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व्यंग्य

यदि मैं समालोचक होता

अमृतलाल नागर


संपादक जी,

इस सड़ी गर्मी में अपना तो क्‍या अमरीका और ब्रिटेन जैसे बड़े बड़ों का तेल निकल गया, महाराज। बरसात न होने के कारण हमारे अन्‍नमय कोष में महँगाई और चोरबाजारी के पत्‍थर पड़ रहे हैं, हम बड़े चिंताग्रस्‍त और दुखी हैं; पर यदि अपनी उदारता को पसारा देकर सोचें तो हम क्‍या और हमारा दुख भी क्‍या, क्‍या पिद्दी, क्‍या पिद्दी का शोरबा। अस्‍ली संकटग्रस्‍त और दुखी तो अंग्रेज अमरीकी कूटनीतिज्ञ राजनैतिक बेचारे महाजनगण हैं कि जिनकी आशाओं की बरसात नहीं हुई और जिनके प्राणमय कोश में इस समय केवल बगदाद पैक्‍ट की चिंदियाँ ही फरफरा रही हैं। हाय, ये क्‍या से क्‍या हो गया संपादक जी। अपि नियति नटी, अरी निष्‍ठुरे, तू बड़ी कठोर, बदमस्‍त और अल्‍हड़ है। न राजा भोज को पहचाने, न गँगुआ तेली को; अपनी मस्‍ती में समभाव से और बिना अवसर देखे ही तू जिस-तिस के मिजाज की मूँछें उखाड़ लेती है या सीधे किसी की छाती पर ही वज्र-प्रहार करती है। हमें गुसाई जी पर भी इस समय क्रोध आ रहा है जो ''हानि-लाभ जीवन-मरण यश-अपयश विधि हाथ'' सौंप गए। इन संतों को भावावेश में चट से शाप या वरदान दे डालने की अवैज्ञानिक आदत होती थी, इनके ज्ञानमय कोश में इतनी भी सामाजिक-राजनैतिक चेतना और दूरदर्शिता न थी कि तेल देखते, तेल की धार देखते। इसके अलावा अपने पुराने कवियों को भी हम क्‍या कहें, न जाने क्‍या देखकर नियति को नटी कह गए। यह नटी होती तो भला मौका चूकती! यह अवसर तो भवों, आँखों, होठों और गर्दन पर शोखी और भोलेपन के दोहरे डोरे डाल, नैन नचा, ठोकर मार, फिर चट से आँखों में घोर विस्‍मय का भाव ला ठोड़ी पर ऊँगली रखकर कहने का था : ''उई अल्‍लाह ये क्‍या हो गया?'' फिर दोनों की चोटें सहलाती हुई नियति नटी आँखों में आँसू भर चेहरे पर मासूमियत का भाव लाकर कहती : ''माफ करना डैडी, माफ करना अंकल, मैं तो नाच रही थी। हाय ये मुझसे क्‍या भूल हो गई!'' फिर टपाटप आँसू टपकाने लगती। नियति रानी को वर्ष का सर्वश्रेष्‍ठ अभिनय-पुरस्‍कार मिलता, हम दुखियारे भारतीयों को भाग्‍य से वर्षा मिलती : अनाज के भाव गिरते। फसल अच्‍छी न होने से हमारा करेला यों ही क्‍या कम कड़वा था कि ऊपर से महायुद्ध की नीम भी चढ़ने लगी। जाने कैसे और क्‍यों कर जी रहे हैं हम, ऊपर से ये लड़ाई की धमकी हो गई।

आज दोपहर में हम बैठकर घर में बैठे अखबार पढ़ रहे थे, बाहर गली में कई स्त्रियों की कौवारोर सुनाई पड़ने लगी। बाहर की छजली पर बैठे किसी व्‍यक्ति ने पूछा : ''अरे क्‍या हुआ री फूलो की माँ। किसकी टाँग पकड़ के खिंचवा रईए?''

''अरे कछू नईं, बु 'जो' दुकानदार है के नईं कंटोलबारौ, अब तुमीं इनसाफ करौ जी जिनके घर में लैन में कोई दिन भर ठाड़ो होनबारो न होय बु क्‍या करै...।''

सभी स्त्रियाँ, कुछ राह चलते पुरुष, गल्‍ले के बँटवारे पर टीका-टिप्‍पणी करने लगे। बहुत से अपने नौकर-चाकर तक लगाकर बहुत सारा अनाज जमा कर रहे हैं, और बहुत से अपने रोज का राशन भी नहीं ले पाते। दुकान अपना दिन का कोटा पूरा होते ही बंद हो जाती है। औरतें दुकानदार की नीयत पर पक्‍का संदेह प्रकट कर रही थीं, इसी पर फूलो की माँ ने तड़प कर कहा था कि दुकानदार की टाँग पकड़कर सड़क पर घसीट लेतीं और बेईमान को जूतियों-जूतियों पीटतीं। क्‍या समझे संपादक जी? बोलिए चौरासी घंटे वाले की जै।

