कल रात प्रभु मेरे सपने में आए और कहा भक्तजन तुम्हारे मायावी संसार में भैंस और लाठी को ले कर अनेक भ्रांतियाँ फैली हुई हैं। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैं तुम्हारे कंधों पर डालता हूँ। तुम कोई जतन ऐसा करो कि लाठी से भैंस का सदियों पुराना नाता खत्म हो जाए।
प्रभु कार्पोरेट जगत के सी इ ओ की तरह आर्डर दे के अंतर्ध्यान हो गए।
उन्हें काम लेना आता है। इन कारपोरेट वालों के लिए आप चाहे कितने पापड़ बेलो कोई गिनने वाला नहीं।
प्रभु का आदेश हो, और पालन न किया जाए, ऐसा बिरला ही होता है।
लोग जेब में अठन्नी ले के तीर्थ यात्रा पर निकल जाते हैं, प्रभु अपनी लीला से उनके हर स्टेशन में, कदम-कदम इंतिजाम किए देते हैं।
बस यही फर्क हिंदुस्तान और दीगर के मुल्कों में है।
उधर अठन्नी छाप को, आतंकवादी समझ के 'इन्कौनटर', के हवाले कर दिया जाता है।
बातों बातों में समय क्या बिताएँ... प्रभु ने हमें 'लाठी और भैंस' पर अनुसंधान करने की जो जिम्मेदारी दी है, उसे निपटाएँ।
अभी तक प्राप्त तथ्यों के माध्यम से जो जानकारी है वो ये कि लाठी रखने के अनेक फायदे हैं। प्रमुख यह कि इसके जरिए भैंस को पाया जा सकता है।
पुराने जमाने में भैंस को खरीदा नहीं जाता था। भैंसें, कई आसपास ही घूमा करती थीं। जिसके पास दबंगई होती थी या जो लाठी को तेल पिलाए रहता था वही अपने घर हाँक ले जाता था।
उन दिनों लाठी को तेल पिलाने का अलग रिवाज था।
तेल पिलाई हुई लाठी दिनों-दिन मजबूत होते जाती है, ऐसा वे लोग सोचते थे। रंग, रोगन, पेंट लगाने का न वो जमाना था, न उन दिनों ये सब चीजें सहज उपलब्ध हो पाती थीं। सो तीज त्यौहार में इस्तेमाल किए हुए तेल का जो 'डढेल' बच जाए उसे लाठी के हवाले कर दिया जाता था।
दबंगई में 'तेल पी' हुई लाठी से लट्ठेबाजों के हुनर में चार-छह चाँद इकट्ठे लग जाया करते थे।
लाठी,किसी पेड़ के सीधे शाख को छाँट के बना ली जाती थी। बनने के बाद ये एक अच्छी, सीधी-सधी, कलाई से करीब आधी गोलाई वाली, पाँच सात फुट की लकड़ी होती थी। शाखा के गाठ को तरीके से छील-घिस के, चिकना तैयार किया जाता था।
पहले इस लाठी पर, अहीर, ग्वाल, यादवों का एकाधिकार होता था।
उस जमाने में जो तमंचा-रामपुरी रखने के जो शौकीन नहीं होते थे, वे अनिवार्य रूप से, अपनी रक्षा के लिए या दूसरों को धमकाने के लिए लाठी रखा करते थे।
सामाजिक प्रतिष्ठा के ये प्रतीक चिह्न भी होते थे।
चौधरी और ठाकुर कहलाने के लिए, आपके पास अनिवार्य रूप से मजबूत लाठी का पाया जाना अपेक्षित था।
बाद में यही कब, 'रायफल' में बदल गया' ये अब भी शोध का विषय है प्रभु।
एक लाठी ले के, पूरे गाँव को हिला के आया जा सकता था।
लाठी चालन की विद्या जिस किसी ने तन्मयता से ले ली समझो उसका नाम आस पड़ोस के ग्रामीण लिमका में दर्ज नाम की तरह' सामान के साथ जाना जाता था।
इस सम्मान को धक्का तभी लगता, जब इन जैसे, दस-पाँच के समूह को जमींदार इकट्ठे अपने 'पे रोल' में रख लेता था।
फिर ये 'लठैत' की श्रेणी के हो जाते थे।
'लठैत' का श्रम-विभाजन, व उनकी अल्प बुद्धि के मद्देनजर वे समाज में अपना सम्मानजनक स्थान नहीं बना पाए।
ये (लठैत) लोग आंचलिक पृष्ठभूमि से उठ कर शहरी सभ्यता में रम नहीं पाए।
बस रेल का टिकट कटाते ही, इनके हाथ पाँव फूलने लगते।
इनकी लाठी रबर जैसी लुंज-पुंज पड़ जाती। यही हाल शहरी पुलिस को देख के दुगना भी होने लगता।
अब भैंस को लें, बेचारी दूध देना बखूबी जानती है। इसका ज्यादा इस्तेमाल प्रायमरी स्कूलों में निबंध लिखने में किया जाता था। उस जमाने में बच्चे सिवाय भैंस के कुछ देखे भी नहीं होते थे। आज के बच्चे रेल, हवाई जहाज, मेट्रो और डिज्नीलेंड आदि हजारों चीजों पर फर्राटे से लिख-पढ़, बोल सकते हैं।
भैंस के निबंधों में एक राष्ट्रीय समानता होती थी 'वही चार पैर, एक पूँछ, गोबर देने की बाध्यता प्रमुखता से व्यक्त की जाती थी। कहीं क्षेत्रीय-स्थानीय या राज्य की सीमा का न बंधन न उल्लंघन।
सब भैसों की एक गति थी। कोई नहीं कह सकता था की तमिल का 'मावा' महाराष्ट्र, गुजरात से जुदा है। घी बना लो, लस्सी छाछ पी लो, पंजाब से हरियाणा तक के भैसों की, एक वाणी एक जुबान एक स्वाद।
इस निरीह प्राणी पर' जाने क्यूँ लाठी का आतंक युगों तक पसरा रहा?
सार बात ये कि भैंसें' डंडा रखने वाले से भी कम दिमाग वाली होती है।गरीब की लुगाई जैसी हालत रहती है इनकी 'जिसे देखो वही हड़काए दिए रहता है।
भैंस की जरूरतें भी कम होती हैं, दिन भर मैदान में चारा चर के वे काम चला लेती थीं। आजकल वो भी मय्यसर नहीं, मैदान प्लास्टिक-पालीथीन से भर गए हैं। उनके पेट में जाने अनजाने यही घुस रहा है।
सरकारी आँकड़ों के आडिट में 'भैसों के साथ चारा खाने वाले लोगों में बड़े अफसरान, संतरी और मंत्री भी शामिल पाए गए।
प्रभु आप तो स्वयं जानते हैं, हमारे देश में जानवरों के या बेजुबानों के 'हिस्से' में से 'मारने वालों' की कमी नहीं।
प्रभु जी हमने लोगों को कहते सुना है, आपकी 'लाठी' बेआवाज होती है?
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