रुद्रदत्त पांडे का खानदान बड़ा प्रसिद्ध है। दूर-दूर से लोग आपका नाम सुनकर आपके यहाँ आते हैं। वर ढूँढ़ने वाले जिससे पूछते हैं, 'कि इधर कोई अच्छा, संपन्न ब्राह्मण है।' तो लोग बड़े हर्ष से उत्तर देते हैं कि चौकटपुर में पांडेजी के यहाँ एक लड़का विवाह के योग्य है। मगर तिलक एक हजार से कम न लेंगे। बड़े-बड़े लोग पांडेजी के यहाँ अपनी लड़की देकर अपने को धन्य समझते थे। पांडेजी भी मोलभाव की बात तो दूर रही, साफ-साफ कह देते थे कि जो एक हजार तिलक देगा, उसी के यहाँ शादी करेंगे। चार-पाँच लड़कों की शादियाँ हुईं। नाच, तमाशा, भाँडों की धूमधाम हर विवाह में समान हुई। सबसे अच्छी रंडी जो 'दाल की मंडी' में होती उसी का मुजरा पांडेजी कराते और अपने पुत्र के विवाह में उसी को ले जाते चाहे वह 300 रु. रोज क्यों न माँगती।
बड़े-बड़े काम पड़े मगर किसी को थाह नहीं लगी कि पांडेजी के पास कितना धन है। पांडेजी की मूँछ कभी भी टेढ़ी नहीं हुई थी। पांडेजी सैकड़ों में बोलनेवाले थे। पद-पंचायत में पांडेजी की धाक थी।
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पांडेजी के पाँच लड़के और एक लड़की थी। लड़की का नाम 'भगनी' था। भगनी बड़ी भाग्यवती और चंचल स्वभाव की प्रतीत होती थी। पाँच भाइयों में एक बहन होने के कारण भाइयों का प्रेम भी उस पर खूब था। नाच-तमाशे में जो रंडी घर पर आती भगनी को गोद में बिना लिए न छोड़ती। उस समय पांडेजी फूले न समाते। पंडाइन का तो कहना ही क्या है। रंडी का नाच बाहर तो होता ही था, भीतर भी बिना नाच के काम चलना मुश्किल था। पंडाइन की खास आज्ञा थी कि नाच घर में भी होना चाहिए। रंडी को बुलाने भी भगनी को साथ लेकर पांडेजी जाते। भगनी जब तक आठ-नौ साल की रही। मजलिस की शोभा बढ़ाने में भाग लेती थी। भगनी के हाथ से रुपए भी पांडेजी रंडी को दिलवाते थे और रुपया दे देने के बाद बड़े प्रेम से चुम्मा लेकर कहते थे, 'भगनी रानी बेटी है।'
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समय पाकर भगनी विवाह के योग्य हुई। यह पहला मौका था जब पांडेजी को अनुभव हुआ कि कन्या के लिए वर ढूँढ़ने में कितना कष्ट होता है। बहुत ढूँढ़ा, बहुत घूमे फिरे मगर मनोनुकूल वर नहीं मिला। कहीं घर मिलता था तो वर नहीं और वर मिलता था तो घर नहीं। ऐसी दशा में पांडेजी को अपने स्वभाव का भी ध्यान होता था। खोजते फिरते जिला जौनपुर में एक अच्छा खानदान मिला। उसके पास जमींदारी काश्तकारी के अतिरिक्त रुपए और गल्ले का रोजगार भी था। पांडेजी ने उस ब्राह्मण को पसंद किया। घर-द्वार सब ठीक है, जरा लड़का छोटा है पर कोई परवाह नहीं। दो-चार साल लड़के का छोटा होना काई हरज की बात नहीं। पुरोहितजी ने भी पांडेजी के हाँ में हाँ मिलाकर कहना प्रारंभ कर दिया, 'भैया भगनी अभी छोटी-सी लड़की है, जरा खाने-पीने का आराम होने से सयानी हो गई है, नहीं तो अभी कल की बात है, खेलती फिरती थी। अब भी उसके कुछ ख्याल थोड़े ही है।'
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तिलक डेढ़ हजार माँगते हैं। सब दुरुस्त है, गहना खूब लाएँगे, दरवाजे पर घोड़ा हिनहिना रहा है, नौकर चाकर - सब काम ठीक है। आदमी हाथी-नशीन हैं। तुम्हारी क्या राय है? लड़का गुलाब का फूल है मगर जरा उमर में छोटा है। भगनी बारह-तेरह साल की होगी, उसका नवाँ साल चल रहा है। इतने फर्क से क्या हो जाएगा, देश में इस तरह के विवाह बहुत होते हैं।
'जैसी राय हो, गहना-बारात तो ठीक आएगी न।' अपनी स्त्री की राय अनुकूल समझकर पंडित रुद्रदत्तजी पांडे ने नाई को बुलवाकर पत्र लिख दिया -
'मुझे डेढ़ हजार तिलक मंजूर है। आषाढ़ सुदी 11 को तिलक जाएगा।'
