चालू सिनेमा से अलग भी सिनेमा की एक दुनिया है जो सपनों के जाल में हमें भरमाती नहीं, बल्कि जीवन और समाज की जटिलताओं के यथार्थ का हमें साक्षात्कार कराती है। सिनेमा की इस दूसरी दुनिया के निर्माताओं में थे सत्यजित राय और ऋत्विक घटक। उनके समानांतर और लगभग सहयात्री हैं मृणाल सेन। भारत में कला फिल्म की शुरुआत बांग्ला फिल्म 'पथेर पांचाली' (1955) से मानी जाती है, जिसके निर्देशक सत्यजित राय थे। इसी तरह हिंदी में समानांतर सिनेमा की शुरुआत 'भुवन सोम' (1969) से मानी जाती है, जिसका निर्देशन मृणाल सेन ने किया था। बात सत्यजित राय (1921-1992) से शुरू करें तो उनका विश्व सिनेमा में कोई सानी नहीं है। उनकी कालजयी फिल्मों - 'पथेर पांचाली', 'अपराजितो', 'जलसाघर', 'कंचनजंघा', 'चारुलता', 'अशनि संकेत', 'घरे बाइरे', 'पारस पाथर', 'देवी', 'तीन कन्या', 'प्रतिद्वंद्वी', 'गणशत्रु' और 'आगंतुक' को देखकर आज भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। राय ने छोटी-बड़ी कुल 37 फिल्मों का निर्देशन किया। उनकी हर फिल्म कैसे शाश्वत फिल्म बन गई शिल्प के कारण या कथ्य के कारण या दोनों के कारण कई बार तो राय के यहाँ शिल्प ही कथ्य भी प्रतीत होता है। उनके यहाँ कथ्य के भीतर पैठकर ही शिल्प उभरता है। मोहक छायांकन, विलक्षण रंगबोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो राय सदैव अनन्य रहे। यह बड़ा दिलचस्प है कि राय को हिंदी नहीं आती थी पर हिंदी में उन्होंने पहले 'शतरंज के खिलाड़ी' बनाई, बाद में 'सद्गति'। ऐसा कर उन्होंने हिंदी को अविस्मरणीय सिनेमाई अनुभव से भी समृद्ध किया।
सत्यजित राय की पहली फिल्म 'पथेर पांचाली' 1955 में आई थी और उस पहली ही फिल्म से ही राय पूरी दुनिया में मशहूर हो गए थे। आज भी 'पथेर पांचाली' की प्रासंगिकता असंदिग्ध है। ऐसी फिल्म हर युग में प्रासंगिक बनी रहती है। कहना न होगा कि दुर्गा-अपू भी युग-युग तक तक अम्लान रहेंगे, चिर नवीन रहेंगे। मनुष्य को जीवन भर संग्राम करना पड़ता है और हरिहर या अपू हमारे ही जीवन संग्राम के प्रतिनिधि हैं। 'पथेर पांचाली' ने जब देश-विदेश में धूम मचा दी तो मुंबई फिल्मोद्योग के कुछ व्यक्तियों को यह नागवार लगा था। नरगिस दत्त ने कहा था, 'देश की दरिद्रता को बेचकर विदेश से धन लाया जा रहा है। विदेशों में इस फिल्म का प्रदर्शन तत्काल बंद कराया जाना चाहिए। दरिद्रता की ऐसी कारुणिक छवि विदेशों में दिखाने से नहीं चलेगा।' यह फिल्म क्या वास्तव में सिर्फ दरिद्रता की छवि है कहने की जरूरत नहीं कि इस फिल्म में दरिद्रता ही आखिरी बात नहीं है। 'पथेर पांचाली' प्रकृति के साथ एकात्म होकर संघर्ष करते हुए मुनष्य के जीवन दर्शन का संधान करती है। पूरी दुनिया को बंगाल के प्राकृतिक सौंदर्य ने मुग्ध किया था। निश्चिंदपुर का सोनाडांगा माठ न्यूयॉर्क के फिफ्थ एवेन्यू में लोगों ने देखा था। आम का बगीचा, बंसवाडी और उनका सौंदर्य सबने देखा-सराहा था। आज भी बंगाल में हजारों-हजार अपू और दुर्गा हैं। पढ़ने-लिखने का अधिकार सिर्फ अपू का है, दुर्गा का नहीं। दुर्गा को घर का काम करना है और कुपोषण जनित रोगों से मर जाना है। दीदी की मृत्यु का दृश्य देखकर हॉल में दर्शक रो पड़े थे। जो फिल्म इतनी असर करने वाली है, उसके निर्माण में सत्यजित राय को बहुत संघर्ष करने पड़े थे। 