उपन्यास प्रयोग
हिन्दी में अज्ञेय पहले कवि, कथाकार और चिन्तक हैं जिन्होंने तमाम तरह के विरोधों को झेलकर प्रयोग की महिमा को स्थापित किया है। अज्ञेय का जुझारू चिन्तक रूप प्रयोग को लेकर कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी विधाओं में देखने को मिलता है। पूर्व और पश्चिम की सैद्धान्तिकी से गम्भीर-गहन रूप में परिचित होने के कारण वे नयी सर्जनात्मकता में आधुनिकता लाने के लिए संकल्पबद्ध होकर आगे बढ़े। प्रयोग के विश्वासी इस रचनाकार ने विरोधियों के विरोध से शक्ति पायी और सृजन का एक नया परिप्रेक्ष्य ही उजागर कर दिया। आज हमें स्वतन्त्रता को [बीसवीं शती की बीज अवधारणा मानें तो इस अवधारणा को] अपने सृजन और चिन्तन के केन्द्र में लाकर आगे प्रयुक्त करने वालों में सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय का नाम सर्वोपरि दिखाई देता है। अज्ञेय ने सर्जन चिन्तन में 'प्रयोग' को आधुनिक, आधुनिकता, आधुनिक बोध और आधुनिकीकरण से जोड़कर उसका नया भाष्य प्रस्तुत किया।
प्रयोग और प्रगति को आत्म-चिन्तन, व्यक्तित्व की स्वाधीनता से जोड़कर अज्ञेय ने साहित्य की सभी नयी विधाओं में, 'राही नहीं, राहों के अन्वेषी' बनकर एक-से-एक बढ़कर प्रयोग किये। इतनी सारी विधाओं में एक साथ प्रयोग-दृष्टि को लेकर सामने आने वाला अज्ञेय हिन्दी का पहला रचनाकार है। प्रतिभा और प्रभाव दोनों ही दृष्टियों से भारतेन्दु और जयशंकर प्रसाद के बाद अज्ञेय का ही स्थान है। अज्ञेय ने सृजन के साथ चिन्तन भी टी.एस.एलियट की तरह किया। एलियट की तरह उनका आलोचना-कर्म 'निजी कर्मशाला' (पोयट्री वर्कशाप) का उपजात (वाई प्रोडक्ट) या काव्य-सृजन के प्रसंग में रचना चिन्तन का नया प्रयोग-विस्तार है। अज्ञेय ने सृजन समस्याओं से उलझते जूझते हुए जो पाया, उसी से उनके चिन्तन का स्रोत नाभिनाल रूप में जुड़ा है। सुखद अनुभव-अनुभूति यह भी है कि अज्ञेय में कारयित्री और भावयित्री प्रतिभाएँ परस्पर पूरक हैं। उनके रचना कर्म का अनुभव उनके भावक या पाठक को पुष्ट करता है और यह पाठक ही प्रयोग और सम्प्रेषण जैसे नये चिन्तन की निष्पत्ति करता है। ध्यातव्य यह है कि अज्ञेय का चिन्तन कर्म (आलोचना कर्म) मुख्यतः सर्जक की दृष्टि से किया गया है। उसमें पाठक का पक्ष प्रायः गौण है। इसलिए अज्ञेय का चिन्तन केवल पाठक के लिए नहीं है, वह सर्जक और पाठक दोनों के लिए है। इसी शक्ति के कारण अज्ञेय ने निर्मल वर्मा, रमेशचन्द्र शाह, मलयज, नन्दकिशोर आचार्य से लेकर उदय प्रकाश तक की पूरी पीढ़ी को प्रेरित-प्रभावित किया है।
'शेखर : एक जीवनी', 'नदी के द्वीप' तथा 'अपने-अपने अजनबी' में अपने स्वातन्त्र्य-दर्शन को केन्द्र में रखकर अज्ञेय ने हर बार नये कथा-प्रयोग किये। साथ ही उन्होंने प्रयोगों के न कोई सिद्धान्त बनाये बनाये हैं न नियम। बहुत ज्यादा आलोचकों द्वारा सताये जाने पर कभी 'प्रयोग और प्रेषणीयता',कभी 'शेखर से साक्षात्कार', कभी 'शेखर एक प्रश्नोत्तरी' और कभी 'नदी के द्वीप : क्यों और किसके लिए' तो कभी 'श्लील और अश्लील', कभी 'रेखा की भूमिका', कभी 'नदी के द्वीप का समाज' जैसे न जाने कितने निबन्ध सन्दर्भ आख्यान लिखे हैं। जबकि वे जानते हैं और मानते भी हैं कि छपने के बाद 'कृति तब पाठक की हो जाती है और कृतिकार उस रूप से मुक्त हो जाता है।'
अज्ञेय एक अर्थ में न अभिजात्यवादी हैं न स्वच्छन्दतावादी हैं, और न ही अस्तित्ववादी। एक स्वतन्त्र भारतीय सर्जक की तरह वे विचारधाराओं का अतिक्रमण करते हैं। वे वैयक्तिकता से मुक्त होकर निर्वैयक्तिकता की ओर जाते हैं। अतः अज्ञेय का उद्देश्य रहता है नये सृजन प्रयोग के लिए नये बोध-आस्वाद, परिशंसन (एप्रीशिएशन) तथा रुचि-परिष्कार के लिए भूमि तैयार करना। अज्ञेय का रचना-स्वभाव अपने मूल से विद्रोही है। इसलिए वे अभ्यस्त को छोड़कर अनभ्यस्त पथ को अपनाते हैं। अनेक रचनाकारों के साथ मिलकर और स्वयं उनके बीच में रहकर 'बारहखम्भा' जैसे प्रयोग-धर्मी उपन्यास को रूपाकार देकर एक अन्विति में बाँधना अज्ञेय का ही प्रयोग अरमान है। एक तरह से उनके सृजन-प्रतीक हारिल की एक अनथक उड़ान। क्या संयोग सत्य है कि एलियट ने 'द वेस्टलैंड' के प्रकाशन से कोलाहल पैदा किया तो अज्ञेय ने 'शेखर : एक जीवनी' जैसे दो भागों के उपन्यास से।
यह तो अज्ञेय ही थे जो एलियट के प्रसिद्ध लेख 'ट्रेडीशन एंड द इंडिविजुअल टैलेंट' का 'त्रिशंकु' निबन्ध संग्रह में 'रूढ़ि और मौलिकता' शीर्षक से छायानुवाद प्रस्तुत कर चुके थे और यह सत्य कमा चुके थे कि प्रत्येक राष्ट्र की जाति (रेस) की अपनी सर्जनात्मक आलोचनात्मक अलग मनोवृत्ति-मनोभूमिका होती है, जिसकी अपनी विशिष्टताएँ होती हैं। किसी भी कृति को पढ़ते समझते हुए पाठक यह जिज्ञासा लेकर सक्रिय रहता है कि यह कृति पूर्ववर्ती कृतियों से कितनी भिन्न है। यह भिन्नता ही उसकी नवीनता का निर्धारण करती है। क्योंकि वैयक्तिक प्रज्ञा परम्परा से विच्छिन्न नहीं होती। प्रेमचन्द-प्रसाद-निराला सभी अज्ञेय में बोलते हैं लेकिन भिन्न रचना-टोन से। इसलिए अज्ञेय में परम्परा के इतिहास-बोध का अर्थ उसका अतीतत्व नहीं अपितु वर्तमानत्व है। इसी अर्थ में अज्ञेय में वेद, उपनिषद, बौद्ध, जैन, कालिदास-भवभूति सभी अपना अस्तित्व रखते हैं। इसी अर्थ में परम्परा रचनाकार के लिए 'प्रवाह' है जो सांस्कृतिक साहित्यिक दाय के उभयांश को धारण कर सार्थक बनाती है। इसी अर्थ सन्दर्भ से एलियट के लिए और अज्ञेय के लिए परम्परा की बहुत व्यापक अर्थवत्ता है। इसलिए कलाकृति का अकेले मूल्यांकन सम्भव नहीं है चाहे वह 'अपने-अपने अजनबी' हो या असमाप्त उपन्यास 'बीनू भगत' हो। 'बारहखम्भा' जैसी अपूर्व प्रयोग की उपन्यास कृति आती है तो पूर्ववर्ती सभी कृतियों में उसके 'एडजेस्टमेंट' पर ध्यान देना पड़ता है। क्योंकि नयी कलाकृति आने पर वह पूर्ववर्ती कृतियों की स्थिर व्यवस्था में थोड़ा-बहुत परिवर्तन जरूर करती है; जैसे रेल के डिब्बे में नये यात्री के आने से थोड़ा-बहुत खिसकना (परिवर्तन करना) पड़ता है। 'नदी के द्वीप' हो या 'बारहखम्भा', उसमें कोई भाव विचार सीधे सपाट ढंग से नहीं आता, उसमें विचारों का संकेन्द्रण (कन्स्ट्रेशन) रहता है तथा संकेन्द्रण से एक नयी मौलिक चीज जन्म लेती है।
अज्ञेय प्रयोग-उपन्यास 'बारहखम्भा' में प्रेम को विषयवस्तु बनाकर चले तो एक भाव - 'प्रेम' अनेक संवेदनों में पारस्परिकता स्थापित करने लगा - वह अमृतलाल नागर और अज्ञेय दोनों में 'अलग-दृष्टि' पा गया। दोनों के न जाने कितने विचारों का विलयन (फ्यूजन) हुआ और अमूर्त को मूर्त करने की समस्या आयी। इस समस्या को रचनाकार मूर्त विधान सिद्धान्त (आब्जेक्टिव कोरिलेटिव) से हल करता है। यह मूर्त-विधान सिद्धान्त हमारे भारतीय काव्यशास्त्र का (रस सिद्धान्त) विभाव व्यापार ही है। रचनाकार के भाव-विचार को व्यक्त करने का अनिवार्य साधन है - विभाव। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इस विभाव व्यापार को इसी कारण अर्थ-मीमांसा में विशेष महत्त्व देते हैं। स्वयं अज्ञेय ने इस चिन्तन परम्परा को धारण किया है और नये रचना-प्रयोगों में प्रवृत्त हुए हैं। प्रयोग की पाठशाला में अज्ञेय के 'पाठ' अपनी पढ़त में विविध और विपुल अर्थ सन्दर्भों का आनन्द देते हैं। अज्ञेय ने नये प्रयोगों के सर्जनात्मक आत्म-विश्वास से पुराने को नया किया और नये को परम्परा में सम्मानजनक स्थान दिया।
