''प्रिय भैयो,
तुम्हारे और केदार के सब पत्र पढ़ गया हूँ। किसी अंग्रेजी पढ़े-लिखे मित्र से पूछना कि इंग्लैंड के दो (तीन तो बहुत हैं) साहित्यकारों का नाम लें जिनकी
दोस्ती - सचमुच की दोस्ती, महज खत-किताबत वाली नहीं और साहित्यकारों की दोस्ती, साहित्यकार और उसके भक्तों की नहीं - उसके साहित्यिक जीवन के आरंभ से लेकर
तीस साल तक एक बार भी जूतमपैजार और मुँह-फुलौवल के बिना बनी ही न रही हो, वरन गढ़ियाई हो। यहाँ भी अंग्रेजी फौक्स हुई।''
डॉक्टर के पुराने पत्रों को सँजोकर बैठा हूँ। सन 40 से लेकर 64 तक के पत्र लिफाफे, पोस्टकार्ड और अंतर्देशीय पत्र के कागजों पर लिखी गई चिट्ठियों की नुमायश
लगी है, भाँति-भाँति के सिरनामे छपे कागज-बाल साहित्य संघ, लखनऊ; कैनिंग कालेज एथेलेटिक एसोसिएशन, लखनऊ; हिंदी साहित्य सभा लखनऊ, रामविलास शर्मा, एम.ए.
पीएच.डी. डिपार्टमेंट ऑफ इंग्लिश, लखनऊ यूनिवर्सिटी (अंग्रेजी में छपा); उच्छृंखल मंथली और मासिक समालोचक आगरा के कागजों पर उनके विभिन्न निवास-स्थानों के
पते अंकित हैं। कैलाशचंद्र दे लेन, मकबूलगंज और सुंदरबाग, लखनऊ के पते हैं, बाकी आगरे के ठिकाने हैं - बैंक हाउस, सिविल लाइन्स; शिवसदन; स्वदेशी बीमानगर;
महताब भवन, वजीरपुरा, बलवंत राजपूत कालेज, आगरा; आर.वी. शर्मा एम.ए. पीएच.डी. (लक), हेड आफ दि डिपार्टमेंट आफ इंग्लिश, बी, आर. कॉलेज, आगरा; गोकुलपुरा, मदीया
कटरा; अशोक नगर और 30 न्यू राजामंडी। यहाँ आकर पता स्थायी होता है। यह रामविलास की अपनी गाढ़ी कमाई की बनवाई हुई पुख्ता आलीशान बागीचेदार कोठी है जिसके ऊपरी
छज्जे की बेल को देखकर मैंने उस मकान का नाम 'दुपल्ली टोपी' रख दिया है, हालाँकि रामविलास ने उसे स्वीकार नहीं किया।
इन ढेर सारे तिथियों और वर्षों के हुजूम से गुजरते हुए मेरा मन स्मृतियों की नशीली तरंगों से भर उठा। इन पत्रों के बहाने यादें कहीं-कहीं देर तक टिक जाती हैं
और जब उनसे उबरकर अपने वर्तमान में आता हूँ तो लगता है कि विकास की अटूट परंपरा से जुड़े रहने के बावजूद मैं किसी दूसरे जन्म में आ गया होऊँ। यह अधेड़ उम्र
उसकी जिम्मेदारियाँ, सुख-दुख थोड़ी देर के लिए सब भूल गया। उन्नीस-बीस बरस की लड़काई उमर में अपने दिन देखने लगा। लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र श्याम वर्ण के
छरहरे, पतली रेख-सी मूँछों और कसरती बदनवाले नवयुवक रामविलास शर्मा मेरी ध्यानदृष्टि के सामने इस समय एकदम सजीव, मूर्तिमग्न होकर खड़े हैं। जहाँ तक याद पड़ता
है वे सन 34 में झाँसी से इंटरमीडियट पास करके यहाँ पढ़ने आए थे। मेरी पहली भेंट सन 35 के मार्च महीने में होली के एक या दो रोज बाद हुई थी। लखनऊ आने के शायद
कुछ ही अरसे के बाद निरालाजी से उनकी भेंट हो गई थी। महाकवि रामविलास से बहुत प्रभावित हो गए थे। मुझसे मिलने पर अक्सर रामविलास की प्रशंसा किया करते थे,
''बड़ा तेज है, ये डॉक्टर बनेगा एक दिन, अपने गुरु सिद्धांत को भी अंग्रेजी में पछाड़ेगा।'' मेरे मन पर अपरिचित रामविलास शर्मा का रोब छा गया था। एक बार
श्रीराम रोड स्थित सरस्वती पुस्तक भंडार की दुकान पर बैठा हुआ था। सामने सड़क पर एक साइकिलधारी नवयुवक गुजर गया। दुकान के मालिक श्री रामविलास पांडेय ने मुझे
बतलाया कि ये रामविलास शर्मा जा रहे हैं। पर वे मेरे देखते-देखते ही आँखों से ओझल हो गए।
सन 34-35 के वर्ष मेरे लिए आसान न थे। उन दिनों यानी सन 34 में मैं कुछ उखड़ा-उखड़ा अशांत मानस जीवन बिता रहा था; नई उम्र की रंगीन कमजोरियाँ अपनी राहों पर
चोरी-छिपे बढ़ रही थीं। इस वर्ष मैं साहित्यिक मित्र-मंडली में अधिक उठ-बैठ न सका। उस समय तक मेरी अपनी मंडली ही क्या थी - बड़े बुजुर्गों के यहाँ जाना, उनकी
बातें सुनना-कविरत्न रूपनारायणजी पांडेय या कभी कभी स्वनामधन्य मिश्र-बंधुओं के यहाँ। अक्सर दुलारेलालजी भार्गव के 'गंगा पुस्तकमाला' कार्यालय में और
अधिकतर शामें निरालाजी के साथ बीतती थीं। अपनी मंडली का आभास मुझे केवल निरालाजी के यहाँ होता था, क्योंकि समवयस्क प्रतिभाशाली नवयुवक उनके यहाँ बराबर आते
रहते थे। मैं उन दिनों उन गोष्ठियों में बहुत कम शामिल हो सका और जब कभी हुआ भी तो बानक सदा ऐसे बने कि रामविलास मुझे वहाँ न मिल सके। एकाध बार यह भी सुना कि
अभी-अभी बाहर गए हैं। रामविलास को देखने की उत्कण्ठा मेरे मन में सवार हो गई। फरवरी 35 में मेरे पिता का स्वर्गवास हुआ। निरालाजी उन दिनों जल्दी-जल्दी मेरे
घर का चक्कर लगा जाते थे। एक दिन होली के बाद मैं सवेरे ही उनके घर चला गया। तब वे नारियल वाली गली में रहते थे और शायद 'तुलसीदास' लिख रहे थे या लिखने की
तैयारी में थे। रामविलास उस दिन निरालाजी के घर पर ही मिले। निरालाजी ने बड़े तपाक से परिचय कराया। रामविलास रिजर्व टाइप के आदमी लगे। जोश आने पर निरालाजी में
दिखावे की भावना भी खूब आती थी। रामविलास के अंग्रेजी साहित्य के ज्ञान से वे चित्त हो चुके थे और अपने काव्य पर उनकी विद्वत्तापूर्ण प्रशंसायुक्त आलोचना
से गद्गद। मेरे सामने उन्होंने रामविलासजी से पंजा लड़ाया और शायद शेक्सपियर या किसी अन्य अंग्रेजी कवि को लेकर उनसे कुछ चोंचें भी लड़ाईं। हम लोग घर से उठकर
हीवेट रोड, पैरागॉन रेस्ट्रां में चाय पीने के लिए आए। वहाँ देर तक बैठे, निरालाजी से खुलकर हँसते-बोलते हुए हम दोनों बीच-बीच में बाअदब कुछ आपस में भी
बोल-बतिया लिया करते थे। मेरे मिजाज में तकल्लुफ और उनके मिजाज में संकोच, लिहाजा दोस्ती की गाड़ी रुक-रुककर आगे बढ़ती रही। निरालाजी के साथ रामविलास अब