'पथेर पांचाली' के निर्माण में कई बार बाधाएँ आईं। प्रायोजक की तलाश में सत्यजित राय को कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ा। राना दत्ता एंड कंपनी ने प्रायोजक बनाना स्वीकार किया और 40 हजार रुपए देने की बात कही तो 1953 में शूटिंग शुरू हुई। एक-तिहाई शूटिंग पूरी हुई तो राना दत्त एंड कंपनी ने फिल्म का प्रायोजक होने से मना कर दिया। फलतः शूटिंग बंद। फिर प्रायोजक ढूँढ़ने की कवायद हुई, पर कोई सफलता नहीं मिल रही थी। सत्यजित राय की पत्नी विजया राय के गहने बंधक रखकर कुछ दिन शूटिंग हुई कि फिर बंद। आठ महीने बाद अनिल चौधरी ने प्रस्ताव दिया कि मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय से मदद माँगी जाए। सत्यजित राय की माँ सुप्रभा देवी ने अपने मित्र के मार्फत मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय से संपर्क किया। मुख्यमंत्री ने सत्तर हजार रुपए फिल्मकार को दिए। सत्यजित राय कहते भी थे कि विधानचंद्र राय और मिस्टर निकलसन के कारण ही 'पथेर पांचाली' बन पाई थी। तत्कालीन राज्य सरकार की वित्तीय मदद के फलस्वरूप 'पथेर पांचाली' की 1954 में नए सिरे से फिर शूटिंग शुरू हुई। राज्य सरकार से पैसा पाने के बाद राना दत्त एंड कंपनी के चालीस हजार रुपए वापस किए गए। बंधक रखे गए विजया राय के गहने छुड़ाए गए। द्रुत गति से फिर शूटिंग शुरू हुई।
'पथेर पांचाली' की पूरी पटकथा कभी नहीं लिखी गई। कागज पर सत्यजित राय कुछ नोट लिखते थे और स्केच बनाते थे। राय का जीवन शहर में बीता था फिर भी इसे फिल्माने में उन्हें दिक्कत नहीं हुई क्योंकि विभूति भूषण बंद्योपाध्याय की इस कथाकृति में गाँव के पूरे परिवेश का बारीकी से विवरण है। विभूति बाबू की पत्नी रमा बंद्योपाध्याय ने भी सत्यजित राय को अधिकार दिए थे और राय के पास तब रमा देवी को कॉपीराइट के लिए पैसे देने की भी सामर्थ्य नहीं थी। बहरहाल राज्य सरकार की वित्तीय मदद के बाद फिल्म की शूटिंग पूरी हुई। दिन-रात लगकर राय ने एडिटिंग की ओर 26 अगस्त, 1955 को फिल्म रिलीज हुई। 111 मिनट की फिल्म कान, एडिनबरा, बर्लिंग, न्यूयॉर्क, तोक्यो, डेनमार्क समेत बारह फिल्मोत्सवों में 'पथेर पांचाली' पुरस्कृत हुई। फिल्म को कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। जब देश-विदेश में फिल्म की धूम मच गई तो उन लोगों का मुँह भी बंद हो गया जो आर्थिक मदद करने के लिए विधानचंद्र राय की आलोचना कर रहे थे। देश-विदेश में फिल्म की धूम मचने पर 27 जनवरी, 1957 को 'पथेर पांचाली' का सम्मान समारोह कोलकाता में आयोजित हुआ। उसमें विधानचंद्र राय को फिल्म दिखाई गई। फिल्म देखकर वे मुग्ध हुए। उस समारोह में उन्होंने कहा था कि'पथेर पांचाली' ने पूरी दुनिया में भारत का नाम रोशन किया है। फिल्म के क्षेत्र में भी हम सीना तानकर दुनिया के सामने खड़े हो सकते हैं - यह 'पथेर पांचाली' ने साबित कर दिया है। विधानचंद्र राय की ही पहल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने फिल्म देखी और उन्होंने भी प्रशंसा की। विख्यात फिल्म समीक्षक मैरी ने फिल्म देखने के बाद कहा था, 'राय विश्व सिनेमा में महानतम हैं।' सचमुच सत्यजित राय विश्व सिनेमा के जीनियस थे। सिनेमा को कला के उत्कर्ष पर ले जाने में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका उन्होंने निभाई। यह भूमिका वही निभा पाता है जो अपने कला कर्म में अपने समय से मुठभेड़ करे। राय की हर फिल्म समय और उसकी चुनौती से मुठभेड़ करती है। बानगी के बतौर 'अपराजितो' का संदर्भ ले सकते हैं। एक माँ और उसके वयस्क होते एकलौते पुत्र के बीच के संबंध को फिल्म मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त करती है। पढ़ने के लिए अपू अपनी माँ से बहुत दूर चला जाता है और जब लौटता है तो माँ गुजर चुकी होती है। गाँव का कोई भी आदमी अपू को उसकी माँ की मृत्यु के बारे में कुछ नहीं कहता। यह फिल्म देखते समय शायद ही कोई माँ बगैर रोए रह पाई हो। यह बूढ़ों को अंदर से हिला देनेवाली और बर्बर समय से सामना करानेवाली विलक्षण फिल्म है। माँ और वयस्क बेटे के संबंध के विश्लेषण और प्रदर्शन में सत्यजित राय ने यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया है। प्रकारांतर से यह फिल्म यह सवाल भी छोड़ जाती है कि वैश्वीकरण के इस युग में जब समूची दुनिया एक हो रही है, विश्व जब एक ग्राम में परिणत हो रहा है, उसी वक्त संयुक्त परिवार बिखर रहे हैं। माँ और पुत्र भी एक साथ नहीं रह पा रहे हैं। यह सवाल बहुत दारुण है, कारुणिक है और मर्म से भरा हुआ है। यह सवाल फिल्म में चीख बन जाता है। ऐसी ही चीखें सत्यजित राय की हर फिल्म में हम सुन सकते हैं।