नये प्रयोग का अर्थ अज्ञेय के लिए नयी रचना-स्थिति के तर्क को स्वीकार करना है। अज्ञेय तथा उनके समकालीनों में चाहे वे 'बारहखम्भा' उपन्यास के सहयोगी लेखक हों, अमृतलाल नागर या विष्णु प्रभाकर सभी रचना-कर्म में इस नयी स्थिति को स्वीकार करते हैं। 'तार सप्तक' के सातों कवियों के वक्तव्यों में नयी रचना-स्थिति सम्प्रेषण परिस्थिति की जितनी स्पष्ट पहचान अज्ञेय को है उतनी किसी को नहीं। यहाँ 'तार सातक' तथा 'दूसरा सप्तक' की सैद्धान्तिक स्थापनाओं से अज्ञेय ने साहित्य-चिन्तन का एक नया काव्यशास्त्र ही निर्मित कर डाला। प्रयोग-सम्प्रेषण-साधारणीकरण से जुड़ी समस्याओं पर विचार करते हुए पूरे रचना-कर्म की चिन्ताओं पर पुनर्विचार किया। 'काल का डमरू नाद' में नयी दृष्टि देकर वे यथार्थ सम्प्रेषण (कथा-भाषा की समस्याओं पर विचार को केन्द्रित किये रहे ताकि सम्प्रेषण) परिस्थिति के बदलने का सन्दर्भ स्पष्ट कर सकें। परम्परा के साथ प्रयोग कैसे सर्जनात्मक होता है या हो सकता है, इस सम्भावना पर विचार करते हुए 'दूसरा सप्तक' की भूमिका में वे कहते हैं - ''जो लोग प्रयोग की निन्दा करने के लिए परम्परा की दुहाई देते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि परम्परा कम-से-कम कवि के लिए कोई पोटली बाँधकर अलग रखी हुई चीज नहीं है जिसे वह उठाकर सिर पर लाद ले और चल निकले। परम्परा का कवि के लिए कोई अर्थ नहीं है जब तक वह उसे ठोक-बजाकर, तोड़-मरोड़कर, देखकर आत्मसात् नहीं कर लेता और जब तक वह एक इतना गहरा संस्कार नहीं बन जाती कि उसका चेष्टापूर्वक ध्यान रखकर उसका निर्वाह करना अनावश्यक न हो जाए। अगर कवि की आत्माभिव्यक्ति एक संस्कार-विशेष के वेष्टन में ही सहज सामने नहीं आती है, तभी वह संस्कार देने वाली परम्परा, कवि की परम्परा है, नहीं तो वह इतिहास है, शास्त्र है, ज्ञान-भंडार है जिससे अपरिचित भी रहा जा सकता है।'' परम्परा क्या है? स्मृति है और स्मृति का विस्तार दिक् और काल दोनों में होता है। इसलिए 'स्मृति और काल' को साहित्य में अज्ञेय एक पद्धति के रूप में इंटरप्रेट या विश्लेषित करते हैं। स्मृति ही भाषा है और भाषा ही स्मृति। इसलिए रचना भाषा में 'सामूहिक-स्मृति' का भंडार है।
अज्ञेय अपने कथा-प्रयोगों में नयी अनुभव दृष्टियों की सम्भावना को मूर्त करने के संकल्प का नाम है। अज्ञेय के उपन्यास-प्रयोगों की केन्द्रीय चेतना-भारतीय काल-बोध की चक्रानुवर्ती गति का बोध कराना है। स्मृति में वर्तमान की वर्तमानता को फैलाना उनके प्रयोगों की मूलभूमि है। इस भूमि स्वतन्त्रता का विशिष्ट सन्दर्भ है और यह सन्दर्भ ही मानव-विवेक की आधारशिला है। इस दृष्टि से सांस्कृतिक स्वाधीनता कला का सबसे बड़ा मूल्य है। इस मूल्य को पाने की जब तक कलाकार में अन्तःप्रेरणा नहीं जागती, तब तक वह सजीव कलाकृति प्रस्तुत नहीं कर सकता। अन्तःप्रेरणा के मूलस्रोत इतने जटिल और गूढ़ होते हैं कि सहसा उनका विश्लेषण असम्भव होता है। फिर कलाकार जितना ही सम्पूर्ण होगा उतना ही उसके भीतर भोगने वाले प्राण और रचने वाली मनीषा का पृथक्त्व होगा। इसलिए कलाकृति में निर्वैयक्तिक परम्परा प्रवाहित होती है और उसी के भीतर से नये प्रयोग का अरमान जाग्रत होता है। इसलिए प्रयोग जीवन-सत्य को पाने और जानने का दुहरा साधन है और साध्य भी। सच्चिदानन्द वात्स्यायन के संयोजन और सम्पादन में एक उपन्यास-प्रयोग किया गया। यह उपन्यास-प्रयोग १९८७ में छपकर सामने आया। इसमें 'बारह अध्याय' हैं और पहला अध्याय अज्ञेयजी ने लिखा है। इसका छठा अध्याय फिर अज्ञेय ने लिखा और अन्तिम अध्याय भी अज्ञेय ने ही लिखा। कुल मिलाकर इस उपन्यास में अज्ञेय द्वारा तीन अध्याय लिखे गये हैं। दूसरा अध्याय मन्मथनाथ गुप्त ने, तीसरा अध्याय विष्णु प्रभाकर ने, चौथा अध्याय प्रभाकर माचवे ने, पाँचवाँ अध्याय अमृतलाल नागर ने, सातवाँ अध्याय भारत भूषण अग्रवाल ने, आठवाँ अध्याय देवराज ने, नौवाँ अध्याय धर्मवीर भारती ने, दसवाँ रांगेय राघव ने और ग्यारवाँ रामचन्द्र तिवारी ने लिखा है।
इस उपन्यास-प्रयोग की भूमिका में अज्ञेय ने लिखा है - ''मुखपृष्ठ पर 'बारहखम्भा' को एक 'उपन्यास प्रयोग' कहा गया है। एक हद तक तो उसकी प्रयोगधर्मिता मुखपृष्ठ से ही स्पष्ट हो जाएगी जहाँ उन लेखकों के नाम भी दिये गये हैं जिन्होंने इस (उस समय तक अनूठे) सहकारी अनुष्ठान में भाग लिया। लेकिन सहकारिता का प्रयोग इतने तक सीमित नहीं था कि उपन्यास का एक-एक अंश एक-एक व्यक्ति लिखेगा। प्रयोग में अनिवार्यतया यह जिज्ञासा भी शामिल थी कि पूरा उपन्यास यदि एक कलाकृति है तो उसमें योग देने वाले प्रत्येक लेखक के सामने यह प्रश्न भी रहेगा कि जहाँ से वह कथासूत्र उठाता है, वहाँ तक की कथा का आभ्यन्तर तर्क क्या बनता है। संरचना के उतने अंश की आभ्यन्तर माँग क्या है? क्या ऐसा कोई आभ्यन्तर तर्क, कोई कलात्मक माँग होती भी है; या कहीं से भी आगे कहानी को मनमानी दिशा में ले जाया जा सकता है? 'मनमानी' तो वह हर हालत में होती ही है लेकिन कलाकार का कला-विवेकी मन जो मानता है वह कहाँ तक उसके विकल्पों को मर्यादित करता है?'' अज्ञेय जी ने इसे उपन्यास-प्रयोग कहा फिर स्वयं प्रयोग का श्रीगणेश किया और अन्य सहयोगियों से इस उपयोग को पूरा किया। पूरा करने के साथ इसकी अन्तर्योजना, कलात्मकता एवं संरचना को लेकर अपनी प्रश्नाकुलता को भी पाठकों के सामने रखा।
इस उपन्यास-प्रयोग की सार्थकता निरर्थकता को लेकर अज्ञेय के मन में भी कम हलचल नहीं थी। हलचल न होती तो वे इस उदाहरण से 'तर्क' खड़ा न करते। उन्होंने कहा : ''समस्या को रूपायित करने के लिए हम एक दूसरे क्षेत्र का उदाहरण ले सकते हैं। एक अधूरा बना हुआ मकान सामने पाकर कोई स्थपति क्या उसमें जैसे-तैसे कमरे और मंजिलें जोड़ता हुआ चल सकता है? क्या किसी भी चरण में उसे 'दिया हुआ' नक्शा उसे एक साथ ही दिशा संकेत भी नहीं देता और उपलब्ध विकल्पों की सीमा भी नहीं बाँध देता? रचनात्मक प्रतिभा के लिए विकल्प तो निश्चय ही और हर चरण में रहते हैं, लेकिन उनके स्वरूप का निर्धारण पहले का रचा भी करता है और पहले के रचनाकारों की भविष्य कल्पना भी करती है।'' दरअसल, यहाँ अज्ञेय जी ने रचना-प्रक्रिया के भीतर का बड़ा पेचीदा प्रश्न उठा दिया है, ऐसा प्रश्न जिसका कोई सीधा उत्तर देश-विदेश के काव्यशास्त्र के पास नहीं है। यदि होता तो टी.एस. एलियट मूर्त विधान (आब्जेक्टिव-कोरिलेटिव) के साथ संवेदनशीलता के असाहचर्य (डिसोशियेशन ऑफ सेन्सिविलिटी) की चर्चा नहीं करते। वे एक उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट) का दृष्टान्त न देते कि आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड के कक्ष (चेम्बर) में यदि प्लेटिनम का एक सूक्ष्म तार डाल दिया जाए तो आक्सीजन और सल्फर डायोक्साइड मिलकर सल्फरस एसिड बन जाते हैं। यह संयोजन प्लेटिनम के रहने पर ही होता है किन्तु नवनिर्मित सल्फरस एसिड में न तो प्लेटिनम का कोई चिह्न दिखाई देता है और न प्लेटिनम पर दोनों गैसों का कोई प्रभाव पड़ता है। वह प्लेटिनम वैसा-का-वैसा तटस्थ (न्यूट्रल) निष्क्रिय तथा अपरिवर्तित (अनचेंज्ड) रहता है। कवि का मन प्लेटिनम का तार है। उसके सम्पर्क से नये संवेदन नये अनुभव रूप-आकार ग्रहण करते हैं किन्तु वह स्वयं उनसे सर्वथा अप्रभावित रहता है। कलाकार जितना उत्कृष्ट होगा उसमें भोक्ता और स्रष्टा का अन्तर उतना ही स्पष्ट होगा। टी.एस. एलियट का यह मन्तव्य अज्ञेय ने 'शेखर : एक जीवनी' में उद्धृत किया है और यहाँ भी 'बारहखम्भा' में वे अपने मन्तव्य से हटे नहीं हैं।
अज्ञेय के मन में खंड-खंड से अखंड को पाने का भाव बीज था। उन्होंने इसीलिए कहा है कि प्रयोग की योजना बनाते समय यह माना गया था कि उपन्यास रचना का यह पक्ष प्रयोग में भाग लेने वाले सभी उपन्यासकारों के लिए तो रोचक होगा ही, पाठकों के लिए भी लगातार दिलचस्पी का कारण बना रहेगा। और प्रयोग पूर्ण हो जाने के बाद उपन्यास लिखना चाहने वाले दूसरे लेखक भी प्रयोग को दिलचस्पी के साथ पढ़ेंगे और उपन्यास की विधा को, उसके शिल्प को और समग्र रूप-रचना की सभी समस्याओं को समझने के लिए उपयोगी पाएँगे। यह प्रयास प्रयोग के धरातल पर क्यों उपयोगी होगा जबकि हिन्दी में 'प्रयोग' का बहुत कम आदर है और उपभोक्तावादी संस्कृति के समय में तो उसका मूल्य और घटा ही है। लेकिन अज्ञेय जी मानते रहे हैं कि 'ऐसा समझा गया था यह प्रयोग आलोचक के लिए भी उपयोगी होगा - न केवल उपन्यास विधा के सैद्धान्तिक विवेचन में बल्कि-और शायद उससे अधिक - प्रयोग में भाग लेने वाले उपन्यासकारों की विशेष प्रवृत्तियों को समझने में भी। यह सच है कि रचना के 'पाठ' में व्यक्ति और समाज अपनी विशेषताओं के साथ 'उपस्थित' रहता है, जरूरत गहराई में उतरकर भाष्य करने की होती है।
