हिंदी में यह मुहावरे के रूप में प्रयुक्त किया जाता है कि एक महत्वपूर्ण कहानी लिखकर आचार्य चंद्रधर शर्मा गुलेरी की तरह अमर हुआ जा सकता है और जीवन भर कलम
घसीटने के बाद भी कोई जरूरी नहीं कि लोग चर्चा करें। यह बात सही है कि गुलेरीजी की एक कहानी 'उसने कहा था' ने उन्हें अमर कर दिया, इसलिए उनकी दूसरी कहानियों की
ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। 'बुद्धू का काँटा' तथा 'सुखमय जीवन' कहानियों को पढ़ने की उत्सुकता अधिकांश पाठकों के मन में नहीं जगती, हालाँकि शोधकर्ताओं ने
उनकी तीन और कहानियाँ ढूँढ़ निकाली हैं, जिनमें एक 'हीरे का हीरा' तो अधूरी है, जिसमें लहनासिंह एक टाँग कटाकर घर लौटता है। पता नहीं इस अधूरी कहानी से गुलेरीजी
क्या कहना चाहते थे? जो भी कहना चाह रहे हों पर यह तो तय है कि 'उसने कहा था' का लहनासिंह लौटकर नहीं आता। उसकी मृत्यु की सूचना कहानी के अंत में जिन शब्दों में
मिलती है, वे शब्द पाठक के मन से निकाले नहीं निकलते - 'फ्रांस और बेल्जियम - 68वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं. 77 सिख राइफल्स - जमादार लहनासिंह।' यह
कहानी का अंत है और आरंभ अमृतसर के भीड़ भरे बाजार बंबूकार्ट की बोलीबानी, परस्पर खुलेपन, आत्मीय संबंधों की दुनिया तथा बाजार की जीवंतता से होता है - 'बड़े-बड़े
शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्ट वालों की बोली का मरहम
लगावें। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त
गुह्य अंगों से डाक्टरों को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं...।' कहानी अमृतसर के भीड़ भरे बाजार से शुरू
होकर फ्रांस की धरती पर सिख राइफल्स के जांबाज जमादार लहनासिंह के बलिदान पर समाप्त होती है। किस्सागोई की खासियत यह कि कहानी के अंत में जिस लहनासिंह के बलिदान
को बताना जरूरी समझा गया है कहानी की आरंभिक पंक्तियों में उसका कोई जिक्र तक नहीं है। गुलेरीजी बड़े धैर्य के साथ लहनासिंह की ही कहानी कह रहे हैं पर उसके आने
से पहले उसके परिवेश को रचना जरूरी समझते हैं। इस प्रकार की उत्सुकता जगाने से कहानी बड़ी बनती है। जो कहानीकार सीधे-सीधे अपने पात्रों के परिचय पर उतर आते हैं,
वे या तो अपने पाठकों पर यकीन नहीं करते या उनमें इतनी बेसब्री होती है कि वे आरंभ की पंक्तियों में सब कुछ बता देना चाहते हैं। जो राजस्थान की 'बातपोशी' की
पद्धति से परिचित हैं, वे जानते हैं कि रात-रात भर सुनाई जाने वाली कहानी बगैर उत्सुकता के नहीं सुनाई जा सकती, धैर्य के साथ कहानी को बढ़ाने से उसमें एक रस पैदा
होता है जो किस्सागोई से उपजता है, गुलेरीजी में यह रस उत्पन्न करने की अद्भुत क्षमता है।
'उसने कहा था' जून, 1915 की 'सरस्वती' में प्रकाशित हुई थी, यह वह समय है तब तक प्रेमचंद हिंदी में नहीं आए थे। उनकी हिंदी में पहली कहानी 'सौत' दिसंबर,1915 में
'सरस्वती' में ही छपी थी। यानी 'उसने कहा था' के ठीक छह महीने बाद 'सौत' का प्रकाशन हुआ था। लेकिन दोनों कहानियाँ की कोई तुलना नहीं की जा सकती। प्रेमचंद
निश्चित रूप से बहुत बड़े कथाकार हैं, उनका विकास युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद है। पर पहली कहानी 'सौत' बहुत आदर्शवादी है, आदर्शवाद आध्यात्मिक कथाओं के लिए तो
जीवनदायी हो सकता है लेकिन कहानियों के लिए उसका होना अच्छा नहीं माना जाता। 'सौत' का आरंभ उसकी पात्र रजिया के परिचय के साथ होता है, जिसके दो-तीन बच्चे हुए और
