड प्रकाशस्तम्भ निर्माण किये, इसको कौन अस्वीकार करेगा। मनुष्य विद्याओं का आचार्य है, अनेक कलाओं का उद्भावक है, वरन् यह कहा जा सकता है कि ईश्वरीय सृष्टि के सामने अपनी प्रतिभा द्वारा उसने एक नयी सृष्टि ही खड़ी कर दी है, यह सत्य है, इसको सभी स्वीकार करेगा। परन्तु उसने ऐसी प्रतिभा कहाँ पाई,उपर्युक्त साधान उसको कहाँ मिले, जब यह सवाल छिड़ेगा, तो ईश्वरीय सत्ताा की ओर ही उँगली उठेगी, चाहे उसे प्रकृति कहें या और कुछ। इसी प्रकार यह सत्य है कि संसार की समस्त भाषाएँ क्रमश: विकास का फल हैं, देश-काल और आवश्यकताएँ ही उनके सृजन का आधाार हैं, मनुष्य का सहयोग ही उनका प्रधाान सम्बल है किन्तु सबमें अन्तर्निहित किसी महान शक्ति का हाथ है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। ऐसा कहकर न तो मैंने ईश्वर-दत्ता मनुष्य की बुध्दि और प्रतिभा आदि का तिरस्कार किया और न उनकी महिमा ही कम की। न वादग्रस्त विषय को अधिाक जटिल बना दिया और न सुलझे हुए विषय को और उलझन में डाला। वरन् वास्तविक बात बतला, जहाँ मानव की आन्तरिक प्रवृत्तिायों को ईश्वरीय शक्ति सम्पन्न कहा, और इस प्रकार उन्हें विशेष गौरव प्रदान किया। वहाँ दो परस्पर टकराते और उलझते हुए विषयों के बीच में ऐसी बातें रखीं, जिनसे वर्ध्दमान जटिलता बहुत कुछ कम हो सकती है और उभयपक्ष अधिाकतर सहमत हो सकते हैं। संसार में जितनी भाषाएँ यथासमय विकसित होकर इस समय जीवित और कर्मक्षेत्रा में, उतरकर रात-दिन कार्यरत हैं, उन्हीं में से एक हमारी हिन्दी-भाषा भी है। यह कैसे विकसित हुई, इसमें क्या-क्या परिवर्तन हुए, इसकी वर्तमान अवस्था क्या है? और उन्नति पथ पर वह किस प्रकार दिन-दिन अग्रसर हो रही है, मैं क्रमश: इन बातों का वर्णन करूँगा। आशा है यह वर्णन रोचक होगा।


 

द्वितीय प्रकरण

हिन्दी भाषा का उद्गम

आदि भाषा कौन है? सृष्टि के आदि में एक ही भाषा थी, अथवा कई। इस समय संसार में जितनी भाषाएँ प्रचलित हैं, उनका मूल òोत एक है अथवा भिन्न-भिन्न? आज तक इसकी पूरी मीमांसा नहीं हुई। इस समय जितनी भाषाएँ संसार में प्रचलित हैं,उनमें इण्डो-यूरोपियन एवं सेमिटिक भाषा की ही प्रधाानता है, इन्हीं दोनों भाषाओं का विस्तार अधिाक है और इन्हीं के भेद-उपभेद अधिाक पाये जाते हैं! इनके अतिरिक्त हैमिटिक और चीनी भाषा आदि और भी छ: भाषाएँ ऐसी हैं, जो भिन्न-भिन्न वर्ग की हैं, और जिनमें एक का दूसरे के साथ कोई सम्बन्धा नहीं पाया जाता। अब प्रश्न यह होता है कि इन भाषाओं का आधाार एक है या वे स्वतन्त्रा हैं। क्या मनुष्यों का उत्पत्तिा-स्थान भिन्न-भिन्न है? यदि भिन्न-भिन्न है तो क्या भाषाएँ भी भिन्न-भिन्न रीति से ही भिन्न-भिन्न अवसरों पर आवश्यकतानुसार उत्पन्न हुई हैं? क्या मनुष्य मात्रा एक माँ-बाप की ही सन्तान नहीं हैं, यदि हैं तो भाषा भी उनकी एक ही होनी चाहिए। जैसे देश-काल के अनुसार मनुष्यों में भेद हुआ, वैसे ही काल पाकर भाषा में भी भेद हो सकता है। परन्तु आदि में ही मनुष्यों और भाषाओं की भिन्नता उपपत्तिा-मूलक नहीं ज्ञात होती। संसार के समस्त धार्म-ग्रन्थ एक स्वर से यही कहते हैं कि आदि में एक पुरुष एवं एक स्त्राी से ही संसार का आरम्भ हुआ। यह विचार इतना व्यापक है कि अब तक इसका विरोधा सम्मिलित कण्ठ से बलवती भाषा में बहुमान्य प्रणाली द्वारा नहीं हुआ। इसी कारण अनेक विद्वानों की सम्मति है कि सृष्टि के आदि में मनुष्य जाति की उत्पत्तिा एक ही स्थान पर एक ही माता-पिता से हुई और इसलिए आदि में भाषा भी एक ही थी। मेरा विषय भाषा-सम्बन्धाी है, अतएव मैं देखूँगा कि क्या कुछ विद्वान् ऐसे हैं कि जिनकी यह सम्मति है कि आदि में भाषा एक ही थी और काल पाकर उसमें परिवर्तन हुए हैं।

अक्षर-विज्ञान के रचयिता लिखते हैं-(पृष्ठ 40)

सेमिटिक भाषाओं को आर्यभाषा से पृथक बतलाते हुए भी मैक्समूलर आगे चलकर कहते हैं कि आर्यभाषाओं के धाातु रूप और अर्थ में सेमेटिक अराल-आटक, बण्टो और ओशीनिया की भाषाओं से मिलते हैं। अन्त में कहते हैं कि 'निस्सन्देह हम मनुष्य की मूलभाषा एक ही थी।'

मिस्टर बाप कहते हैं-''किसी समय संस्कृत सम्पूर्ण संसार की बोलचाल की भाषा थी,1 एण्ड्रो जकसन डेविस कहते हैं-''भाषा भी जो एक आन्तरिक और सार्वजनिक साधान है, स्वाभाविक और आदिम है। भाषा के मुख्य उद्देश्य में कभी उन्नति का होना सम्भव नहीं, क्योंकि उद्देश्य सर्वदेशी और पूर्ण होते हैं, उनमें किसी प्रकार का भी परिवर्तन नहीं हो सकता, वे सदैव अखंड और एकरस रहते हैं, (हारमोनिया, भाग-5 पृष्ठ 73-देखो, अक्षर-विज्ञान, पृष्ठ 4) आजकल यह सिध्दान्त आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता और इसके पक्ष-विपक्ष में बहुत बातें कही गई हैं। मैंने यहाँ इसकी चर्चा इसलिए की कि इस प्रकार के कुछ विद्वान् हैं जो आदि में किसी एक ही भाषा का होना स्वीकार करते हैं, यदि यह मान लें तो आगे के लिए हमारा पथ बहुत प्रशस्त हो जाता है, फिर भी मैं इस वादग्रस्त विषय को छोड़ता हूँ। मैं उस इण्डो-योरोपियन भाषा को ही लेता हूँ, जो संसार की सबसे बड़ी और व्यापक भाषा है। संस्कृत ही आदि में समस्त संसार की भाषा थी और वही कालान्तर में बदलकर नाना रूपों में परिणत हुई,यद्यपि इसका प्रतिपादन अनेक विद्वानों ने किया है, हाल में श्रीमान् शेषगिरि शास्त्राी ने एक पृथक पुस्तक लिखकर भली प्रकार सिध्द कर दिया है कि उन द्रविड़ भाषाओं की उत्पत्तिा भी संस्कृत से हुई है, जो अन्य वर्ग की भाषाएँ मानी जाती हैं, तो भी इण्डो-योरोपियन भाषा की चर्चा ही से हम प्रस्तुत विषय पर बहुत कुछ प्रकाश डाल सकते हैं, इसलिए इसी भाषा को लेकर आगे बढ़ते हैं। कहा जाता है द्राविड़ भाषाओं को छोड़कर भारतवर्ष की समस्त भाषाएँ इण्डो-योरोपियन भाषा वर्ग की हैं, और उन्हीं से प्रसूत हुई हैं। हिन्दी भाषा भी इन्हीं भाषाओं में से एक है, अतएव विचारना यह है कि वह किस प्रकार इण्डो-योरोपियन भाषा से क्रमश: विकसित होकर इस रूप को प्राप्त हुई। इण्डो-योरोपियन भाषा से प्रयोजन उस वर्ग की भाषा से है, जिसका विस्तार योरोप के अधिाकांश देशों, फारस और भारतवर्ष के अधिाकतर प्रदेशों में है। पहले इसको इण्डो-योरोपियन भाषा कहते थे, परन्तु अब यह नाम बदल दिया गया है। कारण यह बतलाया गया है कि अब तक यह प्रमाणित नहीं हुआ कि योरोप वाले अपने को आर्य मानते थे अथवा नहीं। भारत वाले और ईरान वाले अपने को आर्य कहते थे, इसलिए इन प्रदेशों में जो इण्डो-योरोपियन भाषा की शाखाएँ प्रचलित हैं, उनको आर्य-परिवार की भाषा कह सकते हैं। आगे हम इन भाषाओं की चर्चा आर्य-परिवार के नाम से ही करेंगे।

1. "At one time Sanskrit was the one language spoken all over the world" Edinburgh Rev. Vol. XXXIII, 3. 43.

आर्य-परिवार भाषा का आदिम रूप वैदिक संस्कृत में पाया जाता है। यद्यपि अनेक योरोपियन विद्वानों ने इस वैदिक संस्कृत को ही योरोपियन भाषाओं का भी मूल आधाार माना है, परन्तु आजकल उसके स्थान पर एक मूल भाषा, लिखना ही पसन्द किया जाता है जिसकी एक शाखा वैदिक संस्कृत भी मानी जाती है। इसका विशेष विवेचन आगे मिलेगा, यहाँ यह विचारणीय है कि वैदिक संस्कृत की भाषा साहित्यिक है, अथवा बोलचाल की। इस विषय में अपने 'पालिप्रकाश' (पृष्ठ 27-28)नामक ग्रन्थ में बंगाल प्रान्त के प्रसिध्द विद्वान श्री विधाुशेखर शास्त्राी ने जो लिखा है, उसका अनुवाद मैं आप लोगों के सामने रखता हूँ-'परिवर्तनशीलता बोलचाल की भाषा का स्वभाव है। यह चिरकाल तक एक भाव से नहीं रहती। देश-काल और व्यक्ति-भेद से भिन्न-भिन्न रूप धाारण करती है। वैदिक भाषा में यह बात पाई जाती है, उसमें एक वाक्य का भिन्न प्रयोग देखा जाता है। उस समय कोई कहता क्षुद्रक कोई कहता क्षुल्लक। एक बोलता युवाम् तो दूसरा युवम्। किसी के मुख से पश्चात् सुना जाता और किसी के मुख से पश्चा; कोई युष्मासु और कोई युष्मे कहता। इसी प्रकार देवा: देवास: श्रवण-श्रोणा-अवधाोतयति, अवज्योतयति-इत्यादि भिन्न प्रकार का व्यवहार होता। कोई किसी-किसी स्थान पर प्रातिपदिक शब्दों के बाद विभक्तियों का प्रयोग बिलकुल नहीं करता (जैसे परमेव्योमन्), कोई करता। कोई किसी शब्द का कोई अंश लोप करके उसका उच्चारण करता जैसे (''त्मना''), कोई ऐसा नहीं करता। कोई विशेषण के अनुसार विशेषण के लिंगादि को भी ठीक करके उसका व्यवहार करता, कोई इसकी परवाह नहीं करता, जिसमें सुविधाा होती, वही करता (जैसे 'बहुलापृथूनि भुवनानि विश्वा') कभी कोई संयुक्त वर्ण के पूर्वस्थित दीर्घस्वर को Ðस्व करके उच्चारण करता (जैसे रोदसिप्राम्) और अनेक अवस्थाओं में ऐसा नहीं करता। एक मनुष्य किसी अक्षर को जैसे उच्चारण करता, दूसरा उसको दूसरे प्रकार से कहता। एक ड किसी स्थान पर ल और कहीं ल् उच्चरित होता (देखो, ऋ. प्रा. 1-10-11) पदान्त में वर्ग के तृतीय वर्ण को और दूसरे उसके प्रथम वर्ण का उच्चारण करते। जिनका वैदिक भाषा के साथ थोड़ा परिचय भी है, वे भली-भाँति जानते हैं कि वैदिक भाषा में इस प्रकार प्रयोगों की कितनी भिन्नता है। यह बात भली-भाँति प्रमाणित करती है कि वैदिक भाषा बोलचाल की भाषा थी''।

संभव है कि यह विचार सर्वसम्मत न हो, परन्तु प्रश्न यह है कि जो मूल भाषा की पुकार मचाते हैं, उनसे यदि पूछा जावे कि आपकी 'मूल भाषा का' रूप कहीं कुछ पाया जाता है तो वैदिक मंत्राों को छोड़ वे किसकी ओर उँगली उठावेंगे। ऋग्वेद ही संसार की लाइब्रेरी में सबसे प्राचीन पुस्तक है, जो उसमें मूल भाषा प्रतिफलित नहीं, तो फिर उसका दर्शन किसी दूसरी जगह नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि साहित्यिक होने से किसी भाषा का रूप बिलकुल नहीं बदल जाता। उसकी विशेषताएँ उसमें मौजूद रहती हैं, अन्यथा वह उस भाषा की रचना हो ही नहीं सकती। क्या ग्राम-साहित्य की रचनाओं में बोलचाल की भाषा का वास्तविक रूप नहीं मिलता। साहित्यगत साधाारण्ा परिवर्तन भाषा के मुख्य स्वरूप का बाधाक कदापि नहीं।

योरोपियन विद्वान कहते हैं कि वैदिक काल से पहले एक विशाल जाति मधय एशिया में रहती थी, जब यह विभक्त हुई तो इसमें से कुछ लोग योरोप की ओर गये, और कुछ ईरान एवं भारतवर्ष में पहुँचे और अपने-अपने उपनिवेश वहाँ स्थापित किये। किन्तु भारतीय आर्य-साहित्य में इसका पता नहीं चलता। वैदिक और लौकिक संस्कृत-साहित्य का भण्डार बड़ा विस्तृत है, उसमें साधाारण से साधारण बातों का वर्णन है, किन्तु इस बात की चर्चा कहीं नहीं है, आर्यजाति बाहर से भारतवर्ष में आई। इसलिए अनेक आर्य विद्वान् योरोपियन सिध्दान्त को नहीं मानते। उनका विचार है कि आर्यजाति का आदि निवास-स्थान भारतवर्ष ही है और यहीं से वह दूसरे स्थानों में गई हैं। हिन्दू सुपीरियरटी, में इसका अच्छा वर्णन है। बम्बई के प्रसिध्द विद्वान् खुरशेदजी रुस्तमजी ने बम्बई की ज्ञान-प्रसारक मंडली के उद्योग से एक बार 'मनुष्यों का मूल जन्म स्थान कहाँ था। इस विषय पर एक व्याख्यान दिया था, उसका सारांश यह है-

''जहाँ से सारी मनुष्य-जाति संसार में फैली। उस मूल स्थान का पता हिन्दुओं, पारसियों, यहूदियों और क्रिश्चियनों के धार्म-पुस्तकों से इस प्रकार लगता है कि वह स्थान कहीं मधय एशिया में था। योरोप-निवासियों की दन्त-कथाओं में वर्णित है कि, हमारे पूर्व राजा कहीं उत्तार में रहते थे। पारसियों की धार्म-पुस्तकों में लिखा है कि जहाँ आदि सृष्टि हुई, वहाँ दस महीने सर्दी और दो महीने गर्मी रहती है। एटुअर्ट, एलफिन्स्टन, वरनस आदि यात्रिायों ने मधय एशिया में भ्रमण करके बतलाया है कि हिन्दूकुश और उसके निकटवर्ती पहाड़ों पर 10 महीने सर्दी और दो महीने गर्मी होती है। उनके ऊपर से चारों ओर नदियाँ बहती हैं। इस स्थान के ईशानकोण्ा में 'वालूतार्ग' तथा 'मुसावरा' पहाड़ है। ये पहाड़ 'अलवुर्ज' के नाम से पारसियों की धर्म-पुस्तकों और अन्य इतिहासों में लिखे हैं। 'वालूतार्ग' से 'अमू' अथवा 'आक्षस' और जेक जार्टस नाम की नदियाँ 'अरत' सरोवर में होकर बहती हैं। इसी पहाड़ में से निकल कर 'इन्डस' अथवा सिन्धाु नदी दक्षिण की ओर बहती है। इसी ओर के पहाड़ों में से प्रसूत होकर बड़ी-बड़ी नदियाँ पूर्व ओर चीन में और उत्तार ओर साइबेरिया में प्रवेश करती हैं। ऐसे रम्य और शान्त स्थान में पैदा हुए लोग अपने को आर्य कहते थे, और 'स्वर्ग कहकर उसका आदर करते थे?'

यह प्रदेश भारतवर्ष के उत्तार में है, और हिन्दूकुश से तिब्बत तक फैला हुआ है, इसी के अन्तर्गत, सुमेरु तथा कैलास जैसे पुराण-प्रसिध्द पर्वत और मानसरोवर समान प्रशंसित महासरोवर है। यहीं किन्नर और गन्धार्व रहते हैं, जो स्वर्ग-निवासी बतलाये गये हैं। तिब्बत का दक्षिणी भाग हमारे आराधय हिमालय का ही एक अंश है, इसीलिए उसका संस्कृत नाम भी स्वर्ग का पर्यायवाची है-अमर कोशकार लिखतेहैं-

स्वरव्ययं स्वर्ग नाक त्रिादिव त्रिादशालया।

सुरलोको द्यौ दिवौ द्वे स्त्रिायाँ क्लीवे त्रिाविष्टपड्ड

ऋग्वेद में कन्धाार-निवासी आर्य-समुदाय के राजा दिवोदास और सिन्धाुनद के समीप बसने वाली आर्य जनता के राजा सुदास का वर्णन मिलता है, इसके उपरान्त गंगा-यमुना कूल के मन्त्राों की रचना का पता चलता है। इससे पाया जाता है कि कंधाार अथवा गांधाार से ही आर्य-लोग पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़े, यदि गांधाार के पश्चिमोत्तार प्रदेश से वे आगे बढ़ते तो उनका वर्णन ऋग्वेद में अवश्य होता। किन्तु ऐसा नहीं है। इसीलिए इसी सिध्दान्त को स्वीकार करना पड़ता है कि आर्य जाति की उत्पत्तिा हिमालय के पवित्रा अंक में ही हुई है, और वहीं से वे भारत के और प्रदेशों में फैले हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी सत्यार्थ-प्रकाश में यही लिखा है-

'' आदि सृष्टि त्रिाविष्टप अर्थात् तिब्बत में हुई ''

यदि यह तर्क किया जावे कि फिर आर्य जाति का प्रवेश योरोप में कैसे हुआ? तो इसका उत्तार यह है कि जो जाति अपने जन्म-स्थान से पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ी, क्या वह पश्चिम और उत्तार को नहीं बढ़ सकती, हिमालय पर्वत से निकली हुई नदियाँ यदि साइबीरिया तक पहुँच सकती हैं, तो उस प्रदेश में निवास करने वाली जनता योरोप में क्यों नहीं पहुँच सकती। भले ही हिमालय समीपवर्ती प्रान्त मधय एशिया में न हो, किन्तु क्या वे मधय एशिया के निकटवर्ती नहीं। किसी विद्वान् ने निश्चित रूप से अब तक यह नहीं बतलाया कि मधय एशिया के किस स्थान से आर्य लोग पूर्व और पश्चिम को बढ़े। अब तक स्थान के विषय में तर्क-वितर्क है, कोई किसी स्थान की ओर संकेत करता है, कोई किसी स्थान की ओर। ऐसी अवस्था में यदि हिमालय प्रदेश को ही यह स्थान स्वीकार कर लिया जावे, तो क्या आपत्तिा हो सकती है। महाभारत और पुराणों में ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिनमें भारतीय जनों का योरोपीय और अमरीका आदि जाने की चर्चा है। राजा सगर ने अपने सौ पुत्राों को क्रुध्द होकर जब भारतवर्ष में नहीं रहने दिया, तब वे देशान्तरों में गये, और वहाँ उपनिवेश स्थापित किये। इसी प्रकार की और कथाएँ हैं, उनकी चर्चा बाहुल्यमात्राहोगा।

चाहे हम यह मानें कि मधय एशिया से आर्य लोग भारतवर्ष में आये, चाहे यह कि वे हिमालय के उत्तार-पश्चिम भाग में उत्पन्न हुए और वहीं से भारतवर्ष में फैले, दोनों बातें ऐसी हैं, जो बतलाती हैं, कि ज्यों-ज्यों वे भारतवर्ष में फैलने लगे होंगे,त्यों-त्यों उनकी बोलचाल की भाषा में स्थान और जलवायु के विभेद से अन्तर पड़ने लगा होगा। ऋग्वेद में इस बात का भी वर्णन है कि इन आर्यों का संघर्ष भी उन लोगों से बराबर चलता रहा, जो उस समय भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों में वास करते थे। इन लोगों की भी कोई भाषा अवश्य होगी, इसीलिए दोनों की भाषाओं का परस्पर सम्मिश्रण भी अनिवार्य था। धीरे-धीरे काल पाकर वैदिक भाषा के अनेक शब्द विकृत हो गये, क्योंकि उनका शुध्द उच्चारण सर्वसाधाारण द्वारा नहीं हो सकता था। एक शब्द को लोग पहले भी विभिन्न प्रकार से बोलते थे, अब इसकी और वृध्दि हुई। आवश्यकतानुसार अनार्य भाषा के कुछ शब्द भी उसमें मिल गये, इसलिए काल पाकर बोलचाल की एक नई भाषा की सृष्टि हुई। इसी को पहली प्राकृत अथवा आर्य प्राकृत कहा गया है। इसी प्राकृत का अन्यतम रूप पाली अथवा मागधाी है। कहा जाता है कि इस भाषा में वैदिक संस्कृत के शब्दों को बेतरह विकृत होते देखकर आर्य विद्वानों को विशेष चिन्ता हुई, अतएव उन्होंने उसकी रक्षा और उसके संस्करण का प्रयत्न किया और इस प्रकार लौकिक संस्कृत की नींव पड़ी। अनेक विद्वानों ने इस लौकिक संस्कृत से ही सब प्राकृतों की उत्पत्तिा मानी है। यह बड़ा वादग्रस्त विषय है, अतएव मैं इस पर विशेष प्रकाश डालना चाहता हूँ। पालीभाषा अथवा मागधाी के विषय में भी तरह-तरह की बातें कही गई हैं, वे भी विचारणीय हैं, अतएव मैं अब इन्हीं विषयों की ओर प्रवृत्ता होता हूँ, जहाँ तक विचार किया गया, निम्नलिखित तीन सिध्दान्त इस विवाद के आधाार हैं-

1. यह कि समस्त प्राकृतों की जननी संस्कृत भाषा है-

2. यह कि प्राकृत स्वयं स्वतन्त्रा और मूल भाषा है, व न तो वैदिक भाषा से उत्पन्न हुई, न संस्कृत से-

3. यह कि प्राचीन वैदिक भाषा ही वह उद्गम स्थान है, जहाँ से समस्त प्राकृत भाषाओं के òोत प्रवाहित हुए हैं, संस्कृत भी उसी का परिमार्जित रूप है।

सबसे पहले प्रथम सिध्दान्त को लीजिए उसके प्रतिपादक संस्कृत और प्राकृत भाषा के कुछ वावदूक विवुधा और हमारी हिन्दी भाषा के धाुरन्धार विद्वान् हैं, वे कहतेहैं-

'' प्रकृति: संस्कृतम् तत्रा भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ''

वैयाकरण हेमचन्द्र

'' प्रकृति: संस्कृतं तत्रा भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् ''

प्राकृतचन्द्रिकाकार

'' प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनि: ''

प्राकृत संजीवनीकार

''यह सर्वसम्मत सिध्दान्त है कि प्रकृति संस्कृत होने पर भी कालान्तर में प्राकृत एक स्वतन्त्रा भाषा मानी गई।''

स्व. पण्डित गोविन्दनारायण मिश्र।

''संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं''।

स्व. पण्डित बदरी नारायण चौधरी।

अब दूसरे सिध्दान्त वालों की बात सुनिए। इनमें अधिाकांश बौध्द और जैन विद्वान हैं। अपने 'पयोग सिध्दि' ग्रन्थ में कात्यायन लिखते हैं-

'' सा मागधाी मूल भासा नरायायादि कप्पिका

ब्राह्मणो च स्सुतालापा सम्बुध्दा चापिभासरे। ''

आदि कल्पोत्पन्न मनुष्यगण, ब्राह्मणगण, सम्बुध्दगण और जिन्होंने कोई वाक्यालाप श्रवण नहीं किया है ऐसे लोग जिसके द्वारा बातचीत करते हैं, वही मागधाी मूल भाषाहै।

'पतिसम्विधा अत्वूय', नामक ग्रन्थ में लिखा है-

''मागधाी भाषा देवलोक, नरलोक, प्रेतलोक और पशुजाति में सर्वत्रा प्रचलित है। किरात, अन्धाक, योणक, दामिल, प्रभृति भाषाएँ परिवर्तनशील हैं, किन्तु मागधाी आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है। इसलिए अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समानरूपेण व्यवहृत है।''

महारूपसिध्दिकार लिखते हैं-'मागधिाकाय स्वभाव निरुत्तिाया' मागधाी स्वाभाविक (अर्थात् मूलभाषा) है।

अपने पाली भाषा के व्याकरण की अंग्रेजी भूमिका में श्रीयुत सतीश चन्द्र विद्याभूषण लिखते हैं-

''धीरे-धीरे मागधाी में जो इस देश में बोली जाती थी, बहुत से परिवर्तन हुए, और आजकल की भाषाएँ, जैसे बंगाली,मरहठी, हिन्दी और उड़िया इत्यादि उसी से उत्पन्न हुई हैं।''1

जैनेरा अर्धा मागधाी भाषा केई आदि भाषा वलियामने करेन

जैन लोग अर्ध्द मागधाी भाषा को ही आदि भाषा मानते हैं।

बंगला विश्वकोश, पृष्ठ 438

अब तीसरे सिध्दान्त वालों का विचार सुनिए। यह दल समधिाक पुष्ट है, इसमें पाश्चात्य विद्वान् तो हैं ही, भारतीय विद्वानों की संख्या भी न्यून नहीं है। क्रमश: अनेक विद्वानों की सम्मति मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ। जर्मन विद्वान् वेबर कहते हैं-''वैदिक भाषा से ही एक ओर सुगठित और सुप्रणालीबध्द होकर संस्कृत भाषा का जन्म और दूसरी ओर मानव प्रकृति सिध्द और अनियत वेग से वेगवान प्राकृत भाषा का प्रचलन हुआ। प्राचीन वैदिक भाषा ही क्रमश: बिगड़कर सर्वसाधाारण के मुख से प्राकृत भाषा हुई''-

बंगला विश्वकोश, पृष्ठ 433

1. In course of time this Magadhi-the spoken language of the country underwent immense changes, and gave rise to the modern vernaculars such as Bengali, Marahati, Hindi, Uriya, etc.

