बहुधा यह प्रश्न होता है कि साहित्य क्या है? विद्या के वैज्ञानिक विभागों के नाम लेते ही हमें यथार्थ धर्म का ज्ञान हो जाता है। हम लोग जानते हैं कि न्याय क्या है, ज्योतिष क्या है, सांख्य क्या है; किन्तु यह हम सुगमता के साथ नहीं कह सकते कि साहित्य से किस वस्तु से अभिप्राय है। हम यहाँ पर यह दिखलावेंगे कि साहित्य का यथार्थ धर्म क्या है और विज्ञान से उसका कहाँ तक सम्बन्ध है। क्या साहित्य से पुस्तक मात्र का बोध होता है? कभी नहीं। क्योंकि, तब, उसके अन्तर्गत विज्ञान, ज्योतिष, न्याय और विद्या के और भी अन्य विभाग आ जाएँगे। कभी हम लोग वेदव्यास की गीता को अधयात्म के अन्तर्गत और कभी साहित्य के अन्तर्गत मान लेते हैं; किन्तु कोई मनुष्य, यदि वह उन्मत्त न हो, ज्योतिष या यूक्लिड (Euclid) के रेखा-गणित को साहित्य के नाम से नहीं पुकारेगा। क्या वाक्य रचना ही का नाम साहित्य है? अथवा साहित्य सुन्दर गढ़ी हुई स्टाइल में लिखने को कहते हैं? या यह लिखने की एक कृत्रिम और उपार्जित प्रणाली है?
बहुत से विचारवान पुरुष इन्हीं पूर्वोक्त बातों को साहित्य का लक्षण मान उससे घृणा करते हैं। उनके मत में साहित्य और कुछ नहीं, शब्दों की क्रीड़ा मात्र है।
साहित्य केवल लेखन-प्रणाली ही का नाम है; वाचालता का नहीं। भिन्नता उसकी प्रणाली में, उसके सर्वांग-पूर्ण और दिगन्तव्यापी होने में है। जो बात कही जाती है वह बोलने वाले के पास से बहुत दूर नहीं जा सकती; वायु में उसका नाश हो जाता है। जब शब्दों को, सारगर्भित और उन्नत भावों को प्रगट करने के लिए, प्रयोग करना होता है; जब उन्हें सृष्टि के अन्त तक स्थायी रखना आवश्यक होता है; और जब उनके द्वारा भावी सन्तति का उपकार वांछित होता है, तब उन्हें लिखना पड़ता है, अर्थात् साहित्य के रूप में ढालना पड़ता है। किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि यह हाथ की किसी प्रकार की कारीगरी है; नहीं-यह गुण वाणी ही का है। यह कानों को सम्बोधान करता है, न कि नेत्रों को। इसको हम वाणी की शक्ति कहते हैं। जब हम लिखने लगते हैं तब ऐसे शब्दों का हम प्रयोग करते हैं जैसे 'बोलना', 'पुकारना' इत्यादि। हम इस पर अधिक ज़ोर देते हैं, क्योंकि इससे यह देखा जाता है कि वाणी, अर्थात् साहित्य, एक व्यक्ति की निज की क्रिया है। यह कई मनुष्यों के संयोग से अथवा किसी यन्त्रा की सहायता से उत्पन्न हुई कोई वस्तु नहीं है। किन्तु सदा इसकी स्फूर्ति एक साथ एक ही व्यक्ति में होती है। एक ही ध्वानिके दो पृथक् व्यक्ति कर्ता नहीं हो सकते और एक ही कथा को दो मनुष्य एक साथ नहीं कह सकते; अर्थात् वाणी एक समय में एक ही मनुष्य की हो सकती है और वह उसी की कल्पना और उसी का अनुभव है। किसी एक विशेष प्रकार की कल्पना एक मनुष्य-विशेष की निज की और स्वाभाविक सम्पत्ति है, यद्यपि सम्भव है कि और लोग भी वैसी ही या उससे मिलती जुलती कल्पना रखते हों। यह कल्पना मनुष्य में वैसी ही निराली है जैसे उसकी बोली और क्रियाएँ उसमें निराली हैं, और जैसे उसका चेहरा और उसका ढंग उसमें निराला है। सारांश यह कि साहित्य 'विचार' का बोधक है न कि 'पदार्थ' का।
