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कहानी

डाँवाडोल

पांडेय बेचन शर्मा उग्र


पाकिस्‍तानी सीमा से सटा राजस्‍थान का कस्‍बा जंगीपुर। ठाकुर गोविंदसिंह की कहानी। बात 1942 के जेष्‍ठ के महीने की। तब बेशक भारत का खंड-खंड नहीं हुआ था और जंगीपुर यही था, पर पड़ोसी पाकिस्‍तान की सीमा उसके सर पर सवार नहीं थी। राजस्‍थान के भूतपूर्व नरेशों में जिन महाराजाधिराज के शासन में जंगीपुर कस्‍बा था, चर्चा उन्‍हीं के दरबार-खास से शुरू होती है। दरबार-खास में श्रीमंत के साथ-साथ मुख्‍यमंत्री, सेनापति, प्राइवेट सेक्रेटरी तथा राज्‍य के तीन चार बड़े-बड़े जागीरदार भी उपस्थित थे।

सहसा प्राइवेट सेक्रेटरी की तरफ देखकर श्रीमंत ने रूखे स्‍वर से पूछा - 'ठाकुर गोविंदसिंहजी अकेले आए हैं, या उनके चारो बेटे भी?'

'श्रीमान की आज्ञा केवल गोविंदसिंहजी को बुलाने के लिए थी।'

'मैंने यह भी तो आज्ञा दी थी कि ठाकुर साहब पूरे सैनिक वेष में, अस्‍त्र-शस्‍त्र से सुसज्जित मेरे सामने हाजिर हों।'

'ऐसा ही हुआ है, योर हाइनेस! ठाकुर गोविंदसिंह वर्दी-पेटी-पर्तला-पिस्‍तौल से लैस होकर आए हैं।'

'ठाकुर गोविंदसिंह ने सारे राज्‍य को संकट में डाल दिया है। ठाकुर का ध्‍यान आते ही मैं विवेक का संतुलन खो देता हूँ। ऐसे समझदार और वफादार सिपाही होकर ठाकुर ने ऐसा काम कर डाला? बुलाओ ठाकुर गोविंदसिंह को।'

'गांधी कौन है?' क्रोध से काँपते श्रीमंत ने सैनिक वेशभूषा में 'अटेंशन' खड़े ठाकुर गोविंदसिंह से पूछा।

गोविंदसिंह के होठों तक उत्तर आकर, काँप कर, लौट गया। जैसे श्रीमंत से उत्तर-प्रत्‍युत्तर करने की हिमाकत वह कर न सके। इस पर राजाधिराज ताव खाकर चमक पड़े - 'उत्तर दीजिए। मैं अपने सवाल का जवाब चाहता हूँ, गांधी कौन है?'

'भारतवर्ष की शाश्‍वत-आत्‍मा मैं महात्‍माजी को मानता हूँ श्रीमान!'

'कौन आत्‍मा?'

'वही आत्‍मा, जिसकी तरफ गीता ने 'तदात्‍मानं स्रजाम्‍यहम्' कहकर संकेत किया है।'

'आप मेरी प्रजा हैं?' राजा ने न-जाने किस निर्णय पर पहुँचने के लिए पूछा।

'इसमें भी कोई संशय है श्रीमान?'

'साथ ही आप गांधी के भक्‍त भी हैं?'

'इसमें भी कोई शक है श्रीमान?'

'यह दोनों एक साथ कैसे संभव हो सकता है? प्रजा मेरी, भक्‍त गांधी के? बोलिए, मैं जवाब चाहता हूँ।'

'वैसे ही, श्रीमान! जैसे राजाधिराज का आदर-मान करते हुए भी लोग ईश्‍वर पर भी श्रद्धा रखते हैं।'

'आप चुप नहीं रह सकते?' सेनापति ने गोविंदसिंह को श्रीमंत के मुँह न लगने का तीव्र संकेत किया।

'प्रश्‍न का उत्तर न दे श्रीमंत की आज्ञा भंग कैसे करूँ?' गोविंदसिंह ने अपनी असमर्थता प्रकट की।

महाराज और भी झल्‍ला उठे।

'श्रीमंत की आज्ञा लेकर आप गांधी के गिरोह में शामिल हुए हैं? श्रीमंत की आज्ञा लेकर आपने अंगरेजी सेनाओं में से अपने चार-चार लड़के हटा लिए हैं? दर्जनों युद्धों में सैकड़ों आ‍दमियों की हिंसा करने के बाद आज जो आप अहिंसक बनने चले हैं, वह भी शायद मेरी ही आज्ञा से? ठाकुर गोविंदसिं‍ह!' महाराज को रोष आ गया।

'हुजूर!'

'राज्‍य के पुराने जागीरदार और पेंशन प्राप्‍त सिपाही होकर भी बिना मुझे इत्तला किए जाने-अनजाने गांधी के गिरोह में शामिल होकर आपने राज्‍य का भविष्‍य संकटपूर्ण कर दिया है। वायसराय के इशारे पर रेजिडेंट ने मुझ से पूछा है कि शासन सही न कर सकने के आरोप में मुझे गद्दी से उतार क्‍यों न दिया जाय? आपको पता है, आपके अविवेक-पूर्ण कर्मों के कारण असंतुष्‍ट अंगरेजों को संतुष्‍ट करने में रियायत के कई लाख रुपए खर्च होंगे। मैं आपको आज्ञा देता हूँ - फौरन-से-पेश्‍तर अपने चारों बेटों को पुनः अंगरेजी सेना में दाखिल कराइए। साथ ही, गांधी गिरोह से बाहर निकल आइए और लिखकर, भूल स्‍वीकार कर, क्षमा माँगिए। सुना?'

