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आलोचना

व्यक्ति चरित्र की कसौटी ‘सोलह आने’

राहुल शर्मा


संदर्भ : त्रिलोचन की कहानी ' सोलह आने'

व्यक्ति और समाज का गहरा संबंध है। यह संबंध ठीक वैसा ही है जैसे जल और जीवन। जब साहित्य की किसी भी विधा से हम जुड़ते है तब हम उसमें अपने समाज का चेहरा देखते हैं। ठीक एक ऐसा ही अनुभव मुझे तब हुआ जब मैंने त्रिलोचन की कहानी 'सोलह आने' पढी जिसमें त्रिलोचन जी की गहरी सामाजिक दृष्टि उभरकर सामने आई। वैसे तो हिंदी साहित्य में त्रिलोचन एक कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं लेकिन जब उनके कथा लेखन पर हमारी दृष्टि जाती है तब हम पाते हैं कि कथा लेखन में भी उनका कोई सानी नहीं है।

'सोलह आने' कहानी का शीर्षक आरंभ में थोड़ा भ्रम उत्पन्न करता है और लगता है यह किसी बाल मनोविज्ञान को उद्घाटित करने वाली कहानी है परंतु कहानी को जैसे ही पढना आरंभ करते है वैसे ही हमारा यह भ्रम दूर हो जाता है और कहानी में निहित उद्देश्य पाठकों के समक्ष उभरता चला जाता है एवं कहानी का शीर्षक एकदम स्पष्ट हो जाता है। 'सोलह आने' अर्थात किसी भी बात की पुष्टि के लिए या खरेपन को उजागर करने वाली कसौटी के रूप में प्रयुक्त होने वाला शब्द युग्म। लेकिन कहानी के संदर्भ में इस शब्द-युग्म पर विचार करने पर यह युग्म व्यक्ति चरित्र के खरेपन को उजागर करने वाली कसौटी के रूप में उभर कर पाठकों के समक्ष उपस्थित होता है। अन्य शब्दों में कहा जाय तो यह कहानी समाज में आ रहे बदलावों और मानवीय मूल्यों के नैतिक पतन को उद्घाटित करती है।

'सोलह आने' कहानी में तीन प्रमुख पात्र है - कमल नारायण, वरुण और देवल। तीनों मित्र हैं। कमल नारायण और वरुण बेरोजगारी की मार झेलते युवक है और देवल जो इस कहानी में 'मैं' के रूप में विद्यमान है एक प्रेस में पंद्रह रुपये मासिक पर कार्यरत है। कहानी की शुरुआत कमलनारायण और वरुण के घर देवल के आने से होती है। वरुण और कमलनारायण खाना बनाने की तैयारी में हैं और देवल के आ जाने से उसके खाने की भी योजना बन जाती है। देवल के पास एक रुपये छह आने पैसे है जो उसने चार-पाँच दिनों के अनशन के बाद इकट्ठा किए होते हैं। फिर कमलनारायण और वरुण के बीच आटा, दाल, चावल को लेकर बातें होती है और अंततः बात देवल पर आकर रुक जाती है और वह नौ पैसे खर्च कर खाने की सामग्री इकट्ठा करता है, कहानी तब खुलना आरंभ करती है तथा पात्रों की मनःस्थिति को उजागर करती चलती है - 'नौ आने? कमल को आश्चर्य हुआ - यह बहुत है। मतलब, हाथ से बनाने का कोई असर नहीं पड़ा। खर्चा होटल के बराबर ही रहा।'

अर्थात हम कह सकते है कि आरंभ में कहानी नौ पैसे की कसौटी पर पात्रों को परखना आरंभ करती है और सोलह आने पर आकर रुक जाती है। उपरोक्त पंक्तियों में कमलनारायण के माध्यम से कवि एक वर्ग की मानसिकता को उजागर करता है। यह समाज का वह वर्ग है जो अवसरवादी है और एक मुखौटे से अपने चेहरे को ढके हुए है। जो उपर से कुछ और भीतर कुछ और है ठीक उस विज्ञापन की तरह जिसमें दिखता कुछ है और होता कुछ और है। फिर कहानी आगे बढती है और बात पैसे लौटाने के संदर्भ में कमलनारायण और वरुण की मानसिकता को उजागर करना आरंभ करती है। कमल नारायण पूरी कहानी में एक आदर्श पात्र और मित्र की तरह नजर आता है परंतु अंत में उसके चरित्र का रहस्योद्घाटन होता है। वही इस कहानी में का दूसरा पात्र वरुण है जो काइयाँ किस्म का है। खाना खाने के दौरान वह देवल से उसकी सारी बातें उगलवा लेता है और उसकी मासिक आय जानकर अपना जाल बिछाता है। खाना खाने के दौरान जब कमल उठकर हाथ धोने चला जाता तब वरुण देवल से तेरह आने और प्रति व्यक्ति लगनेवाले तीन आने के हिसाब से सोलह आने पैसे उधार ले लेता है -

'अब आपके पास कुल कितने पैसे हैं?