कभी-कभी मेरे घर पर भी आने लगे। मेरे बचपन के साथियों में ज्ञानचंद जैन, राजकिशोर श्रीवास्तव और स्व, गोविंद बिहारी खरे इंटेलेक्चुअल और साहित्यिक अभिरुचि के
लोग थे। कभी-कभी मुझमें, रामविलास और गोविंद में शब्दों को लेकर मजेदार खोद-विनोद होने लगती थी। मेरे और रामविलास के बीच यह कड़ी शुरू से ही बड़ी मजबूत रही है।
आगे चलकर यही शब्द-विलास रामविलास को भाषा-विज्ञानी बना गया।
हमारी घनिष्ठता की दूसरी कड़ी में अंग्रेजी और योरूप की दूसरी भाषाओं के साहित्यिकों के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा भी बड़ी महत्वपूर्ण थी। सच पूछा जाए
तो मेरे और रामविलास के बीच घनिष्ठता की यह सबसे मजबूत कड़ी थी। रामविलास और स्व. गोविंद विहारी खरे - अपने इन दो मित्रों की कृपा से मेरी
पश्चिमी-साहित्य-संबंधी जानकारी बहुत बढ़ी। आपसी बहसों में खूब लड़ते-झगड़ते हुए इन पिछले तीस वर्षों में हमारी दोस्ती गढ़ियाई है। यह सचमुच मजे की बात है कि
बहस-मुबाहसों में बड़ी तेज गर्मागर्मी लाकर भी हम एक दिन के लिए भी आपस में कटु नहीं हुए।
सन 1938 में मैंने साप्ताहिक पत्र चकल्लस का आरंभ किया। उन दिनों बनारस से हास्य रस का एक पाक्षिक पत्र खुदा की राह पर निकल रहा था। मैंने बनारस में ही अपने
मित्र स्व. पुरुषोत्तम दवे 'ऋषि' के सुझाव पर पाक्षिक अल्लाह दे नामक पत्र निकालने की योजना बनाई। लखनऊ आने पर इस नाम से पत्र के तीन अंक निकाले, पर यह नाम
मुझे पसंद न था। मित्रों को भी इस नाम से सख्त चिढ़ थी और उन्होंने मेरा मजाक भी उड़ाया। उन्हीं दिनों अपना संघर्ष पत्र समाजवादी पार्टी को सौंपकर उसकी
प्रकाशन योजना के साथ ही साथ श्री नरोत्तम नागर मेरठ से लखनऊ आ बसे थे। यहाँ संघर्ष वालों से उनका कुछ संघर्ष हो गया और वे उस पत्र से अलग हो गए। वे बेकार थे।
हम सबने योजना बनाई कि पत्र तो हास्य और व्यंग्य का ही निकाला जाए, लेकिन उसे एक तो पाक्षिक के बजाय साप्ताहिक बनाया जाए और दूसरे अल्लाह दे जैसे भोंडे नाम
के बजाय कोई अच्छा मजेदार नाम दिया जाए।
मेरी एक पुरानी डायरी के अनुसार 2 जनवरी, सन 1938 को सर्वश्री निराला, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा और नरोत्तम प्रसाद नागर मेरे यहाँ पधारे थे। 'बड़कवन
और मुँहलगे' के तौर पर शायद दो-एक लोग और भी होंगे, क्योंकि मैंने इन नामों के साथ-साथ आदि शब्द भी लिख छोड़ा है। मैंने अपनी एक नई कहानी सुनाई, पत्र निकालने
के प्रस्ताव पर भी उसी दिन बातें हुईं। डायरी के अनुसार उसी दिन बंधुवर नरोत्तमजी से पत्र के संपादन के संबंध में तय किया। एग्रीमेंट का मसौदा भी उसी दिन बना।
पत्र का नाम उस दिन निश्चित न हो सका। 6 जनवरी को स्व. पं. रूपनारायणजी पांडेय ने 'मसखरा' नाम सुझाया, सबको पसंद भी आया। रामविलास को यों तो ये नाम पसंद था पर
'मसखरा' से 'चकल्लस' नाम उन्हें अपने मन ही मन अधिक जँच रहा था। इसका एक कारण था - स्व. बलभद्र दीक्षित 'पढ़ीस' अवधी भाषा के बहुत ही अच्छे कवि थे। निराला
गोष्ठी के एक सम्मानित सदस्य थे, आयु में वे हम लोगों से काफी बड़े थे, पर उनका लेखन-काल हम लोगों के साथ ही आरंभ हुआ था। वे मेरे और रामविलास शर्मा के
अनन्य मित्रों में से थे। बैसवारी अवधी में उनकी कविताओं का एक संग्रह चकल्लस नाम से उन दिनों ताजा-ताजा प्रकाशित हुआ था।
रामविलास ने उसी नाम को आगे बढ़ाया। ''भई, मसखरा नाम है तो अच्छा मगर 'चकल्लस' में जो बात है वह उसमें नहीं आती।'' 7 जनवरी को गोविंद ने बतलाया कि
न्यूमेरालॉजी के हिसाब से मसखरा नाम ठीक नहीं। 'चकल्लस' लाभदायक है, यही रक्खा जाए। वसंत पंचमी के दिन उसे प्रकाशित कर देने की योजना बनी। बड़े जोश के साथ हम
लोग काम में लगे। स्व. गोविंदबिहारी खरे, रामविलास शर्मा और स्व. बलभद्र दीक्षित 'पढ़ीस' ने मुझे और नरोत्तम नागर को जैसा हार्दिक सहयोग दिया, वह कभी भुलाया
नहीं जा सकता। गोविंद ने बी.काम. पास किया था और उन दिनों बेकाम भी थे। उन्होंने दफ्तर और हिसाब-किताब सँभाला। नरोत्तम ने इलाहाबाद जाकर कलाकार बागची से पत्र
के बड़े ही सुंदर डिजाइन्स बनवाए। मैंने प्रेस, कागज आदि की दौड़-धूप में मन लगाया और हमारा कोतवाल यानी रामविलास मैटर सँजोने में लग गया। यों तो पत्र के
संपादक मैं और नरोत्तम थे, पर इलाहाबाद जाते समय मैटर को तरतीब देने का भार नरोत्तम रामविलास को ही दे गए। वो जोश के दिन अपनी याद से इस समय भी मेरे मन को वही
पुरानी फुरफुरी दे रहे हैं। यह कुछ नौजवानों का जोशीला सामूहिक प्रयत्न था। पैसा भले ही मेरा लगा हो, पर इनमें से एक भी ऐसा न था जो पत्र को अपनी मिल्कियत न
समझता हो। पैसे की अहंता महत्वपूर्ण होकर भी उद्देश्य की निष्ठा के आगे बहुत छोटी हो जाती है। पैसा महज एक मशीन है, जिससे हम तरह-तरह के उपयोगी कामों का
ताना-बाना बनुते हैं। चकल्लस प्रकाशन के दौर में अपने इन सब बंधुओं की कृपा से मेरी सामाजिक दृष्टि निखरी। मेरे वातावरण में व्याप्त महाजनी और सामंती सभ्यता
के कुसंस्कार चकल्लस प्रकाशन के दौर में खूब खूबी से दूर हुए और उसके लिए मैं अपने इन बंधुओं का ऋणभार कभी अपनी चेतना से उतार नहीं सकता। सच पूछा जाए तो विलास
चकल्लस प्रकाशन के डेढ़ वर्षों में ही मेरे अत्यधिक निकट आए। इस शख्स में अपनी कुछ ऐसी खूबियाँ हैं कि मन से उतारे नहीं उतरतीं। निरालाजी के समान नशेबाज गुरू
का साथ और भाई, फिर भी अछूते बच गए। हम लोग, जैसा कि आमतौर पर चार नौजवानों के मिल बैठने पर होता है, इश्क और हुस्न के रस-बहाव में अपने आप ही बहने-बहलने लगते,