'सुना, श्रीमान!'

'क्‍या? क्‍या जवाब है आपका?'

'मैं हुजूर के सामने बोलना नहीं चाहता।'

'याने?'

'हुजूर अन्‍नदाता हैं, उत्तर-प्रत्‍युत्तर मैं नहीं कर सकता।'

'आपको मेरी बातें ना-मंजूर हैं?'

गोविंदसिंह चुप रहे।

राजा ने सोचा - मौनं स्‍वीकृति लक्षणम्। यह ठाकुर बागी हो गया है। मेरी आज्ञा नहीं मानेगा।

'सेनापतिजी!'

'राजाधिराज!'

'ठाकुर गोविंदसिंह ने अहिंसा-व्रती होकर गांधी गिरोह में शामिल होकर शस्‍त्रों का अपमान किया है। आप हमारे सामने इन्‍हें निरस्‍त्र कीजिए। इनकी तलवार, पिस्‍तौल, मेडल, परतला, पेटी - सारे शूर-श्रृंगार इज्‍जत के साथ उतार लीजिए।'

सेनापति गोविंदसिंह की तरफ बढ़ा। ठाकुर अपने स्‍थान पर ज्‍यों-का-त्‍यों अविचल खड़ा रहा। सेनापति ने ठाकुर के सीने पर से वीरता के लिए प्राप्‍त पदक झटके से नोचकर पृ‍थ्‍वी पर फेंक दिए। फिर उनकी तलवार छीन, तोड़कर फेंक दी। फिर परतला, पेटी, पिस्‍तौल छीन लिए।

'ठाकुर गोविंदसिंह के लिए आज से श्रीदरबार बंद।' राजाधिराज के इशारे पर मंत्री ने कहा।

'बाहर ले जाओ, मेरे सामने से दूर, इस हठीले आदमी को!' श्रीमंत ने आज्ञा दी।

'श्रीमान!' बाहर जाते-जाते गोविंदसिंह ने कहा - 'तलवार से जिसकी इज्‍जत बढ़ती है, घटती भी उसकी इज्‍जत तलवार ही से है। आपने सबके सामने मेरी तलवार तुड़वाकर मेरे मानापमान का हिसाब बराबर कर दिया। भुजाओं की शक्ति के पुरस्‍कार-स्‍वरूप जो पदक मुझे मिले थे, भुजाओं की शक्ति ही द्वारा वे छीन लिए गए। इस पर भी हिंसा अथवा बाहुबल की विशेषता यदि मैं मानूँ तो मुझ-सा अधम कौन होगा? जय हो श्रीमान राजाधिराज की!'

'दूसरी रियासत होती,' गोविंदसिंह के बाहर निकाले जाने के बाद एक जागीरदार ने राजा को सुनाया - 'तो गोविंदसिंह जैसे बागी की जागीर भी जरूर जब्‍त कर ली जाती हुजूर।'

'अजी, दूसरी रियासत होती, तो ऐसे आदमी की खाल खिंचवाकर उसमें भूसा भरा जाता, भूसा।' एक दूसरे जागीरदार ने पहले की हाँ-में-हाँ मिलाकर, राजा की तरफ बतीसों दाँत दिखाकर कहा।

'ठाकुरो!' राजा ने जवाब दिया - 'शायद आप लोग नहीं जानते कि गोविंदसिंह के बुजुर्गों के कितने एहसान इस राज्‍य पर हैं। साथ ही, गोविंदसिंह स्‍वयं मर्द आदमी हैं -सिद्धांत, कौल और जीवट के पक्‍के। इतना भी जो मैंने किया, संदिग्‍ध अंगरेजों को खुश रखने के लिए। रही जागीर जब्‍त करने की बात, सो वह तो अंगरेजों के नाराज हो जाने पर भी मैं नहीं कर सकता।'

'श्रीमान!' प्राइवेट सेक्रेटरी ने बाहर से आकर निवेदन किया - 'महल से बाहर निकलते ही राजधानी की जनता ने गोविंदसिंहजी को सर-मा‍थे उठा लिया। न-जाने कैसे लोगों को सारी खबर लग गई थी। इस समय एक भारी जुलूस सजाकर जनता गोविंदसिंहजी को नगर-परिक्रमा करा रही है।'

'मंत्री जी!' राजा ने सावेश आज्ञा दी - 'पुलिस कोतवाल को जुलूस भंग करने और गोविंदसिंहजी को गिरफ्तार कर किसी अज्ञात स्‍थान पर नजरबंद करने का आर्डर अभी भेज दीजिए। देखता हूँ, यह हठीला ठाकुर मेरी रियायत जब्‍त कराने पर तुला हुआ है।'