सत्यजित राय के समकालीन ऋत्विक घटक की पहली फिल्म 'नागरिक' 1952 में ही बन गई थी किंतु उनके जीवनकाल में प्रदर्शित नहीं हो पाई थी। 'बाड़ी थेके पालिए' (1956), 'अजांत्रिक' (1958), 'मेघे ढाका तारा' (1960) और 'कोमल गांधार' ने ऋत्विक को एक समर्थ फिल्मकार की पहचान दी। उसी दौर में ऋत्विक की फिल्म 'स्वर्णरेखा' भी आई थी। उसके बाद लंबे समय तक वे चुप रहे। 1974 में उन्होंने 'तितास एकटि नदीर नाम' और 'जुक्ति तोक्को आर गप्पो' नामक फिल्में बनाईं। इन फिल्मों के कथ्य, ध्वनि प्रयोग, दृश्यक्रम और दृश्य संयोजन की नाटकीयता ने दर्शकों को अभिभूत कर दिया था।'स्वर्णरेखा' में क्या उस ध्वनि प्रयोग और दृश्य संयोजन को कभी भूला जा सकता है, जब अमानवीय हालातों के कारण नायिका आत्महत्या कर लेती है और लिफ्ट में उतरते कैमरे के साथ त्रासदी की ध्वनियाँ सुनाई देती हैं और आँखें अंधेरे में जैसे पाताल लोक पहुँच जाती हैं, फिर रोशनी जब होती है तो खून के छींटे दिखते हैं। 'तितास एकटि नदीर नाम' में जिस जन समुदाय को ऋत्विक ने दर्शाया, वह अब नहीं मिलता क्योंकि नदी के साथ ही वह समुदाय भी सूख गया है। उस लुप्त संस्कृति की झलक अब सिर्फ फिल्म में ही हम देख सकते हैं। बांग्लादेश के कट्टरपंथियों में इस फिल्म को लेकर जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई थी क्योंकि फिल्म के अधिकरतर चरित्र हिंदू हैं।
ऋत्विक की फिल्मों में अतीत के प्रति एक खास मोह दिखता है। अतीत में जाकर ही फिल्मकार वर्तमान को देखता है। बंगाल के विभाजन का संदर्भ हमेशा उनका पीछा करता है। इस पार और उस पार के बंगाल का विभाजन भले हो गया, ऋत्विक ने दोनों ओर के बंगाल के सांस्कृतिक विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी फिल्में इसका सबूत हैं। उनके यहाँ सबसे बड़ी बात यह है कि शिल्प को परे खिसकाकर कथ्य कुछ भी नहीं रह जाता। शिल्प के साथ कथ्य इसी तरह वे गूँथते थे। उन्होंने 'स्वर्णरेखा' में सीता और 'तितास एकटि नदीर नाम' और 'जुक्ति तोक्को आर गप्पो' में माँ दुर्गा की झलक इस तरह दिखाई कि जननी की जगतव्यापी छवि साकार हो उठी। देवी के अलावा ऋत्विक की फिल्मों में अक्सर साधु व फकीर प्रकट हो जाते हैं। लोक जीवन को अभिव्यक्त करने के लिए ऋत्विक ऐसा करते हैं। उन्होंने फिल्मों में लोक गीतों का प्रयोग भी इस मकसद से किया है कि दर्शक सैकड़ों साल पहले की व्यथा से अवगत हो सकें और आज के हालात से उसकी तुलना कर सकें।
ऋत्विक के व्यक्तिगत जीवन को और तत्कालीन परिवेश को समझने की कुंजी उनकी फिल्म 'जुक्ति तोक्को आर गप्पो' देती है। नीलकंठ (ऋत्विक) पियक्कड़ है और उसकी फकीरी के कारण उसकी पत्नी (तृप्ति मित्र) से उसके रिश्ते तनावपूर्ण हैं। पुत्र (ऋजुभान घटक) के अलावा कई लोग उसके साथ हो लेते हैं। खास तौर पर बांग्लादेश बनने के बाद इस पार आई बंगबाला (सांवली मित्र), तब नक्सलवाद जोर पकड़े हुए है। समाज में एक धुँध छाई है। पुलिस की गतिविधि बढ़ी हुई है। जोतदारों और किसानों में संघर्ष चल रहा है। इन सारे हालातों में नीलकंठ तिलमिला देनेवाली टिप्प्णियाँ करता है। पुलिस व नक्सलियों की मुठभेड़ में नीलकंठ मारा जाता है। उसकी मौत के उपरांत उसकी पत्नी उसे कबूल करती है। इस फिल्म में ऋत्विक नक्सलियों को जो समझाते हैं, वही फिल्म का संदेश है कि अपनी संस्कृति के सुदूर व निकट अतीत को समझे बिना वर्तमान का अध्ययन नहीं किया जा सकता और अतीत व वर्तमान को समझे बिना द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आईने में देश-काल और परिस्थितियों का विश्लेषण किए बगैर क्रांति का प्रयास निरर्थक है। इस वक्तव्य में वे उग्रवादी वामपंथी समूहों को भविष्य की एक दिशा देने का प्रयत्न करते हैं। ऋत्विक की फिल्मों का मूल संदेश यह है कि भविष्य को देखो। यानी वे कहना यह चाहते हैं कि तमाम त्रासदियों, विडंबनाओं के बावजूद मनुष्य आगे बढ़ता रहेगा। यही उनकी कामना है। यह कामना एक औघड़ फिल्मकार की कामना है।