रामविलास शुरू से ही प्रेमचर्चा शून्य रहे। वे जहाँ डट गए वहाँ अंगद के पाँव की तरह थिर हो गए, फिर सारी दुनिया आ जाए, मगर उनको अपनी जगह से हटा नहीं सकती। ऐसे
व्यक्ति टूट भले ही जाएँ, पर झुक नहीं सकते। मैं रामविलास के इसी व्यक्तित्व से बँधा हूँ। रामविलास के इस बैसवारी अहम को आमतौर पर भ्रमित दृष्टियों से देखा
गया। लोगों में यह भ्रम फैल गया है कि रामविलास खरे और ईमानदार तो हैं, पर अकड़ू बहुत हैं, किसी से मिलकर नहीं चलना चाहते। यह बात गलत है। रामविलास के समान
विनम्र और विनयशील व्यक्ति मैंने कम देखे हैं। लेकिन उनकी विनम्रता और विनय उनकी मान्यताओं के आड़े कभी नहीं आती। हम शहरी लोग तकल्लुफ में अपने दोस्तों से
भी एक जगह मन की शिष्टाचार-भरी चोरी रखते हैं या उनके दबाव में आकर अपनी मान्यताओं को मन में ही दबा जाते हैं; रामविलास में यह शहरी दुर्गुण नहीं हैं। वह
खासतौर पर उन बुजुर्गों, मित्रों और छोटों की गलत बात पर राजी ही नहीं हो सकते जिनके प्रति उनकी श्रद्धा, स्नेह और ममत्व है। हम शहरी लोग ऐसे मौकों पर बुरा
मान जाते हैं, खासतौर पर उनका विरोध हमें और भी बुरा लगता है जो हमारे निकट होते हैं। रामविलास सौम्य, गंभीर, प्रतिभावान और विचारक होने के कारण शहरी समाज के
ऊँचे से ऊँचे लोगों की संगत में बैठने-उठने के अवसर सहज ही पाते रहे। लोग उनके प्रति आकृष्ट भी होते रहे और उन्हें अपना स्नेह भी दिया। लेकिन ऐसों में ही
अनेक व्यक्तियों से उनका यह भ्रम नाता आरंभ हुआ। इस भ्रम के लिए रामविलास अधिकतर दोषी नहीं माने जा सकते। हाँ, उनके एक प्रबल दोष नहीं माने जा सकते। हाँ उनमें
एक प्रबल दोष है, जब कोई उनसे बेजा तौर पर नाराज होता है तो वे ठेठ देहाती की तरह उसको 'टि-ली-ली-भों' वाली मुद्रा में चिढ़ाने लगते हैं। जब वो चिढ़ता है तो ये
और तेज होते हैं। रामविलास की तीखे व्यंग्य-भरी फिस-फिसवाली हँसी ने बहुत-से-कलेजों पर तलवार से वार किया। रामविलास का क्रोध भीतरी है, पर घुन्ना नहीं। उनके
क्रोध का बहिर्प्रदर्शन आमतौर पर उनकी जहरीली हँसी और व्यंग्य वचनों के रूप में ही होता है। निरालाजी क्रोध की तेज बाढ़ में विवश होकर में बहते नहीं बल्कि
तैरते हैं। बहने वाला उनके इसी संयम से आतंकित होता है। रामविलास जब चिढ़ते हैं, तब उनका तर्कजनित व्यंग्य और भी सधता है।
मुझे ठीक याद है, वसंत पंचमी के दिन चकल्लस पहला अंक निकला था। 'यह कइसि चकल्लस आई' शीर्षक से पहली कविता पढ़ीसजी की थी। बाकी सारा मैटर नरोत्तम, रामविलास और
मैंने मिलकर लिखा। प्रायः हर अंक का अधिकांश मैटर हम तीनों ही पूरा करते थे। कई उपनाम रख लिए थे। और खूब लिए थे। और खूब मजे ले-लेकर लिखते थे। वे भी क्या मौज
के दिन थे। रामविलास उन दिनों शायद एम.ए. के अंतिम वर्ष में थे। युनिवर्सिटी से लौटकर शाम को नित्य प्रति मेरे यहाँ आते। नाश्ता, चाय, हुक्का, पान चलने लगता।
गप्पें लड़तीं, दूसरे अंक के मैटर की योजनाएँ बनती और कभी-कभी तो हम लोग एक ही तख्त पर साथ बैठकर लिखा भी करते थे।
हिंदी के प्रति रामविलास की निष्ठा और भक्ति शुरू से ही अटल रही है। कोई हिंदी के खिलाफ कुछ कह भर जाए, फिर भला यह विलास के व्यंग्य बाणों से बचकर जा ही कहाँ
सकता है। स्वयं गुरुदेव रवींद्र नाथ तक चकल्लस के 'कुकडू-कूँ' स्तंभ में रामविलास से बच नहीं पाए। हिंदी साहित्य की उन्नति के संबंध में रामविलास की
कल्पनाएँ और जोश अपार था। रूस की पंचवर्षीय योजना पद्धति से स्फूर्ति लेकर विलास उन दिनों में भी अच्छा हिंदी साहित्य लिखने की योजना बनाया करते थे : "तुम
ये लिखोगे, कक्कू (पढ़ीस) वो लिखेंगे, मैं इतने लेख तैयार करूँगा, नरोत्तम ये करेंगे। उच्चन (स्व. बुद्धिभद्र दीक्षित) बच्चों का साहित्य लिखेगा। अमृत, तुम
एक प्रेस भी ले लो, चकल्लस के साथ अपना प्रकाशन भी होना चाहिए।" बस इसी तरह की काम-काजी योजनाएँ बना करतीं। मैंने प्रेस के लिए आर्डर भी दे दिया था। हर रविवार
को गोष्ठी होती - अक्सर मेरे यहाँ कभी-कभी पढ़ीस और रामविलास के यहाँ भी। उसके लिए खास-तौर पर हमें लिखना ही पड़ता था, नहीं तो रामविलास हमारी जान खा जाते थे।
मैंने उनका एक नाम कोतवाल भी रख छोड़ा था। विलास को हम लोग डॉक्टर के नाम से भी पुकार करते थे। बी.ए. में पढ़ते समय ही निरालाजी ने रामविलास को यह उपाधि दे दी
थी। वह उपाधि न होकर रामविलास के उपनाम जैसी ही बन गई थी। रामविलास के छोटे भाइयों के उपनाम जैसे चौबे, मुंशी, अवस्थी आदि थे वैसे ही विलास का एक नाम डॉक्टर
भी हो गया। हालाँकि जब रामविलास डॉक्टर हुए तो मैं ऐसा मगन हुआ मानो मैं ही डॉक्टर हो गया था। विलास ने ये डॉक्टरी सन 40 में अर्जित की थी। मैं तब फिल्मी
लेखक बनकर बंबई में बस चुका था। बंबई में एक शाम लखनऊ रेडियो का प्रोग्राम सुनते हुए मैंने एकाएक एनाउन्सर द्वारा डॉ. रामविलास शर्मा नाम की घोषणा सुनी। उसके
बाद आवाज, आई तो अपने डॉक्टर की। मुझे बड़ा क्रोध आया कि विलास ने अपनी डॉक्टरी पाने की खबर मुझे क्यों नही दी। उसी क्रोध में मैंने 9-7-40 को विलास को कोई
दिल्ली में भाड़ झोंकता है तो कोई बंबई में। यह तो निश्चित ही था कि डॉक्टरेट मिलते ही मैं तुम्हें पत्र लिखकर और बिना पत्र के जब मेरे नाम के साथ तुमने
डॉक्टर देखा, तभी तुम्हें अपने कान खड़े करने चाहिए थे! यह डॉक्टरेट मुझे रेडियो वालों से मिली है।
इसी जुलाई मास में बाल साहित्य संघ, 112 मकबूलगंज के लेटरहेड पर डॉक्टर का एक पत्र मिला -
"प्रिय अमृत !