अंगरेजों के जमाने में शायद ही कोई देशी राजा विदेशी गोरों की मन से इज्‍जत करता रहा हो; ऊपर से तो, खैर, 'जबरदस्‍त का ठेंगा सर पर' कहावत पुरानी सार्थक थी ही।

रेजिडेंट ने ज्‍यों ही सुना कि राजा ने गांधीवादी होने के सबब अपने प्रिय सरदार को अपमानित किया और नजरबंद भी, त्‍यों ही 'डिनर' में पधारकर उन्‍होंने राजाधिराज को शासकोचित कर्म के लिए बधाइयाँ दीं। इस तरह संकट टल जाने के तीसरे महीने ही श्रीमंत ने गोविंदसिंह को मुक्‍त कर उन्‍हें उन्‍हीं के कस्‍बे जंगीपुर में नजरबंद कर दिया।

जेल से घर लौटते ही गोविंदसिंह के चारो लड़कों ने एक स्वर से कहा - 'हम तो केवल आपकी आज्ञा की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। उस दुष्‍ट जागीरदार को जान से मार डालने का हमने निश्‍चय कर लिया है, जिसने श्रीमंत को बढ़ावा देकर आपको जेल भिजवाया था।'

'गलत बात।' गोविंदसिंह ने कहा - 'हिंसा बुरी है, इसीलिए तो मैंने तुम लोगों को सेना से इस्‍तीफा दिलाया; अब पड़ोसी को मारने में वही हिंसा भली कैसे हो जाएगी? गलत बात।'

'जहाँ पिता के अपमान का प्रश्‍न हो,' बड़े लड़के ने दृढ़ता से कहा - 'वहाँ कर्त्तव्‍यनिष्‍ठ बेटों की तरह हम हिंसा-अहिंसा का विचार मुतलक न कर, केवल ईश्‍वरतुल्‍य पिता के मान का विचार करते हैं। पिताजी, यह हमारा काम है।'

'प्रश्‍न पिता का हो, गुरु का या औरत-बेटे का,' गोविंदसिंह ने कहा - 'हिंसात्‍मक प्रतिकार से आदमी और भगवान के प्रति न्‍याय नहीं होता। तुम अपने दृष्टिकोण से क‍हते हो कि उस जागीरदार ने बुरा काम किया, पर, मुमकिन है, उसने अपनी ओर से भला-ही-भला सोचकर सलाह दी हो। मैं जेल में नजरबंद रहा, ईश्‍वर की यही मर्जी थी। उसकी इच्‍छा पूरी हुई, यह खुशी की बात है, प्रसन्‍न होने की, न कि गुस्‍सा करने की!'

'यह सब भावुकता की बातें हैं पिताजी,' मँझले लड़के ने कहा - 'बिना दंड दुष्‍ट कभी सुधर नहीं सकते। बिना दंड शासन-यंत्र चलता ही नहीं। जिस दिन दुनिया जान जाएगी कि हम बिल्‍कुल निरस्‍त्र और अहिंसक हैं, उसी दिन कोई-न-कोई हमें धर दबोचेगा और गुलाम बना, नकेल डाल, जुआ लाद, जोतकर अपने मतलब और ऐश की जमीन जरखेज बनाएगा।'

'गांधीजी कहते हैं और सच कहते हैं,' गोविंदसिंह ने कहा, 'कि भय से घबराकर जनता ही अगर आत्‍म-समर्पण न कर दे, तो क्‍या मजाल कि कोई शक्ति किसी जनपद पर एक दिन भी हुकूमत कर सके।'

'कुछ भी हो,' छोटे लड़के ने कहा - 'हम अहिंसक आपके हुक्‍म से हैं। हमारा वश चले, तो हम उस जागीरदार को ...।'

'और अपने बड़ों का अपमान करने वालों को...।'

'और अपने गाँव देश पर नजर उठानेवालों को बिना मारे न छोड़ें।'

'ओह!' गोविंदसिंह ने कहा - 'तुम सब मानोगे नहीं गलत राह चले। तुम्‍हारी बंदूकें कहाँ हैं?'

चारों बेटों ने बताया, बंदूकें उनके कमरों में हैं।

'लाओ!' फौजी स्‍वर में गोविंदसिंह ने आज्ञा दी - 'अपनी बंदूकें मेरे सामने हाजिर करो।'

चारों की बंदूकें और कारतूस वगैरह जब्‍त कर गोविंदसिंह ने अपनी कोठरी में बंद कर दीं और एक दिन आधी रात में कई बार में ले जाकर बंदूकें, पिस्‍तौल और कारतूसों की पेटी जंगीपुर कस्‍बा की सीमा से पौन मील दूर, दो परिचित पेड़ों के बीच, जमीन खोदकर गाड़ दीं।