यह बात विद्या के उस विभाग की परीक्षा करने से स्प्ष्ट हो जायगी जो विज्ञान से सम्बन्ध रखता है, अर्थात् जो ऐसी वस्तुओं का बोध कराता है जो किसी व्यक्ति-विशेष में नहीं, वरन् जो, यदि जो इस सम्पूर्ण संसार मे कोई मनुष्य उसको जानने वा उनके विषय में चर्चा करने को भी न होता, तो भी वे स्थित रहतीं और यद्यपि शब्द उनको प्रगट करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं, तथापि ऐसे शब्द केवल एक प्रकार के संकेत या चिद्द-स्वरूप हैं-भाषा नहीं। चाहे कितना ही अधिक हम उनका व्यवहार करें और कितने ही प्रकार से उन्हें लिखकर स्थायी बनायें, तिस पर भी उनसे हम किसी प्रकार का साहित्य नहीं निकाल सकते और न उन्हें उस नाम से पुकार ही सकते हैं। रेखा-गणित की शकलें इसी प्रकार की हैं। वे स्वयं-स्थित हैं; उनका होना हम लोगों को उनके समझने पर अवलम्बित नहीं और न हम लोगों की इच्छा पर; वे पदार्थों के स्वभाव से सम्बद्ध हैं और ऐसे नियमों के अधीन हैं जो हम लोगों से अलग हैं। वे शब्द जिनमें वे शकलें प्रगट की गयी हैं, भाषा या साहित्य नहीं, वरन् संकेत मात्र हैं। रेखा-गणित की शकलें बीज-गणित के अंकों में दिखलाई जा सकती हैं। यह बात प्रमाणसिद्ध है। जो बात गणित के विषय में घटती है वही और और वैज्ञानिक विषयों मे भी पाई जाती है। शब्दों की सहायता वे केवल पहियों की भाँति लेते हैं, जो उन्हें खींचकर साहित्य-प्रदेश से बाहर ले जाते हैं। अधयात्म, धर्मशास्त्र, अर्थ-विद्या और रसायन इत्यादि साहित्य के अन्तर्गत नहीं आ सकते, क्योंकि वे तीक्ष्ण वैज्ञानिक परीक्षा को सहन करने योग्य हैं।
इसी से अरस्तू के ग्रन्थ पहले देखने में तो साहित्य-विषयक जान पड़ते हैं; किन्तु उनमें से बहुतेरे लक्षण का विचार करने पर विज्ञान के निकट पहुँच जाते हैं, यद्यपि वे वस्तुएँ जिनका वह वर्णन करता है सर्वदा सारवान और प्रत्यक्ष नहीं है; परन्तु उन्हें वह इस ढंग से प्रगट करता है, मानो वे उसके हृदय की कल्पना और विचार नहीं हैं, अर्थात् उन्हें वह वैज्ञानिक रीति से प्रगट करता है। बहुत से ऐतिहासिक लेखक भी अपने ग्रन्थों पर अपने मानसिक भाव, चित्त की प्रवृत्ति और पक्षपात इत्यादि का ऐसा रंग चढ़ा देते हैं कि उनमें साहित्य की सी झलक आ जाती है। सारांश यहहै कि विज्ञान पदार्थ, या 'तत्तव' का बोधक है और साहित्य 'कल्पना' और 'विचार का; विज्ञान ब्रह्मांड-व्याप्त है और साहित्य का स्थान किसी एक व्यक्ति में। विज्ञान शब्दों को संकेत की भाँति काम में लाता है; किन्तु साहित्य में भाषा का सबसे प्रशस्त प्रयोगहै और अलंकार, मुहाविरा, वाक्य-रचना, माधुर्य और सरसता तथा अन्यान्य लक्षण उसमें सम्मिलित हैं। साहित्य भिन्न भिन्न लोगों का भिन्न भिन्न प्रकार से भाषा को काम में लाना है। यह बात बहुत-से ग्रन्थों को देखने से विदित होती है। भाषा स्वयं अपना मूल किसी जाति-विशेष में रखती है। उसके रहन-सहन का बड़ा भारी प्रभाव उसपर पड़ता है; कभी कभी तो यहाँ तक कि किसी मुहाविरे या वाक्य-विशेष की उत्पत्ति हम लोग किसी व्यक्ति-विशेष से बतलाते हैं; हम उसका इतिहास तक जानते हैं।