हमारा Thesis approved हो गया है। इस convocation में डिग्री मिल जाएगी। तुम्हारी बात सच है। अब लखनऊ आओ तो मिठाई खाई जाए।"
रामविलास की डॉक्टरी का उत्सव मैंने बंबई में अपने ढंग से खूब मनाया। बंबई में उस समय दो ही ऐसे साथी थे जिसको अपनी इस खुशी में शरीक कर सकता था। एक श्री
किशोर साहू और दूसरे श्री महेश कौल। वो शाम कभी भूलेगी नहीं। मैं स्टूडियो से लौटते हुए दादर बार से उत्सव की विशेष वस्तु लेकर लौटा। महेशजी मेरे साथ ही आए
थे। इंतजार साहू साहब का था। चूँकि उन दिनों मैं और महेश दोनों ही बंबई में अनाथ थे, इसलिए अक्सर किशोर के घर पर ही हमारा भोजन होता था। किशोर के माता-पिता
दोनों ही उन दिनों बंबई में थे, इसलिए बोतलामृत का पान उनके घर पर न हो सकता था। तय यह हुआ कि उत्सव महेश के घर पर मनाया जाएगा और खाना किशोर के यहाँ से आएगा।
लेकिन किशोर साहू भूल गया। नौ बजे रात तक हम लोग उनकी प्रतीक्षा में बैठे-बैठे सूखते रहे। किशारे के घर जा नहीं सकते थे, क्योंकि वहाँ जाने पर खाना पड़ता और
किशोर के बिना उनके घर से खाना मँगवाना भी बुरा मालूम पड़ रहा था। नौ-सवा नौ बजे हारकर नीचे के ईरानी होटल वाले से स्लाइस, मक्खन, मटर, महेश के लिए आमलेट आदि
मँगवाया। पीने की लज्जत तो रही पर खाना उम्दा न मिला। मैंने उस दिन चिट्ठी पाने के बाद महेश से कहा था, "डॉक्टरी तो रामविलास को मिली है पर उसका नशा मुझ पर
चढ़ा है।" रात में महेश बोले, "दोस्त के डॉक्टर होने का नशा तो तुम्हें बखूबी चढ़ा, मगर उस्ताद, नशे से तुम्हारा पेट नहीं भर सकता।"
बात अपने ढंग से सही थी, लेकिन यह भी सच है कि रामविलास की डॉक्टरी का नशा मेरे मन से आज तक नहीं उतरा। एक तो उन दिनों डॉक्टर शब्द की कीमत बहुत थी। मुर्गी
के अंडों जैसे पैदा होने वाले आज के-से डॉक्टर उस समय थे। मेरे मित्रों में रामविलास पहले डॉक्टर थे। दूसरे यह कि डिग्रियों और डॉक्टरेट उस समय मेरे मन की
सबसे बड़ी कमजोरी भी थी। मेरे पिता की बड़ी इच्छा थी कि मैं ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ पास करूँ, वह न पाया; उनकी कचोट आज तक मेरे मन में है और शायद जीवन भर रहेगी।
इसके साथ ही साथ यह भी सच है कि रामविलास की डॉक्टरी मेरे उस जख्म पर मरहम-सा काम करती हैं। कभी कोई शास्त्रीय पद्धति की पुस्तक लिखने का विचार मन में आता
है तो सोचता हूँ कि विलास से कहूँगा। मन की झिझक के बावजूद अपने जी की एक और बचकानी बात भी लिख दूँ - रामविलास लिखित सत्तावन की राज्य-क्रांति तथा भाषा और
समाज पुस्तकें मेरी अहंता को ऐसा संतोष देती हैं मानों वे स्वयं मेरी ही लिखी हुई हों। भाषा-विज्ञान, भारतीय संस्कृति तथा इतिहास - ये विषय ऐसे रहे हैं जिन
पर हमने घंटों बहसें की हैं।
बंबई की दुनिया लखनऊ से न्यारी थी। जो काम वहाँ कर रहा था वह कृति-साहित्य से संबंध रखते हुए भी साहित्य न था। किशोर, महेश और किशोर के पिता श्री कन्हैया
लालजी साहू को छोड़कर बंबई की फिल्मी दुनिया में एक भी आदमी ऐसा न था जिससे बातें करके मेरा जो जुड़ता। लखनऊ के साहित्यिक वातावरण की याद उसी तरह आती थी जैसे
नई ब्याहता को ससुराल में मैके की सखियाँ याद आती है। मेरा ख्याल है, उन दिनों जितने पत्र मैंने लिखे हैं उतने शायद उससे पहले या बाद में नहीं लिखे। यह पत्र भी
विशेषतया चार साथियों को लिखे - ज्ञानचंद जैन, रामविलास शर्मा, गोविंदबिहारी खरे और राजकिशोर श्रीवास्तव को। पत्र लिखकर अथवा उनसे अपने पत्रों के उत्तर पाकर
मेरे बंबइया जीवन का श्रम-ताप हर जाता था। ज्ञानचंद के पत्रों से इलाहाबाद के साहित्यिक जीवन के समाचार मिलते, राजू के पत्रों से हँसी और गुदगुदी तथा गोविंद और
रामविलास के पत्र से मुझे साहित्यिक लेखन-पठन की प्रेरणा मिलती रहती थी। रामविलास ने अपनी 'कोतवाली' का प्रसार बंबई तक कर रखा था। सन 40 के 19 अगस्त को
कैलाशचंद्र दे लेन, सुंदरबाग, लखनऊ से लिखा गया एक पत्र रामविलास की मानसिक गतिविधियों का अच्छा परिचय देता है :
''तुम्हारा पत्र कॉलेज से आने पर मिला। इतना लिखकर ललित (ज्येष्ठ पुत्र - अ.) को पढ़ाते-पढ़ाते मैं सो गया। आँखों में अब भी नींद भरी है। एकांकी नाटक के लिए
'गोरखधंधा' (मेरी एक कहानी - अ.) को यदि वार्ता के रूप में लिख डालो तो कैसा हो। सवेरे उठते ही खोंचेवाले की आवाज और उसके बाद वही पारिवारिक चर्खा। घटनाओं का
तार टूटने न पाए, एक ही दिन में सब बातें खत्म हो जाएँ। 'नवाब साहब बंबई में' (मेरी नवाबी मसनद के नायक) भी अच्छा विषय रहेगा, परंतु पता नहीं यह उन्हें सहन
होगा या नहीं।
''एक स्कीम के बारे में तुम्हें लिख रहा हूँ। अभी सोते में उसे स्वप्न में नहीं देखा। कई महीनों से वह मन में है। एक त्रैमासिक पत्रिका निकाली जाए। उसमें
साहित्य और विज्ञान पर लेख रहेंगे। अब इंटरमीडियट तक हिंदी शिक्षा का माध्यम बन रही है। शायद आगे बी.ए. में भी बने, परंतु उचित पुस्तकों का अभाव है। ये
पुस्तकें एक दिन में किसी से कहकर नहीं लिखाई जा सकेंगी। इसके लिए एक ऐसी पत्रिका चाहिए जहाँ हम नए लेखक जमाकर उनकी लेखनशक्ति और उनके सेवा-भाव की जाँच कर
सकें। हमें अपने और बनारस तथा इलाहाबाद के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों से सहयोग प्राप्त होगा। अपने यहाँ के तो बहुत-से लोगों से मैंने वचन भी ले लिया है।
उर्दू में उस्मानिया विश्वविद्यालय से एक ऐसी पत्रिका निकलती है, परंतु हमारे यहाँ हिंदी-प्रेम अभी मेरी तरह सो रहे हैं। कोई आश्चर्य न होगा यदि हिंदुस्तानी
के नाम Intermediate और B.A. में शिक्षा का माध्यम उर्दू बना दी जाए। उर्दू वाले कहेंगे, हमारे यहाँ पहले साइंस का अदब मौजूद है। संसकीरत के नए शब्द गढ़ने की
क्या जरूरत है?
