उस डिब्बे में 27 आदमियों के बैठने की जगह थी और सब-की-सब छिकी हुई थीं। गोआ जाकर सत्याग्रह करने के इच्छुक सत्याग्रहियों से सारा डिब्बा भरा हुआ था और
सहज संयोग से डिब्बे में कई सूबों या राज्यों के सत्याग्रही थे।
सत्याग्रहियों में तीन या चार वृद्धजन, एक तरुणी और शेष सभी बाईस से पैंतीस साल तक की उमरवाले नौजवान थे। देखने से सत्याग्रहियों में मजूर या निम्न मध्यवर्ग
के लोग ही अधिक लगते थे, कुछेक लोगों के चेहरों पर मध्यवर्गी चिकनाई थी, मगर अमीरी चरबी तो एक के भी चेहरे या देह में नजर नहीं आ रही थी। गाड़ी के अन्य
डिब्बों में भी सैकड़ों सत्याग्रही अखिल भारतीय प्रदेशों के। जिस डिब्बे की कथा है उसमें संयोग से अपने-अपने दल से अलग होकर, कई सूबों के सत्याग्रही
स्वतंत्र यात्रा कर रहे थे।
बेलगाम से मैं समझता हूँ, सात-आठ स्टेशन पहले किसी जंक्शन पर वह एकाएक डिब्बे में घुस आया, सो भी तब, जब ट्रेन निकलने लगी थी। दरवाजा खोल अंधड़ की तरह दाखिल
होकर, कहीं और जगह न देख वह एक सत्याग्रही की गोद में बैठने लगा और 'हें! हें!' की आवाज और भर्त्सना की दृष्टि से दुत्कारा गया। झन्ना-झन्न आवाज हुई।
पाँवों में उसके घूँघरू बँधे थे! उस सत्याग्रही की गोद से उछलकर वह एक बूढ़े सत्याग्रही की पलेथी पर जा पहुँचा और वहाँ से भी 'साकल' धकियाया गया। अब
कहीं-न-कहीं बैठने का ही दृढ़ निश्चय कर वह उलटे पाँव पीठ-पीछे मुड़ा। कई तेज उलटे कदम झना-झन्न बढ़ाकर वह तरुणी सत्याग्रहिणी की गोद में आखिरकार बैठने को
चला। इस पर सारे डिब्बे के सत्याग्रहियों ने क्रोध और भर्त्सना से ललकार कर डाँटा - 'कैसा आदमी है? इसे आगा-पीछा, पुरुष-स्त्री, स्थान-कुस्थान नजर नहीं
आता!' और वह चमका। लोगों के चेहरों से उसे मालूम पड़ा कि शायद उससे कोई चूक बन पड़ी। बिजली की तेजी से मुड़कर उसने देखा कि अपने ठीक पीछे उस तरुणी को कौतूहल मंद
मुस्कराते पाया। झट से तरुणी के समक्ष हो वह उसके चरणों पर गिर पड़ा, 'क्षमा करो, माँ! जगह पाने की घबराहट में मैंने तुमको देखा नहीं। मुझ मुर्ख की चूक माफ
करो, माँ!'
'नहीं भाई! नहीं भाई!! मैं। नाराज नहीं। क्या करते हैं?' तरुणी ने अपने पैर उसके सिर के नीचे से सावधानी से हटा लिया। इसके बाद ही वह झपाक से झन्न से, चमककर
डिब्बे के फर्श पर नृत्य की मुद्रा में खड़ा हो गया। अब सारे-के-सारे सत्याग्रहियों ने उस आदमी को गौर से देखा - काला, दुबला, लंबा दीखने वाला, सुंदर नासिका
और मुख, बड़ी-बड़ी आँखें, केश उसके गंदे मगर घुँघरवाले, बाटा के सस्ते बूट, खाकी रंग की नेकर और हरे रंग की गंजी। गले में लटकती एक बड़ी सीटी, हाथ में खंजड़ी,
पाँव में घुघँरू पहले की कह चुका हूँ।
नृत्य मुद्रा में खड़े होती ही पहले उसने गले में लटकती सीटी बजाई - जैसे कार्यारंभ का संकेत किया। उसके बाद कड़ीं, सुरीली खंजड़ी पर तीन बार
'त्रिक-त्रिक-त्रिक' आवाज पैदा की और फिर लचककर, त्रिभंगी बनाकर, मराठी के लोकगीत पवाड़े के छंद में कुछ गाने लगा, जिसका हिंदी अनुवाद करीब-करीब इस तरह होना
चाहिए -
चाहिए, सभी को जगह -
चाहिए जगह!