सत्यजित राय और ऋत्विक घटक के समकालीन मृणाल सेन की पहली फिल्म 'रातभोर' 1956 में आई थी और पिछली फिल्म 'आमार भुवन'आज से ठीक दस साल पहले 2003 में आई थी। मृणाल दा भाषा बंधन की अनूठी मिसाल पेश करनेवाले फिल्मकार हैं। उन्होंने अपनी मातृभाषा बांग्ला के अलावा उड़िया, तेलुगु और हिंदी में भी फिल्में बनाईं। मृणाल सेन ने महादेवी वर्मा की कहानी 'चीनी फेरीवाला' पर 1958 में बांग्ला में 'नील आकाशेर नीचे' शीर्षक से फिल्म बनाई थी तो 1966 में कालिंदीचरण पाणिग्रही के उपन्यास 'माटीर मनीश' पर इसी शीर्षक से उड़िया में फिल्म बनाई और 1977 में प्रेमचंद की कहानी 'कफन' पर तेलुगु में 'ओका ओरि कथा' बनाई थी। मृणाल दा ने 1969 में 'भुवन सोम' बनाई थी जिसे हिंदी में समानांतर सिनेमा को जन्म देने का श्रेय दिया जाता है। कुल अठाइस फीचर फिल्मों का निर्देशन करने वाले मृणाल दा के खाते में 'एक अधूरी कहानी', 'मृगया', 'खंडहर', 'जेनेसिस' और 'एक दिन अचानक' जैसी श्रेष्ठ हिंदी फिल्में भी हैं। दिलचस्प यह है कि मृणाल दा को हिंदी नहीं आती। फिर भी फिल्म निर्देशन में उनके समक्ष भाषा की समस्या कभी आड़े नहीं आई। जिस भाषा में उन्होंने फिल्म बनाई तो वहाँ की स्थानीय लोकोक्तियों को व्यवहृत किया। 'ओका ओरि कथा'बनाते समय मृणाल दा ने तेलंगाना के स्थानीय लोगों से पूछा था कि 'तू डाल डाल मैं पात पात' के लिए कौन सी लोकोक्ति तेलुगु में चलती है तो वहाँ उन्हें जो बताया गया, उसका हिंदी अनुवाद होगा - 'तू मेघ मेघ, मैं तारा तारा।' जिस भाषा में मृणाल दा फिल्म बनाते थे तो सबसे पहले वहाँ के मुहावरे और लोक व्यवहार में ढल जाते थे। वैसे यदि एक भाषा की लोकोक्तियाँ दूसरी भाषा में आएँ तो जाहिर है कि दूसरी भाषा को भी वे समृद्ध करेंगी। स्थानीय लोक व्यवहार पर जोर देने के अलावा मृणाल दा हमेशा अपनी हर फिल्म को तीन कसौटियों पर कसते रहे हैं। एक - टेक्स्ट, जिस पर फिल्म आधारित होती है। दूसरा - सिनेमा का फार्म, जिसमें कलाकारों के परमार्मेंस पर ध्यान दिया जाता है और तीसरा - समय। फिल्म जब अपने समय से जुड़ती है तभी प्रासंगिक बनती है। कदाचित इन कसौटियों पर कसने के कारण ही मृणाल दा 28 श्रेष्ठ कला फिल्में, तीन गंभीर वृत्त चित्र और दो टेली फिल्में दे सके।
मृणाल दा की फिल्में आज के हिंसा-प्रतिहिंसा के भयावह परिवेश में मनुष्य को बचाने की चिंता पूरी शिद्दत से करती हैं। मृणाल सेन के यहाँ यह चिंता एक मूल्य बन जाती है। उदाहरण के लिए उनकी पिछली फिल्म 'आमार भुवन' को ही लें तो उस फिल्म के आरंभ में ही युद्ध, दंगे और असहाय बच्चे की तस्वीर आँखों के सामने तैर जाती है। यह दृश्य सिर्फ दो मिनट का होता है किंतु विचारणीय है कि क्या यह आज के समय की सबसे बड़ी ग्लोबल सच्चाई नहीं है कहना न होगा कि यह ग्लोबल सच्चाई ही मनुष्य से उसकी पहचान छीन रही है, उसके बचे रहने की संभावना को क्षीण कर रही है, और तो और, उसे मानव बम बना रही है। विध्वंस के दृश्यों के बीच परदे पर मोटे-मोटे अक्षरों में एक पंक्ति उभरती है - 'पृथ्वी भाँगछे, पुड़छे, छिन्न-भिन्न होच्छे। तबू मानुष बेंचे थाके ममत्वे, भालोबासाय, सहमर्मिताय।' यानी 'पृथ्वी टूट रही है, जल रही है, छिन्न-भिन्न हो रही है। तब भी मनुष्य बचा रहता है, ममत्व, प्यार और संवेदना के कारण।' टूटती-जलती छिन्न-भिन्न होती पृथ्वी के दृश्य दिखाने के बाद फिल्म दर्शकों को उस लोक में ले जाती है,जहाँ हिंसा नहीं है, प्रतिहिंसा नहीं है, विद्वेष नहीं है, वातावरण विषाक्त नहीं है और यह सब गरीबी के बावजूद नहीं है। उस लोक में ममत्व है, प्यार है,संवेदना है और एक-दूसरे को समझने की इच्छा बची हुई है। वहाँ बड़े भाई के हाथों 'मानुष' हुए नूर अली हैं। चौदहवीं शताब्दी में चंडीदास ने कहा था-'सुनो हे मानुष भाई/ सबार ऊपोरे मानुष सत्य/ ताहार ऊपोरे नाई।' यानी मनुष्य से ऊपर कोई सत्य नहीं है। बंगाल में हम रोज किसी न किसी माता-पिता के मुँह से सुनते हैं - 'छेले-मे के मानुष कोरते होबे।' यानी सिर्फ पढ़ाना-लिखाना पर्याप्त नहीं, मानुष बनाना जरूरी है।