किसी भाषा के शब्दों के भाव और रूप, और उसको बोलनेवाली जाति के स्वभाव और आशय, में जो सम्बन्ध है वह प्रत्यक्ष है। बहुतेरे लोग भाषा का उसी प्रकार प्रयोग करते हैं जैसा कि वे होता हुआ देखते हैं। प्रतिभाशाली पुरुष उसका प्रयोग तो करता है, किन्तु उसे अपने आशय के अधीन रखता है और उसे एक निराले ढंग पर ले चलता है। कल्पना-समूह, विचार माला, अनुभव और उत्साह इत्यादि जो उसके चित्त में उत्पन्न होते हैं, उन्हीं को वह अपनी भाषा में व्यक्त करता है। उसकी भाषा वैसी ही बहु-रूपिणी है जैसी उसकी आन्तरिक क्रियाएँ हैं; क्रियाएँ वास्तव में उसकी छाया के सदृश हैं। जैसे उसकी कल्पना उसकी निज की है; उसके विचार उसके निज के हैं; वैसे ही उसकी भाषा या स्टाइल भी उसकी निज की है।
'विचार' और 'वाणी' एक दूसरे से पृथक नहीं किए जा सकते। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-''गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न''। वे एक ही वस्तु के दो विभाग हैं। 'विचार' और 'कल्पना' भाषा द्वारा प्रगट किये जाते हैं। यही साहित्य है। पदार्थ साहित्य नहीं, पदार्थों का शब्द-रूपी संकेत भी साहित्य नहीं और केवल शब्द भी साहित्य नहीं-'विचार' का नाम साहित्य है। ये विचार भाषा द्वारा प्रगट किये जाते हैं। मनुष्य की बुद्धि को पशुओं की बुद्धि से जिस अंश में विशेषता है उसको ग्रीक भाषा में Logos कहते हैं। Logos का तात्पर्य 'बुद्धि' और 'वाणी' से है। यह नहीं जान पड़ता कि इनमें से कौन अर्थ यथार्थ है; मेरी जान तो उसमें दोनों बातें सम्मिलित हैं; क्योंकि वे एक दूसरे से पृथक् नहीं कही जा सकतीं; वे यथार्थ में एक ही हैं। जिस प्रकार अग्नि से प्रकाश का जुदा होना असम्भव है उसी प्रकार 'वाणी' या भाषा के बिना 'विचार' का होना असम्भव है। समालोचकों को इस विषय पर बहुत विचार कर सम्मति स्थिर करनी चाहिए। बहुतों का मत है कि सुन्दर रचना अर्थात साहित्य किसी वस्तु पर ऊपर से कलई कर देना है; अथवा एक प्रकार के आभूषणों से विभूषित करना है, जिसका साधन केवल ऐसे ही मनुष्य करते हैं जिन्हें ऐसी तुच्छ बातों में रुचि होती है और उसके लिए समय मिलता है। वे समझते हैं कि विचारों का कर्तव्यथ एक पुरुष हो सकता है और वाणी या भाषा का दूसरा। जैसे कोई मनुष्य जो लिखना पढ़ना नहीं जानता है, एक पत्र-लेखक के पास जाता है और अपने चित्त का भाव उस पर किसी प्रकार प्रगट करता है। कभी वह किसी धनी आदमी से उपकार चाहता है, कभी किसी पदाधिकारी से किसी त्रुटि का संशोधान चाहता है, कभी किसी रमणी से प्रेम की अभिलाषा रखता है, इत्यादि। और वह पत्र-लेखक उस मनुष्य के भावों को ग्रहण करके उसे ऐसे ऐसे शब्द ढूँढ़कर देता है जिनकी आवश्यकता होती है। यह बात वह उसी भाँति करता है जैसे बिसाती ने उसे कागज, कलम इत्यादि लिखने की सामग्री दी थी। सो 'विचार' और 'शब्द' किसी किसी की समझ में दो पृथक् वस्तु हैं; इसी से उनकी क्रियाएँ भी विभक्त हैं। (बहुत से देशों में इसी का नाम सुन्दर रचना है) वे साहित्य-रचना को एक प्रकार का व्यवसाय और चातुरी मानते हैं। वे उसको ऐसा ही समझते हैं जैसे भोजन के समय सोने के पात्र और गुलदस्ते इत्यादि, जो भोजन को तो अधिक स्वादिष्ट नहीं बना देते, किन्तु आनन्द को बढ़ातेहैं।