विज्ञान पर हम ऐसे लेख अपनी पत्रिका में देंगे जो साधारण शिक्षित पाठकों को भी रुचिकर हों। सामयिक वैज्ञानिक विषयों पर भी, जैसे सर रमन द्वारा आविष्कृत किरणों
पर। सर सुलेमान ने जो आईस्टाइन की 'थ्योरी ऑफ रिलेटिबिटी' की आलोचना की है, उस पर हम आलोचनात्मक और रचनात्मक लेख छापेंगे। दर्शन, इतिहास, राजनीति आदि विषयों
पर भी लेख रहेंगे। नई पुस्तकों और लेखों के सारभाग भी संक्षिप्त रूप में होंगे। हिंदी की प्रगति की नाप-जोख भी होगी, इतना काम इस दिशा में इस कोटि का हुआ;
किधर ज्यादा काम करना है, आदि।साहित्यिकों के पत्र, कविताएँ, पुराने साहित्यिकों के संस्मरण, वर्णनात्मक निबंध, आदि पत्रिका की विशेषताएँ होंगी।
"एक संख्या में 100-125 पृष्ठ होंगे। (मूल्य 1 रुपये लगभग, एक संख्या निकालने में करीब 400) खर्च होंगे। यदि 400 ग्राहक हों तो काम चल सकता है। मैं जानता
हूँ कि केवल ग्राहक बनाकर इस पत्रिका को निकालना दुष्कर है। इसके लिए हिंदी-प्रेमी धनी सज्जनों की जरूरत है। मैं चाहता हूँ कोई सज्जन कम से कम दो अंकों के
लिए कागज और छपाई का प्रबंध कर दें तो काम निकल जाएगा। तुम्हारे मित्र श्री द्वारकादास डागा हिंदी-प्रेमी हैं, उनके सामने यह मसौदा रखना। क्या वह किसी प्रकार
की सहायता कर सकेंगे? तुम समझ गए होंगे, जैसे लोगों को पत्रिका निकालने की धुन होती है, वह मुझे नहीं है। मैंने कई महिनों तक इस पर सोचा भी है। उत्तर शीघ्र
देना, स्वास्थ्य का ध्यान रखना। - तुम्हारा, रामविलास"
ऐसी स्कीमें रामविलास की कल्पना को सदा से बाँधती रही है। मुझे याद है, मैंने रामविलास की सलाह पर अपने धनाधीस मिश्र श्री डागा से इस संबंध में बात चलाई थी।
पहले तो वे राजी हुए, कहा कि डॉक्टर शर्मा को यहाँ बुला लीजिए, बात हो जाए, परंतु दूसरे ही दिन उन्होंने मुझसे कहा, "पंडिजी, हमारी राय है कि अभी साल छह महीने
और ठहर जाइए। लोगों की सलाह है कि पहले फिल्म कंपनी जम जाए, फिर ऐसे कामों में हाथ डालना उचित होगा।"
मुझे ऐसा लगा कि रामविलास के आगे मेरी नाक नीची हुई जाती है। यह भी सोचता था कि पत्रिका निकलने पर बंबई के अपने जीवन को मैं सफलतापूर्वक निभा ले जाऊँगा। दरअसल
कोरा फिल्मी जीवन मुझे काटता था। मैंने उलट-फेर कर बहुविधि डागाजी को अपनी बात मानते के लिए राजी करना चाहा, पर किसी 'दुश्मन' न भाँजी मार दी। मुझे यह तो याद
नहीं कि मैंने रामविलास को इस पत्र का उत्तर कब दिया था, पर इतना कह सकता हूँ कि अपनी असफलता पर दुखी अवश्य हुआ था।
हिंदी के संबंध में यह लगन रामविलास के मन में मैंने सदा से 'जागती ज्योति-सी' देखी है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि किसी भी भाषा के प्रति विलास के
मन में अनादर या अवज्ञा की भावना कभी एक क्षण के लिए भी नहीं आई। विलास के प्रगतिशील विद्वान मित्रों ने कभी-कभी उन्हें संकीर्णतावादी प्रच्छन्न हिंदू भी
माना है। एक सज्जन ने एक बार रामविलास के संबंध में बातें चलने पर बड़े घुमाव-फिराव के साथ मुझसे कहा, ''भइ, तुम्हारे दोस्त के आलिम होने में तो दो राय हो ही
नहीं सकती, मगर वे तअस्सुब जरूर रखते हैं।'' मैं विलास को तअस्सुबी नहीं मानता। उर्दू के प्रति उनके मन में दुर्भावना तनिक भी नहीं। हाँ, यह अवश्य कहा जा
सकता है कि उर्दू के हिमायती आंदोलनकारियों की हिंदी के प्रति हिकारत-भरी नजर से चिढ़ते अवश्य रहे और रामविलास जब चिढ़ते हैं तो चिढ़ाने वाले की नाक पिच्ची
किए बिना उसे छोड़ते नहीं। हिंदी के प्रति उर्दू के हिमायतियों, काले साहबों और दूसरी भाषाओं के 'स्नाब स्कालरों' की बगैर पढ़ी-समझी अन्यायपूर्ण आलोचनाओं से
वे तड़प उठते हैं। सेर के जवाब में यदि वे सवा सेर फेंकते तो शायद इतने बदनाम कभी न होते, लेकिन सेर पर ढैया, पसेरी या दससेरा बटखरा खींच मारना रामविलास का
स्वभाव है। बैसवारे के लोग बड़े अक्खड़ और जबर्दस्त लट्ठमार होते है - विलास हैं तो आखिर ठेठ बैसवारे के ही।
सन 1938-39 के दिनों में ऑल इंडिया रेडियो की हिंदी-विरोधी नीति से मोर्चा लेने के लिए रायबहादुर पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने लखनऊ से आकाशवाणी नामक एक बुलेटिन
प्रकाशित करना प्रारंभ किया था। रामविलास उसके लिए नित्य प्रति अपनी ड्यूटी बाँधकर रेडियो सुनते और बुलेटिन के लिए मसाला बटोरते थे। इलाहाबाद के मासिक पत्र
तरुण में उनका और श्री रघुपति सहाय 'फिराक' का दंगल भी हुआ था। रामविलास ने फिराक साहब को उठाकर धोंय-धोंय पटका। जिस हिंदी की कमजोरियों के प्रति विलास स्वयं
कटु आलोचक रहे हैं, उनके लिए भी वे बाहरी आलोचकों का प्रहार नहीं सह पाते। आप उनकी मातृभाषा की अगर एक कमजोरी दिखलाएँगे तो जब तक वह आपकी मातृभाषा या अपनाई हुई
भाषा की एक दर्जन कमजोरियाँ न दिखला लेंगे तब तक उनको चैन नहीं पड़ सकता। यहाँ रामविलास सीधे लठैत हो जाते हैं। उन्हें यह भी परवाह नहीं रहती कि वह न्याय कर
रहे हैं अथवा अन्याय। रामविलास अपने विरोधियों को स्वपक्ष में पड़ने का प्रयत्न कभी नहीं करते। सत्य और न्याय ऐसे अवसरों पर उनके हाथ में तलवार बनकर आता है
जिसके द्वारा अपने विरोधी की हत्या किए बगैर वो रुक ही नहीं सकते।
सन 1939 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन काशी में हुआ था। हिंदी-हिंदुस्तानी वाली बहस की दृष्टि से यह सम्मेलन अत्यंत महत्वपूर्ण था। डॉ.
राजेंद्रप्रसाद सम्मेलन के अध्यक्ष-पद से विदा ले रहे थे और संपादकाचार्य पं. अंबिकाप्रसाद जी वाजपेयी नए अध्यक्ष चुने गए थे। इसी वर्ष निरालाजी को सम्मेलन
के अंतर्गत साहित्यिक परिषद का अध्यक्ष भी चुना गया था। लखनऊ से हम और रामविलास साथ ही साथ गए थे। हम दोनों ही यहाँ से यह तय करके चले थे कि अधिवेशन की एक बहुत
उम्दा रिपोर्ट तैयार की जाए। मैं इसी उद्देश्य से नोट्स तैयार कर रहा था। मेरी सहायता के लिए रामविलास ने भी कुछ नोट्स प्रस्तुत किए। चूँकि साहित्य परिषद्
के अध्यक्ष निरालाजी थे, इसलिए रामविलास को एक निबंध पढ़कर सुनाना था। वह निबंध लखनऊ में ही तैयार हो चुका था। मुझे यह विश्वास तो था कि वह अपना प्रभाव
डालेगा, मगर सभा में उसके कल्पनातीत जोरदार प्रभाव को देखकर मैं और स्वयं रामविलास भी दंग रह गए। सन 39 के अगस्त या सितंबर मास की माधुरी में मेरा लिखा वह
संस्मरण संपादकीय स्तंभ में गुमनाम तौर से प्रकाशित हुआ है। रामविलास से संबंधित उस संस्मरण की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ, ''साहित्य परिषद के
सभापति थे श्री सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और स्वागताध्यक्ष थे श्री रामचंद्र शुक्ल। ...निरालाजी के भाषण के बाद श्री रामविलास शर्मा अपना निबंध पढ़ने के
लिए खड़े हुए। माइक्रोफोन ऊँचा था। माननीय श्री पुरुषोत्तमदासजी टंडन ने कहा : 'निरालाजी को माइक्रोफोन के लिए झुकना पड़ता था।' शर्माजी ने तत्काल ही उत्तर
दिया : 'जहाँ निरालाजी झुके हैं वहाँ मैं सिर उठाऊँगा।' निरालाजी मुस्कराकर टंडनजी से कहने लगे, 'देखिए ये आधुनिक साहित्य के प्रतिनिधि हैं।''