चाहते विश्व रे, विश्वनाथ,
चाहता देश रे, राजा,
चाहते आज भी जमींदार
मीलों धरती,
चाहते कृषक पृथ्वी बीघों
पर मैं हूँ भोंदू भट्ट
चाहता डेढ़ फुट जितना
छोटा कोना
इस महामही का।
चाहिए सभी को जगह -
चाहिए जगह!
ईश्वर को सृष्टि रचने के लिए,
राजा को राज करने के लिए,
जमींदार को ऐश करने के लिए,
किसान को परिवार पालने के लिए,
भोंदू भट्ट को भी
जरा-सा बैठकर दम लेने के लिए,
जिंदगी की यात्रा में,
कठिनाइयों की रेलगाड़ी में,
चाहिए जगह -
चाहिए सभी को जगह!
जगह के लिए ही
सभी के आग्रह
सभी के दुराग्रह
सत्याग्रह कभी-कभी
जैसे हम अभी-अभी
गाते हैं गोआ-गोआ किसलिए?
जाते हैं गोआ-गोआ किसलिए?
सत्य क्या नहीं, यह
गोआ है एक जगह?
इसलिए सीधी-सी बात यह -
चाहिए सभी को जगह -
जगह! जगह!! जगह!!!
डिब्बे के सभी सत्याग्रहियों के माथे पर भोंदू भट्ट के प्रदर्शन से चिंता की रेखाएँ उग आईं - सभी को एक बार ऐसा लगा जैसे उन्होंने आदमी को पहचानने में धोखा
खाया हो। अँधेरे में सर्पवत दीखनेवाली वस्तु के निकट आने पर सुगंधित मोगरे का हार नजर आने से जो भाव चेहरे पर आते हैं, उन्हीं भावों से सबके चेहरे रंग उठे।
'इधर मेरे पास आकर विराजो, भाई!' इंदौर मध्य भारत के एक सत्याग्रही तरुण ने भोंदू भट्ट को अपनी ओर बुलाते हुए कहा, 'फिलासकर के वेश में "बुद्ध" तो सैकड़ों
देखने को मिले थे, पर बुद्ध के वेश में फिलासकर आज ही नजर आए आप।'
'इधर आइए! इधर आइए!' की आवाजों से डिब्बा गूँज उठा। क्षण भर पहले जिस शख्स को लोग इंच भर जगह देने पर राजी नहीं थे, उसे ही अब हरेक आदमी अपनी-अपनी जगह बाँटने
को तैयार हो गया। मैंने सोचा, आदमी धीरज न छोड़े तो समय बदलते देर नहीं लगती। इसी वक्त उस तरुणी ने भोंदू भट्ट को आवाज दी, 'तुम मेरे पास आकर बैठो, क्योंकि
तुमने मुझे माँ कहा।' और भोंदू भट्ट बंदर की तरह उछल, खंजड़ी पर थाप मारकर, तरुणी की बगल में जा बैठा।
'आप क्या करते हैं?' दिल्ली के एक सत्याग्रही ने पूछा।
'कानून भंग...!'
'कानून भंग?' एक मराठे सत्याग्रही ने आश्चर्य और अविश्वास से कहा, 'किस देश के कानून आप तोड़ते हैं?'
'एक नहीं, दो-दो देशों के...।'
'ताज्जुब!' एक मुसलमान सत्याग्रही ने हैरत से कहा, 'दो-दो मुल्कों के कानून जनाब तोड़ते हैं! उन मुल्कों के नाम भी होंगे?'
'हैं न...' भोंदू भट्ट ने दृढ़ता से कहा, 'पुर्तगाल और भारत। इन दोनों ही राष्ट्रों के कानून में करीबन हर महीने सारी जिंदगी तोड़ता चला आ रहा हूँ।'
'किस तरह?'
'मैं गोआ की सीमा से विलायती सामान भारत में लाता हूँ और भारत से जरूरी चीजें टैक्स-फ्री गोआ पहुँचाता हूँ।'
'खूब!'
'सत्याग्रहियों के डिब्बे में बूटलेगर!'
'स्मगलर!'
'सीमा-चोर!'
'आप कहाँ तशरीफ ले जा रहे हैं?'
'वहीं, जहाँ आप सब भाई जा रहे हैं?'
'क्यों? सत्याग्रह करने?'
'नहीं तो...।'
'तो क्या भारत से कोई माल गोआ की सीमा में "स्मगिल" करने?'
'हाँ...।'
'तब आप हमारे साथ क्यों चल रहे हैं?'