उक्‍त घटनाएँ सन 1942 के आस-पास की हैं। गोविंदसिंह उस समय 60 साल के थे। सन 42 से 56 तक कितने बड़े-बड़े परिवर्तन हुए, हमारे देश में यह सर्वविदित बात है। 'करो या मरो' का निश्‍चय, विदेशी शासकों द्वारा प्रचंड दमन, सुभाष बाबू द्वारा 'आजाद हिंद सरकार' की स्‍थापना और भीतर घुसे विदेशियों पर बाहर से आक्रमण, बंबई का नाविक-विद्रोह, प्रायः सभी रियासतों में आंदोलन और दमन, अंगरेजों ओर नेताओं में आजादी की रूप-रेखा की चर्चा, खंड-खंड भारतीय-स्‍वतंत्रता, सांप्रदायिक हिंसाएँ, गांधीजी की हत्‍या, स्‍वदेशी सरकार का आरंभिक शासन, सरदार पटेल द्वारा रातों-रात सारी-की-सारी रियासतों का राष्‍ट्रीयकरण, सरदार का निधन, जवाहरलाल का अंतरराष्‍ट्रीय रूप और रंग, जमींदारों की समाप्ति और जागीरों का खात्‍मा।

गोविंदसिंह साधु स्‍वभाव के आदमी, एक बार गांधीजी की बात समझ में आ गई, तो फिर सत्‍य और अहिंसा से कभी डिगे नहीं। बराबर राजस्‍थान की जनता-जर्नादन के हित में त्‍याग-पूर्ण तप ही करते रहे। आज राजस्‍थान में जितने भी जन-नायक और लोक-नायक, मंत्री, उपमंत्री तथा प‍दाधिकारी हैं - प्रायः उन सबसे पहले गोविंदसिंह ने तलवार की धार पर चलना शुरू किया था। पर सेवाओं के पुरस्‍कार-स्‍वरूप एम.एल.ए. आदि होना तो बहुत दूर की बात, उन्‍होंने बार-बार आग्रह होने पर भी कभी जंगीपुर कांग्रेस की अध्‍यक्षता तक नहीं स्‍वीकार की।

सो राजस्‍थान में जागीरदारी-प्रथा का अंत हो जाने से ईमानदार गोविंदसिंह की तो मानो बधिया ही बैठ गई। उसी जागीर के भरोसे सारा खानदान पलता था। चार-चार हाथी की तरह बेटे, बहुएँ, बेटी, नाती-पोते पोषण पाते थे, जीवितों के यज्ञ, यज्ञोपवीत, विवाहादि मंगल-कर्म होते थे और स्‍वर्ग सिधार जाने वालों के मृतक-संस्‍कार भी। फिर भी, जागीर खत्‍म हो जाने पर गोविंदसिंह ने उफ तक नहीं की और 'हरि इच्‍छा' कहकर संकट-काल के लिए संचित पैतृक-निधि या जर-जेवर बेचकर गुजारा करने लगे। इतना ही नहीं, आज तक कभी किसी की नौकरी करने के अनिच्‍छुक चारों बेटे बूढ़े बाप की - जबान नहीं, तो आँखों से ही - अनुत्तरदायी, भोंदू कहते हुए बंबई, कलकत्ता और दिल्‍ली जाकर नौकरियाँ करने लगे। फिर भी, गोविंदसिंह ने न तो अपने को 'पोलिटिकल सफरर' गिनाकर किसी से कुछ चाहा और न कुछ और बतलाकर। साथ ही उनको किसी ने कभी गिला-शिकवा करते भी नहीं सुना। भू-स्‍वामी-आंदोलन के नेताओं के लाख कहने-सुनने, यहाँ तक कि धमकियाँ दी जाने पर भी गोविंदसिंह देश की राष्‍ट्रीय प्रगति में बाधक बन मतलब-साधक बनने को हर्गिज तैयार नहीं हुए। 'राजस्‍थान के रूप में हिंदुस्‍तान की जनता के हितार्थ जागीर की तो बिसात ही क्‍या, सारे परिवार के साथ मैं जान तक देने को तैयार हूँ।' इस पर जंगीपुर के बड़े-बूढ़े तो गोविंदसिंह को साधु, त्‍यागी और सच्‍चा क्षत्रिय कहते; पर आजकल के नौजवान या बुद्धिमान कहते थे - 'बुड्ढे के पास पुराना माल चकाचक है। जागीर तो दस-पाँच हजार की केवल एक टाँग थी, जिसके रहने न रहने से क्‍या फर्क पड़ता है।'

रहा हो माल गोविंदसिंह के पास, पर उसकी चमक-दमक या दंभ उनके चेहरे पर कभी किसी ने देखी ही नहीं। रोते उनको जंगीपुर वालों ने देखा, तो केवल एक बार -गांधीजी की हत्‍या हो जाने पर। कई दिनों तक विक्षिप्‍त की तरह घर-बाहर, हाट-बाट में वह यही कहकर रोते दिखलाई पड़े - 'क्‍या लीला है लीलाधर की! अहिंसा का पुजारी हिंसा का शिकार हुआ! राष्‍ट्र-पिता अपने पुत्रवत देश भाई द्वारा मारे गए!' गांधीजी की हत्‍या के बाद अहिंसा-सिद्धांत के बारे में गोविंदसिंह के मन में पहली बार संशय हुआ।

'अहिंसा अच्‍छी हो, सर्व-कल्‍याणकारिणी हो, पर केवल अहिंसा से लोक-शासन असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। राज्‍य हमेशा दंड से चलते हैं और दंड हिंसा का प्रतीक है।' लेकिन यह सब गोविंदसिंह महज मन-ही-मन सोच-समझकर रह जाते। उन्‍होंने अपना संशय अपने बेटों तक पर प्रकट नहीं किया।