साधारण खद्दर के कुरते में चमकते हुए कसरती बदन, सौम्य मुखमंडल और जोरदार आवाज में शर्माजी के तर्कयुक्त विद्वतापूर्ण निबंध ने जान डाल दी। साहित्य
सम्मेलन-भर में और कोई भी इतना ओजस्वी भाषण नहीं हुआ। जनता उत्साह से बार-बार करतल ध्वनी करती थी। तदुपरांत... सर्वोदय संपादक महात्मा गांधी के प्रिय
शिष्य, काका कालेलकर के भाषण से यह साफ टपक रहा था कि वे रामविलास शर्मा के भाषण का उत्तर देने के लिए खड़े हुए हैं। उनके भाषण में असफल खीझ काफी मात्रा में
थी।
उक्त निबंध ने रामविलास को सम्मेलन का हीरो बना दिया। हम नौजवान तो खुश थे ही, हिंदी परिवार के बड़े-बूढ़े भी उनसे खूब संतुष्ट और बेहद प्रसन्न थे। वहाँ ही
मैंने पहली बार गौर से यह देखा कि निरालाजी रामविलास की सफलता को ठीक उसी प्रकार मौन आनंद से ग्रहण करते हैं जैसे कोई बाप अपने बेटे की सफलता को सकारता है। बाद
में तो प्रायः प्रतिदिन मैं अपनी 'नई खोज' के प्रमाण पाता रहा।
रामविलास के प्रति निरालाजी का प्रेम अबाध और अगाध था। बहुतों को शायद यह बात अटपटी-सी मालूम होगी पर यह हकीकत है कि निरालाजी को यदि मैंने किसी के सामने झुकते
देखा है तो रामविलास के सामने ही। मेरी यह आदत थी कि निरालाजी जब गर्माने लगते थे तो मैं उनसे बहसबाजी करना बंद कर देता था। इससे निरालाजी और भी अधिक
हुमस-हुमसकर गर्जा करते थे, मगर मुझे निरुत्तर पाकर थोड़ी देर में ही चुप हो जाया करते थे। रामविलास मेरी जैसी चुप्पी के कायल न थे, जहाँ निरालाजी ने
गर्जन-तर्जन आरंभ किया नहीं कि रामविलास ने उन्हें और चकहाना शुरू कर दिया। विलास की टेकनीक यह रहती थी निरालाजी के उबाल पर ठंडे पानी के चुल्लू जैसा एक
छोटा-सा वाक्य फेंक देते थे। विरोध पाकर निरालाजी और उबलते, रामविलास फिर एक फुलझड़ी छोड़ देते। निरालाजी फिर तो जी खोलकर अपने लंबे-लंबे बालों और यूनानी
देवताओं जैसे शरीर को बार-बार झटका दे-देकर बबर शेर की तरह दहाड़ने लगते। रामविलास मौका साधने लगते, जहाँ निरालाजी के एक वाक्य के पूरा होने और दूसरे वाक्य की
उठान के बीच में जरा-सा भी थमाव आता, वहीं एक चुभता हुआ फिकरा अपने ठंडे स्वर में और छोड़ देते। बस फिर तो निरालाजी क्रोध से बावले हो उठते थे। अपने क्रोध के
लिए अपने अंदर कोई जोरदार तर्क न पाकर वह बेचारे उत्तर तो दे न पाते थे, हाँ हारे हुए पहलवान की तरह घूर-घूरकर रामविलास को देखते हुए वे बड़बड़ाने लगते थे।
रामविलास अपने स्वभाव से विवश हैं। बेतुकी बात सुनकर उनसे बगैर जवाब दिए रहा ही नहीं जाता।
सन 44 में रामविलास बंबई आए। उस समय तक वे प्रगतिशील आंदोलन से प्रभावित होकर बहुत हद तक मार्क्सवादी हो चुके थे। प्रगतिशील लेखक संघ से उनका निकट का संबंध
स्थापित करने वालों में मेरा ख्याल है सबसे बड़ा हाथ कविवर नरेंद्र शर्मा का था। नरेंद्रजी भी तब तक फिल्म-क्षेत्र से संबद्ध होकर बंबई आ बसे थे। हम तीनों का
वहाँ मिल जाना हम तीनों के लिए ही अत्यंत लाभप्रद हुआ। सन 42 के आंदोलन के बाद मेरा मन बहुत बिखर गया था। उस समय ऐसा लगता था कि राष्ट्रीय आंदोलन अब खत्म हो
गया। जेलों में कैद नेता अब लड़ाई चलने तक न छूटेंगे और लड़ाई कब तक खत्म होगी, यह उन दिनों कहा नहीं जा सकता था। रामविलास की नई उपलब्धि-मार्किस्ट विचारधारा
मुझे भी लुभाने लगी। हम लोग घंटों आपस में बातें करते। एक दिन शाम को घर लौटने पर बातों के प्रसंग में विलास ने मुझे बतलाया कि वे कम्युनिस्ट पार्टी के विधिवत
सदस्य बन गए हैं। सुनकर मेरे दिल को एकाएक धक्का लगा। किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य हो जाना मुझे चूँकि स्वयं अपने लिए पसंद नहीं आता था, इसलिए रामविलास का
यह काम मैं सराह नहीं सका। मैंने कहा, ''तुमने यह अच्छा नहीं किया। पोलिटिकल नेता अधिकतर साहित्य को बड़े ही हल्के तौर पर ग्रहण करता है।''
रामविलास बोले, ''कम्युनिस्ट पार्टी तुम्हारी कांग्रेस की तरह नहीं है भैये! यह मत भूलो कि लेनिन के साथ बराबरी से रूसी जनता का नेतृत्व करने वाला एक
साहित्यकार गोर्की भी था। यह मत भूलो कि स्वयं मार्क्स और एंगेल्स राजनीतिक नेता नहीं वरन विद्वान दार्शनिक थे। साहित्यिकों के लिए अगर किसी भी पार्टी में
महत्व का स्थान है तो कम्युनिस्ट पार्टी में ही।'' ''होगा'' सोचकर मैंने फिर उनसे बहस नहीं की। हाँ, इसके बाद मार्क्सवादी विचारधारा की पुस्तकों का गंभीर
अध्ययन मैंने अवश्य आरंभ कर दिया। रामविलास तेजी से पार्टी में आगे बढ़े, लेकिन जहाँ तक मैं जानता हूँ, उन्हें पार्टी की अंतरंगता में कभी भी प्रविष्ट नहीं
कराया गया। उनकी विद्वता अच्छे-अच्छों को अपने बस में कर लेती थी। सन 49 में रामविलास प्रगतिशील आंदोलन के प्रमुखतम नेता मान लिए गए और यहीं से उनके और पार्टी
के रिश्तों में अंतर पड़ना भी प्रारंभ हो गया। पोलिटिकल लीडरी में ऊँचा स्थान पाते ही लोग-बाग अपनी गद्दी को कायम रखने के लिए गुटबाजी के चक्र में पड़ जाते
हैं; अपना गुट बनाना, दूसरों के गुट तोड़ना हर लीडर का धर्म है। प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री डॉ. रामविलास शर्मा ऐसी लीडरी करने के आज भी सर्वथा अयोग्य
हैं, उस समय तो थे ही। वे निर्भीक विचारक और समालोचक की तरह दूसरे लोगों की कमजोरियों को टोक देते थे। यह टोक-टाक बहुतों को अंदर ही अंदर सहमा देती थी। अनेक
प्रसिद्ध मार्क्सवादी लेखक रामविलास की आलोचनाओं से आतंकित हो उठे। दबे-छिपे उनका विरोध होने लगा। कम्युनिस्ट पार्टी में श्री बी.टी. रणदिवे का सत्ताकाल
समाप्त हुआ और करीब-करीब उसके साथ ही साथ रामविलास की साहित्यिक लीडरी भी खत्म होने लगी। रामविलास अपने आलोचकों को बराबर मुँह-तोड़ जवाब देते रहे। प्रगतिशीलों
ने रामविलास पर यह आरोप लगाया कि उनकी आलोचनाओं के कारण ही साहित्य का प्रगतिशील आंदोलन चौपट हो रहा है। अनेक मार्क्सिस्ट या कम्युनिस्ट लेखक ही नहीं चिढ़े
वरन अनेक ऐसे लेखक, जो कहीं न कहीं पर विचार साम्य होने के कारण प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए थे, एकाएक बेहद नाराज हो उठे। बहाने के तौर पर पंतजी की
तत्कालीन नई कृतियों, स्वर्ण किरण आदि की रामविलास द्वारा की गई तीखी आलोचना इस विरोध के लिए तात्कालिक कारण बन गई। यहाँ तक भ्रम फैलाया गया कि रामविलास
चूँकि निराला-भक्त हैं, इसीलिए उन्होंने पंत पर प्रहार किए। मैं लोगों के इस तर्क को एक क्षण के लिए भी स्वीकार नहीं कर पाया। रामविलास निराला भक्त हैं, यह
सब जानते हैं, पर पंत के प्रति भी उनकी श्रद्धा किसी से कम नहीं, यह हम लोग जानते हैं। कविवर नरेंद्रजी की पंत-भक्ति रामविलास की निराला-भक्ति के समान ही एक लोक
विदित सत्य है। रामविलास, नरेंद्र और मैं - तीनों ही आपस में गहरे साथी हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि जब स्वयं नरेंद्र शर्मा को भी रामविलास के विरोध में पंत
के प्रति अश्रद्धाभाव रखने की बात पर आज तक विश्वास नहीं हो सका, तब औरों को ही क्यों होता?
