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निबंध

गांधी जी की मानव-दृष्टि : नियति और संभावना

गिरीश्वर मिश्र


महात्मा गांधी का प्रसिद्ध वाक्य कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है' बहुत कुछ कह जाता है। गांधी जी कोरे दर्शन को निष्प्राण शरीर सरीखा मानते थे। मनुष्य के स्वभाव को ले कर उनके विचार खुद उनके अनुभवों और उनसे उपजी समझ से बने थे। यही नहीं अपने विचारों के लिए प्रमाण भी गांधी जी अपने जीवन में जाँचते-परखते रहे। उनका मन और उनका आचरण दोनों उनकी सत्य की खोज की अपनी प्रयोगशाला का काम करते थे। उनकी बातें और कहने का आत्मविश्वास भरा लहजा उनके अपने प्रेक्षणों या ओब्जर्वेशन पर टिका था। इस ज्ञान यात्रा में वे खुद प्रयोगकर्ता भी थे और प्रयोग के पात्र भी थे। उनकी खासियत इसमें है कि वे अपने मन में आने वाले विचारों को प्रयोगों से मूर्त रूप देते थे। उनके दी ब्योरों को पढ़ने से लगता है कि उनका आत्मविश्लेषण सही और सटीक है। गांधी जी की सच की तलाश की कसौटी मन, वचन और कर्म के बीच का तालमेल या संगति ही थी। गांधी जी अपने को अध्यात्म में रमा मानते थे पर उनका अध्यात्म उनकी शाख्सियत और उनकी दैनिक जिंदगी में पूरी तरह रच बस गया था। वह खुद को यानी आदमी को अहिंसा और सत्य के आदर्श का अभ्यासी या उसके पथ का यात्री मानते थे। वे सत्य और अहिंसा को अभिन्न मानते थे। उनका समीकरण था अपने प्रति सच्चाई अहिंसा से ही आती है। उनकी मानें तो अहं केंद्रित आत्मबोध छिछला होता है, क्षणिक सुख से जुडा। इसकी जगह वे आत्मसमर्पण या कहें अहं को विगलित करने को कहते हैं। अपने ऊपर ओढ़ी गई तरह तरह की झूठी पहचानों को उतारने को कहते हैं। जातिगत अन्याय, संप्रदायवाद, अस्पृश्यता जैसे मुद्दों को उन्होंने रचनात्मक ढंग से दुत्कारा। अहम् को खोकर ही वास्तविक आत्मबोध हो सकता है, इस बात को उन्होंने हिंदू के रूढ़िगत अर्थ से उबार कर चरितार्थ किया। वे व्यक्ति की अवधारणा को हमेशा समाज में उसकी भूमिका और उससे जुड़े दायित्वों के साथ ही देखते थे।