फिल्म का नाम 'अमार भुवन' है जिसका हिंदी भाषांतर होगा - 'मेरी पृथ्वी।' इस पृथ्वी में एक ओर संपन्न लोगों (नूर) की दुनिया है, दूसरी ओर निर्धन मेहर का निरीह संसार। मेहर-सखीना के अभावग्रस्त संसार, उनकी व्यथा और यथार्थ को फिल्म मार्मिकता से दिखाती है। मेहर-सखीना के संसार को मृणाल सेन संकेतों, बिंबों, प्रतीकों के जरिए समग्रता में और पूरी संवेदना के साथ इस तरह दिखाते हैं कि उसमें पूरा भारतीय जीवन ही दिखने लगता है। अभाव के भाव को और उसकी कथा को मृणाल सेन स्मरणीय सिनेमाई अनुभव बना देते हैं।
नूर अपने यहाँ भोज देता है जिसमें बूढ़े चटर्जी महाशय भी पहुँचते हैं और पूछते हैं - मुझे न्यौतना क्यों भूल गए एक मुसलमान की पार्टी में हिंदू को लाकर फिल्मकार ने सांप्रदायिक सद्भाव की बात कहनी चाही है। मृणाल सेन उस पृथ्वी की बात करते हैं या वैसी पृथ्वी चाहते हैं जहाँ संप्रदायों में सद्भाव है, जहाँ विलगाव के बावजूद प्रेम है। यदि ऐसी पृथ्वी हो जाए तो क्या कहने! इसलिए अविश्वास और विध्वंस के इस समय में मृणाल सेन यदि'आमार भुवन' जैसी कथा फिल्म रचते हैं तो उनकी यह रचना (कल्पना) भी तात्पर्यपूर्ण है। यह फिल्म रवींद्रनाथ ठाकुर के गान से समृद्ध है। फिल्म में'ममचित्ते' शीर्षक गीत बार-बार आया है और श्रीकांत आचार्य की आवाज में जँचता भी है। इस तरह फिल्म की समृद्धि में स्थिर चित्रों का भी योगदान माना जाना चाहिए। शुरू में जो स्थिर चित्र दिए गए हैं, वे कलात्मकता के रचनात्मक तत्वों को पर्याप्त उभारते हैं और फिल्म के आशय को पुष्ट करते हैं।'रातभोर' से लेकर 'आमार भुवन' तक मृणाल दा की हर फिल्म अपने समय और समय की चुनौतियों से जूझती है। हर फिल्म में मृणाल सेन को उनका समय गाइड करता है - हिंसा-प्रतिहिंसा-विद्वेष के विरुद्ध खड़ा होने के लिए, प्रेम के लिए, ममत्व के लिए, मनुष्य को बचाने के लिए।
सत्यजित राय, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक की समानांतर सिनेमा की परंपरा को जो नए फिल्मकार निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं, उनमें गौतम घोष अनन्य हैं। पिछले चार दशकों के दौरान गौतम ने 'पार', 'पतंग', 'गुड़िया', 'दखल', 'अंतर्जली यात्रा', 'पद्मा नदीर माझी', 'माँ भूमि', 'आबार अरण्ए', 'देखा', 'यात्रा', 'कालबेला', 'मनेर मानुष' और 'बाइशे श्राबन' जैसी कलात्मक और दृष्टिसंपन्न फिल्में बनाकर खुद को सार्थक सिनेमा का योद्धा साबित किया है। बांग्लाभाषी गौतम घोष ने तेलुगु में 'माँ भूमि' नामक फिल्म बनाकर और हिंदी में 'पार', 'गुड़िया' और 'यात्रा' जैसी फिल्में बनाकर भाषा सेतु बंधन भी किया। एक ऐसे समय में जब सार्थक सिनेमा की सांसें फूल रही हैं और ढेर सारे गंभीर फिल्मकार चालू फिल्मों की ओर लौट रहे हैं, गौतम घोष ने अपना ढंग नहीं बदला है। उनकी फिल्मों में एक स्पष्ट वैचारिक दृष्टि दिखाई पड़ती है। वे हमेशा कोई न कोई बड़ी समस्या उठाते हैं। देश में जब धर्मांधता की समस्या बढ़ गई तो गौतम घोष ने सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास 'मनेर मानुष' पर इसी नाम से फिल्म बनाई। 'मनेर मानुष' बंगाल के प्रसिद्ध लोक कलाकार लालन फकीर के जीवन पर केंद्रित है। यह फिल्म धर्मांधता के खिलाफ जबर्दस्त सिनेमाई हस्तक्षेप है। यह फिल्म उस सूफी संत लालन फकीर के जीवन दर्शन को उभारती है, जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की धार्मिक कट्टरता का जवाब प्रेम और करुणा की एक नई परंपरा की नींव डालकर दिया। उस बाउल परंपरा में सबसे ऊपर मानुष है। 