'आप ही लोगों को मैं गोआ के अंदर "स्मगिल" करूँगा न। गोआ के जागरण के लिए भारतीय जवान जरूरी हैं। जरूरी और महँगी चीजें ही मैं सीमा के इस पार से उस पार
"स्मगिल" करता हूँ। सारे पहाड़ी बीहड़ पथ और जंगली पगडंडियाँ मेरी जानी-जोई हैं। मैं ऐसे रास्ते आप लोगों को ले चलूँगा कि जब तब आप बिल्कुल अंदर न पहुँच जाएँ
तब तक, कोई आपकी आहट तक न पा सके।'
'मगर हम सीमा पर ही सत्याग्रह करें, तो क्या बुरा-बहुत अंदर क्यों जाएँ?' एक सत्याग्रही ने कहा।
'इसलिए कि गोआ के दूर-देहातों की जनता भी जोति की किरणें देखे और जागरण का संदेश सुने। सीमा पर सत्याग्रह ऊपर-ऊपर दवा है। अंदर तक असरदार दवा ही रोग दूर करती
है।'
'जय हो भोंदू भट्ट की!' मध्यप्रदेश के एक वृद्ध सत्याग्रही ने कहा - 'बिलकुल सही बात। मैं तो आप ही के नेतृत्व में सत्याग्रह करूँगा। जहाँ भी आप कहेंगे। मैं
गोआ की सही में सेवा करने आया हूँ, केवल दिखावे के लिए नहीं।'
'मगर, मैं नेता नहीं, भोंदू भट्ट हूँ और सत्याग्रही नहीं, सीमाचोर हूँ। केवल श्रद्धा से मैं आप लोगों को गुप्त पहाड़ी राह से गोआ के हृदय तक पहुँचा दूँगा।
इसके बाद मैं रुकूँगा नहीं। फौरन लौट जाऊँगा। उधर से काफी माल इधर लेकर आना है।'
'क्या माल है?'
'फाउंटेन पेन, घड़ियाँ, श्रृंगार और शौकीनी की विलायती चीजें, जो भारत में भारी टैक्स के कारण बहुत महँगी मिलती हैं। सैकड़े में सौ के मुनाफे का धँधा है।'
'फिर भी, तुम्हारे तन पर मुनासिब कपड़े तक नहीं।'
'मगर सौ-में-सौ नफा उठाने वाला व्यापारी मैं तो नहीं। मैं तो भोंदू भट्ट भर हूँ।'
'जब सारा माल इधर-से-उधर तुम्हीं करते हो तब भोंदू भट्ट का व्यापारी न होना कस्तूरी मृग का अपने ही भीतर की परम सुगंध से अपरिचित होना नहीं तो क्या?'
'सुगंध से अपरिचित नहीं, मेरे कोई है ही नहीं कि जरूरत से ज्यादा कमाऊँ या जोड़ूँ।'
'फिर यह खतरे का धंधा क्यों करते हो?'
'उसी के लिए।' मृदु गंभीर होकर भोंदू भट्ट ने कहा, 'वह है न मेरी...।'
'कौन?' कई सत्याग्रहियों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
'कौन है, तुम्हारी पत्नी?'
'रखेली?'
'माशूका?'
'मैं पूछता हूँ।' मध्यप्रदेश के वृद्धजन ने जरा धिक्कार-भरे भाव से प्रश्न किया - 'किसी की अगर "कोई" हो, तो उसे पत्नी, रखेली या माशूका ही होना चाहिए?
माँ-बहन-बेटी नहीं हो सकती?'
'माँ बहन बेटी के लिए जान देने वाले दुनिया में हैं - भरे पड़े हैं।' अब तक चुप सत्याग्रहिणी तरुणी ने विवाद में पहली बार योग दिया - 'मगर आदमी दीवाना होता है
किसी चमकचंदा ही के लिए।'
'माँ ने सच कहा, भोंदू भट्ट दीवाना है।'
'किसका?'
'अपने प्रिय का नाम औरत ही नहीं प्रेमी मर्द भी मुँह पर मुश्किल से लाते हैं।'
'ऐसा क्यों होता है, भाई जी?' तरुण सत्याग्रहिणी ने पूछा।
'दूसरों की दूसरे जानें, मैं तो अपने उनका नाम इसलिए नहीं बतलाता कि लोग समझेंगे नहीं और मेरी जिंदगी दुश्वार कर देंगे।'
'मतलब?'
'यहाँ कौन किसकी समझने की कोशिश करता है? ऊपर-ऊपर से टटोलकर झट से लोग राय कायम कर लेते हैं, भरसक गलत। और उनकी मिट्टी पलीत होकर ही रहती है जिनके बारे में लोग
गलत राय बना लें।'
'मगर, हम आपको पहचान गए?'
