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आत्मकथा

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा
दूसरा भाग

मोहनदास करमचंद गांधी

अनुवाद - काशीनाथ त्रिवेदी

अनुक्रम

अनुक्रम 1. रायचंद भाई     आगे

पिछले प्रकरण में मैंने लिखा था कि बंबई में समुद्र तूफानी था। जून-जुलाई में हिंद महासागर के लिए वह आश्चर्य की बात नहीं मानी जा सकती। अदन से ही समुद्र का यह हाल था। सब लोग बीमार थे, अकेला मैं मौज में था। तूफान देखने के लिए डेक पर खड़ा रहता। भीग भी जाता। सुबह के नाश्ते के समय मुसाफिरों में हम सब एक या दो ही मौजूद रहते। जई की लपसी हमें रकाबी को गोद में रख कर खानी पड़ती थी, वरना हालत ऐसी थी कि लपसी ही गोद में फैल जाती!

मेरे विचार में बाहर का यह तूफान मेरे अंदर के तूफान का चिह्नरूप था। पर जिस तरह बाहर तूफान के रहते मैं शांत रह सका, मुझे लगता है कि अंदर के तूफान के लिए भी वही बात कही जा सकती है। जाति ता प्रश्न तो था ही। धंधे की चिंता के विषय में भी लिख चुका हूँ। इसके अलावा, सुधारक होने के कारण मैंने मन में कई सुधारों की कल्पना कर रखी थी। उनकी भी चिंता थी। कुछ दूसरी चिंताएँ अनसोची उत्पन्न हो गईं।

मैं माँ के दर्शनों के लिए अधीर हो रहा था। जब हम घाट पर पहुँचे, मेरे भाई वहाँ मौजूद ही थे। उन्होंने डॉ. मेहता से और उनके बड़े भाई से पहचान कर ली थी। डॉ. मेहता का आग्रह था कि मैं उनके घर ही ठहरूँ, इसलिए मुझे वहीं ले गए। इस प्रकार जो संबंध विलायत में जुड़ा था वह देश में कायम रहा और अधिक दृढ़ बनकर दोनों कुटुंबों में फैल गया।

माता के स्वर्गवास का मुझे कुछ पता न था। घर पहुँचने पर इसकी खबर मुझे दी गई और स्नान कराया गया। मुझे यह खबर विलायत में ही मिल सकती थी, पर आघात को हलका करने के विचार से बंबई पहुँचने तक मुझे इसकी कोई खबर न देने का निश्चय बड़े भाई कर रखा था। मैं अपने दुख पर पर्दा डालना चाहता हूँ। पिता की मृत्यु से मुझे जो आघात पहुँचा था, उसकी तुलना में माता की मृत्यु की खबर से मुझे बहुत आघात पहुँचा। मेरे बहुतेरे मनोरथ मिट्टी में मिल गए। पर मुझे याद है कि इस मृत्यु के समाचार सुनकर मैं फूट-फूटकर रोया न था। मैं अपने आँसुओं को भी रोक सका था, और मैंने अपना रोज का कामकाज इस तरह शुरू कर दिया था, मानो माता की मृत्यु हुई ही न हो।

डॉ. मेहता ने अपने घर जिन लोगों से मेरा परिचय कराया, उनमें से एक का उल्लेख किए बिना काम नहीं चल सकता। उनके भाई रेवाशंकर जगजीवन तो मेरे आजन्म मित्र बन गए। पर मैं जिनकी चर्चा करना चाहता हूँ, वे है कवि रायचंद अथवा राजचंद। वे डॉक्टर के बड़े भाई के जामाता थे और रेवाशंकर जगजीवन की पेढ़ी के साक्षी तथा कर्ता-धर्ता थे। उस समय उनकी उमर पचीस साल से अधिक नहीं थी। फिर भी अपनी पहली ही मुलाकात में मैंने यह अनुभव किया था कि वे चरित्रवान और ज्ञानी पुरुष थे। डॉ. मेहता ने मुझे शतावधान का नमूना देखने को कहा। मैंने भाषा ज्ञान का अपना भंडार खाली कर दिया और कवि ने मेरे कहे हुए शब्दों को उसी क्रम से सुना दिया, जिस क्रम में वे कहे गए थे! उनकी इस शक्ति पर मुझे ईर्ष्या हुई, लेकिन मैं उस पर मुग्ध न हुआ। मुझे मुग्ध करनेवाली वस्तु का परिचय तो बाद में हुआ। वह था उनका व्यापक शास्त्रज्ञान, उनका शुद्ध चारित्र्य और आत्मदर्शन करने का उनका उत्कट उत्साह। बाद में मुझे पता चला कि वे आत्मदर्शन के लिए ही अपना जीवन बिता रहे थे :

हसतां रमतां प्रगच हरि देखुं रे,
मारुं जीव्युं सफल तव लेखुं रे
मुक्तानंदनो नाथ विहारी रे
ओधा जीवनदोरी हमारी रे।