'बारहखम्भा' की मूल योजना के विषय में अज्ञेय ने कहा है कि मूल योजना में उपन्यास बारह किस्तों में लिखा जाने वाला था इसलिए उसका नाम भी 'बारह खम्भा' सोच लिया गया था। मूल योजना में जिन लेखकों ने उसमें भाग लेना स्वीकार किया था प्रयोग के चलते उनमें कुछ उससे अलग हो गये। प्रतिमाह एक अध्याय छपता रहे, इसकी जिम्मेदारी प्रयोग के संयोजक से अधिक मासिक-पत्र (प्रतीक) के सम्पादक पर आ गयी थी और इसलिए बीच में (अज्ञेय को), एक बार पहले अध्याय के लेखक (अज्ञेय) को, फिर एक अध्याय लिखना पड़ा। इसके बावजूद 'बारहखम्भा' का बारहवाँ खम्भा यथाक्रम खड़ा नहीं हुआ क्योंकि 'प्रतीक' का प्रकाशन ही स्थगित हो गया। इस संघर्ष का इतिहास रचनाकार और संयोजक अज्ञेय के संघर्ष से जुड़ा है लेकिन ये तो अज्ञेय ही थे कि संकल्प को पूरा करके दम लिया। इसलिए अन्य सात-आठ रचनाकारों के द्वारा इसके खंड लिखने पर भी मैं इस उपन्यास को अज्ञेय का चौथा उपन्यास मानता हूँ; क्योंकि इसके मूल भाव को अज्ञेय ही आदि, मध्य और अन्त में स्थापित करते हैं। अज्ञेय के मन में इस उपन्यास-प्रयोग की चिन्ता रही। इसलिए पाठक से पूछ लिया कि 'प्रयोग सफल हुआ या कि असफल? अधूरे उपन्यास के आधार पर भी इस प्रश्न का उत्तर खोजा जा सकता था और उत्तर दिया भी गया।' पाठक तो इस प्रयोग पर मुग्ध हुए किन्तु ऐसे प्रयोग हिन्दी उपन्यास में फिर नहीं हुए। बहुत समय बीत जाने के बाद इस अधूरे उपन्यास को अज्ञेय ने पूरा किया - अन्तिम अध्याय लिखकर उसे छपवाया। उसी अज्ञेय ने अन्तिम किस्त लिखी जिसने पहली किस्त का श्रीगणेश किया था। इस तरह इस प्रयोग में दस रचनाकारों ने हिस्सेदारी की और यह 'उपन्यास' पाठकों तक पहुँच पाया। अज्ञेय की रचना-दृष्टि में 'प्रयोग' साहित्य सृजन की लीला का भाव है जिसमें हर बार कुछ-न-कुछ छूटता-जुड़ता बदलता रहता है।
यहाँ तो मूल प्रश्न यह है कि अलग-अलग अध्यायों के योग से उपन्यास बना या नहीं। क्योंकि उपन्यास घटनाओं के ढेर का नाम नहीं है, उसकी अपनी भीतरी संरचना होती है जो अपना रूप लेकर आती है, कथ्य लेकर आती है। दोनों को अलग-अलग करके देखना मति-भ्रम है। उपन्यास के प्रवाह में गति के भँवर उठते हैं। प्रबुद्ध पाठक उन्हें पार करने में रस पाता है। अज्ञेय खुद पहले अध्याय के स्रष्टा और चार-पाँच अध्यायों के पाठक रहे। फिर छठा अध्याय लिखने में चन्द्रगुप्त विद्यालंकार ने असमर्थता प्रकट की तो पाठक अज्ञेय को छठे अध्याय की रचना करनी पड़ी। चन्द्रगुप्त विद्यालंकर की असमर्थता का कारण था कि जिस वर्ग के जीवन का चित्रण सहभागी लेखक खींच रहे हैं उसकी यथार्थता से वे परिचित नहीं हैं। फलतः वर्णन अस्वाभाविक हो गया है। लेकिन यदि चन्द्रगुप्त का विचार सही होता तो अज्ञेय अपने प्रयोग की योजना को स्थगित कर देते। उन्होंने प्रयोग-योजना को खारिज नहीं किया या नहीं माना - यह इस बात का प्रमाण है कि अज्ञेय का पाठक/आलोचक इसे कम-से-कम 'उपन्यास' तो मानता ही है। क्योंकि प्रयोग-योजना का केन्द्र 'यथार्थता' थी ही नहीं, 'परिस्थिति' थी : ''इस विचार को उस समय 'प्रतीक' के सम्पादन ने छठी किस्त के आरम्भ में यह टिप्पणी लिखकर किया था। अज्ञेय ने क्रिकेट टीम का सहयोग मानकर कहा था 'इस प्रकार के साझे के खेल में टीम के सदस्यों को पूरा अवसर मिलना चाहिए; कोई गिरता पड़ता भी चले तो दूसरों को सँभालना चाहिए। खेल में खिलाड़ियों को भी रस मिलता है और खेल देखने वालों को भी...। यह भी जान पड़ता है कि इस प्रकार के प्रयोगों से लेखकों की विशेष रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ और गुण-द्वोष भी किसी हद तक प्रकट होते हैं। हिन्दी के औपन्यासिक कृतित्व की अवस्था का भी प्रतिबिम्बन होता है। यह भी उसका एक महत्त्व है और इस दृष्टि से प्रयोग के एक पहलू की असफलता एक दूसरे पहलू की सफलता है।'' प्रयोग में अज्ञेय की गहरी दिलचस्पी एक अलग 'पाठ' है जिसकी व्याख्या में यही अर्थ-व्यंजकता है कि प्रयोग करने चाहिए। प्रयोगों से ही नव सर्जनात्मकता की पौ फटती है और तना हुआ अन्धकार छँटता है। अज्ञेय ने इसी 'प्रयोग-विश्वासी मन' की ताकत से कहा है कि 'सम्पादक' का यह विश्वास अब भी बना हुआ है कि यह उपन्यास (और प्रयोग) पाठकों के लिए अत्यन्त रोचक होगा; और इतना ही नहीं, उपन्यास की विधा के अध्येताओं के लिए (इनमें उपन्यास लेखक भी शामिल है) अत्यन्त उपयोगी होगा। इस तरह सम्पादक वात्स्यायन की राय में यह प्रयोग सफल, रोचक और उपयोगी सिद्ध हुआ। अज्ञेय इस उपन्यास की इस प्रकार की रचना शिल्प की सफलता से प्रसन्न थे और पाठक भी। उपन्यास हेमचन्द्र और श्यामा के मान भरे स्वर से शुरू होता है -''मैं अकेली नहीं जा सकती, तुम मुझे पहुँचा कर आओ'' - कैसे पहुँचाएँ? गाड़ी चल नहीं रही है लेकिन श्यामा का आग्रह। और श्यामा लड़की नहीं है स्त्री है, अकेली है, नौकरी करती है। आत्मनिर्भर स्त्री। मोटर खराब होने से हेमचन्द्र कष्ट में है, सेकंड हैंड गाड़ी का क्या भरोसा! यन्त्र ही तो है! यन्त्र का गुलाम मानव। और जब यन्त्र नहीं चलता तब बड़ी गड़बड़।
यह पूरा उपन्यास प्रेम-कथा के नाम पर देह-कथा है। देहवाद का उत्तर-आधुनिक दृश्य इसकी मूल अन्तर्वस्तु में व्याप्त है। पूरे उपन्यास में नारी आत्मा नहीं, देह है - भोग और देहानन्द प्राप्त करने को अधीर है। धर्म, ईश्वर और आध्यात्मिकता को स्थान न देकर 'बारहखम्भा' के दस रचनाकारों ने क्रीड़ा-लीला का नगर-जीवन प्रस्तुत किया है।
दरअसल यह नारी-प्रधान उपन्यास है 'उपन्यास प्रयोग' बारहखम्भा। नारीवादी-विमर्श की अलग छवि का उपन्यास। हिन्दी साहित्य के एक अभिनव-पक्ष का इसमें समावेश है। कलाकृति की अन्तर्योजना में बँधे जीवनानुभवों का गतिशील यथार्थ और अवचेतन की दहाड़ में सृजन की प्रेरणा है। यह कलाकृति बँधी-बँधाई लीक से हटकर एक नया आविष्कार है। यहाँ सभी अध्यायों के रचनाकार वर्णन नहीं, अन्वेषण कर रहे हैं। आरम्भ में रचना के धुँधले अनुमान को सभी गढ़ते हैं और उसे एक अन्वितिपरक सन्दर्भ में बाँधकर साकार करते हैं। तमाम जोखिम झेलकर वे मंजिल पर पहुँचे। इस दृष्टि से इस रचना का बड़ा व्यापक जीवन सन्दर्भ है। 'बारहखम्भा' के प्रथम अध्याय में अज्ञेय ने प्रेमकथा के बारह कोणों के लिए अपना एलजेब्रा और मैथमेटिक्स सृजन कर्म में प्रयुक्त किया है। इस तरह कथा की परती जमीन को तोड़ा है जिसमें अन्य रचनाकार अपने को सर्जनात्मकता के धरातल पर सहज पा सकें। साथ ही दिल्ली को कथा का केन्द्र बनाकर पात्रों का शहरीकरण इस हुनर से किया कि 'यन्त्र युग का मानव' अपनी भाव और ज्ञान संवेदना से 'उपस्थित' किया जा सके। यहाँ द्विअर्थक प्रतीक कथा है जिसमें 'आधुनिकता' की जटिल अर्थ-ध्वनियों की अनुगूँज है। आधुनिक बौद्धिक की जटिल संश्लिष्ट जीवन चेतना में संशय-द्वन्द्व-तनाव, ईर्ष्या और विद्रूपताएँ - प्रधान भूमिकाएँ रखती हैं। हेमचन्द्र और श्यामा का आकर्षण, रमानाथ और केतकी का प्रेमज्वार, अल्ताफ हुसेन के प्रगतिवादी विचारों का दोगलापन और सेठ मदनलाल का गोलीकाण्ड कई अर्थों को एक साथ उभारता है। सभी पात्र जीवन जीने की चाह में जीवन द्वारा ही जी लिए जाते हैं और शेष रह जाता है - थकान का धुआँ और सहयोग-समझौता। अनमेल से मेल बैठाने की विवशता। दरअसल 'बारहखम्भा' ऐसा 'उपन्यास-प्रयोग' है जो बहुत विश्लेषण सहन नहीं कर पाता है। क्योंकि यह तो स्वयं ही आधुनिक मानव-मन के मनोविश्लेषण और जीवन-ग्रन्थियों पर केन्द्रित उपन्यास है। फिर इसके संयोजन सम्पादन में लगी अज्ञेय की सर्जनात्मक क्षमता में गहन कलात्मकता का हाथ रहा है। वे बहुत समर्थ एवं सजग कलाकृति-शिल्पी हैं और बारीक तलाश से अन्तर्वस्तु और रूप को नवदीप्ति देने के अभ्यासी। अज्ञेय में सर्जनात्मक प्रतिभा के साथ अभ्यास का धैर्य एवं संयम बहुत है। इसलिए अमृतलाल नागर से लेकर धर्मवीर भारती के रचना-सहयोग के रहने पर भी 'बारहखम्भा' अज्ञेय का ही उपन्यास है, उनके उपन्यास-प्रयोग का कलात्मक मॉडल।