'क्या?'
'वही...।'
'फिर भी... ?'
इस पर पीछे से किसी बनारसी सत्याग्रही ने धृष्टता से चिल्लाकर कहा, 'फकत दुम की कसर है!'
मगर उस सत्याग्रही का वह 'रिमार्क' किसी को भी अच्छा नहीं लगा। क्योंकि डिब्बे भर के सत्याग्रहियों की सहानुभूति भोंदू भट्ट के मनोरंजक व्यक्तित्व के
प्रति थी।
'किसी सत्याग्रही को किसी भी भाई-बहन के लिए ऐसी बात कहना शोभाजनक नहीं है।'
'मगर भोंदू भट्ट बुरा नहीं मानते।' भोंदू भट्ट ने उस सत्याग्रही से कहा, 'श्रीमान के पास कोई फाजिल दुम यदि हो तो मुझे उधार देकर कसर पूरी कर सकते हैं।'
'साक्षात् पशु: पुच्छ विषाणहीन।' अधेड़ मराठी सत्याग्रही ने बनारसी सत्याग्रही की तरफ देखकर कहा।
'कहाँ-से-कहाँ बात जा पहुँची।' तरुणी ने रस भंग होते देखकर विरोध के स्वर में कहा, 'कहाँ तो भाई साहब से उनकी प्रियाजी का नाम पूछा जा रहा था कहाँ अप्रिय बात
बनने लगीं। हाँ भाई साहब!' तरुणी सत्याग्रहिणी ने भोंदू भट्ट को पुन: छेड़ा - 'वह आपकी कौन हैं?'
'मैं पूछता हूँ माताजी!' भोंदू भट्ट ने कहा, 'जिसे कोई प्रिय माने उससे दुनिया या समाज की कोई रिश्तेदारी होनी ही चाहिए? वह मेरी प्रिय हैं।'
'कौन आखिर?'
'आप लोग हँसेंगे। भोंदू भट्ट की मूर्खता पर...।'
'लीजिए मैं तो दाँत भींच लेती हूँ।' तरुणी ने प्रसन्न नटखट भाव से भोंदू भट्ट से आग्रह किया, 'मैं हर्गिज नहीं हँसूँगी।'
'हँसने में भी बुरा होता है, वाह भाई भोंदू भट्ट वाह!'
'वह तुम्हारी कौन है?'
'वह गोआ के विवास नगर के पुलिस अफसर की पत्नी है।'
'परस्त्री?' इंदौरवाले सत्याग्रही ने फटकारभरी आवाज से पूछा।
'परस्त्री वह पीछे बनी… ' भोंदू ने सुनाया, 'विवास नगर के पुलिस अधिकारी से विवाह होने के पहले ही से मेरा मोह मीरा पर है।'
'मीरा नाम है, अब पता चला!'
'मीरा किसी को जपती थी मगर यह हैं कि मीरा को जपते हैं।'
'मगर जब से उसकी पुलिस से शादी हुई।' भोंदू ने कहा, 'तब से वह मीरा से मैरी बन गई है।'
'ऐसा क्यों हुआ?'
'पुलिस अफसर गोयनी ईसाई है न - फ्रेंसिस डि-सिलवा। उसने शादी करने के पहले ईसाई मजहब में मिलाकर मीरा को मैरी डि-सिलवा बना लिया था।'
'मीरा को पुर्तगाली पुलिस ने मैरी क्यों बनाया?' बिहार के सत्याग्रही ने पूछा।
'क्योंकि, मीरा का बड़ा भाई क्रांतिकारी विचारों का युवक था। उसने फिरंगियों के विरुद्ध पार्टी में अपना नाम लिखाया था। फ्रेंसिस डि-सिलवा ने पहले तो भाई को
फँसाकर अफ्रीका की जेल में भेजा और फिर सारे जनपद की जनता में त्रास फैलाने के लिए उसकी नौजवान और सुंदरी बहन को ईसाई बनाकर अपनी औरत बना लिया। मैंने विरोध किया
तो कोतवाली में बंद कर मेरी वह पिटाई की कि जब भी पुरवई हवा चलती है, तब मुझे स्त्री-प्रेम के प्रसाद का स्वाद याद आ-आकर रहता है। यह तो उसने दया की, नहीं तो
फ्रेंसिस हरामी मुझे मार ही डालता।'
'किसने दया की?'