गांधीजी की हत्या के बाद पिछले 8-9 वर्षों से देश के बड़े-छोटे कांग्रेस-कर्मियों में पैसा, पद और प्रतिष्‍ठा की जो होड़ चली तथा नाम-धारी बुद्धिमानों द्वारा देश-भक्ति, त्‍याग, अहिंसा और अक्‍ल ताक पर रख दी गई। इसका प्रभाव भी वृद्ध ठाकुर पर खेदकारी ही पड़ा। हिंसा के सामने मस्‍तक झुकाकर जब आंध्र राज्‍य बनाया गया, तब तो गोविंदसिंह यह सोचने लगे कि महात्‍माजी की अहिंसा केवल साधु की सर्व-कल्‍याण-कामना थी, व्‍यावहारिक-सत्‍य से उसका विशेष सं‍बंध नहीं था। बंबई और उड़ीसा की तोड़-फोड़, आग-लूट और बलात्कार से कलंकित गत दंगों के बाद तो गोविंदसिंह पछताने लगे कि उन्‍होंने अपने आज्ञाकारी बेटों को सेना से हटाकर उनका भविष्‍य बुरी तरह लीप कर रख दिया। अंत में जब समाज 'आँख के लिए आँख और दाँत के लिए दाँत' ही के अनुसार चलनेवाला है, तब तो अपनी औलाद को फलाहारी 'रघुपति राघव राजा राम' बनाना आत्‍म-हत्‍या ही नहीं, कुल-हत्‍या भी है।

'राजा राम' स्‍मरण आते ही गोविंदसिंह ने सोचा कि राजा राम ही कहाँ के अहिंसक थे? ताड़का-सुबाहु अहिंसा से मुक्‍त हुए थे? मारीच सहृदयता की मलय वायु पर बैठ कर शत योजन सागर पार गया था! बाली, खर और दूषण सुभाभिलाषाओं से नरक भेजे गए थे! सूर्पणखा की नाक क्‍या कृपा-कटाक्ष द्वारा काटी गई थी? कुंभकर्ण, मेघनाद और रावण की हिंसा 'रघुपति राघव राजा राम' ने क्‍या अहिंसा के मंत्रों से की थी?

'बाबा!' ए‍क दिन जंगीपुर के किसी तरुण ने भेंट होने पर गोविंदसिंह से पूछा -'भूस्‍वामियों की सभा में आप नहीं गए?'

'मैं भू-स्‍वामी कहाँ हूँ बेटा?'

'आपकी इतनी बड़ी जागीर राजस्‍थान सरकार ने ले ली, और आप ही भू-स्‍वामी नहीं?'

'जागीर जब थी, तब रहा होऊँगा भू-स्‍वामी बेटे! अब तो मैं जो कुछ रह गया हूँ, वही हूँ।'

'भू-स्‍वामियों ने खुली सभा में यह तय किया है कि जब तक सरकार उनकी शर्त स्‍वीकार नहीं करेगी, तब तक पाकिस्‍तान द्वारा चढ़ाई ही क्‍यों न हो, वे मदद करनेवाले नहीं।'

'मूर्ख हैं ऐसा निश्‍चय करनेवाले!' गोविंदसिंह ने सावेश कहा - 'पाकिस्‍तान द्वारा हमला होने पर भू-स्‍वामी किसकी मदद नहीं करेंगे? अपनी ही तो? चढ़ाई होगी किस पर? सरकार क्‍या विदेशी है? वह भी तो अपनी ही है? भू-स्‍वामी आक्रमण-काल में डटकर सामना नहीं करेंगे, तो भू और स्‍वामी दोनों ही विपक्ष द्वारा भूनकर रख दिए जाएँगे। बेटे! तुमने खुद तो भू-स्‍वामियों को ऐसा प्रस्‍ताव करने नहीं देखा-सुना। सुनी-सुनाई बात कह रहे हो न? झूठ बात है। राजस्‍थान में ऐसा एक भी आदमी नहीं है, जो वक्‍त आने पर राज्‍य और स्‍वराज्‍य के लिए कुर्बानी करने से पीछे हटे!'

और, उस दिन केंद्र के गृहमंत्री के मुख से और राजस्‍थान विधान-सभा के मुखियों से सीमा की चर्चा सुनने के बाद तो जैसे गोविंदसिंह के मन मे भावी संकट का भय-सा उत्पन्‍न हो गया - 'राजस्‍थान की सीमा पर गड़बड़ी होते ही पहला दर्रा तो हमारी जन्‍मभूमि जंगपुर को ही लगेगा। पहले हमारे मंदिर, हमारे घर और प्राण पर हिंसक-संकट आएगा, हम पंचशीलवान अहिंसक हैं न? खरे सोने की तरह दिव्‍य अहिंसा की परीक्षा हिंसा के, कसौटी की तरह, काले-पत्‍थर पर ही होती है।