'मनेर मानुष' फिल्म दिखाती है कि गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के अग्रज और अपने जमाने के बहुचर्चित चित्रकार ज्योतींद्र नाथ ठाकुर लालन फकीर को अपने घर आमंत्रित करते हैं और जीवन एवं जगत के बारे में कई अहम मुद्दों पर उनसे बातचीत करते हैं। ठाकुर के प्रश्नों का जवाब लालन फकीर गाकर देते हैं। वह 1889 का अविभाजित बंगाल है। लालन फकीर के जीवन को फ्लैश बैक में देखते हुए दर्शक को एक विस्मयकारी देशकाल की यात्रा करने की अनुभूति होती है। यह फिल्म जीवन और समय के बारे में एक अद्भुत संगीतमय आख्यान है।19वीं सदी के अंतिम दिनों के बंगाल का देशकाल अत्यंत जीवंतता के साथ प्रस्तुत होता है। इस फिल्म में मूल उपन्यास को हू-बहू नहीं उतारा गया है,अपितु उपन्यास में कतिपय परिवर्तन किया गया है। कहानी के ट्रीटमेंट के साथ मामूली परिवर्तन का अधिकार फिल्मकार को है। 'मनेर मानुष' बनाने के पहले सुनील गंगोपाध्याय की ही रचना पर आधारित 'आबार अरण्ये' नामक फिल्म गौतम घोष ने बनाई थी। कला फिल्में भी हिट हो सकती हैं, इसे'मनेर मानुष' की तरह 'आबार अरण्ये' ने भी साबित किया था। 'आबार अरण्ये' दरअसल सत्यजित राय के 'अरण्ये दिन रात्रि' का उत्तर पक्ष है बल्कि यों कहें कि उत्तर आधुनिक पक्ष है। वैसे 33 वर्षों में काफी परिवर्तन आ गया है। देह में, मन में और जीवन जगत में भी। सुनील गंगोपाध्याय, शक्ति चट्टोपाध्याय समेत चार मित्र जीवन की आपाधापी से कुछ दिनों के लिए निजात पाने के लिए अरण्य (जंगल) घूमने गए थे। उसी भ्रमण पर सुनील गंगोपाध्याय ने कहानी लिखी और उस पर 1969 में सत्यजित राय ने फिल्म बनाई - 'अरण्ये दिनरात्रि।' 1969 में जो चार मित्र अरण्य घूमने गए थे,उनमें एक शेखर (रवि घोष) का निधन हो गया है। बाकी बचे तीन मित्र असीम (सौमित्र चटर्ची), संजय (शुभेंदु चटर्ची) और हरि (सुमित भंज) अब साठ साल पार कर रहे हैं। उनके बेटे-बेटियाँ जवान हो गए हैं। अपर्णा (शर्मिला टैगोर) और असीम (सौमित्र चटर्जी) की बेटी (तब्बू) अमेरिका में पढ़कर और 9सितंबर की वर्ल्ड ट्रेड सेंटर उड़ाए जाने की घटना में प्रेमी को गँवा कर लौटी हैं। चूँकि वह हिंसा में प्रेमी को गँवा कर लौटी हैं। चूँकि वह हिंसा में प्रेमी को गँवा चुकी हैं, इसलिए किसी भी तरह की हिंसा को देखकर सिहर उठती हैं। टीवी पर हिंसा के दृश्य देखते हुए पत्थर फेंककर टीवा का कांच तोड़ देती हैं। उसके स्वाभाविक जीवन को लौटाने के लिए तीनों मित्र फिर जंगल में घूमने जाने की योजना बनाते हैं। सत्यजित राय इन मित्रों को पलामू के जंगल ले गए थे और गौतम घोष उत्तर बंगाल ले जाते हैं। प्रकृति की नैसर्गिक छटा का असर यह होता है कि भ्रमण पर आए ये चारों मित्र अपनी-अपनी तरह से प्रकृति के सौंदर्य में डूबते हैं। गाते हैं, नृत्य करते हैं, महुआ पीते हैं। आनंद ही आनंद है। लेकिन सारा आनंद बेचैनी में बदल जाता है जब असीम अपर्णा की बेटी अचानक गायब हो जाती है। बाद में पता चलता है कि वह आदिवासी समूह के बीच पहुँच गई है। वहाँ वह आदिवासियों के कल्याण के लिए माँ-पिता को पत्र लिखकर तीन लाख रुपए की माँग करती है। दूसरे शब्दों में आदिवासी उसका अपहरण कर चुके हैं और उसकी रिहाई के लिए तीन लाख रुपए की फिरौती माँगते हैं। उन तीन लाख रुपयों से मास्टर साब आदिवासियों का बहुविध कल्याण करना चाहते हैं। मास्टर-साब को पैसे मिलते ही नहीं,अंततः गिरफ्तार होना पड़ता है। रिहा होने के बाद तब्बू अपने परिजनों से कहती है - 'बंच ऑफ हिप्पोक्रेट्स'। जंगल में जंगल पुत्रों (आदिवासियों) के बीच तब्बू जितनी देर रहती है, उनकी स्थिति पर 'रिएक्ट' करती है। उनके बीच काम करना चाहती है, युद्ध की विभीषिका के खिलाफ भी वह 'रिएक्ट' करती है। फिल्म में दो-दो पीढ़ियाँ हैं पर नई पीढ़ी में रिएक्ट सिर्फ तब्बू करती है। जंगल हो और उसमें