'बारहखम्भा में भावावेगों की तीव्रता होने पर भी छिछली भावमयता नहीं है। नारी के अन्तर्मन की कई गुफाओं को खोजने के कारण यह नारी-विमर्श की अद्भुत पाठशाला है। इसके पूरे टेक्स्ट में उद्दाम आकांक्षाओं के मगरमच्छ झपट रहे हैं लेकिन फिर भी संयम। बौद्धिकता की गहरी चादर में लिपटी संवेदना कथ्य में गरिमा की निष्पत्ति करती है और देहवाद के क्रीड़ा-कर्म में यथार्थ का गतिशील पहलू है। प्रायः बौद्धिक नारियों ने मर्दवाद को दूर तक खदेड़ा है ताकि नर-नारी सम्बन्धों में 'समानता' की व्यंजकता का सन्दर्भ स्पष्ट किया जा सके। दुःख है हिन्दी उपन्यास-यात्रा में 'बारहखम्भा' की चर्चा ही नहीं हुई। इस प्रयोग को आदर से अपनाकर नया भाष्य होना चाहिए।
अज्ञेय प्रश्नाकुल रचनाकार हैं और मानवीय समस्याओं पर उनकी पकड़ बहुत गहरी है। इस पकड़ के मूल में है देश-विदेश का अनुभव और बहुपठित होना। इसी बहुपठिता की फलश्रुति है उनका असमाप्त उपन्यास - 'बीनू भगत'। अज्ञेय में चेतन-अवचेतन मन के तनाव और संवाद के प्रश्नों का भण्डार है और यहाँ तो बीनू भगत का एक सपना है - सपने में साक्षात्कार। अज्ञेय का इंटेलेक्चुअल यहाँ एकाग्र होकर विचार करता है कि आधुनिक सभ्यता के संकटों-परिस्थितियों ने हमारी नैतिक मान्यताओं को कितना बदल दिया है, हमारी भीतरी वस्तु या संस्कृति को बदल दिया है। यह बात आज का इंटेलेक्चुअल या बौद्धिक तो समझता है लेकिन जनसाधारण नहीं समझता। वह अपनी मान्यताओं को पकड़ कर जीता है। फिर यहाँ का 'जन' यहाँ के बौद्धिक को पाखण्डी समझता है और बौद्धिक इन्हें 'अन्धविश्वासी जड़' कहकर हिकारत से देखता है। दोनों के बीच भारी फासला है।
अज्ञेय के मानस में बीनू भगत का जागना एक अधूरे स्वप्न का जागना है। इस पात्र का जागना अधूरे स्वप्न में पूरे आन्तरिक यथार्थ को खोजने की तैयारी है। पूरी कथा प्रबुद्ध पाठक के लिए स्वप्न सदृश है। उसका लेखन तीन अध्यायों में हुआ, फिर छूट गया। इस तरह यह विषय और उपन्यास असमाप्त रह गया। मानव जीवन की अस्मिता से जुड़े तमाम पैने काँटेदार प्रश्नों से अज्ञेय जूझते रहे और जूझकर जो जीवन-सत्य कमाते रहे 'बीनू भगत' उसी सत्य का बिम्ब है और बिम्ब में प्रतिबिम्बित संसार, अवचेतन की उद्वेलित अन्तर्यात्रा। अपने को भीतर से खोलकर देखने का निर्भय मन-अज्ञेय का मन है।
'बीनू भगत' के भीतर से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि अज्ञेय ने फ्रायड, एडलर युंग से आगे बढ़कर नव फ्रायडवाद, उत्तर संरचनावाद की ओर अपने चिन्तन को प्रवृत्त कर दिया था। मनोविश्लेषण की नयी खोजों को वे रचनाकर्म में जज्ब करने लगे थे। फ्रायड ने मानवीय चित्त की जो खोज की थी वह बहुत आघातकारी थी, एक दूसरा संसार आँखों के सामने लाती थी। फ्रायड ने अप्रीतिकर समझकर उसे दबा दिया। 'इड' के 'प्रकार्य' अवचेतन की अशान्त उत्तेजनाओं को उभारते हैं और 'इगो' इस 'इड' के सामने घुटने नहीं टेकता। वैसे भी जाक लकाँ ने सिद्ध किया है कि पूरे तन्त्र में अहम् एक मिथ्या निर्मिति (कन्स्ट्रक्ट) है जो भाषा के लाक्षणिक तन्त्र का प्रदेय है। अपने शैशव में अपने संस्कारों, अनुभवों, आकृतिगत प्रतिबिम्बों के कारण हम सोचने लगते हैं कि हम स्थायी अस्मिता या पहचान रखते हैं। लेकिन अहम् की इस केन्द्रीयता को 'स्थिति' किनारे पर फेंक देती है और हम बीनू भगत बन जाते हैं, अपने से ही झगड़ने और बतियाने लगते हैं। जबकि अवचेतन चेतन को ताकतवर होने के कारण लतियाता रहता है। इसलिए जान लकाँ ने फ्रायड की जो नयी पढ़त प्रस्तुत की है उस पढ़त को अज्ञेय अपनाते हैं। इतिहास के विचारकों की नयी पढ़त में हीगल, मार्क्स, हेडगेवर आदि हैं लेकिन उनके पाठ के भाषा-तन्त्र का प्रतीकात्मक पाठ अनपढ़ा रह जाता है। भाषा के प्रतीकात्मक तन्त्र की दुरूहता और बहुलतार्थकता शैली के स्तर पर सक्रिय रहती है, क्योंकि अवचेतन अस्तित्व रखता है और अवचेतन संरचना भी रखता है। फ्राइडोत्तर भाष्यकारों ने अवचेतन के भाष्य को कम करके प्रस्तुत किया उससे बहुत सी मूलवृत्तियाँ छूट गयीं। इसलिए फ्रायड के पाठ की सभी अर्थ-परतों को खोलने का काम जान लकाँ ने बड़ी गहन निष्ठा से किया। इस तरह लकाँ ने कलाकृतियों को व्यक्ति का नूतन सिद्धान्त दिया और साहित्यिक आलोचना को नया पथ। लकाँ ने अवचेतनात्मक विश्लेषण से 'बोलने वाले व्यक्ति' (सब्जेक्ट) का ऐसा सिद्धान्त प्रस्तुत किया कि नये चिन्तकों के होश उड़ गये। इसने उदाहरण देकर कहा - जब मैं बोलता हूँ तो अपने को 'मैं' और जिस व्यक्ति से बोलता हूँ उसे 'तुम' कहता हूँ। किन्तु जब वह 'तुम' मेरी बात का उत्तर देता है तो 'तुम' 'मैं' बन जाता है और मेरा 'मैं' 'तुम' बन जाता है। इस तरह जाहिर है 'मैं' 'तुम' आदि मात्र व्यक्तिपरक स्थितियाँ हैं, 'व्यक्ति' नहीं। कारकों को स्वीकार करके ही मानवीय वार्तालाप सम्भव होता है। इस तरह 'मैं' और 'तुम' के आधार को विशेष बनाकर लकाँ का चिन्तन व्यक्तिपरक स्थितियों के इसी अवकाश में प्रवेश पा जाता है। भाषा बोलते ही मानव संकेतकों के तन्त्र में घुस पड़ता है। वस्तुतः आकांक्षा की यह शक्ति ही अवचेतन (दिस फोर्स ऑफ डिजायर इज अन्कान्शस) है। यहाँ भाषा - पूर्व दर्पण (मिरर फेज) की अवस्था है। इस तरह लड़का हो या लड़की एक मनगढ़न्त आदर्श तलाशने लगता है।
इस दृष्टि से 'बीनू भगत' का भाषा में अवचेतन की लीला को खोजने का प्रश्न है। 'बीनू भगत' का आरम्भ इस तरह हुआ - मैंने शीशे में झाँका। झाँकते-झाँकते बड़ी तेजी से मेरे मन में से यह विचार दौड़ा कि मैं इतने दिन इतना व्यस्त रहा हूँ कि शीशे में देखने की फुरसत भी नहीं मिली जबकि मामूली तौर पर मैं दिन में अधिक नहीं तो दो-चार बार शीशे में झाँक ही लेता हूँ। लेकिन शीशे में झाँकते हुए ही मैं थोड़ी देर के लिए अचकचा गया। वहाँ जो चेहरा मुझे दीखा वह कुछ अनपहचाना-सा लगा। अपनी अचकचाहट को छिपाने के लिए मैंने अपने चेहरे पर थोड़ी हँसी बिखेरते हुए उससे पूछा - ''तुम कौन हो जी?'' सवाल के समान सवाल आया क्योंकि 'सवाल पूछने तक उसके चेहरे पर भी वैसी ही मुस्कान थी। लेकिन मेरे सवाल पर उसका चेहरा कुछ गम्भीर हो आया। उसने कहा, ''क्या मैं यह पूछ सकता हूँ कि यह सवाल मुझसे पूछने वाले तुम कौन हो?'' मैं कौन हूँ यह सवाल मुझसे मेरा आईना पूछे! यह अजीब बात है तो मैं जो भी हूँ मैं हूँ - असल और ओरिजिनल मैं। मैं मूल सत्ता हूँ और मेरे ही कारण तो मेरा प्रतिबिम्ब है। अपने इस सोच से कुछ आत्मविश्वास पाकर मैंने कहा, ''नहीं! यह सवाल मेरे ही पूछने का है। मैं तो स्वतःप्रमाण हूँ। तुम केवल प्रतिछवि हो।'' ''स्वतःप्रमाण!'' उसकी हँसी में काँच की-सी खनखनाहट थी। ''हाल तो तुम्हारा यह है कि दिन में चार-छः दफे मुझसे प्रमाण-पत्र पाये बिना तुम्हें अपने होने पर भी विश्वास नहीं होता और तुम स्वतःप्रमाण। सवेरे हजामत बनाते हो, टाई-वाई लगाते हो; लेकिन तुम्हें न अपने किये हुए कर्म पर भरोसा होता है और न अपने अनुभव पर।'' अपने पर भरोसा-विहीन मनुष्य हर जगह लाचार और काँपता हुआ। ''मैं कह दूँ कि हाँ हजामत ठीक बन गयी तो ठीक है। कह दूँ कि हाँ, टाई ठीक बँधी है, गाँठ ठीक जैसी होनी चाहिए वैसी ही है कुछ बाँकपन; कुछ लापरवाही और कुछ हल्की सी ढिठाई लिए हुए, तो हाँ, टाई ठीक बँधी है। कुछ भी तो तुम अपने भरोसे न जानते हो न पहचानते हो, यहाँ तक कि अगर दिन में बॉस का सामना करना है तो उसके लायक आत्मविश्वास भी तुममें है या नहीं, यह जानने के लिए भी तुमको मेरी गवाही की जरूरत पड़ती है। फिर स्वतःप्रमाण तुम हो या मैं?''