रामविलास आलोचना के मामले में निस्पृह हैं। (आखिर असर तो बैसवारे का है ही।) आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीजी के भी यही तेवर थे। अपने से सदियों पुराने पुरखे
कालिदास से लेकर अपने समवर्ती लेखकों तक को उन्होंने न बख्शा। पूज्य द्विवेदीजी महाराज अपनी इस न्यायोन्मुखी आतंक मुद्रा के बावजूद अपनी सहृदयता के लिए भी
प्रसिद्धि पा गए, किंतु बहुत बाद में। में समझता हूँ कि 'घमंडी' डॉ. रामविलास शर्मा के संबंध में भी कभी न कभी यह लोक-प्रचलित गलतफहमी दूर होकर रहेगी। यों भी
इधर वर्षों से उन्होंने अपना समालोचकीय आतंकवाद बहुत-कुछ त्याग दिया है। उनके इस त्याग का पुण्य या पाप (जो कुछ भी समझा जाए) अधिकतर मुझे ही मिलना चाहिए। एक
बार शाम को भांग के नशे में मैंने रामविलास को बहुत गालियाँ दीं। रामविलास ठंडे-ठंडे सुनते रहे। उनको इस प्रकार गालियाँ देने का कारण मैंने चूँकि स्पष्ट नहीं
किया, इसलिए उन्होंने मेरे आवेश के क्षण बीत जाने के बाद मेरी ओर एक सिगरेट बढ़ाते हुए मुझसे पूछा, ''तू आखिर चाहता क्या है भैयो?''
मैंने कहा, ''केवल यही चाहता हूँ कि यह मुफ्त की ठाँय-ठाँय मोल लेना आज से छोड़ दो। तुम्हारी गली में कुत्ते भौंकते हैं और तुम अपना काम छोड़ हाथ में लाठी
लेकर उनके पीछे दौड़ पड़ते हो, यह भला कहाँ की अक्लमंदी है।''
रामविलास सिगरेट का कश खींचकर बोले, ''ठीक है, अब न करूँगा, लेकिन कुत्ते अगर मेरे घर में घुसें तब क्या करूँ?''
मैंने कहा, ''तब उन्हें हरगिज न बख्शना।'' रामविलास ने तब से अपनी यह लठाभारती प्रायः छोड़ ही दी है। यदि कोई उनसे किसी पर आलोचना प्रहार करने के लिए कहता है
तो कह देते हैं, ''भई, अमृत ने मुझे गली के कुत्तों से लड़ने को मना कर रखा है।'' रामविलास के इस तरह लाठी उठाकर रख देने का सुपरिणाम भी स्पष्ट है। उसके बाद
रामविलास ने सन सत्तावन की राज्यक्रांति तथा भाषा और समाज जैसी दो ठोस किताबें हिंदी में तथा उन्नीसवीं शताब्दी की अंग्रेजी कविता के संबंध में एक पुस्तक
अंग्रेजी भाषा में हमें दी है। इस समय भी वे निरालाजी और शेक्सपियर पर दो पुस्तकें क्रमशः हिंदी और अंग्रेजी में लिख रहे हैं। मैं समझता हूँ कि इस तरह उन पर
रोक लगाकर मैंने एक अच्छा काम ही किया है। बुराई महज इतनी ही नजर आती है कि लोग-बाग अब रामविलास को दंत-नखहीन सिंह समझकर उन्हें चिढ़ाने अथवा नजरअंदाज करने की
धृष्टता करने लगे हैं। ऐसे विचारशून्य दंभियों को यह हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि रामविलास ने उनके घर में घुस आने वाले कुत्तों को न मारने का वचन नहीं दिया।
अक्सर रामविलास के संबंध में मैंने लोगों को यह कहते हुए सुना है कि हाँss, डॉक्टर शर्मा विद्वान तो बड़े ऊँचे दर्जे के हैं, सज्जन भी है, बस उनमें खराबी है
तो यही कि वो कम्युनिस्ट हैं। यह सुनकर हँस पड़ने के सिवा और कुछ भी नहीं कहा जा सकता। जैसा कि मैं पहले लिख आया हूँ कि उनका कम्युनिस्ट पार्टी का मेंबर
होना स्वयं मुझे भी खला था, लेकिन खलने का कारण कुछ और था। शुरू में मुझे यह भय था कि मेरा डॉक्टर अब हिज मास्टर्स वायस बन जाएगा और पार्टी के काम में फँसकर
अपना व्यक्तित्व खो बैठेगा; परंतु ऐसा कुछ भी न हुआ। राजनीति से उनका गहरा लगाव है, लेकिन कोरे शास्त्रीय रूप में ही। कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसे स्वतंत्र
व्यक्तित्वशाली पुरुष को पचा नहीं सकती। पार्टी के ठेकेदारों ने उन्हें अपने अंदर घुलने-मिलने नहीं दिया। रामविलास भला अपनी ओर से यह प्रयत्न करते ही
क्यों? नतीजा यह हुआ कि रामविलास पार्टी के मेंबर हो जाने के बाबजूद वर्षों से पार्टी के बाहर ही हैं। उनके कम्युनिज्म को भी अब मैं ठंडे तौर पर खूब समझता
हूँ। रामविलास का बचपन गाँव में अपने पितामह की छत्रछाया में बीता। उन्होंने अपने गाँव में सामंती और महाजनी अनाचारों को देखा है। वे उन्हें आमूल नष्ट कर
देने के लिए ही अपनी कलम के बल पर जूझते हैं। रामविलास के बाबा-परबाबा और शायद उनसे भी पहले के पुरखे सिपाही थे। बचपन में अपने पितामह से उन्होंने शौर्य,
सच्चाई और ईमानदारी से संबंधित अनेक बातें सुनी थीं। उसका जोश उनके अंदर अब तक ज्यों का त्यों विद्यमान है। रामविलास का कम्युनिज्म मूलतः उनके बाबा की देन
है। रामविलास के बाबा स्वयं अपने पुत्र (रामविलास के पिता) से भी इसलिए असंतुष्ट थे कि उन्होंने एक साहूकार के यहाँ नौकरी कर ली थी। वे उन्हें बनिए का नौकर
कहकर संबोधित किया करते थे। उन्होंने रामविलास के मन में अपने पिता के मार्ग पर न चलने देने के लिए एक प्रबल प्रेरणा भर दी थी। नतीजा यह हुआ कि पढ़-लिखकर
रामविलास ठीक-ठीक उस तरह के 'भद्र बाबू साहब' न बन सके जैसे कि गाँव के लोग पढ़-लिखकर अक्सर बन जाया करते हैं।
रामविलास के मन से धरती की सोंधास कभी गई नहीं, वे आज तक उसकी महक से महकते हैं। मुझे बचपन ही से तुलसीकृत रामायण के प्रति गहरा लगाव है। सन 30 के बाद हिंदी
साहित्य में तेजी से बढ़ने वाली बुद्धिवादिता के जमाने ने मेरी सांस्कारिक आस्तिकता को गहरा झटका दिया था। उस झटके का उपकार मानता हूँ। ईश्वर या देवी-देवताओं
के प्रति हमारे मनों में भक्ति की जो अंधी दौड़ होती है उसे खत्म होना ही चाहिए। यह तो मेरा मन तब से ही मानने लगा था, किंतु यह बात मेरे गले के नीचे कभी उतर
ही न सकी कि प्राचीन धार्मिक-पौराणिक साहित्य पढ़ने योग्य ही नहीं है या उसमें अंधी श्रद्धा-भक्ति देने वाले कोरे राम-राम के सिवा और कुछ भी नहीं है। मेरे
समवर्ती सुशिक्षित साहित्यिक बंधु रामायण को ओछी दृष्टि से देखते थे। बहुतों की दृष्टि में तुलसीदास रघुवंशी राजा रामचंद्र के भाट मात्र थे। अपने पास उस समय
समाजवादी वैज्ञानिक चिंतन की बुद्धि कम थी। इसलिए जब युनिवर्सिटी में पढ़ने वाले प्रतिभाशाली छात्र श्री रामविलास शर्मा मुझे तुलसीदास की प्रशंसा करते हुए मिले
