विश्व की धरोहर में शामिल नहीं है गंगा यमुना का उर्वर मैदान जहाँ धान रोपती बनिहारिनें रोप रही हैं अपनी समतल सपाट सी जिंदगी उनकी झुकी पीठें जैसे पठार हो कोई
और निर्मल झरना झर रहा हो लगातार उनके गीतों में धान सोहते हुए सोह रही हैं अपने देश की समस्याएँ काटते हुए काट रही हैं भूख की जंजीर और ओसाते हुए छाँट रही हैं
अपने देश की तकदीर लेकिन अब उनके धान रोपने के दिन गए धान सोहने के दिन गए धान काटने के दिन गए धान ओसाने के दिन गए कोठली में धान भरने के दिन गए अब धान सीधे
मंडियों में पहुँचता है सड़ता है भंडारों में और इधर पेट कई दिनों से अनशन पर बैठा है भूख के विरुद्ध जबसे काट लिए हैं इनके हाथ मशीनों ने बड़ी संजीदगी से।