श्रीमान् विधाुशेखर शास्त्राी अपने पालि प्रकाश नामक बंगला ग्रन्थ में क्या लिखते हैं, उसे भी देखिए-

''आर्यगण की वेदभाषा और अनार्यगण की साधाारण भाषा में एक प्रकार का सम्मिश्रण होने से बहुत से अनार्य शब्द वर्तमान कथ्य वेद भाषा के साथ मिश्रित हो गये, इस सम्मिश्रणजात भाषा का नाम ही प्राकृत है''।

पालि-प्रकाश प्रवेशक, पृष्ठ 36

हिन्दी भाषा के प्रसिध्द विद्वान् श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह अनुमति है-

''हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी, उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं, उसका विकास होते-होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गईं, हमारी विशुध्द संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है।''

अब मैं देखूँगा इन तीनों सिध्दान्तों में से कौन-सा सिध्दान्त विशेष उपपत्तिा मूलक है। शब्द शास्त्रा की गुत्थियों को सुलझाना सुलभ नहीं, लोग जितना ही इसको सुलझाते हैं, उलझन उतनी ही बढ़ती है। बहुत कुछ छानबीन हुई, किन्तु भाषा-विज्ञान का अगाधा रत्नाकर आज भी बिना छाने हुए पड़ा है। उसे सौ-सौ तरह से छाना गया, किन्तु रत्न का हाथ आना सबके भाग्य में कहाँ! मैं उस उद्योग में नहीं हूँ, न मुझमें इतनी योग्यता है, न मैं इस घनीभूत अन्धाकार में प्रवेश करने के लिए सुन्दर आलोक प्रस्तुत कर सकता हूँ, केवल मैं विचारों का दिग्दर्शन मात्रा करूँगा। प्रथम सिध्दान्त के विषय में मैं कुछ विशेष नहीं लिखना चाहता। वेदभाषा को प्राचीन संस्कृत कहा जाता है, कोई-कोई वेदभाषा को वैदिक और पाणिनि काल की और उसके बाद के ग्रन्थों की भाषा को लौकिक संस्कृत कहते हैं। प्रथम सिध्दान्त वालों ने संस्कृत से ही प्राकृत की उत्पत्तिा बतलायी है। यदि संस्कृत से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, तो प्रथम सिध्दान्त तीसरे सिध्दान्त के अन्तर्गत हो जाता है, और विरोधा का निराकरण होता है। परन्तु वास्तव बात यह है कि प्रथम सिध्दान्त वालों का अभिप्राय वैदिक संस्कृत से नहीं वरन् लौकिक संस्कृत से है क्योंकि षड्भाषा चन्द्रिकाकार यह लिखतेहैं-

भाषा द्विधाा संस्कृता च प्राकृती चेति भेदत:।

कौमार पाणिनीयादि संस्कृता संस्कृता मता।

प्रकते: संस्कृतायास्तु विकृति: प्राकृता मता।

अतएव दोनों सिध्दान्तों का परस्पर विरोधाी होना स्पष्ट है। आइए, प्रथम सिध्दान्त की सारवत्ताा का विचार करें। शिक्षा नामक वेदांग के पाँचवें अधयाय की यह अर्ध्दश्लोक कि ''प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंभुवा'' इस विषय को बहुत कुछ स्पष्ट करता है। इसका अर्थ है स्वयं आदि पुरुष प्राकृत अथवा संस्कृत बोलते थे। इस श्लोक में प्राकृत को अग्र स्थान दिया गया है, जो पश्चाद्वर्ती संस्कृत को उसका पश्चाद्वर्ती बनाता है। इसलिए लौकिक संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्तिा नहीं मानी जा सकती। दूसरी बात यह है कि प्राकृत भाषा में अनेक ऐसे शब्द मिलते हैं कि जिनका लौकिक संस्कृत में पता तक नहीं चलता। परन्तु वे शब्द वैदिक संस्कृत अथवा वैदिक भाषा में पाये जाते हैं। इससे यह बात स्वीकार करनी पड़ती है कि प्राकृत की उत्पत्तिा यदि हो सकती है, तो वैदिक भाषा से हो सकती है, लौकिक संस्कृत से नहीं। शब्द व्यवहार की दृष्टि से प्राकृत भाषा, जितनी वेद भाषा की निकटवर्ती है, संस्कृत की नहीं। बोलचाल की भाषा होने के कारण वैदिक भाषा में वे शब्द मिलते हैं, जो प्राकृत में उसी रूप में आये, परन्तु संस्कार हो जाने के कारण लौकिक संस्कृत में उनका अभाव हो गया। यदि संस्कृत से प्राकृत की उत्पत्तिा हुई होती, तो इस प्रकार के शब्द उसमें अवश्य मिलते, जब नहीं मिलते तब संस्कृत से उसकी उत्पत्तिा मानना युक्तिसंगत नहीं। इस प्रकार के कुछ शब्दों का उल्लेख नीचे किया जाता है।

प्राकृत में पद का आदि वर्णगत 'र' और 'य' प्राय: लोप हो जाता है। जैसे संस्कृत ग्राम प्राकृत में गाम होगा और व्यवस्थित होगा ववत्थित! वैदिक भाषा में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, जैसे-अप्रगल्भ के स्थान पर अपगल्भ (तै. स. 4, 5, 6, 1) त्रिा + ऋच् से त्रयच् पद न होकर त्रिाच और तृच होता है (शत. व्रा. 1, 3, 3, 33) कात्यायन श्रौत सूत्रा में भी इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है। यास्क कहते हैं-''अथापि द्विवर्ण लोपस्तृच:'' (नि. 2, 1, 2) अर्थात् यहाँ त्रिाशब्द के रकार और इकार दोनों लोप हो गये।

प्राकृत में संयुक्त वर्ण का पूर्ववर्ती दीर्घ स्वर प्राय: Ðस्व हो जाता है। जैसे-मात्राा, मत्ताा इत्यादि। वैदिक भाषा में भी इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है। जैसे रोदसीप्रा रोदसिप्रा (ऋ. सं. 10, 88, 10) अमात्रा-अमत्रा (ऋ. स. 3। 36। 4)-

प्राकृत में अनेक स्थानों पर संयुक्त वर्ण के स्थान पर एक व्यंजन का लोप करके पूर्ववर्ती Ðस्व स्वर को दीर्घ कर दिया जाता है जैसे कर्तव्य-कातव्य, निश्वास-नीसास, दुहरि-दूहार। वैदिक भाषा में भी ऐसा होता है, जैसे-दुर्दभ-दूडभ, (ऋ. सं. 4, 9,8)दुर्नाश-दूणाश (श्रु. प्रा. 3, 43)

प्राकृत में बहुत स्थान पर ऋकार के स्थान पर उकार होता है, जैसे ऋतु-उतु अथवा उदु इत्यादि। वैदिक साहित्य में भी इस प्रकार का प्रयोग अलभ्य नहीं है-यथा वृन्द-वुन्द (द्रष्टव्यानि. 6-6-4-6)

प्राकृत में बहुत स्थान पर दकार डकार हो जाता है। जैसे दहति-डहति, दण्ड-डण्ड। वैदिक साहित्य में भी ऐसा होता है-जैसे दुर्दभ-दूडभ (बा.स. 3, 36) पुरोदाश-पुरोडाश (श्रु.प्रा. 3, 44 शत. प्रा., 5, 1, 5)

प्राकृत में अव के स्थान पर उकार और अय के स्थान पर एकार हो जाता है। जैसे अवहसति उहसित, नयति-नेति। वैदिक साहित्य में भी इस प्रकार का बहुत अधिाक प्रयोग मिलता है। यथा-श्रवण-श्रोण, (तै. ब्रा. 1, 5, 1, 4-5, 2, 9) अन्तरयति-अन्तरेति (शत. ब्रा. 1, 2, 2, 18)

प्राकृत में 'द्य' के स्थान पर 'ज' होता है और प्राकृत नियमानुसार स्थान-विशेष में यह जकार द्वित्व को प्राप्त होता है। यथा-द्युति-जुति, विद्या-विज्जा। वैदिक भाषा में इस प्रकार का प्रयोग बहुत अधिाक पाया जाता है, अन्तर केवल इतना है कि यहाँ'य' कार का लोप नहीं होता है। जैसे-द्योतिस-ज्योतिस, द्योतते-ज्योतते, द्योतय-ज्योतय (व्यथ. स. 4, 37, 10) अवद्योतयति-अवज्योतयति (शत. ब्रा. 1, 2, 3, 3, 36) अवद्योत्तय-अवज्योत्य (का. श्रो. 4, 14, 5)। 1

दूसरा सिध्दान्त क्या है, मैं उसका परिचय दे चुका हूँ। वह मागधाी को आदि कल्पोत्पन्न मूल भाषा, आदि भाषा और स्वाभाविक भाषा मानता है। यदि इस भाषा का अर्थ वैदिक भाषा के अतिरिक्त सर्वसाधाारण में प्रचलित भाषा है, तो वह सिध्दान्त बहुत कुछ माननीय है। क्योंकि महर्षि पाणिनि के प्रसिध्द सूत्राों में वेद अथवा उसमें प्रयुक्त भाषा, छन्द, मंत्रा,निगम आदि नामों से अभिहित है, यथा-विभाषाछन्दसि (1, 2, 36 अयस्मयादिनिछन्दसि) (1, 4, 20) नित्यं मन्त्रो (6, 1, 10) जनितामन्त्रो (9, 4, 53) वावपूर्वस्या निगमे (6, 4, 9) ससूर्वतिनिगमे (6, 4, 74)!2 परन्तु भाषाओं के लिए लोक,लौकिक अथवा भाषा शब्द का ही उपयोग उन्होंने किया है यथा-विभाषा भाषायाम् (9, 1, 81) स्थेच भाषायाम् (6, 3, 20)प्रथमायाश्चद्विवचने भाषायाम् (7, 2, 88) पूर्वं तु भाषायाम् (8, 2, 98) परन्तु वास्तव बात यह नहीं है, वरन वास्तव बात यह है कि मागधाी को मूलभाषा अथवा आदि भाषा कहकर वेद भाषा पर प्रधाानता दी गई है, क्योंकि वह अपरिवर्तनीय मानी गई है और कहा गया है कि नरलोक के अतिरिक्त उसकी व्यापकता देवलोक तक है, प्रेतलोक और पशु जाति में भी वह सर्वत्रा प्रचलित है। धाार्मिक संस्कार सभी धार्म वालों के कुछ न कुछ इसी प्रकार के होते हैं, ऐसे स्थलों पर वितण्डावाद व्यर्थ है,केवल देखना यह है कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह विचार कहाँ तक युक्तिसंगत है, और पुरातत्तववेत्ताा क्या कहते हैं। वैदिक भाषा की प्राचीनता, व्यापकता और उसके मूल भाषा अथवा आदि भाषा होने के सम्बन्धा में कुछ विद्वानों की सम्मति मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ, उनसे इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। निम्नलिखित अवतरणों में संस्कृत भाषा से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, न कि लौकिक संस्कृत।

''सर्वज्ञात भाषाओं में से संस्कृत अतीव नियमित है, और विशेषतया इस कारण अद्भुत है कि उसमें योरप की अद्यकालीन भिन्न-भिन्न भाषाओं और प्राचीन भाषाओं के धाातु हैं'' मिस्टर कूवियर। 3

1. देखो, पालि प्रकाश, पृष्ठ 40, 41, 42, 43 प्रवेशिका।

2. संस्कृतं प्राकृतं चैव अपभ्रंशोऽथ पिशाचकी।

मागधाी शौरसेनी च षड् भाषाश्च प्रकीर्तिताड्ड प्राकृतलक्षणाकार टीका।

3. "It is the most regular language known and is especially remarkable, as containing the roots of various languages of Europe, and the Greek, Latin, German, of Scalvoric-Baron Cwiver-Lectures on the Natural Sciences."

''यह देखकर कि भाषाओं की एक बड़ी संख्या का प्रारम्भ संस्कृत से है, या यह कि संस्कृत से उसकी समधिाक समानता है, हमको बड़ा आश्चर्य होता है और यह संस्कृत के बहुत प्राचीन होने का पूरा प्रमाण है। रेडियर नामक एक जर्मन लेखक का यह कथन है कि संस्कृत सौ से ऊपर भाषाओं और बोलियों की जननी है। इस संख्या में उसने बारह भारतवर्षीय, सात मिडियन फारसी, दो अरनाटिक अलबानियन, सात ग्रीक, अठारह लेटिन, चौदह इसल्केवानियन और छ: गेलिक केल्टिक को
रखा है।''

लेखकों की एक बड़ी संख्या ने संस्कृत को ग्रीक और लेटिन एवं जर्मन भाषा की अनेक शाखाओं की जननी माना है। या इनमें से कुछ को संस्कृत से उत्पन्न हुई, किसी दूसरी भाषा द्वारा निकला पाया है, जो कि अब नाश हो चुकी है। सर विलियम जोन्स और दूसरे लोगों ने संस्कृत का लगाव पारसी और जिन्द भाषा से पाया है।

हालहेड ने संस्कृत और अरबी शब्दों में समानता पाई है, और यह समानता केवल मुख्य-मुख्य बातों और विषयों में ही नहीं, वरन् भाषा की तह में भी उन्हें मिली है। इसके अतिरिक्त इण्डोचाइनीज और उस भाग की दूसरी भाषाओं का भी उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है। -मिस्टर एडलिंग

''पुरातन ब्राह्मणों ने जो ग्रन्थ हमें दिये हैं, उनसे बढ़कर निर्विवाद प्राचीनता के ग्रन्थ पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलते।'' - मिस्टर हालहेड1

''जिन्द के दश शब्दों में 6 या 7 शब्द शुध्द संस्कृत हैं।'' -मिस्टर हैमर

''जिन्द और वैदिक संस्कृत का इतना अन्तर नहीं जितना वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत का है।'' -मैकडानैल

ईश्वरीयज्ञान, पृ.-63, 64, 66, 67

1. The great number of languages which are said to owe their origin, or bear a close affinity to the Sanskrit is truly astonishing, and is another proof of its high antiquity. A german writer (Rudiger) has asserted it to be the parent of upwards of a hundred languages and dialects, among which he enumerates twelve Indian, seven Median-Persic, two Arnantic-Albanian, seven Greek, eighteen Latin, fourteen Sclavonian, and six Celtic-Gallic.

A host of writers have made it the immediate parent of the Greek, and Latin, and German families of languages, or regarded some of these as descended from it through a language now extinct. With the Persian and Zend it has been almost identified by Sir William Jones and others. Halhed notices the similitude of Sanskrit and Arabic words, and this not merely in technical and metaphorical terms, but in the main ground work of language. In a contrary direction the Indo-Chinese, and other dialects in that quarter, all seems to be closely allied to it."-Adeling Sans. Literature. H. 30-40.

"The world does not now contain annals of more indisputable antiquity than those delivered down by the ancient Brahmans.-Halhed, Code of Hindu Laws."

संसार की आर्यजातीय भाषाओं के साथ वैदिक भाषा का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए, मैं यहाँ कुछ शब्दों को भी लिखता हँ।

संस्कृत मीडी यूनानी लैटिन अंग्रेजी फारसी

पितृ पतर पाटेर पेटर फादर पिदर

मातृ मतर माटेर मेटर मदर मादर

भ्रातृ व्रतर फाटेर फेटर ब्रदर बिरादर

नाम नाम ओनोमा नामेन नेम नाम

अस्मि अह्मि ऐमी एम ऐम अस

अवतरणों को पढ़ने और ऊपर के शब्दों का साम्य देखकर यह बात माननी पड़ेगी कि वैदिक भाषा अथवा आर्य जाति की वह भाषा जिसका वास्तव और व्यापक रूप हमको वेदों में उपलब्धा होता है, आदि भाषा अथवा मूल भाषा है। आजकल के परिवर्तन और नूतन विचारों के अनुसार यदि संसार भर अथवा योरोपियन भाषाओं की जननी उसे न मानें तो भी आर्य परिवार की जितनी भाषाएँ हैं, उनकी आधाारभूता और जन्मदात्राी तो उसे हमें मानना ही पड़ेगा और ऐसी अवस्था में मागधाी भाषा को मूल भाषा अथवा आदि भाषा कहना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा, आप लोग स्वयं इसको सोच सकते हैं।

पालि-प्रकाशकार एक स्थान पर लिखते हैं ''पालि भाषा का दूसरा नाम मागधाी है और यह उसका भौगोलिक नाम है, (पृष्ठ 13) दूसरे स्थान पर वे कहते हैं, ''मूल प्राकृत जब इस प्रकार उत्पन्न हुई, तो उसके अन्यतम भेद पाली की उत्पत्तिा का कारण भी यही है, यह लिखना बाहुल्य है (पृष्ठ 48)।'' इन अवतरणों से क्या पाया जाता है, यही न कि पाली अथवा मागधाी से मूल प्राकृत की प्रधाानता है, ऐसी अवस्था में वह आदि और मूल भाषा कैसे हुई! तात्कालिक कथ्य वेद भाषा के साथ अनार्य भाषा का सम्मिश्रण होने से जो भाषा उत्पन्न हुई, उसे वे मूल प्राकृत मानते हैं (देखो पृष्ठ 36) अतएव मूल प्राकृत भाषा कथ्य वेद भाषा की पुत्राी हुई अत: वेद भाषा उसकी भी पूर्ववर्ती हुई, फिर पाली अथवा मागधाी मूल भाषा किम्बा आदि भाषा कैसे कही जा सकती है। विश्वकोशकार ने वैदिक संस्कृत से आर्ष प्राकृत, पाली और उसके बाद की प्राकृत का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए शब्दों की एक लम्बी तालिका पृष्ठ 434 में दी है, उनके देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जायेगा। अतएव उसके कुछ शब्द यहाँ उठाये जाते हैं। विश्वकोशकार ने पालि-प्रकाशकार के मूल प्राकृत के स्थान पर आर्य प्राकृत लिखा है, यह नामान्तर मात्रा है-

संस्कृत आर्ष प्राकृत पाली प्राकृत

अग्नि: अग्गि अग्नि अग्गी

बुध्दि: बुध्दि बुध्दि बुध्दी

मया मये, मे मया मये, मइये, ममए

त्वम् तां, तुमन् तां, तुवम् तं, तुमं, तुवम्

षोडश सोलस सोलस सोलह

विंशति वीसा वीसति, वीसम् वीसा

दधिा दहि, दहिम् दधिा दहि, दहिम्

प्राकृत लक्षणकार चण्ड ने आर्ष प्राकृत को, प्राकृत प्रकाशकार वररुचि ने महाराष्ट्री को, पयोगसिध्दिकार कात्यायन ने मागधाी को और जैन विद्वानों ने अर्धा मागधाी को आदि प्राकृत अथवा मूल प्राकृत लिखा है। पालिप्रकाशकार एक स्थान पर (पृष्ठ 48) पाली को सब प्राकृतों से प्राचीन बतलाते हैं, कुछ लोग पाली और मागधाी को दो भाषा समझते हैं, अपने कथन के प्रमाण में दोनों भाषाओं के कुछ शब्दों की प्रयोग भिन्नता दिखलाते हैं, ऐसे कुछ शब्द नीचे लिखे जाते हैं-

संस्कृत पाली मागधाी

शश ससा मो

कुक्कुट कुक्कुटो रो

अश्व अस्स सांगा

श्वान सुनका साच

व्याघ्र व्यघ्घो वी

जो अभेदवादी हैं, वे इन शब्दों को मागधाी भाषा के देशज शब्द मानते हैं। जो हो किन्तु अधिाकांश विद्वान् पाली और मागधाी को एक ही मानते हैं। कारण इसका यह है कि बुध्ददेव ने अपने उपदेश अपनी ही भाषा में दिये हैं। उनकी भाषा मागधाी ही थी, क्योंकि मगधा प्रान्त ही उनकी लीला भूमि थी। बुध्ददेव के समस्त उपदेश पहले पाली भाषा में ही लिखे मिलते हैं, वरन् कहा जाय तो यह कहा जा सकता है कि बौध्द साहित्य का प्रधाान और सर्वमान्य बृहदंश पाली ही में मिलता है, ऐसी दशा में दोनों भाषाओं का अभेद स्वीकार करना ही पड़ता है। किन्तु पाली जब मागधाी नाम ग्रहण करती है, तब अपनी व्यापकता खोकर सीमित हो जाती है। पाली ही ऐसी प्राकृत है, जो वैदिक भाषा की अधिाकतर निकटवर्ती है, इसीलिए उसको आर्ष प्राकृत का अन्यतम रूप कहा जाता है। अन्य प्राकृत भाषाएँ उसके बाद की हैं-कुछ प्रमाण पालिप्रकाश ग्रन्थ से नीचे दिये जाते हैं-

अकारान्त शब्द के तृतीया बहुवचन में पालि-भाषा में केवल विसर्ग मात्रा का त्याग करके वैदिक प्रयोग ही रक्षित रहता है। यथा-देवेभि: प्रयोग के स्थान में पाली में देवेभि और विकल्प में भ के स्थान पर ह का प्रयोग करके देवेहि पद बनता है,किन्तु प्राकृत में भ का प्रयोग बिलकुल लुप्त हो जाता है, केवल देवेहि रह जाता है, आगे चलकर वह देवेहिं और देवेहिँ भी हो जाता है।

क्लीव लिंग चित्ता शब्द का प्रथमा बहुवचन पाली में चित्ताा और चित्ताानि दोनों होता है और यह दोनों रूप ही वेदमूलक हैं। जैसे विश्वा और विश्वानि (ऋ. 10, 169, 3) परन्तु बाद की प्राकृतिक भाषाओं में ऐसा व्यवहार नहीं होता, उनमें चित्ताानि,चित्तााईं, चित्तााईँ आदि पाया जाता है।

शानच् प्रत्यय के स्थान पर पाली में प्राचीन वैदिक भाषा के अनुसार आन और मान दोनों प्रत्यय ही प्रयुक्त होते हैं-जैसे भु×ज से भु×जान और भु×जमान दोनों रूप बनता है, किन्तु प्राकृत में केवल मान अथवा माण का प्रयोग होता है। इसका एकमात्रा कारण यही है कि प्राकृत, मूल भाषा से पाली की अपेक्षा बहुत दूर हट गई, और इस कारण समस्त रूपों को रक्षित न रख सकी।

पाली में पारगू (पारग) आदि शब्द भी पाये जाते हैं, ए समस्त शब्द वैदिक भाषा में से ही उसमें आये हैं, यथा अग्रग अर्थ में अग्रगू आदि (पाणिनि 6, 4, 40)।

वैदिक भाषा में तुम अर्थ में तवै, तवेङ् प्रत्यय का प्रयोग अधिाकता से देखा जाता है। (पा. 3, 4, 9) जैसे पातु के अर्थ में'पातवै' इत्यादि। पाली में भी इस प्रकार का प्रयोग बिल्कुल लुप्त नहीं हो पाया है।

इन बातों पर दृष्टि देने से पाली की प्राचीनता निर्विवाद है, अन्य प्राकृत भाषाएँ उसके बाद की हैं। ये विशेषताएँ मागधाी में नहीं हैं, और उसका नाम प्रान्त विशेष से भी सम्बन्धा रखता है। इसलिए कुछ लोग उसको पाली नहीं मानते, किन्तु अधिाकतर विद्वानों की सम्मति वही है, जिसका उल्लेख मैंने पहले किया है।

कुछ विद्वान् गाथा से पाली की उत्पत्तिा मानते हैं। पालिप्रकाशकार लिखते हैं-(पृ. 48, 50)

''गाथा की भाषा के सम्बन्धा में पूर्वकाल के पण्डितगण ने बहुत आलोचना की है। इनमें भारत के सुप्रसिध्द प्राच्य तत्तवविद्यावित् डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रा ने उसके विषय में जो आलोचना की है, उसको अधयापक मैक्समूलर और डॉक्टर वेबर जैसे प्रमुख विद्वानों ने भी स्वीकार किया है।''

''मिस्टर वर्न उफष् कहते हैं कि गाथा विशुध्द संस्कृत और पाली की मधयवर्ती भाषा है डॉक्टर मित्रा ने इसको माना है,और वे सोचते हैं कि यह गाथा ही शाक्यसिंह के जन्म ग्रहण के पूर्व देशभाषा थी। संस्कृत से गाथा और गाथा से पाली की उत्पत्तिा हुई है।''1

गाथा के विषय में ऐसा विचार होने का कारण यह है कि उसमें संस्कृत वाक्यों का बड़ा अशुध्द प्रयोग हुआ है। उसकी भाषा न तो शुध्द संस्कृत है और न प्राकृत, उसमें दोनों का विचित्रा सम्मिश्रण देखा जाता है, इसीलिए उसको संस्कृत और प्राकृत का मधयवर्ती कहा गया है, और यही कारण है कि सबसे प्राचीन प्राकृत पाली की उत्पत्तिा उससे मानी गई है। गाथा का श्लोक देखिए।

अधा्रुवं त्रिाभवं शरदभ्रनिभम्।

नटरंग समाजगि जन्मिच्युति।

गिरिनद्य समं लघु शोघ्र जवम्।

व्रजतायुजगे पथ विद्युनभे।

संस्कृत के नियम के अनुसार दूसरे चरण के नटरंग सभा को नटरंग समम्-जगिजन्मिच्युति के स्थान पर जगति जन्मच्युति: होना चाहिए। तीसरे चरण में गिरिनद्य समम् को गिरिनदी समम् और चतुर्थ चरण को 'ब्रजत्यायुर्जगति'पथविद्युद्नभसि, लिखना ठीक होगा। परन्तु उस समय भाषा ऐसी विकृत हो रही थी कि इन अशुध्द प्रयोगों का धयान बिलकुल नहीं किया गया। यह सब होने पर भी पालिप्रकाशकार ने एक लम्बा लेख लिखकर और बहुत से अकाटय प्रमाणों को देकर यह सिध्द किया है कि गाथा की रचनाएँ अपभ्रंश काल के लगभग हुई हैं, जो सबसे अन्तिम प्राकृत हैं। ऐसी अवस्था में यह पालिभाषा की पूर्ववर्ती नहीं हो सकती, और न उससे उसकी उत्पत्तिा मानी जा सकती है। उनके प्रमाणों को मैं विस्तार भय से नहीं उठाता हूँ। किन्तु उनको पढ़ने के उपरान्त यह स्वीकार करना असंभव हो जाता है कि गाथा से पाली की उत्पत्तिा हुई। यदि डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा इत्यादि की सम्मति मान ली जाये तो पालि-भाषा उसके बाद की प्राकृत ठहरती है, और ऐसी अवस्था में उसका मूल भाषा होना और असंभव हो जाता है, मागधाी की बात ही क्या। अब तक मैं जो कुछ लिख आया, उससे पाया जाता है कि पाली अथवा मागधाी किसी प्रकार मूल भाषा नहीं हो सकती। उसका आधाार वैदिक भाषा है, जो अनेक सूत्राों से प्रतिपादित किया जा चुका है।

इस प्रकार के मतभेद और खींचतान का आधाार कुछ धाार्मिक विश्वास और कुछ आपेक्षिक ज्ञान की न्यूनता है। बौध्द ग्रन्थों में लिखा है-

1. "The language of the Gatha is belived, by M. Burnouf, to be intermediate between the Pali and the pure Sanskrit....it would not be unreasonad'e to suppose that the Gatha, which preceded it, was the dialect of the millions at the time of Sakya's advant and for sometime before it." Indo-Aryan, Vol. VI, p. 295.

''यदि माता-पिता अपनी भाषा बच्चे को न सिखलावें तो वह स्वभावतया मागधाी भाषा को ही बोलेगा। इसी प्रकार एक निर्जन वन में रखा हुआ आदमी यदि स्वभाव-वश बोलने का प्रयत्न करे तो उसके मुख से मागधाी ही निकलेगी। इसी भाषा का प्राधाान्य तीनों लोकों में है, अन्यान्य भाषाएँ परिवर्तनशील हैं, यही सदा एक रूप में रहती है। भगवान् बुध्द ने अपने त्रिापिटक की रचना भी इसी सनातन भाषा में की है।''1

इस प्रकार के विचारों के विषय में कुछ अधिाक कथन करना व्यर्थ है। केवल एक कथन की ओर आप लोगों की दृष्टि मैं और आकर्षित करूँगा, वह यह कि कुछ लोगों का यह विचार है कि मागधाी को देशभाषा मूलक मानकर मूलभाषा कहा गया है। किन्तु यह सिध्दान्त मान्य नहीं, क्योंकि यदि ऐसा होता तो द्राविड़ी और तेलगू आदि देशभाषाओं के समान वह भी एक देशभाषा मानी जाती, परन्तु उसको किसी पुरातत्तववेत्ताा ने आज तक ऐसा नहीं माना, वह आर्य भाषा संभवा ही मानी गई है,इसिलए यह तर्क सर्वथा उपेक्षणीय है। आर्यभाषा संभवा वह इसलिए मानी गई है, कि उसकी प्रकृति आर्यभाषा अथवा वेद भाषा मूलक है। प्राकृत भाषा के जितने व्याकरण हैं, उन्होंने संस्कृत के शब्दों और प्रयोगों द्वारा ही प्राकृत के शब्द और रूपों को बनाया है। प्राकृत भाषा का व्याकरण सर्वथा संस्कृतानुसारी है। संस्कृत और प्राकृत के अधिाकांश शब्द एक ही झोले के चट्टे-बट्टे अथवा एक फूल के दो दल अथवा एक चने की दो दाल ज्ञात होते हैं, थोड़े से ऐसे शब्द नीचे लिखे जातेहैं-

संस्कृत मागधाी संस्कृत मागधाी

कृतं कतं ऐश्वर्यम् इस्सरियन

गृहं गहं मौक्तिकं मुत्तिाकम्

घृतं घतं पौर: पौरो

वृत्ताान्त: वुत्तान्तो मन: मनो

चैत्रा: चित्ताो भिक्षु: भिक्खु

क्षुद्रं खुद्दं अग्नि: अग्गी

केवल कुछ शब्दों के मिल जाने से ही किसी भाषा का आधाार कोई भाषा नहीं मानी जा सकती, उन दोनों की प्रकृति और प्रयोगों को भी मिलना चाहिए। वैदिक संस्कृत और मागधाी अथवा पाली की प्रकृति भी मिलती है, उनका व्याकरण सम्बन्धाी प्रयोग भी अधिाकांश मिलता है-नीचे के श्लोक इसके प्रमाण हैं। संस्कृत

1. दे- M. Miller : Lectures on the Sciences of Language, भाग 1, 0 145।

"Even Buddhaghosa (reminding one of Herodotu's story) says that a child brought up without hearing the human voice would instinctively speak Magadhi (Alw. I (vii)-Childers, Dictionary of the Pali Language, p.xiii.

दे. पालिप्रकाश, पृष्ठ 96।

श्लोक के नीचे जो दो श्लोक हैं, उनमें से पहला शुध्द मागधाी और दूसरा अर्ध्द मागधाी है। देखिए उनमें परस्पर कितना अधिाक साम्य है-

रभसवश नम्र सुरशिरो विगलित मन्दार

राजितांघ्रि युग:।

वीर जिन: प्रक्षालयतु मम सकल मवद्य जम्वालम्

लहश वश नमिल शुल शिल विअलिद मन्दाल

लायिदंहि युगे।

बील धिाणे पक्खालदु मम शयल मयय्य यम्वालम्।

लभश वश नमिल शुल शिल विअलिद

मन्दाल लाजिदाई युगे।

बील जिणे पक्खालदु मम शयल मवज्ज जम्बालम्।

ऐसी अवस्था में यदि प्राकृत भाषा अर्थात् पाली और मागधाी आदि वैदिक भाषा मूलक नहीं हैं, तो क्या देश भाषा मूलक हैं? वास्तव में मागधाी अथवा अर्ध्द मागधाी किम्बा पाली की जननी वैदिक संस्कृत है और यही तीसरा सिध्दान्त है, जिसको अधिाकांश भाषा विज्ञानवेत्ताा स्वीकार करते हैं। ऐसी अवस्था में दूसरे सिध्दान्त की अप्रौढ़ता अप्रकट नहीं। जितनी बातें पहले कही जा चुकी हैं वे भी कम उपपत्तिा मूलक नहीं हैं।

एक बात और है वह यह कि इण्डो-योरोपियन भाषा की छानबीन के समय भारतीय भाषाओं में से संस्कृत ही अन्य भाषाओं की तुलना मूलक आलोचना के लिए ली गई है, पाली, अथवा मागधाी किम्बा अन्य कोई प्राकृत नहीं, इससे भी संस्कृत की मूल-भाषा-मूलकता सिध्द है। निम्नलिखित पंक्तियाँ इस बात को और पुष्टकरतीहैं-

''यथार्थ वैज्ञानिक प्रणाली से भाषा की चर्चा पहले पहल भारतवर्ष में ही हुई इसके सम्बन्धा में एक अंग्रेज विद्वान् के कथन1 का सारांश यह है कि भारतीयों ने ही सर्वप्रथम भाषा को ही भाषा का रूप दिया। भारतीय ऋषियों ने सैकड़ों वर्ष तक वैदिक तथा लौकिक संस्कृत भाषा को मथकर व्याकरण शास्त्रा का उत्कर्ष विधान किया। पाणिनि का व्याकरण इन गवेषणाओं का ही सार है।'' भाषा विज्ञान (पृष्ठ32)।

योरोप के प्रसिध्द विद्वान् मैक्समूलर क्या कहते हैं। उसे भी सुनिए-

''मानव भाषा समुद्र में देशभाषाएँ द्वीप की भाँति इधार-उधार बिखरी पड़ी थीं वे सब मिलकर महाद्वीप का स्वरूप नहीं धाारण कर पाती थीं। प्रत्येक विज्ञान के

1. "The native grammarians of India had at an early period analysed both the phonetic sounds and vocabulary of Sanskrit with astonishing precision and drawn up for more scientific system of grammar than the philologist of Alexandria or Rome had been able to attain."

