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					बन्दौ विघन-बिनासन, ऋधि-सिधि-ईस । 
				
					निर्मल बुद्धि-प्रकासन, सिसु ससि सीस ।।1।। 
				
					सुमिरौ मन दृढ़ करकै, नन्दकुमार । 
					जे वृषभान-कुँवरि कै प्रान-अधार ।।2।। 
				
					भजहु चराचर-नायक, सूरज देव । 
					दीन जनन सुखदायक, तारन एव ।।3।। 
				
					ध्यावौ सोच-बिमोचन, गिरिजा-ईस । 
					नागर भरन त्रिलोचन, सुरसरि-सीस ।।4।। 
				
					ध्यावौं विपद-विदारन सुअन-समीर । 
					खल दानव वनजारन प्रिय रघुवीर ।।5।। 
				
					पुन पुन बन्दौ गुरु के, पद जलजात । 
					जिहि प्रताप तैं मन के तिमिर बिलात ।।6।। 
				
					करत घुमड़ घन-घुरवा, मुरवा रोर । 
					लगि रह विकसि अँकुरवा, नन्दकिसोर ।।7।। 
				
					बरसत मेघ चहूँ दिसि, मूसरधार । 
					सावन आवन कीजत, नन्दकुमार ।।8।। 
				
					अजौं न आये सुधि के, सखि घनश्याम । 
					राख लिये कहुँ बसि कै, काहू बाम ।।9।। 
				
					कबलौं रहिहै सजनी, मन में धीर । 
					सावन हूँ नहिं आवन, कित बलबीर ।।10।। 
				
					घन घुमड़े चहुँ ओरन, चमकत बीज । 
					पिय प्यारी मिलि झूलत, सावन तीज ।।11।। 
				
					पीव पीव कहि चातक, सठ अधरात । 
					करत बिरहिनी तिय के, हित उतपात ।।12।। 
				
					सावन आवन कहिगे, स्याम सुजान । 
					अजहुँ न आये सजनी, तरफत प्रान ।।13।। 
				
					मोहन लेउ मया करि, मो सुधि आय । 
					तुम बिन मीत अहर-निसि, तरफत जाय ।।14।। 
				
					बढ़त जात चित दिन-दिन, चौगुन चाव । 
					मनमोहन तैं मिलवौ राखि क दॉंव ।।15।। 
				
					मनमोहन बिन देखे, दिन न सुहाय । 
					गुन न भूलिहौं सजनी, तनक मिलाय ।।16।। 
				
					उमिड़-उमिड़ घन घुमड़े दिसि बिदिसान । 
					सावन दिन मनभावन, करत पयान।।17।। 
				
					समुझत सुमुखि सयानी, बादर झूम । 
					बिरहिन के हिय भभकत तिनकी धूम ।।18।। 
				
					उलहे नये अँकुरवा, बिन बलबीर । 
					मानहु मदन महिप के बिन पर तीर ।।19।। 
				
					सुगमहि गातहि का रन जारत देह । 
					अगम महा अति पान सुघर सनेह ।।20।। 
				
					मनमोहन तुव मूरति, बेरिझवार । 
					बिन पयान मुहि बनिहै, सकल विचार ।।21।। 
				
					झूमि झूमि चहुँ ओरन, बरसत मेह । 
					त्यों त्यों पिय बिन सजनी, तरफत देह ।।22।। 
				
					झूँठी झूँठी सौंहैं हरि नित खात । 
					फिर जब मिलत मरू के, उतर बतात ।।23।। 
				
					डोलत त्रिबिध मरुतवा, सुखद सुढार । 
					हरि बिन लागत सजनी, जिमि तरवार ।।24।। 
				