आप मानें या न मानें, जब से भारतीय नारी को वोट का अधिकार मिल गया है तब से बज्र बेपढ़ी-लिखी औरतें भी अपने अधिकार के मामले में एकदम एम.ए.; एलएल.बी. हो गई हैं। कुछ ही महीने पहले हमने डेढ़ हत्‍था घूँघट काढ़े एक गली बुहारने वाली मेहतरानी को फटे जूते से अपने राह चलते आशिकेजार की किसी बुरी फब्‍ती पर बुरी तरह से ठुकम्‍मस करते देखा था। हमारे कहने का तात्‍पर्य यह है कि ''जयंती मंगला गौरी भद्रकाली कृपालिनी'' तक के हाथ में अब जूता उठ आया है, दीन बंधो - और उन्‍हें खाने का ठेका कुछ अकेले दिलफेंकुवों ने ही नहीं लिया, लेभगुवे, चोरबाजारिए, रिश्‍वतिए सभी उनकी जूतियों के तुफैल से अब होशो-अकल पाएँगे। जनता जाग गई है संपादक जी!

लेकिन यहीं हमारे मन में एक और शंका भी आती है। जाग कर ढेर सारा ऊधम मचा कर भी हमारे जन-जनार्दन कहीं नीम से गिरकर बबूल में न अटक जाएँ।

सात-आठ रोज पहले हम सोवियत संघ रूस की राजधानी मास्‍को की सैर कर रहे थे। मास्‍को दुनिया भर के कम्‍युनिस्‍टों की मक्‍का है, हम समझते थे कि कम से कम वहाँ तो अमीरी-गरीबी और एक सत्ताधिकार का नापाक तमाशा देखने को न मिलेगा। लेकिन वहाँ भी वही सब देखा। यह जरूर है कि वहाँ सबको रोटी अवश्‍य मिल जाती है, पर किसी को काली और किसी को लालमलाल मिलती है। वहाँ भी चोरबाजारी है, वहाँ के सरकारी अफसर हमारे सरकारी अफसरों के समान ही घमंडीमल मक्‍खनदास हजमकर एंड कंपनी प्राइवेट लिमिटेड हैं। वहाँ अकेली कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी का एक सत्‍ताधिकार है; कम्‍यूनिस्‍टों में भी जिसकी चल जाए वो मीर बाकी सब तीर की नोक पर रहते हैं। जिससे एंड कंपनी प्राइवेट लिमिटेड का स्‍वार्थरत मत न मिला उसी को अपने तहखाने में कचहरी लगा कर फाँसी की सजा सुना दी, दूसरे दिन अखबारों में लिख दिया कि साला देशद्रोही और गद्दार था।

ढाई दिन हम मास्‍को में थे संपादक जी, एक स्‍कूली मास्‍टर से गरही दोस्‍ती हो गई। उस बेचारे ने लोहे के पाइप की ढालने की एक उम्‍दा मशीन का नुस्खा ईजाद किया था। देश को ऐसी मशीन की सख्त जरूरत थी, पर एक महान वैज्ञानिक एंड कंपनी प्राइवेट लिमिटेड ने अपना एक सत्ताधिकारी एक टुटपुंजिए फिजिक्‍स मास्‍टर के नए आविष्‍कार द्वारा तबाह होते देखा, बस फिर क्‍या था, अफसरी तिकड़म की मशीन चालू हो गई। मास्‍टर बेचारे को जेल से सड़ा डाला, तहखाने में अदालत खोलकर उसकी मौत तक का सरोजाम कर डाला। यह तो कहिए किस्मतवर था बेच गया, बड़े जंगी जीवट का था, अपने अधिकार के लिए लड़ गया और जीत भी गया। हम सोचते हैं बहुत से अभागे और कमजोर साम्‍यवादी रूस में भी आए दिन पीस दिए जाते होंगे। उनमें से कुछ अवसरवादी मक्‍खनवादी बनकर अपने जीने की राह निकाल लेते होंगे। उनमें से कुछ अवसरवादी मक्‍खनवादी बनकर अपने जीते की राह निकाल लेते होंगे और बहुत से बेचारे मेरे मास्‍टर दोस्‍त के हमदर्द बूढ़े प्रोफेसर की तरह गरीबी और निराशा की माँग मे जलकर भस्‍म हो जो होंगे।