और गोविंदसिंह को किसी गुजराती कांग्रेस-कर्मी से सुना अहिंसक युद्ध का एक इतिहास स्‍मरण हो आया - कोई यवन-विजेता भारत-भूमि को रौंद‍ते-रौंदते पर्वतीय-प्रांत में स्थित एक ऐसे बौद्ध या जैन संघ के सन्निकट पहुँचा, जहाँ बीसों हजार भिक्षु, साधु तप करते थे। यवनों ने भिक्षुओं को ललकारा - युद्धं देहि! उधर से भिक्षुओं ने उत्तर दिया -बुद्धं शरणं गच्‍छामि, संघं शरणं गच्‍छामि, धम्‍मं शरणं गच्‍छामि! हम तो सब पर दया कर सबको क्षमा करते हैं - युद्ध कदापि नहीं करते। यवनों ने कहा - पर हम तो युद्ध करते हैं, और फिर काफिर पर कदापि दया नहीं करते। हम तो मारेंगे। मारो - भिक्षुओं ने उत्तर दिया - भद्र पुरुषो, हम लोग किसी के मारने और निज के मरने से नहीं डरते। क्‍योंकि यहाँ पर न तो कोई किसी को मार सकता है और न ही मरता है। इस पर यवनों ने अपनी तलवारों के घाट बीस-के-बीसों हजार भिक्षुओं को उतार दिया। वे झर झुकाकर पंक्ति-बद्ध खड़े हो गए और यवन सैनिक गाजर-मूली-घास की तरह उन्‍हें काटते चले गए। मरनेवालों ने न आह की न उह। साथ ही मारने वालों ने उनके साहस और त्‍याग पर 'वाह-वाह' भी नहीं कहा। जैसे कि - अक्‍सर - अहिंसक बलिदानों के पीछे प्रशंसा के चार शब्‍द भी नहीं होते।

'तो...' गोविंदसिंह सोचने लगे - 'इतिहास के उन भिक्षुओं की तरह जंगीपुरवाले भी मारे जाएँगे? तो भी उन साधुओं का सौभाग्‍य हमें कैसे मिलेगा? वे जीवन-मुक्‍त संन्‍यासी थे, हम जीवन-आसक्‍त घरबार, बाल-बच्‍चों वाले गृही हैं। भिक्षुओं में पुरुष-ही-पुरुष रहे होंगे; पर जंगीपुर में तो पुरुष ही नहीं स्त्रियाँ और बच्‍चे भी हैं। मैं कहता हूँ, उन भिक्षुओं के पास भी बालबच्‍चे होते, तो वे इतनी खुशी से गर्दन न कटवाते। तो क्‍या ऐसी भी परिस्थिति आ सकती है कि जंगीपुर के बाल-बच्‍चे हमारी आँखों के आगे मार-काटकर भून दिए जाएँ, हमारे घर हमवार कर दिए जाएँ, मंदिर मिसमार कर दिए जाएँ और हमारी स्‍वर्ग से भी प्‍यारी जन्‍म-भूमि को श्‍मशान बना दिया जाए?'

'ना!' ठाकुर गोविंदसिंह ने सोचा - 'जब तक गोविंदसिंह के दम-में-दम है, देह में लोहू की एक बूँद भी है, तब तक क्‍या मजाल कि कोई आततायी अरिष्‍ट दृष्टि से हमारे देश, हमारे नगर, हमारे घर की तरफ निगाह उठाकर देख सके। क्‍या? 74 साल की उम्र का गोविंदसिंह बूढ़ा हो गया? कोई इस धोके में न रहे। सिंह बूढ़ा होने पर भी मस्‍त-से-मस्‍त दिग्‍गज के लिए बहुत काफी जवान सदा रहता है। जंगीपुर पर जो भी पापी पहल करेगा, उस पर गोविंदसिंह झपटेगा, जैसे मार्जार मूषक पर, बाज लवा पक्षी पर या सर्प मेढक पर झपटता है। क्‍या-क्‍या?'

गोविंदसिंह की चिंता-धारा बदली - 'मैं भी क्‍या सोचने लगा! झपटने की बात, मारने की बात, हिंसा की बात, जब कि राष्‍ट्र-पिता राष्‍ट्र-गुरु ने हमें हमेशा के लिए सत्‍य, करुणा और अहिंसा का मंत्र दिया है। अजी अहिंसा तो बापूजी की हत्या के बाद मर गई थी। अहिंसा अब हमारी भावनाओं में कहाँ? अहिंसा जीवित होती, तो कांग्रेसी कांग्रेसी से होड़ करते - पद-प्रतिष्‍ठा या पद-प्राप्ति के लिए? अहिंसा होती तो पिछले 8-9 वर्षों की तरह, तरह-तरह के पाप हो पाते? आंध्र राज्‍य बनना अहिंसा की विजय है क्‍या? महाराष्‍ट्र, बंबई, उड़ीसा में जो कुछ हुआ है, वह अहिंसक मनोवृत्ति का सूचक है क्‍या? घर के कोलाहल तो हम 'टियर गैस' के बाद लाठी-चार्ज और गोलाबारी से शांत करते हैं! ना, ना। जवानी के जोश में, परंपरागत साधु-महात्‍माओं के वचनों के प्रति आदर-भाव के बहाव में मन, वचन, कर्म से अहिंसक बनने में भूल हुई क्‍या? चारों बेटों को सेना से अलग कर अहिंसा के खयाली खजानों का बेपगार रखवाला बनाने में भूल हुई क्‍या? भूल का पता भी कब चला, जब सर पर मुसीबत मँडराने पर आमादा और गर्दन पर काँपता, खाँसता कमजोर बुढ़ापा। ओह! मुझे जल्‍दी करनी चाहिए। जल्‍दी? किस बात की? अपनी भूल सुधारने की। बच्‍चों को इस योग्‍य बनाने की कि वे अवसर आने पर अपनी जन्‍म-भूमि की रक्षा स्‍वयं कर सकें।'