परन्तु क्या यह कोई कह सकता है कि वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास और भवभूति इत्यादि की रचना वाक्य-रचना ही के निमित्त थी; उन विचारों को प्रगट करने के लिए न थी जो उनके चित्त में थे। यह कहना तो प्रचलित पद्धति के कभी अनुकूलन होगा। बल्कि यों कहा जा सकता है कि लेखक के चित्त में कल्पना अथवा विचार एक प्रकार की धारा है जो वाणी के द्वारा वेग के साथ बह निकलती है। 'कल्पना' और 'विचार' उसके अन्त:करण के निवासी हैं जो शब्दों के रूप में परिवर्तित होकर, जैसे भाप जल के रूप में परिवर्तित हो जाता है, उसके मुख से निकल पड़ते हैं औरउसके चित्त को एक तरह से हल्का कर देते हैं। उसके चित्त की अवस्था और प्रवृत्ति, उसका आन्तरिक स्वभाव सौंदर्य, तथा उसके विवेचन की सूक्ष्मता और शक्ति इत्यादि उसकी भाषा में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। केवल शब्द ही नहीं बल्कि उसके छन्द, अनुप्रास, समास इत्यादि भी उसके चित्त के उद्वेग से उत्पन्न होते हैं। ये सब बातें जन्म से होती हैं, उनका अस्तित्व और उनकी पूर्णता उसके गुण के उतने स्मारक नहीं हैं जितने उसकी शक्ति के। यह बात गद्य और पद्य दोनों प्रकार की रचना में समान रूप से पाई जाती है। कादम्बरी की शब्द-योजना का अपूर्व माधुर्य और, साथ ही साथ, उसका उन भावों के अनुकूल होना जिन्हें कवि ने प्रगट किया है, कौन नहीं स्वीकार करेगा?
जब विचार और कल्पना कवि की निज की वस्तु हैं तो कोई आश्चर्य नहीं जो उसका स्टाइल अर्थात् लिखने का तर्ज और उसकी भाषा भी केवल उसके विषय ही का प्रतिबिम्ब न हो, बल्कि उसके हृदय का भी प्रतिबिम्ब हो। भाषा की प्रगल्भता, रचना की सरसता और शब्दों के चुनाव और प्रयोग में स्वच्छन्दता, जो प्राय: गद्य के लेखकों में कृत्रिम जान पड़ती हैं, स्वाभाविक उन्नत बुद्धि और उन्नत प्रणाली के सिवा और कुछ नहीं हैं। विशाल बुद्धि की कार्य-प्रणाली भी विशाल होती है। कवि की भाषा न केवल उसके उन्नत विचार ही प्रगट करती है, वरन् स्वयं उसको भी। चाहे कवि बहुत थोड़े शब्द काम में लावे; किन्तु वह अपनी साधारण कल्पनाओं को भी उपजाऊ बनाता है। उनमें से नए नए अंकुर निकालता है, और अपने पदों की गति को बढ़ाता हुआ तथा अपनी वाग्वीणा के प्रत्येक स्वरों को खींचकर एक करता हुआ अपनी शक्ति और पूर्णता का अनुभव कराता है। एक तीव्र समालोचक शायद इसको शब्दों की भरमार कहे, किन्तु वास्तव में यह हृदय की सम्पन्नता है।
कालिदास ने भी इस प्रकार के अनेक उदाहरण अपने काव्यों में दिए हैं जोसब ऐसे सुन्दर हैं कि उनमें से किसी एक को उद्धृत करने के लिए चुनना कठिनहै;यथा-
पितुरनन्तर मुत्तारकोसलान्
समधिगम्य समाधिजितेन्द्रिय:।
दशरथ: प्रशशास महारथो
यमवतामवताद्बच धूरि स्थित:।।
इसीलिए संस्कृत कवि 'शब्द-शिल्पकार'1 कहे जाते हैं। मैं यहाँ पर यह कहना चाहता हूं कि यह लेखन-प्रणाली पूर्वकथित नियमों के सर्वथा अनुसार है। उन नियमों के अवलम्बी लेखकों में किसी प्रकार की कृत्रिमता वा भाव-रंकता नहीं पाई जाती। संस्कृत साहित्य की रचना निस्सन्देह बहुत गम्भीर और विस्तृत है। उसमें बहुत सा समय, परिश्रम और विचार व्यय हुए हैं। मैं यह मानता हूं कि उसमें कहीं कहीं भद्दापन है। बहुत से प्राचीन और नवीन कवि ऐसे हैं जो वास्तव में लम्बे लम्बे सामासिक पदों की रचना ही में अपनी साहित्य-रचना का उद्देश्य और अन्त मानने के दोषी हैं; वे विचारों और भावों को तिलांजलि देकर शब्दों ही पर टूट पड़े हैं। उनका पक्ष मैं नहीं ले सकता। इस प्रकार के कई कवि हमारे यहां हो गए हैं। दंडी की गद्य-रचना यद्यपि बहुत ही पांडित्य-पूर्ण है, परन्तु किसी किसी स्थान पर उसकी प्रणाली, भाव और अवसर से अनावश्यक रूप से आगे बढ़ गयी है।