'उसी मीरा ने। उसी ने फ्रेंसिस को समझाया कि मैं खाली खोपड़ीवाला आदमी, मतलब आधा पागल, पूरा सनकी मगर निर्दोष आदमी हूँ। तब उसने मुझे हवालात से बाहर किया।'
'वह तुमसे प्रेम करती है?'
'मैं आपसे प्रेम करूँ तो बदले में आप प्रेम ही करें यह जरूरी नहीं, आप दया भी करें तो कम नहीं - वह मुझ पर दया करती है।'
'कहाँ-कहाँ?' उसी बनारसी से पूछा - 'घर के अनेक हिस्से होते हैं, रसोईघर, बैठक, सोने का कमरा - मीरा से मैरी बनकर - वह किस जगह तुम पर दया करती है?'
'दिल में दया है उसके दोस्त!' भोंदू भट्ट ने बनारसी से बिना बिगड़े कहा, 'मेरे लिए उसके दिल में दया है।'
'और फ्रांसिस डि-सिलवा के लिए मैरी के दिल में क्या है?'
'घृणा, घृणा।' कुछ खुश-सा होकर भोंदू भट्ट ने सुनाया, 'क्योंकि, जबरदस्ती वह ईसाइन बनाई गई है। वह चाहती है कि पुर्तगाली राज गोआ से हटे और फ्रेंसिस डि-सिलवा
संकट में पड़े! उसने मुझसे कहा...।'
'क्या कहा?'
'कि अगर तुम भारत के सत्याग्रहियों को विवास तक ले आओ...'
'तो?'
'तो, गोआ जब स्वतंत्र हो जाएगा तब पुलिस फ्रांसिस डि-सिलवा को तलाक देकर वह मुझसे...।'
'ओहो!' उज्जैन के सत्याग्रही ने कहा - 'देखता हूँ गोआ की मुक्ति में दूसरे की लुगाई से आपकी सगाई का संबंध खाल-बाल की तरह जुड़ा हुआ है। मगर इस पचड़े में हम
क्यों पड़ें?'
'आप लोगों को तो सत्याग्रह करना ही है।' भोंदू भट्ट ने गंभीरता से कहा, 'फिर उसे इस तरह करने में क्या हर्ज है कि आप लोग सत्याग्रह भी कर लें और मेरी सगाई भी
"सेटिल" हो जाए।'
'आप मीरा बहन को बहुत चाहते हैं, देखती हूँ।' तरुणी ने कहा।
इसके उत्तर में स्वीकार भाव से भट्ट ने दमड़ी के गुड़ की तरह मीठा बना दिया। सब लोग हँस पड़े।
'यह चाह क्या है भाई?' तरुणी ने मजाकिया प्रश्न किया।
'लिपटन की चाह!' बनारसी बेढंगा बोला 'सरदी में गरमी और गरमी में ठंडक पहुँचानेवाली।'
सत्याग्रहियों में से कई बनारसी की उक्ति पर हँसे। लेकिन दूसरे कई तरुण सत्याग्रहिणी का लिहाज कर मौन ही रहे पर, भोंदू भट्ट की मस्त मुद्रा पर बनारसी
सत्याग्रही के तानों का कोई भी प्रभाव नहीं। बल्कि चाह के प्रश्न पर जैसे उसके उत्साह में उन्माद आ गया। एकाएक चमककर खड़ा हो, खंजड़ी पर थाप मार, नृत्य
मुद्रा ग्रहण कर, घुँघरू झनझना भोंदू भट्ट एक पवाड़ा गाने लगा। इस बार प्रेम-पवाड़ा जिसका भाव करीब-करीब यों -
तुम पूछ रही हो :
'आह, क्या है चाह क्या?'
मैं क्या बतलाऊँ वाह क्या!
गूँगे ने गुड़ खाया स्वाद क्या बतलाए?
जो जिसको जाने सो क्योंकर लब पर लाए?
मैं क्या बतलाऊँ वाह क्या!
आह, क्या है चाह क्या?
तुम पूछ रही हो :
'दिल, कोई देता कैसे?'
मैं इस हैरत में - कोई ले लेता कैसे?
बेछीने, बेझपटे, बगैर डाका डाले -
लुटते हैं नित्य ही तो दुनिया में दिलवाले -
लूटते हैं दिलबर!
मैं क्या बतलाऊँ, वाह क्या!
आह, क्या है चाह क्या?
तुम पूछ रही हो :
'दीपक पर जल जाने में
लगते हैं कहाँ सुर्खाबी पर परवाने में?'
मैं क्या बतलाऊँ?
सचमुच यों मर जाने में
मधुरता कहाँ?