जंगलपुत्रों का जीवन न हो, यह कैसे संभव है। जंगलपुत्रों का अभावग्रस्त जीवन और उनके शोषण की महागाथा को गौतम घोष ने मार्मिक तरीके से दिखाया है। बंगाल की राजनीतिक अस्थिरता को चाय बागान और जंगलपुत्रों और मास्टर साहब के जरिए चित्रित किया गया है। तैंतीस-चौंतीस साल पहले की फिल्म 'अरण्ये दिन रात्रि' की क्लिपिंग्स दिखाकर मानो गौतम सत्यजित राय को ही दिखा देते हैं। फिल्म में सत्यजित राय तो हैं फिर भी गौतम अपनी मौलिकता बनाए रखते हैं। घोष इस फिल्म में सत्यजित राय को विस्तार देते हैं। राय को यह सच्ची श्रद्धांजलि है। अपनी तरह की अनोखी श्रद्धांजलि। रवींद्रनाथ ठाकुर और चे गुएवेरा के गीत और शक्ति चट्टोपाध्याय की कविता फिल्म को नया ताप देती है। जीवन में काव्य आवृत्तिकार के रूप में प्रतिष्ठित किंवदंती अभिनेता सौमित्र चटर्जी शक्ति की कविता की आवृत्ति करते हैं। सौमित्र चटर्जी, शर्मिला टैगोर, तब्बू, शुभेंदु चटर्जी, गुलशन आरा चम्पा, सुमित भंग, रूपा गांगुली, शाश्वत चटर्जी, यीशु सेनगुप्त और अरुण मुखर्जी ने अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया है। निर्देशन, संगीत, कहानी, पटकथा गौतम घोष की है। सिनेमेटोग्राफी भी उन्हीं की थी। 'आबार अरण्ए'के पहले गौतम ने 'देखा' बनाई थी। उदारीकरण की आँधी में हमारे आस-पास की चीजें टूट रही हैं, किंतु त्रासदी यह है कि उस टूट-फूट और क्षयशीलता को आँख होते हुए भी हम संवेदनहीनता के अंधत्व के कारण नहीं देख पा रहे हैं। दूसरी तरफ कुछ अंधे अपनी जागृत संवेदना के कारण इस क्षय को देख रहे हैं। इस संदर्भ को रुपहले पर्दे पर दिखाकर गौतम घोष ने 'देखा' को एक अत्यंत महत्वपूर्ण फिल्म कृति बना दिया है। गौतम घोष ने इस फिल्म को गहरे अंतर्दृष्टि के साथ रचा है। 'देखा' की तरह गौतम घोष की हर फिल्म हमारी पथराई संवेदना पर गहरी कविता की तरह चोट करती है।
गौतम घोष के ही समकालीन हैं बुद्धदेव दासगुप्त। उनकी फीचर फिल्मों - 'दुरत्व', 'नीम अन्नपूर्णा', 'गृहयुद्ध', 'शीत ग्रीष्मेर स्मृति', 'अंधी गली', 'फेरा', 'बाघ बहादुर', 'ताहादेर कथा', 'चराचर', 'लाल दरजा', 'उत्तरा', 'मंद मेयेर उपख्यान', 'स्वप्नेर दिन', 'आमि यासिन आर आमार मधुबाला', 'कालपुरुष' और'जानला' ने भारतीय कला सिनेमा को नया आयाम दिया है। वेनिस, बर्लिन, कान, मांट्रियाल आदि अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में कई बार उनकी फिल्में शामिल हुई हैं। उन्होंने 1968 में पंद्रह मिनट की पहली लघु फिल्म बनाई थी - 'समयेर काछे'। उसी समय उन्होंने तय कर लिया था कि वे सदा सार्थक फिल्में ही बनाएंगे। आज तक उन्होंने इस मामले में समझौता नहीं किया। फिल्मकार को हर समय लड़ना पड़ता है अपने वृत्त के भीतर और वृत्त के बाहर भी। उसमें कठिन परिश्रम करना पड़ता है। 'बुद्धदेव दासगुप्त ने फिल्मों के अलावा दर्जन भर वृत्त चित्र बनाए। उन्हीं में एक है - 'जोड़सांको ठाकुरबाड़ी'। एक घंटे का यह वृत्तचित्र सिर्फ रवींद्रनाथ पर नहीं है। यह ठाकुरबाड़ी भी सिर्फ रवींद्रनाथ की नहीं है। यह द्वारिकानाथ, देवेंद्रनाथ, अवनींद्रनाथ,गगनेंद्रनाथ, सुनयना देवी की भी उतनी ही है। कलकत्ता में ही ठाकुरबाड़ी से बड़े भवन हैं पर दुनिया में कोई ऐसा घर नहीं, जहाँ सांस्कृतिक धारा की निरंतरता दो सौ वर्षों तक बनी रहे। ठाकुरबाड़ी ने नवजागरण को जन्म दिया। कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत यहीं हुई। स्वदेशी और राजनीतिक चेतना को इसने प्रखरता दी। बांग्ला संगीत और चित्रकला को नए आयाम दिए। ठाकुरबाड़ी से कई विभूतियों की कहानियाँ जुड़ी हैं। उन सबको समेटता है यह वृत्तचित्र। जोड़ासांको ठाकुरबाड़ी ने साहित्य को कलाओं से जोड़ा था। इस जुड़ाव को महसूस करते रहना किसी फिल्मकार के लिए बहुत जरूरी होता है। कविता और चित्रकला के साथ ही संगीत को भी जोड़ लीजिए तो इन तीन भिन्न-भिन्न कला रूपों के साथ सिनेमा का