इन पिछली बातों के मानने पर भी मैं यह नहीं स्वीकार कर सकता कि प्रतिभा को परिश्रम की आवश्यकता ही नहीं। प्रतिभा अभ्यास से उन्नति ही नहीं कर सकती, उसमें भूल-चूक होने की सम्भावना ही नहीं, और जो एक बार चित्त के उद्वेग में निकला और लिखा गया वह किसी दूसरे अवसर पर पूर्ण और संशोधित नहीं किया जा सकता। चित्रकार या शिल्पकार की ओर देखिए। जिस वस्तु को उसे प्रगट करना होता है उसकी वह पहले अपने चित्त में कल्पना कर लेता है। क्या यह कोई कह सकताहै
1 संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान सर मोनियर विलियम्स ने निज सम्पादित 'नलोपाख्यान' की भूमिका में संस्कृत-साहित्य की आलोचना करते हुए कहा है “Here the words are not used as vehicle of ideas but ideas are made subservient to him.”
कि अपने विषय का वह अध्य यन नहीं करता? क्या वह पहले हलकी रेखाएँ नहीं खींच लेता है? क्या कोई कहेगा कि शकुन्तला के पत्र-लेखन का आधुनिक रूप कल्पना को कुछ समय तक धैर्य के साथ काम में लाने से नहीं सिद्ध हुआ है? तो फिर जो बात चित्रकारी, शिल्पविद्या और संगीत के विषय में पाई जाती है वही साहित्य-रचना में भी चारितार्थ क्यों न हो? भाषा क्यों न उसी प्रकार उपयोग में लाई जाय जैसे बढ़ई की लकड़ी? शब्द क्यों न उसी प्रकार काम में लाये जायँ जैसे रंग? शेक्सपियर कहता है-
“The poet’s eye in fine frenfy rolling
Doth glance from heaven to earth, from earth to heaven
And as imagination bodies forth
The forms of things unknown, the poets pen
turns them to shapes and gives to airy nothing
A local habitation and a name.”
अर्थात् ''कवि की मतवाली दृष्टि लहराती हुई स्वर्ग से पृथ्वी और पृथ्वी से स्वर्ग तक जाती है; और जैसे जैसे कल्पना अज्ञात-पूर्व वस्तुओं का स्वरूप सामने उपस्थित करती है, उसकी लेखनी उन्हें आकार में लाती है और अदृष्ट और असार वस्तुओं को लोक में नाम और स्थान देती है।''
यह क्या कोई आश्चर्य की बात है जो उसकी लेखनी किसी समय भूल में पड़ जाय, कहीं विश्राम ले, काटे और फिर से लिखे? यह वह तब तक करेगी जब तक उसे यह निश्चय न हो जायगा कि उन भावों या कल्पनाओं को, जो उसके हृदय-नेत्र के सम्मुख हैं, यथावत् प्रदर्शित करने में वह कृतकार्य हो गई। इसके प्रमाण बहुत से कवि और ग्रन्थकार हो गए हैं। एडिसन (Addison) के समान स्वच्छंद लेखक के विषय में भी किंवदन्ती है-चाहे वह सत्य हो वा असत्य-कि एक बार उसे कुछ राजकीय पत्रों के प्रकाशित करने में इस कारण देर हो गई कि उसे लेख को कई बार पढ़-पढ़कर ठीक करने की आदत पड़ गई थी। ऐसे ग्रंथकार अपने हृदयस्थित नमूने को सामने रखकर काम करते थे और ऐसे ऐसे शब्दों को निकालने के लिए यत्न और परिश्रम करते थे जिनसे वह ठीक ठीक उतारा जा सके। वरजिल (Virgil) ने अपनी एनीड (Eneid) को, यद्यपि उसकी रचना बहुत ही मनोहर है, जला देना चाहा था, क्योंकि उसने उसे सर्वांग सुन्दर बनाने के लिए और अधिक परिश्रम आवश्यक समझा।