कथा में यह प्रश्न उभरता है - अस्मिता से जुड़ा प्रश्न। प्रश्न के भीतर से निकलकर ही अवचेतन मन कहता है - ''चलो, आज इसका फैसला हो जाय।'' उसने भी कहा - ''चलो'' - वह बाहर चलते ही साथ चलने लगा। मैंने कहा - ''क्लब चलते हैं वहीं फैसला होगा।'' मेरे कन्धे के पास से उसकी आवाज आयी - ''हाँ, क्लब चलते हैं, वहीं फैसला होगा।'' इस तरह दोनों (चेतन मन-अवचेतन मन, वैयक्तिक मन, सामूहिक अवचेतन मन) क्लब गये, बीयर पीने का इरादा। बैरा के सलाम का जबाव दे रहा था कि ''मैंने देखा कि उसके पीछे दीवार में लगे हुए बड़े शीशे में एक धुँधली-सी छवि दीख रही है, जो है तो शायद मेरी ही लेकिन पहचानी हुई नहीं जान पड़ी। इस तरह शक्ल तो मेरी है लेकिन पहचानी नहीं जान पड़ी। लगातार कन्धे के पास से फिर आवाज - ''लाउंज में चलकर बैठिए, वहाँ भी एक बड़ा शीशा लगा हुआ है वहीं फैसला हो जाएगा।'' लाउंज में कुर्सी खींचकर बैठे-बैठे मैंने कहा - ''बैठो!'' इतने में जहाँ मैं बैठा था वहाँ से दूर पर लगे हुए पूरी दीवार झींकने के लिए शीशे में हमारी ही प्रतिछवियाँ क्यों, पूरा-का-पूरा लाउंज दीख सकता था। हाँ, सब कुछ जरा धुँधला दीखता था, और काँच में जहाँ-तहाँ थोड़ी लहर होने के कारण थोड़ा-सा विकृत भी, बल्कि वह विकृति भी एक स्थिर विकृति नहीं थी, जरा-सा भी हिलने-डुलने पर उस लहर के कारण वह विकृति भी तरह-तरह से और विकृत होती जाती थी; मानो प्रतिबिम्बित सारा-का-सारा यथार्थ लगातार बल खाता हुआ नये से नये रूप लेता जा रहा हो।'' इस तरह वहाँ मैं-तुम दोनों वादी-प्रतिवादी। कौन न्यायदाता होगा? अतः उस आईने में जो छवि दीखती है उसी को न्यायाधीश के आसन पर बैठाया गया। प्रश्न उठा-किसकी छवि? छवि तो तुम्हारी ही प्रतिछवि है और तुम स्वतःप्रमाण। या कि छवि स्वतःप्रमाण है। अगर यह भी तुम्हारी प्रतिछवि वह भी तुम्हारी प्रतिछवि तो इस ढकोसले का क्या प्रयोजन? दलील सही है पर बात गलत है।
शीशे के भीतर की छवि ने कहा - ''सामने केवल तथ्य आने चाहिए - झूठे रूपक, नकली मुखौटे नहीं। तथ्य माने पूर्वग्रह। वे पूर्वग्रह जिन्हें हम तथ्य मान रहे हैं।'' फिर आया बैरा! गिलासों में बियर। कचहरी में बियर कचहरी की तौहीन। छवि ने कहा - ''क्या अदालत को इस मामले पर विचार करने का अधिकार है? क्या उसको इसकी अर्हता प्राप्त है?'' दोनों ने कहा - ''अदालत की सम्पूर्ण अर्हता मुझे स्वीकार है।'' तो मूल परिस्थितियों में से ही आपकी अर्हता सिद्ध है। वह अर्हता स्वतःप्रमाण है। आगे की खानापूरी हुई। प्रश्न उठा कि क्या कोई सच्चाई स्वतःसिद्ध है। ''क्या सवाल के इस रूप पर मुझे सन्तोष होना चाहिए या कि और अधिक चिन्ता? क्या मैं मूलसत्ता हूँ और वह प्रतिमुकरित होने के कारण गौण, मुझ पर निर्भर और इसलिए पूरी तरह मुझ पर अधीन, या कि बेनामी मालिक होने के कारण वही अदृश्य असली सत्ता और मैं ठोस और पूरी तरह दृश्य होकर भी उसका कठपुतला-यथार्थ के खेत में टँगा हुआ एक डरौना?'' यह डरौना ही यथार्थ से ज्यादा यथार्थ है - अतियथार्थ। पूरे दर्शन का आधार इसी की आस्था है। वह साधारण स्थिति में प्रश्न नहीं उठाता। प्रश्न उठाना असाधारण स्थिति है। असाधारण स्थिति में तटस्थ निर्णायक की जरूरत। लेकिन असाधारण स्थिति में निर्णायक की तटस्थता की क्या जरूरत है? दोनों तटस्थता की बात पर सहमत लेकिन असाधारण स्थिति में तटस्थता टिक नहीं सकती। इस तरह तीन हो जाते हैं - मैं, तुम और छवि। तीनों की संरचना अवचेतन से जुड़ी है। कमजोर चेतन का अस्तित्व होने पर भी अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है ताकतवर अवचेतन का, जहाँ 'लिविडो' विश्राम नहीं पाता - वहाँ न मैं है, न छवि, केवल अवचेतन का शासन है, उसी की अर्थव्यंजना, उसी के प्रतीक, मिथक, रूपक, आख्यान सब कुछ। वही राजा है, वही सपने का सत्य भी।
प्रश्न है स्वप्न की दुनिया क्या कोरे झूठ की दुनिया है? झूठ क्या सच से कम यथार्थ है! वैदिक लोग सत्य और मिथ्या को एक-सा निर्भय मानते थे। सपने की दुनिया सच्ची है या झूठ, इसके बारे में क्या कहा जाय? कुछ सपने शारीरिक अवस्था का सीधा परिणाम होते हैं और कुछ हमारी वासना-कामना-आकांक्षा का परिणाम। कुछ सपने मात्र इच्छापूर्ति। लेकिन कुछ सपने ऐसे भी होते हैं जिनका वासना या स्नायविक तनावों से कोई रिश्ता नहीं होता। उनमें मानो एक निःसंग दूसरी दुनिया की कहानी आँखों के सामने अभिनीत होती है। ऐसे सपनों का कभी-कभी हमारे जीवन की घटनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता। वे हमारे जाने-पहचाने किसी व्यक्ति से नहीं मिलते। न ही उनके कर्म व्यापार हमारी अपनी कल्पना से उपजे जान पड़ते हैं, लेकिन जो फिर भी बड़े जीवन्त चरित्र होते हैं। यहाँ एक ऐसा ही जीवन्त चरित्र है - बीनू भगत।
सपने में अधूरी कहानी रह जाती है, हम जाग जाते हैं; किन्तु उसका जीवन्त चित्र स्मृति में बना रहता है। आधे-अधूरे समाज में अधूरे सपने ही आते हैं। हम यथार्थ के जिस मायाजाल में फँसे हुए हैं और जिसे अपना कहकर अभिव्यक्त कर रहे हैं वह यथार्थ, वह दुनिया ही वास्तव में, अधूरी है। इस तरह यथार्थ की आधी-अधूरी दुनिया में जीते हुए वे 'बीनू भगत' जैसे भरे-पूरे चरित्र। उनमें यथार्थ की कई तहें हैं और उन तहों का खोल पाना चुनौती है, असम्भव तो नहीं। कोई जॉन लकाँ या कोई वर्जीनिया वुल्फ या कोई अज्ञेय या निर्मल वर्मा उन तहों को खोलने का कलेजा दिखाता है। अज्ञेय के सामने बीनू-भगत ऐसा ही चरित्र है जिससे वे बुलाकर बतियाते हैं-गपियाते हैं, ऐंठते हैं, कहते हैं।
मैं यह बात इस आधार पर कह रहा हूँ कि बीनू भगत अज्ञेय के जीवन यथार्थ का अवचेतन से निकला सपना है, सच है। अज्ञेय ने उपन्यास में कहा है - ''बीनू भगत के बारे में यही बात सच है। मैंने उसे पहले-पहल इसी तरह के एक लम्बे कथा-सपने में देखा था। उसके बाद मेरी जागृत दुनिया में कई दिनों तक मेरी उसकी बातचीत होती रही।'' इस तरह यह उपन्यास एक स्वप्न कथा है, लम्बी स्वप्न कथा का उपन्यास प्रयोग। इस बार फिर एक नये तरह का प्रयोग। इस प्रयोग में नव फ्रायडवाद की खोजों का सर्जनात्मक उपयोग।
सपने टूटने पर पूछा गया कि क्या मेरे लायक कोई काम बता सकते हो। मेरे सामने क्या विकल्प है? उसका निहितार्थ यही था कि ''तुम तो कवि हो, कहानीकार हो, तुम्हारे पास सर्जक कल्पना है तो तुम क्या सारे विकल्प उखाड़कर मेरे सामने नहीं रख सकते?'' बीनू के इसी सवाल और दर्द ने अज्ञेय को उसका सहचर सखा बना दिया है। वे उसे प्रायः अपनी स्टडी में बुलाकर सामने बिठा लेते हैं। उसके आते ही अतीत का द्वार खुल जाता है। इतिहास एकदम स्मृति बनकर कहता है -