शंकर तिवारी भी उसी तरह से अपने हल्के में प्रसिद्ध हैं जैसे इधर पांडेजी। उनको अब तक डेढ़ हजार तिलक नहीं मिला था। हजार तक हद थी। तिवारी जी ने यह भी सुना की लड़की सयानी है। कहा, 'और कोई ऐब तो नहीं है।' सयानी और छोटी दो ही बातें होती हैं। लड़का भी बड़ा हो जाएगा। साल-दो साल का अंतर कोई अंतर नहीं।
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'विवाह के दिन विदा करने की साइत नहीं है। तीसरे बनता नहीं, पाँचवें बनेगा।' पंडाइन से इस बात को सुनकर पांडे ने कहा, 'तब? सयानी लड़की को घर रखना तो ठीक नहीं।'
पंडाइन ने कहा, 'चुप रहिए। आप तो ऐसे ही कहते हैं। दो-चार साल अपने घर रहेगी तो क्या होगा, कहीं जंगल में है? दुनिया में आप ही के एक लड़की है। सबके लड़की-पतोह हैं।'
पांडेजी सिर नीचा किए घर से बाहर निकले और बारात को विदा करने के लिए अक्षत साथ लेते गए। जाकर कहा कि विदा-विदाई की साइत नहीं है। मैं खुद समय पाकर आपको कहला दूँगा। अब तो यह आप ही की लड़की हुई इसमें मेरा क्या वश है। मैंने तो आपको कन्यादान दे ही दिया।
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आधी रात का समय है। रात सायँ-सायँ कर रही है। सब लोग खर्राटे की नींद सो रहे हैं। ठीक ऐसे समय में पंडाइन ने पांडे को जगाकर कहा।
'अब तो बड़ा अनर्थ हो गया। क्या होगा - अभी गौना जाने को एक साल है, भगनी का पेट... '
पांडेजी चौंककर उठे मानो दस साँप साथ ही उनके बदन पर लोटते हों - रुँधे कंठ से कहा - 'क्या कहा? पेट रह... अरे बापरे - अब कहाँ जाएँ, मुँह दिखलाने का रास्ता नहीं मिलेगा।'
'अब रोने-पीटने का समय नहीं है। इज्जत-बे-इज्जत जो है सो तो है ही -आगे की सुध कीजिए क्या करना चाहिए। भगवान को जो मंजूर होता है वही होता है।'
'क्या करें? मुझे तो कुछ नहीं सूझता।'
'एक काम कीजिए - कल कुलबोरनी के सासुर में कहला दीजिए कि बादशाहपुर स्टेशन पर सवारी लेकर आवें। विदाई की बड़ी अच्छी साइत है। यहाँ से गाड़ी पर भिजवा दीजिए।'
'जो चाहो करो।' कहते-कहते पांडेजी रोने लगे, सिर पीटने लगे, अंत में मुँह तोपकर सो गए।
विपत्ति के समय नारी का हृदय वज्र हो जाता है।
सवेरा होते ही पंडाइन ने एक नाई भेजकर तिवारी जी को बुलावा भेजा और भगनी को उनके साथ रवाना कर दिया। तीन दिन रहने के बाद स्त्रियों में कोलाहल मचा। बड़ा अनर्थ हुआ। एक कान से बात दूसरे कान गई। अब अभागिनी भगनी का कहीं ठिकाना नहीं। फिर वह चौकटपुर में लौटा दी गई! घर में मत घुसो, बाहर ही रहो, माता-पिता सभी रोते हैं। भगनी को सभी बुरा-भला कह रहे हैं।
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पांडेजी आधी रात को भगनी को लेकर काशी पहुँचे। वहाँ जाकर एक मकान का दरवाजा खटखटाने लगे। एक दुबे जी उसमें रहते थे। पांडेजी के बड़े ऋणी थे। पंडों के कमीशन एजेंट थे। पांडेजी ने भगनी का हाथ पकड़कर उनके सुपुर्द किया और कहा कि इसको 'दाल की मंडी' में पहुँचा दो।
पंद्रह वर्ष के बाद पांडेजी के एक नाती की शादी थी - उनको एक नाच की जरूरत थी। 'दाल की मंडी' पहुँचे। 'रधिया' नौची 'दाल की मंडी' में प्रसिद्ध थी। उसी को 50 रुपए रोज पर पांडेजी ने ठीक किया। भगनी ने रधिया से उसके जन्म की कथा सुना दी थी। जिस समय वह पंडाइन के सामने नाच रही थी। पंडाइन ने भगनी के मुँह की सुध करके 'रधिया' को प्रेमभरी दृष्टि से देखा।
रुद्रदत्त पांडे ने अपने पौत्र के विवाह के दूसरे ही दिन संन्यास ले लिया।
लोगों ने बहुत उद्योग किया कि पांडेजी के संन्यास लेने का क्या कारण है। पर किसी को आज तक कुछ भी पता न लगा।
तीन सप्ताह हुए पंडाइन का भी देहांत हुआ। अब रधिया की बात कोई नहीं बता सकता।