(सहमती समझ समझाने में)
पर स्वाद कहीं मधु है निश्चय
जिसकी मिठास से लग निर्भय
मर-मरकर बनते मृत्युंजय
हम-तुम-वे अगजग-जन जय, जय
मैं क्या बतलाऊँ, वहा क्या!
आह, क्या है चाह क्या?
ईमान की बात पूछिए तो भोंदू भट्ट की बातों, उसके बेतुके गानों और फक्कड़ मस्त स्वभाव से उस डिब्बे के सभी सत्याग्रही उसकी तरफ आकर्षित हुए और सीमा के
सत्याग्रही-शिविर में पहुँचने पर संचालकजी से हम सभी ने आग्रह किया कि वह हमें भोंदू भट्ट के पथ-प्रदर्शन में गोआ की सीमा में सत्याग्रह करने जाने दें।
संचालकजी के राजी होने में बहुत विलंब नहीं लगा। लेकिन भोंदू भट्ट ने सत्याग्रह-संचालक और हम सबसे वचन ले लिया कि गोआ के अंदर का रास्ता उसने बतलाया यह भूलकर
भी किसी को न बतलाया जाए। क्योंकि, इससे उसके पेशे को धक्का लगेगा। इस पर सत्याग्रह-संचालकजी ने भोंदू भट्ट को पूर्ण आश्वासन देते हुए कहा, 'मुझे आपकी बातें
मंजूर, बशर्ते कि अपनी मस्त अदा से एक कविता आप मुझे सुना दें।' इस पर तुक जोड़कर गाने, कमर मोड़कर नाचने को सदा आतुर भोंदू भट्ट हाव-भाव मुद्रा से लैस हो
खंजड़ी बजाकर गाने लगा -
जब कि आसमान में
न देव रह गए...
रह न गए दुनिया में देवालय...
आज अर्चना को मेरा मन
बड़ा व्याकुल है
आज वंदना को!!
इल्म की कसम ज्यों फिल्म की रील है
कौन? - वही, मेरा मन!
ओझल मृग के पीछे भागता ज्यों भील है :
कौन? वही
मेरा मन व्याकुल
हवा-हैरान हृदयेश्वरी का काकुल!
अराजक मैं हूँ
अंधाधुंध अरे मेरे मारे
आसमान पृथ्वी पर गिरे
और बेचारे देव मारे-मारे फिरें!
सौ-सौ माइल घंटे
मेरी रफ्तार से
धूल उड़ी पंथों की;
पत्थर मीलों के उड़े
सड़क-संसार से!
प्रेम-नेम, हेन-तेन-
भावोंभरी भावनाएँ,
सभ्यता की मान्यताएँ,
सब रे समाप्त
मेरी तर्जनी के तर्जन से!
एक ही इशारे, एक बात, एक वर्जन से!
आज मेरे कारण
कुछ भी तो नहीं रहा जिसे कहें पुरातन।
हृदय, प्राण
बुद्धि, ज्ञान, लोचन, दर्शन
सब रे समाप्त
मेरी तर्जनी के तर्जन से!
एक ही इशारे,
एक बात, एक वर्जन से!
अब मैं हूँ - बिलाशक - और मेरी झक है,
(ईश्वर में शक है)
मैं जो कहूँ - 'स्वर्ग, स्वर्ग,
- 'नरक' नरक है!'
चतुर्भुज छोटे हैं
बड़ा पाँचहाथ में...
नागनाथ नहीं साँपनाथ
- विश्वनाथ मैं
जबकि आसमान में
न देव रह गए,
दुनिया में रह न गए देवालय,
आज अर्चना को मेरा मन
बड़ा व्याकुल है
आज वंदना को!!