''उस ऐतिहासिक नगर में पहुँचकर न जाने क्यों मुझे एक काम करने की सूझी थी जो मैंने ऐसी स्थिति में पहले कभी नहीं किया था। ऐतिहासिक नगर मैंने बहुत से देखे हैं लेकिन कभी गाइड लेकर घूमने निकला हूँ ऐसा नहीं हुआ। बल्कि गाइड खुद आगे बढ़कर आये हैं और मैंने उन्हें दुत्कार दिया है। कई बार नगर में जाने से पहले उसका इतिहास और ऐतिहासिक स्थलों का ब्योरा पढ़ गया हूँ जिससे गाइड की जरूरत ही न पड़े। लेकिन इस शहर में आते ही मैंने पर्यटक ब्यूरो में जाकर गाइड माँगा और उन्होंने एक युवा मूर्ति को मेरे सामने कर दिया। यही युवामूर्ति थी बीनू भगत। अज्ञेय एक नामी-गरामी पुरातत्त्ववेत्ता पिता के पुत्र। उनके साथ भोगे गये अनुभव बीत जरूर गये, अतीत नहीं बने, स्मृतियों में धड़कते रहे। स्मृति रहित कोई घटना इतिहास नहीं बनती। इसलिए समाज, इतिहास, संस्कृति की जीवन्त धड़कन स्मृति में सुनाई देती है। इसी अर्थ में अज्ञेय बीनू भगत में स्मृति का काव्यशास्त्र निर्मित करना चाह रहे थे जो अधूरा रह गया। स्मृति में इतिहास को जाग्रत करना अपने भीतर मौजूद समय से पुनःसंवाद है - आत्मीय एकालाप। यह एकालाप 'बीनू भगत' में है।
अज्ञेय को बीनू भगत की स्मृति है क्योंकि मैंने उसे एक बार सिर से पैर तक देखा। बुश्शर्ट और पैण्ट, पैरों में बिना मोजे के सैण्डल, हाथ में एक छोटा बस्ता जैसा आजकल विश्वविद्यालय के विद्यार्थी कभी-कभी लिए रहते हैं। बीनू की सत्रह-अठारह वर्ष की उम्र लेकिन अनुभव २२-२४ से कम नहीं। आँखों में संयत, तटस्थ पर्यवेक्षण का भाव था। वैसी आँखें मैंने उन्हीं की देखी हैं जिन्होंने युवावय में ही बहुत दुःख और यन्त्रणा सही है। वैसा दुःख जो लोगों को खुद अपने अनुभव से तटस्थ कर देता है, जिसके कारण लोग भोक्ता न रहकर साक्षी हो जाते हैं। यह पूरा चित्र गाइड बीनू भगत का अज्ञेय के जीवन-चित्र से काफी मेल खाता है। दोनों ने दुःख और यन्त्रणा से जीवन का अर्थ जाना है, यथार्थ को पहचाना है। इस तरह दोनों ही सुन्दर युवक हैण्डसम। दोनों में निस्संगभाव। ऐतिहासिक नगर की बात से गहरी तृप्ति का अनुभव। फिर वह गप्पी किस्सागो नहीं है सही जानकारी देने वाला गाइड। इस तरह अज्ञेय और बीनू उस ऐतिहासिक नगर के विलक्षण खण्डहरों में दिन भर घूमे और थककर चूर होने के बाद चाय-पानी पिया। इस तरह बीनू-भगत में ऐसा कुछ है कि जिसके कारण उसकी उपस्थिति को उससे अलग करके देखने में अज्ञेय असमर्थ रहे हैं। लगातार उसकी 'प्रेजेन्स' का अनुभव-सुख। गाइड पढ़ा-लिखा और संस्कारवान। और अज्ञेय को अपने संस्कारवान होने का गर्व कम नहीं रहा। उससे आत्मीय संवाद। फिर कहा, 'विकल्प है शादी कर लो'। उसने कहा - 'शादी' अब विकल्प नहीं है। विवाह किया और टूट चुका। इतनी जल्दी सब कुछ हो गया। पर चेहरा 'चेहरा कितना बड़ा धोखा होता है - आप जानते हैं?'
अचानक कथन में नाटकीय झटका। गाइड ने कहा - ''मैं उन्नीस वर्ष की थी जब मेरा विवाह कर दिया गया, इक्कीस की होते-होते मुझे घर से निकाल दिया गया, क्योंकि मुझमें बच्चे पैदा करने की क्षमता न थी।'' (ध्यान रहे इस तरह की बात अज्ञेय के लिए भी तमाम लोग कहते रहे हैं) अचकचाहट से निकला - ''तुम लड़का हो या लड़की? मेरी कुछ समझ में नहीं आया।'' उसने कहा कि चेहरा धोखा होता है। मैं स्त्री ही हूँ। और वह कटुता उसके चेहरे पर फैल गयी। इसलिए स्त्री का नाम बीनू भगत उर्फ बिनी, विनयकुमार, वीणा, विनीता। पोशाक भी ऐसी ही चुनी। आजकल लड़के-लड़कियों की एक-सी पोशाक। मर्दानगी पोशाक के बावजूद एक युवती। इस आधी-अधूरी दुनिया में एक विकसित चरित्र को जीने का मौका नहीं मिला।
इस उपन्यास 'बीनू भगत' का तीसरा खंड है जॉन बैनसन - विदेश मन्त्रालय से। साहित्य में रुचि है। और नाटक और रंगमंच से जुड़ने का चस्का। बैनसन के साथ अमेरिकी उपन्यास का नाट्य रूपान्तर। नाटक का प्रस्तुतीकरण अच्छा लगा और कथा भी मार्मिक। उपन्यास-नाटक में स्त्री की समस्या और तमाम मानवीय प्रश्न। फिर तमाम तरह के भारतीय समाज से जुड़े प्रश्न। प्रेम-विवाह का चलन क्यों बढ़ रहा है? पश्चिम में विज्ञापन की प्रवृत्ति और अखबारों का सहारा। लेखक ने बैनसन के साथ फार्म हाउस जाने का प्रोग्राम बनाया और रास्ते भर तमाम तरह के सामाजिक विषयों की चर्चा की है। चर्चा में ही कहा बैनसन ने - 'हमारे कोई सन्तान नहीं है, हो भी नहीं सकती।' अर्थ निकालकर नाटक के नायक जैसी स्थिति (सन्तानहीनता) मेरी भी है। कारण, बचपन में मम्प्स हुए थे। जबरदस्त अटैक। पुंसत्व का नाश। इसमें शरीर की शुक्र कीट बनाने की क्षमता नष्ट। और इसका विज्ञान के समय में भी कोई इलाज नहीं। इस तरह की जटिल समस्याओं पर कथा बढ़ती रही लेकिन अधूरी ही रही, स्वयं अज्ञेय की सन्तान ग्रन्थि का इसमें तीव्र विस्फोट है, अवचेतन के कष्ट का निष्कासन भी।
यह उपन्यास आगे क्या रूप ग्रहण करता, आज कह पाना सम्भव नहीं है। इसलिए भी नहीं है कि यह असमाप्त उपन्यास है और मानव मनोग्रन्थियों की गहन खोज। जान लकाँ के साथ मनोविश्लेषण-शास्त्र में होने वाली अवचेतन-सी जुड़ी अनेक नयी खोजों का उद्घाटन और भाष्य। यायावर अज्ञेय के सामने एक नयी दुनिया ग्लोबल कल्चर का उभार हो रहा था और वे उस चिन्तन के गहरे सम्पर्क में थे। फ्रायड ने स्वयं भाषा की सच्चाइयों पर ध्यान केन्द्रित किया था और विश्लेषण के लिए स्वप्नों, वार्तालापों पर विचार किया था। फ्रायडोत्तर मनोविश्लेषण ने स्वप्न-कथाओं पर गहरा भाष्य प्रस्तुत किया। इसी दृष्टि से 'बीनू भगत' का भाष्य होना चाहिए।
अज्ञेय का असमाप्त उपन्यास-प्रयोग के भीतर से गुजरना अपने में नया अनुभव है। रचनाकार की मनोभूमिका में एक क्रान्तिकारी देशभक्त इस ढंग से निरन्तर विद्यमानता रखता है कि रचना में उसे उभरते देर नहीं लगती। शायद यह क्रान्तिकारी अब उनके चेतन-अवचेतन की संरचना का दुर्निवार अंग है। 'छाया मेखल' सोमा की कथा है और इस कथा में लिपटी है शहीद क्रान्तिकारी वीरेश्वर की अन्तःकथा। सोमा की कथा क्या है? जीवन साधना, जीवन संकल्प और स्वाधीन रहने की अदम्य नारी-आकांक्षा। हम जिस काल या समय में जी रहे हैं और वे जो समय में जी रहे हैं वे अपने जीवन पर छाया की मेखला पहने हुए हैं (दे आर श्राउडिड बाई ए क्लाक अप आफ मिस्ट्री, दे कैन नॉट अफोर्ड अदरवाइज) इस स्थिति में उनके पास विकल्प नहीं है।
अज्ञेय ने इस उपन्यास के शीर्षक या नामकरण की चर्चा करते हुए अमृता प्रीतम से कहा था कि उपन्यास का नाम 'निश्छाय' सोच रहा हूँ। इस पर अमृता प्रीतम ने पंजाबी में इसका अनुवाद करते हुए कहा 'निछावें मनुक्ख'। (छायारहित मानव) ''वह तो मानसिक पक्षाघात हुआ। छाया आत्मा की चेतना तो बनी रहनी होगी : उसकी तो बढ़ती हुई पहचान आवश्यक है। केवल छाया रहित क्षण; वह सघनतम अनुभूति का क्षण, जिसमें अतीत और भविष्यत् नाम की दोनों छायाएँ सिमट कर तेजोदीप्त घटमान तो सोख ली जायें वह क्षण ही निश्छाय होगा, उस क्षण में से गुजरता हुआ चरित नहीं। चरित के लिए तो वह छाया से साक्षात्कार का क्षण होगा। अस्तु, अज्ञेय ने नाम रखा 'छाया मेखल'। आधा लिखा उपन्यास। वे इसे पूरा नहीं कर सके। इस तरह यह अधूरा भी पूर्ण समझिए और क्या कहा जा सकता है!