मर गए, दुख और गरीबी ने उसकी जवानी जल्दी ही छीन ली, इसलिए उसका पति रामू दूसरी शादी कर दसिया को घर ले आया। यह कहानी दो सौतों की परस्पर कलह तथा ईर्ष्या और फिर
रजिया की उदारता के साथ खत्म होती है। कहानी की पहली पंक्ति पढ़ते ही उसका अंत तुरंत समझ में आ जाता है। यह कहानी की विशेषता नहीं मानी जा सकती। कहना न होगा कि
यह तुलना गुलेरीजी और प्रेमचंद जैसे दो महान कहानीकारों की नहीं है बल्कि हिंदी की दो आरंभिक कहानियों की है, इसे उसी संदर्भ में लिया जाना चाहिए। एक में
गुलेरीजी की परिपक्वता दिखाई देती है तो दूसरी में प्रेमचंद का आरंभिक कच्चापन। प्रेमचंद के विकास को समझने के लिए 'सौत' कहानी मील का पत्थर है, उन्हें यहीं से
पढ़ना चाहिए तभी उनकी विराटता समझ में आएगी। हिंदी में यह अपवाद है कि उसने कहा था, मैला आँचल और राग दरबारी - गुलेरी, रेणु और श्रीलाल शुक्ल की पहली रचना होते
हुए भी, इतनी प्रौढ़ और कलात्मक हैं कि उनका अतिक्रमण स्वयं उनके लेखकों के लिए ही जीवन भर चुनौती बना रहा। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि यह हिंदी की प्रौढ़ और
महान रचना 'उसने कहा था' का ही शताब्दी वर्ष नहीं है बल्कि हिंदी कहानी का भी शताब्दी वर्ष है क्योंकि बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों की जिन चार-पाँच कहानियों
का जिक्र किया जाता है, वे ऐतिहासिक दृष्टि से तो ठीक हैं लेकिन कहानी की भव्य इमारत के आधार को देखना है तो 'उसने कहा था' में ही दिखाई देती है। हमें यह भी
देखना चाहिए कि वैश्विक परिदृश्य में चेखव जैसे महान कहानीकार 1904 तक सर्वोत्कृष्ट कहानियाँ लिखकर जा चुके थे और हम 'प्लेग की चुड़ैल' तथा 'ग्यारह वर्ष का समय'
तक सीमित थे। इस व्यतिरेक को यदि किसी कहानी ने अपनी पूरी ताकत के साथ तोड़ा है तो वह निश्चित ही 'उसने कहा था' ही है।
'उसने कहा था' कहानी को बार-बार पढ़ा जाना चाहिए और विशेष रूप से युवा पीढ़ी को तो इसे बहुत ध्यान से पढ़ना ही चाहिए कि क्या कारण है कि सौ वर्ष बाद भी यह कहानी
बासी नहीं हुई है, उसकी ताजगी आज भी वैसी की वैसी ही बनी हुई, जैसी कि सौ वर्ष पहले थी। अब जब युवा पीढ़ी दो-तीन कहानियाँ लिखकर हाँफने लगती है, तब इस कहानी का
महत्व और अधिक बढ़ जाता है। केवल प्रेम और बलिदान पर लिखने मात्र से कोई कहानी बड़ी नहीं बन जाती, यदि ऐसा होता तो 'पुरस्कार' भी बड़ी और कालजयी कहानी मानी जाती।
कहानी बड़ी बनती है, अपने वर्तमान के आकलन और भविष्य के लिए संदेश से। 'उसने कहा था' प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ होने के बाद की कहानी है। प्रथम विश्व युद्ध 1914
में आरंभ हुआ और गुलेरीजी ने मार्च-अप्रैल, 1915 में इस कहानी को लिखा। युद्ध समाप्त नहीं हुआ था लेकिन उसकी विभीषिका ने गुलेरीजी जैसे संवेदनशील आचार्य के मन
को दुखी कर दिया था। वे युद्ध के मैदान में नहीं गए लेकिन फ्रांस की धरती, खंदक, उसकी नमी और वहाँ की स्त्रियों का अपने देश के प्रति प्रेम इत्यादि के जो दृश्य
गुलेरीजी ने जीवंत किये हैं, वे आज भी किसी रचनाकार के लिए स्पृहणीय हैं। अन्य चीजों के अतिरिक्त विश्व युद्ध की भयावह स्थिति कहानी में जिस प्रकार आती है, वह
युद्ध के प्रति घृणा उत्पन्न करती है। जब सारी दुनिया विश्व युद्ध के डर के साये में जी रही थी, तब उसके विरोध में कहानी लिखना और इतनी मार्मिक कहानी लिखना,