					कहियो पथिक सँदेसवा, गहि कै पाय । 
					मोहन तुम बिन तनकहु, रह्यो न जाय ।12511 
				
					जब ते आयौ सजनी, मास असाढ़ । 
					जानी सखि वा तिय के, हिय की गाढ़ ।।26।। 
				
					मनमोहन बिन तिय के, हिय दुख बाढ़ । 
					आयौ नन्द-ढोठनवा, लगत असाढ़ ।।271। 
				
					वेद पुरानबखानत, अधम-उधार । 
					केहि कारन करुनानिधि, करत विचार ।।28।। 
				
					लगत असाढ़ कहत हो, चलन किसोर । 
					घन घुमड़े चहुँ ओरन, नाचत मोर ।।29।। 
				
					लखि पावस ऋतु सजनी, पिय परदेस । 
					गहन लग्यौ अबलनि पै, धनुष सुरेस ।।30।। 
				
					बिरह बढ्यौ सखि अंगन, बढ़यौ चबाव । 
					कर्यौ निठुर नन्दन्दन, कौन कुदाव? ।।31।। 
				
					भज्यो किते न जनम भरि, कितनी जाग । 
					संग रहत या तन की, छाँही भाग ।।32।। 
				
					भज रे मन नंदनन्दन, बिपति बिदार । 
					गोपी जन-मन-रंजन, परम उदार ।।33।। 
				
					जदपि बसत है सजनी, लाखन लोग । 
					हरि बिन कित यह चित को, सुख संजोग ।।34।। 
				
					जदपि भई जल-पूरित, छितव सुआस । 
					स्वाति बूँद बिन चातक, मरत पिआस ।।35।। 
				
					देखन ही को निस दिन, तरफत देह । 
					यही होत मधुसूदन, पूरन नेह? ।।36।। 
				
					कब ते देखत सजनी, बरसत मेह । 
					गनत न चढ़े अटन पै, सने सनेह ।।37।। 
				
					बिरह बिथा ते लखियत, मरिबौ भूरि । 
					जौ नहिं मिलिहै मोहन, जीवन मूरि ।।38।। 
				
					ऊधो भलो न कहनौ, कछु पर पूठि । 
					साँचे ते भे झूठे, साँची झूठि ।।39।। 
				
					भादों निस अँधिअरिया घर अँधिआर । 
					बिसर्यो सुघर बटोही, शिव आगार ।।40।। 
				
					हौं लखिहौं री सजनी, चौथ-मयंक । 
					दखौं केहि विधि हरि सों लगै कलंक ।।41।। 
				
					इन बातन कछु होत न कहो हजार । 
					सब ही तैं हँसि बोलत, नंद-कुमार ।।42।। 
				
					कहा छलत हो ऊधो, दै परतीति । 
					सपनेहू नहिं बिसरै, मोहन-मीति ।।43।। 
				
					बन उपवन गिरि सरिता, जिती कठोर । 
					लगत दहे से बिछुरे, नंदकिसोर ।।44।। 
				
					भलि भलि दरसन दीनेहु, सब निसि-टारि । 
					कैसे आवन कीनेहु, हौं बलिहारि ।।45।। 
				
					आदिहि ते सब छुटि गा, जग ब्यौहार । 
					ऊधो अब न तिनौ भरि, रही उधार ।।46।। 
				
					घेर रह्यौ दिन रतियाँ, बिरह बलाय । 
					मोहन की वह बतियाँ, ऊधो हाय! ।।47।। 
				
					नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं । 
					होत विटप हू नाँगे फागुन माँहि ।।48।। 
				