एक अटूट संबंध है। जब बुद्धदेव दासगुप्त फिल्में बनाते हैं तो ये तीनों कला रूप प्रेरणा का काम करते हैं और नई नान स्टेटिक इमेज रचने में मदद पहुंचाते हैं। बुद्धदेव के लिए सिनेमा का मतलब सिर्फ कहानी कहना भर नहीं है। उसमें आख्यान भी रहता है। पर आवरण में। फिल्म के दर्शक कम हैं या अधिक, मूल्यांकन का यह आधार नहीं होना चाहिए। आधार गुणवत्ता होनी चाहिए और गुणवत्ता की दृष्टि से बुद्धदेव दासगुप्त बहुत ऊपर हैं। नई बाजार व्यवस्था और खगोलीकरण के इस युग में भी अच्छा सिनेमा ही उद्वेलन पैदा करता है। बुद्धदेव की फिल्मों की सार्थकता यहीं है।
गौतम घोष और बुद्धदेव दासगुप्त से उम्र में छोटे थे ऋतुपर्ण घोष (31 अगस्त 1963 - 30 मई 2013)। उन्होंने कला फिल्म बनाने की परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए आजीवन रचनात्मक संघर्ष किया। चलचित्र निर्माण में उन्होंने 1992 में कदम रखा था। उसी साल उनकी पहली निर्देशित फिल्म'हीरेर आंगटि' (हीरे की अंगूठी) 1992 में रिलीज हुई। उसके बाद उन्होंने बीस फिल्मों - 'उनीशे एप्रील' (1994), 'दहन' (1997), 'बाड़ीवाली' (1999), 'असुख' (1999), 'उत्सव' (2000), 'तितली' (2002), 'शुभ मुहूर्त' (2003), 'चोखेर बाली' (2003), 'रेनकोट' (2004), 'अंतर्महल' (2005), 'दोसर' (2006), 'द लास्ट लियर' (2007), 'खेला' (2008), 'सब चरित्र काल्पनिक' (2008), 'आबहवान' (2010), 'नौका डुबी' (2010), 'आर एक टि प्रेमेर गल्प' (2011), 'मेमोरीज इन मार्च' (2011), 'सन ग्लास' (2012) और 'चित्रांगदा' (2012) का निर्देशन किया। ऋतुपर्ण ने एक तरफ 'रेनकोट' और 'सन ग्लास' जैसी श्रेष्ठ हिंदी फिल्में बनाईं तो 'द लास्ट लियर' और 'मेमोरीज इन मार्च' जैसी अंग्रेजी फिल्में भी। ऋतुपर्ण की विशेषता यह थी कि उनकी फिल्में जीवन, समय और समाज के मूल प्रश्नों की तरफ दर्शक का ध्यान खींचने की सामर्थ्य रखती हैं। ऋतुपर्ण द्वारा निर्देशित अंतिम बांग्ला फिल्म 'चित्रांगदा' थी जो पिछले साल रिलीज हुई थी। 'चित्रांगदा'जैसी साहसी फिल्म बहुत कम बनी है। 'चित्रांगदा' में पुरुष पात्र के अंदर स्त्रियोचित गुणों के होने को जिस ढंग से ऋतुपर्ण ने पर्दे पर उतारा है, वह अप्रतिम है। पूरी दुनिया में फिल्म निर्देशक के रूप में मशहूर होने के बाद दो साल पहले ऋतुपर्ण ने एक नई पारी शुरू की-अभिनेता के रूप में। ऋतुपर्ण ने 'आर एकटि प्रेमेर गल्प', 'मेमोरीज इन मार्च' और 'चित्रांगदा' में अभिनय भी किया। ऋतुपर्ण हमेशा समय के सुलगते सवाल उम्दा ढंग से उठाते थे। उदाहरण के लिए उन्होंने समलैंगिकता को अत्यंत संवेदनशील तरीके से उठाया था। वे मानते थे कि समलैंगिकता समाज की एक हकीकत है और इसके प्रति घृणा का भाव नहीं रखा जाना चाहिए। अपने समलैंगिक संबंधों को उन्होंने अपने वक्तव्य के रूप में उसे पर्दे पर उतारा। सिनेमा में इस तरह का साहस विरल उदाहरण है।
ऋतुपर्ण घोष की बांग्ला फिल्म 'आर एकटि प्रेमेर गल्प' (और एक प्रेम कहानी) में बताया गया है कि एक समलैंगिक निर्देशक का फिल्म के नायक से साथ प्रेम-संबंध कैसे स्थापित हो जाता है। इसी तरह उनकी एक अन्य फिल्म 'मेमोरीज इन मार्च' भी दो समलैंगिक प्रेमियों की कहानी है। फिल्म उस दर्द और पीड़ा को भी सामने लाती है जो एक माँ झेलती है। वह माँ एक सड़क हादसे में बेटे को खो चुकी है। इस हादसे के बहुत दिनों बाद जब माँ को यह पता चलता है कि उसके बेटे का एक पुरुष प्रेमी भी था, तो उसे एक और झटका लगता है। और अचानक वह अपने बेटे की जिंदगी के एक अनछुए पहलू से रू-ब-रू होती है। 'मेमोरीज इन मार्च' कहानी है एक माँ की और उसके स्वर्गवासी बेटे के प्रेमी की, और किस तरह से दोनों अपने अपने दुख बाँटते हुए एक दूसरे के करीब आ जाते हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि सत्यजित राय से लेकर गौतम घोष-ऋतुपर्ण घोष तक की सार्थक फिल्म यात्रा की धारावाहिकता बेहद तात्पर्यपूर्ण है।