गुलेरीजी के लिए ही संभव था। यह प्रथम विश्व युद्ध का भी शताब्दी वर्ष है, इसलिए इस कहानी का महत्व और अधिक बढ़ जाता है। युद्ध की विभीषिका मनुष्य विरोधी है,
जैसे भी हो युद्ध और उसकी मानसिकता का विरोध किया जाना चाहिए। दोनों विश्व युद्धों में जिस प्रकार लाखों लोगों की मृत्यु हुई, लाखों लोग अपंग हुए, लाखों लोग
बेघरबार हुए और लाखों बच्चे आज भी उसकी विभीषिका झेलने को विवश हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान ने जिस नरसंहार को झेला था, उसके काले साये आज भी जापान
को हिला रहे हैं। नागाशाकी और हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बमों ने पूरी मानवता को कलंकित किया था। अमेरिका ने जिस प्रकार सद्दाम हुसैन और उनके देश इराक के
विरुद्ध अमानवीय आधार पर युद्ध लड़ा, उसकी परिणति में इराक तबाह हो गया। यह युद्ध रासायनिक हथियारों के विरुद्ध न होकर इराक के तेल कुओं के आधिपत्य के लिए था,
रासायनिक हथियार तो आज तक इराक में नहीं मिले, सद्दाम हुसैन को मारकर भी। भारत चीन और भारत पाकिस्तान युद्धों के परिणामों से हम भलीभाँति परिचित हैं, सिवाय
बर्बादी के युद्ध और कुछ नहीं देते। लेकिन अमेरिका जैसा बड़ा व्यापारी अपने हथियार बेचने के लिए युद्ध की मानसिकता को जीवित बनाए रखता है, ताकि हथियारों की जरूरत
हमेशा बनी रहे। 'उसने कहा था' युद्ध विरोधी कहानी है, सूबेदारनी जैसी करोड़ों माताएँ, पत्नियाँ, बहनें और बेटियाँ युद्ध की विभीषिका से परिचित हैं, इसलिए उसके
विरोध के लिए आँचल पसारकर सुखी दांपत्य जीवन की भीख माँग रही हैं। केवल प्रेम और बलिदान तक सीमित रखकर कहानी को देखने से गुलेरीजी के उन अंशों के प्रति अन्याय
होगा जो उन्होंने पाठकों के मन में युद्ध विरोधी मानसिकता बनाने के लिए लिखे हैं। लाम पर फौज की परेशानियों, अभावों तथा संकटों के जो दृश्य हैं, वे एक ओर
फौजियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करते हैं तो दूसरी ओर मनुष्यता के आधार पर युद्ध के विरोध में खड़े हैं।
कहानी युद्ध के मैदान से आरंभ न होकर अमृतसर के भीड़ भरे बाजार से शुरू होती है। 1915 का बाजार बाजारवाद की भेंट नहीं चढ़ा था, तब लोग बाजार में केवल चीजें खरीदने
ही नहीं जाते थे, बल्कि मिलने-जुलने तथा घर के अकेलेपन से निजात पाने भी जाते थे। इसलिए वहाँ की भाषा आशावादी है - 'हट जा, जीणे जोगिए, हट जा, करमां वालिए, हट
जा, पुत्तां प्यारिए, बच जा, लंबी वालिए।' इसी बाजार की भीड़ में बारह वर्ष के लहनासिंह और आठ वर्ष की सूबेदारनी की पहली मुलाकात होती है - 'ऐसे बंबूकार्ट वालों
के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के
लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ।' बारह वर्ष के लड़के और आठ वर्ष की लड़की ने एक दूसरे से जो पूछा वह पहली भेंट में स्वाभाविक ही था। 'तेरे घर कहाँ
हैं? मगरे में - और तेरे? माँझे में - यहाँ कहाँ रहती है? अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं। मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में
है।' दोनों अपने-अपने मामा के घर आए हुए हैं। हमारी पीढ़ी तक परीक्षा समाप्त होने तथा विद्यालय बंद होने के बाद माँ अपने बच्चों को लेकर पीहर जाती थी, यह एक
अनिवार्य-सा कार्यक्रम था। बीच में कोई शादी-ब्याह हो तो बात दूसरी है वरना हर लड़की गर्मियों की छुट्टियों में ही अपने पीहर जाया करती थी। इससे बच्चों की