					सहज हँसोई बातें, होत चबाइ । 
					मोहन को तनि सजनी, दै समुझाइ ।।49।। 
				
					ज्यों चौरासी लख में, मानुष देह । 
					त्यों ही दुर्लभ जग में, सहज सनेह ।।50।। 
				
					मानुष तन अति दुर्लभ, सहजहि पाय । 
					हरि-भजि कर सत संगति, कह्यौ जताय ।।51।। 
				
					अति अद्भूत छबि सागर, मोहन गात । 
					देखत ही सखि बूड़त, दृग जलजात ।।52।। 
				
					निमरेही अति झूठौ, साँवर गात । 
					चुभ्यौ रहत चित को धौं, जानि न जात ।।53।। 
				
					बिन देखे कल नाहि न, इन अँखियान । 
					पल पल कटत कलप सौं, अहो सुजान ।।54।। 
				
					जब तक मोहन झूँठी, सौंहें खात । 
					इन बातन ही प्यारे, चतुर कहात ।।55।। 
				
					ब्रज-बासिन के मोहन, जीवन-प्रान । 
					ऊधो यह सँदेसवा, अकह कहान ।।56।। 
				
					मोहि मीत बिअन देखे, छिन न सुहात । 
					पल पल भरि भरि उलझत, दृग जलजात ।।57।। 
				
					जब ते बिछुरे मितवा, कहु कस चैन । 
					रहत भर्यो हिय साँसन, आँसुन नैन ।।58।। 
				
					कैसे जीवत कोऊ, दूरि बसाय । 
					पल अन्तर हू सजनी, रह्यो न जाय ।।59।। 
				
					जान कहत हों ऊधो, अवधि बताइ । 
					अवधि अवधि लों दुस्तर, परत लखाइ ।।60।। 
				
					मिलन न बनिहै भाखत, इन इक टूक । 
					भये सुनत ही हिय के, अगनित टूक ।।61।। 
				
					गये हेरि हरि सजनी, बिहँस कछूक । 
					तब ते लगनि अगिनि की, उठत भबूक ।।62।। 
				
					मनमोहन की सजनी, हँसि बतरान । 
					हिय कठोर कीजत पै, खटकत आन ।।63।। 
				
					होरी पूजत सजनी जुर नर नारि । 
					हरि बिनु जानहु जिय में, दई दवारि ।।64।। 
				
					दिस बिदसान करत ज्यों, कोयल कूक । 
					चतुर उठत है त्यों त्यों, हिय में हूक ।।65।। 
				
					जब तें मोहन बिछूरे, कछु सुधि नाहिं । 
					रहे प्रान परि पलकनि, दृग मग माहिं ।।66।। 
				