इतिहास में यह आपत्तिापूर्ण समय सामने आता है। यदि अचानक वह आनन्द मूलक घटना न घटी होती, जिसने इन बिखरे अंशों को बिजली की तरह चमक कर एक नियंत्रिात रूप से प्रकाश में ला दिया, तो यह अनिश्चित था कि भाषा के विद्यार्थियों का हार्बिज और एडेलंग की भाषा सम्बन्धिानी लम्बी सूचियों में अनुराग बना रहता या नहीं। यह ज्योति दान करने वाली बिजली आर्य जाति की प्राचीन और आदिम भाषा संस्कृत है।''1

1. The languages as have been very bautifully described by Max Muller, floated about "like islands on the ocean of human speech, they did not shoot together to form themselves into larger continent. This is the most critical period in the history of every science, and if it had not been for a happy accident, which like an eletric spark caused the floating elements to crystalize into a regular form it is more than doubtful whether the long list of languages and dialects enumerated and described in the work of Harnes and Adelung could long have sustained the interest of the students of languages. The electric spark was the discovery of Sanskrit the ancient language of the Hindus".


 

 

 

 

 

तृतीय प्रकरण

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अन्य प्राकृतिक भाषाएँ और हिन्दी

मैं पहले लिख आया हूँ, मूल प्राकृत अथवा आर्ष प्राकृत का अन्यतम रूप पाली है, अतएव सबसे प्राचीन अथवा पहली प्राकृत पाली कही जा सकती है। आर्ष प्राकृत में उल्लेख योग्य कोई साहित्य नहीं है, कारण इसका यह है कि आर्ष प्राकृत परिवर्तनशील वैदिक भाषा के उस आदिम रूप का नाम है, जब उसमें देशज शब्दों का मिश्रण आरम्भ हो गया था, उसके शब्द टूटने लग गये थे, और उनका अन्यथा व्यवहार होने लगा था। काल पाकर यह विकृति दृष्टि देने योग्य हो गई, और इतनी बढ़ गई, कि भिन्न रूप में प्रकट हुई। उस समय उसका नाम पाली पड़ा यथासमय यह पाली साहित्य की भाषा भी बनी, और उसका व्याकरण भी तैयार हुआ। कुछ काल तक अनेक विद्वानों का यह विचार था कि गाथा से पाली की उत्पत्तिा हुई और इस गाथा की भाषा ही आर्ष प्राकृत है। परन्तु आजकल यह विचार नहीं माना जाता है। यदि गाथा को वैदिक भाषा और पाली की मधयवर्तिनी मान लें, तो आर्ष प्राकृत में भी साहित्य का अभाव न रह जावेगा, और ऐसी अवस्था में पहली प्राकृत वही होगी,बोल-चाल पर दृष्टि रखकर उसको एक पृथक् भाषा स्वीकार करना पड़ेगा। किन्तु प्राय: विद्वानों ने उसके अन्यतम रूप पाली को ही आदि और सबसे प्राचीन प्राकृत होने का गौरव दिया है, अतएव मैं भी इसको स्वीकार कर लेता हूँ। पाली भाषा का साहित्य बड़ा विस्तृत है। प्राकृत भाषा का पहला व्याकरण पाली में ही है, और वह कात्यायन का बनाया हुआ है। पालिप्रकाशकार कहते हैं-(पृष्ठ 101) कि पाली व्याकरण समूह संस्कृत के आदर्श पर ही रचित है, कात्यायन व्याकरण के अनेक सूत्रा, कातन्त्रा के संस्कृत व्याकरण के सूत्राों के साथ अधिाकतर सम्बन्धा रखते हैं। अनेक सूत्रा उसमें पाणिनि के भी लिये गये हैं। इस दृष्टि से भी पाली भाषा को पहली प्राकृत कहा जा सकता है, क्योंकि वह अधिाकतर संस्कृतानुवर्तिनीहै।

अशोक के जितने स्तम्भ प्राप्त हुए हैं, उनमें से अधिाकांश की भाषा पाली ही है। यद्यपि स्तम्भ के लेखों में कहीं-कहीं भाषा भेद दृष्टिगत होता है, और इसलिए कुछ विद्वानों की सम्मति है कि अशोक के समय में ही पाली भाषा में परिवर्तन होने लग गया था, क्योंकि यह अनुमान किया जाता है कि प्रत्येक स्तम्भ की भाषा उस स्थान की प्रचलित भाषा से सम्बन्धा रखती है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ता है कि उस समय प्रधाानता पाली की ही थी। चाहे वह दो प्रकार की हो, चाहे चार प्रकार की। मैं पहले कह आया हूँ कि पाली का दूसरा नामक मागधाी भी है, यद्यपि यह कथन सर्वसम्मत नहीं, फिर भी अधिाकांश भाषा मर्मज्ञ यही स्वीकार करते हैं। अर्ध्दमागधाी का नाम ही उसको मागधाी का अन्यतम रूप बतलाता है, इसलिए अशोक के जो शिलालेख मागधाी अथवा अर्ध्दमागधाी में लिखे माने जाते हैं, उनको पालीभाषा का रूपान्तर कहना असंगत न होगा। ऐसी अवस्था में शिलालेखों पर विचार करने से भी पाली को ही पहली प्राकृत मानना पड़ेगा।

पाली के अनन्तर हमारे सामने कुछ ऐसी प्राकृत भाषाएँ आती हैं, जिनका नाम देशपरक है। वे हैं, मागधाी,अर्ध्दमागधाी, महाराष्ट्री और शौरसेनी, इनको हम दूसरी प्राकृत कह सकते हैं। यदि हम पाली को ही मागधाी मान लें तो मागधाी के विषय में कुछ लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि पाली को हम पहली प्राकृत कह चुके हैं। किन्तु हमें यह न भूलना चाहिए कि मागधाी नाम देशपरक है, मगधा प्रान्त की भाषा का नाम ही मागधाी हो सकता है, इसलिए यह स्वीकार करना पड़ेगा कि मागधाी की उत्पत्तिा मगधा देश में ही हुई। फिर पाली का नाम मागधाी कैसे पड़ा? इसका उत्तार हम बाद को देंगे,इस समय देखना यह है कि पाली और मागधाी में कोई अन्तर है या नहीं? पालिप्रकाशकार (प्रवेशिका, पृष्ठ 13, 14) लिखते हैं-

''प्राकृत व्याकरण और संस्कृत के दृश्यकाव्य समूह में मागधाी नाम से प्रसिध्द एक प्राकृत भाषा पाई जाती है, आलोच्य पाली से यह भाषा इतनी अधिाक विभिन्न है, कि दोनों की भिन्नता उनके देखते ही प्रकट हो जाती है। पाठकगणों को दोनों मागधाी का भेद जानना आवश्यक है, इसलिए उनके विषय में यहाँ कुछ आलोचना की जाती है। आलोचना की सुविधाा के लिए हम यहाँ पाली को बौध्द मागधाी और दूसरी को प्राकृत मागधाी कहेंगे।''

''प्राकृत लक्षणकार चण्ड ने प्राकृत मागधाी का इतना ही विशेषत्व दिखलाया है, कि इसमें रकार के स्थान पर लकार और सकार के स्थान पर शकार होता है। जैसे-संस्कृत का निर्झर प्राकृत मागधाी में निज्झल होगा, इसी प्रकार माष होगा माश और विलास होगा विलाश। परन्तु बौध्दमागधाी में इनका रूप यथाक्रम, निज्झर, मास, विनास होगा। प्राकृत मागधाी में अकारान्त प्रतिपादित पुल्लिंग के प्रथमा विभक्ति का एक वचन एकारयुक्त होता है, जैसे-माष:-माशे, विलास:-विलासे, निर्झर:-निज्झले। बौध्द मागधाी में इसका रूप यथाक्रम मासो, विनासो और निज्झरो होगा।''

''इसी प्रकार के कुछ और उदाहरण देकर पालिप्रकाशकार लिखते हैं (पृष्ठ 16-17) बौध्दमागधाी और प्राकृत मागधाी में परस्पर और अनेक भेद हैं। बाहुल्य भय से उन सबको पूर्णतया यहाँ नहीं दिखलाया गया। किन्तु जितना दिखलाया गया, उसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि दोनों भाषाएँ परस्पर कितनी भिन्न हैं।''

''मृच्छकटिक नाटक में शकार का अधिाकतर कथन विशुध्द प्राकृत मागधाी में रचित है। प्राकृत मागधाी का मूल शौरसेनी है, इसलिए उसमें शौरसेनी तो मिलती ही है, स्थान-स्थान पर महाराष्ट्री के शब्द भी देखे जाते हैं। इसीलिए कहीं-कहीं शकार की भाषा को अर्ध्दमागधाी कहा गया है। अभिज्ञानशाकुन्तल में रक्षिपुरुष और धाीवर की भाषा प्राकृत मागधाी है। वेणीसंहार नाटक और उदात्ताराघव के राक्षस की भाषा भी प्राकृत मागधाी है। मुद्राराक्षस आदि में भी इसका व्यवहार देखा जाता है। किन्तु प्राय: इसके साथ भिन्न जातीय प्राकृत का सम्मिलन पाया जाता है।''

इन सब बातों को लिखकर पालिप्रकाशकार 18 पृष्ठ में यह लिखते हैं-

''जो कुछ कहा गया, उसको पढ़कर हृदय में स्वभावत: यह प्रश्न उदय होता है, कि 'मागधाी, नाम से प्रसिध्द होकर भी पाली, (बौध्द-मागधाी), एवं प्राकृत मागधाी में परस्पर इतना भेद क्यों है? ये एकही स्थान की भाषाएँ हैं, यह बात इनका साधाारण नाम ही स्पष्टभाव से बतलाता है। तो क्या ये दोनों भाषाएँ, विभिन्न प्रदेशों की हैं? अथवा दोनों के मधय में दीर्घकाल का व्यवधाान होने के कारण एक ही अन्य रूप में परिवर्तित हो गई है। या विस्तृत मगधा प्रदेश के अंश विशेष में एक, और अन्य विभाग में दूसरी प्रचलित थी? इनका परस्पर सम्बन्धा क्या है?''

इन प्रश्नों का 99 पृष्ठ में वे यह उत्तार देते हैं-

''पहले हमने बौध्दमागधाी और प्राकृतमागधाी के स्थान और काल के सम्बन्धा में प्रश्न उठाया था। वह प्रश्न पाठकों के निकट इसी रूप में रहा। विषय इतना गुरुतर है, कि इस सम्बन्धा में मैंने जो अनुसन्धाान किया है, वह इस समय प्रकाश योग्य नहीं है। समयान्तर में मैं इसका उत्तार देने की चेष्टा करूँगा।''

कम से कम इन पंक्तियों को पढ़कर यह तो स्पष्ट हो गया, कि मागधाी दो प्रकार की है, और उनमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है। इन पंक्तियों द्वारा यह भी विदित होता है, कि बौध्दमागधाी ही पाली है, और बुध्ददेव ने इसी भाषा में अपने सिध्दान्तों का प्रचार किया। अशोक के शिलालेख अधिाकतर इसी मागधाी अथवा उसके अन्यतम भेद अर्ध्द-माधी में लिखे पाये जाते हैं। इसलिए यदि पहली प्राकृत हो सकती है तो बौध्दमागधाी। प्राकृत मागधाी को ऐसी अवस्था में दूसरी प्राकृत मान सकते हैं। देशपरक नाम निस्सन्देह बौध्दमागधाी को भी निर्विवाद रूप से पाली मानने का बाधाक है, और इसी विचार से ज्ञात होता है कि एक बौध्द विद्वान् ने मागधाी की यह व्युत्पत्तिा की है, 'सोच भगवा मागधाी मगधो भवत्ताा साच भासामागधाी। इसका यह अर्थ है कि मगधा में उत्पन्न होने के कारण भगवान् बुध्द को मागधा कह सकते हैं, इसलिए उनकी भाषा को मागधाी कहा जा सकता है। किन्तु इस विचार का खंडन यह कह कर किया गया है कि भाषा का नाम देशपरक होता है,व्यक्ति विशेषपरक नहीं। क्योंकि ऐसा कहना अस्वाभाविक और उस प्रत्यक्ष सिध्दान्त का बाधाक है, जिसके आधाार से अन्य देशभाषाओं का नामकरण हुआ। 1

यह बहुत बड़ा विवाद है, अब तक छानबीन हो रही है, इसलिए मैं स्वयं इस विषय में कुछ निश्चितरूप से कहने में असमर्थ हूँ। बंगाल के प्रसिध्द विद्वान् डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी की सम्मति आप लोगों के अवलोकन के लिए यहाँ उध्दृत करता हूँ। वे लिखते हैं-

''महाराज अशोक के समय में एक नई साहित्यिक भाषा भारत से सिंहल में फैली, यह पालि भाषा है। पहले पण्डित लोग सोचते थे कि पाली की जड़ पूर्व में-मगधा में थी, क्योंकि इसका एक और नाम मागधाी है। अब पाली के सम्बन्धा में पण्डितों की राय बदल रही है। अब विचार है कि पाली पूर्व की नहीं, बल्कि पछाँह की-अर्थात् मधय देश की ही बोली थी। वह शौरसेनी प्राकृत का प्राचीन रूप थी। बुध्ददेव के उपदेश पूर्व की बोली प्राच्य प्राकृत में हुए, जो कोशल, काशी और मगधा में प्रचलित थी। फिर वे इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनूदित हुए। मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ, उसका नाम दिया गया 'पाली'। सिंहल में जब इस अनुवाद का प्रचार हुआ, तब वहाँ के लोग भूल से इसे मागधाी के नाम से पुकारने लगे,क्योंकि पाली बुध्द वचन था, और भगवान बुध्द ने मगधा में अपने जीवन का बहुत अंश बिताया। इस कारण बुध्द वचन या पाली से मगधा का संबंधा सोचकर उसका नाम मागधाी रखा। सिंहल से ब्रह्मदेश तथा श्याम और कम्बोज में यह पाली भाषा फैली। इस प्रकार दो हजार वर्ष से पहले मधयदेश की भाषा, बहिर्भारत के बौध्दों की धाार्मिक भाषा बनी''। 2

डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी 'ओरिजन एण्ड डिवलेपमेंट ऑफ दी बंगाली लांगवेज, नामक प्रसिध्द और विशाल ग्रन्थ के रचयिता और आर्यभाषा शास्त्रा के पण्डित हैं, उनको डी. लिट् की उपाधिा भी प्राप्त हो चुकी है, इसलिए उन्होंने जो कुछ लिखा है,उसकी प्रामाणिकता अधिाकतर ग्राह्य एवं निर्विवाद है। परन्तु उनके लेख के कुछ अंश ऐसे हैं, जो तर्करहित नहीं। वे कहते हैं-''बुध्ददेव के उपदेश पूर्व की बोली (प्राच्य प्राकृत) में हुए जो कोशल, काशी और मगधा में प्रचलित थी।'' इसके बाद वे यह लिखते हैं ''फिर वे (उपदेश) इस प्राच्य प्राकृत से और प्राकृतों में अनूदित हुए, मथुरा और उज्जैन की भाषा में जो अनुवाद हुआ उसका नाम दिया गया पाली'' उनके कथन के इन अंगों को पढ़कर यह प्रश्न होता है कि जिस प्राच्य प्राकृत में

1. देखिए पालि प्रकाश, पृ. 13

2. देखो, विशाल भारत, भाग-7, अंक 6 का पृ. 840

बुध्ददेव ने उपदेश दिये उसका क्या नाम था? उसका नाम 'पाली' तो हो नहीं सकता, क्योंकि पालि तो प्राकृत के अनुवाद का नाम है, जो मथुरा और उज्जैन में बोली जाने वाली भाषा (प्राकृत) में हुआ। क्या उसका नाम मागधाी था! निस्सन्देह उसका नाम मागधाी होगा, और उस समय यह भाषा कोशल और काशी में भी बोली जाती होगी। यह बात निश्चित है कि बुध्ददेव ने अपने उपदेश देशभाषा में ही दिये, उनका उपदेश मगधा, कोशल और काशी में ही अधिाकतर हुआ है, इसलिए उनकी भाषा का नाम मागधाी होना ही निश्चित है। बौध्द लोग इसीलिए कहते हैं-

'मागधिाकाय सभाव निरुत्तिाया', अथवा 'सा मागधाी मूलभासा,' इत्यादि।

ऐसी अवस्था में बौध्दमागधाी को ही पहली प्राकृत मानना पड़ेगा, और पाली को स्थानच्युत होना पडेग़ा। आज दिन भी मागधाी और उसके थोड़े परिवर्तित रूप अर्धामागधाी को प्राच्य प्राकृत ही माना जाता है, स्थान भी उनका अब तक वही है जिनका उल्लेख ऊपर हुआ है। अशोककाल के शिलालेख भी अधिाकतर इन्हीं भाषाओं में पाये जाते हैं, इसलिए एक प्रकार से यह बात निर्विवाद रूप से स्वीकृत होती है कि बुध्ददेव ने जिस भाषा में उपदेश दिये, वह मागधाी ही थी। रहा पाली का स्थानच्युत होना, मेरा विचार यह है कि 'पाली' शब्द के नामकरण पर विचार करने से इस जटिल विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ जाता है। पालिप्रकाशकार प्रवेशिका के पृष्ठ 3 में लिखते हैं-

''उल्लिखित उदाहरण समूह द्वारा यह स्पष्टतया ज्ञात होता है कि पाली शब्द से पहले बौध्दधार्मशास्त्रा की पंक्ति अथवा मूलशास्त्रा त्रिापिटक, समझा जाता था। इसके बाद कालक्रम से धीरे-धीरे त्रिापिटक के साथ सम्बध्द अर्थकथा और साक्षात् अथवा परम्परा सम्बन्धा से उससे संबध्द कोई ग्रन्थ ही पाली शब्द से अभिहित होने का सुयोग पा सका होगा। जैसे मूल संहिता और उससे सम्बन्धिात ब्राह्मण ग्रन्थ दोनों ही वेद माने जाते हैं, और जैसे प्राचीन मनु इत्यादिक धार्मशास्त्रा और उससे सम्बध्द आधाुनिक अन्धाकार का ग्रन्थ, दोनों ही स्मृति कहकर गृहीत होते हैं, उसी प्रकार बौध्द साहित्य में पहले त्रिापिटक, उसके उपरांत अर्थ-कथा और तदनन्तर उससे सम्बध्द अपर ग्रन्थ समूह 'पाली' नाम से प्रसिध्द हुए किन्तु जिन ग्रन्थों के साथ'पाली'(त्रिापिटक आदिक) का कोई सम्बन्धा नहीं था, उस समय वे पाली नाम से अभिहित नहीं हुए। केवल ग्रन्थ कहलाकर ही वे परिचित होते थे। मूलशास्त्रा को पाली कहते थे, इसीलिए उसकी भाषा का नाम भी पालिभाषा अथवा कालक्रम से संक्षेप में केवल 'पाली' हुआ। इन सब बातों पर विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पालि-भाषा का आदिम अर्थ 'पाली' की अर्थात् बौध्दधार्म के मूलशास्त्रा की भाषा है।''

ज्ञात होता है कि इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर किसी पाश्चात्य विद्वान ने पाली को कृत्रिाम अथवा साहित्यिक भाषा लिखा है,परन्तु पाली प्रकाशकार उनके इस विचार का खंडन करते हैं, वे प्रवेशिका के पृष्ठ 98 में लिखते हैं-

''किसी पाश्चात्य विद्वान् ने पाली को बिलकुल कृत्रिाम भाषा बतलाया है, किन्तु यह सर्वथा असंगत है, यह कहना ही बाहुल्य है।''

वे ऐसा कहते तो हैं, परन्तु उन्होंने जो पहले स्वयं लिखा है, वही उनके इस उत्तार कथन का विरोधाी है। डॉक्टर चटर्जी महोदय ने जो कथन किया है, उसे आप पहले पढ़ चुके हैं, वे कहते हैं, 'पाली' मथुरा प्रान्त की भाषा है, जो शौरसेनी का पूर्वरूप है, और जिसे भूल से सिंहलवालों ने मागधाी कहा। लेख इच्छा के विरुध्द बहुत विस्तृत हो गया, किन्तु मतभिन्नता का निराकरण न हो सका। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा, कि आदि अथवा पहली प्राकृत वह है, जिसके उपरान्त देशपरक नाम वाली प्राकृतों की रचना हुई। इस पहली प्राकृत को पाली कहिए चाहे बौध्दमागधाी अथवा आर्ष प्राकृत।

देशपरक नाम की दृष्टि से मागधाी को दूसरी ही प्राकृत मानना पड़ेगा, चाहे वह बौध्दमागधाी न होकर प्राकृतमागधाी ही क्यों न हो। ऐसी दशा में बौध्दमागधाी को प्राकृत मागधाी का पूर्वरूप मानना पड़ेगा। जैसा मैं पहले दिखला आया हूँ, उससे यह बात स्पष्ट हो गई है, कि बौध्दमागधाी ही बाद को पाली कहलाई। पाली नाम की कल्पना बौध्दों द्वारा ही हुई है, वे ही इस नाम के उद्भावक हैं, और बौध्दशास्त्रा की पंक्ति उसका आधाार है। यह जान लेने पर यह बात समझ में आ जाती है कि क्यों पाली का पर्यायवाची नाम मागधाी है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि डॉक्टर चटर्जी महोदय का कथन इस उक्ति का विरोधाी है,और जैसा उन्होंने बतलाया है, उससे पाया जाता है, कि वर्तमान काल के विद्वानों का मत ही उनका मत है। तथापि सब बातों पर दृष्टि रखकर यह स्वीकार करना ही पड़ेगा, कि इन दोनों नामों का जो सम्बन्धा है, उसके पक्ष में ही प्रबल प्रमाण है और यह मान लेने से ही सब विचारों का समन्वय हो जाता है, कि बौध्दमागधाी अथवा पाली पहली प्राकृत है, और प्राकृतमागधाी दूसरी प्राकृत।

अर्ध्दमागधाी भी दूसरी प्राकृत है। जो भाषा मगधा प्रान्त में बोली जाती थी वह मागधाी कहलाई, किन्तु काशी और कोशल प्रदेश की भाषा अर्ध्दमागधाी कही गई है। अर्ध्दमागधाी शब्द ही बतलाता है, कि इस भाषा की शब्द सम्पत्तिा इत्यादि का अध्र्दांश मागधाी है। यहाँ प्रश्न यह होगा कि दूसरा अध्र्दांश क्या है? इसका उत्तार क्रमदीश्वर यह देते हैं, ''महाराष्ट्री मिश्रार्ध्द मागधाी, अर्थात् जिस मागधाी में महाराष्ट्री शब्दों का मिश्रण हो गया है, वह अर्ध्दमागधाी है।'' किन्तु मारकण्डेय यह कहते हैं-

''शौरसेन्याविदूरत्वादियमेवार्धामागधाी'' अर्थात् शौरसेनी के सन्निकट होने के कारण इसका नाम अर्ध्दमागधाी है। प्रयोजन यह कि जिस मागधाी पर शौरसेनी का प्रभाव पड़ गया है, वह अर्ध्दमागधाी है। इन दोनों सिध्दान्तों में प्रथम सिध्दान्त के पोषक अधिाक लोग हैं, और वे कहते हैं कि अर्ध्दमागधाी पर अधिाक प्रभाव महाराष्ट्री का ही है। मागधाी भाषा में यदि बौध्दों के धार्मग्रन्थ हैं, तो अर्ध्दमागधाी में जैनों के। वह यदि बुध्ददेव के प्रभाव से प्रभावित है, तो यह महावीर स्वामी के गौरव से गौरवित। कहा जाता है कि अशोक के समय में यदि मागधाी राजभाषा होने के कारण विशेष सम्मानित थी, तो अर्ध्दमागधाी का समादर भी कम न था, पूर्ण सम्मान का अध्र्दांश उसको भी प्राप्त था। अशोक के स्तम्भों पर पाली अथवा मागधाी को यदि स्थान दान किया गया है, तो अर्ध्दमागधाी भी इस सम्मान से वंचित नहीं हुई, अनेक शिलालेख अर्ध्दमागधाी में लिखे पाये गये हैं।

महाराष्ट्री भी देशपरक नाम है, और यह भी दूसरी प्राकृत है। परन्तु स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधारी ने अपने व्याख्यान में लिखा है ''महाराष्ट्री शब्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं किन्तु भारत रूपी महाराष्ट्र से है'' 'प्राकृत प्रकाशकार'वररुचि भी इसी विचार के हैं। किसी समय यह प्राकृत देशव्यापिनी थी, कहा जाता है महाराष्ट्र शब्द से ही, महाराष्ट्री का नामकरण हुआ है। कुछ लोगों ने सर्व प्राकृतों में इसी को प्रधाान माना है, क्योंकि प्राकृत भाषा के व्याकरण रचयिताओं ने उसी के विषय में विशेष रूप से लिखा है। प्राय: व्याकरणों में देखा जाता है कि अन्य प्राकृतों के कुछ विशिष्ट नियमों को लिखकर शेष के विषय में लिख दिया गया है, कि महाराष्ट्री के समान उनका आदेशादि होगा। इसका साहित्य भी विस्तृत है।

शौरसेनी के विषय में श्रीयुत डॉक्टर सुनीतिकुमार चटर्जी महोदय यह लिखते हैं-

''सारे उत्तार भारत में जिस समय प्राकृत या प्रादेशिक बोलियाँ प्रचलित हुईं, उस समय प्रान्तीय प्राकृतों के अन्तर्वेद-विशेषतया ब्रह्मर्षि देश या कुरु पंचाल की प्राकृत शौरसेनी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी। संस्कृत नाटकों के श्रेष्ठ सद्वंशज पात्रा बात करने में इस शौरसेनी ही का प्रयोग करते थे। इससे यह साबित होता है कि प्राकृत युग में शौरसेनी का स्थान क्या था। गाने में महाराष्ट्रीय प्राकृत का प्रयोग था, यह ठीक है, परन्तु इसका कारण्ा इतना ही मालूम होता है कि महाराष्ट्रीय प्राकृत में स्वर बहुत होने से वह शौरसेनी से श्रुतिमधाुर मानी जाती थी, और गाने में शायद इसीलिए लोग इसे अधिाक पसन्द करते थे।''

''ईस्वी सदी के प्रारम्भ से संस्कृत के बाद उत्तार में शौरसेनी भद्र समाज में बोली जाती थी, इसका प्रभाव दूसरी प्राकृत बोलियों पर भी पड़ा। भाषातत्तव के विचार से ग्रियर्सन आदि पण्डितों ने, राजस्थान, गुजरात, पंजाब और अवधा की प्राकृत बोलियों पर शौरसेनी का विशेष प्रभाव स्वीकार किया है। राजस्थानी, गुजराती, पंजाबी और अवधाी के विकास में शौरसेनी ने बहुत काम किया है।''

शौरसेनी की गणना भी दूसरी प्राकृत में ही है, यह कहना बाहुल्य मात्रा है। 'प्राकृत लक्षणकार' 'चण्ड' ने चार प्राकृत मानी है 'प्राकृत', 'अपभ्रंश', 'पैशाचिकी', और 'मागधाी।' प्राकृत लक्षण के टीकाकार षड्भाषा मानते हैं, वे उपर्युक्त चार नामों के साथ संस्कृत और शौरसेनी का नाम और बढ़ाते हैं। वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधाी और शौरसेनी, चार और हेमचन्द्र, 'मूलप्राकृत,शौरसेनी, मागधाी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छ: प्राकृत बतलाते हैं। अधयापक लासेन यह कहते हैं-

''वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधाी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी और मागधाी ही वास्तव में स्थानीय भाषाएँ हैं। इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमांचल के विस्तृत प्रदेश की बोलचाल की भाषा थी। मागधाी अशोक की शिलालिपि में व्यवहृत हुई है, और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय में प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है।''

विश्वकोष , पृ. 438

ऊपर के वर्णन में जहाँ प्राकृतों में केवल 'प्राकृत; और 'मूल प्राकृत' लिखा गया है, मेरा विचार है वहाँ उनका प्रयोग 'आर्य-प्राकृत अथवा पाली के अर्थ में किया गया है। जिनके विषय में पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। अपभ्रंश तीसरी प्राकृत है,उसका वर्णन आगे होगा। शेष रही चूलिका पैशाची उसका वर्णन थोडे में किया जाता है।

''संस्कृत साहित्य में पिशाच शब्द का प्रयोग अधिाकतर दानवों के अर्थ में हुआ है, क्योंकि वे मांसाशी थे, परन्तु वास्तव में भारत के पश्चिमोत्तार में रहने वाली एक विशेष जाति पिशाच कहलाती है। संस्कृत अथवा प्राकृत के वैयाकरणों ने पैशाची को प्राकृत का एक रूप बतलाया है, हेमचन्द्र ने उसका वर्णन विशेषतया किया है, उन्होंने कहा है यह मधय प्रान्त की भाषा थी,और उसका साहित्य भी है। मारकण्डेय ने बृहत्कथा से शब्द उध्दाृत करके यह कहा कि वह केकय प्रान्त की भाषा है,जो भारत के पश्चिमोत्तार में स्थित है। परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि पैशाची वास्तव में उस प्रदेश में बसने वाली पिशाचों की भाषा थी या क्या हेमचन्द्र की पैशाची बिलकुल भारतीय भाषा है, उत्तार पश्चिम की वर्तमान पिशाचभाषा इस प्राकृत से भिन्न है। यह संभव हो सकता है कि पिशाच जब मधयएशिया से आये तो अभारतीय (अर्थात् ईरानियन इत्यादि) विशेषताओं को भूल गये और उन विशेषताओं को सुरक्षित रखा जिससे पैशाची प्राकृत मानी जा सके।