सामाजिकता भी बढ़ती थी और ननिहाल के प्रति अनुराग भी। अब न माँ-बाप के पास समय है और न मामाओं के पास। इसलिए अब ननिहाल की बात कोई नहीं करता, छुट्टियों में
बच्चों की फरियाद होती है कि चलो कहीं हिल स्टेशन पर घूम आएँ। पहाड़ को हमने सैलानियों का अड्डा बना दिया है, यह नव-धनाढ्य वर्ग तथा उसकी नकल में डूबे मध्यवर्ग
के चोंचले हैं जो अपनी नीरस जिंदगी में कुछ नया करने की इच्छा का परिणाम है। बाजार एक ओर तो आदमी को अकेला कर व्यक्तिवादी बना रहा है तो दूसरी ओर पहाड़ों के
सौंदर्य को आकर्षित तरीके से प्रस्तुत कर मन भी लुभा रहा है। पहाड़ के पहाड़ीपन को खत्म करने के लिए सारी राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय ताकतें एक हो गई हैं। वहाँ
के पानी, हवा और प्राकृतिक सौंदर्य को बस में करने के लिए सरकारी सहयोग से कंकरीट का जंगल खड़ा किया जा रहा है। लुभावने विज्ञापनों से इस ओर ध्यान आकर्षित किया
जा रहा है और खाता पीता मध्यवर्ग आनंद का उत्सव मनाने के लिए दौड़ा चला जा रहा है। यही कारण है कि अब नव-धनाढ्य वर्ग ने पहाड़ पर अपने-अपने फ्लैट बनवा लिए हैं,
जिनमें जीवन का रस और आनंद प्राप्त करने के लिए वे गर्मियों में वहाँ जाने लगे हैं। गर्मियों से मुक्ति से अधिक यह दूसरे प्रकार की मुक्ति के उद्यमों की लालसा
का परिणाम है।
गुलेरीजी ने एक बात का और ध्यान रखा है कि लड़का मामा के केश धोने के लिए दही लेने आता है और लड़की रसोई के लिए बड़ियाँ। लड़का रसोई के लिए बड़ियाँ लेने आता और लड़की
मामा के केश धोने के लिए दही, तो कहानी बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों के समाज की झलक दिखा पाने में असमर्थ होती। यह वह समय था जब लड़कियों का जीवन घर-गृहस्थी तक
सीमित था, इसलिए उन्नीसवीं सदी में हिंदी में जो आरंभिक उपन्यास लिखे गए, वे एक प्रकार से सुखी दांपत्य जीवन की आचरण संहिता थे। यही कारण था कि उनमें लड़कियों को
नैतिकता और आदर्श का पाठ सिखाया जाता था। इसके बावजूद गुलेरीजी की स्त्री पात्र प्रगतिशील हैं, लड़कियाँ अपने समय से आगे हैं। 'सुखमय जीवन' (1911) की कमला तथा
'बुद्धू का काँटा' (1914) की भागवंती ऐसी लड़कियाँ हैं, जो किसी भी हमउम्र लड़के से बातें करने में झिझक अनुभव नहीं करतीं। उनके अंदर खिलंदड़ापन है, चुहल करने की
इच्छा है तथा कुंठा रहित निश्छल हँसी है। इसलिए दोनों कहानियों की लड़कियों की शादी उन्हीं लड़कों के साथ होती है, जिनसे वे पहले अच्छी तरह मिल चुकी हैं। कहना न
होगा कि बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों के परिवारों में लड़कियों को इस प्रकार की छूट नहीं होती थी, पर संस्कृत और ज्योतिष के आचार्य गुलेरीजी विवाह संस्था को
नया रूप दे रहे थे, जो आज भी अधिकांश लोगों के लिए दुर्लभ है। आज भारतीय समाज की वैवाहिक संस्था में नए मोढ़ आए हैं, उसने आश्चर्यजनक रूप से प्रगति की है,
रूढ़ियों और जड़ताओं को तोड़ा है, पर इसी समाज में खाप पंचायत आज भी जीवित और प्रभावशाली हैं। अपने समय और समाज का मूल्यांकन करने के लिए हमें उच्च और मध्यवर्ग को
ही नहीं देखना चाहिए या केवल नगर, महानगरों को ही नहीं देखना चाहिए बल्कि इस देश के छह लाख गाँवों को भी देखना चाहिए कि एक ओर वहाँ वैवाहिक संस्था को आगे ले
जाने के प्रयत्न हो रहे हैं तो दूसरी ओर उन्हें जड़ बनाए रखने की ताकतें भी उतनी ही सक्रिय हैं।