( जब हँसते-हँसते हर काम में मुझे हरि के दर्शन हों तभी मैं अपने जीवन को सफल मानूँगा। मुक्तानंद कहते हैं , मेरे स्वामी तो भगवान हैं और वे ही मेरे जीवन की डोर हैं।)

मुक्तानंद का यह वचन उनकी जीभ पर तो था ही, पर वह उनके हृदय में भी अंकित था।

वे स्वयं हजारों का व्यापार करते, हीरे मोती की परख करते, व्यापार की समस्याएँ सुलझाते, पर यह सब उनका विषय न था। उनका विषय उनका पुरुषार्थ तो था आत्मपरिचय हरिदर्शन। उनकी गद्दी पर दूसरी कोई चीज हो चाहे न हो, पर कोई न कोई धर्मपुस्तक और डायरी तो अवश्य रहती थी। व्यापार की बात समाप्त होते ही धर्मपुस्तक खुलती थी। उनके लेखों का जो संग्रह प्रकाशित हुआ है, उसका अधिकांश इस डायरी से लिया गया है। जो मनुष्य लाखों के लेन-देन की बात करके तुरंत ही आत्म-ज्ञान की गूढ़ बातें लिखने बैठ जाए, उसकी जाति व्यापारी की नहीं वल्कि शुद्ध ज्ञानी की है। उनका ऐसा अनुभव मुझे एक बार नहीं, कई बार हुआ था। मैंने कभी उन्हें मूर्च्छा की स्थिति में नहीं पाया। मेरे साथ उनका कोई स्वार्थ नहीं था। मैं उनके बहुत निकट संपर्क में रहा हूँ। उस समय मैं एक भिखारी बारिस्टर था। पर जब भी मैं उनकी दुकान पर पहुँचता, वे मेरे साथ धर्म-चर्चा के सिवा दूसरी कोई बात ही न करते थे। यद्यपि उस समय मैं अपनी दिशा स्पष्ट नहीं कर पाया था; यह भी नहीं कह सकता कि साधारणतः मुझे धर्म-चर्चा में रस था; फिर भी रायचंद भाई की धर्म चर्चा रुचिपूर्वक सुनता था। उसके बाद मैं अनेक धर्माचार्यो के संपर्क में आया हूँ। मैंने हर एक धर्म के आचार्यो से मिलने का प्रयत्न किया है। पर मुझ पर जो छाप भाई रायचंदभाई ने डाली, वैसी दूसरा कोई न डाल सका। उनके बहुतेरे वचन मेरे हृदय में सीधे उतर जाते थे। मैं उनकी बुद्धि का सम्मान करता था। उनकी प्रामाणिकता के लिए मेरे मन में उतना ही आदर था। इसलिए मैं जानता था कि वे मुझे जान-बूझकर गलत रास्ते नहीं ले जाएँगे और उनके मन में होगा वही कहेंगे। इस कारण अपने आध्यात्मिक संकट के समय मैं उनका आश्रय लिया करता था।

रायचंद भाई के प्रति इतना आदर रखते हुए भी मैं उन्हें धर्मगुरु के रूप अपने हृदय में स्थान न दे सका। मेरी वह खोज आज भी चल रही है।

हिंदू धर्म में गुरुपद को जो महत्व प्राप्त है, उसमें मैं विश्वास करता हूँ। 'गुरु बिन ज्ञान न होय', इस वचन में बहुत कछ सच्चाई है। अक्षर-ज्ञान देनेवाले अपूर्ण शिक्षक से काम चलाया जा सकता है, पर आत्मदर्शन करानेवाले अपूर्ण शिक्षक से तो चलाया ही नहीं जो सकता। गुरुपद संपूर्ण ज्ञानी को ही दिया जा सकता है। गुरु की खोज में ही सफलता निहित है, क्योंकि शिष्य की योग्यता के अनुसार ही गुरु मिलता है। इसका अर्थ यह कि योग्यता-प्राप्ति के लिए प्रत्येक साधक को संपूर्ण प्रयत्न करने का अधिकार है, और इस प्रयत्न का फल ईश्वराधीन है।

तात्पर्य यह है कि यद्यपि मैं रायचंद भाई को अपने हृदय का स्वामी नहीं बना सका, तो भी मुझे समय-समय पर उनका सहारा किस प्रकार मिला है, इसे हम आगे देखेंगे। यहाँ तो इतना कहना काफी होगा कि मेरे जीवन पर प्रभाव डालनेवाले आधुनिक पुरुष तीन हैं : रायचंद भाई ने अपने सजीव संपर्क से, टॉलस्टॉय ने 'वैकुंठ तेरे हृदय में है' नामक अपनी पुस्तक से और रस्किन ने 'अंटु दिस लास्ट' - सर्वोदय - नामक पुस्तक से मुझे चकित कर दिया। पर इन प्रसंगों की चर्चा आगे यथास्थान होगी।


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