वर्तमान पिशाच भाषाएँ शुध्द भारतीय नहीं हैं, उनमें उच्चारण के बहुत से नियम ऐसे हैं, जो कि इण्डोएरियन भाषाओं से उनको अलग करते हैं। जैसे वर्तमान पिशाची में 'र' का उच्चारण। यद्यपि अन्य विषयों में वे साधाारणत: इण्डोएरियन भाषाओं के समान हैं, तथापि कभी-कभी उनमें ईरानियन विशेषताएँ भी झलक जाती हैं। इनमें से कुछ ईरानी विशेषताएँ ऐसी हैं, कि जिनको देखकर 'कोनो' ने यह विचार प्रकट किया कि पैशाची में वशगली भाषा ईरानी भाषा की वर्तमानकालिक प्रतिनिधिा है। इस बात का विचार करते हुए कि कुल पिशाची भाषाओं में कुछ ईरानियन विशेषताओं का अभाव है, मेरी राय यह है कि पिशाच भाषाएँ न तो शुध्द भारतीय हैं और न शुध्द ईरानियन। शायद उन्होंने इण्डोएरियन भाषाओं की उत्पत्तिा के बाद आर्य-भाषा को,जो उसके माँ-बाप हैं, छोड़ दिया। परन्तु ज्ञात होता है कि अवेस्ता के ईरानियन विशेषताओं के विकास होने के पहले ही ऐसा हुआ। आर. जी. भण्डारकर की राय यद्यपि अन्य शब्दों में प्रकट की गई है, परन्तु उससे भी यही भाव प्रकट होता है। वे कहते हैं, ''यह पैशाची प्राकृत शायद आर्य-जाति की उस शाखा की भाषा है, जो कि अपनी जाति वालों के साथ बहुत दिन तक रही,परन्तु भारत में पीछे आई, और किनारे पर बस गई। या यह भी हो सकता है कि वह अपनी जाति वालों के साथ ही भारत में आई, परन्तु किनारे के पहाड़ी प्रदेशों में स्वतंत्रातापूर्वक बस जाने के कारण अपनी भाषा सम्बन्धाी उच्चारण विशेषताओं का ऐसा ही विकास किया कि जिससे मैदान की सभ्य भाषा से घनिष्ठता प्राप्त कर सकी। इसी कारण उनकी भाषाओं के उच्चारण में वे परिवर्तन नहीं हुए, जो कि संस्कृत से उत्पन्न होने वाली प्राकृतों में हो सके'' अन्त में मैं यह सोचता हूँ कि वर्तमान पिशाच भाषा कुछ विषयों में तलचह भाषा से मिलती-जुलती है, जिससे यह अनुमान होता है कि इसके बोलने वाले अपने वर्तमान स्थान पर भारत के मैदान से नहीं वरन् सीधो पामीर से आये और दूसरे लोग जो कि शुध्द इण्डोएरियन के बोलने वाले थे, भारत के मैदान में पश्चिम से पहुँचे। यदि वास्तविक घटना ऐसी ही है, तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि आर्यों के मुख्य दलों से इनका दल अलग था। 1

तीसरी प्राकृत अपभ्रंश है। संसार परिवर्तनशील है, जैसे यथाकाल उसके समस्त पदार्थों में परिवर्तन होता है, वैसे ही भाषा में भी। मागधाी, अर्ध्दमागधाी, महाराष्ट्री और शौरसेनी में जब अधिाक परिवर्तन हुए, और एक प्रकार से उनका व्यवहार सर्वसाधाारण के लिए असंभव हो गया, तब अपभ्रंश भाषा सामने आई। यह कोई अन्य भाषा नहीं थी, पूर्व कथित भाषाएँ ही बदलकर अपभ्रंश बन गईं। इस समय भारतवर्ष के उत्तारीय प्रदेश और महाराष्ट्र प्रान्त में जितनी आर्य भाषा सम्बन्धिानी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनमें से अधिाकांश भाषाओं का आधाार अपभ्रंश ही है। अपभ्रंश ही रूप बदलकर अब देशभाषा के रूप में विराजमान है। प्राय: यह कहा जाता है कि जब कोई भाषा साहित्यिक हो जाती है, अर्थात् जब उसमें साहित्यिक विशेषताएँ आ जाती हैं, तो वह बोलचाल की भाषा नहीं रह जाती। यह कारण निर्देश युक्तिसंगत नहीं मालूम होता। किसी भाषा का साहित्य में गृहीत हो जाना, उसके बोलचाल से बहिष्कृत होने का हेतु नहीं है। यह प्राकृतिक नियम है कि चिरकाल तक किसी भाषा का एक रूप ही नहीं रहता, विशेष कारणों से उसमें यथासमय ऐसा परिवर्तन हो जाता है, कि वह लगभग उससे इतनी दूर पड़ जाती है, कि उसका उससे कोई सम्बन्धा ही नहीं ज्ञात होता। भाषामर्मज्ञ लोग भले ही सूक्ष्म दृष्टि से उनके पारस्परिक सम्बन्धा

1. Bulletin of the school of Oriental Studies, London Institute (S 36) Hi-74-75.

को देखते रहें, परन्तु यह सम्बन्धा सर्वसाधाारण का बोधागम्य नहीं रह जाता। इसीलिए बोलचाल की भाषा स्वयं उससे अलग हो जाती है, और पूर्ववर्ती भाषा का रूप साहित्य में रह जाता है। ऐसा सहòों वर्ष के उपरान्त ही होता है, परन्तु होता है अवश्य। अपभ्रंश भाषा ऐसे ही परिवर्तनों का फल थी। यह बात स्पष्ट है कि जो भाषा बोलचाल की होती है, जनता की शिक्षा की दृष्टि से बाद को उसमें ही ग्रन्थ-रचना होने लगती है, और धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा ही साहित्य का रूप ग्रहण कर लेती है। अपभ्रंश भाषा भी ज्यों-ज्यों पुष्ट होती गई, त्यों-तयों उसको साहित्यिक रूप मिलने लगा। इस भाषा में बहुत अधिाक साहित्य है।

कोषकारों ने अपभ्रंश का अर्थ कुत्सित अथवा अपभाषा किया है-

एक स्थान से भ्रंश होकर जिसका पतन होता है, वही अपभ्रंश कहलाता है (दे., प्रकृतिवाद, पृ. 42) आर्ष शब्दों के बिगड़ने से ही, प्राकृत-भाषा और अपभ्रंश की उत्पत्तिा हुई है, इसीलिए उनका उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में इसी रूप में किया गया है। गरुड़ पुराण में तो यहाँ तक लिख दिया गया है-

( पूर्व खण्ड 98, 17)

लोकायतं कुतर्क × च प्राकृतं म्लेच्छभाषितम्।

न श्रोतव्यं द्विजेनैतदधाोनयति तद् द्विजम्ड्ड

एक स्थान पर अपभ्रंश के लिए यह लिखा गया है-

आभीरादि गिर: काव्ये अपभ्रंशगिर: स्मृता:।

परन्तु स्वाभाविक नियम का प्रत्याख्यान नहीं हो सकता। अपभ्रंश का बहुत अधिाक प्रचार हुआ और उसमें रचनाएँ भी हुईं। कुछ काल तक उसकी ओर पठित समाज की अच्छी दृष्टि नहीं रही, परन्तु ज्यों-ज्यों उसका प्रसार होता गया, त्यों-त्यों दृष्टिकोण भी बदलता गया, और उसको साहित्य में स्थान मिलने लगा। कुछ विद्वानों का विचार है कि दूसरी शताब्दी में उसकी रचना आरंभ हो गयी थी, और उस काल की कुछ प्राकृत रचनाओं में वह मिलती है, परन्तु अधिाक लोग इस सम्मति को नहीं मानते। इन लोगों का कथन है कि अपभ्रंश की साहित्यिक रचनाएँ छठी शताब्दी से ही प्रारम्भ होती हैं। श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी डॉक्टर ग्रियर्सन के लेखों के आधाार पर बनी अपनी 'हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा' नामक पुस्तक में यह लिखतेहैं-

''छठे शतक में अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। ग्यारहवें शतक के आरंभ तक इस तरह की कविता के प्रमाण मिलते हैं। इस पिछले अर्थात् ग्यारहवें शतक में अपभ्रंश भाषाओं का प्रचार प्राय: बन्द हो चुका था।''

''सम्वत् 990 में देवसेन नामक एक जैन ग्रन्थकार हो गये हैं, दोहों में उनके बने दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, एक का नाम है'श्रावकाचार' और दूसरे का 'दब्बसहावपयास' इन दोनों ग्रन्थों की भाषा अपभ्रंश कही जा सकती है। अपभ्रंश की अधिाकांश रचना दोहों में ही मिलती है।

बौध्दमत के महायान सम्प्रदाय की एक 'सहजिया' नामक शाखा है, यह शाखा विक्रमी चौदहवें शतक में मौजूद थी, उसकी पुरानी पोथियों का संग्रह महा. म. श्रीहर प्रसाद शास्त्राी ने ''बौध्दगानओ दोहा'' नाम से निकाला है, उसमें कन्ह और सरह के दोहे अपभ्रंश भाषा में लिखे गये प्रतीत होते हैं।

हेमचन्द्र प्राकृत भाषा के बहुत बड़े वैयाकरण हो गये हैं, वे विक्रमी बारहवें शतक में मौजूद थे, उन्होंने 'सिध्दहेमचन्द्र शब्दानुशासन', नामक प्राकृत भाषा का एक बड़ा व्याकरण बनाया है, उसमें अपभ्रंश भाषा के अनेक दोहे उदाहरण में लिखे गये हैं, उन दोहों में से कुछ उनके पहले के भी हैं।'

विक्रमी तेरहवें शतक में (1241) सोमप्रभसूरि नामक एक जैन विद्वान् ने 'कुमार प्रतिबोधा' नामक एक ग्रन्थ लिखा है,उसमें भी अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं, जिनमें से कुछ उनके बनाये हैं और कुछ प्राचीन हैं।

विक्रमी चौदहवें शतक (1361) में जैनाचार्य मेरुतुंग ने 'प्रबन्धाचिन्तामणि' नामक एक संस्कृत ग्रन्थ बनाया, इसमें भी बीच-बीच में अपभ्रंश भाषा के दोहे मिलते हैं। स्थान-स्थान पर मालवराज मुंज के रचे अपभ्रंश दोहे भी इसमें देखे जाते हैं।

नलसिंह भट्ट भी चौदहवें शतक में हुआ है, इसका बनाया 'विजयपाल रासो' अपभ्रंश में लिखा गया है। पन्द्रहवें शतक में मैथिल कोकिल विद्यापति ने भी दो ग्रन्थ अपभ्रंश भाषा में लिखे, 'कीर्तिलता', एवं 'कीर्तिपताका' परन्तु इनकी रचनाओं में उनके समय में प्रचलित देश-भाषा का ढंग भी पाया जाता है, उसमें प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्द भी मिल जाते हैं, जो प्राकृत परम्परा के विरुध्द हैं।''1

इन अवतरणों से पाया जाता है कि ग्यारहवें शतक में ही अपभ्रंश का व्यवहार बन्द नहीं हो गया था, वरन चौदहवें शतक तक चलता रहा, और पन्द्रहवें शतक में भी उसमें पुस्तकें लिखी गईं, चाहे उनकी संख्या कितनी ही अल्प क्यों न हो। यह मैं पहले लिख आया हूँ कि इस समय जितनी भाषाएँ भारतवर्ष में आर्य परिवार की बोली जाती हैं, वे प्राय: अपभ्रंश से ही विकसित हुई हैं, अब मैं उनका उल्लेख पृथक्-पृथक् डा. जी. ए. ग्रियर्सन की सम्मति के अनुसार करता हँ। इधार जो आविष्कार हुए हैं,अथवा जो छानबीन की गई है, बाद को उनका उल्लेख भी करूँगा।

सिन्धा नदी के आसपास जो प्रदेश हैं, उसमें ब्राचड़ा नाम की अपभ्रंश भाषा प्रचलित थी, आधाुनिक सिन्धाी एवं लहँड़ा की उत्पत्तिा उसी से हुई। कोहिस्तानी और काश्मीरी भाषा किस अपभ्रंश से निकली, यह पता नहीं, परन्तु ब्राचड़ा अपभ्रंश से वह अवश्य प्रभावित होगी।

1. देखो, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ-7, ता. 17

दाक्षिणात्य प्रदेश में बोली जाने वाली भाषाओं का सम्बन्धा वैदर्भी और महाराष्ट्री अपभ्रंश से बतलाया जाता है, इसी प्रकार उत्कली अपभ्रंश उड़िया भाषा की जननी कही जाती है।

मागधाी अपभ्रंश मगही आदि वर्तमान बिहारी भाषाओं का आधाार है, यही मागधाी बंगाल में पहुँचकर प्राच्या अथवा गौड़ी कहलाई, और उसी के अपभ्रंश से बंगला भाषा और आसामी की उत्पत्तिा हुई। मागधा अपभ्रंश का बड़ा विस्तृत रूप देखा जाता है, उत्कल अपभ्रंश भी उसी के प्रभाव से प्रभावित है, और पूर्व में ढक्की भाषा पर भी उसका अधिाकार दृष्टिगत होता है। वह उत्तार दक्षिण और पूर्व में ही नहीं बढ़ी, उसने पश्चिम में भी अपना विकास दिखलाया और अर्ध्दमागधाी कहलाई। जिसके अपभ्रंश ने अवधाी, बघेलखंडी, और छत्ताीसगढ़ी का सृजन किया।

पश्चिमी भारत की वर्तमान भाषाओं का सम्बन्धा नागर अपभ्रंश से है, उसका एक रूप शौरसेनी है और दूसरा आवन्ती। शौरसेनी का विस्तार पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी में देखा जाता है और आवन्ती का प्रभाव राजस्थानी और गुजराती में। कहा जाता है पंजाब से लेकर नेपाल तक के पहाड़ी प्रदेशों में जो भाषा इस समय बोली जाती है, उसका सम्बन्घ भी उज्जैन प्रान्त की आवन्ती भाषा के अपभ्रंश से ही है, क्योंकि राजस्थानी भाषाओं का जनक वही है, और राजस्थानी भाषाओं का ही अन्यतम रूप इन पहाड़ी भाषाओं में पाया जाता है।

श्रीयुत् डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी महोदय इस अपभ्रंश भाषा के विषय में क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए1&

''ईस्वी प्रथम सहò वर्षों के बीच में प्राचीन भारतवर्ष में एक नवीन राष्ट्र या साहित्यिक भाषा का उद्भव हुआ। यह अपभ्रंश भाषा थी, जो शौरसेनी प्राकृत का एक रूप थी। अपभ्रंश भाषा-अर्थात् यह शौरसेनी अपभ्रंश पंजाब से बंगाल तक और नेपाल से महाराष्ट्र तक साधाारण शिष्ट भाषा अैर साहित्यिक भाषा बनी। लगभग ईस्वी सन् 800 से 13 या 14 सौ तक शौरसेनी अपभ्रंश का प्रचारकाल था। गुजरात और राजपूताने के जैनों के द्वारा इसमें एक बड़ा साहित्य बना। बंगाल के प्राचीन बौध्द सिध्दाचार्यगण इसमें पद रचते थे, जो अन्त में भोट (तिब्बती) भाषा में उल्था किये गये। इसके अतिरिक्त भारत में इस अपभ्रंश में एक विराट लोकसाहित्य बना। जिसके टूटे-फूटे पद और गीत आदि हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण और प्राकृत पिंगल और छन्दोग्रन्थ में पाये जाते हैं। शौरसेनी अपभ्रंश की प्रतिष्ठा के कई कारण थे।ईस्वी प्रथम सहòक की अन्तिम सदियों के राजपूत राजाओं की सभा में यह भाषा बोली जाती थी, क्योंकि यह भाषा उसी समय मधयदेश और उसके संलग्न प्रान्तों में-आधाुनिक पछाँह में-साधाारणत: घरेलू भाषास्वरूप में इस्तेमाल होती थी। द्वितीय कारण यह है कि इस समय गोरखपंथी आदि अनेक हिन्दू समुदाय के गुरु लोग जो पंजाब और

1. देखिए, विशाल भारत, भाग-7, अंक 6, पृ. 841

हिन्दुस्तान से नवजाग्रत हिन्दू धार्म की वाणी लेकर भारत के अन्य प्रदेशों में गये, वे भी इसी भाषा को बोलते थे, इसमें पद आदि बनाते थे, और इसी में उपदेश देते थे। उसी समय उत्तार भारत के कन्नौजिया आदि ब्राह्मण बंगाल आदि प्रदेश में ब्राह्मण आचार और संस्कृति ले उपनिविष्ट हुए। इन सब कारणों से आज से लगभग एक हजार साल आगे, जिसे हम हिन्दी का पूर्व रूप कह सकते हैं, वही शौरसेनी अपभ्रंश, ठीक उसी प्रकार जैसे आजकल हिन्दी राष्ट्रभाषा बनी है, एक राष्ट्रीय साहित्यिक तथा धाार्मिक भाषा हुई थी।''

अब तक जो कुछ लिखा गया, उससे यह बात प्रकट हुई कि किस प्रकार प्राचीन संस्कृत अथवा वैदिक भाषा से प्राकृत भाषाओं की उत्पत्तिा हुई, और फिर कैसे प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश भाषाओं का उद्भव हुआ। यह भी बतलाया जा चुका है, कि अपभ्रंश भाषाओं का परिवर्तित रूप हीर् वत्तामानकालिक बोलचाल की भाषाएँ हैं, जो आजकल भारतवर्ष के अधिाकांश भाग में बोली जाती हैं। हमारी हिन्दी भाषा उन्हीं भाषाओं में से बोलचाल की एक भाषा है। अपना पूर्वरूप बदलकर वहर् वत्तामान रूप में हमारे सामने है। उसका पूर्व रूप क्या था, उसकी कुछ रचनाएँ देखिए-विदग्धा मुखमण्डनकार ने अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलाई है-

रसि अह केण उच्चाडण किज्जइ।

जुयदह माणस केण उविज्जइ।

तिसिय लोउ खणि केण सुहिज्जइ।

एह पहो मह भुवणे विज्जइ।

रसिकों का उच्चाटन किस प्रकार किया जा सकता है, युवतियों का मन किस प्रकार उद्विग्न होता है, तृषितलोक क्षणभर में किस प्रकार सुखी बनाया जा सकता है, हमारा यह प्रश्न भुवन को विदित हो।

रसिअह = रसिकों, केण = क्यों, उच्चाडण = उच्चाटन, किज्जइ = किया जाय, जुयदह = युवति, माणस = मानस,उविज्जइ = ऊबना, तिसिय = तृषित्, लोउ = लोक, खणि = क्षण, सुहिज्जइ = सुखित, एह = यह, पहो = पश्न, मह = मम,भुवणे = भुवने, विज्जइ = विदित।

वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का यह उदाहरण दिया है-

बाह विछोड़वि जाहि तुइँ हऊँ तेवइँ को दोसु।

हिय पट्टिय जद नीसरहिं जाणउँ मुंज सरोसुड्ड

बिछोड़वि = छुड़ाना, जाहि = जाते हो, तुइँ = तू, हऊँ = हौं = हम, तेवइँ = तिवई = त्रिाया, को = कौन, दोसु = दोष,पट्टिय = पट्टी, जद = यदि, नीसरहिं = निकले, जाणउँ = जानूँ, सरोसु = सरोष।

ज्ञात होता है हिन्दी भाषा का निम्नलिखित दोहा, इसी पद्य को आधाार मानकर रचा गया है, देखिए दोनों में कितना साम्य है-

बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि कै मोहि।

हियरे सों जब जाहुगे सबल बखानौं तोहि।

दोनों दोहों का भाव लगभग एक है, परन्तु शब्द विन्यास में अन्तर है। पहले दोहे के जितने शब्द हैं, सभी परिचित से ज्ञात होते हैं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं, जो अब तक हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, विशेष कर ब्रजभाषा की कविता में।

एक पद्य और देखिए-

अग्गिएं उण्हउ होइ जगु वाएं सीअलु तेंव।

जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उणहत्ताणु केंंव।

जग अग्नि से ऊष्ण और वायु से शीतल होता है। जो अग्नि से शीतल होता है, वह फिर ऊष्ण कैसे होगा।

अग्गिएं = अग्नि से, उण्हउ = ऊष्ण, होइ = होता है, जगु = जगत, वाएँ = वायु, सीअलु = शीतल, तेंव =त्यों, पुणु = पुनि, तसु = सो, केवँ = क्यों, उण्हत्ताणु = ऊष्ण।

अपभ्रंश भाषा की रचनाओं को पढ़कर उसके शब्दों का मैंने जो अर्थ लिख दिया है, उनको देखकर आप लोगों को यह ज्ञात हो जावेगा कि किस प्रकार हिन्दी का विकास अपभ्रंश भाषा से धीरे-धीरे हुआ। इस समय हिन्दी भाषा का रूप बहुत विस्तृत है,उसका प्रचार बिहार से पंजाब तक और हिमालय से मधयप्रदेश तक है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर दूसरी प्राकृतों के अपभ्रंश का कुछ प्रभाव नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि उसकी उत्पत्तिा शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। चिरकाल तक हिन्दी भाषा का परिचय केवल भाषा कहकर ही दिया जाता रहा। हिन्दी भाषा के प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में उसका भाषा नाम ही मिलता है, गोस्वामी जी रामायण में लिखते हैं 'भासाभणित मोर मत थोरी', अब भी पुराने विचार के लोग और प्राय: संस्कृत के पण्डित उसे भाषा ही कहते हैं। नागरी यद्यपि लिपि है, परन्तु पहले क्या अब भी बहुत से लोग हिन्दी को नागरी कहते हैं, और नागरी शब्द को हिन्दी का पर्यायवाची शब्द मानते हैं। परन्तु हिन्दी-संसार का पठित समाज कम से कम पचास वर्ष से उसको'हिन्दी' ही कहता है, और साधाारणतया हिन्दी-संसार क्या अन्यत्रा भी अब वह इसी नाम से परिचित है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि इस हिन्दी नाम की कल्पना क्या आधाुनिक है! वास्तव में यह कल्पना आधाुनिक नहीं है, चिरकाल से उसका यही नाम है परन्तु यह सत्य है कि इस नाम के प्रयोग में भ्रान्ति होती आई है और अब भी कभी-कभी वह अपना प्रभाव दिखलाये बिना नहीं रहती। मुसलमान जब भारतवर्ष में आये, और उन्होंने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधाानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रा से उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नामकरण करना पड़ा। क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वह वास्तव में फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिए उन्होंने देशभाषा का नाम 'हिन्दी' रखा। यह नाम रखने का हेतु यह भी हुआ कि वे भारतवर्ष को 'हिन्द' कहते थे, इसलिए इस देश की भाषा को उन्होंने 'हिन्दी कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द ही से हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है। यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्तिा करते हैं परन्तु बहुमान्य सिध्दान्त यही है कि 'हिन्द' शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है क्यों यह सिध्दान्त बहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहाँ उठाता हूँ-

''हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस-नस में आनन्द की धाारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता। हिन्दू शब्द से ही हिन्दी का सम्बन्धा नहीं है-वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है-हिन्द शब्द देशपरक है, और भारतवर्ष का पर्यायवाची शब्द है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्धा माना जावे तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं। आज दिन हिन्दू शब्द ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्रा है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धान में बाँधाता है। आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दूनाम, यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य-सलिला-सुरसरी जल-विधाौत, सप्तपुरी-पावन-रजकणपूत और पुनीत वेद मंत्राों द्वारा अभिमंत्रिात है, क्या अब भी उसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यह सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतन्त्रा का ''हीनश्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिय'' और शिव रहस्य का ''हिन्दू धार्म प्रलोप्तारोभविष्यन्ति कलौयुगे'' आधाुनिक श्लोक खंड हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम नहीं स्वीकार कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दवरदाई ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले, अपने निम्नलिखित पद्य में हिन्दुवान, शब्द का प्रयोग न करता। वह लिखता है-

'' हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुँआन अब ''

वास्तव बात यह है कि फारस-निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं अब से लगभग पाँच सहò वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दावस्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उसकी 163वीं आयत यह है-

'' चूं व्यास ' हिन्दी , बलख़ आमद '

गुस्तास्पजरतुश्तरा बख्वाँद ''

यह हिन्द नाम सिन्धाु के सम्बन्धा से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा 'स' 'ह' हो जाता है, जैसे सप्त से हफ्त, असुर से अहुर, सोम से होम बना वैसे ही सिंधा से हिंधा अथवा हिन्द बन गया और इसी हिन्द से ही हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्तिा है,जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्डियन की। जब मुसलमान जाति विजेता बनकर भारत में आई, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द सर्वसाधाारण में गृहीत हो गया। इस सीधाी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफ़िर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित औरअसंगतहै।''

डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-

''यूरोपियन लेखकों ने 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग बड़ी लापरवाही के साथ किया है। यह फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है,भारत का अथवा भारत से सम्बन्धा रखने वाला। परन्तु लोग इसका सम्बन्धा हिन्दू शब्द से बतलाते हैं, जो ठीक नहीं। पुराने समय में भी मधयभारत की भाषा, भारत में सबसे महत्तव की होती थी। यह स्थानीय भाषा नहीं है, वरन् एक प्रकार से'हिन्दुस्तानी' है-जो कि उत्तारी और पश्चिमी भारत के बोल-चाल की भाषा है''1 मुसलमान लोग हमारी देश भाषा को बहुत पहले से हिन्दी कहते आये हैं, इसका प्रमाण खुसरो की रचनाओं में मौजूद है। खुसरो ईस्वी तेरहवें शतक में हुए हैं-उन्होंने हिन्दी भाषा में भी रचना की है। हिन्दुओं को फारसी सिखलाने के लिए उन्होंने खालिकवारी नाम की एक पुस्तक लिखी है, उसमें वेकहतेहैं-

मुश्क काफ़ूरस्त कस्तूरी कपूर।

' हिन्दवी , आनन्द शादी औसरूर।

सोजनो रिश्ता व हिंदी सूई ताग। '

सका अर्थ हुआ मुश्क को कस्तूरी, काफ़ूर को कपूर, शादी और सरूर को आनन्द, एवं सोजन और रिश्ता को हिन्दी में सूई तागा कहते हैं।

अपनी हिन्दी रचना में एक जगह वे यह कहते हैं-

1. The term "Hindi" is very laxly exmployed by European writers. It is Persian word, and properly means "of or belonging to India," as opposed to "Hindu," a person of the Hindu religion...As also was the case in ancient times the language of this tract (i.e. Madhyadesha) is by for the most important of any of the speeches of India. It is not only a local vernacular, but in one of its forms, "Hindustani," it is spoken over the whole of the north and west of continental India as a lingua franca...'-Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute. p.p. 50-5 (§6)

फारसी बोली आईना। तुर्की ढूँढी पाईना।

' हिन्दी , बोली आरसी आए। खुसरो कहे कोई न बताये। '

इसका अर्थ हुआ फारसी में जिसे आईना कहते हैं, हिन्दी में उसको आरसी। मलिक मुहम्मद जायसी भी हिन्दी को हिन्दवी ही कहते हैं-

तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।

जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि।

इन पद्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अब से छ:-सात सौ बरस पहले से हमारे मधयवर्ती देश की भाषा हिन्दी कहलाती है। परन्तु यह अवश्य है कि हिन्दुओं में यह नाम बहुत पीछे गृहीत हुआ है, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ। पहले हिन्दवी अथवा हिन्दुई को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। हिन्दुई शब्द गँवारी बोलचाल अथवा साधाारण कोटि की भाषा के लिए प्रयुक्त होता था। इसीलिए उच्च हिन्दी अथवा उसकी साहित्यिक रचनाओं का नाम भाषा था। परन्तु जब यह भाषा बहुत व्यापक हुई,और उसमें अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थ निर्मित हुए, सुदूर प्रान्तों से सुन्दर-सुन्दर समाचार-पत्रा निकले, तब विचार बदला और उस समय से हिन्दी भाषा कहकर ही उसका परिचय दिया जाने लगा। आज दिन तो हिन्दी अपने नाम के अर्थानुसार वास्तव में हिन्द की भाषा बन रही है।


 

 

 

 

 

चतुर्थ प्रकरण

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आर्य्य भाषा परिवार

हिन्दी के विकास के विषय में और बातों के लिखने के पहिले यह आवश्यक जान पड़ता है कि आर्यभाषा परिवार की चर्चा की जावे। क्योंकि इससे हिन्दी सम्बन्धाी बहुत-सी बातों पर प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने लन्दन के एक बुलेटिन में इस विषय पर एक गवेषणापूर्ण लेख सन् 1918 में लिखा है, उसी के आधाार से मैं इस विषय को यहाँ लिखता हूँ, कुछ और ग्रन्थों से भी कहीं-कहीं सहायता ली गई है।

भारत की भाषाओं के तीन विभाग किये जा सकते हैं, वे तीन भाषाएँ ये हैं-

1.आर्य भाषाएँ, 2. द्रविड़ भाषाएँ, 3. और अन्य भाषाएँ। अन्य भाषाओं के अन्तर्गत मुण्डा और तिब्बत वर्मन भाषाएँ हैं,द्रविड़ भाषा मुख्यत: दक्षिण में बोली जाती है। आर्यभाषा उत्तारी मैदानों में फैली हुई है, गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्त में भी उसका प्रचलन है, उसके अन्तर्गत अधिाकांश पहाड़ी भाषाएँ भी हैं। हिन्दूकुश के दक्षिणी पहाड़ी देशों में एक चौथी भाषा भी पाई जाती है, जिसको डार्डिक अथवा वर्तमानकालिक पिशाचभाषा कहते हैं।

1. मधयदेशीय भाषा उत्तारीय भारत के मधय में और उसके चारों ओर फैली हुई है, साधाारणतया यह पश्चिमी हिन्दी कहलाती है। बाँगड़ई, ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुन्देलखंडी भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। बाँगड़ई या हरियानी यमुना के पश्चिम में पूर्व दक्षिणी पंजाब की भाषा है, यह मिश्रित भाषा है, जिसमें हिन्दी, पंजाबी और राजस्थानी सम्मिलित हैं। ब्रजभाषा मथुरा के चारों ओर और गंगा दोआबा के कुछ भागों में बोली जाती है, इसका साहित्य भण्डार बड़ा विस्तृत है। कन्नौज के आसपास और अन्तर्वेद में कन्नौजी भाषा का प्रचलन है, यह भाषा उत्तार में नेपाल की तराई तक फैली हुई है, इसमें और ब्रज भाषा में बहुत थोड़ा अन्तर है। बुन्देलखंड की बोली बुन्देली है, जो दक्षिण में नर्मदा की तराई तक पहुँचती है, यह भाषा भी ब्रजभाषा से बहुत मिलती है।