कहानी के कलेवर में कविता या तुकबंदी की गुँजाइश कम ही होती है, पर यह कहानी नहीं और न इसका लेखक कहानीकार ही है। यह तो गत 14 अगस्त को गोआ के मैदान में
सत्याग्रह करनेवाले एक अदने देश-सेवक का लिखा हुआ 'रिपोर्ताज' या प्रत्यक्षदर्शी का विवरण मात्र है।
भोंदू भट्ट बात-बात में कोई-न-कोई पवाड़ा बना और गाकर सुनाने लगता, उसकी भाषा आधी मराठी, आधी कोंकणी। ऊपर उद्धृत कविताएँ तो कर्कश अनुवाद मात्र हैं। उनमें जो
जान है, वह भोंदू भट्ट की उक्तियों की है और जो कटु-कर्कश कमजोरियाँ हैं, सब इस रिपोर्ताज के अकुशल लेखक की हैं।
हमारे दल का नेतृत्व यही बनारसीजी कर रहे थे, जिनकी चर्चा कई बार पहले आ चुकी है। बनारसीजी के पीछे उज्जैन के तरुण सत्याग्रही श्री बद्रीविशाल थे, उनके पीछे
बंबई के हरिजन वृद्ध रामलालजी थे और उनके पीछे बंगाल के तरुण त्रिभुवन देव चक्रवर्ती थे, चक्रवर्ती महाशय के पीछे वह तरुणी सत्याग्रहिणी थी जो शिविर से ही
जुलूस का नेतृत्व करने पर तुली थी और शिविर संचालक के एक निर्णय पर, कि दल का नेतृत्व श्री राधारमणजी बनारसी करेंगे लाचारी से बीच में चल रही थी। बनारसीजी के
भी आगे भोंदू भट्ट नाचता, कूदता, खंजड़ी सीटी बजाता, मार्ग बतलाता चल रहा था। इस तरह अपने रंग में सत्याग्रहियों के उस जत्थे का सही संचालक वह सीमाचोर
विचित्रवेशी आशुतुक्कड़ ही था। यह बात शायद उसकी समझ में भी आई, तभी तो विवास से तीन मील पहले ही उसने आगे-आगे चलना बंद कर दिया था यह कहकर कि उसका काम केवल
राह दिखाना है। सो भी हृदयेश्वरी मैरी को प्रसन्न करने के लिए। वह काम अब करीब-करीब हो चुका था।
'मैं अब आगे-आगे नहीं जाऊँगा।' उसने कहा।
'क्यों भाई?' तरुणी सत्याग्रहिणी ने पूछा।
'क्योंकि, मैं मरने के लिए सत्याग्रहियों के साथ यहाँ तक नहीं आया हूँ, मेरी ओर से सारी दुनिया मर जाए? खस कम जहाँ पाक। केवल हम बचे रहें - मैं और मेरी वह
मैरी डि-सिलवा। सत्याग्रह करके जान दे मेरा मुद्दई। मैं सत्याग्रही नहीं सीमाचोर हूँ, विवेकी नहीं भोंदू भट्ट हूँ और अपना नाम और पेशा विश्व के बड़े-बड़ों से
बदलने को तब तक तैयार नहीं जब तक वह है। वही मेरे दिल के कूड़ेखाने पर भी अपनी मुस्कान की चाँदनी, अनुराग के गुलाब खिलानेवाली मेरी मैरी-मैरी।'
'भाई' - तरुणी ने कहा - 'तुम भी तो भारतवासी हो, या नहीं? ऋषि-गुरु-पितृ-ऋणों की तरह जननी-जन्मभूमि का भी ऋण होता है।'
'होता होगा ऋण माँ!' भोंदू भट्ट ने कहा, 'पर भोंदू भट्ट न तो किसी देश में रहता है और न किसी का कर्जदार है। मैं अपनी प्रियतमा के हृदय नगर का नागरिक हूँ।
दर-दीवार दरपन भए...।'
'क्या?' तरुणी ने पूछा।
'बचपन में साधु ने सुना था...।'
'क्या'
'दर-दीवार दरपन भए,
जहं देखों तहं तोहि,
कांकर, पाथर, ठीकरी
भए आरसी मोहि।'
भोंदू भट्ट का मीरा पर ऐसा एकांत प्रेम देखकर जैसे उस तरुण सत्याग्रहिणी में मोह का मधुर पानी आ गया। उसने पूछा -
'तुम सबको अपनी मीरा ही की तरह देखते हो?'
'सबको...।'
'मुझे भी?'