जीवन के बीसों सुनहरे वर्ष गलत दिशा में गमन में गत हुए। उन्‍हीं के नहीं, उनकी आस-औलाद के भी! इस विचार ने चौहत्तर वर्षीय गोविंदसिंह को मथ-सा डाला। वइ घबरा-से गए। तुरंत तार देकर उन्‍होंने बंबईवाले बेटे को बंबई से वापस बुलवाया, कलकत्ता-दिल्‍ली वालों को कलकत्ता-दिल्‍ली से।

'क्‍या आज्ञा है पिताजी!' विनीत बेटों ने आकर पूछा।

'तुम्‍हें नौकरी छोड़ देनी होगी!'

'जैसी आज्ञा।'

'और जब कभी जन्‍मभूमि पर संकट आएगा, तो उसका सामना सबसे आगे बढ़कर करना होगा।'

'जैसी आज्ञा।'

'ऐसा मौका आने पर तुममें से जो कोई भी अधिक-से-‍अधिक शौर्य से शत्रु का सामना करेगा, उसे ही मैं अपना सच्‍चा उत्तराधिकारी मानूँगा!'

गोविंदसिंह के सभी पितृ-भक्‍त लड़के जानते थे कि पिता के पास संचित-निधि के नाम पर शायद ही कुछ हो। फिर भी, 'सच्‍चा उत्तराधिकारी' शब्‍द पर उनके चेहरे पर व्‍यंग्‍य या उपहास के भाव जरा भी नहीं आए।

'मैंने कभी तुम्‍हें बतलाया ही नहीं,' बूढ़े जागीरदार ने कहा - 'मेरे पास पाँच लाख रुपए हैं - सोने की सिल्लियों की शक्‍ल में। जंगीपुर की रक्षा में तुममें से जो सर्वश्रेष्‍ठ साबित होगा, उसे मैं ढाई लाख का सोना दूँगा। शेष ढाई लाख के स्‍वर्ण में बाकी तीनों भाई।'

'मगर पिताजी,' बड़े बेटे ने कहा - हमारी तो बंदूकें भी आपने जब्‍त कर ली हैं। मोर्चे पर, मशीनगनों के सामने, क्‍या हम मुक्‍के बाँधकर जाएँगे जन्‍मभूमि की रक्षा करने?'

'ओह! बंदूकों की बात तो मैं भूल ही गया था। कल ही तुम्‍हें बंदूकें मिल जाएँगी। तुम्‍हारी बंदूकें और एक-एक कारतूस मेरे पास सुरक्षित है।'

बंदूक बगैरह एक-एक सुरक्षित है, कहने के बाद गौर करने पर पता चला कि जिन दरख्‍तों के बीच उन्‍होंने शस्‍त्र गाड़ रखे थे, वे तो पाकिस्‍तान की सीमा में चले गए हैं और जंगीपुर के निकट होते हुए भी अब दूसरे देश, दूसरे राज्‍य की हद में थे! तब? बिना शस्‍त्रों के शस्‍त्र-सुसज्जित आक्रमणकारियों का सामना भला कैसे किया जा सकता है? पाक-सीमा-रक्षकों की आँख में धूल झोंकना, उनकी हद में छिपकर जाना और फिर खोद-खोद कर चार बंदूक, एक पिस्‍तौल और एक पेटी कारतूस लेकर सकुशल लौट आना हँसीखेल है?'

गोविंदसिंह को पहले महायुद्ध की घटनाएँ याद आ गईं, जबकि उन्‍होंने राजस्‍थानी महाराज की तरफ से ब्रिटिश सेना में शामिल हो, जर्मनों के घरों में घुस-घुसकर उन्‍हें राजस्‍थानी तलवार का मजा चकाचक चखाया था। दुस्‍साहसिक हिंसा ही के लिए तो उन्‍हें वे वीर-पदक मिले थे, जिन्‍हें अहिंसक दुस्‍साहस के कारण - अपने जाने अपमानजनक ढंग से - सन 42 में राजा ने छीन लिए थे। मगर तब वह जवान नहीं, अधेड़ थे, पर आज तो जरा-जर्जर-देहधारी वृद्ध हैं। छिः! साहस का संबंध देह से उतना नहीं, जितना दृढ़ हृदय या मन से है।

उसी दिन रात की बात। जंगीपुर की उस तरफ पाकिस्‍तान-सीमा-पुलिस की चौकी से थोड़ी ही दूर, दो बंदूकधारी पाकिस्‍तानी सैनिक बातें करते हुए।

'वह जंगीपुरा के नजदीकवाले दोनों दरख्‍त देखते हो?'