'तेरी कुड़माई हो गई?' पहली ही भेंट के बाद लड़का पूछता है और लड़की 'कुछ आँखें चढ़ाकर धत् कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया।' यह वह समय है जब गांधीजी की शादी
तेरह वर्ष की उम्र हुई थी और बा भी इसी उम्र की थीं - केवल छह माह बड़ीं। रजस्वला होने से पूर्व लड़कियों का विवाह शुभ और पुण्य कर्म माना जाता था। इसी समय में एक
लड़का ओैर एक लड़की स्वाभाविक ढंग से अकेले में नहीं बाजार में और बाजार की एक व्यस्त दुकान में मिलते हैं तथा एक दूसरे से परिचित होते हैं। लड़की के मन की कौन
जाने पर लड़के ने लड़की को पसंद कर लिया था इसलिए एक महीने तक लगातार मिलने तथा वही सवाल बार-बार पूछे जाने पर जब लड़की जवाब देती है 'हाँ, हो गई।' कब? कल, देखते
नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।' कहकर लड़की तो भाग गई लेकिन लड़का इस जवाब को सुनने के लिए तैयार नहीं था इसलिए उसकी मनःस्थिति का चित्रण गुलेरीजी ने किया है
'लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में
दूध उँड़ेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।' लड़की के इस उत्तर को 'सुनते ही लहनासिंह को दुख हुआ। क्रोध
हुआ।' वह इस प्रकार के उत्तर की कल्पना भी नहीं कर सकता था। जिस प्रकार एक महीने तक लड़की केवल 'धत्' कहकर भाग जाती थी, लड़के को शायद उसी प्रकार की उम्मीद अब भी
रही होगी। लेकिन रेशम से कढ़ा हुआ सालू सगाई होने के प्रमाण के रूप में दिखाकर लड़की ने उसके सपने को ही तोड़ दिया था। भरे बाजार में, भीड़ के सामने इस प्रकार के
सपनों के टूटने से लड़का विचलित हुआ था। इस विचलन के बाद की मनःस्थिति और उसमें लिए गए निर्णयों पर गुलेरीजी ने कुछ नहीं लिखा। कहानी के लिए यह जरूरी भी नहीं था।
इस घटना को हुए पच्चीस वर्ष बीत गए, लहनासिंह फौज में जमादार हो गया था कि वह लड़की जो अब सूबेदारनी बन गई है, चमत्कारिक रूप से मिलती है। अब वह उसके सूबेदार की
पत्नी है। उस सूबेदार की जो लहनासिंह को बहुत प्यार और उस पर बहुत विश्वास करता है। पर इन वर्षों में न तो सूबेदार को मालूम पड़ता है कि लहना ने कभी उसकी पत्नी
को प्यार किया था और न लहनासिंह को यह पता होता है कि वह उसी लड़की का पति है, जिसे कभी उसने प्यार किया था। दोनों को यह मालूम पड़ गया होता तो कहानी में झोल आ
सकता था पर गुलेरीजी ने बहुत ही सधे हुए शब्दों में कहानी की संवेदना को बचाए रखा। प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ, 'लहनासिंह की रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि
फौज लाम पर जाती है। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ चलेंगे।
...जब चलने लगे, तब सूबेदार वेढे में से निकल कर आया। बोला - लहना, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती हैं, जा मिल आ। लहनासिंह भीतर पहुँचा सूबेदारनी मुझे जानती
है? कब से! रेजिमेंट के क्वाटरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप। मुझे पहचाना? नहीं। तेरी
कुड़माई हो गई? - धत् - कल हो गई - देखते नहीं रेशमी बूटों वाला सालू - अमृतसर में।' कहानी की एक खूबी यह भी कि सूबेदारनी की ये बातें अपना वचन निभा चुके घायल
लहनासिंह को अब याद आ रही हैं - सपने में। 'स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए।
सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमकहलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पल्टन क्यों न बना दी जो मैं भी
सूबेदार जी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए इसे एक ही बरस हुआ। इसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी, अब दोनों जाते
हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दही वाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे। आप घोड़े की लातों में चले गए
थे और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।'
युद्ध के मैदान में आने से पहले अकेले घर में सूबेदारनी ने लहनासिंह से अपने पति और बेटे को उसी तरह बचाने के लिए आँचल पसारकर भीख माँगी जैसे उसे उसने घोड़े की
लातों से बचाया था। घायल लहनासिंह के स्वप्न में यह सब चल रहा है, अतीत साकार हो रहा है, पच्चीस वर्ष पहले की घटना - आठ साल की लड़की रेशम से कढ़ा सालू दिखाकर कह
रही है कि कल मेरी कुड़माई हो गई। तब इस लड़की से उसे प्रेम हुआ था, वह चाहता था कि उसके साथ कुड़माई हो। जिस लड़की से प्रेम किया वह अब दयनीय स्थिति में आँचल
पसारकर भीख माँग रही है, तो लहनासिंह पीछे रहने वाला कहाँ है? कहानी में सूबेदारनी की एक और विडंबना उभरकर आई है कि बोधासिंह उसका अकेला बेटा है, इसके बाद उसे
चार और हुए पर एक भी नहीं जिया। पति के न होने पर स्त्री पुत्र में उसकी छवि देखने लगती है, उसका भरोसा बेटे में जीवित हो उठता है पर अकेला पुत्र भी तो उसी लाम
पर जा रहा है, जिसमें पति और उसका बचपन का सखा जा रहा है और वह भी विदेश में। भविष्य की आशंका ने सूबेदारनी को अंदर तक डरा दिया है। अपना दुख वह किसी और से कह
नहीं सकती, पति और बेटे से भी नहीं। दोनों के सामने रोकर वह उनका मन कमजोर नहीं करना चाहती थी। उसे लहनासिंह पर अपूर्व भरोसा है। वह उसकी शक्ति और साहस को बहुत
पहले देख चुकी है, जब अपनी जान की परवाह न कर उसने उसे बचाया था। वह परखा हुआ जवान था, इसलिए वह भरोसे के साथ अपने पति और बेटे को उसके साथ भेजती है। पहली
मुलाकात बाजार में हुई थी, सबके सामने लेकिन दूसरी घर के अंदर - अकेले में। लहनासिंह को युद्ध के मैदान में अपने घर और देश से दूर स्वप्न में सब कुछ याद आ रहा
है। उस वचन को निभाने के लिए एक ओर उसने लपटन साहब को धराशायी कर सूबेदार की जान बचाई तो दूसरी ओर स्वयं घायल होकर, ठंड सहकर बोधासिंह को सुरक्षित रखा। युद्ध के
मैदान में फौजी के सामने केवल दुश्मन होता है, बाकी चिंता वह नहीं करता पर लहनासिंह को सूबेदारनी के वचन को पूरा करने की चिंता सबसे अधिक थी।
सूबेदार को सूबेदारनी का कहा कुछ भी मालूम नहीं था, वह केवल इतना जानता था कि लहनासिंह बोधा को बचाने के लिए अपने घाव और ठंड की परवाह नहीं कर रहा है। वह
लहनासिंह से कहता भी है 'जैसे मैं जानता ही न होऊँ। रात भर तुम अपने दोनों कंबल उसे उड़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते
हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न मांदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है मौत है और निमोनिया से मरने वालों को मुरब्बे
नहीं मिला करते।' तब लहनासिंह तुरंत जवाब देता है 'मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ
के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।' अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाकर अपने अंतिम समय में लहनासिंह वजीरासिंह की गोदी में सिर रखकर लेटा है। 'मृत्यु के