तो कह नहीं सकता मुझे कितना बड़ा बल मिला था। रामविलास जिस दृष्टिकोण से रामचरितमानस की महता बखानते थे, वह मुझे स्वयं अपना ही लगा। रामविलास एक ओर जहाँ
धार्मिक ढोंग-धतूरों के कट्टर विरोधी थे, वहाँ ही वे तत्संबंधी साहित्य का नए दृष्टिकोण से मूल्यांकन करते हुए उसके प्रगतिशील तत्वों को पहचानकर उन्हें
प्रतिष्ठा देते थे। उस समय तक तो वे मार्क्सिस्ट या कम्युनिस्ट भी न थे। मेरी रामविलास से घनिष्ठता का तब से लेकर आज तक एक जबर्दस्त कारण यह भी है। इसे
मेरा दंभ न माना जाए कि हम लोगों का दिमाग भाड़े का टट्टू नहीं, बल्कि अपना है। 'बाबा वाक्यम्प्रमाणम्' की तरह किसी भी बड़े आदमी की कही या लिखी हुई बात हम अंध
श्रद्धा-भक्ति से ज्यों की त्यों स्वीकार नहीं करते। हम दोनों ही अपनी धरती, अपने जन को अपने चिंतन में प्रतिक्षण साथ लेकर चलते हैं। हम अपने निष्कर्षों में
अक्सर गलत भी हो सकते हैं, यह माना; परंतु हम अपने साथ के और बाद वाली पीढ़ी के भी कोरे किताबी पंडितों से कहीं अधिक स्वस्थ व सच्चे हैं।
मेरी और रामविलास की एक आपसी कचोट शुरू से ही चली आती है। रामविलास की यह बड़ी तबीयत होती है कि वे उपन्यासकार और नाटककार के रूप में भी सफलता पा सकें, दूसरी
ओर मेरे मन को डॉ. अमृतलाल नागर बनने की चाह ने बहुत भरमा रखा है। अभी हाल में ही रामविलास के शेक्सपियर को जब मेरे अंदर वाले ड्रामा प्रोड्यूसर ने एक सहज तर्क
से आत्मसात कर लिया तो रामविलास दूसरे ही दिन से क्लासिक ग्रीक ट्रेजडी के ढंग का नाटक लिखने की धमकी देने लगे। उनकी इस धमकी से मैं भला क्या डरने वाला हूँ।
मैंने कहा, ''लिखो, मैं प्रोड्यूस करूँगा।'' और यह मैं जानता हूँ कि बच्चू रंगमंच के विधान में कहीं न कहीं बेतुकी चूक करेंगे ही और मैं दस बार उनसे लिखवाऊँगा।
इस मामले में मैं रामविलास से अधिक सयाना हूँ। 'ये कोठेवालियाँ' लिखने से पहले मेरे मन में बड़ा जोम था कि मैं उसे बिलकुल शास्त्रीय ढंग से लिखकर रामविलास की
डॉक्टरी को फीका कर दूँगा। अध्याय उसी ढंग से बनाए और लिखना भी आरंभ किया। दो-चार दिनों बाद ही मुझे अपने अंदर रामविलास का व्यंग्य-भरी फिसफिस हँसी वाला
चेहरा झाँकता दिखाई देने लगा। तुरंत सोचा कि मैं अपनी किताब में कहीं न कहीं रामविलास को अपनी कच्ची पकड़ें दे जाऊँगा। ये मुझे बर्दाश्त न था। तुरंत सोचा,
पंडित बनने के बजाय अपनी किस्सागोई का सहारा लेना ही उचित होगा और हम दोनों की यह आपसी छेड़ जब इस अधेड़ उम्र में भी हमारे मनों से न गई तो अब मरते दम तक न जा
सकेगी। बुरा नहीं, यह हम दोनों की ही जवानी है। इस के सहारे हम होड़ लगाकर आगे बढ़ते हैं। यही नहीं, हम दोनों एक-दूसरे के अत्यधिक तीखे आलोचक हैं। मैं कोई चीज
लिखूँ, उसे सारी दुनिया पसंद करे मगर यदि वह रामविलास के मन नहीं चढ़ सकी तो मेरे जी से भी उतर जाएगी। यही हाल रामविलास का भी है, चाहे जो कुछ भी लिखें उसके
वास्ते मेरी सराहना पाना उनके लिए अनिवार्य है। रामविलास की 'निराला' वाली पुस्तक उनके प्रकाशक से ले आया, क्योंकि वह मुझे पसंद नहीं थी। प्रकाशक को मेरी यह
हठधर्मी खल गई। उसकी नजर में एक किस्सागो एक चक्रवर्ती समालोचक विद्धान यानी डॉ. रामविलास शर्मा की पुस्तक को न छपने दे और वह भी खासतौर पर निराला के संबंध
में उनकी लिखी हुई पुस्तक हो, वह बहुत ही अजब और बेजा बात थी। मैं वह पांडुलिपि अपने साथ आगरा ले आया। मैंने अपनी शिकायतें उनके समाने रखीं। किताब नए सिरे से
लिखी गई। सुबह रामविलास ढाई-तीन घंटे बोलते थे, मैं लिखता था। बीच-बीच में बहसें भी हो जाती थीं। इस तरह महीने-डेढ़ महीने में वह पुस्तक फिर से तैयार हुई।
कितने ऐसे दोस्ते होंगे जो दोस्त का मन रखने के लिए इस तरह अपने लिखे दो-ढाई सौ पृष्ठों को काटकर अजसरे नौ उतने ही पृष्ठ फिर से लिखेंगे। अपने मित्रों,
भाइयों और बच्चों के प्रति रामविलास चेतन कर्तव्यनिष्ठ हैं। वे एक अच्छे पति, आदर्श शिक्षक, उम्दा पड़ोसी हैं, भले इनसान हैं। सादा रहन-सहन और ऊँचा चिंतन
उनका जन्मजात गुण है। अपना नया घर बन जाने पर वे अपने बच्चों के आग्रह और भाभी (श्रीमती शर्मा) की कृपा से अब जरा भद्र बाबु ओचित ढंग से रहना सीखे हैं।
रामविलास के संस्मरण लिखने को अभी बहुत जी नहीं चाहता। इसे भले ही मेरा खब्त समझ लिया जाए, मगर तमन्ना यही है कि मैं अपने दोस्तों के संस्मरण न लिखूँ और उन
सबको ही मेरे संस्मरण लिखने के लिए नियति मजबूर करे। रामविलास को अभी बहुत-बहुत जीना चाहिए। रामविलास के मन में अभी बीस अच्छी किताबों की योजना बड़े सुलझे और
साफ तरीके से सँजोई हुई मौजूद है और मेरी इच्छा है कि वह ये सब कुछ लिख जाएँ। रामविलास संपूर्ण जीवन का आचमन कर जाने की तड़प रखने वाले अथक साधक हैं। उनकी इसी
साधना पर तो मैं निसार हूँ।
उनकी एक कचोट और है, वे मुझसे ढाई साल बड़े हैं। वे और नरेंद्र शर्मा समवयस्क हैं। एक-सी घनिष्ठता होते हुए भी मैं नरेंद्रजी को 'आप' कहकर संबोधित करता हूँ और
डॉक्टर को तुम या तू कहकर। बात असल में यह है कि नरेंद्रजी से मेरी घनिष्ठता बाद में हुई, इसलिए उम्रोचित तकल्लुफ मैं उनके साथ सहजभाव से बरत गया जबकि
रामविलास के साथ मेरा यह खाता शुरू से ही न पड़ सका। मैं कई बार समझा चुका कि नरेंद्रजी के आप और तेरे तुम में कोई मौलिक भेद नहीं, पर क्या कहूँ, इतने बड़े
विद्वान को यह मामूली-सी बात भी आज तक समझ में नहीं आई। खींझकर अब मैंने यह तय किया जब रामविलास का षष्ठिपूर्ति समारोह होगा तब सार्वजनिक रूप से मैं उन्हें
अपना अग्रज मानकर उनके पैर छू लूँगा। लेकिन उसके बाद फिर वही गाली-गलौज और तू-तड़ाक, जस की तस। मेरे जीते जी उन्हें इससे मुक्ति मिल ही नहीं सकती।
(
डॉ. रामविलास शर्मा की षष्ठिपूर्ति के अवसर पर डॉ. नत्थनसिंह द्वारा संपादित अभिनंदनग्रंथ हेतु
1962
में लिखा गया संस्मरण
; '
जिनके साथ जैसा
'
में संकलित।)