घने कुहरे में तड़के एक स्त्री दृढ़तापूर्वक दरवाजा खोलकर गाड़ी में सवार हो गयी। स्टेशन ऐसा था जहाँ डाकगाड़ी रुकती नहीं थी। लेकिन प्रथम श्रेणी की इस सवारी के लिए गाड़ी रुकी। सवारी चढ़ी। अच्छा हुआ कि सामान नहीं था। कूपेवाला डिब्बा था - भीतर अँधेरा। स्त्री ने हाथ से टटोलकर बटन दबाया। थोड़ी रोशनी में देखा - ऊपर की बर्थ पर दो सूटकेस और नीचे की बर्थ पर सफेद चादर में लिपटी - ढँकी एक लम्बी देह। कब तक सोएगी यह लम्बी देह? लेकिन यह देह तो जिन्दा नहीं है, शव है। साथी ने कहा - ही इज डैड। स्त्री चीख पड़ी। धैर्य से आदमी ने कहा - रिश्तेदार नहीं, साथी था। इसे गोलियाँ लगीं कई-एक। अजनबियों की बातचीत और आदमी की सहज स्थिति का प्रभाव पड़ा। स्त्री ने परिचय दिया, ''मैं पुलिस कप्तान की बेटी हूँ। घर से भागकर आयी हूँ - अभी सवेरे।'' आदमी ने उसे पहचानते हुए कहा, ''पुलिस कप्तान की बेटी - मिस्टर जैतली की बेटी मिस जैतली?'' जैतली कर्रे (कड़े) पुलिस अफसर बेहद टप। बातचीत में स्त्री मन ने जोखिम सूँघ लिया। आदमी ने कहा, ''मेरे साथी का नाम है वीरेश्वरनाथ। क्रान्तिकारियों के साथ था। अचानक शिकार पार्टी में गोलियाँ लग गयीं। मेरे पास सिविल सर्जन का सर्टिफिकेट है। राजा साहब ने ही लाश घर ले जाने की व्यवस्था करा दी। इस पर स्त्री ने कहा - ''जैतली नाम घर पर छोड़ आयी हूँ। मेरा नाम सोमा है। उस आदमी ने नाम बताया - मोहन सामन्त। डॉक्टर। वीरेश्वर की लाश उसके घर ले जा रहा हूँ। वहाँ उसकी विधवा माँ है और थोड़ा बहुत राजनीति में काम करती है। उसने कहा कि वीरेश्वर की अन्तिम इच्छा थी उसकी लाश बेच दी जाए और पैसा? लाश बेचने का लम्बा प्रकरण। फिर सोमा ने दिये चार सौ रुपये। इस पर उसने कहा - ''साथी की लाश आपकी हुई।''
इस प्रकरण से नया मोड़। जंक्शन आने पर लाश लेने माँ आयी और तमाम लोग। अधेड़ उम्र की खद्दरपोश माँ। रोती हुई माँ ने सोमा को भ्रमवश वीरेश्वर की पत्नी समझ लिया। एक टूटे दिल की कराह उसके कन्धे पर फूट पड़ी 'मेरी बहू मेरी बेटी...।' सोमा सकते में आ गयी। परिस्थिति का यह मोड़ सम्भावना से भी परे। अकल्पित मोड़। शहीद की माँ की ऐतिहासिक भूमिका में सोमा ने भी विधवा बहू की ऐतिहासिक भूमिका पूरी की। वीरेश्वर की माँ शोभा देवी को सोमा ने सुना-समझा और डॉक्टर मोहन सामन्त ने। मोहन अर्थात् मुन्नू। सोमा की मुश्किल का कथा विस्तार-सामन्त सोमा का मौन मुखर संग्राम। शोभा को समझाकर सोमा वहाँ से छूटी, साथ में सामन्त। बरेली से सामन्त ने सोमा को गाड़ी पकड़वा दी और एक माह बाद अपने वचन को दुहराया। सोमा दिल्ली अपनी सहेली के पास आ गयी।
सोमा का उसकी सहेली के परिवार ने स्वागत किया। सोमा के मन में अपने पैरों पर खड़ा होने का अरमान। लेकिन सोमा वहाँ अपने डैडी के कारण बहुत समय तक नहीं रहना चाहती। और न ही किसी अन्य को मुसीबत में डालना चाहती। घर से भागने की योजना को पकते-पकते कुछ महीने लगे। कॉलेज की पढ़ाई पूरी की - संगीत, नृत्य, पेंटिंग। फूल सज्जा की शिक्षा पायी - 'कल्चर' का नया सौष्ठव। शादी के विज्ञापन बनाने में सोमा को महारत हासिल है। लेकिन शादी के विज्ञापनों के सस्तेपन से थककर वह पेंटिंग की ओर मुड़ती है। उसके लिए-लड़की के लिए नौकरी का मतलब मास्टरी नहीं है, न कालेज की लेक्चरारी। लड़कियाँ बाप के खर्चे पर विदेश जाती हैं, सोमा ऐसा भी नहीं करना चाहती। वह उन दीवारों को तोड़कर स्वाधीन होना चाहती है। पेंटिंग में डिप्लोमा और गहरी रुचि। और हमेशा माना - ओरिजिनैलिटी रहनी चाहिए। ओरिजिनल कोई होता है तो भीतर से। यह बड़ा सोच सोमा के कलाकार को नयी गरिमा देता है।
सोमा के मन में 'लड़की देखने आये हैं' की पूरी स्थिति से जबरदस्त विद्रोह है। डैडी ने एडवर्टाइज किया विवाह का विज्ञापन तो पिता पुत्री में खटक गयी। इतनी खटक गयी कि सोमा ने घर छोड़कर चले जाने का निश्चय किया - ''सिर्फ घर छोड़ देने की बात चायस से परे जा चुकी थी - उसे स्वाधीन होना ही है। सोमा मन ही मन ऐसे लोगों की सूची बनाने लगी जिनसे वह सहायता की या कम-से-कम सलाह मशविरे की आशा कर सकती है।''
सोमा इसी भाव सम्पदा को लेकर दिल्ली आयी है। वह सिविल लाइन्स (दिल्ली) में एक विदेशी चित्रकार दम्पति से मिली। पत्नी प्रसिद्ध चित्रकार, पति कुशल शास्त्रीय शैली का। उनके चित्रों की धूम और भारी कलम पारखी। उनका घर अच्छा खासा संग्रहालय था और शोरूम भी। विदेशी ग्राहक प्रायः उन्हीं के यहाँ से भारतीय कला वस्तुएँ खरीदते थे। दाम निस्सन्देह बहुत अच्छे लेते थे पर चीज वहाँ से खरी और प्रामाणिक मिलती थी। सोमा को संग्रहालय के डायरेक्टर से पता चला कि कार्ल स्टेगर की असल नकल परख का विदेशों में बड़ा सम्मान है। उन्होंने प्राचीन चित्रों को पुनः उद्धारित या निरूपित करने में विशेष कुशलता प्राप्त की है और खराब होते चित्रों को ठीक कर दिया है। इसलिए सोमा ने कार्ल स्टेगर से मिलकर उनसे काम सीखने का निश्चय किया। उसने यह भी सोचा कि तैल-चित्र माध्यम में और वनस्पति रंगों के क्षेत्र में बहुत अधिक सारी भारतीय चित्रकला के साथ गुंजाइश है और भित्ति-चित्रों की रक्षा और पुनःप्रतिष्ठा का कार्य आज नहीं तो कभी तो प्राप्त करेगा ही। इस तरह सोमा ने इन क्षेत्रों को अपने शोधक्षेत्रों का स्वतन्त्र विषय बनाया। वह कार्ल स्टेगर से मिली तो उन्हें विस्मय हुआ कि इतने वर्षों से कोई भारतीय चित्रकला पर कुछ सीखने नहीं आया। और वह भी स्त्री तथा रेस्टोरेशन की कला सीखने। कार्ल स्टेगर पर सोमा का अच्छा प्रभाव पड़ा। लड़की ने कहा, ''मिसेज नाथ, लेकिन आप सोमा ही कहिए।'' इस तरह सोमा को सैसी का स्टूडियो भी काम करने को मिल गया। सोमा ने श्रम करने का विश्वास दिलाते हुए कहा, ''मैं बिल्ली जैसी सख्त जान हूँ। आठ जानें फालतू रखती हूँ।'' स्मार्ट गर्ल कहते हुए स्टेगर ने पूछा, ''आपके पति की क्या राय होगी अगर आप घण्टों पुराने चीथड़ों के साथ बिताएँगी? विल ही लाइक इट?'' सोमा ने संक्षेप में जबाव दिया, ''आई एम ए विडो,'' कहते हुए एक दूसरा दृश्य उसके मन में कौंध गया।
सोमा ने परिवेश से परिचय के लिए फाटक पर खड़ी नेमिनाथ की मूर्ति को पहचान बनाया। कुछ ही दूर रामकिशोर मार्ग पर एक बँगले का आधा हिस्सा मिल गया। धनहीन परिवार में एक माँ-बेटी बस। इस तरह अच्छी कमाई का भाव लेकर सोमा सहेली के घर लौटी। सहेली ने कहा, ''तुम पैरों तले घास जमने का मौका नहीं देती... क्यों न?'' उसे ध्यान आया - सभी लोग अंग्रेजी मुहावरे बोलने का अभ्यास तो करते हैं किन्तु हिन्दी बोलते समय स्वतन्त्र सोचना किसी को नहीं आता। स्वतन्त्र सोचना, स्वाधीन-चिन्तन और स्वाधीनता। सोमा इसी का पर्याय है। उसके घर पर निगरानी का कारण। सामन्त जानता होगा कहीं इस निगरानी का कारण वही हुआ तो? वह यात्रा-वीरेश्वर का घर - अगर वीरेश्वर नाथ का क्रान्तिकारियों के साथ जाना हुआ था तो उसके घर पर जरूर निगरानी रहती होगी। इस स्थिति के बीच सोमा ने स्टेगर से सीखना शुरू किया।