कुछ समय पहिले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुंध बिलकुल उन पर से हट जाती
है।' लहनासिंह मानकर चल रहा है कि वह अपने अंतिम समय में भाई कीरतसिंह की गोदी में सिर रखकर लेटा हुआ है, इसलिए पूछता है 'कौन? कीरतसिंह? वजीरा ने कुछ समझकर
कहा, हाँ। भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। बस पट्ट पर मेरा सिर रख ले। वजीरा ने वैसा ही किया। हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस! अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा।
चाचा-भतीजा दोनों यहीं बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैंने इसे लगाया था।'
'उसने कहा था' एक ओर प्रेम का नया पाठ प्रस्तुत करती है तो दूसरी ओर युद्ध की विभीषिका के विरोध में खड़ी है। वैश्वीकरण ने पैसे के प्रति अंधी लालसा उत्पन्न की
है, यही कारण है कि अब एक ओर तो गरीबी बढ़ती जा रही है तो दूसरी ओर धनाढ्य लोगों के पास हिसाबहीन संपत्ति में लगातार इजाफा हो रहा है। अकेले बिल गेट्स पर इतनी
संपत्ति है कि वे 218 वर्षों तक रोजाना दस करोड़ रुपये खर्च कर सकते हैं। केरल की दो कंपनियों मुथूट और मारप्पन के पास दो सौ टन सोना गिरवी रखा हुआ है। मुकेश
अंबानी अपनी पत्नी के जन्म दिन में करोड़ों रुपये बहाते हैं और राडिया बेगम केवल एक सौदे में तीन सौ करोड़ की दलाली खा जाती हैं। ये सब आँकड़े हमारे युवा वर्ग को
पागल बना रहे हैं, धन की इस अंधी दौड़ ने सबसे पहले परिवार नामक संस्था को समाप्त किया। अब युवा वेतन नहीं पा रहा है बल्कि पैकेज पा रहा है और वह पैकेज इतना बड़ा
है कि सुनते ही देश के अस्सी प्रतिशत युवक चक्कर खाकर गिर पड़ते हैं। लाखों का पैकेज पाने वाले इस युवा के लिए देश और विदेश की कोई सीमा नहीं रह गई है। उसके लिए
जैसे अन्य भौतिक चीजें 'यूज एंड थ्रो' हैं वैसे ही स्त्री भी है। वह उसका उपयोग करता है और भूल जाता है। प्रेम की नैतिकता उसके लिए पागलों का रोग है। वह इस
पागलपन में नहीं पड़ना चाहता। यही कारण है कि हमारे कस्बों, नगरों और महानगरों में प्रेम या तो देह मात्र बनकर रह गया है या लाभ लेने के लिए एक दूसरे का उपयोग
करने का साधन। किसी स्त्री से उसके आत्मसम्मान के साथ प्रेम करने की सोच अकूत धन ने समाप्त कर दी है इसलिए समाज में जिन विकृतियों की सूचनाएँ समाचार पत्र और
टीवी चैनल्स रात-दिन दे रहे हैं, वे सब इस अघाई दुनिया की झूठन है। 'उसने कहा था' ऐसे ही समय के लिए दवा का काम कर सकती है। जब बीमारियाँ और विकृतियाँ अधिक हो
जाएँ तो ऐसी कहानियाँ हमें हमारे समाज का आईना दिखाकर लहनासिंह जैसे पात्र को प्रस्तुत करती हैं। लहनासिंह पच्चीस वर्ष पहले रेशम से कढ़ा हुआ सालू देखकर दुखी हुआ
था, वह सूबेदारनी से उसका बदला भी ले सकता था पर सौ वर्ष पहले इस प्रकार के विकृत, स्वार्थी और वासना के लालची प्रेमी नहीं हुआ करते थे। आज जिस प्रकार तेजाब
डालकर, राड डालकर, ब्लेड मारकर, चलती कार और चलती ट्रेन से धक्का देकर, नशीला पदार्थ पिलाकर, सुनसान जगह पर पत्थरों से सिर कुचलकर तथा सब्जी काटने वाले चाकू से
टुकड़े-टुकड़े करने वाले कथित प्रेमी अपनी तमाम विकृतियों के साथ समाज में देखे जा रहे हैं, उनके लिए लहनासिंह जैसे पात्र को जानना जरूरी है। इन सब अमानवीय और
घृणित स्थितियों से बचने के लिए 'उसने कहा था' हमारे समय का अपरिहार्य पाठ प्रस्तुत करती है।