इन बातों से मेरा अभिप्राय उस दूषित लेखन प्रणाली को माननीय ठहरानेका नहीं है, जिसके अवलम्बी लेखकगण विषय और भाव की ओर कुछ न ध्या न करके उपयुक्त या अनुपयुक्त शब्द रूपी भड़कीले रंग भरते चले जाते हैं। मैं उसीको स्वाभाविक चित्रकार मानता हूँ जिसके नेत्रों के सामने प्रचुर और सुन्दर कल्पनाएँ उपस्थित हों और जिसका उद्देश्य केवल उसी को (अधिक को नहीं) यथावत रूपसे प्रदर्शित कर देने का रहता है जिसे वह कल्पित करता है, या जिसका वह अनुभवकरताहै।
इस चित्रकार और शिल्पकार के उदाहरण द्वारा हम और और बातों का भी निर्णय कर सकते हैं। मैं अब तक साहित्य-रचना में 'विचार' और 'भाषा' का सम्बन्ध दिखलाता आया हूँ। मैं यह भी दिखला चुका हूँ कि यह अनुमान, कि भाषा एक बाहरी वस्तु है और कल्पना से भिन्न, मनुष्य की इच्छानुसार, काम में लाई जा सकती है-कहाँ तक सत्य है। अब एक दूसरी बात का विचार करना है। एक भाषा का किसी अन्य भाषा में सुगमतापूर्वक अनुवादित हो जाना साहित्य-रचना के उत्तम होने की परख नहीं है। जिन लोगों का ऐसा भ्रम है वे समझते हैं कि एक भाषा ठीक दूसरी भाषा के सदृश है; और जो जो भाव, जो जो कल्पनाओं की तरंगें, तथा जो जो अलंकार और शब्द-सौन्दर्य एक भाषा में हैं वहीं दूसरे में भी हैं। हाँ, विज्ञान-विषयक बातों को प्रगट करने के लिए संसार की सब सभ्य भाषाएँ किसीएक वैज्ञानिक विभाग के लिए उनसे अधिक उपयुक्त होती हैं जिनमें वैज्ञानिक तत्तवों के प्रतिपादन के लिए नये शब्द गढ़ने पड़ते हैं या किसी अन्य भाषा से लेने पड़तेहैं।
जब कुल भाषाएँ वैज्ञानकि तत्तवों को संकेत रूप से प्रदर्शित करने में एक ही प्रकार से उपयुक्त नहीं हैं, तब कब सम्भव है कि संसार की सब भाषाएँ समान प्रभावशालिनी, समान सरस और किसी सम्पन्न अन्त:करण की जातीय रुचिर कल्पनाओं की समान व्यंजक हों। एक बड़ा ग्रंथकार अपनी मातृभाषा को चुन लेता है; उसका अध्यकयन करता है; उसको पढ़ता है और उपयुक्त बनाता है; और तब अपनी कल्पनाओं के समुदाय को उस अपनी प्राप्त की हुई और बनाई हुई भाषा की नलियों द्वारा बहाता है। अब यह कैसे हो सकता है कि यह सृष्टि जो उसकी निज की है, भूमंडल की किसी दूसरी भाषा में परिवर्तित कर दी जा सके। कुछ लोग समझते हैं कि ग्रंथकार वही श्रेष्ठ है जिसकी रचना किसी दूसरी भाषा में अनुवादित हो सके, अर्थात् एक ग्रंथकार का भाव एक भाषा में उसी रुचिरता के साथ समझा जाय जैसा कि दूसरी में। इस सिद्धान्त से तो पहाडे संसार की सब साहित्य-रचना से उत्कृष्ट ठहरते हैं; क्योंकि अनुवाद करने से उनका कोई भाग नष्ट नहीं होता और वे किसी एक भाषा की सम्पत्ति नहीं कहे जा सकते। मैं तो यह समझता हूँ कि कल्पनाएँ जितनी ही अद्भुत और नवीन होंगी, उतना ही उनको शब्दों में लाना कठिन होगा; उनका किसी एक भाषा में प्रादुर्भाव होना ही उनके किसी अन्य भाषा में कहे जाने की सम्भावना को कम कर देता है। जंगली जातियों की भाषाओं में मुश्किल से कोई उत्तम कल्पना या बुद्धि-विषयक बात प्रगट की जा सकती है। हाटेंटाट (Hotentot) वायसक्विमस (Esqimaux) लोगों की भाषा से क्या कालिदास, भवभूति और शेक्सपियर की प्रतिभा भी नापी जा सकती है?