पश्चिमी हिन्दी का एक रूप वह शुध्द हिन्दी भाषा है, जो मेरठ और दिल्ली के आसपास बोली जाती है, इसको हिन्दुस्तानी भी कहते हैं। गद्य हिन्दी साहित्य और उर्दू रचनाओं का आधाार आजकल यही भाषा है, आजकल यह भाषा बहुत उन्नत अवस्था में है, और दिन-दिन इसकी उन्नति हो रही है। इसका पद्यभाग उर्दू सम्बन्धाी तो बहुत बड़ा है, परन्तु हिन्दी में भी आजकल उसका विस्तार बढ़ता जाता है। अधिाकांश हिन्दी भाषा की कविताएँ आजकल इसी भाषा में हो रही हैं, इसको खड़ी बोली कहा जाता है।

बाँगड़ई जिस प्रान्त में बोली जाती है, उस प्रान्त का नाम बाँगड़ा है, इसी सूत्रा से उसका यह नामकरण हुआ है। हरियाना प्रान्त में इसे हरियानी कहते हैं-करनाटक में यह जाटू कही जाती है, क्योंकि जाटों की वह बोलचाल की भाषा है।

कन्नौजी में साहित्य का अभाव है, इसलिए दिन-दिन यह भाषा क्षीण हो रही है, और उसका स्थान दूसरी बोलियाँ ग्रहण कर रही हैं। बुन्देलखंडी भाषा में कुछ साहित्य है, परन्तु ब्रजभाषा का ही उस पर अधिाकार देखा जाता है। साहित्य की दृष्टि से इन सब में ब्रजभाषा का प्राधाान्य है, जो कि शौरसेनी की प्रतिनिधिा है।

'पंजाबी' हिन्दीभाषा के उत्तार-पश्चिम ओर है, और इसका क्षेत्रा पंजाब है। पूर्वीय पंजाब में हिन्दी है, और पश्चिमी पंजाब में लहँड़ा, जो बहिरंग भाषा है। पंजाबी के वर्ण राजपूताने के महाजनी और काश्मीर के शारदा से मिलते-जुलते हैं इसमें तीन ही स्वर वर्ण हैं। व्यंजन वर्ण भी स्थान-स्थान पर कई ढंग से लिखे जाते हैं। गुरु अंगदजी ने इसका संशोधान ईस्वी सोलहवें शतक में किया, उसी का परिणाम 'गुरुमुखी' अक्षर हैं। अमृतसर के चारों ओर उच्च-पंजाबी भाषा बोली जाती है। यद्यपि स्थान-स्थान पर उसका कुछ परिवर्तित रूप मिलता है, पर वास्तव में भाषा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। 'डोगरी' जम्मूस्टेट और कुछ परिवर्तन के साथ काँगड़ा जिले में बोली जाती है। पंजाबी साहित्य कम है। दोनों ग्रन्थसाहब यद्यपि गुरुमुखी अक्षरों में लिखे हैं,परन्तु उनकी भाषा पश्चिमी हिन्दी है, कोई-कोई रचना ही पंजाबी भाषा में है। पंजाबी भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य नहीं है,यद्यपि शनै:शनै: उसमें संस्कृत तत्सम का प्रयोग अधिाकता से होने लगा है।

पंजाबियों की यह सम्मति है कि अमृतसर जिले की माझी बोली ही ऐसी है, जिसमें पंजाबी का ठेठ रूप पाया जाता है। मुसलमानों ने गुजरात और गुजरानवाला में बोली जाने वाली पंजाबी के आधाार से अपने साहित्य की रचना की है। इनकी भाषा हिन्दू लेखकों की अपेक्षा अधिाक ठेठ है। इनकी भाषा में पश्चिमी हिन्दी का रंग भी पाया जाता है, इस भाषा में अब भी साहित्य की रचना होती है, इस मिश्रित भाषा का पुराना साहित्य भी मिलता है।

मौलवियों और पादरियों ने भी अपने धार्म का प्रचार करने के लिए पंजाबी भाषा में रचना की है, इनमें से अब्दुल्ला आसी का बनाया हुआ 'अनवाअ वाराँ' बहुत प्रसिध्द है।

मुसलमानों ने कुछ जंगनामे और यूसुफजुलेखा की कहानी भी पंजाबी भाषा में पद्यबध्द की है। हीर राँझे की प्रसिध्द कथा भी पंजाबी पद्य का सुन्दर ग्रन्थ है, इसकी रचना सय्यद वारिस शाह ने की है, इसकी भाषा ठेठ पंजाबी समझी जाती है।

पंजाबी के दक्षिण में 'राजस्थानी' है, राजस्थानी द्वारा हिन्दी दक्षिण पश्चिम में फैली, हिन्दी 'राजस्थानी' के क्षेत्रा में पहुँचकर गुजरात के समुद्र तक बढ़ी और वहाँ गुजराती बन गई। इसीलिए राजस्थानी और गुजराती बहुत मिलती हैं। राजस्थानी में कई भाषाएँ अथवा बोलियां हैं, परन्तु उनके चार मुख्य विभाग हैं। उत्तार में 'मेवाती' दक्षिण पूर्व में 'मालवी' पश्चिम में ''मारवाड़ी''और मधयप्रदेश में 'जयपुरी' का स्थान है। प्रत्येक की बहुत-सी उपभाषाएँ हैं। 'दो महत्तवपूर्ण विशेषताओं के कारण 'मारवाड़ी'और 'जयपुरी' में भेद है। 'जयपुरी' में सम्बन्धाकारक का चिद्द 'हो' और क्रिया का पुराना धाातु 'अछ' है। परन्तु 'मारवाड़ी' में सम्बन्धाकारक का चिद्द 'रो' और 'है' धाातु है। गुजराती में कोई निर्देश योग्य अवान्तर भेद नहीं है, परन्तु उत्तारी गुजराती दक्षिणी गुजराती से मुख्य बातों में भेद रखती है। 'राजस्थानी' का स्थान समस्त राजपूताना और उसके आसपास के कुछ विभाग हैं, और गुजराती का स्थान गुजरात और काठियावाड़ हैं, जिनका प्राचीन नाम सौराष्ट्र है।

राजस्थान की बोलियों में 'मारवाड़ी' और 'जयपुरी' ही ऐसी हैं, जिनमें साहित्य पाया जाता है, 'मारवाड़ी' का साहित्य प्राचीन ही नहीं विस्तृत भी है। जिस मारवाड़ी भाषा में कविता लिखी गई है उसे 'डिंगल' कहते हैं, इसमें चारणों की ओजस्विनी रचनाएँ हैं। 'जयपुरी' में दादूदयाल और उनके शिष्यों की वाणियाँ हैं और इस दृष्टि से उसका साहित्य भी मूल्यवान है। ब्रजभाषा की कविता को पिंगल कहते हैं, उससे भेद करने के लिए ही 'डिंगल' नाम की कल्पना हुई है।

गुजराती साहित्य बड़ा विस्तृत है, इसके निर्माण में जैन साधाुओं ने भी हाथ बँटाया है, उन्होंने धाार्मिक ग्रन्थ ही नहीं लिखे, बड़े-बड़े काव्यों की भी रचना की है, जिन्हें रासो अथवा रास कहते हैं। गुजराती साहित्य में पारसी और मुसलमानों की भी रचनाएँ मिलती हैं, परन्तु उनमें फारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिाकतर हुआ है। गुजराती भाषा के प्रतिष्ठित और अधिाक प्रसिध्द कवि नरसिंह मेहता हैं, जो ईस्वी पन्द्रहवें शतक में हुए हैं। ये जाति के नागर ब्राह्मण थे, इनकी रचना भावपूर्ण ही नहीं भक्तिमयी भी है।

मधयप्रदेश के पूर्व में पूर्वी हिन्दी है। पूर्वीय हिन्दी पर मधयप्रदेशीय अथवा पश्चिमी हिन्दी का प्रभाव बराबर पड़ता रहा है। साथ ही बाहरी भाषाओं के संसर्ग से भी वह नहीं बची, इसलिए उस पर दोनों का अधिाकार देखा जाता है। साधाारणत: इसकी संज्ञाओं और विशेषणों का रूप पूर्व की बहिरंग भाषाओं से मिलता-जुलता है, और क्रियाओं एवं धाातुओं का रूप मधयदेशीय हिन्दी से। पूर्वीय हिन्दी में तीन प्रधाान भाषाएँ हैं। 'अवधाी', 'बघेली' और 'छत्ताीसगढ़ी'। अवधाी को बैसवाड़ी भी कहते हैं,यह भाषा अवधा के दक्षिण पश्चिम में बोली जाती है। कहा जाता है यह बैसवाड़ी राजपूतों की भाषा है। अवधाी का दूसरा नाम'कोशली' है। अवधाी और बघेली में बहुत कम अन्तर है। छत्ताीसगढ़ी पहाड़ी भाषा है, और अधिाक स्वतंत्रा है, उस पर कुछ उत्कल भाषा का प्रभाव भी पाया जाता है। यदि पश्चिमी हिन्दी की ब्रजभाषा भगवान् कृष्णचन्द्र की गुण गाथाओं से पूर्ण है, तो पूर्वी हिन्दी की अवधाी भगवान् रामचन्द्र के कीर्तिकलाप से उद्भासित है। यदि पश्चिमी हिन्दी के सर्वमान्य महाकवि प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी हैं, तो पूर्वी हिन्दी के सर्वोच्च महाकवि गोस्वामी तुलसीदास है। यदि उन्होंने प्रेमसिध्दान्त की पराकाष्ठा अपनी रचनाओं में दिखलायी, तो इन्होंने भक्तिरस की वह धाारा बहाई जिससे समस्त हिन्दी-संसार आप्लावित है। अवधाी भाषा के मलिक मुहम्मद जायसी भी आदरणीय कवि हैं, उनका 'पर्ािंवत' अवधाी भाषा का बहुमूल्य ग्रन्थ है, उसमें अधिाकतर बोलचाल की भाषा का प्रयोग देखा जाता है, अवधाी भाषा में कुछ और ग्रन्थ भी पाये जाते हैं, परन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है। कबीर साहब को भी अवधाी भाषा का कवि माना जाता है, उन्होंने स्वयं लिखा है, 'बोली मेरी पुरुब की' परन्तु उनकी रचनाओं के देखने से यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। उनके पद्यों की विचित्रा भाषा है, उसमें किसी भाषा का वास्तविक रूप नहीं दिखलाई देता। नागरी प्रचारिणी सभा से जो उनकी ग्रन्थावली निकली है, और जो उनके समय में लिखित पुस्तक के आधाार से सम्पादित हुई है, उसमें पंजाबी भाषा का ढंग ही अधिाक देखा जाता है। अवधाी भाषा में साहित्य है, परन्तु ब्रजभाषा के समान वह विस्तृत और विशाल नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास को छोड़कर हिन्दी-संसार के जितने कवि और महाकवि हुए हैं, उन सबकी अधिाक रचनाएँ ब्रजभाषा में ही हैं। एक से एक बड़े कवियों का सहारा पाकर पाँच सौ वर्ष में ब्रजभाषा का साहित्य-भण्डार जितना बड़ा और विशाल हो गया है, उतना बड़ा भण्डार किसी दूसरी देशभाषा का नहीं है।

दक्षिण भारत में मराठी ही एक ऐसी भाषा है, जिसको आर्यभाषा परिवार की कह सकते हैं। मराठी को महाराष्ट्री प्राकृत की जेठी बेटी कह सकते हैं। वह दक्षिणी उपत्यका, पश्चिमीघाट और अरब समुद्र के मधय भाग में बोली जाती है। यह बरार और उसके पूर्व के कुछ प्रदेशों की भी भाषा है, इसका प्रचार मधयप्रान्त में भी देखा जाता है, परन्तु वहाँ उसका शुध्द रूप अधिाक सुरक्षित नहीं मिलता। बस्तर राज्य में से होते हुए, यह उड़िया भाषा की कुछ भूमि में भी प्रवेश कर जाती है। इसके दक्षिण में द्राविड़ भाषाएँ हैं, और उत्तार-पश्चिम में राजस्थानी, गुजराती और पूर्वी एवं पश्चिमी हिन्दी है। मराठी अपने पूर्व की छत्ताीसगढ़ी हिन्दी से बहुत कुछ समानता रखती है।

मराठी में तीन प्रधाान भाषाएँ अथवा बोलियाँ हैं। पहली देशी मराठी है, जो पूना के चारों ओर शुध्दतापूर्वक बोली जाती है। उत्तारी और मधय कोंकण में यही भाषा अनेक रूपों में दिखलाई देती है, पर सच्ची कोकणी ही दूसरी भाषा है, जो कोंकण के दक्षिण भाग में पाई जाती है, और इन सबों से भिन्नता रखती है। तीसरी बरारी और नागपुरी है जो बरार और मधयप्रान्त के कुछ भाग में प्रचलित है, शुध्द मराठी में और इसमें उच्चारण सम्बन्धाी भिन्नता है। बस्तर में बोली जाने वाली भाषा को'हलाबी' कहते हैं, इसमें मराठी और द्राविड़ी का मिश्रण देखा जाता है। पहली मराठी ही शिष्टभाषा समझी जाती है, और साहित्य इसी भाषा में है। मराठी साधाारणत: नागरी अक्षरों में लिखी जाती है, कोंकणी भाषा के लिखने में कनारी वर्णों से काम लिया जाता है। मराठी का साहित्य-भण्डार बड़ा है, और इसमें मूल्यवान कविता पाई जाती है। एक बात में मराठी कुल आर्य-परिवार की भाषाओं से पृथक् है, वह यह कि मराठी के उच्चारण पर वैदिक काल का प्रभाव देखा जाता है, जब कि अन्य भाषाओं ने अपने उच्चारण को स्वतंत्रा कर लिया है।

मराठी का पुराना रूप ताम्रपत्राों और शिला-लेखों में पाया जाता है, ईस्वी के बारहवें शतक के कुछ ऐसे ताम्रपत्रा और शिलालेख पाये गये हैं। ईस्वी चौदहवें शतक में ज्ञानदेव नामक एक प्रसिध्द महात्मा हो गये हैं, उन्होंने भगवद्गीता पर मराठी में ज्ञानेश्वरी टीका लिखी है। उन्हीं के समय में नामदेवजी भी हुए, जिनकी हिन्दी रचना भी पाई जाती है। मराठी के अभंगों के रचयिताओं में एकनाथ और तुकाराम का नाम अधिाक प्रसिध्द है। स्वामी रामदास का 'दासबोधा' भी प्रसिध्द ग्रन्थ है। ईस्वी उन्नीसवें शतक में मोरोपन्त एक बड़े प्रसिध्द कवि हो गये हैं।

पूर्वी हिन्दी के पूर्व में बिहारी भाषा है, आजकल बिहारी भाषा भी हिन्दी ही मानी जाती है। बिहारी कुल बिहार, छोटानागपुर और संयुक्त प्रान्त के कुछ पूर्वी भागों में बोली जाती है अब तक इसमें मागधाी प्राकृत की दो विशेषताएँ पाई जाती हैं। 'स' का'श' में बदल जाना और अकारान्त शब्दों का एकारान्त हो जाना। बिहारी की तीन प्रधाान भाषाएँ हैं-मैथिली, मगही और भोजपुरी। ईस्वी पन्द्रहवीं शताब्दी से मैथिली में कुछ साहित्य पाया जाता है। 'मगही' प्राचीन मागधाी प्राकृत की प्रतिनिधिा है,और उसी के अपभ्रंश से वर्तमान रूप में परिणत हुई है। मैथिली और मगही के व्याकरण और शब्दों में बहुत समानता है, पर मगही में साहित्य का अभाव है। भोजपुरी का इन दोनों से अधिाक अन्तर है, यह दोनों से सीधाी है। मगही को तिरहुतिया भी कहते हैं। हार्नल महोदय ने बिहारी को पूर्वी हिन्दी कहा है।

मैथिल कोकिल विद्यापति मैथिली भाषा के बहुत बड़े कवि हुए हैं, इनकी रचनाएँ बड़ी ही मधाुर एवं भावमयी हैं। उनकी पदावली बहुत ही सरस है, उसमें श्रीमती राधिाका के मधाुर भावों का बड़ा हृदयग्राही चित्राण है। उनकी रचना की जितनी ममता हिन्दी भाषा वालों को है, उतनी ही बँगला भाषियों को। ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग उनकी रचनाओं में बड़ी ही रुचिरता के साथ किया गया है। भोजपुरी में भी साहित्य नहीं मिलता, परन्तु इस भाषा में लिखे गये ग्रामीण गीत प्राय: सुने जाते हैं,जो बड़े ही मनोहर होते हैं। पं. रामनरेश त्रिापाठी ने हाल में जो ग्राम्य गीतों का संग्रह प्रकाशित किया है, उसमें भोजपुरी गीतों का भी पर्याप्त संग्रह हो गया है।

बिहार के दक्षिण पूर्व में बोली जाने वाली भाषा उड़िया कहलाती है। मागधाी अपभ्रंश से ही इसकी उत्पत्तिा भी मानी जाती है, जहाँ पर यह मराठी भाषा के समीप पहुँचती है, वहाँ इसमें उसका मिश्रण भी देखा जाता है। बंगाल के समीप पहुँचकर यह बंगाली भाषा से भी प्रभावित है। उड़िया को उत्कली और उड्री भी कहते हैं। इसमें साहित्य भी पाया जाता है, और इस भाषा के भी अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं। अधिाकांश रचनाएँ इसकी कृष्णलीलामयी हैं, और उनमें यथेष्ट सरसता है।

यह भाषा उड़ीसा में, बिहार, मद्रास एवं मधयप्रान्त के कुछ भागों में बोली जाती है, महाराज नरसिंह देव द्वितीय के एक शिलालेख में इसके प्राचीन स्वरूप का कुछ पता चलता है, यह शिलालेख विक्रमी चौदहवें शतक का है। इसका आदि कवि उपेन्द्र भज्ज समझा जाता है। कृष्णदास का रसकल्लोल नामक ग्रन्थ भी प्रसिध्द है। इस भाषा का आधाुनिक साहित्य भी विशेष उन्नत नहीं है।

बंगाल की भाषा बँगला है। ईस्वी चौदहवें शतक के उपरान्त, इसका साहित्य बढ़ने लगा, और इस समय बहुत ही समुन्नत है। इसकी बोलचाल की भाषा के प्रधाान रूप तीन हैं। पूर्वी, पश्चिमीय और उत्तारीय। प्रत्येक में अलग-अलग कई बोलियाँ हैं। हुगली के चारों ओर पश्चिमीय है, और गंगा के उत्तार प्रदेश में उत्तारीय, जो कि उड़िया भाषा से मिलती-जुलती है। ढाका के आसपास पूर्वीय भाषा है, जो स्थान-स्थान पर परस्पर बड़ी भिन्नता रखती है। रंगपुरी भाषा आसाम के पश्चिमी छोर पर है, और उत्तारी बंगाल से लगे हुए हिस्सों में बोली जाती है। चटगाँव के आसपास उच्चारण की विशेषताओं के कारण बिलकुल एक नये ढंग की बोली बन गई है, जो कठिनता से बँगला कही जा सकती है। बँगला में 'स' का उच्चारण 'श' होता है इस विषय में वह मागधाी से मिलती है। प्राचीन बंगाली कविता में मागधाी प्राकृत के कर्ता का चिद्द 'ए' भी सुरक्षित पाया जाता है। जैसे'इष्टदेव' और 'नयनम्' के स्थान पर नयने आदि। यह चिद्द वर्तमान बँगा गद्य में भी पाया जाता है।

बँगला भाषा इस समय आर्य परिवार की समस्त भाषाओं से उन्नत है। उसका साहित्य भण्डार सर्व विषयों से परिपूर्ण है। प्रत्येक विषय के ग्र्रन्थों की रचना उसमें हुई है, और होती जा रही है। विश्वकवि श्रीयुत रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं से उसको बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। जैसे कृतविद्य लेखक इस समय बँगला भाषा में हैं, भारतीय किसी भाषा में नहीं हैं, बँगला के साहित्य में मानिकचन्द के गीत सबसे प्राचीन हैं। चण्डीदास और कृत्तिावास भी बहुत बड़े कवि हो गये हैं। आधाुनिक कवि और लेखकों में बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी और माइकल गधाुसूदनदत्ता आदि ने भी बड़ी कीर्ति पाई है।

आसाम में बोली जाने वाली भाषा आसामी कहलाती है, यह आर्य-परिवार की एक भाषा है। इस देश में रहने वाली बहुत-सी जातियाँ तिब्बती वर्मन भाषा में बातचीत करती हैं। मगधा की मागधाी प्राकृत का पता तीन धााराओं से लगाया जा सकता है। पहली धाारा है दक्षिण में बोली जाने वाली उड़िया, दूसरी है दक्षिण और पूर्व की पश्चिमीय और पूर्वीय बँगला, तीसरी उत्तार पूर्व की आसामी। बँगला भाषा ही अधिाक उत्तार पूर्व में पहुँचकर आसामी बन गई है। यद्यपि आसामी तिब्बती वर्मन भाषा के प्रभाव और संसर्ग के कारण और उच्चारण दोनों में बँगला से बहुत भिन्नता रखती है, परन्तु बँगला से परिवर्तित होकर वर्तमान रूप धाारण करने के प्रमाण उसमें बहुत अधिाक मौजूद हैं। इसका साहित्य भी उन्नत है, और इसमें बहुत से ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं,जिनको आसामी 'बूरंजी' कहते हैं। कुछ काल तक पादरियों के चेष्टा से आसामी भाषा अपने मुख्यरूप में बँगला से अधिाक उन्नत हो गई थी, पर अब फिर उसमें संस्कृत शब्दों का अधिाक प्रवेश हो रहा है।

आसाम को ही संस्कृत में कामरूप कहा गया है, बंगाली उसे 'ओशोम' कहते हैं, इसी 'ओशोम' से पहले 'ओशोमी' और बाद को आसामी उसकी भाषा का नाम पड़ा। इसमें दूसरे प्रकार के साहित्य भी हैं। आसामी भाषा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ भागवत का अनुवाद है, जो कि ईस्वी चौदहवें शतक में हुआ था। श्री शंकर नामक एक प्रसिध्द विद्वान् ने यह अनुवाद किया था।

कुछ पहाड़ी भाषाएँ भी ऐसी हैं कि जिनका सम्बन्धा आर्य परिवार की भाषा से है। इस प्रकार की भाषाएँ तीन हैं और वे पूर्व में नेपाल से लेकर पश्चिम में पंजाब की पहाड़ियों तक फैली हुई हैं। इनकी संज्ञा है-1. पूर्वीय पहाड़ी 2. मधय पहाड़ी 3.पश्चिमीय पहाड़ी।

योरोपियन लोग नेपाली भाषा को पूर्वीय पहाड़ी भाषा कहते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं। नेपाल की भाषा का नाम 'नेवारी' है। पूर्वीय पहाड़ी के और भाषाओं का नाम, पार्वतीय, पहाड़ी भाषा और खसकुरा है। यह 'खसकुरा' खसों की भाषा है, और नागरी लिपि में लिखी जाती है।

गढ़वाल और कुमायूँ के ब्रिटिश जिलों की और गढ़वाल रियासत की भाषा मधय पहाड़ी कहलाती है। इसकी दो प्रधाान शाखाएँ हैं, कुमाउँनी और गढ़वाली। इन दोनों भाषाओं में साहित्य बहुत कम है, इनी-गिनी पुस्तकें ही इसमें मिलती हैं।

शिमला और उसके आसपास की पहाड़ियों में एक-दूसरे से मिलती-जुलती कई भाषाएँ हैं, जिन्हें पश्चिमी पहाड़ी कहते हैं। इन भाषाओं में कोई साहित्य नहीं है। इनका क्षेत्रा पश्चिमोत्तार प्रदेश में जौंसार और बावर से प्रारंभ होकर पंजाब की रियासतों सिरमौर, मण्डी, चन्दा तथा शिमला पहाड़ी और कुल्लू होते हुए पश्चिम में काश्मीर तक विस्तृत है। इन भाषाओं में जौंसारी,किऊँथली कुल्लुई, चमिआल्ही आदि प्रधाान हैं।

ये पहाड़ी भाषाएँ राजस्थानी भाषा से मिलती-जुलती हैं। इनमें गुजराती भाषा का भी पुट है। कारण इसका यह है कि सोलहवें ईस्वी शतक में और उससे कुछ पहले भी विशेषकर मुसलमानों के समय में राजस्थान अथवा गुजरात से कुछ विजयिनी जातियाँ मुख्यत: राजपूत इन प्रदेशों में आये, और वहाँ की मुण्डा तथा तिब्बती वर्मन आदि जातियों को जीतकर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। उनके प्रभाव से ही जनता में उनका धार्म और भाषा भी फैली। कुछ कालोपरान्त इस प्रदेश में लगभग सभी हिन्दू धार्मावलम्बी हो गये, और सभी की भाषा थोड़े परिवर्तन से राजस्थानी बन गयी। मैं पहले लिख आया हूँ कि गुजराती और राजस्थानी में थोड़ा ही अन्तर है, यही बात यहाँ की भाषा में भी पाई जाती है।

उत्तारी पश्चिमीय समूह की भाषा लहन्दी और सिन्धाी भी आर्य परिवार की है। लहन्दा पश्चिमी पंजाब की भाषा है, उसको पश्चिमीय पंजाबी, जाटकी, उच्ची और हिन्दी की भी कहते हैं। लहन्दा का शब्दार्थ है, सूर्य का डूबना, अथवा एश्चिम। जटकी का अर्थ है जाटों की भाषा। उच्ची का अर्थ है उच्च नगर की भाषा। 'हिन्दी की, हिन्दुओं की भाषा है, यह पश्चिमी भाग में बोली जाती है, यहाँ पश्तो बोलने वाले मुसलमान रहते हैं।'

लहन्दा की तीन बोलियाँ हैं। दक्षिणीय या मुलतानी, उत्तारीय पूर्वी या पोठवारी, उत्तारीय पश्चिमी या धान्नी! लहन्दा में ग्राम्यगीत के अतिरिक्त और कोई साहित्य नहीं है। ईस्वी सोलहवें शतक की लिखी हुई गुरु नानक देव की एक जन्म साखी (जीवन-चरित्रा) और कुछ साधाारण कविताएँ जहाँ-तहाँ मिल जाती हैं। मुसलमानों की कुछ रचनाएँ पोठहारी बोली में पाई जाती हैं। परन्तु उसको लोग पंजाबी भाषा में लिखी गई मानते हैं।

सिन्धाी सिन्धा की भाषा है, दक्षिण में यह समुद्र तक फैली हुई है, उत्तार में आकर यह लहन्दा से मिल जाती है। सिन्धा में प्राचीन काल का ब्राचव् देश था, प्राकृत वैयाकरणों ने यहाँ ब्राचव् अपभ्रंश और ब्राचव् पैशाची का होना स्वीकार किया है। सिन्धाी की पाँच भाषाएँ हैं-बिचोली, सिरादकी, लाड़ी, थरेली और कच्छी। बिचोली भाषा मधय सिन्धा की है, साहित्यिक यही भाषा है, और इसी में साहित्य है। सिरादकी-बिचोली का एक रूप है, वास्तव में उसकी भिन्न सत्ताा नहीं है। केवल थोड़ा-बहुत उच्चारण का अन्तर है। सिन्धाी सिरादकी को सबसे शुध्द समझते हैं। लाड़ी लाडू प्रदेश की भाषा है-इसमें भद्दापन है। लाडू का शब्दार्थ है ढालुवाँ। बिचोली और इसमें यह अन्तर है कि इसमें बहुत से प्राचीन रूप पाये जाते हैं, वर्तमान पिशाच भाषा की विशेषताएँ भी इसमें मिलती हैं। थरेली और कच्छी दोनों मिश्रित भाषाएँ हैं। पहली भाषा थारू में बोली जाती है, और यह परिवर्तनशील है, क्योंकि सिंधाी भाषाएँ धीरे-धीरे राजस्थानी मारवाड़ी द्वारा प्रभावित होती जाती हैं। कच्छी कच्छ में बोली जाती है, इसमें सिन्धाी और गुजराती का मिश्रण है। सिन्धाी में साहित्य है, परन्तु थोड़ा। थरेली को 'बरोची' और ठाटका भी कहते हैं, थल से थरु शब्द बना है, इस थरु में बोले जाने के कारण ही 'थरेली' नाम की रचना हुई है। सिरादकी को कुछ सिन्धाी पृथक् बोली मानते हैं। अब्दुल लतीक नाम का एक प्रसिध्द कवि ईस्वी अठारहवीं सदी में हो गया है। उसने जो ग्र्रन्थ रचा है,उसका नाम 'शाहजो रिसालो' है। इसमें सूफी मत के सिध्दान्तों की छोटी-छोटी कथाएँ लिखकर समझाया गया है। सिन्धाी को सिन्धा का हाफिज कहते हैं। इस भाषा में वीररस की कुछ सुन्दर कविताएँ भी मिलती हैं।

पैशाची भाषा के विषय में पहले कुछ चर्चा हो चुकी है। उसके सम्बन्धा की विशेषता यहाँ लिखी जाती है। वर्तमान पिशाच भाषा के बोलने वाले दक्षिण में काबुल नदी के पास और उत्तार पश्चिम हिमालय की नीची श्रेण्0श्निायों में और उत्तार में हिन्दूकुश एवं मुस्तरा श्रेणियों के बीच में रहते हैं। इसके तीन विभाग हैं-काफिर, खोआर और डर्ड। काफिष्र के बोलने वाले काफिष्रिस्तान में रहते हैं, बशराली इनकी प्रसिध्द भाषा है, डेविडसन ने इस पर एक अच्छा व्याकरण लिखा है, कोनो ने इस भाषा का एक कोश भी लिख दिया है। इसके बोलने वाले काफिरिस्तान की वशगल नामक तराई में रहते हैं, इसी से इसका नाम वशगली है। इसके दक्षिण में बाई-काफिर रहते हैं, जिनकी बोली बाईअला है, इसमें और वशगली में बड़ी घनिष्ठता है। 'वेरों'वशगली के पश्चिम की दुर्गम घाटियों में रहने वाले प्रेशुओं की भाषा है, इसमें और वशगली में बड़ा अन्तर है। वेरों में जैसी कि स्थिति संकेत करती है, अन्य भाषा की अपेक्षा ईरानियन प्रभाव ही अधिाक है-जैसे कि 'ड' का 'ल' में बदल जाना। परन्तु दूसरी ओर यह उच्चारण में डार्ड भाषा से मिलती है, जो बात और काफिर भाषाओं में नहीं पाई जाती। गबरवटी या गब्रभाषा गबेरों की भाषा है जो कि नसरत की देश की एक जाति है, यह देश बशगल और चित्रााल नदियों के संगम पर है। 'कलाशा' कलाशा-काफिरों की भाषा है, यह भी इन्हीं दोनों नदियों के दोआबे में बोली जाती है। विडल्फ ने गवरबटी भाषा का शब्दकोष बनाया है,लेटनर का डार्डिस्तान, कलाशा के विषय में बहुत कुछ बतलाता है। 'पशाई' पैशाची से निकली है, और लगभन के देहकानों की बोली है। पशाई पर जो कि सबसे दक्षिण की भाषा है, पश्चिमी पंजाब के एण्डोएरियन भाषाओं का प्रभाव है। दूसरी ओर कलाशा लोअर भाषा से प्रभावित है। कुल काफिर भाषाओं पर पास की पश्तो भाषा का बहुत बड़ा असर देखा जाता है।