तेरह आने... क्यों?

आपको अभी पैसों की कोई खास जरूरत तो नहीं है?

अभी तो नहीं है।

तो मुझे दे दीजिए। जरूरी काम है। जल्दी ही दे दूँगा।'

ये पंक्तियाँ ऐसी है जिनसे हमारा रोज का साबका पड़ता रहता है और ये ही वे पंक्तियाँ है जो किसी व्यक्ति के चरित्र की कसौटी भी सिद्ध होती हैं। कवि हृदय में छिपा कथाकार इतनी गहराई से व्यक्ति की मानसिकता को दर्शा सकता है वह काबिले तारीफ हैं। कुछ दिनों पहले एक निबंध पढ़ा; शीर्षक था 'बाजार दर्शन'। यह एक ऐसा निबंध था जिसमें निबंधकार ने बताया है कि बाजार हम पर कैसे हमला बोलता है? यहाँ तो बाजार का संदर्भ नहीं है परंतु यहाँ कहानीकार ने बाजार और उपभोक्ता जैसे होते जा रहे मानवीय संबंधों की ओर आलोच्य कहानी में दर्शाया है। ये बाजार ही तो है जैसे बाजार आपके साथ तब तक रहता है जब तक आपकी जेब भरी होती है ठीक वैसे ही आज रिश्तों की स्थिति हो गई है। एक दौर ऐसा था जब दोस्ती की कसमें खाई जाती थीं, एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना होती थी परंतु वक्त के साथ इस बदलाव को महसूस करते हुए त्रिलोचन इस सपाट सी लगनेवाली कहानी में गहरे विमर्श की चिंगारी को हवा देते हैं।

इस कहानी का तीसरा पात्र है देवल जो अपने उपरोक्त आलोच्य मित्रों से अलग है। वह फाँके कर पैसे बचाता है। जाहिर सी बात है यह एक ऐसा पात्र है जो बाजार से उतना प्रभावित नहीं जितना उसके अन्य मित्र। पहले ही कहा जा चुका है कि इस कहानी में बाजार का नामोनिशान तक नहीं है परंतु 'बाजार' शब्द ही एक मात्र ऐसा शब्द नजर आया जो इस कहानी में छिपे विमर्श को पूरी तरह उजागर करता है। हाँ तो बात देवल की चल रही थी कि वह एक ऐसा चरित्र है जो सहृदय है, दूसरों के दुख और सुख में साथ देने वाला है तभी तो वह चार-पाँच दिन अनशन कर जुटाए पैसों से सोलह आने पैसे देने से बिल्कुल नहीं झिझकता और वरुण के एक बार कहने पर ही उसे पैसे दे देता है अपनी दयनीय स्थिति की परवाह किए बिना -

'कितना दूँ?'

'सब...।'

ये पंक्तियाँ ही उसके चरित्र को पाठकों के समक्ष पूरी तरह से खोल देती हैं। देवल के चरित्र के इस पक्ष को देखकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं -

'पहचान करने में हमें कुछ स्वार्थ से काम लेना चाहिए।'

परंतु देवल एक ऐसा चरित्र है जो स्वयं को कष्ट पहुँचा कर दूसरों की खुशी का ख्याल रखता है और इस बात का भी ध्यान रखता है कि सामने वाला कहीं उसके व्यवहार से आहत न हो जाए। कहानी में जब वह कमलनारायण के पास जाकर पैसों के विषय में बताता है और कमल उसे ये सलाह देता है कि उसे उसके पैसे जरूर माँग लेने चाहिए तब देवल का वरुण के प्रति कहा गया कथन उसके व्यक्तित्व के उस पक्ष को उजागर करता है जो पूरी कहानी में उसे पाठकों के समक्ष एक अलग पहचान देता है और वरुण के काइयाँपन को उजागर करता है -