					उझकि उझकि चित दिन दिन, हेरत द्वार । 
					जब ते बिछुरे सजनी, नन्दकुमार ।।67।। 
				
					जक न परत बिन हेरे, सखिन सरोस । 
					हरि न मिलत बसि नेरे, यह अफसोस ।।68।। 
				
					चतुर मया करि मिलिहौं, तुरतहिं आय । 
					बिन देखे निसबासर, तरफत जाय ।।69।। 
				
					तुम सब भाँतिन चतुरे, यह कल बात । 
					होरी से त्यौहारन, पीहर जात ।।70।। 
				
					और कहा हरि कहिये, धनि यह नेह । 
					देखन ही को निसदिन तरफत देह ।।71।। 
				
					जब ते बिछुरे मोहन, भूख न प्यास । 
					बेरि बेरि बढ़ि आवत, बड़े उसास ।।72।। 
				
					अन्तरगत हिय बेधत, छेदत प्रान । 
					विष सम परम सबन तें, लोचन बान ।।73।। 
				
					गली अँधेर मिल कै, रहि चुपचाप । 
					बरजोरी मनमोहन, करत मिलाप ।।74।। 
				
					सास ननद गुरु पुरजन, रहे रिसाय । 
					मोहन हू अस निसरे, हे सखि हाय! ।।75।। 
				
					उन बिन कौन निबाहै, हित की लाज । 
					ऊधो तुमहू कहियो, धनि ब्रजराज ।।76।। 
				
					जेहिके लिये जगत में बजै निसान । 
					तेहिते करे अबोलन, कौन सयान ।।77।। 
				
					रे मन भज निस बासर, श्री बलबीर । 
					जे बिन जॉंचे टारत, जन की पीर ।।78।। 
				
					बिरहिन को सब भाखत, अब जनि रोय । 
					पीर पराई जानै, तब कहु कोय ।।79।। 
				
					सबै कहत हरि बिछुरे, उर धर धीर । 
					बौरी बाँझ न जानै, ब्यावा पीर ।।80।। 
				
					लखि मोहन की बंसी, बंसी जान । 
					लागत मधुर प्रथम पै, बेधत प्रान ।।81।। 
				
					कोटि जतन हू फिरतन बिधि की बात । 
					चकवा पिंजरे हू सुनि बिमुख बसात ।।82।। 
				
					देखि ऊजरी पूछत, बिन ही चाह । 
					कितने दामन बेचत, मैदा साह ।।83।। 
				
					कहा कान्ह ते कहनौ, सब जग साखि । 
					कौन होत काहू के, कुबरी राखि ।।84।। 
				
					तैं चंचल चित हरि कौ, लियौ चुराइ । 
					याही तें दुचिती सी, परत लखाइ ।।85।। 
				
					मी गुजरद ई दिलरा, बेदिलदार । 
					इक इक साअत हम चूँ, साल हज़ार ।।86।। (फ़ारसी) 
				
					नवनागर पद परसी, फूलत जौन । 
					मेटत सोक असोक सु, अचरज कौन ।।87।। 
				
					समुझि मधुप कोकिल की, यह रस रीति । 
					सुनहु श्याम की सजनी, का परतीति ।।88।। 
				
					नृप जोगी सब जानत, होत बयार । 
					संदेसन तौ राखत, हरि ब्यौहार ।।89।। 
				
					मोहन जीवन प्यारे कस हित कीन । 
					दरसन ही कों तरफत, ये दृग मीन ।190।। 
				
					भज मन राम सियापति, रघुकुल ईस । 
					दीनबंधु दुख टारन, कौसलधीस ।।91।। 
				
					भज नरहरि, नारायन, तजि बकवाद । 
					प्रगटि खंभ ते राख्यो, जिन प्रहलाद ।।92।। 
				
					गोरज-धन-बिच राखत, श्री ब्रजचंद । 
					तिय दामिनि जिमि हेरत, प्रभा अमंद ।।93।। 
				
					ग़र्कज़ मै शुद आलम, चंद हज़ार । 
					बे दिलदार के गीरद, दिलम करार ।।94।। (फ़ारसी) 
				
					दिलबर ज़द बर जिगरम, तीरे निगाह । 
					तपदि' जाँ मीआयद, हरदम आह ।।95।। (फ़ारसी) 
				
					कै गायम अहवालम, पेशे-निगार । 
					तनहा नज़र न आयद, दिल लाचार ।।96।। (फ़ारसी) 
				
					लोग लुगाई हिल मिल, खेलत फाग । 
					पर्यौ उड़ावन मोकौं, सब दिन काग ।।9711 
				
					मो जिय कौरी सिगरी, ननद जिठानि । 
					भई स्याम सों तब त, तनक पिछानि ।।98।। 
				
					होत विकल अनलेखे, सुघर कहाय । 
					को सुख पावत वजनी, नेह लगाय ।।99।। 
				
					अहो सुधाकर प्यारे, नेह निचोर । 
					देखन ही कों तरसै, नैन चकोर ।।100।। 
				
					आँखिन देखत सब ही, कहत सुधारि । 
					पै जग साँची प्रीत न, चातक टारि ।।101।। 
				
					पथिक पाय पनघटवा कहत पियाव । 
					पैयाँ परौं ननदिया, फेरि कहाव ।।102।। 
				
					बरि गइ हाथ उपरिया, रहि गइ आगि । 
					घर कै बाट बिसरि गई, गुहनैं लागि ।।103।। 
				
					अनधन देखि लिलरवा, अनख न धार । 
					समलहु दिय दुति मनसिज, भल करतार ।।104।। 
				
					जलज बदन पर थिर अलि, अनखन रूप । 
					लीन हार हिय कमलहि, डसत अनूप ।।105।। 
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