खोआर 'खोयाको' जाति की भाषा है, इसका स्थान वर्तमान पिशाच भाषाओं के काफिर और डार्ड समूह के मधय में है। यह अपर चित्रााल और यासीन के एक भाग की भाषा है। इसे चित्रााली या चत्राारी भी कहते हैं। लेटनर के 'डार्डिस्तान' नामक ग्रन्थ में इसके विषय में बहुत कुछ लिखा हुआ है, इस भाषा पर विडल्फ और ब्रीयेन ने व्याकरण भी बनाया है।

डार्ड भाषा समूह में सबसे प्रधाान शिना है। यह शिन जाति की भाषा है। ये लोग काश्मीर के उत्तार के रहने वाले हैं। बिडल्फ की ट्राइव्स आव दि हिन्दूकुश और लेटनर, के 'डार्डिस्तान' के देखने से इस बड़ी जाति और इसकी भाषा के विषय
का पूरा ज्ञान होता है। मेगस्थनीज ने इनको 'डरडेई' कहा है, और महाभारत में
इन्हें डारडस लिखा गया है। शिना की बहुत-सी बोलियाँ हैं, उनमें सबसे मुख्य 'जिलजित' घाटी की 'जिलजित' भाषा है। अस्तोर घाटी में बोली जाने वाली भाषा अस्तोरी
कहलाती है। चिलासी, गुरेजी, ट्रास और डाहहनू की दो-दो भाषाएँ हैं, जिनके साथ 'बालती' का व्यवहार भी किया जाता है। यूरोपियनों ने 'डार्ड' शब्द का प्रयोग
हिन्दुकुश के दक्षिण में बोली जाने वाली कुल इण्डोएरियन भाषाओं के लिए
किया है। डार्डिक शब्द इसी से निकला है, जो वर्तमान पिशाची भाषा का भी बोधाक है।

काश्मीरी अथवा काशीरु काश्मीर की भाषा है, इसका आधाार शिना की तरह की एक भाषा है। काश्मीरी के बहुत से शब्द-जैसे व्यक्तिवाचक, सर्वनाम अथवा घनिष्ठताबोधाक-प्राय: शिना के समान है। बहुत पहले से ही संस्कृत के प्रभाव में रहकर इसने अपने साहित्य का विकास अधिाक किया है, इस कारण इसके शब्द भण्डार पर संस्कृत या उसके अन्य अंगों का बहुत प्रभाव पड़ा है। विशेष करके पश्चिम पंजाब की लहन्दा भाषा का जो कि काश्मीर के दक्षिणी सीमा पर प्रचलित है। ईस्वी चौदहवें शतक से अठारहवें शतक के आरम्भ तक काश्मीर मुसलमानों के अधिाकार में रहा है। इन पाँच सौ वर्षों में बहुत लोग मुसलमान हो गये, और इसी सूत्रा से काश्मीरी भाषा में अनेक अरबी, फारसी के शब्द भी सम्मिलित हो गये। इसका प्रभाव बचे हिन्दुओं की भाषा पर भी पड़ा है। काश्मीरी में आदरणीय साहित्य है। 1875 ई. में ईश्वर कौल ने संस्कृत भाषा के व्याकरण की प्रणाली पर'काश्मीर शब्दामृत' नामक एक व्याकरण भी बनाया है। इन्होंने इस भाषा की उच्चारण प्रणाली को बहुत सुधाारा है, फिर भी वह सर्वथा निर्दोष नहीं हुई है। स्थान-स्थान पर काश्मीरी भाषा में भिन्नता भी है, इसकी सबसे प्रधाान भाषा काष्टवारी है। स्थानीय भाषाओं के नाम 'दोड़ी' 'रामबनी' और 'पौगुली' है। काश्मीरी ही एक ऐसी पैशाची भाषा है, कि जिसके लिखने के वर्ण निजके हैं, उसे शारदा कहते हैं। प्राचीन पुस्तकें इसी वर्ण में लिखी हुई हैं।

'मैया' एक और भाषा है, जो वास्तव में बिगड़ी हुई शिना है, यही नहीं, कोहिस्तान में शिना के आधाार से बनी हुई,बहुत-सी बोलियाँ बोली जाती हैं। परन्तु दक्षिणी भाग में लहन्दा और पश्तो का अधिाक प्रभाव देखा जाता है। ये सब भाषाएँ कोहिस्तानी कहलाती हैं, परन्तु इनमें 'मैया' को प्रधाानता है। इन भाषाओं का उल्लेख विडल्फ ने अपने ग्रन्थ 'ट्राइव्स आव दि हिन्दूकुश' में किया है। इनमें से किसी में न तो साहित्य है, और न लिखने के वर्ण हैं। कोहिस्तान पर बहुत समय तक अफगानों का अधिाकार रहा है, इसीलिए वहाँ अब पश्तो का ही अधिाक प्रचार है, कोहिस्तानी उन मुसलमानों की ही भाषा रह गई है, जिनको अपनी प्राचीन भाषा से प्रेम है।

सिंधा नदी के इस कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान है, यहाँ की प्रधाान भाषा भी पश्तो ही है, पर यहाँ भी अब तक कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जो शिना के आधाार पर बनी हुई बोलियाँ बोलती हैं। प्रधाान भाषा गरबी और अन्य भाषाएँ तोरवाली या तोरवल्लाव और वाश्कारिक है। विडल्फ ने इन बोलियों का भी वर्णन किया है। मैया और गरबी दोनों मिश्रित भाषाएँ हैं।

अन्त में यह कह देना आवश्यक है कि प्राचीन पैशाची के बहुत से शब्द और रूप वर्तमान पैशाची की विविधा शाखाओं में अब तक थोड़े से परिवर्तन के साथ पाये जाते हैं। जैसे कलाशा में ककबक, बेरों में ककोकु, वशगली में ककक इत्यादि, इस शब्द का अर्थ है चिड़िया। वैदिक संस्कृत में इसको 'कृकवाकृ' कहते हैं। खोआर में द्रोखम शब्द मिलता है, जो संस्कृत का द्रम है, जिसका अर्थ है-चाँदी। संस्कृत क्षीर वशगली का शीर है, जिसका अर्थ श्वेत है। संस्कृत का स्वसार खोआर का इस्युसार है,जिसका अर्थ बहिन होता है।

हिन्दूकुश में दो छोटे-छोटे राज्य हैं, हु×जा और नागर। यहाँ के रहने वालों की एक अलग भाषा है, परन्तु यह आर्य-भाषा नहीं है। इसका सम्बन्धा किसी भी भाषा के वंश के साथ अब तक नहीं हुआ है। यह भाषा अपने प्राचीन रूप में, वर्तमान पिशाच भाषा बोले जाने वाले देशों में, और बलतिस्तान के पश्चिम में जहाँ कि अब तिब्बती वर्मन भाषा बोली जाती है, एक समय में बोली जाती थी। ये अनार्य भाषाएँ 'बुरुशस्की' 'विद्दल्प' की ब्रूरीश्की और लेतनेट की खजुवा हैं। लगभग कुल वर्तमान पिशाच भाषाओं में इसके फुटकल शब्द पाये जाते हैं। जैसे-वर्मी शब्द, चोमार, जिसका अर्थ लोहा है, काश्मीरी के सिवा प्रत्येक वर्तमान पिशाच भाषाओं में बोला जाता है। यह शायद इसी भाषा का प्रभाव है, कि वर्तमान पिशाच भाषा में 'र' अक्षर का विचित्रा प्रयोग है। इन सब भाषाओं में वह 'र' अक्षर तालव्य होने की ओर झुकाव रखता है। इस झुकाव की उत्पत्तिा वर्तमान पिशाच भाषा से नहीं हुई है। क्योंकि इसका सम्बन्धा केवल इसी भाषा से नहीं है, और न यह किसी एक समूह की सम्बन्धिात भाषाओं की विशेषता है। वरन् यह एक देश की भाषा विशेष की विशेषता है, अर्थात् कुछ वर्तमान पिशाच भाषाओं और निकट के बलतिस्तान भर में इसका प्रचार है। तिब्बती वर्मन भाषा बालती में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं, जो कि पूर्वी तिब्बती वर्मन भाषाओं में (जैसे पुरिक और लद्दाखी) में नहीं दिखाई देते। तिब्बती वर्मन भाषा बालती और वर्तमान आर्य भाषा पैशाची की अर्थात् दोनों की यह विशेषता एक ही उद्गम से आई है, और इस देश में वही इनका पूर्वज है। खास बुरुस्की में परिवर्तन के इस तरह के उदाहरणों का मिलना असंभव है, क्योंकि उसके आसपास कोई ऐसी भाषा नहीं है, जिससे उसकी तुलना की जा सके। यह अकेली है, और जाने हुए इसके एक भी सम्बन्धाी नहीं है।

कहा जाता है पैशाची भाषा में गुणाढय नामक एक विद्वान् ने 'बव्कथा' अर्थात् 'बृहत्कथा' नामक एक ग्रन्थ लिखा था, यह ग्रन्थ अब नहीं प्राप्त होता। इसका संस्कृत अनुवाद पाया जाता है, जो काश्मीर के दो विद्वानों का किया हुआ है। इनका नाम क्षेमेन्द्र और सोमदेव था। इस संस्कृत ग्रन्थ का नाम 'कथासरित्सागर' है। 'बव्कथा' पैशाची भाषा के साहित्य का प्रधाान ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त काश्मीरी भाषा में कुछ और ग्रन्थ हैं, परन्तु उनमें कोई विशेष प्रसिध्द नहीं हैं।

काश्मीरी भाषा की प्रथम कवि एक स्त्राी है, जिसका नाम लल्ला अथवा लालदेह था, वह चौदहवीं ईस्वी शताब्दी मेें हुई है। मुसलमान कवियों में महमूद गामी प्रसिध्द है, यह अठारहवें शतक में था, इसने 'यूसुफजुलेखा' 'लैला-मजनू' और 'शीरीं-फरहाद' नाम की पुस्तकें फारसी ग्रन्थों के आधाार से लिखी हैं।

हेमचन्द्र ने दो प्रकार की पैशाची का वर्णन अपने प्राकृत व्याकरण में किया है। पहली को केवल पैशाची और दूसरी को चूलिका-पैशाची लिखा है। पैशाची का वर्णन पाद 4 के 303 से 324 तक के सूत्राों में और चूलिका पैशाची का निरूपण 325से 328 तक सूत्राों में किया गया है। रामशर्मा ने अपने प्राकृत कल्पतरु के पैशाची के दो भेद लिखे हैं, 1. शुध्द और 2.संकीर्ण। शुध्द के सात और संकीर्ण के चार उपभेद उन्होंने बतलाये हैं-शुध्द के सात भेद ये हैं-

1. मगधा पैशाचिका, 2. गौड़ पैशाचिका, 3. शौरसेनी पैशाचिका, 4. केकय पैशाचिका, 5. पांचाल पैशाचिका, 6. ब्राचड पैशाचिका, 7. सूक्ष्मभेद पैशाचिका।

संकीर्ण के चार उपभेद ये हैं-

1. भाषाशुध्द, 2. पदशुध्द, 3. अर्ध्दशुध्द, 4. चतुष्पद शुध्द।

आर्य भाषा परिवार में सिंहली और जिप्सी भाषाओं की भी गणना की जातीहै।

अब से ढाई सहò वर्ष पहले विजय कुमार अपने अनुयायियों के साथ सिंहल गया था और वहाँ उसने बुध्द-धार्म के साथ आर्य-भाषा का भी प्रचार किया था, उसी की संतान सिंहली है, जो अब तक वहाँ प्रचलित है। सिंहली का प्राचीन रूप ईस्वी दशवें शतक का है, उसको 'इलू' कहते हैं। इस सिंहली का प्रभाव मालद्वीप भाषा पर भी पड़ा है। इस भाषा में थोड़ा-बहुत साहित्य भी है। किन्तु कोई प्रसिध्द ग्रन्थ नहीं है।

पश्चिमी एशिया एवं यूरप के कई भागों में फिरने वाली कुछ जातियाँ 'जिप्सी' कहलाती हैं, ये किसी स्थान विशेष में नहीं रहतीं, यत्रा-तत्रा सकुटुम्ब पर्यटन करती रहती हैं। इनकी भाषा का नाम भी जिप्सी है। ईस्वी पाँचवीं शताब्दी में जो प्राकृत रूप आर्यभाषा का था, इनकी भाषा उसी की संतान है। यद्यपि भिन्न-भिन्न स्थानों में भ्रमण करते रहने और अनेक भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा में बहुत अधिाक परिवर्तन हो गया है। परन्तु उनकी भाषा के शब्द भण्डार पर आर्यभाषा की छाप लगी स्पष्ट दृष्टिगत होती है।


 

 

 

 

 

× चम प्रकरण

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अन्तरंग और बहिरंग भाषा

जिन आर्य परिवार की भाषाओं का वर्णन अभी हुआ, कहा जाता है, उनमें दो विभाग हैं। एक का नाम है अन्तरंग भाषा और दूसरी का बहिरंग। इन भाषाओं की मधय की भाषा को मधयवर्ती भाषा कहते हैं, और वह है अर्धामागधाी से प्रसूत वर्तमान काल की पूर्वी हिन्दी।

अन्तरंग भाषा में निम्नलिखित भाषाओं की गणना है। 1. पश्चिमी हिन्दी,
2. पूर्वी पहाड़ी, 3. मधय पहाड़ी, 4. पंजाबी, 5. राजस्थानी, 6. गुजराती और 7. पश्चिमीयपहाड़ी।

निम्नलिखित भाषाएँ बहिरंग कहलाती हैं-

1. मराठी, 2. उड़िया, 3. बिहारी, 4. बंगाली, 5. आसामी, 6. सिंधाी और 7. पश्चिमी पंजाबी।

हौर्नेल का विचार है कि आर्यों के भारत में दो दल आये, एक पहले आया और दूसरा बाद को। जो दल पहले आया,वह मधय देश में आकर वहीं बस गया। इस दल के पश्चात् दूसरा प्रबल दल आया और उसने अपने सजातियों को मधय देश से निकाल बाहर किया। निकाले जाने पर पहले दल वाले मधयदेश के ही चारों ओर अर्थात् उसके पूर्व, पश्चिम उत्तार और दक्षिण ओर फैल गये, और वहीं बस गये। नवागत आर्य मधयदेश में बस जाने के कारण 'अन्तरंग' और प्रथमागत आर्य मधय देश के बाहर निवास करने के कारण 'बहिरंग' कहलाये। 'अन्तरंग' आर्यों में ही वैदिक संस्कृत और ब्राह्मण-कालीन विचारों का विकास हुआ। भारत में दो भिन्न विरोधाी दल आने के सिध्दान्त को डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने भी स्वीकार किया है। वे कहते हैं'बहिरंग' आर्यों का 'डार्डिक' भाषा-भाषियों से घनिष्ठ सम्बन्धा था, और ऐसा ज्ञात होता है कि वे उन्हीं की एक शाखा थे। मधय देश से चले जाने पर बहिरंग आर्य पंजाब, सिंधा, गुजरात, राजपूताना, महाराष्ट्र प्रदेश, पूर्वीय हिन्दी क्षेत्रा, बिहार और उत्तार में हिमालय की तराइयों में बसे। मधय देश के अन्तरंग आर्यों की भाषा का वर्तमान प्रतिनिधिा पश्चिमी हिन्दी है। अन्य प्रचलित आर्य भाषाएँ, 'बहिरंग' आर्य भाषा से विकसित हुई हैं। 1

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब पंजाब, गुजरात और राजपूताना बहिरंग आर्यों का ही निवास-स्थान था, तो वहाँ की भाषाएँ अन्तरंग कैसे हो गईं? सिंधा, महाराष्ट्र और बिहार के समान बहिरंग क्यों नहीं हुई? इसका उत्तार यह दिया जाता है कि प्रचारकों और विजेताओं द्वारा मधयदेश की शौरसेनी भाषा का बहुत बड़ा प्रभाव बाद को पंजाब, गुजरात और राजस्थान पर पड़ा,इसलिए इन स्थानों की भाषाएँ काल पाकर अन्तरंग बन गईं। इसी प्रकार राजस्थान और गुजरात के कुछ विजयी आगन्तुकों के प्रभाव से हिमालय की तराइयों की भाषा भी अन्तरंग हो गई। डॉ. जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं-

''मधय देश निवासी आर्यों के वहाँ से राजपूताना और गुजरात में आ बसने के विषय में बहुत-सी प्रचलित कथाएँ हैं। पहली यह है कि महाभारत के युध्द काल में द्वारिका की नींव गुजरात में पड़ी। जैनों के प्राचीन कथानकों के अनुसार गुजरात का सबसे पहला चालुक्य राजा कन्नौज से आया। कहा जाता है नौवीं ईस्वी शताब्दी के प्रारम्भ काल में पश्चिमीय राजपूताने के भीलमाल अथवा भीनमाल नामक स्थान के एक गुर्जर राजपूत ने भी गुजरात को जीता। मारवाड़ के राठौर कहते हैं कि वे वहाँ पर बारहवीं ईस्वी शताब्दी में कन्नौज से आये। जयपुर के कछवाहे अयोधया से आने का दावा करते हैं। गुजरात और राजपूताने का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्धा इस ऐतिहासिक घटना से भी प्रकट होता है कि मेवाड़ के गहलोत वहाँ पर सौराष्ट्र से आये।''

''गुर्जरों ने हूण तथा अन्य आक्रमणकारियों के साथ ईस्वी छठी शताब्दी में भारत में प्रवेश किया और वे शीघ्र ही बड़े शक्तिशाली हो गये। भारत के चार प्रदेशों ने इन्हीं के नाम के आधाार से अपना नाम ग्रहण्ा किया है, उनमें से दो हैं गुजरात और गुजरानवाला। ये दोनों पंजाब के जिले हैं, तीसरा है गुजरात प्रान्त। अलबरूनी जो दशवीं ईसवी शताब्दी में यहाँ आया,चौथा नाम बतलाता है, यह वह प्रदेश है जो जयपुर के उत्तार पूर्वीय भाग तथा अलवर राज्य के दक्षिण भाग से मिलकर बना है, डॉक्टर भण्डारकर भी इस कथन की पुष्टि करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि पिछले गुर्जर हिमालय के उस भाग से आये जिसे सपादलक्ष कहते हैं। यह प्रदेश आधाुनिक कुमायूँ गढ़वाल और उसका पश्चिमी भाग माना जा सकता है। पूर्वीय राजपूताना उस समय इन गुर्जरों से भर गया था। 2

1. The origin and development of the Bengali Language (§29), p.30

2. देखो Bulletin of the School of Oriental Studies London Institute (§13), p.58

इन पंक्तियों के पढ़ने से आशा है यह स्पष्ट हो गया होगा कि किस प्रकार मधय देश के विजयी गुजरात और राजस्थान में पहुँचे और कैसे उनके प्रभाव से प्रभावित होने के कारण इन प्रान्तों में अन्तरंग भाषा का प्रचार हुआ। यहाँ मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि गुर्जर विदेशी भले ही हों, परन्तु वे मधय देश वालों की सभ्यता के ही उपासक और प्रचारक थे, क्योंकि ब्राह्मणों द्वारा दीक्षित होकर उन्होंने वैदिक धार्म में प्रवेश किया था। डॉक्टर ग्रियर्सन लिखते हैं-

''अब इस बात को बहुत से विद्वानों ने स्वीकार किया है, कि कतिपय राजपूतों के दल परदेशी गुर्जरों के वंशज हैं, उनका केन्द्र आबू पहाड़ तथा उसके आसपास का स्थान था। प्रधाानत: वे कृषक थे, पर उनके पास भी प्रधाान लोग और योध्दा थे। जब यह दल गण्यमान्य हो गया, तो उनको ब्राह्मणों ने क्षत्रिाय पदवी दी, और वे राजपुत्रा अथवा राजपूत कहलाने लगे, कुछ उनमें से ब्राह्मण भी बन गये''1-गुर्जरों के ब्राह्मण-क्षत्रिाय बनने के सिध्दान्त का आजकल प्रबल खंडन हो रहा है, परन्तु मुझको इस वितण्डावाद में नहीं पड़ना है। मैंने इन पंक्तियों को यहाँ इसलिए उठाया है, कि जिससे इस सिध्दान्त पर प्रकाश पड़ सके कि किस प्रकार गुजरात, राजस्थान और पूर्वीय पंजाब में अन्तरंग भाषा का प्रचार हुआ। अब विचारना यह है कि अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं मेें कौन-सी ऐसी विभिन्नताएँ हैं, जो एक को दूसरी से अलग करती हैं। डॉक्टर चटर्जी कहते हैं-

''डॉक्टर ग्रियर्सन ने जिन कारणों के आधाार से अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं को माना है, वे प्रधाानत: भाषा सम्बन्धाी हैं। विचार करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि पश्चिमी हिन्दी तथा अन्य आर्य भाषाओं में कुछ विषमताएँ हैं। उन्होंने देखा कि ये विषमताएँ जो कि सब 'बहिरंग' भाषाओं में एक ही हैं, प्राचीन आर्यभाषाओं के दोनों विभागों अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं के भेद से ही उत्पन्न हुई हैं। केवल इतना ही नहीं कि बहिरंग भाषाओं की पारस्परिक समानता उन्हीं बातों में है,जिनमें अन्तरंग भाषा से भिन्नता है, वरन् डार्डिक भाषाएँ प्राय: उन्हीं कुल विशेषताओं से भरी हैं, जिनसे कि बहिरंग भाषाएँ परिपूर्ण हैं! इसलिए अन्तरंग से उसकी भिन्नता और स्पष्ट हो जाती है''। 2

कुछ मुख्य-मुख्य भिन्नताएँ लिखी जाती हैं-

''इन दोनों शाखाओं की भाषाओं के उच्चारण में अन्तर है। जिन वर्णों का उच्चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है,उनको अन्तरंग भाषा वाले बहुत कड़ी आवाज से बोलते हैं, यहाँ तक कि वह दन्त्य स हो जाता है। परन्तु बहिरंग भाषा वाले ऐसा नहीं करते। इसी से मधयदेश वालों के 'कोस' शब्द को सिन्धा वालों ने

1. Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute. (§ 12), p. 57.

2. Dr. S. K. Chatterjee : The origin and devlopment of the Bengali Language (§ 29) p. 31.

'कोह' कर दिया। पूर्व की ओर बंगाल में यह 'स' 'श' हो जाता है। आसाम में गिरते-गिरते 'स' की आवाज 'च' की-सी हो गई है। काश्मीर में तो उसकी कड़ी आवाज बिलकुल जाती रही है, वहाँ भी अन्तरंग भाषा का 'स' बिगड़कर 'ह' हो गया है।

संज्ञाओं में भी अन्तर है, अन्तरंग भाषाओं की मूल विभक्तियाँ प्राय: गिर गई हैं, उनका लोप हो गया है और धीरे-धीरे उनकी जगह पर और ही छोटे-छोटे शब्द मूल शब्दों के साथ जुड़ गये हैं, जो विभक्तियों का काम देते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी भाषा की 'का' 'को' 'से' आदि विभक्तियों को देखिए। ये जिस शब्द के अन्त में आती हैं, उस शब्द का उन्हें मूल अंश न समझना चाहिए। ये पृथक् शब्द हैं, और विभक्तिगत अपेक्षित अर्थ देने के लिए जोड़े जाते हैं। इसलिए बहिरंग भाषाओं को व्यवच्छेदक भाषाएँ कहना चाहिए। बहिरंग भाषाएँ जिस समय पुरानी संस्कृत के रूप में थीं, संयोगात्मक थीं। 'का' 'को' 'से'आदि से जो अर्थ निकलता है उसके सूचक शब्द उनमें अलग नहीं जोड़े जाते थे। इसके बाद उन्हें व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हुआ,सिंधाी और काश्मीरी भाषाएँ अब तक कुछ-कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये भाषाएँ संयोगात्मक हो गईं, और व्यवच्छेदक अवस्था में जो विभक्तियाँ अलग हो गई थीं, वे इनके मूलरूप में मिल गईं। बँगला में षष्ठी विभक्ति का चिद्द ''एर''इसका अच्छा उदाहरण है।

क्रियाओं में भी भेद हैं, बहिरंग भाषाएँ पुरानी संस्कृत की किसी ऐसी एक या अधिाक भाषाओं से निकली हैं, जिनकी भूतकालिक भाववाच्य क्रियाओं से सर्वनामात्मक कत्तर्ाा के अर्थ का भी बोधा होता था। अर्थात् क्रिया और कत्तर्ाा एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता बहिरंग भाषा में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए बँगला भाषा का 'मारिलाम' देखिए। इसका अर्थ है मैं ने मारा। परन्तु अन्तरंग भाषाएँ किसी ऐसी एक या अधिाक भाषाओं से निकली हैं, जिनमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्त होते थे। उदाहरण के लिए हिन्दी का 'मारा' लीजिये, इससे यह नहीं ज्ञात होता कि किसने मारा। मैंने मारा, तुमने मारा,उसने मारा, जो चाहिए समझ लीजिए। 'मारा' का रूप सब के लिए एक ही होगा। इससे साबित है कि अन्तरंग और बहिरंग भाषाएँ प्राचीन आर्यभाषा की भिन्न-भिन्न शाखाओं से निकली हैं, इनका उत्पत्तिा स्थान एक नहीं है।''1

पहले पृष्ठों में मैंने इस सिध्दान्त को नहीं स्वीकार किया है, कि आर्य जाति बाहर से आई। मैंने प्रमाणों के द्वारा यह सिध्द किया है कि आर्य जाति भारत के पश्चिमोत्तार भाग से ही आकर भारतवर्ष में फैली। यद्यपि इस सिध्दान्त के मानने से भी मधयदेश में आर्यों के इस दल का पहले और दूसरे दल का बाद में आना

1. देखो हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा नामक ग्रन्थ का पृष्ठ 14।

स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु इस स्वीकृति की बाधाक वह विचार परम्परा है, जो इस बात को भली-भाँति प्रमाणित कर चुकी है कि पश्चिमागत आर्य-जाति का समूह चिरकाल तक सप्त-सिन्धाु में रहा, और वहीं वैदिक संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ। मेरा विचार है पूर्वागत और नवागत आर्य समूह की कल्पना, और इस सिध्दान्त के आधाार पर अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं की सृष्टि-युक्ति-संगत नहीं, हर्ष है कि आजकल इस विचार का विरोधा होने लगा है।

कुछ विवेचक भाषा-विभिन्नता सिध्दान्त को साधाारण मानते हैं, उनका कथन है कि विभिन्नताएँ वे विशेषताएँ नहीं बन सकतीं, जो किसी एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग करती हैं। बहिरंग भाषा की जिन विभिन्नताओं के आधाार पर अन्तरंग भाषा को उससे अलग किया जाता है, वे स्वयं उसमें मौजूद हैं। इन लोगों ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं। अन्तरंग और बहिरंग भाषा की उपरिलिखित विभिन्नताओं की चर्चा करके ''हिन्दी भाषा और साहित्य'' नामक ग्रन्थ में यह लिखा गया है-

''इस मत का अब खंडन होने लगा है और दोनों प्रकार की भाषाओं के भेद के जो कारण ऊपर दिखाये गये हैं, वे अयथार्थ सिध्द हैं। जैसे-'स' का 'ह' हो जाना केवल बहिरंग भाषा का ही लक्षण नहीं है, किन्तु अन्तरंग मानी जाने वाली पश्चिमी हिन्दी में भी ऐसा होता है। इसके तस्य-तस्स-तास-ताह-ता (ताके-ताहि इत्यादि) करिष्यति-करिस्सदि-करिसद-करिहइ-करिहै, एवं केसरी से केहरी आदि बहुत से उदाहरण मिलते हैं। इसी प्रकार बहिरंग मानी जाने वाली भाषाओं में भी 'स' का प्रयोग पाया जाता है-जैसे राजस्थानी (जयपुरी) करसी, पश्चिमी पंजाबी 'करेसी' इत्यादि। इसी प्रकार संख्या-वाचकों में 'स' का 'ह' प्राय: सभी मधयकालीन तथा आधाुनिक आर्य-भाषाओं में पाया जाता है। जैसे पश्चिमी हिन्दी में 'ग्यारह' 'बारह' चौहत्तार इत्यादि।''1

अन्तरंग बहिरंग भेद के संयोगावस्था के प्रत्ययों और वियोगावस्था के स्वतन्त्रा शब्दों के भेद की कल्पना भी दुर्लभ है। अन्तरंग मानी गई पश्चिमी हिन्दी तथा अन्य सभी आधाुनिक भाषाओं में संयोगावस्थापन्न रूपों का आभास मिलता है। यह दूसरी बात है कि किसी में कोई रूप सुरक्षित है, किसी में कोई। पश्चिमी हिन्दी और अन्य आधाुनिक आर्य-भाषाओं की रूपावली में स्पष्टत: हम यही भेद पाते हैं कि उसमें कारक चिद्दों के पूर्व विकारी रूप ही आते हैं। जैसे-'घोड़े का' में 'घोड़े'। यह घोड़े,घोड़हि (घोटस्य अथवा घोटक + तृतीया बहुवचन विभक्ति, 'हि'-भि:) से निकला है। यह विकारी रूप संयोगावस्थापन्न होकर भी अन्तरंग मानी गई भाषा का है। इसके विपरीत बहिरंग मानी गई बँगला का घोड़ार, और बिहारी का 'घोराक' रूप

1. देखो 'हिन्दी भाषा और साहित्य' पृ. 32

संयोगावस्थापन्न नहीं किन्तु घोटककर और घोटक + कर-क्क से घिस घिसाकर बना हुआ सम्मिश्रण है। पुनश्च अन्तरंग मानी हुई जिस पश्चिमी हिन्दी में वियोगावस्थापन्न रूप ही मिलने चाहिए, कारकों का बोधा स्वतन्त्रा सहायक शब्दों के द्वारा होना चाहिए, उसी में प्राय: सभी कारकों में ऐसे रूप पाये जाते हैं, जो नितान्त संयोगावस्थापन्न हैं। अतएव वे बिना किसी सहायक शब्द के प्रयुक्त होते हैं।

उदाहरण लीजिए-

कत्तर्ाा एकवचन-घोड़ो (ब्रजभाषा) घोड़ा (खड़ी बोली) घरु (ब्रजभाषा नपुंसकलिंग)।

कत्तर्ाा बहुवचन-घोड़े (-घोड़ेह घोड़हि = तृतीया बहुवचन 'मैं' के समान प्रथम में प्रयुज्यमान)।

करण-ऑंखों (=अक्खिहिं, खुसरो वाको ऑंखों दीठा-अमीर खुसरो) कानों (कण्णाहिं)।

करण-(कत्तर्ाा)-मैं (ढोला मइं तुहुँ वारिआ) मैं सुन्यो साहिबिन ऑंषिकीन - पृथ्वी तैं, मैं ने, तैं ने (दुहरी विभक्ति)-

अपादान-एकवचन-भुक्खा (=भूख से-बाँगड़ई) भूखन, भूखों (ब्रज-भाषा, (कनौजी)।

अधिाकरण-एकवचन-घरे-आगे-हिंडोरे (बिहारी लाल) माथे (सूरदास)।

दूसरे बहिरंग मानी गई पश्चिमी पंजाबी में भी पश्चिमी हिन्दी के समान सहायक शब्दों का प्रयोग होता है। घोड़ेदा (घोडे क़ा) घोड़े ने घोड़े नूँ इत्यादि। इससे यह निष्कर्ष निकला कि बँगला आदि में पश्चिमी हिन्दी से बढ़कर कुछ संयोगावस्थापन्न रूपावली नहीं मिलती। अत: उसके कारण दोनों में भेद मानना अयुक्त है।''1

डॉक्टर चटर्जी ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है, और अपने सिध्दान्त के प्रतिपादन में बड़ा पाण्डित्य प्रदर्शन किया है। खेद है कि मैं उनके सम्पूर्ण विवेचन को स्थान की संकीर्णता के कारण यहाँ नहीं उठा सकता। परन्तु विवेचना के अन्तिम निर्णय को लिख देना चाहता हूँ, वह यह है और मैं उससे पूर्णतया सहमत हूँ-

''पुरातत्तव और मानव इतिहास के आधाार पर 'बहिरंग' आर्यों का 'अंतरंग' आर्यों के चारों ओर बस जाने की बात को पुष्ट करने की चेष्टा उसी प्रकार अप्रमाणित रह जाती है, जैसे भाषा सम्बन्धाी सिध्दान्त के सहारे से निश्चित की हुई बातें।''2

1. "The attempt to establish on anthropometrical and ethnological grounds a ring of "Outer" Aryandom round an "Inner" core is as unconvincing as that on Iniguistic grounds."