'हाँ', माँ - भाव विह्वल उस नर-लंगूर ने कहा, 'अपनी मीरा ही समझकर रेल के डिब्बे में आपके चरणों पर माथा रख दिया था तो बस, अब मैं आगे नहीं जाऊँगा - रास्ता
सीधा है, आधी मील पर विवास नगर पर चौमुहानी मिलेगी। वहीं पर पुलिस कोतवाली है जिसके पीछे क्वार्टर में मैरी है। आप लोगों के संकट में पड़ते ही वह समझ जाएगी कि
उसके दरवाजे तक गोआ की पुकार कैसे आ पाई है।'
वहाँ से वह आगे नहीं बढ़ा। जुलूस बनारसीजी के नेतृत्व में आगे बढ़ा तरह-तरह के आजाद नारे लगाता हुआ। मैं उनके बिलकुल पीछे था। भोंदू भट्ट के चले जाने पर मैं
कुछ भयभीत-सा हो गया। मुझे लगा कि कुछ ही आगे विवास नगर की वह चौमुहानी होगी जहाँ पहले ही बर्बर पुर्तगाली पुलिस सैनिक हमारी मिट्टी पलीत करके छोड़ेंगे। जान से
भी मार सकते हैं। 'देखते ही गोरी मारो' की आज्ञा पुर्तगाली सैनिकों को हुई तो क्या मैं मर जाऊँगा? अरे ना! तबाही के लिए सत्याग्रह करने नहीं आया हूँ - आया हूँ
दुनिया की वाहवाही लूटने।
मैं काँटा निकालने के बहाने रुक गया और जुलूस नारे लगाता, गाता, जय-जय हिंद करता आगे निकल गया। दस मिनट, बीस-तीस मिनट और धायँ! धायँ! धायँ! तीन आवाजें। तो
क्या पुर्तगालियों ने हम पर फायरिंग शुरू कर दी? मैं क्या करूँ? आगे बढ़कर देखूँ या पीछे हटकर जान बचाऊँ? मगर पीछे भी अगर पुर्तगाली मिले तो?
इतने में वही नजर आया - भोंदू भट्ट, उधर को झपटा हुआ जाता, जिधर सत्याग्रहियों का जुलूस गया था। उसे देखकर हिम्मत फिर से बढ़ गई और उसके साथ मैं भी उसके
पीछे-पीछे विवासनगर की चौमुहानी की तरफ बढ़ा। भोंदू भट्ट भी सुरक्षित स्थान से तमाशा देखने के इरादे से शायद आया था, क्योंकि, ज्योंही सत्याग्रही नजर आए वह
एक मकान के कोने में दुबक रहा।
अब सामने चौमुहानी का मोर्चा स्पष्ट नजर आने लगा। चौमुहानी के बीच में एक छोटा-सा पुराना मंदिर था। मंदिर की उस ओर पुर्तगाली सशस्त्र सैनिक कुछ करने पर
कटिबद्ध-से खड़े थे और इस ओर सत्याग्रही मरने पर कटिबद्ध। प्रश्न था आगे बढ़कर मंदिर के शिखर पर तिरंगा झंडा फहराने का। बनारसीजी ने मौके पर तर्क किया, कि दल
के नेता को पहले खतरे में नहीं पड़ना चाहिए। अत: कोई दूसरा आगे बढ़े। किसी दूसरे ने कहा, 'कोई दूसरा आगे बढ़े।' हँसकर उज्जैन के बद्रीविशालजी आगे बढ़े और फौरन
पुर्तगालियों ने उनका सीना फोड़ दिया। हाथ में राष्ट्रीय झंडा लिए वह धीर धराशायी हो गया। अब बंगाल के त्रिभुवन देव चक्रवर्ती झंडा सँभालने को आगे बढ़े और शहीद
हुए। इसके बाद कई मिनट बीतने पर भी कोई सत्याग्रही जब आगे न बढ़ा तब वही तरुणी राष्ट्रीय झंडे की इज्जत सँभालने को आगे बढ़ी। और उसके बढ़ते ही मैंने देखा,
मेरे सामने से भोंदू भट्ट तीर की तरह मैदान की तरफ झपटा, 'पहले मैं मीरा! पहले मैं!' लेकिन जब तक वह पहुँचे तब तक पुर्तगाली गोली कंधे में लगने से वह तरुणी भी
धरती पर गिर पड़ी।
अब मैदान में भोंदू भट्ट! उसने झपटकर राष्ट्रीय झंडा हाथ में लिया। फिर उछलकर दाहिने गया, बायें गया। पीछे मुड़ा, आगे बढ़ा और लपककर मंदिर की दीवार पर चढ़ ही
तो गया। और ऐसा नहीं था, कि पुर्तगाली सैनिक तमाशा देखते थे, गोलियाँ वे बराबर बरसा रहे थे। पर, वह बच-बच जाता था। भोंदू भट्ट मंदिर के शिखर पर जब झंडा बाँधने
लगा, तब कहीं सैनिकों का निशाना लग पाया और जब झंडा ऊपर फहराने लगा तब भोंदू भट्ट भू पर लोटन कबूतर की तरह छटपटाने लगा।
उसकी अंतिम पुकार- 'हे राम!' नहीं, 'स्वतंत्र गोआ!' नहीं, 'जय भारत!' भी नहीं। हमेशा के लिए चुप होने के पहले वह विजयी वीर की तरह हुँकार रहा था -
'मैरी! देखा तुमने? मैं उन्हें ले आया!'