सोमा को गिलहरियाँ पसन्द हैं और सैसी को भी। वे राजपुर रोड पर स्विस होटल के सामने घूमने लगीं। उन्होंने पाया, कोई उनका पीछा कर रहा है। अलीपुर रोड सैर की सड़क। कुदसिया बाग, कश्मीरी गेट। 'नदी के द्वीप' उपन्यास का पुराना परिचित स्थान। यहाँ स्वयं अज्ञेय ने अपने क्रान्तिकारी जीवन को बुना था। इस स्थान पर सोमा ने रात-दिन तन्मय होकर कला पर कार्य किया। इसी तन्मयता में वह समय की स्थिति से नाता तोड़ लेती है। गति का ही तो नाम समय है, न कि गति के बोध का, गति से अपने सम्बन्ध के ज्ञान का।
इसी समय की गति में सोमा से मोहन सामन्त फिर आकर मिला। नयी नियुक्ति पर आया सूट-बूट पहने अफसर। उसने सोमा को चढ़ाते हुए कहा, ''पोटली वाला। नहीं, पर्सवाला।'' इस मुद्रा का सोमा ने लुत्फ उठाया। उसे पता नहीं 'सामन्त' कहाँ का है -बंगाली, गुजराती या मराठी। सामन्त ने कहा, ''मुझे डॉक्टर सामन्त मत कहो, केवल 'मोहन'। सामन्त भी नहीं। इस तरह यह आकर्षण 'आजादी' की ओर मुड़ गया। क्योंकि आजादी की कई परिभाषाएँ हैं। घर से भाग कर आयी सोमा की आजादी, डैडी के खिलाफ होने की आजादी, फिर वरण की आजादी। मोहन के साथ कनॉट प्लेस में घूमने की आजादी। कला के क्षेत्र में नये प्रयोगों की आजादी। और अन्ततः अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की आजादी। भारतमाता की आजादी का प्रश्न। क्विट इण्डिया मूवमेण्ट में सोमा ने कांग्रेस आन्दोलन के साथ एकात्मता का अनुभव किया। फिर कांग्रेस आन्दोलन में सक्रिय रहे किशन शर्मा की खोज में निकली। उसने सोचा बालिग हो जाने से मिलने वाली आजादी तो मिल गयी, पर स्वाधीन-आत्मनिर्भर हो जाने से मिलने वाली वयस्कता भी मिल जाय तब बात है।
सोमा ने तंजौर के बाल-गोपाल की मूर्ति को अपना लिया। रसेश्वर, नटराज, लीला-नायक, बालबह्म गोपाल बालकृष्ण की मूर्ति उसे कार्ल स्टेगर ने दी। कहीं से उन्हें तमाम मिट्टी और मसाले की मूर्तियों का ढेर मिला - जिनमें तीसरी से लेकर दसवीं शताब्दी तक की चीजें - उत्तर प्रदेश में पायी जाने वाली कला। ये चीजें उन्हें 'मिट्टी के मोल मिलीं और सफाई के बाद उन्हें करीने से रखा गया - टुकड़े एक-एक पहचानकर जोड़े गये। इस तरह अच्छा खासा संग्रह तैयार हो गया। इसका एक अंश सरकारी संग्रहालय और विदेशी संग्रहालय के प्रतिनिधि ने खरीद लिया। चित्रों, कांस्य और प्रस्तर मूर्तियों से काफी आमदनी स्टेगर दम्पति को होती थी, पर इतनी आमदनी पहले कभी नहीं हुई। खण्डों को जोड़ने का अधिकतर काम सोमा ने किया तो स्टेगर ने उन्हें भी मनपसन्द मूर्तियों को लेने का आग्रह किया। सोमा ने पाया कि पुरानी कला कृतियों के व्यवसाय का बहुत बड़ा क्षेत्र है। सोमा के लगाव का क्षेत्र और कलानुभव। स्टेगर ने उसे बारह सौ रुपये का चेक और आठवीं-नवीं शताब्दी की बालगोपाल मूर्ति दी। बहुत देर तक वह गोपी-भाव में खोई रही। इस गोपी का मोहन भी है-केवल छद्म नाम ही है मिसेज वीरेश्वर नाथ। दिल्ली सीधे आती तो मिस मिश्रा, मिस गुप्ता जैसा कोई काल्पनिक नाम गह लेती। इसलिए उसके लिए वीरेश्वर नाथ कोई चेहरा नहीं हैं, कोई इतिहास नहीं हैं, किसी घटना, स्मृति में कोई साझा नहीं हैं, कोई अस्तित्व ही नहीं हैं। स्मृति में केवल एक चादर-ढँकी मृत देह हैं।
स्मृति के साथ उस मृत देह ने दी शोभा देवी। और कोई बन्धन नहीं। उसने न 'कुल परम्परा' का बन्धन दिया न अतीत मोह की परम्परा का दाव। सोमा को किसी का कोई ऋण नहीं चुकाना है। न उसे शादी की परछाइयाँ घेरती हैं न सन्तान की परम्पराएँ। अपनी ही छवि की छाया का अन्तहीन साथ। डैडी की चिट्ठी की भी क्या याद। केवल बाल गोपाल लड्डू गोपाल से गोपी भाव (मीरा भाव)का समर्पित प्रेम। उसे जार्जट-मढ़ी बहुएँ, ड्राइंगरूमों में सजी फ्लर्ट बालाएँ, 'ब्लू आइड बॉयज' के आधार नहीं चाहिए। ये साहबों को देह का अवसर देते हैं और यही है न तरक्कियों का आधार! फिर एरेंज मैरेज में लव मैरेज से ज्यादा आजादी रहती है - उसमें पार्टनर को प्यार करने का कोई कमिटमेंट नहीं। सिर्फ समाज में निबाहने का कमिटमेंट। शादी अपनी जगह है, लव अपनी जगह है। दोनों की चिन्ताधारा ही अलग है। जीवन एक संश्लिष्ट व्यंजनाओं का ऐसा नाम और रूप है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।
इस दृष्टि से सोमा जैसी घर से भागकर आयी लड़कियों को जीवन में कड़ुआहट संचय करने का कोई अधिकार नहीं है। अतीत की चिन्ता हमें पीसती है, मथती है। उसे छोड़कर वर्तमान के भँवरों में गोता खाना चाहिए। वर्तमान ही 'काल चक्र' है। वह कल्पना नहीं है, शक्ति है - संघर्ष करने की शक्ति। काल और कला को निचोड़कर अमृत पीने का साहस 'बाल गोपाल' का सम्पूर्ण दर्शन है। इसी दर्शन को लेकर सोमा को स्टेगर के कला-कर्म भेजने के प्रस्ताव को प्रसन्न मन से स्वीकार करना पड़ा। यायावरी का अनुभव। जोड़-तोड़ का आनन्द। जोखिम उठाने का कलेजा। ठीक है - जापानी बम के आतंक से कलकत्ता सहमा हुआ, लेकिन सभी मारवाड़ी गाड़ी से टिकट कटाकर कोठियाँ बन्द करके चल देंगे तो काम कौन देगा? काम के नाम पर रिश्वत का क्या अर्थ? अन्धविश्वासों को चीरकर दिशामूल में सोमा ने यात्रा की, लेकिन रिश्वत नहीं दी। सोमा बनारस, लखनऊ की सुबहें शामों का सुख लेकर दिल्ली आयी। अब दिल्ली का माहौल तेजी से बदल रहा था। निगमबोध घाट से रामलीला ग्राउंड तक ताँगे की सैर। अगस्त 1942 का हरतरफ फैला सन्नाटा।
बरसात के दिनों में तैलचित्रों का काम। हवा में नरमी के कारण बाधा। पुरा-खंडों की सफाई और निर्माण की दूसरी विधियाँ सीखने के बाद सोमा ने जल-रंगों के काम को और रसायन सम्बन्धी अध्ययन को अधिक समय देना चाहा है। बाकी तो अनुभव और अभ्यास ही सिखाता है। आदमी काम को नहीं सीखता, काम से सीखता है। सोमा भारत के प्राचीन कला से जुड़े अतीत को 'रेस्टोर' कैसे करे यह समस्या तो है पर सोमा पर उसका कोई दबाव नहीं है। सोमा निरन्तर इस काम में अपने को तन्मय रखती है। एक लगन की आग में गहन तपस्या के ताप का नाम है-सोमा।
इस असमाप्त उपन्यास का आखिरी अधूरा वाक्य है ''वह सन् 1944 का वसन्त था जब एक दिन हर्र स्टेगर ने सोमा से फिर एक लम्बी यात्रा का प्रस्ताव...।'' यहाँ पता नहीं चलता कि यह यात्रा देश में होती या विदेश में। इस कलाकार की साधना में कौन से मोड़ आते कौन कह सकता है। अज्ञेय को भारतीय कलाओें से गहरा अनुराग था। वह कलानुराग ही सोमा के माध्यम से पाठक के सामने आता है। अज्ञेय का कलाकार बीच यात्रा में ही मौन हो गया, यह कहते हुए - 'शब्द में मेरी समायी नहीं होगी। मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।'
अज्ञेय ने उपन्यास कला के नये प्रतिमान गढ़े हैं और स्थापित किये हैं। हिन्दी की उपन्यास यात्रा में अपने मोड़ों से नया परिवर्तन उपस्थित करते हुए हिन्दी गद्य की सर्जनात्मकता को ऊँचाई प्रदान की है। चिन्तन और कला के क्षेत्रों का यथास्थितिवाद तोड़ते हुए वे नये प्रयोगों से नयी राहें, नयी दिशाएँ खोज सके हैं। सच बात तो यह है कि अज्ञेय जैसा महान रचनाकार अपने समय और समाज का निर्माता होता है जिससे पीढ़ियाँ प्रेरणा पाती हैं और संस्कृति, साहित्य तथा परम्परा नया सन्दर्भ। यह सन्दर्भ मनुष्य की स्वतन्त्रता-स्वाधीनता से जुड़ा होने के कारण और अधिक मूल्यवान हो जाता है।
- सम्पादक