देखो-'हिन्दी भाषा और साहित्य', पृ. 151, 152।

2. देखो, 'आरेजिन ऐंड डवलेपमेण्ट ऑफ बंगाली लैंग्वेज', पृ. 33 (§ 31)


 

 

 

 

 

षष्ठ प्रकरण

i

हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ सर्वनाम
और उसकी क्रियाएँ

हिन्दी विभक्तियों के विषय में कुछ विद्वानों ने ऐसी बातें कही हैं, जिससे यह पाया जाता है, कि वे विदेशीय भाषाओं से अथवा द्राविड़ भाषा से उसमें गृहीत हुई हैं, इसलिए इस सिध्दान्त के विषय में भी कुछ लिखने की आवश्यकता ज्ञात होती है। क्योंकि यदि हिन्दी भाषा वास्तव में शौरसेनी अपभ्रंश से प्रसूत है, तो उसकी विभक्तियों का उद्गम भी उसी को होना चाहिए। अन्यथा उसकी उत्पत्तिा का सर्वमान्य सिध्दान्त संदिग्धा हो जाएगा। किसी भाषा के विशेष अवयव और उसके धाातु किसी मुख्य भाषा पर जब तक अवलम्बित न होंगे, उस समय तक उससे उसकी उत्पत्तिा स्वीकृत न होगी। ऐसी अनेक भाषाएँ हैं, जिनमें विदेशी भाषाओं की कुछ क्रियाएँ भी मिल जाती हैं। यदि केवल उनके आधाार से हम विचार करने लगेंगे तो उस विदेशी भाषा से ही उनकी उत्पत्तिा माननी पड़ेगी, किन्तु यह बात वास्तविक और युक्ति-संगत न होगी। दूरी बात यह है कि एक ही भाषा में विभिन्न भाषाओं के अनेक व्यावहारिक शब्द मिलते हैं, विशेष करके आदान-प्रदान अथवा खान-पान एवं व्यवहार सम्बन्धाी। यदि ऐसे कुछ शब्दों को ही लेकर कोई यह निर्णय करे कि इस भाषा की उत्पत्तिा उन सभी भाषाओं से है, जिनके शब्द उसमें पाये जाते हैं, तो कितनी भ्रान्तिजनक बात होगी, और इस विचार से तथ्य का अनुसंधाान कितना अव्यावहारिक हो जाएगा। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रखकर किसी भाषा का मूल निधर्ाारण करने के लिए उससे सम्बन्धा रखने वाले मौलिक आधाारों की ही मीमांसा आवश्यक होती है। विभक्तियों और प्रत्ययों की गणना भाषा के मौलिक अंगों में ही की जाती है। इसलिए विचारणीय यह है कि हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ कहाँ से आई हैं, और उनका आधाार क्या है?

''डॉक्टर 'के' कहते हैं कि हिन्दी का 'को' (जैसे-हमको) और बँगला का 'के' (जैसे राम के) तातार देशीय अन्त्यवर्ण 'क' से आगत हुआ है। डॉक्टर 'काल्डवेल' अनुमान करते हैं कि द्राविड़ भाषा के 'कु' से हिन्दी भाषा का 'को' लिया गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिन्दी प्रभृति देशी भाषाएँ द्राविड़ भाषा से उत्पन्न हुई हैं। डॉक्टर हार्नली और राजा राजेन्द्र लाल मित्रा ने इन सब मतों का अयुक्त होना सिध्द किया है।'' डॉक्टर हार्नली की सम्मति यहाँ उठाई जाती है-

''डॉक्टर 'काल्डवेड' का कथन है कि आर्यगण, आर्यावर्त जय करके जितना आगे बढ़ने लगे, उतना ही देश में प्रचलित अनार्य भाषा संस्कृत शब्दों के ऐश्वर्य द्वारा पुष्टि लाभ करने लगी। इसलिए यह भ्रम होता है, कि अनार्य भाषाएँ संस्कृत से उत्पन्न हैं। किन्तु संस्कृत का प्रभाव कितना ही प्रबल क्यों न हो, इन सब भाषाओं का व्याकरण उसके द्वारा परिवर्तित न हो सका। इसके उत्तार में डॉक्टर हार्नली कहते हैं, आर्यगण बहुत समय तक आर्यर्ावत्ता में रहकर सहसा अनार्य गणों की भाषा ग्रहण कर लेंगे, यह बात विश्वास योग्य नहीं। उन लोगों ने चिरकाल तक संस्कृत जातीय पाली और प्राकृत भाषा का व्यवहार किया था, यह बात विशेष रूप से प्रमाणित हो गई है। नाटकादिकों के प्राकृत द्वारा यह भी दृष्टिगत होता है कि विजित अनार्यों ने भी अपने प्रभुओं की भाषा को ग्रहण कर लिया था। इतने समय तक हिन्दू लोग अपनी भाषा और व्याकरण को अनार्यगण में प्रचलित रखकर भी अन्त में क्यों
अनार्य व्याकरण के शरणागत होंगे, यह विचारणीय है। दूसरी बात यह है कि देशभाषाओं की उत्पत्तिा के समय (आर्यभाषा की दीर्घकाल व्यापी अखंड राजत्व के उपरान्त) विजित अनार्यगण की भाषा देश में प्रचलित थी। इसका भी कोई प्रमाण्ा नहीं है। इतिहास में अवश्य कभी-कभी यह भी देखा गया है, कि विजेता जातियों ने विजित जातियों का व्याकरण ग्रहण कर लिया है,जैसे नार्मन लोगों ने इंग्लैण्ड में और अरब एवं तुर्की लोगों ने आर्यावर्त में तथा फ्रान्स वालों ने गल में। किन्तु इन सब स्थानों में विजेता लोग विजित लोगों की अपेक्षा अल्प शिक्षित थे। उपनिवेश स्थापन के प्रारम्भ काल से ही भाषा ग्रहण का सूत्रापात उन्होंने कर दिया था। विजयी जाति बहुकाल पर्यन्त अपनी भाषा और स्वातंत्रय गौरव की रक्षा करके अन्त में असभ्य जातियों के निकट उसको विसर्जित कर दे, इतिहास में कहीं यह बात दृष्टिगत नहीं होती।''1

देशीय भाषाओं को समस्त-विभक्तियाँ प्राकृत से ही प्राप्त हुई हैं, इस बात को डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा, हार्नली, और अन्य जर्मन पण्डितों ने दिखलाने की चेष्टा की है और विद्वानों ने भी इस सिध्दान्त को पुष्ट किया है। मैं क्रमश: प्रत्येक विभक्तियों के विषय में उन लोगों के विचारों का उल्लेख करता हूँ।

1. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 36

1. कत्तर्ाा कारक में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के साथ ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली में 'ने' का प्रयोग होता है, किन्तु अवधाी में ऐसा नहीं होता। ब्रज भाषा में भी प्राय: कवियों ने इस प्रयोग का त्याग किया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अवधाी के समान ब्रजभाषा में 'ने' का प्रयोग होता ही नहीं। प्रथमा एकवचन में कहीं-कहीं कत्तर्ाा के साथ 'ए' का प्रयोग देखा जाता है। यथा-''शु अणेहु शिक्षाण कम्प के शामीए निध्दण के विशोहेदि मृ. क. 3 अंक'' बँगला भाषा में भी पहले इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है-यथा

कदाचित ना दे सिध्दहेनो रूप ठान।

कोन मते विधााता ए करिछे निर्माण। रामेश्वरी महाभारत, पृ. 89

''किन्तु अब बँगला में भी प्रथमा एकवचन में इस 'ए' का अभाव है, अब बँगला में प्रथमा का रूप संस्कृत के समान होता है, किन्तु अनुस्वार अथवा विसर्ग वर्ज्जित''। 1 प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा के उक्त 'ए' का सम्बन्धा क्या हमारी हिन्दी भाषा के'ने' सेहै?

'एक विद्वान की सम्मति है कि यह 'ने' वास्तव में करण कारक का चिद्द है, जो हिन्दी में गृहीत कर्मवाच्य रूप के कारण आया है, संस्कृत में करण कारक का 'इन' प्राकृत में 'एण' हो जाता है, इसी 'इन' का वर्ण विपरीत हिन्दी रूप में 'ने' है।''2

2. कर्म्म और सम्प्रदान। टम्प का अनुमान है कि बँगला कर्म और सम्प्रदान कारक का 'के' संस्कृत के सप्तमी में प्रयुक्त'कृते' शब्द से आया है। इस 'कृते' के निमित्ताार्थक प्रयोग का उदाहरण स्थान-स्थान पर मिलता है-यथा।

वालिशो वत कामात्मा राजा दशरथो भृशम्।

प्रस्थापयामास वनं ò ीकृते य: प्रियंसुतम्ड्ड

यह कृते शब्द प्राकृते में 'किते' 'किउ' एवं 'को' इन तीनों रूपों में ही व्यवहृत हुआ है। इसलिए टम्प का यह अनुमान है कि शेषोक्त 'को' के साथ हिन्दी के 'को' और बँगला के 'के' का सम्बन्धा है। 3

'बंगभाषा और साहित्य' नामक ग्रन्थ के रचयिता टम्प की सम्मति से सहमत न होकर अपनी सम्मति यों प्रकट करते हैं-

''मैक्समूलर कहते हैं कि संस्कृत के स्वार्थे 'क' से बँगला का के (हिन्दी का

1. बंगभाषा और साहित्य, पृष्ठ 38

2. दे. हिन्दी भाषा और साहित्य, पृ. 138।

3. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 39।

को) आया है। पिछले समय में संस्कृत में स्वार्थे 'क' का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। मैं मैक्समूलर के मत को ही समीचीन समझता हूँ।

श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-

''पुरानी संस्कृत का एक शब्द 'कृते', है जिसका अर्थ है (लिए) होते-होते इसका रूपान्तर 'कहुँ' हुआ, वर्तमान 'को' इसी का अपभ्रंश है'' हिन्दी-भाषा की उत्पत्तिा, पृ‑70।

एक विद्वान् की सम्मति और सुनिए-

''संस्कृत रूप 'कृते प्राकृत में किते हो गया, और नियमानुसार त का लोप होने से 'किये' हुआ, और फिर वही के में परिणत हो गया। 'को' प्रत्यय संस्कृतके कर्म्म-कारक के नपुंसक 'कृत' से हुआ। प्राकृत में 'कृत' बदलकर 'कितो' हुआ, और त के लोप होने से 'कियो' बना, और अन्त में उसने 'क' का रूप धाारण कर लिया।''1

आप लोगों ने सब सम्मतियाँ पढ़ लीं, अधिाकांश सम्मति यही है कि 'को' की उत्पत्तिा 'कृते' से है। 'को' का प्रयोग कर्म-कारक में तो होता ही है, संप्रदान के लिए भी होता है, संप्रदान की एक विभक्ति 'के लिए' भी है। 'कृते' में यह निमित्ताार्थक भाव भी है, जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है। इसलिए मैं भी 'कृते' से ही 'को' की उत्पत्तिा स्वीकार करता हूँ।

3. करण और अपादान कारक की विभक्ति हिन्दी भाषा में 'से' है। करण कारक के साथ 'से' प्राय: उसी अर्थ का द्योतक है,जिसको संस्कृत का 'द्वारा' शब्द प्रकट करता है, इस 'से' में एक प्रकार से सहायक होने अथवा सहायक बनने का भाव रहता है। यदि कहा जाये कि 'बाण से मारा' तो इसका यही अर्थ होगा कि बाण द्वारा अथवा बाण के सहारे से या बाण की सहायता से मारा। परन्तु अपादान का 'से' इस अर्थ में नहीं आता, उसके 'से' में अलग करने का भाव है। जब कहा जाता है 'घर से निकल गया' तो यही भाव उससे प्रकट होता है कि निकलने वाला घर से अलग हो गया। जब कहते हैं 'पर्वत से गिरा' तो भी वाक्य का 'से' पर्वत से अलग होने का भाव ही सूचित करता है। 'से' एक विभक्ति होने पर भी करण और अपादान कारकों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। 'बंग-भाषा और साहित्य' कार लिखते हैं-''प्राकृत में 'हिंतो' शब्द पंचमी के बहुवचन में व्यवहृत होता है, इसी 'हिंतो' शब्द से बँगला 'हइते' की उत्पत्तिा हुई है।'' उन्होंने प्रमाण के लिए वररुचि का यह सूत्रा भी लिखा है 'भावो हिंतो सुंतो'। ब्रजभाषा में 'से' का प्रयोग नहीं मिलता उसमें तें का प्रयोग 'से' के स्थान पर देखा जाता है। 'से' के स्थान पर कबीरदास को 'सेती' अथवा 'सेंती' और चन्दबरदाई को 'हुँत' लिखते पाते हैं। इससे अनुमान होता है कि जैसे बँगला में 'हिंतो' से हइते बना, उसी प्रकार हिन्दी में 'हुँत' और

1. देखिए, ओरिजिन ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज, पृ. 11।

'तें' और ऐसे ही 'सुंतो' के आधाार से 'सेंती' और से। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि संस्कृत के 'सह' अथवा सम से 'से'की उत्पत्तिा हुई है। करण में सहयोग का भाव पाया जाता है, ऐसी अवस्था में उसकी विभक्ति की उत्पत्तिा 'सह' होने की कल्पना स्वाभाविक है। इसी प्रकार 'सम' से 'से' की उत्पत्तिा का विचार इस कारण से हुआ पाया जाता है कि प्राचीन कवियों को सम को'से' के स्थान पर प्रयोग करते देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

कहि सनकादिक इन्द्र सम।

बलि लागौ जुधा इन्द्र समड्ड

पृथ्वीराज रासो।

अवधाी में, कहीं ब्रजभाषा में भी 'से' के स्थान पर 'सन' का प्रयोग किया जाता है। इस 'सन' के स्थान पर 'सें' और सों भी होता है। इसलिए कुछ भाषा-मर्मज्ञों ने यह निश्चित किया है कि 'सम' से 'सन' हुआ और 'सन' से सों और फिर 'से' हुआ। ऊपर लिख आया हँ कि प्राकृत में पंचमी बहुवचन में 'हितो' होता है। अनुमान किया गया है कि 'हितो' से ही पंचमी का 'तें'बना परन्तु 'से' का ग्रहण पंचमी में कैसे हुआ, यह बात अब तक यथार्थ रूप से निर्णीत नहीं हुई।

4. सम्बन्धा कारक की विभक्ति के विषय में अनेक मत देखा जाता है-मि. बप् अनुमान करते हैं कि हिन्दी का 'का' और बँगला-भाषा की षष्ठी विभक्ति का चिद्द, संस्कृत षष्ठी बहुवचन के 'अस्माकम्' एवं 'युष्माकम्' इत्यादि के 'क' से गृहीत है। 1किन्तु हार्नली साहब ने बप् के अनुमान के विरुध्द अनेक युक्तियाँ दिखलाई हैं, उनके मत से संस्कृत के 'कृते' के प्राकृत रूपान्तर से ही बँगला और हिन्दी के षष्ठी कारक का चिद्द, 'का' अथवा विभक्ति ली गई है2 'कृते' से प्राकृत 'केरक' उत्पन्न हुआ है। इस 'केरक' का अनेक उदाहरण पाया जाता है, जहाँ यह 'केरक', शब्द प्रयुक्त हुआ है, वहाँ उसका कोई स्वकीय अर्थ दृष्टिगत नहीं होता, वहाँ वह केवल षष्ठी के चिद्द-स्वरूप ही व्यवहृत हुआ है-यथा

'' तुमम पि अप्पणो केरिकम् जादि मसुमरेसि ''

'' कस्स केरकम् एदम् पवँणम् '' मृ-क षष्ठ-अंक

इसी केरक अथवा केरिक से हिन्दी 'कर' 'केर' और 'केरी' की उत्पत्तिा हुईहै। 3

पहले लिखा गया है कि मैक्समूलर की यह सम्मति है कि संस्कृत का स्वार्थे 'क' ही बदलकर कर्म्मकारक का 'को' हो गया है, 'बंगभाषा और साहित्य' के रचयिता

1-2. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 43, 44

3. बंगभाषा और साहित्य पृ. 43, 44

ने इसको स्वीकार भी किया है, मेरा विचार है कि इसी स्वार्थे 'क' से षष्ठी विभक्ति के 'का' की उत्पत्तिा हुई है। केरक के स्थान में प्राकृत भाषा में केरओ प्रयोग मिलता है, यही केरओ काल पाकर केरो बन गया, कर,केर और केरी भी हुआ परन्तु सम्बन्धा का चिद्द 'का' 'की' 'के' भी यही बन गया, यह कुछ क्लिष्ट कल्पना ज्ञात होती है। जैसे-केरो, केरी, और कर का प्रयोग हिन्दी-साहित्य में मिलता है-यथा

बंदों पदसरोज सब केरे-तुलसी

क्षत्रा जाति कर रोष-तुलसी

हौं पंडितन केर पछलगा-जायसी

उसी प्रकार 'क' का प्रयोग भी देखा जाता है-यथा

वनपति उहै जेहि क संसारा-

बनिय d सखरज ठकुर क हीन।

वैद क पूत व्याधा नहिं चीन।

जब सम्बन्धा में d का प्रयोग देखा जाता है, तो यह विचार होता है कि क्या यही स्वार्थे क बदल कर सम्बन्धा की विभक्ति तो नहीं बन गया है? जो कहीं अपने मुख्य रूप में और कहीं 'का' 'के' 'की' बनकर प्रकट होता है! यदि वह कर्म्म का चिद्द मैक्समूलर के कथनानुसार हो सकता है, तो सम्बन्धा का चिद्द क्यों नहीं बन सकता। पहला विचार यदि विवाद-ग्रस्त हो तो हो सकता है, परन्तु यह विचार उतना वादग्रस्त नहीं वरन् अधिाकतर संभव परक है, यदि कहा जावे कि स्वार्थे d का अर्थ वही होता है, जो उस शब्द का होता है, जिसके साथ वह रहता है, उसका अलग अर्थ कुछ नहीं होता, जैसे संस्कृत का वृक्षक,चारुदत्ताक, अथवा पुत्राक आदि, एवं हिन्दी का बहुतक, कबहुँक एवं कछुक आदि। तो जाने दीजिए उसको, निम्नलिखित सिध्दान्त को मानिए-

प्राय: तत्सम्बन्धाी अर्थ में संस्कृत में एक प्रत्यय 'क' आता है-

जैसे-मद्रक = मद्र देश का, रोमक = रोम देश का। प्राचीन हिन्दी में का के स्थान में क पाया जाता है, जिससे यह जान पड़ता है कि हिन्दी का 'का' संस्कृत के d प्रत्यय से निकला है। 1

जो कुछ अबतक कहा गया उससे इस सिध्दान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि प्राकृत भाषा का 'केरक, केरओ', आदि से'केरा, केरी, और केरो', आदि की और सम्बन्धा सूचक संस्कृत के 'क' प्रत्यय से ''का, के,'' की उत्पत्तिा अधिाकतर युक्तिसंगत है।

5. अधिाकरण कारक का चिद्द हिन्दी में 'मैं' 'मांहि' 'मांझ' इत्यादि है। साथ

1. देखो, 'हिन्दी भाषा और साहित्य', पृष्ठ 143।

ही ''पै, पर'' आदि का प्रयोग भी सप्तमी में देखा जाता है जैसे कोठे पर है। केवल ''ए का प्रयोग भी संस्कृत के समान ही हिन्दी में भी देखा जाता है-जैसे, आप का कहा सिर माथे, में थे का ''ए''। सप्तमी में इस प्रकार का जो क्वचित् प्रयोग खड़ी बोलचाल में देखा जाता है, यह बिलकुल संस्कृत के 'गहने' 'कानने' आदि सप्तम्यन्त प्रयोग के समान है, ब्रजभाषा और अवधी में इस प्रकार का अधिक प्रयोग मिलता है-जैसे घरे गैलें, आदि। ''पर और पै'' का प्रयोग संस्कृत के ''उपरि'' शब्द से हिन्दी में आया है। एक विद्वान् की यह सम्मति है-

''हिन्दी के कुछ रूपों में अधिाकरण कारक के 'में' चिद्द के स्थान पर 'पै' का प्रयोग होता है, इसकी उत्पत्तिा संस्कृत के उपरि शब्द से हुई है। पहले पहल उपरि का पर हुआ, जैसे मुख पर-बाद को पै बन गया।''1

मैं, माँहि, माँझ इत्यादि की उत्पत्तिा कहा जाता है कि मधय से हुई है। ब्रजभाषा और अवधाी दोनों में माँहि और माँझ का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु खड़ी बोली में केवल 'में' का व्यवहार होता है। ब्रजभाषा में 'में' के स्थान पर 'मैं' ही प्राय: लिखा जाता है। प्राकृत भाषा का यह नियम है कि पद के आदि का 'धय' 'झ' और अन्त का 'धय' 'ज्झं' हो जाता है। 2 इस नियम के अनुसार मधय शब्द का अन्त्य 'धय' जब 'ज्झ' से बदल जाता है, तो मज्झ शब्द बनता है, यथा-बुधयते, बुज्झते,सिधयति-सिज्झति इत्यादि। यही मज्झ शब्द ब्रजभाषा और अवधाी में माँझ, और अधिाक कोमल होकर माँह, माहिं आदि बनता है। इसी माँह, माँहि से मैं और में की उत्पत्तिा भी बतलाई जाती है। प्राकृत की सप्तमी एक वचन में ''स्ंमि'' का प्रयोग होता है। कुछ लोगों की सम्मति है कि प्राकृत के स्ंमि अथवा म्मि से में अथवा मैं की उत्पत्तिाहै। 3

विभक्तियों के विषय में यद्यपि यह निश्चित है कि वे संस्कृत अथवा प्राकृत से ही हिन्दी अथवा अन्य गौड़ीय4 भाषाओं में आई हैं। परन्तु कभी-कभी विरुध्द बातें भी सुनाई पड़ती हैं, जैसे-यह कि द्राविड़ भाषा के सम्प्रदान कारक के 'कु' विभक्ति से हिन्दी भाषा के 'को' अथवा बँगला भाषा के 'के' की उत्पत्तिा हुई। ऐसी बातों में प्राय: अधिाकांश कल्पना ही होती है। इसलिए,उनमें वास्तवता नहीं होती, विशेष विवेचन होने पर उनका निराकरण हो जाता है। तो भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अब तक निर्विवाद रूप से विभक्तियों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। जितनी बातें ज्ञात हो सकी हैं, उनका ही उल्लेख यहाँ किया जा सका।

1. देखो 'ओरिजन ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज', पृ. 12

2. देखो 'पालिप्रकाश' मुख्य ग्रन्थ का, पृ. 19

3. देखिए पालि प्रकाश, पृ. 84, हिन्दी भाषा और साहित्य, पृ. 147

4. हार्नली साहब ने निम्नलिखित भाषाओं को गौड़ीय भाषा कहा है। सुविधाा के लिए इन भाषाओं को हम भी कभी-कभी इसी नाम से स्मरण करेंगे।

उड़िया, बँगला, हिन्दी, नेपाली, महाराष्ट्री, गुजराती, सिंधाी, पंजाबी और काश्मीरी।

सर्वनाम भी भाषा के प्रधाान अंग हैं, और किसी भाषा के वास्तविक स्वरूप ज्ञान के लिए क्रिया सम्बन्धाी प्रयोगों का अवगत होना भी आवश्यक है, इसलिए यहाँ पर कुछ उनकी चर्चा भी की जाती है।

उत्ताम पुरुष एकवचन में 'मैं' और बहुवचन में 'हम' होता है, संस्कृत के 'अस्मद्' शब्द से दोनों की उत्पत्तिा बतलाई जाती है। प्राकृत में तृतीया के एकवचन का रूप 'मया' और बहुवचन का रूप 'अम्हेहि' और 'अम्हेभि' होता है। प्रथमा के बहुवचन का रूप 'अम्हे' है1 अपभ्रंश में यह ''मया'' 'मइ; महँ हो जाता है। यथा-'ढोला महँ तुहुँ वारिया' इसी मइँ से हिन्दी के मैं की और बहुवचन ''अम्हेहि'' अथवा ''अम्हे'' से हम की उत्पत्तिा बतलायी जाती है। मृच्छकटिक नाटक में ''अस्मद्'' का प्राकृत रूपआम्हि भी मिलता है, कहा जाता है, इसी आम्हि से बँगला के आमि की उत्पत्तिा हुई है। 2 बँगला के आमि से हमारे मैं और हम की बहुत कुछ समानता है। आगे चलकर इसी मैं से ''मुझे'' ''मुझको'' और ''मेरा'' आदि और हम से ''हमको और हमारा''आदि रूप बनते हैं। एक विद्वान की सम्मति है कि अहम् से 'हम' की उत्पत्तिा वैसे ही है, जैसे v के गिर जाने से अहै से हैकी।

मधयम पुरुष का तू, तुम संस्कृत युष्मन् से बनता है। प्राकृत में प्रथमा का एकवचन त्वं और तुवं और बहुवचन 'तुम्ह'होता है। चतुर्थी और षष्ठी का एकवचन ''तुम्हं'' बनता है। 3 इन्हीं के आधाार से तू और तुम की उत्पत्तिा हुई है। बँगला में तुम को तुमि लिखते हैं, दोनों में बहुत अधिाक समानता है, कहा जाता है इस तुमि की उत्पत्तिा भी 'तुम्हि' से ही हुई है4 इसी तुम से ''तुझ'' और तुम्हारा एवं तेरा आदि रूप आगे चलकर बने। हिन्दी में अब तक ''तुम्ह'' का प्रयोग भी होता है।

मधयम पुरुष के लिए आप शब्द भी प्रयुक्त होता है, इस शब्द का आधाार संस्कृत का 'आत्मन्' शब्द है। इसका प्राकृत रूप अप्पा और अप्पि है। 5इसी से आप शब्द निकलता है, बँगला में आपके स्थान पर आपनि और बिहार में आपुन बोला जाता है, जिसमें, आत्मन् की पूरी झलक है।

अन्य पुरुष के शब्द वह और वे संस्कृत के (अदस्) शब्द से बने हैं, यह कुछ लोगों की सम्मति है। प्रथमा एकवचन में इसका प्राकृतरूप असु और बहुवचन में अमू होता है, 6संस्कृत के प्रथमा एकवचन में असौ होता है, प्राकृत में यही असौ, अखु हो जाता है। अपभ्रंश में प्राय: वह के स्थान पर सु प्रथमा एकवचन में आता

1. देखिए, पालिप्रकाश, पृ. 153

2. देखिए 'बंगभाषा और साहित्य', पृ. 25

3. देखिए, पालिप्रकाश, पृ. 152

4. देखिए, बंगभाषा और साहित्य, पृ. 26

5. वही, पृ. 24

6. देखिए, पालि प्रकाश, 

है-यथा ''अन्नु सुघण थण हारु'' ''सु गुण लायण्ण निधिा'' ऐसी अवस्था में कहा जा सकता है कि इसी 'सु' से वह की उत्पत्तिा है। परन्तु यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि अ गिर गया है। यह क्लिष्ट कल्पना है। एक दूसरे विद्वान् भी संस्कृत के असौ से ही वह और वे की उत्पत्तिा मानते हैं। 1 तद् के प्रथमा एकवचन का रूप 'स' और बहुवचन का रूप ते होता है पुंल्लिंग में। स्त्राीलिंग में यही सा और ता हो जाता है। तद् के द्वितीया का एकवचन पुंल्लिंग में तं और स्त्राीलिंग में ताम होगा। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों में इनका व्यवहार देखा जाता है।

' सा दिसि जोइ म रोइ ' ' सा मालइ देसन्तरिअ '

' तंतेवड्डउँ समरभर ' ' सो च्छेयहु नहिंलाहु '

तं तेत्तिाउ जलु सायर हो सो ते बहुवित्थारु

' जइ सो वड़दि प्रयावदी ' ' ते मुग्गडा हराविआ '