गांधी जी मानते थे की व्यक्तिगत स्वातंत्र्य शुद्ध अहिंसा से ही संभव है। व्यक्ति की वैयक्तिकता का वे आदर करते थे पर सामाजिक परस्परनिर्भरता को सच्चाई की कसौटी मानते थे क्योंकि उससे व्यक्ति को उसके विश्वास को जीने की गुंजाइश बनाती है। दायित्व वहन करना जरूरी हो जाता है । इस विचार का प्रखर रूप 'सर्वोदय' के विचार में दीखता है जो अकेले व्यक्ति नहीं, उसको समेटते हुए सबके कल्याण की चिंता करता है। और फिर समाज के अंतिम जन की 'अंत्योदय' में खास चिंता भी करते हैं। इस तरह सबका और सर्वाधिक भला जिसमें ऊँच-नीच, छोटा-बड़ा का कोई भेद नहीं, सर्व समावेशी होना ही मनुष्यता की दरकार है। स्पष्टतः यह एक तरह की मानववादी दृष्टि थी। गांधी जी यह भी मानते थे विश्व में कोई अपरिमित शक्ति है और हर आदमी उसकी एक किरण है। वह शक्ति ही विश्व की स्थिति, संहार और सृजन को नियमित करती है। वह प्रायः अदृश्य होती है, पर इससे वह कम सच नहीं हो जाती। गांधी जी मानते थे की मनुष्य एक समग्र या 'होल' का अंश है, वैसे ही जैसे जल बिंदुओं से सिंधु बनता है और एक-एक धागे से वस्त्र और शरीर के साथ उसके अंग जुड़े होते हैं। हर व्यक्ति दूसरे से अलग तो होता है पर उसकी सत्ता उसी व्यापक शक्ति के बदौलत है जो तब अनुभव में आती है जब हम निर्व्याज और अनासक्त हो कर काम करते हैं। गांधी जी कहते हैं कि 'अगर कोई व्यक्ति सबके प्रति सभी दशाओं में एक-सा व्यवहार करने लगे तो वह देवत्व की गरिमा पा जाय' क्योंकि ईश्वर मनुष्यों में बसता है। हर कोई उसे पा सकता है, पर इसकी शक्ति का विकास कुछ लोग ही कर पाते हैं शेष में तो वह सुप्त ही रहती है।

गांधी जी मनुष्य की मौलिक अच्छाई में विश्वास करते हैं और मानते हैं की आदमी को संस्थाएँ भी प्रभावित करती हैं बनाती-बिगाड़ती हैं। वे यह भी मानते हैं कि हर किसी में कमी होती है, कुछ में ज्यादा कुछ में कम। मनुष्य अपने स्वभाव को बदल सकता है, उसे नियमित कर सकता है। मनुष्य में क्षमता है और अभ्यास से वह अपनी इच्छा के अनुसार उसमें तब्दीली ला सकता है। इस अर्थ में मनुष्य अपनी नियति रच सकता है, उसे इसकी छूट है कि वह अपनी स्वतंत्रता का यथेच्छ उपयोग करे। यह स्वतंत्रता उसे उसके यत्न या कोशिश की छूट देती है पर परिणाम पर कोई बस नहीं होता। गांधी जी यह भी मानते हैं कि मनुष्य इसलिए मनुष्य है कि उसमें विवेक है पर उनका विवेक कोरा तर्क (रैशनल) वाला नहीं है। मनुष्य की अपनी अंतर्ध्वनि भी है, अंतरात्मा भी है जो सब में है इसलिए साझी है पर सबकी अलग-अलग है। इसलिए बिना अंधानुकरण किए खुद अपने ढंग से सोचना जरूरी हो जाता है।

मनुष्य की स्वायत्तता और स्वतंत्रता एकांगी नहीं होती। आज हमें चुनने की खूब स्वतंत्रता है। एक समय था जब परंपरागत समाज हमें पूर्वनिश्चित दायित्व में बांधता था और दूसरों की आशाओं-अपेक्षाओं के अनुरूप बनने के लिए कहता था। पर आज का आधुनिक मन इन सब में नियंत्रण की बू देखता था और इसलिए उसे छोड़ने लगा, 'रिजेक्ट' करने लगा। पर स्वतंत्रता मिली क्या? आज एक नया और भयानक दबाव आया है। वह दबाव है बाजार के बढ़ते वर्चस्व का जो हमारे काम-धाम, ज्ञान-विज्ञान, नाते रिश्ते, और जीवनशैली यानी सब कुछ तय करने लगा है। वह झूठी दिलासा जरूर दिलाता है की तुरत-फुरत सब मिल जाएगा और अबाध सुख की गारंटी ऊपर से है। नियंत्रण के उपाय - औजार आज और तेज और नुकीले हो गए हैं। ऐसे में गांधी जी बेहद प्रासंगिक हो उठते हैं और सोचने को मजबूर करते हैं कि हम अपने स्वभाव को फिर से पहचानें, शायद कोई रास्ता निकल आए।


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