अब फिर हम अपने शिल्पकार और चित्रकार के उदाहरण की ओर झुकते हैं। जो बात चित्रकार अपने पटल पर प्रगट कर सकता है, कारीगर उसे पत्थर पर नहीं कर सकता। एक व्यक्ति जितना ही अधिक किसी कला विशेष के नियमों और शैलियों के अनुसार अपने गुण को ले चलेगा, इतना ही कम वह उसको किसी दूसरी कला की ओर लगा सकेगा। हर एक कला-कौशल का धर्म जुदा जुदा होता है, जो आप एक के द्वारा कर सकते हैं, दूसरे के द्वारा नहीं कर सकते; जो आप चित्रकारी में प्रगट कर सकते हैं पच्चीकारी में नहीं; जो वस्तु आप स्फटिक पर प्रदर्शित कर सकते हैं; वह हाथी दाँत पर नहीं। ठीक यही बात भिन्न भिन्न भाषाओं के विषय में भी चरितार्थ होती है। हम संस्कृत साहित्य को उस कारण क्यों दूषित मान लें कि उसका अनुवाद ऍंगरेजी में नहीं हो सकता? वह मनोहरता जो उसमें है, ऍंगरेजी के लिए नहीं बनाई गई। जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है, भाषा किसी जाति विशेष की सम्पत्ति है जिसका रहन-सहन और स्वभाव उसमें चित्रित रहता है और जो उसी जाति की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए बनाई गई हैं।
अब हम अपनी तीसरी बात की जाँच के लिए उद्यत होते हैं। वह धर्म सम्बन्धी तथा वेद और स्मृति इत्यादि पुस्तकों की रचना की बात है। अब तक हम इस परीक्षा में तत्पर थे कि स्टाइल या वाक्यरचना एक बाहरी और कृत्रिम वस्तु है। इससे उसका किसी दूसरी भाषा में अनुवादित होना कठिन होता है। अब हम इसका विचार करते हैं कि वेद आदि धार्मिक ग्रंथ इस प्रकार की अलंकृत रचना से सर्वथा मुक्त हैं कि नहीं! क्या आप समझते हैं कि उनमें कहीं शब्द वैचित्रय, अलंकार, और सरसता नहीं है? इस वेदान्त वाक्य ही को लीजिए-
आत्मानं रथिनं बिद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुध्दिं तु सारथि बिद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।
इन्द्रियणि ह्यानाहुर्विशयांस्तेषू गोचरान्।
सोधवन: पारमाप्नोति तद्विष्णो: परमम्पद।।
क्या यह समझने में कठिन नहीं है? क्या इसमें रूपक अलंकार नहीं है? मैं तो कहता हूँ कि जितना अंश ऐसे ग्रंथों का अलंकृत रचना इत्यादि लक्षणों से रहित है, और जो शुद्ध सीधी सादी भाषा में पवित्र पदार्थों का बोध करता है, वह विज्ञान के अन्तर्गत है, साहित्य के नहीं।
ऊपर जो बातें कही गईं उन सबका अब मैं सारांश प्रकाशित करता हूँ कि साहित्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया जा चुका है कि वह 'विचारों' का शब्दों में अवतीर्ण होना है। और विचारों से तात्पर्य कल्पना, अनुभव, विवेचना तथा और अन्यान्य मन की क्रियाओं से है। साहित्य उन श्रेष्ठ मनुष्यों की शिक्षा और वार्ता है जिन्हें अपनी जाति के प्रतिनिधि रूप में बोलने का अधिकार प्राप्त है और जिनके शब्दों में उनके स्वदेशीय बन्धुगण अपने अपने भावों का प्रतिबिम्ब देखते हैं और अपने अनुभव के सारांश का पता लगाते हैं।
