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कविता

कैसे कह दूँ ?

भरत प्रसाद


क्या हमारी शरीर में ऊँची जगह पाकर
हमारा मस्तिष्क सार्थक हो उठा ?
क्या हमारी आँखें संपूर्ण हो गईं,
हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनकर ?
क्या हमने अंधकार के पक्ष में बोलने से
बचा लिया खुद को ?
क्या सीने पर हाथ रखकर कह सकता हूँ मैं
कि अपने हृदय के कार्य में कभी कोई बाधा नहीं डाली ?
आत्मा की गहराइयों से उठे हुए विचारों की
क्या मैं हत्या नहीं कर देता ?
दरअसल अपनी गहन भावनाओं का सम्मान करने वाला
मैं उचित पात्र ही नहीं हूँ।
वे इस कायर ढाँचे में क्यों उमड़ती हैं ?
छटपटाकर मरती हुई अंतर्दृष्टि से प्रार्थना है -
कि वे इस जेलखाने को तोड़कर कहीं और भाग जाएँ।
अपनी अंतर्ध्वनि का तयपूर्वक मैंने कितनी बार गला घोंटा है,
कौन जाने ?
पूरी शरीर को ता-उम्र कछुआ बने रहने का रोग लग चुका है,
हाथ-पैर, आँख-कान-मुँह आज तक अपना औचित्य सिद्ध ही नहीं कर पाए
करना था कुछ और तो कर डालते हैं कुछ और
दृश्य-अदृश्य न जाने कितने भय और आतंक से सहमकर
पेट में सिकुड़े रहते हैं हर पल।
मेरा अतिरिक्त शातिर दिमाग शतरंज को भी मात देता है,
भीतर के अथाह खोखलेपन के बारे में क्या कहना ?
कैसे कह दूँ कि मैं अपने जहरीले दाँतों से,
प्रतिदिन हत्याएँ नहीं किया करता ?

 


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