'कोई बात नहीं। दे ही देगा। और न भी दे, तो मेरा क्या जाता है... सोलह आने बस।'

बात बिल्कुल साधारण सी लगती है पर जब इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए तो हम पाएँगे कि 'न भी दे तो मेरा क्या जाता है... सोलह आने बस' अर्थात मनुष्य का मनुष्य के प्रति विश्वास का खत्म हो जाना। यही चित्रित करना इस पूरे आलोच्य विषय के शीर्षक का भी उद्देश्य है जिसे उपरोक्त पंक्ति उजागर करती है।

व्यक्ति चरित्र की जिस कसौटी को लेकर यह कहानी आगे बढ़ती है वह पतनोन्मुख समाज में खोते जा रहे मनुष्य का मनुष्य के प्रति विश्वास को और भी दृढ़ता से उजागार करती है। काफी मुश्किलों का सामना करता हुआ देवल जब वरुण से अपने पैसे माँगने जाता है तब वरुण का उसके प्रति किया गया व्यवहार मानवता के अधमतम रूप को चित्रित करता है परंतु देवल इस समय भी इस बात का ख्याल रखता है कि कहीं उसका व्यवहार वरुण को चोट न पहुँचा जाए -

'मैं तो संकोच में गड़ गया कि जिस काम के लिए आया हूँ, उसे कैसे अंजाम दूँ, कैसे कहूँ कि मेरे पैसे दे दीजिए, बड़ा हर्ज है। और न कहूँ तो और कौन उपाय है कि रोटी का सवाल हल हो?

देवल की दयनीय दशा को देखकर ऐसा कोई भी व्यक्ति न होगा जो पूरी तरह से उससे प्रभावित न हुआ हो (पाठकों के संदर्भ में) लेकिन कहानी का पात्र वरुण उसकी इस परिस्थिति से वाकिफ होते हए भी अनजान बना रहता है और उसे किसी भी तरह से टरकाना चाहता है। देवल जब उससे पैसे की बात कहता है तब उसका मुकर जाना वैयक्तिकता के नारकीय सत्य को उद्घाटित करता है -

'किताब नहीं... पैसे...।

पैसे? वरुण ने कहा।

हाँ...।

कैसे?

ये पंक्तियाँ वरुण के माध्यम से समाज के काइयाँ चरित्र वाले व्यक्तियों का ही पर्दाफाश नहीं करती अपितु कमल जैसे लोगों की भी बखिया उधेड़ती है। वरुण जैसे लोग समाज के लिए खतरनाक तो हैं ही लेकिन यह कहानी कमल जैसे लोगों को विषवृक्ष सिद्ध करती है। इस बात का पता तब चलता है जब रील जैसी चल रही कहानी के अंत में देवल को 'वाह एक रुपया तो मैंने भी तुम्हें दिया था, उसे मैं न लूँ? पंक्ति में चलता है। कितनी खतरनाक स्थिति है जो केवल अवसर की तलाश में लगी है। मौका मिला नहीं कि दबोच लिया उस मगरमच्छ की तरह जो पानी की सतह पर शिकार के लिए घात लगाए बैठा रहता है। फिर कहानी में पिछ्ली घटना को दोहराकर कथाकार पाठकों को देवल के साथ हुए इस अन्याय के लिए बार-बार सोचने के लिए विवश करता जान पड़ता है और व्यैक्तिकता की कसौटी पर संबंधों की कृत्रिमता को और उजागर करने के लिए इन पंक्तियों का सहारा लेता है -

'याद तो नहीं आता। परंतु आप कह रहे हैं तो मैंने जरूर लिए होंगे। किस काम के लिए... आपको याद है?

कहानी के चरित्रों पर विस्तार से चर्चा के बाद जब हम कहानी के अंत पर आते हैं तो पाते है कि झूठी तसल्ली देने वाली यह दुनिया सीधे-साधे लोगों का खून चूसने वाली है। वरुण द्वारा पैसे देने की झूठी तसल्ली और कमल द्वारा पूछा जाना कि 'आज खाना खाया है?' देवल जैसे लोगों के शोषण को दर्शाती है और शोषित (देवल) को घर आने का झूठा आमंत्रण दे उसे इस समाज में धक्के खाने और फाकेकशी के लिए छोड़ देती है।

और अंत में 'सोलह आने' कहानी न केवल रुपया भर रहती है बल्कि इस समाज के खरेपन पर सवालिया निशान लगाती है जो होता कुछ है और दिखता कुछ है।


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