आप कहेंगे, "क्‍यों रे नायिका भेदी, तू रूस कब गया था जो वहाँ का रहस्‍य भेदी भी बन गया। सच-सच बता तू किस पार्टी का जासूस है?" ईमानकसम, हम गए थे संपादक जी। हमारी तरह से आप भी जा सकते हैं, या शायद हो भी आए हों - यानी सुलेखक दुदिनस्‍तेव के तरोताजा उपन्‍यास केवल रोटी ही नहीं के सहारे। अब यह कि किस पार्टी के हैं, सो पार्टियाँ तो दुनिया में ही बची हैं - एक नेता-अफसर एंड कंपनी प्राइवेट लिमिटेड और दूसरी जनता अनलिमिटेड। चाहे रूस-अमरीका हो, चाहे हिंदुस्‍तान-ब्रिटेन या कोई और देश-हर जगह यही दो पार्टियों बच रही हैं। इनको एक होना ही पड़ेगा। इसी में हमारी निष्‍ठा निहित है। यही हमारी आस्‍था है। रूसी उपन्‍यास के नायक मास्‍टर ने, तनिक से कोरिया और बित्ते बराबर लेबनान, ईराक ने, हमारी गली में गरजने वाली फूलों की माँ ने, हमें अदृश्‍य महासंगठन की शक्ति का अतुल बल दे रखा है। जन भोलानाथ को बहलाकर तरह-तरह के नशे पिलाकार अपने बस में रक्खा तो जा सकता है पर तभी तक जब तक कि वे जानकारी नहीं बन जाते; जान जाने पर वे प्रलयंकर हैं।

खैर जाने दीजिए, संपादक जी आप भी कहेंगे कि साहित्यिक मूड में यह कहाँ युद्ध और महँगाई और आस्‍था आदि का रस-भंगकारी पचड़ा लेकर बैठा गया। क्‍या करें संपादक जी, "दिल ही तो है न, संगोखिश्‍त ही तो है न, संगोखिश्‍त दर्द से भर न आए क्‍यों?" लड़ाई की खबर आते ही हमारे रोटी स्‍वकीया से परकीया हुई जा रही है, दवाओं की महँगाई का खयाल कर मृत्‍यु मुग्धा नायिका की तरह खड़ी दिखलाई देती है, वस्‍त्र शठनायक की तरह अभी से अँगूठा दिखाने लगे, दूसरी ओर सर्वोपरि रसों की अधिष्‍ठात्री प्रकृति परमेश्‍वरी-फूलों की माँ का टाँग घसीटन जूती मार सिद्धांत हमें साक्षात कालपुरुष के दर्शन करा रहा है।

टाईम्‍स आफ इंडिया की खबर है कि अमरीकी सेनानायक भी इस समय युद्ध नहीं चाहते, केवल दो सत्ताधीशों के हुकूम से फौजी लेबनान गई हैं... बाई द वे, लेबनान कौन-सा रस है संपादक जी?

दुदिनस्‍तेव के 'नाट बाइ ब्रेड एलोन' की खबर है कि लगभग एक शताब्दी से अपने अधिकारों की बात सुनते-सुनते, अड़तीस वर्षों में उनके लिए नेताओं की आज्ञानुसार संयम बरत कर सामान्‍य रूसी जन अब तैयार हो चुका है। अब वह नेता गुटबाज, साहित्यिक, वैज्ञानिक अथवा अफसर गुटबाज के किसी शिकंजे में अधिक नहीं फँस पाएगा। हिंदुस्‍तान, मिस्र, ईराक, अमरीका कहाँ तक नाम गिनाएँ, धरती का यही रंग है। व्यक्ति कहता है कि हम बहुमत को, समाज को मानते हैं। हम उमर और ज्ञान छोटे बड़े का मान करना भी मानते हैं और अच्‍छा समझते हैं, हमें ओहदों की कद्र भी मालूम है, नेता और गुरुजन का पूज्‍य स्‍थान भी हमारी दृष्टि में है - और यह तब तक भरपूर रहेगी दिनोंदिन बढ़ेगा जब तक कि हमारी रोटी और रचनात्‍मक बुद्धि की कसौटी पर हमारी प्रगति करने का अधिकार सुरक्षित होगा। अब बड़ी से बड़ी या छोटी एंड कंपनी प्राइवेट लिमिटेड यदि अपने स्‍वार्थ या दंभ में हमारी छातियों पर पैर रक्खेगी तो कसम हक की संपादकजी, चाहे यह पृथ्‍वी नामक ग्रह बचे या जाए, हम चैन न लेंगे। अब तो हमें मालूम है कि - "सितारों से आगे जहाँ और भी है।"

गोकुलपुरा, आगरा

आपका

नागर नायिकाभेदी

( समालोचक , जून 1958)


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