' अन्ने ते दीहर लोअण '

इससे पाया जाता है कि स: से 'सो' और वह की और 'ते' से 'वे' की उत्पत्तिा है। ब्रजभाषा और अवधाी दोनों में वह के स्थान पर 'सो' का और वे के स्थान पर ते का बहुत अधिाक प्रयोग है। गद्य में अब भी 'वह' के स्थान पर 'सो' का प्रयोग होते देखा जाता है। यदि ते से वे की उत्पत्तिा मानने में कुछ आपत्तिा हो तो उसको वह का बहुवचन मान सकते हैं।

प्राकृत भाषा का यह सिध्दान्त है कि त वर्ग; 'ण' 'ह', और 'र' के अतिरिक्त जब किसी दूसरे व्यंजन वर्ण के बाद यकार होता है तो प्राय: उसका लोप हो जाता है, और तत् संयुक्तवर्ण के द्वित्व प्राप्त होता है। 2 इस सिध्दान्त के अनुसार कस्य को कस्स और यस्य का जस्स और तस्य का तस्स प्राकृत में होता है, और फिर उनसे क्रमश: किस, कास, कासु जास, जासु और तास, तासु आदि रूप बनते हैं। ऐसे ही संस्कृत क: से प्राकृत को और हिन्दी कौन-संस्कृत य: से प्राकृत में जो बनता है। जो हिन्दी में उसी रूप में गृहीत हो गया है। संस्कृत किम् से हिन्दी का क्या और कोपि से हिन्दी का कोई निकला है। अपभ्रंश में किम् का रूप काँइ और कोपि का रूप कोवि पाया जाता है यथा ''अम्हे निन्दहु कोबिजण अम्हे बप्णउ कोबि'' ''काइँ न दूरे देक्खइ।''

हिन्दी भाषा की अधिाकांश क्रियाएँ संस्कृत से ही निकली हैं। संस्कृत में क्रियाओं के रूप 500 से अधिाक पाये जाते हैं,उन सबके रूप हिन्दी में नहीं मिलते, फिर भी जो क्रियाएँ संस्कृत से हिन्दी में आई हैं, उनकी संख्या कम नहीं है। हिन्दी में कुछ क्रियाएँ, अन्य भाषाओं से भी बना ली गई हैं, परन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी

1. पालिप्रकाश, 

2. ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज,  

है। उनकी चर्चा आगे के प्रकरण में की जाएगी। संस्कृत क्रियाओं का विकास हिन्दी में किस रूप में हुआ है, और हिन्दी में किस विशेषता से वे ग्रहण की गई हैं, केवल इसी विषय का वर्णन थोड़े में यहाँ करूँगा, प्रत्येक विषयों का दिग्दर्शन मात्रा ही इस ग्रन्थ में हो सकता है, क्योंकि अधिाक विस्तार का स्थान नहीं। विशेष उल्लेख योग्य खड़ी बोली की क्रियाएँ हैं। जिनका मार्ग अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं से सर्वथा भिन्नहै।

खड़ी बोल-चाल को हिन्दी में 'है' का एकाधिापत्य है 'था' का व्यवहार भी उसमें अधिाकता से देखा जाता है। बिना इनके अनेक वाक्य अधाूरे रह जाते हैं और यथार्थ रीति से अपना अर्थ प्रकट नहीं कर पाते। 'है' की उत्पत्तिा के विषय में मतभिन्नता है! कोई-कोई इसकी उत्पत्तिा अस् धाातु से बतलाते हैं और कोई भू धाातु से। ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज के रचयिता यह कहते हैं-

''संस्कृत में भू-भवानि-भव, भोमि के स्थान पर वररुचि ने भू-हो-हुआ आदि रूप दिया है। दो सहò वर्ष से 'हो' का प्रयोग होने पर भी ब्रजभाषा के भूतकाल के भू-धाातु का रूप भया-भये-भयो आदि का प्रयोग अब तक होता है। 'हो' का प्रकृत रूप''होमे'' और हिन्दी रूप 'हूं' है। 1

इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि वररुचि ने भू धाातु से ही होना धाातु की उत्पत्तिा मानी है, इसी होना का एक रूप 'है'है। अवधाी में 'है' के स्थान पर 'अहै का प्रयोग भी होता है' यथा

'' साँची अहै कहनावतिया अरी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई ''

इसलिए यह विचार अधिाकता से माना जाता है कि अस् से ही है की उत्पत्तिा है। अस् से अहै स् के ह हो जाने के कारण बना, और व्यवहाराधिाक्य से v के गिर जाने के कारण केवल है का प्रयोग होने लगा। दोनों सिध्दान्तों में कौन माननीय है,यह बात निश्चित रीति से नहीं कही जा सकती, दोनों ही पर तर्क-वितर्क चल रहे हैं, समय ही इसकी उचित मीमांसा कर सकेगा। 'था' की उत्पत्तिा 'स्था' धाातु से मानी जाती है, ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज के रचयिता भी इसी सिध्दान्त को मानते हैं। 2

इस है, और था के आधाार से बने कुछ हिन्दी क्रियाओं के प्रयोग की विशेषताओं को देखिए। संस्कृत चलति का अपभ्रंश एवं अवधाी में चलइ और ब्रजभाषा में चलय अथवा चलै रूप वर्तमान-काल में होगा।

परन्तु खड़ी बोलचाल की हिन्दी में इसका रूप होगा-चलता है। संस्कृत में

1. देखो, ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज,  

2. वही, 

प्रत्यय न तो शब्द से पृथक् है, न अवधाी में, ब्रजभाषा में भी नहीं जो कि पश्चिमी हिन्दी ही है। इनके शब्द संयोगात्मक हैं,उनमें है का भाव मौजूद है। परन्तु खड़ी बोली का काम बिना है के नहीं चला, उसमें है लगा, और बिलकुल अलग रह कर। खड़ी बोली की अधिाकांश क्रियाएँ हैं से युक्त हैं। था के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं। खड़ी बोली के प्रत्ययों और विभक्तियों को प्रकृति से मिलाकर लिखने के लिए दस बरस पहले बड़ा आन्दोलन हो चुका है। कुछ लोग इस विचार के अनुकूल थे और कुछ प्रतिकूल। संयोगवादी प्राचीन प्रणाली की दुहाई देते थे, और कहते थे कि वैदिककाल से लेकर आज तक आर्य्यभाषा की जो सर्वसम्मत रीति प्रचलित है, उसका त्याग न होना चाहिए। प्रकृति से प्रत्ययों और विभक्तियों को अलग करने से पहले तो शब्दों का अयथा विस्तार होता है, दूसरे उनके स्वरूप पहचानने और प्रयोग में बाधाा उपस्थित होती है। वियोगवादी कहते संयोग जटिलता का कारण है, संयुक्त वर्ण जिसके प्रमाण हैं। इसलिए सरलता जनसाधाारण की सुविधाा और बोलचाल पर धयान रखकर जो नियम आजकल इस बारे में प्रचलित हैं, उनको चलते रहना चाहिए। जीत वियोग वादियों की ही हुई। अब भी कुछ लोग प्रकृत और प्रत्ययों को मिलाकर लिखते हैं; परन्तु साधाारणतया वे अलग ही लिखे जाते हैं! कहा जाता है, हिन्दी भाषा में यह प्रणाली फारसी भाषा से आई है। फारसी में प्राय: इस प्रकार के शब्द अलग लिखे जाते हैं और उर्दू उन्हीं अक्षरों में लिखी जाती है जिन अक्षरों में फारसी। इसलिए जैसे हिन्दी की क्रिया आदि उर्दू में लिखे जाते हैं, वैसे ही हिन्दी में भी लिखे जाने लगे। 1इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है, परन्तु मैं इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता। मेरा कथन इतना ही है कि विभक्तियाँ अथवा प्रत्यय प्रकृति के साथ मिलाकर लिखे जाएँ या न लिखे जाएँ। परन्तु ये ही हिन्दी भाषा के वे सहारे हैं, जिनके आधाार से वह संसार को अपना परिचय दे सकती है। इस प्रकरण में मैंने जिन विभक्तियों, सर्वनामों, प्रत्ययों और क्रियाओं का वर्णन किया है, वे हिन्दी भाषा के शब्दों, वाक्यों और उनके अवयवों के ऐसे चिद्द हैं, जो उसको अन्य भाषाओं से अलग करते हैं, इसलिए उनका निरूपण आवश्यक समझा गया।

1. दे., ओरिजन ऐंड डेवलपमेंट आफष् दि बँगला लैंग्वेज,

 

सप्तम प्रकरण

i

हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव

हिन्दी भाषा में सबसे अधिाक संस्कृत के शब्द पाये जाते हैं। इस हिन्दी भाषा से मेरा प्रयोजन साहित्यिक हिन्दी भाषा से है। बोलचाल की हिन्दी में भी संस्कृत के शब्द हैं, परन्तु थोड़े, उसमें तद्भव शब्दों की अधिाकता है। हिन्दुओं की बोलचाल में अब भी संस्कृत के शब्दों के प्रयुक्त होने का यह कारण है, कि विवाह यज्ञोपवीत आदि संस्कारों के समय कथावार्ता और धार्म-चर्चाओं में, व्याख्यानों में और उपदेशों में, नाना प्रकार के पर्व और उत्सवों में, उनको पंडितों का साहाय्य ग्रहण करना पड़ता है। पण्डितों का भाषण अधिाकतर संस्कृत शब्दों में होता है, वे लोग समस्त क्रियाओं को संस्कृत पुस्तकों द्वारा कराते हैं। अतएव उनके व्यवहार में भी संस्कृत शब्द आते रहते हैं। सुनते-सुनते अनेक संस्कृत शब्द उनको याद हो जाते हैं, अतएव अवसर पर वे उनका प्रयोग भी करते हैं। जब पुलकित चित्ता से भगवान का स्मरण करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास के अथवा कविवर सूरदास के पदों को गाते हैं, अन्य भक्तों के भजनों को सुनते हैं, उस समय भी अनेक संस्कृत शब्द उनकी जिह्ना पर आते रहते हैं, और उनके विषय में उनका ज्ञान बढ़ता रहता है। इसलिए हिन्दुओं की बोलचाल में संस्कृत शब्दों का होना स्वाभाविक है। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनकी संख्या अधिाक नहीं है। जो संस्कृत के शब्द अपने शुध्द रूप में व्यवहृत होते हैं,उनको तत्सम कहते हैं, यथा हर्ष, शोक, कार्य्य, कर्म्म, व्यवहार, धार्म्म आदि। जो संस्कृत शब्द प्राकृत में होते हुए हिन्दी तक परिवर्तित रूप में पहुँचे हैं, उनको तद्भव कहते हैं। जैसे काम, कान, हाथ इत्यादि। हिन्दी भाषा इन तद्भव शब्दों से ही बनी है। तद्भव शब्द के लिए यह आवश्यक नहीं है, कि जिस रूप में वह प्राकृत में था, उस रूप को बदलकर हिन्दी में आवे, तभी तद्भव कहलावे, यदि उसने अपना संस्कृत रूप बदल दिया है और प्राकृत रूप में ही हिन्दी में आया है तो भी तद्भव कहलावेगा। हस्त को लीजिए, जब तक इस शब्द का व्यवहार शुध्द रूप में होगा, तब तक वह तत्सम है। प्राकृत में हस्त का रूप हत्थ हो जाता है और हत्थ हिन्दी में हाथ हो जाता है। हिन्दी भाषा की रीढ़ ऐसे ही शब्द हैं, यह स्पष्ट तद्भव है। परन्तु यदि हत्थ के रूप में ही हिन्दी में ले लिया जाता तो भी तद्भव ही कहलाता। प्राकृत में लोचन, लोयन बन जाता है और हिन्दी में इसी रूप में गृहीत होता है, थोड़ा भी नहीं बदलता, तो भी तद्भव ही कहलाता है। क्योंकि लोचन से उत्पन्न होने के कारण लोयन में तद्भवता (उत्पन्न होने का भाव) मौजूद है। तत्सम शब्द के आदि और मधय का हलन्त वर्ण प्राय: हिन्दी में सस्वर हो जाता है, प्राकृत और अपभ्रंश में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, क्योंकि सुखमुखोच्चारण के लिए जनसाधाारण प्राय: संयुक्त वर्णों के हलन्त वर्णों को सस्वर कर देता है, संस्कृत में इसको युक्तविकर्ष कहते हैं, ऐसे ही शब्द अर्ध्द तत्सम कहलाते हैं। धारम, करम;किरपा, हिरदय, अगिन, सनेह आदि ऐसे ही शब्द हैं जो धार्म, कर्म, कृपा, हृदय, अग्नि, स्नेह के वे रूप हैं जो जनता के मुखों से निकले हैं। अवधाी और ब्रजभाषा में ऐसे शब्दों का अधिाकांश प्रयोग मिलता है। इन भाषा के कवियों ने भी भाषा को कोमल करने के लिए ऐसे कुछ शब्द गढ़े हैं। परन्तु खड़ीबोली के कवियों का मार्ग बिलकुल उलटा है, वे अर्ध्द तत्सम शब्दों का प्रयोग करते ही नहीं। हिन्दी का गद्य तो उस को पास फटकने नहीं देता। 1. तत्सम, 2. अर्ध्द तत्सम और 3. तद्भव के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में और एक प्रकार के शब्द पाये जाते हैं, इनको 4. देशज कहते हैं। ये देशज वे शब्द हैं जिनके आधाार संस्कृत अथवा प्राकृत शब्द नहीं हैं। वे अनाय्र्यों अथवा विजातीय भाषाओं से हिन्दी में आये हैं। जैसे गोड़, टाँग, उर्दू आदि। किसी-किसी की यह सम्मति है कि ऐसे शब्दों के विषय में यह ठीक पता नहीं चलता, कि वे कहाँ से आये, इसलिए वे देशज मान लिये गये। कुछ अनुकरणात्मक शब्द भी हिन्दी में हैं-जैसे खटखटाना, गड़बड़ाना, बड़बड़ाना, फड़फड़ाना, चटपट, खटपट इत्यादि। कहा जाता है ऐसे कुल शब्द देशज हैं, परन्तु अनेक भाषा मर्मज्ञों ने इस प्रकार के बहुत से शब्दों की उत्पत्तिा संस्कृत से ही बतलाई है। सीधाा मार्ग देशज शब्दों के निधर्ाारण का यही ज्ञात होता है कि जो तत्सम, तद्भव, अर्ध्द तत्सम, तत्समाभास अथवा विदेशी शब्द नहीं हैं, उन्हें देशज मान लिया जावे। हिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जो देखने में तत्सम ज्ञात होते हैं, परन्तु वास्तव में वे तत्सम शब्द नहीं होते। जिनको संस्कृत का ज्ञान साधाारण होता है, आदि में उनके द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जब उनके अनुकरण से दूसरे लोग भी उनका व्यवहार करने लग जाते हैं, तो काल पाकर वे गृहीत हो जाते और भाषा में चल जाते हैं। इस प्रकार के शब्द हैं, हरीतिमा, लालिमा, सत्यानाश, प्रण और मनोकामना आदि। कुछ संस्कृत के विद्वान इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार करने के विरोधाी हैं, उनके द्वारा अब भी इस प्रणाली का यथा समय विरोधा होता रहता है, परन्तु मेरा विचार है कि ऐसे चल गये और व्यापक बन गये, शब्दों का विरोधा सफलता नहीं लाभ कर सकता। कारण इसका यह है कि समस्त प्राकृतों और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्तिा ही इस प्रकार हुई है। भाषा में जब स्थान मिल गया है, तब इस प्रकार के शब्दों का निकाल बाहर करना साधाारण बात नहीं, ऐसी अवस्था में उनको उस भाषा का स्वतंत्रा प्रयोग मान लेना ही अधिाक युक्ति-संगत ज्ञात होता है। अनेक व्याकरण रचयिताओं ने इस पथ का अवलम्बन किया है,ऐसे शब्दों को तत्समाभास कह सकतेहैं।

हिन्दी शब्द-भण्डार पर विदेशी भाषाओं के शब्द का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। 'नानक' शब्द का प्रयोग नामकरण के लिए प्राय: काम में लाया जाता है, नानकचंद, नानक बख्शनाम अब भी रखे जाते हैं परन्तु वास्तव में 'नानक' यूनानी शब्द है।'कचहरी' शब्द घर-घर प्रचलित है, और साहित्यिक भाषा में भी चलता रहता है परन्तु है यह पुर्तगाली भाषा का शब्द। शक और हूणों के शब्द भी प्राकृत और अपभ्रंश से होकर हिन्दी में आये हैं, परन्तु सबसे अधिाक उसमें फारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्द पाये जाते हैं। 900 ईस्वी के लगभग मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्धाु को जीता, भारत के एक बड़े प्रदेश में मुसलमानों की यह पहली विजय थी, उसके बाद 100 वर्ष तक पंजाब में मुसलमानों का राज्य रहा, तदुपरान्त वे धीरे-धीरे भारत भर में फैल गये और लगभग 800 वर्ष तक उनका शासन चलता रहा। विजेता की भाषा का कितना प्रभाव विजित जाति पर पड़ता है, यह अप्रकट नहीं। इस आठ सौ वर्ष के बहुव्यापी समय में उसने कितना अधिाकार भारतीय भाषाओं पर जमाया,इसका प्रमाण वे स्वयं दे रही हैं। हिन्दी भाषा वहाँ की भाषा थी, जहाँ पर मुसलमानों के साम्राज्य का केन्द्र था, और जहाँ उनकी विजय वैजयन्ती उस समय तक उड़ती रही जब तक उनका साम्राज्य धवंस नहीं हुआ। इसीलिए हिन्दी भाषा पर उनकी भाषा का बहुत अधिाक प्रभाव देखा जाता है। अरबी मुसलमानों की धाार्मिक भाषा थी। विजयी मुसलमान भारत में अरब से ही नहीं, ईरान और तुर्किस्तान से भी आये। इसलिए हिन्दी भाषा पर अरबी, फारसी और तुर्की तीनों का प्रभाव पड़ा। इन तीनों भाषाओं के शब्द अधिाकता से उसमें पाये जाते हैं। अधिाकता का प्रत्यक्ष प्रमाण उर्दू है, जो कठिनता से हिन्दी कही जा सकती है।

इन भाषाओं के अधिाकतर शब्द संज्ञा रूप में गृहीत हुए हैं। मुसलमानों के साथ बहुत से ऐसे पदार्थ और सामान भारत में आये, जिनका कोई संस्कृत और देशज नाम नहीं था, इसलिए हिन्दी में उनका अरबी, फारसी आदि नाम ही व्यवहार में आया। जैसे साबुन, चिलम, नैचा, हुक्का, रिकाबी, तश्तरी आदि। प्राय: देखा जाता है कि शिक्षित जन ही नहीं, अपठित लोग भी राजकीय भाषा बोलने में अपना गौरव समझते हैं, इस कारण अनेक संस्कृत और हिन्दी शब्दों के स्थान पर भी अरबी, फारसी एवं तुर्की शब्दों का प्रचार हुआ और यह दूसरा हेतु हिन्दी में विदेशी शब्दों के आधिाक्य का हुआ।

आजकल वायु, मसिभाजन, लेखनी आदि के स्थान पर हवा 'दावात' और कलम आदि का ही अधिाक प्रयोग देखा जाता है। नीचे लिखे शब्दों जैसे अनेक शब्द ऐसे हैं कि जिनके स्थान पर हम गढ़े शब्दों का ही प्रयोग कर सकते हैं, फिर भी वे इतने सुबोधा न होंगे, इसलिए ऐसे शब्द ही प्राय: मुखों से निकलते, और उनकी व्यापकता हिन्दी में बढ़ाते हैं-

मजदूर, वकील, गुलाब, कोतल, परदा, रसद कारीगर आदि।

इस प्रकार के शब्दों को छोड़कर इन भाषाओं के कुछ संज्ञाओं को लेकर भी उन्हें क्रिया का रूप हिन्दी नियमानुसार दिया गया और आजकल वे क्रियाएँ हिन्दी में निस्संकोच भाव से प्रचलित हैं। शरमाना, फरमाना, कबूलना, बदलना, बख्शना, आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं। शर्म, फरमान, कबूल, बदल, बख्श, आदि संज्ञाओं के अन्त में हिन्दी का धाातु चिद्द लगाकर इन्हें क्रिया का रूप दिया गया, और आजकल उनसे सब काल की क्रियाएँ हिन्दी व्याकरण के नियमानुसार बनती रहती हैं। इन भाषाओं के आधाार से बहुत से ऐसे शब्द भी बन गये हैं, कि जिनका आधाा हिस्सा हिन्दी शब्द है, और दूसरा आधाा अरबी-फारसी इत्यादि का कोई शब्द। जैसे पानदान, पीकदान, हाथीवान, समझदार, ठीकेदार आदि। इस प्रकार की कुछ क्रियाएँ भी बना ली गई हैं। जैसे खुश होना, रवाना होना, दिल लगाना, जख़म पहुँचाना, इलाज करना, हवा हो जाना आदि।

मुसलमानों की अदालत और दफ्तरों के काम पहले प्राय: हिन्दी में होते थे, परन्तु अकबर के समय में राजा टोडरमल ने दफ्तर को हिन्दी से फारसी में कर लिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू फारसी पढ़ने के लिए विवश हुए, और कचहरी एवं दफ्तरों का काम फारसी में होने लगा। इससे भी प्रचुर फारसी अरबी आदि के शब्दों का प्रचार जन-साधाारण और हिन्दी में हुआ, और कानून एवं अदालत सम्बन्धाी सैकड़ाें पारिभाषिक शब्द व्यवहार में आने लगे। काजी, नाजिम, कानूनगो,समन, नाबालिग़, बालिग़, दस्तावेज आदि ऐसे ही शब्द हैं।

अरबी, फारसी में कुछ ऐसी धवनियाँ हैं, जो उनकी वर्णमाला में मौजूद हैं, परन्तु हिन्दी वर्णमाला में उनका अभाव है। जब फारसी, अरबी और तुर्की के शब्दों का प्रचार हुआ तो उनके शब्दगत अक्षरों की विशेष धवनियों की ओर भी लोगों की दृष्टि आकर्षित हुई, क्योंकि बिना उन धवनियों की रक्षा किये शब्दों का शुध्दोच्चारण असंभव था। परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष चिद्द के द्वारा इस न्यूनता की पूर्ति की गई। यह विशेष चिद्द वह बिन्दु है जो अरबी के अपेक्षित अक्षरों के नीचे लगाया जाता है। की धवनियों की रक्षा अ, ग़, क़, ख़, ज़, फ़, लिख कर की जाती है। किन्तु कुछ भाषा-मर्मज्ञ इस प्रणाली के प्रतिकूल हैं। उनका यह कथन है कि ग्राहक भाषा सदा ग्राह्य भाषाओं के शब्दों को अपने स्वाभाविक उच्चारणों के अनुकूल बना लेती है। ऐसी अवस्था में हिन्दी वर्णों पर बिन्दु लगाकर अरबी-फारसी के अक्षरों की धवनियों की रक्षा करना युक्तिमूलक नहीं। ऐसा करने से व्यर्थ वर्णमाला के वर्णों का विस्तार होता है। मेरा विचार है कि जब पठित समाज अरबी, फारसी के विशेष अक्षरों का उच्चारण उसी रूप में करता है, जिस रूप में उनका उच्चारण उन भाषाओं में होता है तो इस प्रकार के उच्चारणों की रक्षा के लिए हिन्दी भाषा के अक्षरों में विशेष संकेतों के द्वारा कुछ परिवर्तन करने की जो प्रणाली गृहीत हैं, वह सुरक्षित क्यों न रखी जावे। उर्दू कोर्ट की भाषा है, कचहरी दरबार में उसी का प्रचार है। सरकारी दफ्तरों में उसी से ही काम लिया जाता है। उर्दू की लिपि वही है, जो अरबी, फारसी की है, इसलिए अरबी, फारसी के शब्द उसमें शुध्द रूप में लिखे जाते हैं। शुध्द रूप में लिखे जाने के कारण उनका उच्चारण भी शुध्द रूप में होता है। सरकारी कचहरियों से कुछ न कुछ सम्बन्धा प्रजा मात्रा का होता है। मान की रक्षा कौन नहीं करता। जब लोग देखते हैं कि अरबी, फारसी शब्दों का शुध्द उच्चारण न करने से प्रतिष्ठा में बट्टा लगता है,शिष्ट-प्रणाली में अन्तर पड़ता है, अधिाकारियों की दृष्टि से गिरना पड़ता है, तो उनको विवश होकर अरबी, फारसी शब्दों के उच्चारण के समय उनकी विशेषताओं की रक्षा करनी पड़ती है। पठित समाज अवश्य ऐसा करता है, गँवार और मूर्खों की बात दूसरी है। यदि आवश्यकताएँ अथवा कारण विशेष हमको अरबी और फारसी शब्दों का शुध्दोच्चारण करने के लिए विवश करते हैं और सभा, समाज, पारस्परिक व्यवहार, एवं कुछ अंतर्जातीय लोगों से सम्मिलन के अवसरों पर हमको शुध्द उर्दू बोलने की आवश्यकता होती है, तो उसके फारसी, अरबी के विशेष शब्दों को हिन्दी अक्षरों में शुध्द लिखने की प्रणाली प्रचलित क्यों न रखी जावे। दूसरी बात यह कि पूर्णता लाभ के लिए जैसे भाषा के व्यापक और पूर्ण होने की आवश्यकता है, वैसे ही लिपि को। लिपि की अपूर्णता प्राय: भाषा की पूर्णता की बाधाक होती है। यह ज्ञात है कि उर्दू अरबी लिपि में लिखी जाती है, अरबी लिपि में हिन्दी का ट वर्ण है ही नहीं, उसमें हिन्दी के ख, घ, छ, झ, थ, धा, फ, भ अक्षरों का भी अभाव है। उर्दू वालों ने एक नहीं,अनेक चिद्दों का उद्भावन कर अपने अभावों की पूर्ति की, और इस प्रकार अपनी लिपि को पूर्ण बना लिया है। रोमन अक्षरों को पूर्ण बनाने के लिए आये दिन इस प्रकार की उद्भावनाएँ होती ही रहती हैं। फिर हिन्दी, वह हिन्दी पीछे क्यों रहे, जो सभी लिपियों से शक्तिशालिनी है और जिसमें ही यह गुण है, कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। यदि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करके, कोई लिपि पूर्ण बन सकती है, तो हिन्दी में यह शक्ति सबसे अधिाक है। वह अपूर्ण क्यों रहे, और क्यों यह प्रकट करे कि वह न्यूनताओं से भरी है, और पूर्णता लाभ करने की उसमें शक्ति नहीं।

अरबी फारसी लिपियों में जो ऐसे वर्ण हैं, जिनका उच्चारण हिन्दी वर्णों के समान है, उनके लिखने में कुछ परिवर्तन नहीं होता, वरन् फारसी-अरबी के कई वर्णों के स्थान पर हिन्दी का एक ही वर्ण प्राय: काम देता है। परिवर्तन उसी अवस्था में होता है जब उनमें फारसी-अरबी वर्णों से अधिाकतर उच्चारण की विभिन्नता पाई जाती है। नीचे कुछ इसका वर्णन किया जाता है।

अरबी में कुल 28 अक्षर हैं, इनमें फारसी भाषा के चार विशेष अक्षरों पे, चे, जे, गाफ़ के मिलाने से वे 32 हो जाते हैं। उनको मैं नीचे लिखता हूँ-

इनमें से, से, हे, साद, जाद, तो, जो, अैन और क़ाफ़ अरबी के विशेष अक्षर हैं-फारसी और अरबी के विशेष अक्षरों को,निम्नलिखित शेर में स्पष्ट किया गयाहै-

सावो, हावो, सादो, ज़ादो, तोवो, जोवो, अैन, क़ाफ़। हर्फे ताज़ी फ़ारसीदां, पे, वो, चे, वो, ज़े, वो, गाफ़। इनमें से के स्थान पर हिन्दी में, अ, ब, प, ज, च, द, र, श, क, ग, ल, म, न, व, य, लिखा जाता है। दोनों भाषाओं के उक्त अक्षरों का उच्चारण कुछ भिन्न ज्ञात होता है परन्तु प्रयोग मेें कोई भिन्नता नहीं है, इसलिए फ़ारसी के इन तेरह अक्षरों के स्थान पर हिन्दी अक्षरों का व्यवहार बिना किसी परिवर्तन के होता है। फारसी के शेष अक्षरों में से कुछ अक्षर तो ऐसे हैं जिनमें से दो या तीन अक्षरों के स्थान पर हिन्दी का एक अक्षर काम देता है और कुछ ऐसे हैं जिनके लिए समान उच्चारित अक्षरों के नीचे बिन्दु लगाना पड़ता है, नीचे ऐसे अक्षर लिखे जाते हैं। (1) के स्थान पर क़ ख़ अ ग़ और फ़ लिखा जाता है जैसे का क़ौम का ख़रबूज़ा का अैनक का ग़ायब और का फ़ज़ूल आदि किन्तु के स्थान पर प्राय: अ ही लिखने की प्रणाली है। कारण इसका यह है कि अैन का उच्चारण अधिाकतर पठित समाज भी अ का सा-ही करता है, इसका प्रमाण यह है कि मअलूम के स्थान पर मालूम ही लिखा जाता है को अाम नहीं आम ही कहते और लिखते हैं।

2. और दोनों के स्थान पर हिन्दी का ह ही काम देता है जैसे का हाल और हवा का हवा। और का काम हिन्दी का त देता है। और तौर और तीर ही लिखे जाते हैं।

3. और हिन्दी में स बन जाते हैं। जैसे का सूरत का सवाब और का सर इत्यादि।

इन पाँचों अक्षरों का उच्चारण प्राय: ज़ के समान है, इसलिए हिन्दी में इनके स्थान पर ज़ ही लिखा जाता है जैसे का ज़ैल का ज़ोर, का ज़ामिन का ज़ाहिर इत्यादि।

फ़ारसी में एक हे मुख़फ़ी कहा जाता है, के अन्त में जो हे है वही हे मुख़फष्ी है। हिन्दी में यह आ हो जाता है जैसे रोज़ा, कूज़ा, सबज़ा, ज़र्रा आदि। कुछ लोगों ने इस हे के स्थान पर विसर्ग लिखना प्रारम्भ किया था, अब भी कोई-कोई इसी प्रकार से लिखना पसन्द करते हैं जैसे रोज़:, कूज़:, सब्ज़:, ज़र्र: आदि। परन्तु अधिाक सम्मति इसके विरुध्द है, मैं