उत्तम ग्रंथकार वह नहीं है जो, गद्य या पद्य में, सुन्दर भड़कीले भड़कीले शब्दों से गुँथा हुआ कोई पद बना सके; उत्कृष्ट कवि वही है जिसे कुछ कहना होता है और जो यह जानता है कि उसे किस प्रकार कहना चाहिए। मैं उसके लिए सूक्ष्म और गहरे विचार, ज्ञान की अधिकता, न्याय और तर्क, तथा मानुषी प्रकृति का अध्यषयन इत्यादि आवश्यक नहीं बतलाना चाहता हूं। उसकी ईश्वर-प्रदत्ता-प्रतिभा ही प्रगट करने की शक्ति है। वह दो वस्तुओं का स्वामी है। 'विचार' और 'शब्द' ये दो नाम में तो एक दूसरे से भिन्न हैं; किन्तु पृथक् नहीं किए जा सकते। वह उद्वेग से साथ लिखता है, क्योंकि वह तीव्र अनुभव करता है; जोर के साथ लिखता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष देखता है, उसकी दृष्टि स्वच्छ है, इस कारण उसकी रचना में कहीं गड़बड़ नहीं हो तो कल्पनाएँ उसके हृदय से उठती हैं और उसके मुख से सुन्दर सुन्दर शब्दों का रूप धारण करके निकलती हैं। जब उसके चित्त पर कोई प्रभाव पड़ता है तब उसकी सारी काल्पनिक सृष्टि कम्पायमान हो जाती है। शुद्ध कल्पना के प्रगट करने को वह शुद्ध और तदनुकूल शब्द रखता है। एक भी शब्द अधिक किंवा कम नहीं। यदि वह संक्षेप में कोई बात कहता है तो इसलिए कि वहाँ थोड़े ही शब्दों की आवश्यकता रहती है। जहाँ अधिक शब्द रखकर वह अपनी रचना को विस्तृत करता है वहाँ भी हर एक शब्द अपना अपना लक्ष्य रखता है, और सब मिलकर उसकी वाणी की प्रौढ़गति को सहायता पहुँचाते हैं, न कि उसको अपने बोझ से दबाते हैं। वह उसको प्रगट करता है जिसका अनुभव सब करते हैं; किन्तु प्रगट नहीं कर सकते। उसकी बातें उसके देश के लोगों में कहावत के रूप में प्रचलित हो जाती हैं और उसके वाक्य लोगों की नित्य प्रति की बोलचाल में व्यवहृत होने लगतेहैं।
हम लोगों में कालिदास और ऍंगरेज़ी में शेक्सपियर इसी प्रकार के कवियों में हैं। भाषाओं में विभिन्नता के कारण उनका संबंध किसी एक ही से हो जाता है, किन्तु जो बात वे प्रगट करते हैं वह सम्पूर्ण मनुष्य-जाति से संबंध रखती है।
यदि वाणी की शक्ति ईश्वर का सबसे उत्तम प्रसाद है; यदि भाषा की उत्पत्ति बहुत से विद्वानों द्वारा ईश्वर से मानी गई है; यदि शब्दों द्वारा अन्त:करण के गुप्त रहस्य प्रगट किए जाते हैं; चित्त की वेदना को शान्ति दी जाती है; द्रदय में बैठा हुआ शोक बाहर निकाल दिया जाता है; दया उत्पन्न की जाती है और बुद्धि चिरस्थायी बनाई जाती है; यदि बड़े ग्रंथकारों द्वारा बहुत से मनुष्य मिलकर एक बनाए जातेहैं; जातीय लक्षण स्थापित होता है; भूत और भविष्य तथा पूर्व पश्चिम एक दूसरे के सम्मुख उपस्थित किये जाते हैं; और यदि ऐसे लोग मनुष्य जाति में अवतार स्वरूप माने जाते हैं-तो साहित्य की अवहेलना करना और उसके अध्य यन से मुख मोड़ना कितनी बड़ी भारी कृतघ्नता है! हम लोगों को यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि जितना ही हम इसमें, चाहे जिस भाषा द्वारा हो, अधिकार प्राप्त करेंगे और उसके रस का आस्वादन करेंगे, उतना ही हम दूसरों को लाभ पहुँचाने में समर्थ होंगे-चाहे वे कम हों या अधिक, धनी हों या दरिद्र; क्योंकि वे सब हमारी लेखनी के प्रभाव-मंडल के भीतर आ जायँगे।
(सरस्वती, मई 1904)
[चिन्तामणि भाग-3]