'मतलब?'

'अभी थोड़ी देर पहले मुझे ऐसा लगा, जैसे कोई आदमी उन पेड़ों के पास से हिंदुस्‍तान की ओर गया हो।'

'चरस तो नहीं पी?'

'सच कहता हूँ।'

'चरस है जेब में?'

'है, सिगरेट में भरी हुई।'

'बस, उसी का असर है। तभी दुश्‍मन हवा में हिलता नजर आया तुम्‍हें। निकालो सिगरेट।'

सिगरेट निकाली गई, सुलगाई गई और कश-पर-कश लगने लगे। 'वह देखो, वह! चला गया!'

'अरे कहाँ? मुझे तो चिड़िया का बच्‍चा भी नजर नहीं आता। चढ़ गई चरस रानी?'

'कमाल है, मजाक में ही लिए जा रहे हो? मैं कहता हूँ, जरूर कोई सरहदी चोर है।'

'दो-दो बार देख-देखकर, चीख-चीख उठने पर भी गोली तुमने क्‍यों नहीं दागी? इसीलिए कि तुम जानते हो, तुम नशे में हो और सरहदी चोर खयाली।'

'अच्‍छा, तो लो, मैं बंदूक साध कर रखता हूँ। इस बार नजर आया, और मैंने...वह! वह!'

धायँ-धायँ-धायँ! सिपाही ने तीन बार गोली दागी और फिर दोनों उन पेड़ों की ओर दौड़ पड़े, जो बहुत दूर नहीं थे। पर वहाँ नजर कोई नहीं आया।

'अबे चरसिए!' दूसरे सिपाही ने खिजलाकर उसकी मलामत की - 'मुफ्त में मिले लड़ाई के सामान को ऐसे बरबाद न करिए। नशे की धुनकी में हजरत हवा पर ही बंदूक धुनकते चलाए हा रहे हैं?'

कहते-कहते दूसरे सिपाही का पाँव सहसा एक गड्ढे में जा रहा। दोनों ने टार्च जलाकर देखा, तो ताजा खोदा हुआ गड्ढा! 'अब बोलिए, चरसिए आप हैं या बंदा? यह गड्ढा बिल्‍कुल ताजा खोदा हुआ है। लगता है, यहाँ से कोई गड़ी हुई चीज हिंदुस्‍तानी चोर खोदकर ले भागा है।'

'अबे चरसिए, चुप भी रह! कोई अफसर सुन लेगा, तो दोनों ही लापरवाही के लिए दलेल में भेज दिए जाएँगे।'

उधर दूसरे दिन जयपुर के एक हिंदी दैनिक में मोटे-मोटे टाइपों में सनसनाता हुआ संवाद छपा -

'कल रात राजस्‍थान के जंगीपुर कस्‍बे के निकट पाकिस्‍तानी सीमा-पुलिस की चौकी के पास से तीन बार गोली चलने की आवाज सुनकर जब हमारी सीमा-चौकी के जवानों ने कारण की जाँच की, तो सीमा से सौ गज दूर पर जंगीपुर के राजस्‍थान-विख्‍यात वयोवृद्ध राष्‍ट्रीय कार्यकर्ता ठाकुर गोविंदसिंह की बुलेट से छिदी लाश के पास ही चार सर्विस बंदूकें, पिस्‍तौल तथा कारतूसों से भरी एक पेटी मिली।

ठाकुर की जेब में एक चिट्ठी भी मिली, जिसमें लिखा था - 'मैं ठाकुर गोविंदसिंह - जंगीपुर की मिट्टी और खाक - इस चिंता से कि भविष्‍य में उस पार वाले हमारी जन्‍मभूमि पर चढ़ाई न करें, अपने अस्‍त्रों का उद्धार करने पाकिस्‍तान की सीमा में जा रहा हूँ। बँटवारे से पहले अहिंसा के आवेश में उक्‍त अस्‍त्र अपने पुत्रों से छीनकर मैंने दफना दिए थे। पर आज उनकी जरूरत है - सख्‍त। अतः मैं अकेला ही काल के गाल में जा रहा हूँ। इस काम में अगर मैं काम आ जाऊँ, तो सरकार मेरी कोठरी की तलाशी लेकर पाँच लाख रुपए की सोने की ईंटें बरामद करे और उनसे सरकारी बांड खरीदकर उससे जो सूद मिले, उसे मेरे चारों बेटों में बराबर-बराबर तकसीम कर दे। जंगीपुर की सीमा पर लेकिन कालयोग से यदि कभी संकट उपस्थित हो, तो उस समय मेरा जो बेटा जन्‍मभूमि की रक्षा में सबसे अधिक संकट झेले, बलिदान दे, उसे सारी रकम का आधा भाग या आधे भाग का सूद दिया जाय और शेष के सम भाग के अधिकारी शेष तीनों बेटे माने जाएँ। गोली से मारे जाने में मुझे खास खुशी होगी, इसलिए कि हमारे राष्‍ट्र-पिता - अहिंसा के व्रती, सत्‍यवान महात्‍माजी गोली से ही मारे गए थे।'


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हिंदी समय में पांडेय बेचन शर्मा उग्र की रचनाएँ